यूनिवर्सिटी के तीन मुख़्य फ़रीज़े हैं। विद्वान की तरबियत करे, दूसरे ये कि इल्म का प्रोडक्शन करे और तीसरे ये कि विद्वान की तरबियत और इल्म के प्रोडक्शन को दिशा दे। दुनिया की यूनिवर्सिटियां विद्वान की तरबियत करती हैं, इल्म का प्रोडक्शन भी करती हैं लेकिन इस तीसरे फ़रीज़ें में लड़खड़ा जाती हैं। नतीजा क्या होता है? नतीजा ये होता है कि उनके इल्म की तरबियत, इल्म का प्रोडक्शन और विद्वान की तरबियत का प्रोडक्ट दुनिया ज़ायोनी और साम्राज्यवादी ताक़तों के हाथों का खिलौना बन जाता है। इस बारे में एक लेख पेश है।
ग़ज़ा पट्टी में ज़ायोनी हुकूमत के जुर्म से संबंधित ख़बरें रोज़ाना ही न्यूज़ चैनलों और अख़बारों में आती रहती हैं। इसी तरह ग़ज़ा का संकट टॉक शोज़, राजनैतिक समीक्षाओं और न्यूज़ डिबेट का दैनिक विषय बन गया है। इस सिलसिले में जो सबसे अहम सवाल पाए जाते हैं उनमें से एक, ग़ज़ा के मौजूदा संकट से बाहर निकलने और इस क्षेत्र में जारी भयानक क़त्ले आम और विध्वंसक गतिविधियों के अंत के रास्ते के बारे में है।
गिरफ़तारियां, उत्पीड़न, तफ़तीश, अस्पताल के भीतर लोगों का क़त्ल, लाशों को बाहर ले जाने पर पाबंदी, अस्पतालों में सहायता आने पर रोक, मेडिकल स्टाफ़ पर सीधी फ़ायरिंग, अस्पतालों की दीवारों को विस्फोटकों से उड़ा देना, क़ब्रों से लाशों को बाहर घसीटना और फिर उन्हें बुल्डोज़रों से कुचल देना ज़ायोनियों के वर्तमान वहशीपन के नमूने हैं।
इस्लामी इंक़ेलाब के नेता आयतुल्लाह ख़ामेनेई ने 20 मार्च 2024 को नौरोज़ की तक़रीर में ग़ज़ा के विषय पर बात करते हुए ज़ायोनी हुकूमत की हालत इन लफ़्ज़ों में बयान कीः “ग़ज़ा के वाक़यात में पता चला कि ज़ायोनी हुकूमत न सिर्फ़ अपनी रक्षा के सिलसिले में संकट का शिकार है बल्कि संकट से बाहर निकलने में भी उसे संकट का सामना है। ग़ज़ा में ज़ायोनी हुकूमत के दाख़िल होने से उसके लिए एक दलदल पैदा हो गया। अब अगर वो ग़ज़ा से बाहर निकले तो भी हारी हुयी है और बाहर न निकले तब भी हारी हुयी मानी जाएगी।”
एक दूल्हा दुल्हन की नई ज़िन्दगी शुरू हुयी, इश्क़ व मोहब्बत से भरी, ज़िंदगी में आगे बढ़ने व तरक़्क़ी करने की चाह के साथ, लेकिन ग़ज़ा की दुल्हनों के लिए स्थिति अलग तरह की है। किसी माँ के लिए एक नवज़ात के जन्म के आग़ाज़ के क्षण उसकी ज़िंदगी के सबसे ख़ूबसूरत लम्हे होते हैं। ऐसे लम्हें जो इंतेज़ार की लंबी घड़ियों के अंत और उम्मीद और इश्क़ से भरी ज़िंदगी शुरू होने की ख़ुशख़बरी देते हैं। लेकिन ग़ज़ा की माँओं के लिए स्थिति अलग तरह की है। ज़रा कलपना कीजिए एक परिवार के लोग इकट्ठा हैं, बच्चे आस पास खेल में मसरूफ़ हैं और माँ बाप खाना तैयार करने में लगे हैं। खाना तैयार है। माँ बच्चों को आवाज़ देती है कि खाने के लिए आएं, कितना मीठा अनुभव है ये। लेकिन ग़ज़ा की माँओं के लिए स्थिति अलग तरह की है।
आयतुल्लाह ख़ामेनेई अपनी पत्नी के बारे में: "उन्होंने मुझसे कभी भी लेबास ख़रीदने के लिए नहीं कहा। उन्होंने कभी अपने लिए कोई ज़ेवर नहीं ख़रीदा। उनके पास कुछ ज़ेवर थे जो वो अपने पिता के घर से लायी थीं या कुछ रिश्तेदारों ने तोहफ़े में दिए थे। उन्होंने वो सारे ज़ेवर बेच दिए और उससे मिलने वाले पैसों को अल्लाह की राह में ख़र्च कर दिया। इस वक़्त उनके पास सोना और ज़ेवर के नाम पर कुछ भी नहीं है, यहाँ तक कि एक मामूली सी अंगूठी भी नहीं है।" सैयद हसन नसरुल्लाहः “जब यह किताब मेरे पास पहुंची तो मैंने उसी रात इसे पढ़ डाला।”
सन 2023 ऐसी स्थिति में ख़त्म हुआ कि क़ाबिज़ ज़ायोनियों के ज़ुल्म व अपराध के सामने फ़िलिस्तीनी मुजाहिदों की बहादुरी और ग़ज़ा की औरतों और बच्चों की दृढ़ता दिन प्रतिदिन बढ़ती रही और नए साल में भी जारी है। इस दौरान ज़ायोनी शासन के ख़िलाफ़ एक नया मोर्चा खुल गया है जिससे न सिर्फ़ यह कि इस शासन की विश्व स्तर पर साख पहले से ज़्यादा कलंकित हुयी बल्कि उस पर भारी आर्थिक बोझ भी पड़ा है।
हालिया बरसों में इस्लामी इंक़ेलाब के नेता की ओर से तथ्यों को बयान करने के जेहाद पर लगातार बल दिया जाना, इस विषय की अहमियत को दर्शाता है जो आज इस्लामी इंक़ेलाब की अहम बहसों में तबदील हो चुका है।
पिछले कुछ दशकों के दौरान अंतर्राष्ट्रीय संगठनों और क़ानून की जानकार सोसायटी के सामने जो एक बड़ी चुनौती रही है वो शांति और जंग के मुख़्तलिफ़ हालात में मीडिया कर्मियों की सुरक्षा की है। अगरचे बीसवीं सदी के आरंभिक बरसों में जंग के हालात में क़ैदी रिपोर्टरों के सपोर्ट में हेग के सन 1907 के कन्वेन्शन जैसे अंतर्राष्ट्रीय क़ानून बनाए गए लेकिन इस सदी के दूसरे भाग में रिपोर्टरों के काम के क़ानूनी पहलू पर ख़ास ध्यान दिया गया। इस सिलसिले में जनेवा के चार पक्षीय 1977 के पहले अडिश्नल प्रोटोकॉल का उल्लेख किया जा सकता है जिसमें रिपोर्टिंग की शब्दावली में, जिसे अडिश्नल प्रोटोकॉल में इस्तेमाल किया गया है, उन सभी लोगों को शामिल किया गया है जो मीडिया से जुड़े हुए हैं कि जिनमें रिपोर्टर, कैमरामेन, वॉइस टेक्निशियन वग़ैरह शामिल हैं। इस प्रोटोकॉल के मुताबिक़, जंग के इलाक़ों में ख़तरनाक पेशावराना काम करने वाले रिपोर्टरों की आम नागरिकों की हैसियत से हिमायत की गयी है और उन्हें वो सारे अधिकार दिए गए हैं जो आम नागरिकों को दिए जाते हैं, अलबत्ता इस शर्त के साथ कि वो कोई ऐसा काम न करें जो आम नागरिक की हैसियत से उनकी पोज़ीशन से टकराता हो। दूसरी ओर यूएनओ की सेक्युरिटी काउंसिल ने सन 2006 के प्रस्ताव नंबर 1674 और सन 2009 के प्रस्ताव नंबर 1894 को मंज़ूरी दी जिनका मक़सद झड़पों में आम नागरिकों की हिमायत है और इसी तरह उसने रिपोर्टरों और मीडिया कर्मियों की हिमायत में सन 2006 में प्रस्ताव नंबर 1738 को पास किया। सन 2015 में मंज़ूर होने वाला प्रस्ताव नंबर 2222 भी झड़प और जंग के हालात में रिपोर्टरों सहित मीडिया कर्मियों की रक्षा पर बल देता है और रिपोर्टरों के काम को जातीय सफ़ाए के बारे में सचेत करने वाला एक मेकनिज़्म बताता है।
इसके बावजूद, लड़ने वाले पक्षों द्वारा रिपोर्टरों की जान की रक्षा किए जाने पर अंतर्राष्ट्रीय संगठनों और क़ानूनी संगठनों द्वारा बल दिए जाने के बरख़िलाफ़, सन 2002 से लेकर सन 2003 तक रिपोर्टरों के ख़िलाफ़ हिंसक व्यवहार अपनाया गया। इस बीच सन 2023 के आंकड़ों पर दो पहलुओं से ध्यान दिए जाने की ज़रूरत हैः पहला पहलु पिछले बरसों की तुलना में हिंसा के आंकड़े इज़ाफ़ा दिखाते हैं, जैसा कि ग़ज़ा जंग में कुछ महीनों में मारे जाने वाले मीडिया कर्मियों की तादाद सन 2002 और सन 2003 में मारे जाने वाले रिपोर्टरों से भी ज़्यादा है। दूसरा पहलू, आंकड़े के मुताबिक़ मारे गए सभी रिपोर्टर जंग के एक ही पक्ष के हाथों ही मारे गए हैं।
“ग़ज़ा के संबंध में भविष्यवाणियां पूरी तरह सही साबित हो रही हैं। शुरू से ही हालात पर नज़र रखने वालों ने यहां भी और दूसरी जगहों पर भी यह भविष्यवाणी की थी कि इस मसले में फ़िलिस्तीन का रेज़िस्टेंस फ़्रंट फ़ातेह होगा। इस जंग में हार, दुष्ट व मनहूस ज़ायोनी फ़ौज की होगी। ज़ायोनी फ़ौज क़रीब 100 दिन से जारी अपराध के बाद भी अपना कोई भी लक्ष्य हासिल नहीं कर सकी है। उसने कहा कि हमास को ख़त्म कर देंगे, न कर सकी। उसने कहा कि ग़ज़ा के लोगों का कहीं और पलायन करा देंगे, वो न कर सकी। उसने कहा कि रेज़िस्टेंस फ़्रंट के हमले रुकवा देंगे, वो यह भी न कर सकी।”
यह 9 जनवरी को इस्लामी इंक़ेलाब के नेता की स्पीच का एक हिस्सा है जिसमें उन्होंने ग़जा पट्टी में अपने लक्ष्य को हासिल करने में ज़ायोनी फ़ौज की नाकामी की ओर इशारा किया। अब जबकि ग़ज़ा पट्टी पर ज़ायोनी फ़ौज के हमले को 100 दिन से ज़्यादा हो गए हैं, अपने इन लक्ष्यों को हासिल करने में तेल अबीब की नाकामी पहले से कहीं ज़्यादा उजागर हो गयी है, जिन्हें हासिल करने का उसने प्रण किया था।
रहबरे इंक़ेलाब आयतुल्लाह ख़ामेनेई ने 23 दिसंबर सन 2023 को ख़ूज़िस्तान और किरमान प्रांतों के अवाम से मुलाक़ात में ग़ज़ा के अवाम के रेज़िस्टेंस व दृढ़ता की तारीफ़ करते हुए कहाः "ग़ज़ा का वाक़ेया फ़िलिस्तीनी अवाम और फ़िलिस्तीनी मुजाहिदों के पहलू से भी बेनज़ीर है क्योंकि ऐसा रेज़िस्टेंस, सब्र, दृढ़ता और दुश्मन को इस तरह बदहवास कर देना कभी देखा नहीं गया। ग़ज़ा के अवाम पहाड़ की तरह डटे हुए हैं। खाना, पानी, दवाएं और ईंधन नहीं पहुंच रहा है लेकिन वे डटे हुए हैं और झुक नहीं रहे हैं। यही घुटने न टेकना उन्हें फ़ातेह बनाएगा।" "बेशक अल्लाह सब्र करने वालों के साथ है।" (सूरए अनफ़ाल, आयत-46) फ़िलिस्तीनी अवाम का यह सब्र, जंग के आग़ाज़ के दिनों से ही देखने के लायक़ था और इस वक़्त ध्यान का केन्द्र बन चुका है।
अपने ऑप्रेश्नल और टैक्टिकल गोल में से किसी एक को भी हासिल न कर पाने की वजह से हताश, ज़ायोनी शासन एक बार फिर फ़िलिस्तीनी नागरिकों पर अपनी खीझ निकाल रहा है, सौरभ कुमार शाही के क़लम से।
आज से कुछ महीने पहले शायद ही कोई यह सोच सकता था कि अमरीकी सरकार की एक सबसे बड़ी चिंता व मुश्किल विदेश नीति का विषय होगा। क्योंकि कभी भी संयुक्त राज्य अमरीका में चुनाव पर अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों का बहुत ज़्यादा असर नहीं होता और वो इस मुल्क के राष्ट्रपति की लोकप्रियता को प्रभावित करने की बहुत ज़्यादा क्षमता नहीं रखते।
डॉक्टर अब्बास मूसवी, पाकिस्तान
इतिहास गवाह है कि ज़ालिम ने हमेशा तरह तरह के ज़ुल्म के ज़रिए पीड़ित इंसानों पर क़ाबू पाने की कोशिश की ताकि हमेशा के लिए अपना वर्चस्व क़ायम रख सके। लेकिन नतीजा इसके बरख़िलाफ़ ज़ाहिर हुआ। फ़िरऔनों से लेकर यज़ीदों तक सब के सब मूसा और हुसैन जैसों के सामने मिट गए और मज़लूमों ने अस्थायी कठिनाइयों के मुक़ाबले में दृढ़ता दिखाकर साम्राज्यवादियों पर फ़तह हासिल की।
सीरिया के फ़ूआ और कफ़रिया इलाक़े की एक माँ-बेटी, मोहर्रम के दिनों में ईरान के टीवी चैनल-3 के मोअल्ला प्रोग्राम में शरीक हुईं। मां ने यह आरज़ू ज़ाहिर की थी कि उनकी गुमशुदा बेटियां मिल जाएं और आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई से उनकी मुलाक़ात हो जाए।
16 अगस्त 2023 को दोनों ने, टीवी प्रोग्राम की टीम के साथ इस्लामी इंक़ेलाब के नेता से मुलाक़ात की।
वेबसाइट KHAMENEI.IR इस संबंध में फ़ूआ और कफ़रिया में आतंकवादी क़ैदियों और उस इलाक़े में नाकाबंदी में घिरे लोगों के तबादले के दिन होने वाली भयानक घटना के बारे में एक संक्षिप्त रिपोर्ट पेश कर रही है।
फ़िलिस्तीन और हालिया महीनों में वहाँ होने वाली घटनाएं पूरी दुनिया में मीडिया और अवाम के ख़ास ध्यान का केन्द्र बनी हुयी हैं। एक ओर ग़ज़्ज़ा की लड़ाई और वेस्ट बैंक की घटनाएं घटीं तो दूसरी ओर ज़ायोनी शासन के भीतर विरोध प्रदर्शन और अफ़रातफ़री की लहर देखने को मिली। ये सब चीज़ें और निशानियां फ़िलिस्तीन के राजनैतिक मंच पर हालात में बहुत बड़े बदलाव की निशानदेही करती हैं।
फ़ौजी संगठनों में ट्रेनिंग पाने और ऊंचे ओहदों तक पहुंचने वाले ज़्यादातर लोगों के पास, जो इस माहौल में पहुंचने से पहले जो भी नज़रिया और मेज़ाज रखते हों, फ़ौजी संगठन और माहौल में ख़ुद को ढालने के लिए अपने रवैये और नज़िरये को बदलने के अलावा कोई चारा नहीं होता।
सुप्रीम लीडर आयतुल्लाह ख़ामेनेई ने स्कूली बच्चों से मुलाक़ात में, अमरीका के पतन और तबाही की शुरुआत का ज़िक्र करते हुए कहा था कि “दुनिया के बहुत से एक्सपर्ट्स का मानना है कि अमरीका पतन और तबाही की ओर बढ़ रहा है, वह बूंद बूंद पिघल रहा है। यह बात हम नहीं कह रहे हालांकि हमारा भी यही ख़्याल है लेकिन पूरी दुनिया के एक्सपर्ट्स यह बात कह रहे हैं।” इस सिलसिले में KHAMENEI.IR वेब साइट ने अमरीका और इन्टरनेशनल अफ़ेयर्स के एक्सपर्ट जनाब हमीद रज़ा ग़ुलामज़ादे का एक आर्टिकल छापा है जिसमें अमरीका के चढ़ते और ढलते सूरज का जायज़ा लिया गया है।
ठीक तीन साल पहले इस्लामी इंक़ेलाब के सुप्रीम लडीर ने ग़ैर मामूली सलाहियत के मालिक नौजवानों से मुलाक़ात में कहा थाः ʺमुझे यक़ीन है कि आप नौजवान इतिहास और इस तरह की चीज़ों को ज़्यादा अहमियत नहीं देते। जो कुछ हुआ है, उसका हज़ारवां हिस्सा भी आपने बातों और प्रोपैगंडों में नहीं सुना है।ʺ यह बातें, जो हमारी तारीख़ में अंग्रेज़ों के क्राइम की तस्वीर पेश करती हैं, एक मोतबर राइटर ने बयान की हैं, एक इंक़ेलाबी व साम्राज्यवाद मुख़ालिफ़ इंसान, जवाहरलाल नेहरू।
तेहरान के मशहूर क़ब्रिस्तान, “बहिश्ते ज़हरा” को अपने दिमाग़ में लाएं, आप को एक बहुत बड़ा मैदान नज़र आएगा जहां कहीं-कहीं पेड़ भी हैं जो कब़्रों को छांव देते हैं।
अहमद मुतवस्सेलियान, ईरान पर सद्दाम शासन की ओर से थोपी गई आठ साल की जंग में मोहम्मद रसूलुल्लाह सत्ताईसवीं डिवीजन के कमांडर थे जो 4 जुलाई सन 1982 को लेबनान के त्राबलस से बैरूत जाते हुए रास्ते में ज़ायोनी शासन की साज़िश के तहत लेबनान की फ़्लान्जिस्ट पार्टी के छापामारों के हाथों अग़वा कर लिए गए थे।
परहेज़गार आलिमे दीन
आयतुल्लाह अलहाज सैयद जवाद ख़ामनेई आज़रबाईजान प्रांत के बहुत परहेज़गार व सादा जीवन गुज़ारने वाले आलिमे दीन थे। नजफ़े अशरफ़ में बरसों तालीम हासिल करने के बाद वह मशहद रवाना हुए और वहीं के होकर रह गए। इस मशहूर परहेज़गार आलिमे दीन के निधन के वक़्त मशहद में काफ़ी तादाद में श्रद्धालु मौजूद थे लेकिन 91 साल की उम्र और पचास साल तक इस्लामी ज्ञान की शिक्षा देने और तबलीग़ की सरगर्मियों तथा पेश नमाज़ के रूप में सेवा करने के बाद उनकी कुल संपत्ति मशहद में गरीबों के मुहल्ले में एक मामूली सा मकान और पैंतालीस हज़ार तूमान था।
बीसवीं सदी अमरीकी ख़्वाबों की दुनिया है, अमरीकियों का दावा था कि दुनिया उनकी उंगली पर नाचती है। इसी दावे के साथ ही 1991 में पूर्व सोवियत संघ के विघटन और दुनिया के एक ध्रुवीय हो जाने के बाद, भूतपूर्त अमरीकी राष्ट्रपति बुश सीनियर ने दुनिया में पुराना वर्ल्ड आर्डर ख़त्म होने की बात कही और बुद्धिजीवियों व राजनैतिक टीकाकारों ने भी अमरीकी चौधराहट और अमरीकी सदी के आग़ाज़ की भविष्यवाणी कर दी। सबने कहा कि अब दुनिया पर अमरीकी जीवन शैली और अमरीकी मूल्य छा जाएंगे।
आयतुल्लाहिल उज़मा खामेनेईः पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम की महान हस्ती, पैग़म्बरों और ख़ुदा के प्यारे बंदों की सूची में सबसे ऊपर है और हम मुसलमानों के लिए उनका अनुसरण अनिवार्य है। (12 मई 2000)
इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता आयतुल्लाहिल उज़मा सैयद अली ख़ामेनेई ने 3 अक्तूबर 2021 को इमाम हुसैन कैडिट कॉलेज में ईरानी सशस्त्र बलों की अकादमियों के कैडिट्स के ग्रेजुएशन के संयुक्त समारोह से वीडियो लिंक के माध्यम से संबोधन में ईरान के पश्चिमोत्तरी पड़ोसी देशों में जारी मामलों के बारे में कुछ अहम बातों का उल्लेख किया। KHAMENEI.IR ने इस संबंध में ईरान के पूर्व कूटनयिक मोहसिन पाक आईन के लिखे हुए एक लेख के माध्यम से देश की पश्चिमोत्तरी सीमाओं पर जारी समस्याओं का जायज़ा लिया है।
इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता आयतुल्लाहिल उज़मा सैयद अली ख़ामेनेई ने 11 मार्च 2021 को हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम की पैग़म्बरी की घोषणा की वर्षगांठ के मौक़े पर टीवी पर अपने संबोधन में यमन की मज़लूम जनता पर सऊदी अरब की बमबारी और इस ग़रीब देश के आर्थिक घेराव में अमरीकी सरकार की भागीदारी का ज़िक्र किया और इस बारे में संयुक्त राष्ट्र संघ के रवैये की कड़ी निंदा की।
इस्लामी एकता का विषय हमेशा से ईरान की इस्लामी क्रांति के नेता इमाम ख़ामेनेई की चिंताओं में से एक रहा है। इस विषय को उनकी बातों और व्यवहारिक क़दमों में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है, यहां तक कि शायद ही कभी ऐसा हुआ हो कि उन्होंने मुस्लिम समाज को संबोधित करते समय एकता के विषय पर ज़ोर न दिया हो। इस लेख में “इस्लामी एकता” के विषय पर इमाम ख़ामेनेई के बयानों की गहरी समीक्षा के माध्यम से इस विषय में उनकी नीतियों व रवैये को बयान करने की कोशिश की गई है।