डॉक्टर अब्बास मूसवी, पाकिस्तान
इतिहास गवाह है कि ज़ालिम ने हमेशा तरह तरह के ज़ुल्म के ज़रिए पीड़ित इंसानों पर क़ाबू पाने की कोशिश की ताकि हमेशा के लिए अपना वर्चस्व क़ायम रख सके। लेकिन नतीजा इसके बरख़िलाफ़ ज़ाहिर हुआ। फ़िरऔनों से लेकर यज़ीदों तक सब के सब मूसा और हुसैन जैसों के सामने मिट गए और मज़लूमों ने अस्थायी कठिनाइयों के मुक़ाबले में दृढ़ता दिखाकर साम्राज्यवादियों पर फ़तह हासिल की।
ज़ायोनियों के मुक़ाबले में फ़िलिस्तीनियों का लगातार संघर्ष भी इसी गिनती में आता है जिसने पिछले 75 साल के दौरान पीड़ितों के मुक़ाबले में साम्राज्यवादियों की साज़िशों के खोखलेपन को साबित किया है। ज़ायोनियों ने होलोकास्ट की झूठी कहानियों का प्रचार करके विश्व साम्राज्यवाद के सहयोग से क़ुद्स शरीफ़ और इस्लामी सरज़मीनों में घुसने की कोशिश की और ज़ायोनी शासन की इस साज़िश को इस्राईल के नाम पर लागू किया। इसी के तहत फ़िलिस्तीन की आधी से ज़्यादा आबादी को उनके घर और वतन से निकाला गया जिसकी वजह से उन्होंने दूसरे देशों में पनाह ली। बचे हुए फ़िलिस्तीनी, जो ग़ज़्ज़ा पट्टी और वेस्ट बैंक में बहुत ही दयनीय स्थिति में रह रहे हैं, हमेशा ज़ायोनी शासन के अपराधों के निशाने पर रहे हैं, लेकिन वे ज़ायोनियों के चंगुल से निकलने की कोशिश से एक लम्हा भी पीछे नहीं हटे।
विश्व साम्राज्यवाद का ज़ायोनी शासन को स्थापित करना और उसका सपोर्ट करना एक लक्ष्य नहीं बल्कि दुनिया के मज़लूम राष्ट्रों पर वर्चस्व क़ायम करने का एक साधन है। इस लक्ष्य के लिए साम्राज्यवादी साज़िशकर्ताओं ने ऐसे ऐसे ज़ुल्म किए कि पूरी इंसानी तारीख़ में इसकी मिसाल नहीं मिलती। ख़ास तौर पर पहली और दूसरी वर्ल्ड वॉर में साम्राज्यवादी ताक़तों की लूटखसोट पूरे चरम पर पहुंची, सन 1948 में ज़ायोनी शासन का गठन भी इसी लूटखसोट का नतीजा था। हालांकि अंत में साम्राज्यवादी ताक़तें मज़लूम क़ौमों के रेज़िस्टेंस के नतीजे में अपनी उपनिवेशी कालोनियों से निकलने पर मजबूर हुयीं लेकिन लूटमार पर आधारित अपनी साज़िशों को उन्होंने नियो साम्राज्यवाद या किसी और रूप में जारी रखा।
मज़लूम फ़िलिस्तीनी राष्ट्र हमेशा ज़ायोनी शासन के निर्दयी हमलों का निशाना बनता रहा और साथ ही पिछले 75 साल से नियो साम्राज्यवाद के तत्वों की ओर से कड़ी आर्थिक नाकाबंदी में घिरा रहा। इस चीज़ ने एक ओर विश्व साम्राज्यवाद के तत्वों की आपराधिक साज़िशों से पर्दा हटाया तो दूसरी ओर दुनिया के दूसरे मज़लूम व पीड़ित राष्ट्रों को विश्व साम्राज्यवाद के अभूतपूर्व ज़ुल्म के मुक़ाबले में स्वाभाविक जवाब देने के लिए तैयार किया।
सन 1979 में ईरान में इस्लामी इंक़ेलाब की कामयाबी के बाद यह बात जगज़ाहिर हो गयी कि आज भी रेज़िस्टेंस और दृढ़ता के सहारे 2500 साल पुराने शाही शासन की बुनियाद को, विश्व साम्राज्यवाद के निरंतर सपोर्ट के बावजूद हिलाया जा सकता है। इस सफल आंदोलन से प्रेरणा लेते हुए मुख़्तलिफ़ इलाक़ों में पीड़ितों का विश्वस्तरीय अभियान शुरू हुआ और बुत-शिकन इमाम ख़ुमैनी के निर्देशों का असर यह हुआ कि समकालीन दुनिया के वर्चस्ववादी अपराधी, दुनिया के पीड़ितों के आंदोलन के सामने पहली बार डिफ़ेन्सिव पोज़ीशन में आ गए। इमाम ख़ुमैनी के इंतेक़ाल के बाद, दुनिया के पीड़ितों ने, इस्लामी इंक़ेलाब के नेता आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई से विश्व साम्राज्यवाद के मुक़ाबले में आक्रामक रवैया अपनाना सीखा और उन्हें यह यक़ीन हो गया कि इज़्ज़त की ज़िन्दगी गुज़ारने के लिए सिर्फ़ एक रास्ता है और वह रेज़िस्टेंस है। इस्लामी इंक़ेलाब के नेता ने इसी परिप्रेक्ष्य में दुनिया के पीड़ितों व वंचितों के लिए यह बात स्पष्ट कर दी कि मार कर भाग निकलने का दौर गुज़र चुका, अगर दुश्मन मारेगा तो मार खाएगा, मुमकिन है चोट भी पहुंचाएं लेकिन वे ख़ुद भी कई गुना चोट खाएंग। यह वह हक़ीक़त है जिसे लेबनान के हिज़्बुल्लाह संगठन ने इस्लामी रेज़िस्टेंस के विचार पर भरोसा करते हुए साबित किया है। उसी ज़ायोनी शासन ने जिसके मन में ग्रेटर इस्राईल का सपना था, सन 2006 में 33 दिन की जंग में, जंग में महारत के लंबे चौड़े दावों के बावजूद, हिज़्बुल्लाह के मुट्ठी भर जियालों के सामने घुटने टेक दिए और इस्लामी रेज़िस्टेंस के जियालों ने दक्षिणी लेबनान को आज़ाद कराके दुनिया के सैन्य रणनीतिकारों के सारे कैल्कुलेशन उलट दिए।
सन 2011 में दुनिया के सभी ज़ालिमों ने हाथ मिलाते हुए सीरिया में बश्शार असद की क़ानूनी सरकार को गिराने के लिए पूरी ताक़त झोंक दी ताकि अपने पिट्ठु शासन को उनकी जगह ले आएं, लेकिन एक बार फिर इस्लामी रेज़िस्टेंस की आइडियालोजी ने एकध्रुवीय दुनिया के नेतृत्व का दावा करने वालों को उनके सरकारी और ग़ैर सरकारी बाज़ीगरों के साथ धूल चटा दी।
सन 2014 में विश्व साम्राज्यवाद के तत्वों ने बेशर्मी भरा क़दम उठाते हुए यमन के वंचित व मज़लूम अंसारुल्लाह आंदोलन (हूतियों) पर असमान जंग थोप दी लेकिन यहाँ भी इस्लामी रेज़िस्टेंस की आइडियालोजी ने दुश्मन को उसके किराए के बर्बर टट्टुओं के साथ धूल चटाई। ये धूल चटाने वाले जियाले, जो इस्लामी रेज़िस्टेंस के विचार से प्रेरित थे, यमन के आर्थिक लेहाज़ से बहुत ही पिछड़े वर्ग से थे और उन्होंने दुनिया की सबसे आधुनिक जंगी टेक्नॉलोजी को बौना साबित कर दिखाया।
हालिया समय में दाइश की बहुत ही संदिग्ध व रहस्यपूर्ण जंग ने सिर उठाया कि जिसमें धर्म को बहुत ही नकारात्मक यहाँ तक कि अमानवीय रूप में पेश किया गया। सीरिया और इराक़े में अभूतपूर्व सीमा तक आतंकवादी कृत्यों के साथ दाइश के तेज़ी से बढ़ने की वजह से इस्लामी जगत में गहरी चिंता पैदा हुयी और विश्व साम्राज्यवाद के अधीन मीडिया ने कोशिश की कि इस विचारधारा को विश्व सुरक्षा के लिए सबसे गंभीर ख़तरा दर्शाए और इस दिशा में दुनिया के 40 देशों पर आधारित एक गठबंधन बनने के बावजूद, दाइश के दमन के लिए प्रभावी क़दम नहीं उठाया जा सका। इस विचारधारा के आतंकी मूसिल को केन्द्र बनाते हुए इराक़ की आधी से ज़्यादा ज़मीन पर क़ब्ज़ा करने में कामयाब हुए। ऐसी चिंताजनक स्थिति में इस्लामी रेज़िस्टेंस इस बार हश्दुश्शाबी के रूप में ज़ाहिर हुआ और थोड़े ही समय में रहस्यमय संगठन दाइश का सिर कुचल दिया गया और व्यवहारिक तौर पर दुनिया को बता दिया गया कि अभूतपूर्व ज़ुल्म को पीड़ितों की ओर से हमेशा मुंहतोड़ जवाब मिलता है।
क़ाबिज़ व अपराधी ज़ायोनी शासन के ख़िलाफ़ फ़िलिस्तीन के जियालों के हालिया ऑप्रेशन को भी बेइन्तेहा ज़ुल्म पर एक ग़ैरतमंद क़ौम के स्वाभाविक जवाब के तौर पर देखना चाहिए। पूरब और पश्चिम के टीकाकार फ़िलिस्तीनी जियालों के इस साहसी ऑप्रेशन से हैरत में पड़ गए हैं क्योंकि उन्हें इसकी अपेक्षा नहीं थी। किसी को यक़ीन ही नहीं आता कि ग़ज़्ज़ा के पीड़ित अवाम जिन्हें ज़ायोनी शासन और विश्व साम्राज्यवाद के सरग़नाओं की ओर से कड़ी आर्थिक नाकाबंदी का सामना है, सिर से पैर तक हथियारों और दुनिया के सबसे आधुनिक सूचना व रक्षा तंत्र से लैस इस्राईल को दो घंटे से भी कम समय में धूल चटा देंगे। इस्लामी इंक़ेलाब के नेता के लफ़्ज़ों में फ़िलिस्तीनियों का बहादुरी के साथ साथ बलिदान के जज़्बे से भरा क़दम, क़ाबिज़ दुश्मन के अपराधों का जवाब है जो बरसों से जारी रहा और उसमें हालिया महीनों में तेज़ी आ गयी थी। इसके लिए ज़िम्मेदार ख़ुद ज़ायोनी शासन है। जैसा कि इस्लामी इंक़ेलाब के नेता ने इस बात का ज़िक्र किया कि दुनिया के सौ साल या इससे ज़्यादा पर आधारित हालिया इतिहास में जहां तक हमें इल्म है किसी भी मुस्लिम क़ौम को ऐसी दुश्मनी का सामना नहीं करना पड़ा जैसी दुश्मनी का आज फ़िलिस्तीनियों को सामना करना पड़ रहा है। ऐसी दुष्टता, घटियापन, निर्दयता और बर्बरता से भरी दुश्मनी किसी भी इस्लामी राष्ट्र व देश के सामने नहीं नहीं। आख़िराकर दुनिया में मज़लूमों के नेता आयतुल्लाह ख़ामेनेई ने क़ाबिज़ ज़ायोनी शासन के अभूतपूर्व अपराधों की ओर इशारा करते हुए कहा कि ग़ैरतमंद फ़िलिस्तीनी क़ौम इतने ज़ुल्म पर अपनी ओर से किस तरह का रिएक्शन दे? ज़ाहिर है कि तूफ़ान खड़ा करेगी कि ऐ ज़ालिम ज़ायोनियों तुम ख़ुद ज़िम्मेदार हो, अपने सिर पर यह मुसीबत तुम ने ख़ुद नाज़िल की है।
पश्चिमी मीडिया क़ाबिज़ ज़ायोनी शासन को मज़लूम दिखाने के लिए एकजुट हो गया लेकिन पूरब और पश्चिम के अवाम ने फ़िलिस्तीन के मज़लूम अवाम के समर्थन में अभूतपूर्व रैलियां निकाल कर साम्राज्यावादी सरकारों के घिनौने चेहरे को पहले से ज़्यादा बेनक़ाब कर दिया है। ज़ायोनी शासन के वजूद को बचाने की वैश्विक साज़िश के बावजूद, अब ऐसा लग रहा है कि इस शासन की आंतरिक व वैश्विक सतह पर ताक़त ख़त्म हो गयी और यह शासन दोनों ही सतह पर पतन की ओर बढ़ता नज़र आ रहा है। पिछले चार साल में ज़ायोनी शासन में अभूतपूर्व स्तर तक राजनैतिक व आर्थिक अस्थिरता की वजह से कोई भी सरकार कुछ महीने से ज़्यादा बाक़ी नहीं रह पायी और सेटलर्ज़ को भी अपने सपने बिखरते हुए नज़र आ रहे हैं जिन्हें झूठे वादों के सहारे मक़बूज़ा फ़िलिस्तीन लाया गया था। यही वजह है कि क़ाबिज़ शासन के तबाही के गढ़े से ज़ायोनियों के बाहर भागने की प्रक्रिया तेज़ हो गयी है, यहां तक कि आतंकवादी ज़ायोनी फ़ौजी भी बहुत से मोर्चों से भाग खड़े हुए हैं।
लेबनान, इराक़, यमन और सीरिया में इस्लामी रेज़िस्टेंस की कामयाबियों के मद्देनज़र अब फ़िलिस्तीन की पीड़ित जनता की निश्चित कामयाबी का अंदाज़ा लगाया जा सकता है। ख़ास तौर पर इसलिए भी कि क्षेत्र का इस्लामी रेज़िस्टेंस का मोर्चा पहले से ज़्यादा ताक़तवर हो गया है और वह फ़िलिस्तीन की ग़ैरतमंद व बहादुर जनता की हर तरह की मदद के लिए तैयार है। विश्व साम्राज्यवाद को अपने पिट्ठुओं के साथ, डगमगाते ज़ायोनी शासन की रक्षा और सपोर्ट में बड़ी बलाओं का सामना करना पड़ेगा क्योंकि बेइन्तेहा ज़ुल्म पर ग़ैरतमंद क़ौम हमेशा स्वाभाविक जवाब ज़रूर देती है।
* (लेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के अपने विचार हैं, Khamenei.ir का इससे सहमत होना ज़रूरी नहीं।)