पिछले कुछ दशकों के दौरान अंतर्राष्ट्रीय संगठनों और क़ानून की जानकार सोसायटी के सामने जो एक बड़ी चुनौती रही है वो शांति और जंग के मुख़्तलिफ़ हालात में मीडिया कर्मियों की सुरक्षा की है। अगरचे बीसवीं सदी के आरंभिक बरसों में जंग के हालात में क़ैदी रिपोर्टरों के सपोर्ट में हेग के सन 1907 के कन्वेन्शन जैसे अंतर्राष्ट्रीय क़ानून बनाए गए लेकिन इस सदी के दूसरे भाग में रिपोर्टरों के काम के क़ानूनी पहलू पर ख़ास ध्यान दिया गया। इस सिलसिले में जनेवा के चार पक्षीय 1977 के पहले अडिश्नल प्रोटोकॉल का उल्लेख किया जा सकता है जिसमें रिपोर्टिंग की शब्दावली में, जिसे अडिश्नल प्रोटोकॉल में इस्तेमाल किया गया है, उन सभी लोगों को शामिल किया गया है जो मीडिया से जुड़े हुए हैं कि जिनमें रिपोर्टर, कैमरामेन, वॉइस टेक्निशियन वग़ैरह शामिल हैं। इस प्रोटोकॉल के मुताबिक़, जंग के इलाक़ों में ख़तरनाक पेशावराना काम करने वाले रिपोर्टरों की आम नागरिकों की हैसियत से हिमायत की गयी है और उन्हें वो सारे अधिकार दिए गए हैं जो आम नागरिकों को दिए जाते हैं, अलबत्ता इस शर्त के साथ कि वो कोई ऐसा काम न करें जो आम नागरिक की हैसियत से उनकी पोज़ीशन से टकराता हो। दूसरी ओर यूएनओ की सेक्युरिटी काउंसिल ने सन 2006 के प्रस्ताव नंबर 1674 और सन 2009 के प्रस्ताव नंबर 1894 को मंज़ूरी दी जिनका मक़सद झड़पों में आम नागरिकों की हिमायत है और इसी तरह उसने रिपोर्टरों और मीडिया कर्मियों की हिमायत में सन 2006 में प्रस्ताव नंबर 1738 को पास किया। सन 2015 में मंज़ूर होने वाला प्रस्ताव नंबर 2222 भी झड़प और जंग के हालात में रिपोर्टरों सहित मीडिया कर्मियों की रक्षा पर बल देता है और रिपोर्टरों के काम को जातीय सफ़ाए के बारे में सचेत करने वाला एक मेकनिज़्म बताता है।
इसके बावजूद, लड़ने वाले पक्षों द्वारा रिपोर्टरों की जान की रक्षा किए जाने पर अंतर्राष्ट्रीय संगठनों और क़ानूनी संगठनों द्वारा बल दिए जाने के बरख़िलाफ़, सन 2002 से लेकर सन 2003 तक रिपोर्टरों के ख़िलाफ़ हिंसक व्यवहार अपनाया गया। इस बीच सन 2023 के आंकड़ों पर दो पहलुओं से ध्यान दिए जाने की ज़रूरत हैः पहला पहलु पिछले बरसों की तुलना में हिंसा के आंकड़े इज़ाफ़ा दिखाते हैं, जैसा कि ग़ज़ा जंग में कुछ महीनों में मारे जाने वाले मीडिया कर्मियों की तादाद सन 2002 और सन 2003 में मारे जाने वाले रिपोर्टरों से भी ज़्यादा है। दूसरा पहलू, आंकड़े के मुताबिक़ मारे गए सभी रिपोर्टर जंग के एक ही पक्ष के हाथों ही मारे गए हैं।
मीडिया कर्मियों के घरवालों से बदला
7 अक्तूबर को अलअक़्सा फ़्लड ऑप्रेशन के बहाने ग़ज़ा पर ज़ायोनी फ़ौज के हमले के बाद, इस फ़ौज की हिंसा और बर्बरता का निशाना, मीडिया कर्मी भी बने हैं, जैसा कि आंकड़ों के मुताबिक़, कुछ महीने से जारी इस जंग में मारे जाने वाले मीडिया कर्मियों की तादाद, पिछले कई बरसों से भी ज़्यादा है जिस पर क़ानून की माहिर सोसायटी और अंतर्राष्ट्रीय संगठनों ने कड़ा विरोध किया है। हम ग़ज़ा जंग के आरंभिक कुछ दिनों में ही मारे जाने वाले कुछ रिपोर्टरों और मीडिया कर्मियों के बारे में संक्षेप में बता रहे हैं।
8 अक्तूबर को ग़ज़ा के शैख़ इजलैन इलाक़े पर ज़ायोनी फ़ौज ने भीषण हमला किया जिसमें एक फ़्री लांस रिपोर्टर असद शमलख़ अपने घर के 9 सदस्यों के साथ शहीद हो गए।
दो दिन बाद (10 अक्तबूर को) मीडिया सोसायटी के लिए बहुत ही दुख का दिन था। ज़ायोनी फ़ौज के फ़ाइटर विमानों ने ग़ज़ा के रिम्ल इलाक़े में एक इमारत पर हमला किया जिसमें कई मीडिया दफ़्तर थे। इस हमले में 'अलख़म्सा' न्यूज़ वेबसाइट के चीफ़ एडिटर और 'ख़बर' न्यूज़ एजेंसी के कैमरामैन मोहम्मद सुब्ह शहीद हो गए। इसी तरह इस बिल्डिंग में मौजूद एक और रिपोर्टर हेशाम अन्नुवैजा भी बुरी तरह घायल हो गए और अगले दिन शहीद हो गए। 11 अक्तूबर को आज़ाद फ़ोटो जर्नलिस्ट मोहम्मद फ़ाएज़ अबू मतर भी ग़ज़ा पर ज़ायोनी फ़ाइटर जेट की बमबारी में अपने शहीद साथियों से जा मिले।
एक दिन बाद 12 अक्तूबर को 'सौतुल इसरा' के रिपोर्टर अहमद शहाब, जबालिया के इलाक़े में अपने घर में अपनी बीवी और तीन बच्चों के साथ ज़ायोनी फ़ौज की दरिंदगी का शिकार बन गए।
फ़्री लांस जर्नलिस्ट मोहतरमा सलाम मीमा 13 अक्तूबर को ज़ायोनी फ़ौज के हमलों की ज़द में आकर अपने शहीद सहकर्मियों से जा मिलीं और उनकी लाश को तीन दिन बाद बाहर निकाला जा सका। उस दिन 'रेडियो अलअक़्सा' के रिपोर्टर होसाम मुबारक और रोयटर्ज़ न्यूज़ एजेंसी के कैमरा मैन एसाम अब्दुल्लाह बैरूत में ग़ैर फ़ौजियों के ख़िलाफ़ ज़ायोनी फ़ौज के हमले में शहीद हो गए।
ध्यान देने वाला बिन्दु यह है कि ज़ायोनी फ़ौज के गोले सिर्फ़ रिपोर्टरों को ही निशाना नहीं बनाते हैं। इन 100 दिनों में मीडिया कर्मियों की एक बड़ी तादाद ने अपने घरवालों को भी खो दिया। कुछ केसेज़ पर ग़ौर करने से ज़ाहिर हो जाता है कि यह कोई संयोगवश घटना नहीं है बल्कि ज़ायोनी फ़ौज मीडिया कर्मियों के घरवालों की टार्गेट किलिंग के ज़रिए जातीय सफ़ाए के बारे में सचेत करने वाले मेकनिज़्म यानी मीडिया पर दोगुना दबाव डालना चाहती है। ग़ज़ा में अलजज़ीरा के रिपोर्टर वाएल अलदहदूह के घरवालों का क़त्ले आम इसकी साफ़ मिसाल है।
शहीद होने वाले मीडिया कर्मियों की तादाद
ग़ज़ा में शहीद होने वाले रिपोर्टरों की सिलसिले में मुख़्तलिफ़ आंकड़े मौजूद हैं। इसकी एक वजह 'रिपोर्टर्ज़ विदाउट बोर्डर्ज़' संगठन की ओर से रिपोर्टर की परिभाषा है क्योंकि इस संगठन ने कुछ मीडिया कर्मियों के मारे जाने को उनकी ड्यूटी से अलग बताया है। इसके बावजूद ग़ज़ा में सरकारी मीडिया विभाग ने शहीद होने वाले रिपोर्टरों की तादाद 117 बतायी है। ये तादाद 20 साल तक चलने वाली वितयनाम जंग में मारे जाने वाले मीडिया कर्मियों की तादाद से दुगुना है! इन 100 दिनों में मीडिया के 50 दफ़्तर भी बमबारी से तबाह हुए हैं।
दूसरी ओर 'रिपोर्टर्ज़ विदाउट बोर्डर्ज़' संगठन ने ग़ज़ा जंग में 81 रिपोर्टरों के मारे जाने का एलान करते हुए अपनी एक रिपोर्ट में इस्राईल के हमलों को प्रस्ताव नंबर 2222 की ख़िलाफ़वर्ज़ी क़रार दिया है और यूएनओ की सेक्युरिटी काउंसिल के नाम एक ख़त में उससे कहा है कि वो ग़ज़ा में रिपोर्टरों के क़त्लेआम का नोटिस ले। (1)
ग़ज़ा में मीडिया कर्मी, जंग के चश्मदीद गवाह और नाकाबंदी से घिरे इस छोटे से इलाक़े में दुनिया की आँख और कान हैं। मीडिया के लोगों का क़त्ल, इस अभूतपूर्व जंग में दिल दहला देने वाले दुख़द वाक़यों पर पर्दा डालने की एक सोची समझी व सुनियोजित कोशिश है।
अलबत्ता फ़िलिस्तीन में रिपोर्टरों को जानबूझ कर क़त्ल करना कोई नई बात नहीं है। मशहूर रिपोर्टर शीरिन अबू आक़ेला की शहादत, जिनके पास अमरीकी नागरिकता भी थी, इस सिलसिले में सबसे मशहूर केसों में से एक है। 'रिपोर्टर्ज़ विदाउट बोर्डर्ज़' संगठन ने रिपोर्टरों को जानबूझ कर क़त्ल करने की वजह से अब तक तीन बार अंतर्राष्ट्रीय फ़ौजदारी न्यायालय में ज़ायोनी शासन के ख़िलाफ़ मुक़दमा दायर किया है। हैरत की बात यह है कि तेल अबीब जिसके लिए इस मुक़दमे में ख़ुद को बचा पाना आसान नहीं है, ये दावा करते हुए कि फ़िलिस्तीन मुल्क नहीं है, इस सिलसिले में अपने जुर्म का जवाब देने के लिए तैयार नहीं हुआ।
हक़ीक़त में कहा जा सकता है कि ज़ायोनी सरकार चाहती है कि ग़ज़ा जंग के सिलसिले में दुनिया में वो तस्वीर पेश की जाए जो उसके मद्देनज़र है। वो ऐसी तस्वीर है जिसमें उसके जुर्म को तो सेंसर किया ही जाता है, साथ ही उसकी हार और जानी व माली नुक़सान को भी जहाँ तक मुमकिन हो छिपाया जाता है। कुछ अंतर्राष्ट्रीय मीडिया संगठनों को जिनमें सीएनएन, एबीसी, एनबीसी, न्यूयॉर्क टाइम्ज़ और फ़ॉक्स न्यूज़ जैसे चैनल और मीडिया ग्रुप्स शामिल हैं, उनको ज़ायोनी फ़ौज का साथ देने और ख़ास हालात को मानने की शर्त पर ग़ज़ा में जाने की इजाज़त दी जाती है। उन्हें ज़ायोनी फ़ौजी को साथ लिए बिना ग़ज़ा में कहीं भी जाने की इजाज़त नहीं होती और सभी लेख व वीडियो क्लिप्स को प्रसारित-प्रकाशित करने से पहले समीक्षा के लिए ज़ायोनी फ़ौज के पास भेजना पड़ता है।
ध्यान देने के क़ाबिल बात यह है कि बहुत कम ज़ायोनी मीडिया कर्मी भी जो किसी हद तक इस जंग की एक अलग तस्वीर पेश करने की कोशिश कर रहे हैं, बड़े दबाव में हैं, यहाँ तक कि उन पर शारीरिक हमले भी होते हैं। ग़ज़ा में मीडिया कर्मियों के बड़ी तादाद में क़त्ल से लेकर जंग की ख़बरों के सेंसर तथा ग़लत व झूठी ख़बरें और रिपोर्टें पेश करने तक इन सारी कोशिशों के बावजूद ज़ायोनी शासन विश्व जनमत के सामने बुरी तरह हार चुका है।
सोर्सः
• https://www.aa.com.tr/fr/info/infographie/37122
• https://cpj.org/2024/01/journalist-casualties-in-the-israel-gaza-conflict/
• https://www.aljazeera.com/news/2006/10/31/tariq-ayoub-remembered
• https://theintercept.com/2024/01/09/newspapers-israel-palestine-bias-new-york-times/
• https://rsf.org/sites/default/files/medias/file/2023/12/Bilan_2023_FR.pdf