सन 1956 में स्वेज नहर जंग पश्चिम एशिया और उत्तरी अफ़्रीक़ा के इलाक़े में अमरीका की दख़लअंदाज़ी के लिए एक अहम मोड़ साबित हुयी। जब मिस्र के राष्ट्रपति जमाल अब्दुन्नासिर ने पूर्व सोवियत संघ के सपोर्ट से वेस्ट एशिया में ब्रिटेन और फ़्रांस की ताक़त को कंट्रोल करने के लिए स्वेज़ नहर के राष्ट्रीयकरण का फ़ैसला किया तो उस वक़्त दुनिया की दो बड़ी ताक़तों के ज़रिए और ज़ायोनी सरकार के हस्तक्षेप से एक जंग हुयी जो इस इलाक़े में एक नए सिस्टम के सामने आने का सबब बनी।
पश्चिम के समकालीन इतिहास के एक भाग में योरोप और अमरीका के बड़े शहरों में सड़कें फ़िलिस्तीन के समर्थन में बड़े पैमाने पर प्रदर्शनों से भर गयीं जिसकी इतिहास में मिसाल नहीं मिलती। यह लहर सन 2023 में अक्तूबर महीने के मध्य में शुरू हुयी, जब लंदन में बड़े पैमाने पर प्रदर्शन से राजनेता और पर्यवेक्षक हैरत में पड़ गए। अलग अलग अंदाज़े थे- कुछ 1 लाख लोग कहते थे और कुछ 3 लाख- लेकिन कोई भी भीड़ के रूप में मौजूद उस विशाल फ़ोर्स का इंकार न कर सका जो फ़िलिस्तीन का परचम लिए हाइड पार्क से डाउनिंग स्ट्रीट तक मौजूद थी।
जब मैं हुसैनिया इमाम ख़ुमैनी पहुंचा तो शाम के साढ़े चार बज रहे थे। मग़रिब की नमाज़ में अभी लगभग दो घंटे बाक़ी थे। हालांकि, सफ़ों को व्यवस्थित रखने के लिए कपड़े की पट्टियां बिछा दी गई थीं, जो सजदे और खड़े होने की जगह को दर्शाती थीं। पहली सफ़ आधी से थोड़ी कम भरी हुई थी और दूसरी सफ़ उससे भी छोटी थी। एक साहब ब्राउन रंग का कुर्दी लेबास पहने हुए नज़र आए, जो अहले सुन्नत फिरक़े से थे और अस्र की नमाज़ अदा कर रहे थे। मग़रिब की नमाज़ में वो मेरे सामने वाली सफ़ में थे।
औरतों और बच्चों को क़त्ल करना फ़तह नहीं है
ग़ज़ा जंग से अगरचे इस इलाक़े के लोगों को बहुत ज़्यादा तबाही और नुक़सान का सामना हुआ लेकिन इसका नतीजा ज़ायोनी शासन की कल्पना के बिल्कुल ख़िलाफ़ रेज़िस्टेंस के हित में आया। जंग में कामयाबी सिर्फ़ मरने वालों की तादाद या तबाही के स्तर से आंकी नहीं जाती, बल्कि हर जंग का अंतिम लक्ष्य स्ट्रैटेजिक उपलब्धियों तक पहुंच होता है। ज़ायोनी शासन इस जंग में अपने घोषित लक्ष्य को न सिर्फ़ यह कि हासिल नहीं कर पाया, बल्कि बहुत से मैदानों में उसे ऐसी हार हुयी है जिसकी भरपाई मुमकिन नहीं है।
औरतों और बच्चों को क़त्ल करना फ़तह नहीं है
ग़ज़ा जंग से अगरचे इस इलाक़े के लोगों को बहुत ज़्यादा तबाही और नुक़सान का सामना हुआ लेकिन इसका नतीजा ज़ायोनी शासन की कल्पना के बिल्कुल ख़िलाफ़ रेज़िस्टेंस के हित में आया। जंग में कामयाबी सिर्फ़ मरने वालों की तादाद या तबाही के स्तर से आंकी नहीं जाती, बल्कि हर जंग का अंतिम लक्ष्य स्ट्रैटेजिक उपलब्धियों तक पहुंच होता है। ज़ायोनी शासन इस जंग में अपने घोषित लक्ष्य को न सिर्फ़ यह कि हासिल नहीं कर पाया, बल्कि बहुत से मैदानों में उसे ऐसी हार हुयी है जिसकी भरपाई मुमकिन नहीं है।
बरसों से पश्चिमी जगत ने मुसलमान औरतों की ऐसी छवि पेश की है जो पश्चिमी सरकारों के वैचारिक और भूराजनैतिक लक्ष्यों से प्रभावित रही है। इस छवि के तहत मुसलमान औरतों को एक असहाय, मज़लूम और बिना पहचान वाली औरत के तौर पर पेश किया जाता है जो मर्दों के प्रभुत्व वाले सिस्टम की जेल में और धार्मिक आस्था की बेड़ियों में क़ैद है।
इस्लामी इंक़ेलाब के नेता से क़ुम के अवाम की मुलाक़ात जो बुधवार 8 जनवरी 2025 को हुयी, क़ुम के लोगों के निर्णायक आंदोलन की बरसी के उपलक्ष्य में थी। इस मौक़े पर आयतुल्लाह ख़ामेनेई ने इस आंदोलन की क़द्रदानी करने के साथ ही, नीतियों और समीक्षा का एक ख़ाका पेश किया जो रोडमैप के समान था और वाक़यात की गहरी समीक्षा का तरीक़ा बताने वाला था।
पश्चिमी पूंजीवाद किस तरह अफ़्रीक़ा महाद्वीप में पारिवारिक सिस्टम को तबाह करने और वहाँ अपना प्रभाव बढ़ाने की कोशिश में लगा है। इस बारे में एक लेख पेश है।
सन 1920 में, ठीक उस वक़्त जब चुनाव में अमरीकी महिलाओं ने पहली बार भाग लिया, संयुक्त राज्य अमरीका में शराब बनाने, उसके परिवहन और बेचने पर रोक का क़ानून, संघीय क़ानून बन गया। अमरीकी औरतों की ओर से शराब पीने पर पाबंदी को सपोर्ट, इस तरह के पेय की लत के नुक़सान और अमरीका के पारंपरिक कल्चर के संबंध में उनकी सामाजिक सूझबूझ को दर्शाती थी। उसी साल ओलियो थामस, कमेडी फ़िल्म फ़्लीपर में शराब और सिगरेट पी रहा था और साथ ही उसे अपने पारंपरिक परिवार के ज़ुल्म का शिकार दिखाया जा रहा था। एक ही चीज़ के बारे में समाज की आम इच्छा और मीडिया की ओर से पेश की गयी छवि के बीच यह खुला विरोधाभास, उस बड़े संघर्ष का एक छोटा सा मंज़र था जो अमरीकी कल्चर में जारी था यानी सामाजिक परंपरा और पूंजीवाद की कभी न मिटने वाली भूख के बीच संघर्ष।
इस्लामी इंक़ेलाब के नेता आयतुल्लाहिल उज़मा सैयद अली ख़ामेनेई ने 11 दिसम्बर 2024 को अपनी स्पीच में कहा कि ज़ायोनी शासन ने सीरिया के इलाक़ों पर क़ब्ज़ा तो किया ही, साथ ही उसके टैंक दमिश्क़ के क़रीब तक पहुंच गए। गोलान हाइट्स के अलावा, जो दमिश्क़ का था और बरसों से उसके हाथ में था, दूसरे इलाक़ों पर भी क़ब्ज़ा करना शुरू कर दिया। अमरीका, योरोप और वे सरकारें, जो दुनिया के दूसरे मुल्कों में इन चीज़ों पर बहुत संवेदनशील हैं और एक मीटर और दस मीटर पर भी संवेदनशीलता दिखाती हैं, इस मसले पर न सिर्फ़ यह कि ख़ामोश हैं, एतेराज़ नहीं कर रही हैं बल्कि मदद भी कर रही हैं। यह उन्हीं का काम है। अब सवाल यह है कि अंतर्राष्ट्रीय क़ानून के मुताबिक़, दूसरे मुल्कों की सरज़मीन पर इस तरह के क़ब्ज़े का क्या हुक्म है और इस सिलसिले में अमरीका और योरोप की उदासीनता की वजह क्या है?
सीरिया में सिविल वार की आग, जिसके शोले सन 2011 में भड़के थे, बड़ी तेज़ी से विश्व की बड़ी ताक़तों के हस्तक्षेप के मैदान में बदल गयी। इस संकट में बुनियादी और क्रूर रोल अदा करने वाली दुनिया की सबसे बड़ी ताक़त अमरीका था।
मानवाधिकार ऐसा विषय है कि अमरीका पूरी दुनिया में उसकी रक्षा का सबसे बड़ा दावेदार रहा है और पिछले दशकों में उसे उसने अपनी चौधराहट को फैलाने और दूसरी सरकारों की आलोचना के लिए हथकंडे के तौर पर इस्तेमाल करता रहा है। ऐसे राष्ट्रों की तादाद बहुत ज़्यादा है जिन पर पिछले दशकों में अमरीकी सरकार ने मानवाधिकार के उल्लंघनकर्ता का इल्ज़ाम लगाया और ऐसी सरज़मीनें भी बहुत हैं जहाँ अमरीका ने प्रजातंत्र और मानवाधिकार क़ायम करने के नाम पर चढ़ाई की। लेकिन हक़ीक़त में बहुत सी रिपोर्टें और ठोस डेटा इस बात के गवाह हैं कि आज अमरीका पूरी दुनिया में मानवाधिकार का सबसे बड़ा उल्लंघनकर्ता है।
2 दिसम्बर को दास प्रथा के अंत का विश्व दिवस मनाया जाता है। इस दिन कोशिश की जाती है कि मानव तस्करी, लोगों के यौन शोषण, बाल शोषण, बच्चों की जबरन शादी और जंगों में उनके इस्तेमाल जैसी इस दौर की ग़ुलामी के रूपों पर ध्यान केन्द्रित किया जाए ताकि इन चीज़ों के ख़िलाफ़ विश्व स्तर पर आंदोलन शुरू हो सके।
इस बात में कोई शक नहीं है कि उक्त अपराध, इंसानों के ख़िलाफ़ होने वाले सबसे घिनौने अपराधों में शामिल हैं लेकिन क्या किसी काम के लिए इंसान को मजबूर किया जाना सिर्फ़ ग़ुलामी के रूप में ही होता है? क्या वैचारिक, आर्थिक और सांस्कृतिक जंजीरें, इंसान को ग़ुलामी में नहीं जकड़ सकतीं?
जब दक्षिणी लेबनान के पहाड़ी टीलों पर सुबह का सूरज प्रकट हुआ तो गाड़ियों का एक क़ाफ़िला आगे की तरफ़ बढ़ने लगा और उनके हार्न से वतन वापसी के नग़में की गूंज सुनाई देने लगी। लेबनान के लोग, जो ज़ायोनिस्ट रेजीम की आक्रामकता की वजह से एक मुद्दत से बेघर हो गए थे, बुधवार की सबुह स्थानीय वक़्त के मुताबिक़ 4 बजे युद्ध विराम शुरू होने के फ़ौरन बाद अपने अपने गांवों की ओर तेज़ी से वापस लौटने लगे। खिड़कियां खुलने लगीं और हाथों में हिज़्बुल्लाह के पीले रंग के परचम लहराने लगे जो चैन और रिहाई का चिन्ह है।
मुल्क भर से आए हुए हज़ारों स्वयंसेवियों ने सोमवार 25 नवम्बर 2024 को तेहरान में इस्लामी इंक़ेलाब के नेता से मुलाक़ात की। जोश व श्रद्धा से भरे इस प्रोग्राम के माहौल, लोगों के जज़्बात और दूसरी अहम बातों के बारे में एक रिपोर्ट पेश है।
लेखकः मोहसिन बाक़ेरीपूर
हिज़्बुल्लाह के स्वरूप और उसके ढांचे और उसकी आस्था पर रौशनी डालने वाली तहरीर। इस लेख में हिज़्बुल्लाह की स्थापना, उसकी स्थिति और अजेय समझी जाने वाली ज़ायोनी सेना के मुक़ाबले में उसकी रणनीति की समीक्षा की गयी है।
17 अक्तूबर, मक़बूज़ा फ़िलिस्तीनी ज़मीनों को ज़ायोनी शासन के चंगुल से छुड़ाने के लिए फ़िलिस्तीनियों के 7 दशक से ज़्यादा का संघर्ष अमर हो गया; यह वह दिन है जिसमें "फ़्रंटलाइन पर लड़ने वाले" कमांडरों में से एक कमांडर दुश्मन से आमने सामने की लड़ाई लड़ रहा था और मुजाहिदों, आज़ादी और सत्य प्रेमियों के लिए आइडियल बन गया।
ज़ायोनिस्ट रेजीम ने 7 अक्तूबर 2023 को सैन्य, सुरक्षा और इंटेलिजेंस की नज़र से ऐसे वार खाने के बाद कि जिसकी भरपाई नहीं हो सकती, ग़ज़ा में फ़िलिस्तीनियों के ख़िलाफ़ भयानक अपराध और उनके जातीय सफ़ाए को अपना एजेंडा बना लिया।
इस लेख में फ़िलिस्तीनी मामलों के रिसर्च स्कालर और लेखक अली रज़ा सुलतान शाही ने इतिहास के बैकग्राउंड में क्षेत्र में ज़ायोनी सरकार को मान्यता दिलाने और उसके वजूद को मज़बूत करने की पश्चिम की कोशिशों और उसकी साज़िश की इस्लामी इंक़ेलाब के हाथों नाकामी और उसके क्षेत्र में फैलते असर का कि जिसका चरम अलअक़्सा फ़्लड आप्रेशन के रूप में सामने आया, जायज़ा लिया है।
11 सितंबर 2001 की घटना के बाद अमरीका ने आतंकवाद के ख़िलाफ़ 2 दशक से ज़्यादा समय की जंग में कैसे कैसे घिनौने अपराध किए और बुश, ओबामा, ट्रम्प और बाइडेन जैसे लोगों ने अमरीकी अवाम के हितों पर अपने व्यक्तिगत हितों को प्राथमिकता देकर लाखों बेक़ुसूर लोगों को आतंकवाद के ख़िलाफ़ जंग के बेबुनियाद बहाने से क़ुरबान कर दिया। इस बारे में एक लेख पेश है।
अमरीका का इतना छोटा सा इतिहास, इंसानों के ख़िलाफ़ ज़ुल्म और अपराधों से भरा हुआ है। इस सरज़मीन के अस्ली मालिकों व मूल निवासियों के नरसंहार से लेकर इस्राईल के सरकारी आतंकवाद के ज़रिए ज़मीनों को हड़पने और फ़िलिस्तीन की जनता के क़त्लेआम को सपोर्ट करने तक और एक जुमले में हिरोशिमा से ग़ज़ा तक, इन सबका सुलह, मानवता, मानवाधिकार, लोकतंत्र जैसे सुंदर लफ़्ज़ों की आड़ में, साम्राज्य के पिट्ठू प्रचारिक तंत्रों के ज़रिए बहुत ही घिनौनी शक्ल में जस्टिफ़िकेशन पेश किया जाता है। इस बारे में लेख पेश है।
इस्लामी गणराज्य में वरिष्ठ नेता की ओर से राष्ट्रपति के आदेशपत्र का अनुमोदन होता। जनादेश का अनुमोदन सिर्फ़ एक औपचारिकता है या इसकी अहमियत है? इस बारे में लेख पेश है।
अगर ओस्लो समझौते के बाद ज़ायोनी सरकार की गतिविधियों की समीक्षा की जाए तो हम देखेंगे कि यह सरकार किसी भी हालत में, टू स्टेट फ़ारमूले को मानने के लिए तैयार नहीं थी, बल्कि यह समझौता फ़िलिस्तीनियों के ज़्यादा से ज़्यादा इलाक़ों पर नाजायज़ क़ब्ज़े के लिए वक़्त हासिल करने की उसकी यह चाल थी। इस बारे में लेख पेश है।
किस तरह ग़ज़ा की स्थिति से पश्चिम के प्रजातंत्र, मानवाधिकार और सबसे बढ़कर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता जैसे अर्थों की पोल खुल गयी है? इस बारे में लेख पेश है।
इस्राईल ने ग़ज़ा में पानी पहुंचाने वाली सभी पाइप लाइनों को बंद कर, फ़िलिस्तीनियों को समुद्र का खारा पानी पीने पर मजबूर कर दिया है जिसके स्वास्थय के लेहाज़ से बहुत नुक़सान हैं। इस्राईल की यह करतूत, फ़िलिस्तीनियों के जातीय सफ़ाए का नया हथकंडा है। इस बारे में एक लेख पेश है।
इस्लामी इंक़ेलाब के नेता आयतुल्लाहिल उज़मा सैयद अली ख़ामेनेई ने इमाम ख़ुमैनी रहमतुल्लाह अलैह की पैंतीसवीं बरसी के प्रोग्राम में अपने ख़ेताब के एक हिस्से में फ़िलिस्तीन के मसले को इमाम ख़ुमैनी के एक सबसे नुमायां सबक़ और नज़रिए की हैसियत से अपनी गुफ़तगू का विषय बनाया और अलअक़्सा फ़्लड ऑप्रेशन के हालिया वाक़यों और फ़िलिस्तीन के मसले पर उसके हैरतअंगेज़ असर की समीक्षा करते हुए ज़ायोनी सरकार की मौजूदा बदतर हालत पर कुछ पश्चिमी समीक्षकों की बयानों की समीक्षा की।
इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम ने मामून का उत्तराधिकारी बनने को क़ुबूल करके एक ऐसा कारनामा अंजाम दिया जो इमामों की ज़िंदगी में बेमिसाल था और वह करनामा इस्लामी जगत के स्तर पर शिया इमामत के दावे सार्वजनिक तौर पर बयान करना, तक़य्ये के पर्दे को उठा देना और शियों के पैग़ाम को सभी मुसलमानों के कानों तक पहुंचा देना था। इस बारे में इस्लामी इंक़ेलाब के नेता के बयानों के संदर्भ में एक लेख पेश है।
ईरान के ख़िलाफ़ पश्चिमी ताक़तों ने मुख़्तलिफ़ तरह की पाबंदियां लगायी हैं। इस लेख में इस्लामी इंक़ेलाब के नेता के बयान के संदर्भ में इन पाबंदियों के लक्ष्य पर रौशनी डाली गयी है।
जब भी फ़िलिस्तीनी संघर्ष की शानदार तारीख़ लिखी जाएगी, 7 अक्तूबर और 14 अप्रैल का ज़िक्र बहुत बड़ा बदलाव लाने वाले लम्हों के तौर पर होगा। हालांकि अतीत में क़ाबिज़ ज़ायोनी वजूद को रेज़िस्टेंस के फ़्रंट से लगातार चुनौतियां मिल रही थीं, इन दोनों तारीख़ों में वो हुआ जो पैमाने और व्यापकता के लेहाज़ से अब तक अभूतपूर्व रहा है।