तथ्यों को बयान करने के जेहाद का मतलब, धर्म की हक़ीक़त को समझने और दुश्मन की साज़िशों से मुक़ाबले के लिए अध्ययन व रिसर्च के काम के ज़रिए बातों को स्पष्ट करना है। जब दुश्मन झूठ और सच्चाई में फेरबदल के ज़रिए, सत्य पर पर्दा डालकर और संदेह पैदा करके माहौल को ख़राब कर दे और धर्म व इस्लामी इंक़ेलाब की ग़लत छवि पेश करके मन में कशमकश पैदा कर दे तो सिर्फ़ तथ्यों को बयान करने के जेहाद के ज़रिए ही असत्य से सत्य को जुदा किया जा सकता है और संदेह की गर्द को दूर करके सत्य की राह को नज़रों के सामने लाया जा सकता है। ख़ास तौर पर आज के ज़माने में और पश्चिम तथा विश्व साम्राज्यवाद की ओर से मीडिया पर अपने आधिपत्य के सबब इस्लाम और इस्लामी इंक़ेलाब पर की जाने वाली यलग़ार के दौर में निःसंदेह इस सॉफ़्ट वॉर में मुक़ाबले और फ़तह की एक राह, तथ्यों को बयान करने का जेहाद है।

अलबत्ता इस्लामी इंक़ेलाब के नेता की राय में तथ्यों को बयान करने का जेहाद, कोई आज की बात नहीं है और   न ही सिर्फ़ आज के दौर की ज़रूरत है। वो नहजुल बलाग़ा के पहले ख़ुतबे के हवाले से, पैग़म्बरों को तथ्यों को बयान करने के जेहाद का संस्थापक बताते हैं और उनका कहना है कि सत्य बात को बयान करना, पैग़म्बरों की सबसे अहम ज़िम्मेदारी थी। आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई की नज़र में, आख़िरी पैग़म्बर ने भी, इस्लाम की दावत देने के आग़ाज़ में, अनगिनत कठिनाइयों के बावजूद, हमेशा धर्म और अल्लाह की बातों की सच्चाई की व्याख्या की। इस्लामी इंक़ेलाब के नेता का कहना है कि नहजुल बलाग़ा के ख़ुतबों के मुताबिक़ अमीरुल मोमेनीन की हुकूमत की एक ख़ुसूसियत, तथ्यों को बयान करना है और इस जेहाद का सिलसिला इमामों के क़रीब 250 साल के दौर में, मुख़्तलिफ़ रूपों में लगातार जारी रहा है। इमामों के इस जेहाद का मक़सद, सच्चे और सही इस्लाम को लोगों के सामने लाना और क़ुरआन मजीद की सही व्याख्या पेश करना था। वो इसी तरह कूफ़े और सीरिया में आशूरा की सच्चाइयों को बयान करने में हज़रत ज़ैनब सलामुल्लाह अलैहा के संघर्ष जैसे एक दूसरे आइडियल की ओर इशारा करते हैं और उनका कहना है कि अम्मार यासिर जैसे पैग़म्बरे इस्लाम के सहाबी ने भी सिफ़्फ़ीन नामक जंग में तथ्यों को बयान करने का जेहाद किया है। इस्लामी इंक़ेलाब के नेता इस दौर में इमामों की सीरत को आगे बढ़ाने में ख़ास तौर पर इमाम ख़ुमैनी रहमतुल्लाह अलैह को तथ्यों को बयान करने के जेहाद के ध्वजवाहकों में से एक बताते हैं।

आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई तथ्यों को बयान करने के जेहाद में इमाम ख़ुमैनी रहमतुल्लाह अलैह के किरदार के बारे में कहते हैं: "हमारे दौर में तथ्यों को बयान करने का जेहाद करने वाली सबसे अज़ीम हस्ती इमाम ख़ुमैनी की थी और तथ्यों को बयान करने के जेहाद के ज़रिए जो सबसे अज़ीम काम अंजाम पाया, वो इमाम ख़ुमैनी ने अंजाम दिया। उन्होंने इस जेहाद के ज़रिए वो काम किया जो दूसरे लोग किसी भी वैचारिक व व्यवहारिक साधन से न तो कर सकते थे और न वो इस की उम्मीद रखते थे। इमाम ख़ुमैनी ने ज़बान और तर्क से यह काम किया, तथ्यों को बयान करने का जेहाद यह है। इमाम ख़ुमैनी ने आंदोलन के पहले दिन से बयान का सिलसिला शुरू किया, उस दिन तक जब वो (तेहरान के क़ब्रस्तान) बहिश्ते ज़हरा आए और कहा कि मैं इस हुकूमत का मुंह तोड़ दूंगा और मैं सरकार बनाउंगा। ये सब तथ्यों को बयान करने के जेहाद के ज़रिए हुआ। इस जेहाद के ज़रिए उन्होंने क्या काम किया? तथ्यों को बयान करने के जेहाद ज़रिए उन्होंने शाही हुकूमत को ख़त्म कर दिया जो विरासत में मिलने वाली, ज़ालिम, तानाशाही और भ्रष्ट सरकार थी और वो इस्लामी व धार्मिक सरकार को सत्ता में लाए। तथ्यों को बयान करने का जेहाद ऐसा होता है। इसकी इतनी अहमियत है।"

इस्लामी गणराज्य के संस्थापक इमाम ख़ुमैनी रहमतुल्लाह अलैह ने ज़ालिम शाही सिस्टम के ख़िलाफ़ अपने संघर्ष के आग़ाज़ से ही तथ्यों को बयान करने के जेहाद को अपनी सभी सरगर्मियों में सबसे ऊपर रखा। उन्होंने अति से काम लेकर सशस्त्र संघर्ष करने की शैली अपनाने वाले या भ्रष्ट पहलवी शासन में सुधार का तरीक़ा तलाश करने वाले कुछ गुटों या धड़ों के बरख़िलाफ़, अपना मिशन क़ौम के सामने सत्य बात पेश करना और उसे जागरुक करना बनाय और इसी शैली से वो बड़े बदलाव लाए।

इमाम ख़ुमैनी के तथ्यों को बयान करने के जेहाद की कुछ ख़ुसूसितें पूरी तरह से बेनज़ीर हैं। उनके सभी पहलुओं और ख़ुसूसियतों के बारे में बात करने के लिए बड़ी व्यापक तहरीर की ज़रूरत है लेकिन हम इस लेख में कुछ पहलुओं की ओर इशारा करने की कोशिश करेंगे।

 

अल्लाह पर ईमान और तौहीद के ध्रुव पर रहकर काम करना

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तथ्यों को बयान करने के जेहाद में इस्लामी इंक़ेलाब के महान संस्थापक की शायद सबसे बड़ी ख़ुसूसियत अल्लाह पर पूरा ईमान और यक़ीन और उनके अमल में इस ईमान का नुमायां किरदार है। इमाम ख़ुमैनी की ओर से शुरू किए गए संघर्ष के पहले दस्तावेज़ से लेकर उनकी आख़िरी यादगार दस्तावेज़ यानी उनके राजनैतिक व धार्मिक वसीयतनामे तक में इस मक़सद पर ताकीद की गयी है कि आंदोलन, अल्लाह के लिए होना चाहिए। उन्होंने पहले दस्तावेज़ में "तुम दो, दो और एक एक होकर अल्लाह के लिए खड़े हो जाओ।" सूरए सबा, आयत-46) की आयत को इंसानियत की सुधार के लिए अल्लाह की सबसे बड़ी नसीहत के तौर पर पेश किया और आख़िरी वसीयत में 'सक़लैन' का सहारा लिया है कि जो वो सबसे ज़्यादा क़ीमती चीज़ है जो पैग़म्बरे इस्लाम ने मुसलमानों के लिए छोड़ी है। अल्लाह के लिए सभी मामलों को अंजाम देना, फ़र्ज़ को अदा करना और अल्लाह की मदद पर भरोसा करना, ऐसे उसूल थे जिन पर इमाम ख़ुमैनी रहमतुल्लाह अलैह अपनी पूरी ज़िन्दगी अमल करते रहे और दूसरों को भी हमेशा इन उसूलों पर अमल की नसीहत करते थे, पूरे वजूद से मैदान में आते थे लेकिन उनकी उम्मीद, अल्लाह की मदद और अल्लाह की ताक़त पर होती थी और वो अल्लाह की ताक़त पर भरोसा करते थे। इमाम ख़ुमैनी का मानना था कि अगर हम कोई काम अल्लाह के लिए करें तो नुक़सान का दरवाज़ा बंद होता है, अगर कोई काम अल्लाह के लिए अंजाम पाए तो किसी भी क़िस्म का नुक़सान नहीं होगा, या तो हम आगे बढ़ेंगे और अगर आगे बढ़ न पाए तब भी हमने वो काम कर दिया है जो हमारा फ़रीज़ा था और हम अल्लाह के सामने कामयाब हैं।

हर बदलाव के लिए अवाम को ध्रुव मानना

 

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तथ्यों को बयान करने के जेहाद की बहस में इस्लामी इंक़ेलाब के संस्थापक इमाम ख़ुमैनी रहमतुल्लाह अलैह का सबसे अहम स्टैंड अवाम से संपर्क करना और अवाम पर भरोसा था। आंदोलन के आग़ाज़ से ही उन्होंने अवाम से बातचीत को अपनी बुनियाद क़रार दिया और वो किसी ख़ास गिरोह या तबक़े से नहीं बल्कि आम लोगों से अपनी बात करते थे। सत्य बयान करने और बातें स्पष्ट तरीक़े से पेश करने में उनका इतना अपनाइयत भरा अंदाज़ था था कि लोगों को जोश में ले आते थे और इसी चीज़ ने सरकश शासन के पतन और इस्लामी गणराज्य के पाक सिस्टम के गठन का रास्ता समतल किया। इस्लामी इंक़ेलाब के नेता के बक़ौलः "इमाम ख़ुमैनी का आंदोलन शुरू होने से पहले भी ईरान में कुछ संघर्ष किया गया था, ईरान में राजनैतिक संघर्ष मौजूद था, दसियों साल से मुख़्तलिफ़ गिरोह संघर्ष कर रहे थे लेकिन उनके काम ज़्यादा से ज़्यादा मिसाल के तौर पर स्टूडेंट्स तक सीमित थे, फ़र्ज़ कीजिए कि ये लोग 100 स्यूडेंट्स या 150 स्टूडेंट्स पर असर डाल सकते थे, किसी प्रोग्राम में उन्हें शामिल कर सकते थे लेकिन इमाम ख़ुमैनी के आंदोलन का आंदोलन एक सीमित गिरोह या एक सीमित सभा या एक निर्धारित वर्ग तक सीमित नहीं था बल्कि पूरी ईरानी क़ौम तक फैला हुआ था। क़ौम, एक महासागर की तरह है और महासागर में तूफ़ान लाना हर किसी के बस की बात नहीं है। एक स्वीमिंग पूल में उफान पैदा किया जा सकता है लेकिन किसी समुद्र में उफान लाना बहुत अज़ीम कारनामा है। क़ौम एक महासागर है और इमाम ख़ुमैनी ने यह काम किया।"

वो न सिर्फ़ यह कि ख़ुद मैदान में मौजूद थे बल्कि दूसरे वरिष्ठ धर्मगुरूओं और ज़ाकिरों को भी हमेशा लोगों से संपर्क रखने, उनके बीच मौजूद रहने और समाज के हालात की व्याख्या करने, पहलवी शासन की दूसरों पर निर्भरता, तानाशाही और भ्रष्टाचार और उसके ज़रिए क़ौम पर होने वाले ज़ुल्म को बयान करने की नसीहत करते थे। वो उनसे कहते थे कि ख़ुद मैदान में आएं और लोगों को भी मैदान में आने की दावत दें। यह उस ज़माने की बात है जब बड़े धर्मगुरू, बहुत ही अहम मामलों में फ़तवा देने या ज़्यादा से ज़्यादा शाह और दूसरे अधिकारियों को सिर्फ़ टेलीग्राम भेजने तक सीमित रहते थे। इस्लामी इंक़ेलाब के नेता, आंदोलन के आग़ाज़ और अवाम के बीच इमाम ख़ुमैनी की प्रभावी मौजूदगी और उनके ज़रिए सत्य बात से पर्दा उठाए जाने की ओर इशारा करते हुए कहते हैं: "सन 1962 और 1963 में इमाम ख़ुमैनी रहमतुल्लाह अलैह ने अपने अमल से, अपनी बातों से, तर्क से, दलील से यह चीज़ ईरानी क़ौम को दिखाई। उन्हें समझाया कि अगर वे लोग आगे बढ़ना चाहते हैं, अच्छे नतीजे तक पहुंचना चाहते हैं, तो मैदान में मौजूद रहें। पीछे हटना, इस पर उस पर भरोसा करना और एकांत में रहना, बेफ़ायदा है। बीच मैदान में आएं। आप ख़ुद भी बीच मैदान में आए। इमाम ख़ुमैनी पार्टियों और गिरोहों, राजनैतिक आंदोलनों और उस वक़्त के (बड़े बड़े) दावे करने वाले मशहूर राजनेताओं के साथ बैठक करने के बजाए अवाम के दरमियान आकर बैठे।"

इमाम ख़ुमैनी रहमतुल्लाह अलैह न सिर्फ़ इंक़ेलाब के दौरान बल्कि इस्लामी गणराज्य व्यवस्था की स्थापना के बाद भी सभी चरणों में अवाम के प्रभावी व निर्णायक किरदार पर ख़ास तौर पर ताकीद किया करते थे बल्कि मुल्क चलाने के मामले में भी। जैसा कि इस्लामी इंक़ेलाब के नेता कहते हैं: "इमाम ख़ुमैनी रहमतुल्लाह अलैह ने जो उसूल और नारे पेश किए उनमें से एक अवाम का मुख्य रोल था। यानी मुल्क की सत्ता अवाम के हाथों में रहे; अवाम चुनें, वो अपनी मर्ज़ी से तय करें, ज़िन्दगी के सभी विभाग में अवाम अपने इरादे के मुताबिक़ काम करें। इमाम ख़ुमैनी रहमतुल्लाह अलैह का एक नारा क़ौम में आत्म विश्वास का था। वो अवाम को प्रेरित करते थे और बार बार दोहराते थे कि आपके भीतर सलाहियत है, आप में क्षमता है।"

हर संसाधन और मीडिया का इस्तेमाल

 

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इमाम ख़ुमैनी रहमतुल्लाह अलैह सत्य को बयान करने के लिए सभी मौजूदा संसाधन और मीडिया से फ़ायदा उठाते थे। वो स्पीच भी देते थे और क़लम भी चलाते थे। वो रेडियो और टीवी से भी फ़ायदा उठाते थे। वो शेर भी कहते थे और किताब भी लिखते थे। सत्य बयान करने के लिए ख़त भी लिखते थे और प्राप्त होने वाले अनगिनत ख़तों का जवाब भी देते थे। उन्होंने बहुत सारे बयान भी दिए और बड़ी तादाद में पैग़ाम भी जारी किए। जिलावतनी के ज़माने में, जब उनपर कड़ी निगरानी रखी जाती थी, वो कैसेटों के ज़रिए ज़बानी तौर पर अपने पैग़ामों और बयानों को लोगों तक पहुंचाते थे। हुज्जत तमाम करने के लिए वो शाह और मंत्रियों को टेलीग्राम भेजने से भी पीछे नहीं हटते थे। वो बहुत सारे लोगों से मिलते थे और बहुत सारी अहम हस्तियों से मुलाक़ात करते थे। उनकी आम लोगों से मुलाक़ातों की तादाद बहुत ज़्यादा थी जिनमें वो लोगों के सामने स्पीच देते थे और इसी तरह उनकी ऐसी मुलाक़ातें भी होती थी जिनमें वो सिर्फ़ अवाम में हौसला और उम्मीद जगाते थे। वो अपनी क्लासों में भी बातें करते थे और मस्जिदों में भी। अवाम को जागरुक बनाने के लिए वो हर साधन से फ़ायदा उठाते थे। टेलीफ़ोनी संपर्क भी करते थे और अपने प्रतिनिधि भी भेजा करते थे। धीमी आवाज़ में और सरगोशियों में नसीहत भी करते थे और बुलंद आवाज़ से भी अपनी बात कहते थे। इमाम ख़ुमैनी लोगों को जागरुक बनाने और सत्य को सामने लाने के लिए हर प्लेटफ़ार्म से फ़ायदा उठाते थे। इमाम ख़ुमैनी का तथ्यों को बयान करने का जेहाद बिना रुके लगातार जारी रहने वाला जेहाद था जो किसी ज़माने से मख़सूस नहीं था। वो मोहर्रम और आशूरा, इमामों की शहादत और विलादत के दिनों से भरपूर फ़ायदा उठाते थे और कभी कभी ऐसे दिन भी क़दम उठाते थे जब कोई मुनासेबत नहीं भी होती थी। वो अपना ज़्यादा वक़्त तथ्यों को बयान करने के जेहाद में गुज़ारते थे। वो अपना ज़्यादादर वक़्त अवाम में स्पीच में गुज़ारते थे लेकिन इसी के साथ वो ख़ुसूसी मुलाक़ातों और इंटरव्यू के लिए भी वक़्त निकालते थे। इमाम ख़ुमैनी रहमतुल्लाह अलैह तथ्यों को बयान करने के लिए जब भी ज़रूरत होती थी, अपने फ़रीज़े को अदा करते थे। इसके लिए वो किसी ख़ास जगह को भी मद्देनज़र नहीं रखते थे। उनके लिए ईरान, इराक़, तुर्की और पेरिस में कोई फ़र्क़ नहीं था। जिलावतनी, नज़रबंदी, जेल और हिरासत से उनके काम में रुकावट नहीं आती थी। उनके लिए घर और सफ़र में भी कोई फ़र्क़ नहीं था। क्लास और मस्जिद दोनों ही तथ्यों को बयान करने के लिए मुनासिब जगहें थीं। तेहरान का बहिश्ते ज़हरा क़ब्रस्तान, रेफ़ाह मदरसा और जमारान इमामबाड़ा और क़ुम में उच्च धार्मिक शिक्षा केन्द्र में कोई ज़्यादा फ़र्क़ नहीं था। ज़्यादा अहम बात, तथ्यों को सामने लाने की ज़िम्मेदारी को अदा करना था।

सच्चाई और अपनाइयत के साथ आलेमाना अंदाज़ में सत्य को बयान करना

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सत्य को बयान करने में इमाम ख़ुमैनी की दूसरी ख़ुसूसियत, इल्म से भरपूर होना था। वो इल्म से भरपूर अंदाज़ में इस तरह सत्य को बयान करते थे कि कोई भी उनकी बातों में कमी नहीं निकाल सकता था। क्योंकि सत्य को बयान करना अगर सही और काफ़ी मालूमात की बुनियाद पर न हो तो हेदायत और सत्य को सामने लाने की जगह गुमराही और बहकावा ले लेता है। इसलिए पूरे भरोसे से कहा जा सकता है कि कभी भी कोई भी उनके बयानों से ग़लती का शिकार नहीं हुआ। उन जैसे तत्वदर्शी से, आत्मज्ञान से भरी बातों के अलावा किसी और चीज़ी की अपेक्षा नहीं थी। वो हर बात को सही वक़्त पर और सही मात्रा में बयान करते थे लेकिन हर बात, हर किसी से नहीं करते थे और उनका मानना था कि हर बात, हर शख़्स से नहीं कही जा सकती। उनकी बातें, सादगी और व्यापकता के साथ ही गहरी और क़ुरआन के गहरे अर्थों से भरी होती थी। इस्लामी इंक़ेलाब के नेता के बक़ौलः "इमाम ख़ुमैनी आत्मज्ञानी थे, वो क़ुरआन के लफ़्ज़ों में हकीम थे, हकीम उस शख़्स को कहते हैं जो उन सच्चाइयों को देखता है जो दूसरों की आँखों से ओझल रहती हैं, छिपी रहती हैं। उनके लफ़्ज़, शायद सादा नज़र आएं लेकिन उन पर जितना ज़्यादा ग़ौर कीजिए, उतना ही ज़्यादा आप पाएंगे कि उनकी बातें गहरी और परत दर परत हैं, वो इस तरह के थे।"

जब इमाम ख़ुमैनी लोगों से बात करते थे तो सभी को यक़ीन होता था कि वो इमाम ख़ुमैनी के भरोसेमंद हैं। वो इतनी सच्चाई और अपनेपन के जज़्बे से मसलों को पेश करते थे कि ऐसा महसूस होता था कि अब कहने के लिए कुछ बचा ही नहीं है। वो कभी भी दोहरी नीति अख़्तियार नहीं करते थे और किसी को भी उनकी सच्चाई में शक नहीं होता था। लोगों के सामने जो कुछ भी बयान करना ज़रूरी होता था, वो बयान करते थे।

बहादुरी और अख़लाक़

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इमाम ख़ुमैनी रहमतुल्लाह अलैह की एक अहम ख़ुसूसियत तथ्यों को बयान करने के जेहाद में उनकी बेनज़ीर बहादुरी थी। वो अपने फ़रीज़े को अदा करने में ज़रा भी नहीं डरते थे। जिस ज़माने में सभी लोग ख़ामोश थे, वो ख़ुद शाह को टेलीग्राम भेजकर चुनौती देते थे। शाह के ज़माने में जब घुटन अपने चरम पर थी, वो मुल्क के तानाशाह को चेतावनी देते थे। उन्होंने ऐसे वक़्त में कहा था कि अमरीका कुछ बिगाड़ नहीं सकता, जब दुनिया की बहुत सी राजनैतिक हस्तियां, यहाँ तक की ताक़तवर मुल्क में भी इस जुमले को दोहराने की हिम्मत नहीं थी। वो आम लोगों के बीच स्पीच में आलोचना किया करते थे और अधिकारियों को नसीहत भी करते थे। किसी का भी लेहाज़ किए बिना, अहम मुद्दों को बयान करते थे। उन्होंने पूरी बहादुरी के साथ विश्व साम्राज्यवाद के पिट्ठू सलमान रुश्दी के मुर्तद होने का फ़तवा जारी किया जबकि शायद कुछ लोग उनके इस क़दम को हित के ख़िलाफ़ समझ रहे थे। उन्होंने उस वक़्त की दो बड़ी ताक़तों में से एक पूर्व सोवियत संघ के प्रमुख मीख़ाईल गोर्बाचोफ़ को ख़त लिखा और कम्यूनिज़्म के पतन के सिलसिले में सचेत करते हुए उन्हें इस्लाम की दावत दी। इस्लामी इंक़ेलाब के नेता के बक़ौल बहादुरी, इमाम ख़ुमैनी के अज़ीम कारनामों का एक सबब थीः मेरे विचार में एक चीज़ जो इमाम ख़ुमैनी की मुख़्तलिफ़ कामयाबियों के रूप में सामने आयी, उनकी बहादुरी थी। इसी बहादुरी ने इल्मी कामयाबी, आध्यात्मिक कामयाबी, राजनैतिक कामयाबी, सामाजिक कामयाबी, उनकी ओर लोगों के आकर्षित होने जैसी बातों को वजूद दिया जो सचमुच बहुत अजीब चीज़ थी। उनकी बहादुरी यह थी कि वो किसी चीज़ का लेहाज़ नहीं करते थे।

इमाम ख़ुमैनी के तथ्यों को बयान करने के अंदाज़ में बुरे अख़ालक़, झूठ और इल्ज़ाम लगाने की कोई जगह नहीं थी क्योंकि उनका लक्ष्य अख़लाक़ और अध्यात्म को फैलाना था। वे तथ्य को सामने लाते थे लेकिन किसी की इज़्ज़त से ख़िलवाड़ नहीं करते थे। ठोस तरीक़े से बात करते थे, लेकिन नाइंसाफ़ी नहीं करते थे। लोगों में जोश भरते थे, लेकिन जज़्बाती नहीं होते थे। सोच और चिंता पैदा करते थे लेकिन डर पैदा नहीं होने देते थे। आंदोलन और इंक़ेलाब की दावत देते थे लेकिन अराजकता की हिमायत नहीं करते थे। ईरान और कुछ यूरोपीय मुल्कों में सरकश क़ानून को नहीं मानते थे लेकिन सभी को क़ानून पर अमल की दावत देते थे।

संक्षेप में यह कि इमाम ख़ुमैनी रहमतुल्लाह अलैह सच्चाई के बयान को अल्लाह की ओर से निर्धारित फ़रीज़ा समझते थे और उसे अदा करने में कोई कसर नहीं छोड़ते थे। उनका मानना था कि आज की इंसानियत जेहालत का शिकार है और उसकी नजात का एक रास्ता सत्य का सामने लाना और जागरुकता है। इसी लिए वे तथ्यों को बयान करना सभी की हमेशा बाक़ी रहने वाली ज़िम्मेदारी समझते थे और इसके नतीजे में उन्हें ज़रा भी संकोच नहीं होता था। वो इंक़ेलाब की कामयाबी का राज़ भी इसी को समझते थे और इसके बाक़ी रहने का राज़ भी इसी को जानते थे। वो मुश्किलों और रुकावटों के बारे में बात करते थे लेकिन कभी किसी को मायूस नहीं करते थे। वो अंधकार में प्रकाश को देखते थे और मुश्किलों और मायूसी के चरम पर भी, फ़तह का यक़ीन रखते थे।