लेखः बिनयामिन मनीआत

 

इमाम ख़ामेनेई से, पहली बार वोट डालने वालों और शहीदों के घर वालों की मुलाक़ात के दिन का आंखों देखा हाल, 28 फ़रवरी 2024

पहली बार वोट डालने वालों से इस्लामी इंक़ेलाब के नेता की मुलाक़ात की जगह यानी इमाम ख़ुमैनी इमामबाड़े पर जाकर ख़त्म होने वाली सड़क के किनारे नाली का साफ़ पानी पिछले कई दिनों से कहीं ज़्यादा था। ठंडक के मौसम के इन आख़िरी दिनों में बर्फ़बारी ने पहाड़ों को और ज़्यादा बर्फ़ से ढक दिया था और हमें पानी के अभाव से मुक्त गर्मी के मौसम की ओर से आशावान कर दिया था।

पहली बार वोट डालने वाला एक नौजवान, जो मुझसे आगे की लाइन में खड़ा था, अपने चेहरे को मफ़लर से छिपाने की कोशिश कर रहा था जबकि कुछ दूसरे नौजवान, उस विषय के बारे में बात कर रहे थे जो उन्होंने पिछले हफ़्ते अपनी क्लास में पढ़ा था। अगरचे मौसम बहुत ठंडा था और इमामबाड़े में दाख़िल होने के लिए लगी लाइन बहुत लंबी थी लेकिन पहली बार वोट डालने वाले नौजवान, पानी से भरी नाली के साथ, बड़े शौक़ से लाइन में खड़े थे और भीतर जाने के लिए अपनी बारी का इंतेज़ार कर रहे थे।

 

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मैंने उनमें से एक से पूछाः क्या तुम पहली बार वोट डालोगे? उसने जवाब दियाः हां, मैं पहली बार वोट डालूंगा।

मैंने उससे पूछा कि इस्लामी इंक़ेलाब के नेता से मुलाक़ात में कितनी बार शामिल हो चुके हो? उसने जवाब दियाः मैं पहली बार मिलूंगा।

दिलचस्प बात थी, पहली बार वोट डालने वाला नौजवान और पहली बार इस्लामी इंक़ेलाब के नेता से मुलाक़ात! मुझे वो इलेक्शन याद आ गया जिसमें मैंने पहली बार वोट डाला था। मैंने ईरान का परचम हाथ में लिए, सुबह सवेरे अपना वोट डाला था। हालांकि जिस उम्मीदवार को मैंने वोट दिया था वो कामयाब नहीं हो पाया था लेकिन मुझे वोटिंग में अपनी शिरकत पर, अपना मताधिकार इस्तेमाल करने पर और मैंने सभी उम्मीदवारों के वोटों के प्रतिशत पर जो असर डाला था, उस पर फ़ख़्र था। मैं अपने वोट डालने पर फ़ख़्र करता था क्योंकि इलेक्शन में मेरी शिरकत ने, इस्लामी इंक़ेलाब के नेता के बक़ौल, ईरान के दुश्मनों को "मुल्क पर ललचायी नज़र डालने", "मुल्क को नुक़सान पहुचाने" और इसी तरह "फ़ितना फैलाने की चालों को तेज़ करने" की सोच की ओर से मायूस कर दिया था।

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पहली बार वोट डालने वाला वो नौजवान मशहद से आया था और शरीफ़ यूनिवर्सिटी में फ़िज़िक्स का स्टूडेंट था। उसी की तरह पहली बार वोट डालने वाला एक दूसरा नौजवान, उसी की लाइन में अपने दोस्त से अरबी में बातें कर रहा था। मेरा अंदाज़ा सही था वो दक्षिणी ईरान का एक अरब हमवतन था। वो आबादान से आया था और वो भी मुल्क की एक बेहतरीन यूनिवर्सिटी, तेहरान यूनिवर्सिटी में मेटॉलोजी का स्टूडेंट था। वो एक ऊर्जा से भरा और उम्मीद दिलाने वाला जमघटा था। एक ओर नौजवानी का जोश और मुल्क के भविष्य पर असर डालने की सोच और दूसरी ओर एक सही उम्मीदवार के चयन के लिए तर्क व दलील इकट्ठा हो गए थे। वो नौजवान इस्लामी इंक़ेलाब के नेता की बातें सुनने के लिए आए थे ताकि एक बेहतर चयन की कसौटी में इन बातों को मद्देनज़र रखें।

हम जब इमाम ख़ुमैनी इमामबाड़े में दाख़िल हुए तो वहाँ जवानी का जोश पूरी तरह से ज़ाहिर था। इस्लामी इंक़ेलाब के नेता के आगमन से पहले इमामबाड़े में किसी के शेर पढ़ने की आवाज़ गूंज रही थी। वो राजनैतिक विषयवस्तु के साथ जोश दिलाने वाले शेर थे। ज़्यादातर शेरों के बाद नौजवानों की ओर से तारीफ़ और वाह वाह की आवाज़ें बुलंद होती थीं। उन शेरों में से एक शेर

रायम अगर बे दर्द नख़ुर बूद पस चेरा- दुश्मन हेरास दारद अज़ इन इज़्देहामहा

(अगर मेरा वोट बेफ़ायदा है तो फिर दुश्मन क्यों इस भीड़ से डरता है)

 

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अपने नेता को देखने और उनकी बातें सुनने के लिए भीड़ में जोश को लफ़्ज़ों में बयान नहीं किया जा सकता। इंतेज़ार के लम्हों में से एक में, इस्लामी इंक़ेलाब के नेता इमामबाड़े में दाख़िल हुए। उन्हें देखने के लिए वहाँ मौजूद नौजवानों का मजमा खड़ा हो गया। बैठने का ऑर्डर पूरी तरह से बदल गया और मैं भी एक खंबे के पास पहुंच गया, जहाँ से इस्लामी इंक़ेलाब के नेता को देखने का कोण भी बहुत अच्छा नहीं था। इसी दौरान, मैं इस सोच में डूब गया कि वोट डालने का अधिकार, कितनी क़ौमों और कितने लोगों के दिल की आरज़ू रहा है जिनमें से कुछ को यह अधिकार हासिल हुआ जबकि कुछ दूसरे इसे हासिल करने में नाकाम रहे। कुछ लोगों ने इस राह में अपनी जान की क़ुरबानी दे दी और इसी तरह शायद वो ख़ुद तो नहीं लेकिन अपने बाद की नस्लों को इस अधिकार का मालिक बना गए। तानाशाही और राजशाही के अंत और अवाम तक सत्ता पहुंचाने के लिए कितना ख़ून बहाया गया और कितना ख़ून सत्ता लोलुप लोगों के व्यक्तिगत फ़ैसलों की वजह से पामाल किया गया या फिर राजनेताओं और धड़ों के हितों की वजह से अवाम के मुतालबों को नज़रअंदाज़ कर दिया गया।

मैं इन मिसालों पर ग़ौर कर ही रहा था कि मैंने देखा कि इस्लामी इंक़ेलाब के नेता ने इस सिलसिले में एक ऐतिहासिक मिसाल दीः "फ़्रांस का अज़ीम इंक़ेलाब!" इस्लामी इंक़ेलाब के नेता ज़्यादातर मौक़ों पर इतिहास के बड़े इंक़ेलाबों के इतिहास से मिलने वाले पाठ बयान करते हुए, फ़्रांस के इंक़ेलाब का भी ज़िक्र करते हैं, ऐसा इंक़ेलाब, जिसके आने के बाद, तानाशाही विरोधी और लोकतांत्रिक मुतालबे ज़्यादा दिनों तक टिक नहीं पाए। इंक़ेलाब के बाद की राजनैतिक खींचतान और सत्ता की रस्साकशी ने, बहुत सारे लोगों की जान भी ली। फ़्रांस के इंक़ेलाब की कामयाबी के बाद के 16 महीनों में ही क़रीब 17000 लोगों को मौत की सज़ा दे दी गयी! यह इंक़ेलाब के बाद फ़्रांस की स्थिति का सिर्फ़ एक नमूना है।

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फिर भी मेरी नज़र में बदलाव और सत्ता के हस्तांतरण के सिलसिले में इस्लामी इंक़ेलाब और दूसरे इंक़ेलाबों में सबसे अहम फ़र्क़, एक ख़ास मसले में रहा है। यह वही चीज़ है जो इस्लामी इंक़ेलाब की कामयाबी के 45 साल बाद भी अटल है और अवाम के वोटों को कसौटी बताती है। वो चीज़ जो आज इंक़ेलाब की पहली नस्ल को, पहली बार वोट डालने वालों को साथ ले आती है और अपने भविष्य को तय करने में अवाम के चार दशकों से ज़्यादा की प्रभावी भूमिका पर फ़ख़्र करती है। इस्लामी इंक़ेलाब की उम्र चार दशकों से ज़्यादा हो चुकी है लेकिन इसके आग़ाज़ के उसूल और लक्ष्यों में कोई बदलाव नहीं आया है, दलीय, राजनैतिक और व्यक्तिगत हित, इन्हें बदल नहीं सकते। जिस चीज़ ने अवाम के लिए आज़ादी, स्वाधीनता और लोकतंत्र की रक्षा की है और जो मज़बूती देने वाली एकता का ध्रुव रही है वो "इस्लाम" है। यह वही चीज़ है जिसके बारे में इस्लामी इंक़ेलाब के नेता ने, इलेक्शन के मैदान के सबसे योग्य उम्मीदवार की ख़ुसूसियतों का ज़िक्र करते हुए कहाः "सबसे मुनासिब कौन है? वो कौन है जो सबसे ज़्यादा योग्य है? जो धर्म पर ज़्यादा अमल करता हो, जो धर्म के आदेशों पर अमल का ज़्यादा पाबंद हो, जी शरीअत पर ज़्यादा और बेहतर तरीक़े से अमल करता हो। जो मुल्क की स्वाधीनता और दुनिया की इस ताक़त और उस ताक़त पर मुल्क के निर्भर न होने पर ज़्यादा इसरार करता हो, हक़ीक़त में मुल्क की स्वाधीनता का इच्छुक हो। जो भी भ्रष्टाचार से निपटने का ज़्यादा मज़बूत इरादा रखता हो, जो भी राष्ट्रीय हितों के सिलसिले में ज़्यादा मज़बूत इरादा रखता हो, यानी राष्ट्रीय हित के मुक़ाबले में अपने व्यक्तिगत हितों को क़ुर्बान करने के लिए तैयार हो। ऐसा शख़्स, मेरे ख़्याल में सबसे ज़्यादा योग्य है।"

ये जुमले सुनने के बाद मेरे लिए यह बात ज़्यादा स्पष्ट हो गयी कि क्यों इस्लाम, इस्लामी इंक़ेलाब को पूरी स्थिरता व मज़बूती के साथ सुरक्षित रखने में कामयाब रहा है। अवाम के चुने हुए उम्मीदवार की पहली ख़ुसूसियत, धर्म की पाबंदी बयान की गयी है। यानी जो अवाम के भविष्य और अवाम की राजनैतिक ज़िन्दगी को चलाने वाला बनता है उसे ख़ुद धार्मिक अख़लाक़ के दायरे में रहना चाहिए और इससे भी बढ़कर यह कि अल्लाह को अपने कर्मों पर निगरानी करने वाला समझना चाहिए।