इस्लामी इंक़ेलाब के नेता से पूरे मुल्क के टीचरों की मुलाक़ात के मौक़े पर ग़ज़ा पट्टी के स्टूडेंट्स और बहादुर टीचरों के लिए ईरानी टीचरों के दिल की गहराई से निकलने वाले जुमले। (17 मई 2025)
सामने वाले पक्ष ने धमकी दी है कि अगर तुमने वार्ता नहीं की तो ऐसा और वैसा होगा, हम बमबारी करेंगे। ऐसी वार्ता को स्वीकार करना जो धमकी के साथ जुड़ी हो, कोई सम्मानीय राष्ट्र बर्दाश्त नहीं करता, कोई भी समझदार राजनीतिज्ञ इसका समर्थन नहीं करता है।
ज़रूरी समझता हूं कि महान मुजाहिद शहीद सैयद हसन नसरुल्लाह की शहादत की बर्सी पर उनका ज़िक्र करूं। सैयद हसन नसरुल्लाह इस्लामी दुनिया के लिए बहुत क़ीमती संपत्ति थे सिर्फ़ शियों के लिए नहीं, सिर्फ़ लेबनान के लिए नहीं, अलबत्ता यह संपत्ति ख़त्म नहीं हुयी। यह संपत्ति बाक़ी है।
यानी हम अमरीका के वार्ता की मेज़ पर बैठें और उनके साथ होने वाली बातचीत का नतीजा वह बात हो जो उसने कही है, यह वार्ता नहीं है, यह तो मुंहज़ोरी है, ऐसे पक्ष के साथ बैठकर वार्ता कीजिए कि जिसका नतीजा आवश्वयक रूप से वही होगा जो वह चाहता है, क्या इसे वार्ता कहेंगे?
अमरीकी पक्ष, ढिठाई से कह रहा है कि ईरान युरेनियम एनरिचमेंट न करे, ज़ाहिर है कि ईरान जैसी ग़ैरतमंद क़ौम, ऐसी बात करने वाले के मुंह पर दे मारेगी और इस बात को क़ुबूल नहीं करेगी।
मैं यह कहना चाहता हूं कि मौजूदा हालात में, जो स्थिति है, मुमकिन है, 20 साल बाद, 30 साल बाद हालात दूसरे हों, उससे मुझे कुछ लेना देना नहीं है, मौजूदा हालात में अमरीका के साथ बातचीत हमारे राष्ट्रीय हित में नहीं है।
आज दुनिया को हमेशा की तरह शांति, सुलह और सुरक्षा की ज़रूरत है। इंसान की मूल ज़रूरतों में से एक शांति है। अलबत्ता हम हमेशा से कहते आए हैं कि शांति न्यायपूर्ण होनी चाहिए। किसी क़ौम पर थोपी गयी अन्यायपूर्ण शांति, जंग से भी ज़्यादा बुरी है।
दुनिया में जो भी चाहे मुसलमान हो या ग़ैर मुसलमान अगर फ़िलिस्तीन के वाक़ए की हक़ीक़त को जान लेगा तो क़ाबिज़ शासन के ख़िलाफ़ हो जाएगा, उससे मुक़ाबला करेगा। फ़िलिस्तीनी क़ौम का व्यापक संघर्ष तब तक जारी रहना चाहिए जब तक वे लोग, जिन्होंने फ़िलिस्तीन पर नाजायज़ क़ब्ज़ा कर रखा है, फ़िलिस्तीनी क़ौम की राय के सामने झुक न जाएं।
एतेराज़ करने वाले मुल्क - जिसमें इस्लामी और ग़ैर इस्लामी मुल्क दोनों शामिल हैं -ख़ास तौर पर इस्लामी मुल्कों को चाहिए कि वे ज़ायोनी शासन से अपने व्यापारिक संबंध पूरी तरह ख़त्म करें और राजनैतिक संबंध भी, उसे अलग थलग कर दें।
आज इस्लामी जगत को बहुत बड़ी मुश्किलों का सामना है और उन मुश्किलों का हल इस्लामी एकता है। एकता क़ुरआन का एक हुक्म है। फ़िलिस्तीन का मसला, इस्लामी जगत का सबसे अहम मसला है। अगर मुसलमान एकजुट हो जाएं, तो फ़िलिस्तीन की हालत वैसी न होगी जैसी आज हम देख रहे हैं।
मेरे ख़याल में हमारी कूटनीति की एक अहम दिशा यह होनी चाहिए कि हमें सरकारों पर बल देना चाहिए, ताकीद करना चाहिए कि वे ज़ायोनी सरकार से अपने संबंध ख़त्म कर लें। पहले चरण में व्यापारिक संबंध, बाद के चरण में अपने राजनैतिक संबंध ख़त्म कर लें।
वह चाहता है कि ईरान, अमरीका के अधीन रहे। ईरानी क़ौम, इस बड़े अपमान से बहुत दुखी होती है और उन लोगों और उस शख़्स के मुक़ाबले में जो ईरानी क़ौम से यह ग़लत अपेक्षा रखता है, पूरी ताक़त से डट जाएगी।
इन वाक़यों से दुश्मन जिस नतीजे तक पहुंचा वह यह है कि ईरान को जंग से, सैन्य हमले से झुकाया नहीं जा सकता। सिस्टम और मुल्क की रक्षा और दुश्मन के मुक़ाबले में दृढ़ता को लेकर आज अवाम में एकता है। यह एकता उनके हमले को रोकने वाली है। वे इसे ख़त्म करना चाहते हैं। इस ओर से सावधान रहिए।
अली लारीजानी, सचिव, ईरान की सर्वोच्च राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद
आज यमन के बहादुर अवाम जो काम कर रहे हैं, सही है...हम हर उस काम के लिए जो इस्लामी गणराज्य के लिए मुमकिन होगा, हर काम जो मुमकिन होगा, पूरी तरह तैयार हैं।
जहाँ तक मुझे जानकारी है, जनाब अलबरादई के ज़माने से और उनके बाद की पीढ़ी जो इन साहब (राफ़ाएल ग्रोसी) तक पहुंची वाक़ई आईएईए कभी भी आज के जितनी विध्वंसक स्थिति में नहीं थी! यानी ये लोग थोड़ा बहुत तो तार्किक व्यवहार करते थे; इस शख़्स ने मानो ज़ायोनी दुश्मन और अमरीका को ब्लैंक चेक दे दिया हो; यानी इस जंग में उसने आग में घी का काम किया था।
अगर आज आप फ़िलिस्तीन में तकलीफ़ उठा रहे हैं तो जान लेना चाहिए कि यह तकलीफ़, पैग़म्बर की पाकीज़ा रूह को भी तकलीफ़ पहुंचाती है, हमारे पैग़म्बर इस तरह के हैं।
ज़ायोनी अपने लक्ष्यों से पीछे नहीं हटे हैं। उन्होंने "नील से फ़ुरात तक" के अपने घोषित लक्ष्य को वापस नहीं लिया है। उनका इरादा आज भी यही है कि वे नील से फ़ुरात तक के इलाक़े पर क़ब्ज़ा कर लें!
आज इस्लामी जगत ताक़त की एक मिसाल को देख रहा है और वह अर्बईन मार्च है। अर्बईन मार्च इस्लाम की ताक़त है, सत्य की ताक़त है, इस्लामी प्रतिरोध मोर्चे की ताक़त है।
यह आशूर का पैग़ाम है जो हज़रत इमाम हुसैन और हज़रत ज़ैनब के गले से बड़ी बेबसी और तनहाई के वक़्त निकला और आज आलमगीर बन गया है, दुनिया पर छा गया है। यह अल्लाह की अज़ीम निशानी है जो अल्लाह दिखा रहा है।
27 जूलाई सन 1988 को आयतुल्लाह ख़ामेनेई जो तत्कालीन राष्ट्रपति थे, अहवाज़ के एक सैन्य अस्पताल का 19 घंटे मुआयना करते हैं, जिसके दौरान वे केमिकल बमबारी के क़रीब 750 पीड़ितों में से हर एक से मिलते, उसकी ख़ैरियत पूछते और उसे तोहफ़ा देते हैं।
यह जो क्रूरता व बेरहमी ज़ायोनी शासन ने दिखायी है, यह जो बेरहमी की है, उससे न सिर्फ़ यह कि उसकी इज़्ज़त मिट्टी में मिल गयी है, बल्कि अमरीका भी बेइज़्ज़त हुआ है, युरोप के कुछ मशहूर मुल्कों की इज़्ज़त भी गयी है, बल्कि इससे पश्चिमी सभ्यता व संस्कृति की इज़्ज़त भी चली गयी है।
लेबनान के हिज़्बुल्लाह संगठन के महान कमांडर शहीद फ़ुआद अली शुक्र की जेहादी ज़िंदगी की एक झलक, उनकी बेटी ख़दीजा शुक्र की ज़बानी और शहीद फ़ुआद शुक्र के जेहाद और संघर्ष के ज़माने की ख़ास तस्वीरें और इसी तरह इमाम ख़ामेनेई के साथ शहीद की कुछ तस्वीरें पेश हैं।
वाइज़मैन इंस्टिट्यूट पर ईरान का मीज़ाइल हमला ऐसी स्थिति में हुआ कि इस इंस्टिट्यूट को गूगल मैप से डिलीट कर दिया गया था ताकि इसकी लोकेशन का पता न चले। वाइज़मैन इंस्टिट्यूट ज़ायोनी सरकार के ख़ुफ़िया परमाणु हथियारों की तैयारी के प्रोग्राम में बहुत आगे आगे था।
इस्लामी सरकारों पर आज बहुत भारी ज़िम्मेदारी है। इस्लामी सरकारों में से कोई भी सरकार, किसी भी रूप में, किसी भी बहाने से ज़ायोनी सरकार का समर्थन करेगी तो निश्चित तौर पर वह जान ले कि उसके माथे पर यह शर्मनाक कलंक हमेशा के लिए बाक़ी रह जाएगा।
हम जंग में मज़बूती से उतरे, इसका सुबूत यह है कि जंग में हमारे सामने वाला पक्ष ज़ायोनी सरकार अमरीकी सरकार का सहारा लेने पर मजबूर हो गयी। अगर उसकी कमर टूट न गयी होती, अगर वह गिर न गयी होती, अगर असहाय न हो गयी होती, अगर अपनी रक्षा करने में सक्षम होती तो इस तरह अमरीका से मदद न मांगती।