आज अमरीका और पश्चिम में शायद ही कोई ऐसा इंसान हो जिसकी अंतरात्मा जावित हो और वो हालिया सदी के सबसे भयानक अपराधों में से एक के बारे में ख़ामोश और उदासीन हो। इस अपराध में अब तक 32 हज़ार लोग मारे जा चुके हैं और संयुक्त राष्ट्र संघ के एक अधिकारी के बक़ौल, ये दुनिया में रवांडा के जातीय सफ़ाए के बाद से सबसे बड़ा नरसंहार है।(1) कोई ज़ायोनी हुकूमत के दूतावास के सामने आत्मदाह करके इस जातीय सफ़ाए में अपने मुल्क की संलिप्तता पर एतेराज़ करता है(2) कोई अमरीकी विदेश मंत्रालय के अहम पद से इस्तीफ़ा देकर (3) तो कोई वॉशिंग्टन, न्यूयॉर्क और सैन फ़्रांसिस्को की सड़कों पर हफ़्तों जंग मुख़ालिफ़ प्रदर्शन करके।

मैदान के दूसरी ओर अमरीकी हुकूमत है। ऐसी हुकूमत जिसने अमरीकी अवाम के बड़े हिस्से की मर्ज़ी के ख़िलाफ़ ज़ायोनी हुकूमत के हाथों ग़ज़ा के अवाम के निर्दयी नरसंहार में लिप्त होकर ख़ुद को संकट में डाल लिया है और एक गहरी दलदल में फंस गयी है। इस्लामी इंक़ेलाब के नेता इमाम ख़ामेनेई ने हाल ही में नए हिजरी शम्सी साल के पहले दिन के अपने ख़ेताब में ग़ज़ा संकट के सिलसिले में अमरीकी सरकार के रवैये के बारे में बिलकुल सही समीक्षा करते हुए इसे "सबसे बुरी स्थिति का चयन" बताया था और इस चयन के तीन गंभीर नतीजों की ओर इशारा किया थाः

1-            जंग के शुरूआत के दिनों में ही जो बाइडेन ने ज़ायोनी शासन के प्रति सपोर्ट के इज़हार के लिए तेल अबीब का दौरा किया और अमरीकी कॉन्ग्रेस ने भी कुछ दिनों की छुट्टी के बाद जो पहला बिल मंज़ूर किया वो अमरीकी सरकार की ओर से इस्राईल के लिए मदद का पैकेज था। इस वक़्त भी अमरीकी हुकूमत कोशिश कर रही है कि ज़ायोनी हुकूमत की मदद के लिए 14 अरब डॉलर का एक और पैकेज मंज़ूर करवा ले।(4) इसके अवाला वॉशिंग्टन पोस्ट ने भी हाल ही में अपनी एक सनसनी फैलाने वाली रिपोर्ट में इस बात का पर्दाफ़ाश किया है कि 7 अक्तूबर को ग़ज़ा की जंग शुरू होने के वक़्त से लेकर अब तक वॉशिंग्टन ने ख़ुफ़िया तरीक़े से इस्राईल के साथ 100 से ज़्यादा सैन्य व हथियार बेचने से संबंधित सौदे किए हैं।(5) बर्नी सैंडर्ज़ और एलीज़ाबेथ वॉरेन जैसे कुछ अमरीकी सेनेटरों ने भी खुले लफ़्ज़ों में ग़ज़ा के मौजूदा संकट में अमरीका के रोल पर सवाल उठाया है(6) जिसके नतीजे में आज दुनिया में कोई भी ज़ायोनी सरकार के बर्बरतापूर्ण अपराधों में अमरीका के लिप्त होने का न तो इंकार कर सकता है और न ही इस पर पर्दा डाल सकता है। ज़ायोनी हुकूमत के अपराध में अमरीका की संलिप्तता ने अमरीकी मानवाधिकार की अस्लियत को दुनिया के सामने उजागर और अख़लाक़ के लेहाज़ से इस मुल्क की इज़्ज़त को तार तार कर दिया है।

इस्लामी इंक़ेलाब के नेता ने 20 मार्च 2024 को नौरोज़ के दिन अपने ख़ेताब में एक बार फिर पश्चिमी सभ्यता और पश्चिम के मानवाधिकार के दावों को बेनक़ाब करने में फ़िलिस्तीन के रेज़िस्टेंस और फ़िलिस्तीनी अवाम के सब्र को सराहते हुए कहाः "ग़ज़ा के वाक़यात ने दिखा दिया कि दुनिया पर कैसा ज़ुल्म और अंधकार छाया हुआ है, दिखा दिया कि पश्चिम की इस तथाकथित सभ्य दुनिया की सोच व किरदार पर, जो मानवाधिकार की रक्षा की दावेदार है, कैसा अंधकार छाया हुआ है।"

2-            इलाक़े और दुनिया में अमरीका से बढ़ती नफ़रत

हालिया महीनों में दुनिया के मुख़्तलिफ़ शहरों में ग़ज़ा में ज़ायोनी हुकूमत के जुर्म और उन जुर्मों में अमरीका की संलिप्तता के ख़िलाफ़ बड़े पैमाने पर प्रदर्शन और रैलियां देखने में आयीं। ये प्रदर्शन अमरीका के केन्द्र यानी वॉशिंग्टन डीसी और अमरीकी कॉन्ग्रेस की इमारत के अंदर तक पहुंच गया।(7) दिलचस्प बात ये है कि अमरीकी सरकार से अवामी सतह पर इस नफ़रत का असर, अमरीका के चुनावों पर भी पड़ रहा है जैसाकि मिशीगन जैसे कुछ राज्यों में डेमोक्रेटिक पार्टी की आरंभिक प्रतिस्पर्धा में, ग़ज़ा के सिलसिले में बाइडेन सरकार की नीतियों पर एतेराज़ की स्थिति में 1 लाख से ज़्यादा लोगों ने  Uncommitted के विकल्प को इस्तेमाल किया(8) जो एतेराज़ पर आधारित वोट समझा जाता है।

हालिया बर्सों में क्षेत्र की सरकारों की ओर से अमरीका की मुख़ालेफ़त और मुसलमान क़ौमों के बीच अवामी सतह पर क्रोध भी बढ़ा है। सीएनएन ने अपनी एक रिपोर्ट में बताया है कि बाइडेन सरकार को पूरे अरब जगत में अपने कूटनयिकों की ओर से ऐसी गंभीर चेतावनियां मिली हैं कि ग़ज़ा में इस्राईल की विनाशकारी फ़ौजी कार्यवाही का सपोर्ट, अमरीका के लिए अरब अवाम की एक पूरी नस्ल के जनमत को खो देने के रूप में सामने आएगा।(9) वॉशिंग्टन इंस्टीट्यूट का ताज़ा सर्वे भी इस दावे की पुष्टि करता है। इलाक़े के 6 अरब मुल्कों के लोगों पर किए गए इस सर्वे के मुताबिक़ इन मुल्कों के सिर्फ़ 6 फ़ीसदी लोगों का मानना है कि अमरीका ने ग़ज़ा जंग में सार्थक रोल अदा किया है।(10) इसी तरह मिस्र के मशहूर अख़बार अलअहराम के संपादकीय बोर्ड के अध्यक्ष ने भी हाल ही में अपने एक संपादकीय नोट में साफ़ तौर पर लिखा था कि आज अमरीका, अरब जगत का सबसे बड़ा दुश्मन है।(11) क्षेत्र के मुल्कों की ओर से यूएन में अमरीका और उसके घटकों के हालिया प्रस्तावों की मुख़ालेफ़त और उनके ख़िलाफ़ वोटिंग से भी इस बात की पुष्टि होती है।

इस्लामी इंक़ेलाब के नेता ने इलाक़े में अमरीका तीव्र पतन और ग़ज़ा के सिलसिले में उसके रोल की इस तरह समीक्षा कीः "अमरीका ने ग़ज़ा के इलाक़े में सबसे बुरा स्टैंड लिया, उसने ऐसा काम किया कि पूरी दुनिया में घृणित हो गया। ये लोग जो लंदन, पेरिस और दूसरे योरोपीय मुल्कों में और ख़ुद अमरीका में सड़कों पर निकल कर फ़िलिस्तीन के सपोर्ट में प्रदर्शन करते हैं, ये अस्ल में अमरीका से अपनी नफ़रत का एलान करते हैं। अमरीका दुनिया में घृणित हो गया, इलाक़े में पहले ही उससे नफ़रत थी, अब वो नफ़रत 10 गुना बढ़ गयी।"

 

3-इलाक़े में अमरीका के समीकरण और प्लान बिखर गए

ग़ज़ा की जंग ने इस सच्चाई को अच्छी तरह ज़ाहिर कर दिया कि अब पश्चिम एशिया के इलाक़े में अमरीका और उसकी नीतियों की कोई गुंजाइश नहीं है। रेज़िस्टेंस ने अमरीका के जिस सबसे बड़े प्लान की बलि ली वो शायद ज़ायोनी हुकूमत से अरब और मुसलमान मुल्कों के संबंध क़ायम करने का प्लान था। इस वक़्त अरब जगत में जनमत पूरी दृढ़ता से ज़ायोनी हुकूमत को मान्यता दिए जाने के ख़िलाफ़ है। एक नए सर्वे के मुताबिक़ अरब दुनिया के 89 फ़ीसदी लोग, ज़ायोनी हुकूमत को मान्यता दिए जाने के ख़िलाफ़ हैं। ये आंकड़े न सिर्फ़ ये कि अरब जगत में इस्राईल से संबंध क़ायम किए जाने के ख़िलाफ़ एक संयोजित स्टैंड का पता देते हैं बल्कि सन 2022 में कराए गए सर्वे के नतीजे के संबंध में ज़ायोनी हुकूमत की मुख़ालेफ़त में 5 फ़ीसदी इज़ाफ़े को भी ज़ाहिर करते हैं जिसमें ज़ायोनी हुकूमत को मान्यता दिए जाने के मुख़ालिफ़ लोगों का फ़ीसदी 84 था।

पश्चिम विद्वानों और थिंकटैंकों ने भी पिछले कुछ महीनों के दौरान इस हार को माना है। मिसाल के तौर पर एटलांटिक काउंसिल के सीईओ फ़्रेडरिक कैंप ने कुछ हफ़्ते पहले एक इंटरव्यू में कहा थाः "मेरे ख़याल में इन हालिया वाक़यों की एक बड़ी क़ुर्बानी, सऊदी अरब और इस्राईल के बीच संबंध क़ायम करने का एजेंडा है...समझौते की संभावना पायी जाती थी और लोग इसे फ़िफ़्टी-फ़िफ़्टी समझ रहे थे लेकिन अब इसकी संभावना ज़ीरो है।"(12) या अमरीका के हड्सन इंस्टीट्यूट की सीनियर रिसर्च स्कॉलर ज़ैनब रीबूआ का कहना है कि हालिया जंग में हमास और रेज़िस्टेंस के मोर्चे का पहला बड़ा नतीजा, अरबों और ज़ायोनी हुकूमत के बीच सामान्यीकरण की प्रक्रिया का रोक दिया जाना है।(13)

इसी तरह इलाक़े में अमरीका की अस्ल प्रॉक्सी फ़ोर्स यानी ज़ायोनी हुकूमत को भी हालिया महीनों में ज़बर्दस्त चोटें पहुंची हैं और इस वक़्त उसे ग़ज़ा की जंग के फ़ौजी जानी नुक़सान और भारी आर्थिक नुक़सान के साथ ही आंतरिक सतह पर बहुत ज़्यादा तनाव और मतभेद का भी सामना करना पड़ रहा है।

इस्लामी इंक़ेलाब के नेता इमाम ख़ामेनेई रेज़िस्टेंस के मोर्चे की ओर से इलाक़े में अमरीका को पहुंचाए गए नुक़सान को इस तरह बयान करते हैं: "रेज़िस्टेंस ने अपना अस्ली वजूद, अपनी क्षमता और अपनी अस्ली पोज़ीशन दिखा दी, दुनिया को दिखा दिया कि रेज़िस्टेंस का मतलब क्या है। उसने अमरीका के सारे समीकरणो को छिन्न भिन्न कर दिया।"

संक्षेप में ये कि आज अमरीका, ग़ज़ा के संकट के सिलसिले में अपने ग़लत स्टैंड की क़ीमत चुका रहा है। इस जंग का हर गुज़रता लम्हा, अमरीकी जनमत में बाइडेन सरकार से नाराज़गी को पहले से ज़्यादा बढ़ा रहा है और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी अमरीका के पतन की रफ़्तार बढ़ती जा रही है।