बाकेरी परिवार में चार बेटे थेः अली, रज़ा, महदी और हमीद। इनमें हर एक ने बुलंदियों को ‎छुआ। अली बाकेरी सबसे बड़े बेटे थे जिन्होंने ईरान में पहलवी शासन के ज़ुल्म के ख़िलाफ़ ‎संघर्ष किया और इंक़ेलाबी गतिविधियों के कारण इस शासन ने उन्हें सज़ाए मौत दे दी। ‎दूसरे नंबर के बेटे रज़ा भी अपने बड़े भाई के रास्ते पर चलते रहे और पहलवी शासन ने ‎उन्हें आजीवन कारावास का दंड सुनाया। ‎

अब बारी आती है बाक़ी दो भाइयों महदी और हमीद की। महदी अपने बड़े भाई अली की ‎फांसी की सज़ा से बहुत दुखी थे और उन्हीं के रास्ते पर चल निकले। उन्होंने तबरीज़ ‎युनिवर्सिटी में मेकैनिकल इंजीनियरिंग की शिक्षा के साथ साथ पहलवी शासन के ख़िलाफ़ ‎इंक़ेलाबी गतिविधियां भी शुरू कर दीं। उन्होंने अपने छोटे भाई को भी आंदोलन के मैदान में उतार दिया। युनिवर्सिटी में उनके रूम मेट उन दिनों महदी की गतिविधियों के बारे में बताते हैं कि वह अपने सारे कामों के सिलसिले में बहुत व्यवस्थित और अनुशासित रहते थे। बहुत कम खाना खाते थे, स्टडी बहुत ज़्यादा करते थे, रोज़े बहुत रखते थे, जब रोज़ा रखते थे तो पर्वतारोहण के लिए भी जाते थे। उनके एक अन्य दोस्त बताते हैं कि मैं महदी को नहीं पहचानता था। नया नया युनिवर्सिटी पहुंचा था। तबरीज़ के मौसम के कारण बीमार पड़ गया। मेरी देखभाल करने वाला कोई नहीं था। एक छात्र मेरे लिए सूप तैयार करने लगा और मेरी देखभाल करता था। बाद में मुझे पता चला कि उस छात्र का नाम महदी बाकेरी है।

कुछ साल बाद ईरान में इंक़ेलाब कामयाब हो गया और पहलवी शासन का अंत हो गया। इसके बाद महदी को लगातार अलग अलग पद मिलते रहे। कुछ समय के लिए वह उरूमिए के एटार्नी रहे। इस पद पर रहते हुए उन्होंने बहुत ख़याल रखा कि पूरी तरह क़ानून पर अमल हो मगर साथ ही शिष्टाचार का भी पूरा ख़याल रखा जाए ताकि किसी को कोई नुक़सान न पहुंचे। उनके एक कर्मचारी बताते हैं कि उन्होंने हमें एक बार एक आरोपी को पकड़ने के लिए भेजा। उसके बूढ़े बाप ने दरवाज़ा खोला और कहा कि मेरा बेटा घर में नहीं है। मैं वापस आ गया और महदी बाकेरी को रिपोर्ट दी। उन्होंने कई बार बूढ़े बाप का हालचाल पूछा। वह संतुष्ट होना चाहते थे कि वे डर तो नहीं गए थे! इस ओहदे के बाद  9 महीने तक वह उरूमिए के मेयर रहे। शहर में बाढ़ आ गई और मेयर साहब नगरपालिका के मज़दूरों की तरह सड़कों और गलियों में काम में व्यस्त हो गए। वह अपनी तनख़्वाह का एक भाग अपने दफ़तर के कर्मचारियों को चुपके से दिलवा दिया करते थे।

ईरान के ख़िलाफ़ सद्दाम शासन की जंग शुरू हो गई तो महदी ने जंग के मोर्चे पर अलग अलग ज़िम्मेदारियां संभालीं। सबसे आख़िरी ज़िम्मेदारी थी आशूरा डिवीजन की कमान। कमांडर रहते हुए भी महदी बाकेरी का वही पुराना स्वभाव बाक़ी रहा। वह कभी भी ख़ुद को अपने सैनिकों से अलग नहीं समझते थे। वह उनके साथ मिलकर काम करते थे। इस बात का ख़याल रखते थे कि कमांडर होने के नाते उन्हें कोई ऐसी सुविधा और संसाधन हासिल न हो जो आम सैनिकों के पास नहीं है। वह आम जवान की तरह बल्कि उससे भी कम सुविधाओं वाला जीवन गुज़ारते थे। एक रात यह हुआ कि टेंट में जगह कम पड़ गई तो वह ख़ुद बाहर निकल गए और बारिश में भीगने की वजह से बीमार पड़ गए। एक बार कोई उनके लिए फल लाया तो उन्होंने नहीं खाया। उन्होंने कहा कि मैं केवल वही चीज़ खाउंगा जो हर जवान को मिल सके।

महदी बाकेरी को अपने छोटे भाई से बड़ा लगाव था। इंक़ेलाब की तहरीक के दौरान और फिर ईरान पर थोपे गए युद्ध के दौरान महदी बाकेरी जहां भी गए उनके छोटे भाई भी उनके साथ थे। फ़रवरी 1984 में छोटे भाई हमीद शहीद हो गए और उनकी लाश दूसरे शहीदों की लाश के साथ जंग के मैदान में पड़ी रह गई। चूंकि महदी बाकेरी कमांडर थे इसलिए जवानों ने बहुत ज़ोर डाला कि उनके भाई की लाश को किसी तरह वहां से निकालें लेकिन महदी बाकेरी इसके लिए तैयार नहीं हुए। वह कहते हैं कि अगर सारे शहीदों की लाशें आप लोग ला सकते हैं तो महदी की भी लाश साथ लाइए, वरना नहीं। इसके एक साल बाद मार्च 1985 में 30 साल की उम्र में सद्दाम की सेना के हमले में महदी बाकेरी शहीद हो गए। हमीद की तरह उनकी भी लाश कभी मिल न सकी।

इस्लामी क्रांति के नेता आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई महदी बाकेरी के बारे में कहते हैं कि जंग की शुरुआत में महदी बाकेरी एक नौजवान छात्र थे जिन्होंने हाल ही में अपनी शिक्षा पूरी की थी। कुछ समय छावनियों में गुज़ारा। इसके बाद इमाम ख़ुमैनी के आदेश पर छावनी से बाहर आए। फिर आप देखिए कि उन्होंने अलग अलग आप्रेशनों में अपना कौशल दिखाया और पूरी डिवीजन की कमान बल्कि कभी कभी पूरी छावनी की ज़िम्मेदारी संभाली। यह अजीब बात नहीं है। यह चमत्कार नहीं है? यह इस्लामी इंक़ेलाब का चमत्कार है!