अगर बड़े कैनवस पर देखें तो आपको पता चल जाएगा कि पुरानी विश्व व्यवस्था चरमरा गई है। किसी ने सही ही कहा था कि पश्चिमी व्यवस्था का पतन रोमन साम्राज्य की तरह है सिर्फ़ इस अपवाद के साथ कि इसके गिरने के नज़ारे का इंटरनेट पर रियल टाइम आनंद लिया जा सकता है।

जिस वक़्त मैं यह पंक्तियां लिख रहा हूं, अतिग्रहित फ़िलिस्तीन में क़ाबिज़ उपनिवेशी शासन ने ज़मीनी चढ़ाई शुरू कर दी है। हालांकि वह आधिकारिक तौर पर इसकी पुष्टि करने में लाचार है, वह इसे सिर्फ़ “ज़मीनी हमले में विस्तार” का नाम दे रहा है। यह थोड़ा इस अर्थ में धूर्ततापूर्ण है क्योंकि ज़ायोनियों को पता है कि उन्हें बाहर निकलने की रणनीति की ज़रूरत पड़ेगी अगर यह हमला अपने पूर्व घोषित लक्ष्य को हासिल करने में नाकाम रहता है। तब उस हालत में वे इस बात का हमेशा यही कहेंगे कि ग़ज़ा पर “सही तरह से” ज़मीनी चढ़ाई की कभी कोशिश ही नहीं की गयी। 

तस्वीर को बड़े कैनवास में देखते हैं, मैं इसके छोटे पहलू पर इसी लेख में आगे चर्चा करुंगा।

अमरीका की अगुवाई में अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था मौत के बिस्तर पर दम तोड़ रही है। नेटो यूक्रेन में रूस के ख़िलाफ़ थोड़ा जोश से लड़ा, लेकिन ज़्यादातर मौक़ों पर आम युक्रेनी नागरिकों की जान की क़ीमत पर। वह जंग अब हार चुका है। इससे यह बात निश्चित हो जाएगी कि पश्चिमी ताक़तों की कथित डिटरेन्स ताक़त यूरेशिया में कभी भी दोबारा क़ायम नहीं हो पाएगी। कुछ ही बरसों में यह घटक आपस में भिड़ेंगे और तलछट में तबदील हो जाएंगे।

सिर्फ़ इतना ही नहीं है। यही क़िस्मत वेस्ट एशिया में उनके इंतेज़ार में है। बाइडन सरकार को लग रहा है कि ग़ज़ा में कार्यवाही के बाद सब कुछ अच्छा हो जाएगा। कुछ भी हो मगर स्थिति बेहतर नहीं होगी। सबसे पहली बात तो यह कि ग़ज़ा का प्रतिरोध पंद्रह साल पहले या नौ साल पहले वाला नहीं है। यह नया हमास स्मार्ट, बारीकियों पर ध्यान देने वाला, मंसूबाबंदी के साथ काम करने वाला और दूर की सोचने वाला है। उसे उन लोगों ने ट्रेन्ड किया है जो इस काम में बड़े माहिर हैं। उनकी जड़ें 1979 की क्रांतिकारी विचारधारा में हैं।

हमास कई तरह से हिज़्बुल्लाह जैसा है, अनुशासित और ग़ैर जज़्बाती। इसकी मिसाल 7 अक्तूबर को अतिग्रहित फ़िलिस्तीन के भीतर हमास की रेड झलकती है। यह सिर्फ़ सिपाहियों को मारने और पकड़ने की रेड नहीं थी। यह ज़ायोनी शासन को अंधा कर देने वाली रेड थी। मशहूर ग़ज़ा डिविजन को जिसने बरसों से ग़ज़ा की आबादी का गला घोंट रखा है, ऐसी मुंह की खानी पड़ी कि उसकी भरपाई शायद ही हो सके। सूत्रों के मुताबिक़, इस हमले का लक्ष्य इस डिविजन की ख़ुफ़िया और फ़ौजी क्षमताओं को नष्ट करना था। यह चीज़ साफ़ ज़ाहिर हो जाती है जब आप तादाद पर नज़र डालते हैं। मिसाल के तौर पर ज़ायोनी डिफ़ेन्स फ़ोर्स की सिगनल ख़ुफ़िया युनिटों को पहुंचने वाले नुक़सान ने उन्हें ज़मीनदोज़ कर दिया है। युनिट 414, नेशेर बटालियन के 19 फ़ौजी इस कार्यवाही में मारे गए और क़रीब 30 फ़ौजी घायल और क़ैदी बनाए गए। कैंप यूरिम में उनका ख़ुफ़िया उपकरण तबाह हो गया। उसकी सिगनल बटालियन का कमांडर, गोस्ट यूनिट के कमांडर के साथ कैंप रेइम में ढेर हो गया।

 

यही कहानी 933वीं नहल इंफ़ैन्ट्री ब्रिगेड की है जिसका कमांडर अपने दो सहयोगियों और दो दर्जन सिपाहियों के साथ ढेर हो गया। इस चीज़ ने डिविजन को अंधा कर दिया है क्योंकि ये वो लोग थे जिन्हें ग़ज़ा का भूगोल पता था और मानव ख़ुफ़िया संपत्ति समझे जाते थे।

फ़ौजी क्षमता के मोर्चे पर, स्पेशल ऑप्रेशन्स फ़ोर्सेज़ की सयरात मतकल, शयेतेत-13, स्पेशल नवल फ़ोर्सेज़ और शैलडॉग एयर स्पेशल ऑप्रेशन फ़ोर्सेज़, इन सबके अनेक कमांडर जंग के मैदान में मारे गए। पिछले किसी भी टकराव में इस शासन को इतना नुक़सान नहीं हुआ। यह अब कभी भी बेहतर हालत में नहीं आ पाएगा।

तस्वीर के बड़े रुख़ की तरफ़ लौटते हैं, इस शासन और अमरीका की सारी डिटेरन्स ताक़त जिसे वो थोप सकता था, ख़त्म हो गयी। अमरीका ने यमन में अंसारुल्लाह (हूती आंदोलन) को जितना मुमकिन था उतने सख़्त अंदाज़ में धमकी दी मगर उसने इस धमकी को तवज्जो देने के क़ाबिल ही नहीं समझा और न ही ज़ायोनी शासन की घोषित जंग के व्यवहारिक लक्ष्य हासिल हुए। फ़्रांस, जर्मनी और अमरीका सबने हिज़्बुल्लाह को ख़ामोश बैठने की नसीहत दी। उसने इसके जवाब में 130 ज़ायोनी फ़ौजियों को ढेर कर दिया और साथ ही नस्लभेदी की ख़ुफ़िया जानकारी जमा करने के कई ठिकाने तबाह कर दिए। अमरीका ने सीरिया और इराक़ में रेज़िस्टेंस फ्रंट के गिरोहों को किसी भी हरकत की ओर से धमकी दी और उन्होंने दोनों मुल्कों मे अमरीका की अवैध छावनियों पर 34 हमलों से जवाब दिया।

अमरीका और ज़ायोनी शासन का सबसे बड़ा नुक़सान, उनकी डिटेरन्स ताक़त का प्रतिरोध के मोर्चे की ओर से पूरी तरह मज़ाक़ बना दिया जाना है। इस प्वाइंट से अब वापसी नहीं होने वाली है।

बड़ी तस्वीर की बात करें तो रेज़िस्टेंस फ़्रंट ने कुछ अरब एलीट्स और सहयोगियों की पहले वाली स्थिति को बनाए रखने की साज़िश को हमेशा के लिए नाकाम बना दिया जहाँ वे फ़िलिस्तीन पर नाजायज़ क़ब्ज़े की क़ीमत पर ज़ायोनी शासन के साथ सहयोग करते और अपने संबंध बढ़ाते थे। पश्चिम का घमंड अब टूट गया है। पूरे अमरीका और यूरोप में फ़िलिस्तीन के समर्थन में प्रदर्शन इस बात संकेत है कि सत्ताधारी एलीट्स अब अपने अवाम के इरादों पर ज़ायोनी लॉबी के हित को प्राथमिकता देना जारी नहीं रख सकेंगे। अभी ज़ायोनी लॉबी के शिकंजे को तोड़ने में कुछ वक़्त लगेगा, लेकिन एक बात निश्चित है कि अब पुरानी हालत नहीं लौटेगी। अब हम देखेंगे कि पश्चिमी एलीट्स में फ़िलिस्तीनियों को न्याय दिलाने का स्वर धीरे धीरे तेज़ होना शुरू होगा।

ज़ायोनी लॉबी के फ़ौलादी पंजे में कपकपाहट शुरू हो गयी है। जिस तरह फ़िलिस्तीनी कॉज़ के सपोर्ट में यूरोपीय देशों के मौजूदा और पिछले मंत्री और अधिकारी सामने आए हैं- जिसमें स्पेन, यूनान और आयरलैंड शामिल है अलबत्ता यह सूची लंबी है- उससे ज़ायोनी लॉबी नर्वस हो गई है। उन्हें ये बात समझ में आ गयी है कि ग़ज़ा की अंतिम प्रक्रिया जो भी हो, हमले की ऑप्रेश्नल हक़ीक़तें जो भी हों, पिछली वाली हालत अब क़ायम नहीं रखी जा सकती।

अमरीकी हितों को पहुंचने वाले नुक़सान से यह प्रक्रिया और तेज़ हो जाएगी। अमरीकी इस बदलाव को ज़रूर महसूस कर रहे होंगे। ख़ुशक़िस्मती से इराक़ और सीरिया में रेज़िस्टेंस फ़्रंट उन्हें इसका एहसास कराने की सलाहियत रखता है।

वैसे वित्तीय नुक़सान पहुंचने का भी वक़्त आ पहुंचा है। बरसों से जारी डॉलर की छपाई अमरीकी अर्थव्यवस्था पर बोझ बन गयी है। अमरीकी इसे संभालने के बजाए इसके आदी हो गए हैं। आर्थिक और औद्योगिक मामलों के विशेषज्ञ कुछ इस तरह की तस्वीर पेश करते हैं कि अमरीकी सरकार तीन साल के 34 ट्रिलियन डॉलर के क़र्ज़ पर, मौजूदा बजट घाटे का 10 ट्रिलियिन डॉलर और लाद देगी। सालाना इंट्रेस्ट कॉस्ट 1.5 ट्रिलियन डॉलर पहुंच जाएगी।  इन हालात में बड़ी अर्थ व्यवस्थाएं अपने व्यापार में अमरीकी डॉलर से दूरी बना रही हैं तो अब ज़्यादा दिन तक इसे संभाला नहीं जा सकता। अमरीका की तबाही पक्की है।

इस बात को समझना होगा कि बहुत से लोगों के पास इतनी गहरी सोच नहीं होती कि वे आस-पास होने वाले बदलाव को भांप लें। इसी लिए मैंने पहले पैराग्राफ़ में फ़्रॉग सिन्ड्रोम शब्दावली इस्तेमाल की। अगर आप किसी मेंढक को खौलते हुए पानी में डालें तो वह फ़ौरन बाहर कूद जाएगा। लेकिन अगर आप उसे ठंडे पानी में रखें और फिर धीरे धीरे खौलाएं तो मेंढक बढ़ते हुए टम्प्रेचर को समझ नहीं पाता और मर जाता है। अमरीका और ज़ायोनी शासन की मिसाल इसी मेंढक की है। 

सौरभ कुमार शाही

पश्चिमी व दक्षिणी एशियाई मामलों के विशेषज्ञ पत्रकार

नोटः लेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के अपने विचार हैं, इन से khamenei.ir का सहमत होना ज़रूरी नहीं है।