सौरभ कुमार शाही, पश्चिम व दक्षिण एशिया मामलों के एक्सपर्ट पत्रकार
हम समय की बहुत ही संकटमय स्थिति में हैं, लेख लिखते वक़्त भी वही हालत है। पश्चिम एशिया की एक दुष्ट ताक़त को, जो घमंड में डूबी हुयी है, रणनैतिक हार मिली है जिससे उबर पाना उसके लिए क़रीब क़रीब नामुमकिन है। वेस्ट एशिया में, बसाया गया उपनिवेशी नस्लपरस्त शासन पर इस महीने के आग़ाज़ में अचानक ख़ौफ़ तारी हो गया क्योंकि रेज़िस्टेंस मोर्चा उसके उस मशहूर डिफ़ेन्स को तोड़ चुका था जिस पर उसे बहुत घमंड था। इसकी ख़ुफ़िया इकाई को -जिसकी, मित्र शासनों ने दुनिया भर में मदद की और वह अपने ही प्रोपैगंडे में सम्मोहित था जिसके बखान में वह नियमित तौर पर नेटफ़्लिक्स और दूसरे प्लेटफ़ार्मों पर पोस्ट करता रहता था- यह पता ही नहीं चला कि कहां से उस पर हमला हो गया। फ़िलिस्तीन के मक़बूज़ा इलाक़ों पर अब हमास के हमला ने, उस कारनामे में और चार चाँद लगा दिए जिसे हिज़्बुल्लाह ने क़रीब दो दशक पहले अंजाम दिया था और दुनिया को पता चल गया कि ज़ायोनी शासन की अजेय होने की मशहूर बात, सिर्फ़ अफ़साना है।
इसे दोहराए जाने में लंबा समय लगा। ट्रम्प का दीवानगी भरा क़दम जिसे उसके ज़ायोनी डोनरों, श्वेतवादी ईसाइयों से प्रोत्साहन मिला, थोपे गए उपनिवेशी शासन के लिए एक मोहलत साबित हुआ। बाइडेन ने कॉज़ को आगे बढ़ाते हुए, जो एक बार फ़िर अमरीका में लॉबी के हितों से प्रेरित है, इसे और मज़बूत करने की कोशिश की। दूसरी तरफ़ प्रतिरोध का मोर्चा सतर्क था।
फ़ार्स खाड़ी के एलिट्स के हाथों फ़िलिस्तीनियों को जिस ग़द्दारी का सामना हुआ उससे थोड़ी देर के लिए वो लड़खड़ाए। तथाकथित अब्राहम अकार्ड को फ़िलिस्तीनियों के ख़ून से लिखा गया। यह ग़लत सोच थी कि फ़िलिस्तीनी इसे तक़दीर का लिखा मान कर क़ुबूल कर लेंगे। कूटनीति की ज़बान में कहा जाए तो ग़द्दारी, मुनाफ़िक़ों का तौर तरीक़ा रहा है।
लंबे समय तक विपरीत परिस्थितियों के बावजूद हताश न होने वाले फ़िलिस्तीनियों ने रेज़िस्टेंस मोर्चे की मदद से जवाबी कार्यवाही की तैयारी की और जब यह सामने आई तो हैरतअंगेज़ थी।
यथास्थिति बनाए रखने की पूरी साज़िश, कि जिसके तहत ज़ायोनी अपनी सहज ज़िन्दगी जिएं और फ़िलिस्तीनी नाजायज़ क़ब्ज़े के तहत हमेशा कुचले जाएं, नाकाम हो गयी और फ़िलिस्तीन का मुद्दा एक बार फिर मुख्य मुद्दा बन कर सामने आ गया।
इससे फ़ार्स की खाड़ी और इस्लामी दुनिया के दूसरे एलिट्स के सामने सिर्फ़ एक रास्ता बचा है कि वो विशाल इस्लामी जगत में अपनी साख को खोने की क़ीमत पर ही ज़ायोनियों के क़रीब आ सकते हैं। यह उस मौजूदा स्थिति को भी उलटने का सही वक़्त है जिसमें कुछ मुल्क सिर्फ़ अपनी भौगोलिक पोज़ीशन की वजह से ख़ुद को इस्लामी जगत का वास्तविक मुखिया समझ बैठे हैं। यह मॉडल बाक़ी नहीं रह सकता।
इस्लामी जगत में यह स्वर तेज़ हो रहा है कि जो मुल्क अपने हितों को इस्लामी जगत के ऊपर रखते हैं, उन्हें इस समूह के नेतृत्व का कोई हक़ नहीं है। यह वक़्त ऐसी संस्था बनाने के लिए पूरी तरह उचित है जहाँ फ़ैसला लेना प्रजातांत्रिक क़वायद से संबंधित हो और वो फ़ैसले उनकी इच्छाओं के अनुरूप हों जिनके नाम पर इस्लामी जगत में स्वीकार्यता को तलाशा जा रहा है।
मैं ज़रा विषय से हट गया। फ़िलिस्तीनियों के संबंध में बात आगे बढ़ाते हैं। तथाकथित टू स्टेट का खोखला समाधान, निरर्थक हो चुका है। सेल्फ़ गवर्निंग एरिया के नाम पर वो लॉलीपॉप जो पश्चिम फ़िलिस्तीनियों को देना चाहता था, शुक्र है कि अब उसका कोई लेने वाला नहीं है सिवाए उन भ्रष्ट एलिट्स के जो नाजायज़ क़ाबिज़ शासन के साथ मिले हुए हैं।
ज़ायोनी शासन और उसके समर्थकों के साथ हुए ओस्लो समझौते पर दस्तख़त ही बुरी नीयत के साथ किए गए थे। फ़िलिस्तीनियों ने अच्छी नीयत से दस्तख़त की लेकिन उनकी सादगी से खेला गया। जिन समझौतों व सहमतियों पर पश्चिमी दुनिया ने दस्तख़त किए हैं उनकी क़ीमत उस काग़ज़ जितनी भी नहीं है जिन पर उनके दस्तख़त हैं। उनके पीछे हमेशा बुरी नीयत होती है, जिसकी दो ताज़ा मिसालें जेसीपीओए और मिन्स्क समझौते हैं। दोनों ही मामलों में पूरे समझौते के पीछे पश्चिमी सरकारों की बुरी नीयत थी। ट्रम्प का जेसीपीओए से निकलना और बाइडेन की दुविधा की हालत इस बात का सुबूत है कि इन मुल्कों में तथाकथित प्रजातंत्र एक ढोंग है। मिन्स्क समझौते में, फ़्रांस और जर्मनी के एलिट्स ने, जिनका इस समझौते में मुख्य रोल था, पर्दे के पीछे इस बात को माना कि इस समझौते के पीछे उनकी नीयत साफ़ नहीं थी। जब यह उनका मत है तो किस बुनियाद पर वो ये दावा कर रहे हैं कि ओस्लो समझौते के व्यवहारिक होने का चांस है?
यह बात भी जगज़ाहिर है कि थोपा गया उपनिवेशी शासन, कूटनीति में विश्वास नहीं रखता है। हिस्ट्री इस बात की गवाह है कि हर कब़्ज़ा किए गए इलाक़े को ज़ायोनियों के पंजों से सशस्त्र रेज़िस्टेंस के ज़रिए ही छुड़ाया गया न कि कूटनीति के ज़रिए। हमने लेबनान में यह देखा और इससे पहले हम ग़ज़ा में देख चुके हैं, जिससे फ़िलिस्तीनियों को हौसला मिलता है कि क्षेत्र में इस्लामी जगत के एलिट्स की ओर से फ़िलिस्तीनी कॉज़ के साथ कूटनैतिक मंच पर ग़द्दारी के बावजूद, रेज़िस्टेंस मोर्चा इस्लामी जगत के इन ग़द्दार एलिट्स का पाबंद नहीं है और इसकी जड़ें उस क्रांतिकारी परंपरा में हैं जो 1979 की इस्लामी क्रांति से जुड़ी है।
इस समस्या का सिर्फ़ व्यवहारिक हल, (जॉर्डन) नदी से (मेडिट्रेनियन) समुद्र तक एक प्रजातांत्रिक स्टेट है जिसमें सभी धर्मों के स्थानीय नागिरकों को बराबर का अधिकार और अवसर हो जबकि जिन्हें दुनिया के दूसरे इलाक़ों से लाया गया और स्थानीय लोगों की ज़मीनों पर बसा दिया गया, उनसे उसी जगह वापस जाने के लिए कहा जाए जहाँ से वे अस्ल में आए हैं। इससे दो काम होंगे। पहला यह कि सभी धर्मों के फ़िलिस्तीनियों को उनका मुल्क और संसाधन मिलेगा। दूसरा यह कि सभी पश्चिमी सरकारों और उन लोगों को जो थोपी गई कालोनियों के लिए खुल कर मोहब्बत का इज़हार करते हैं, इस बात का मौक़ा मिलेगा कि अपनी मोहब्बत के तकाज़े अमली तौर पर पूरे कर सकें। उन्हें मौक़ा मिलेगा कि वे फ़िलिस्तीन में जाकर क़ब्ज़ा करने वालों को उनकी अस्ली ज़मीनों पर फिर से बसाएं और उनके टैलेंट से फ़ायदा उठाएं। हिसाब किताब बराबर करने का वक़्त आ रहा है।
मुझे यक़ीन है कि जब अमली तौर पर साबित करने का मौक़ा आएगा तो पश्चिमी एलिट्स अपनी इज़हार की हुयी मोहब्बत से मुकरेंगे नहीं!
वो दिन लाने के लिए रेज़िस्टेंस मोर्चे को पहले फ़िलिस्तीन की क़ब्ज़ा की गयी ज़मीनों से क़ाबिज़ों को निकाल बाहर करना होगा। रेज़िस्टेंस मोर्चे की ऑप्रेश्नल और स्ट्रैटिजिक कामयाबी से तिलमिलाया हुआ ज़ायोनी शासन, ग़ज़्ज़ा के बच्चों और औरतों पर अपना क्रोध व मशहूर बहादुरी दिखा रहा है। इससे एक बार फिर न सिर्फ़ पश्चिमी एलिट्स का अस्ली चेहरा सामने आ गया जो अपनी अपनी सरकारों में ज़ायोनी हितों की रक्षा करते हैं बल्कि इस्लामी जगत के उन एलिट्स का भी जो बोलते तो बहुत हैं लेकिन ज़मीन पर बहुत कम ही कुछ करते हैं। अमरीका, ब्रिटेन, फ़्रांस और इनकी तरह दूसरों ने भी ज़ायोनियों को, क़ानून की गिरफ़्त से आज़ाद होकर नागरिकों की हत्या की जो खुली छूट दी है, वह दुनिया के मन में हमेशा के लिए दर्ज हो गयी है। जब हिसाब किताब का समय आएगा तब उन्हें अपने अपराधों की क़ीमत चुकानी पड़ेगी।
रेज़िस्टेंस मोर्चे के फाइटर्ज़ का सामना करने से डरने वाला थोपा गया उपनिवेशी शासन, पूरी बेरहमी से बच्चों और औरतों का क़त्ले आम कर रहा है। ज़मीनी चढ़ाई की भी धमकी दे रहा है। हालांकि यह रक्तरंजित होगा, लेकिन जो बात उसे पता नहीं है वह यह कि रेज़िस्टेंस फ़ोर्सेज़ इसका इंतेज़ार कर रही हैं। और वो नए जोश के साथ इंतेज़ार कर रही हैं।
(लेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के अपने विचार हैं, Khamenei.ir का इससे सहमत होना ज़रूरी नहीं।)