यह लेख लिखते वक़्त ग़ज़ा पर ज़ायोनी शासन के हमलों को दो महीने का वक़्त हो चुका है। इस आप्रेशन का निचोड़ एक समीक्षक ने चंद शब्दों में बहुत अच्छे ढंग से व्यंगात्मक अंदाज़ में पेश किया; "ग़ज़ा में अपने दो महीने लंबे ऑप्रेशन में इस्राईल ने रेज़िस्टेंस फ़ोर्सेज़ के कमांडरों से ज़्यादा संयुक्त राष्ट्र संघ के अफ़सरों को क़त्ल किया है।" इस वाक्य का अहम पहलू यह है कि यह प्रतीकात्मक नहीं है बल्कि हक़ीक़त को पेश कर रहा है।

ज़ायोनी शासन की प्रोपैगंडा यलग़ार हसबरा बहादुरी दिखाने की कोशिश कर रही है। तेज़ी से एडिट शुदा वीडियो और आकर्षक तस्वीरों की मदद से वह यह दिखाने की कोशिश कर रही है इस्राईल की फ़ौज उत्तरी ग़ज़ा को किसी तरह कुचलने में कामयाब रही और वहां पर रेज़िस्टेंस के मोर्चे को ख़त्म कर सकी। लेकिन इस बार भी उसका यह ख़याल ग़लत है कि इस तरह के मीडिया हथकंडे से फ़िलिस्तीनी कॉज़ का सपोर्ट करने वालों ख़ास तौर पर रेज़िस्टेंस के समर्थकों के इरादे को कमज़ोर कर ले जाएगी। इससे ज़्यादा हक़ीक़त से दूर कोई चीज़ नहीं हो सकती।

 

इसके कुछ बड़बोले दावों की समीक्षा करते हैं। इसका मुख्य दावा है कि उसने उत्तरी ग़ज़ा को ‘घेर’ लिया है। यह  पूरी तरह धूर्ततापूर्ण है। ग़ज़ा पहले से ही घिरा हुआ है। यह सैन्य कारनामा नहीं है। उसने जो हासिल किया है वह यह है कि वह पूरब से ग़ज़ा के विरल आबादी वाले इलाक़े ‘वादी ग़ज़ा’ में दाख़िल हुई और वहाँ से पश्चिम में समुद्र तट तक पहुंची और इस तरह वह ग़ज़ा को उत्तर और दक्षिण में प्रभावी तरीक़े से बांट सकी। इसी तरह वह पश्चिमोत्तर से ग़ज़ा में दाख़िल होकर समुद्र तट के समानांतर आगे बढ़ते हुए पूरब से पश्चिम ऐक्सिस पर वादी ग़ज़ा से हरकत करके तट की ओर से बढ़ रही अपनी फ़ौज से जाकर जुड़ जाने में कामयाबी हुयी।   

 

विरल आबादी वाले इन दो ऐक्सिस के अलावा  जहां रेज़िस्टेंस फ़ोर्सेज़ के भूमिगत ढांचे नहीं है कि जहाँ से वे प्रभावी ढंग से चुनौती दे सकें, इस्राईली सेना के लिए अपनी पैदल टुकड़ी को उतारना मुश्किल हो गया है तो कमांड और कंट्रोल सेंटर की बात तो जाने दीजिए। कुल मिलाकर वह उत्तरी ग़ज़ा के सिर्फ़ 40 प्रतिशत भाग पर नाजायज़ कंट्रोल सकी जो साइज़ में 150 वर्ग किलोमीटर है। इस बात पर ध्यान रहे कि हमने नाजायज़ कंट्रोल शब्द इस्तेमाल किया है न कि आक्युपेशन। ऐसा इसलिए कि ज़्यादातर इलाक़े जिस पर उसका कंट्रोल है वहाँ पर इस्राईल डिफ़ेन्स फ़ोर्स स्थायी तौर पर मौजूद नहीं है। इस्राईली एयरफ़ोर्स भारी बमबारी करती है जिसके बाद तोपख़ाने से शेलिंग करती है और फिर बक्तरबंद इकाई, पैदल टुकड़ी के बिना, आगे बढ़ने की कोशिश करती है। उसे डर है कि पैदल टुकड़ी कहीं रेज़िस्टेंस फ़ोर्सेज़ के हाथों पकड़ न ली जाए। पहले दो चरणों में, रेज़िस्टेंस फ़ोर्स के जियाले हमले की शिद्दत कम होने का इंतेज़ार करते हैं और उस वक़्त नज़दीक से हमला करते हैं जब इस्राईली फ़ौजी टैंक से निकलते थे। इस तरह की कार्यवाही में ज़्यादातर एंटी टैंक शेल अलयासीन105 और रूस के जंग के मैदान में अपनी उपयोगिता साबित कर चुके एंटी टैंक कॉर्नेट और कोन्कोर मिज़ाईल से मिलते जुलते मिज़ाईल इस्तेमाल किए गए। ज़्यादातर केस में इस्राईली डिफ़ेन्स फ़ोर्स के फ़ौजी, जल्दी से प्रोपैगंडे के लिए फ़ोटो खिंचवाकर उसी बिन्दु पर वापस भाग जाते थे जहाँ से वे आगे बढ़े थे।

दूसरे ऐक्सिसों में दो ऐक्सिस की स्थिति यह रही है, एक पूर्वोत्तर से और दूरे उत्तरी ग़ज़ा के दक्षिण-पूर्वी ऐक्सिस पर। यह बात उस वक़्त साफ़ हो गयी जब थोड़ी मुद्दत के युद्ध विराम के दौरान इस्राईली बंदियों को रेड क्रास के हवाले करने की जगह के तौर पर रेज़िस्टेंस फ़ोर्स ने ग़ज़ा सिटी के दक्षिण-पूर्व में स्थित ‘करनी’ क्रॉसिंग और केन्द्र में स्थित ‘फ़िलिस्तीन स्कवायर’ को चुना। इससे साबित हो गया कि इस्राईल डिफ़ेन्स फ़ोर्स का उत्तरी ग़ज़ा को अपने क़ब्ज़े में कर लेने के बारे मे कैमरे के सामने दावा नृत्यकला से ज़्यादा और कुछ नहीं था। 

 

यह बात भी ध्यान रहे कि ज़ायोनी शासन ने आईडीएफ़ (इस्राईल डिफ़ेन्स फ़ोर्स) की क्रीम को तैनात किया था जिसमें, शयतेत-13 और सायरेत मतकल से स्पेशल फ़ोर्सेज़ के अलावा, मशहूर नहल, गोलाय और गिवती ब्रिगेड शामिल थीं, इनमें दोनों को ही रेज़िस्टेंस फ़ोर्स के 7 अक्तूबर के हमले में भारी जानी नुक़सान हुआ। रिज़र्विस्ट को तैयार रखने के अलावा आईडीएफ़ के कुल 1 लाख फ़ौजी मुख़्तलिफ़ रोल के साथ इस लड़ाई में भाग ले रहे हैं। इतनी बड़ी तादाद में फ़ौजी 150 वर्गकिलोमीटर इलाक़े पर क़ब्ज़ा करने की बात तो बहूत दूर इसे कंट्रोल तक नहीं कर सके जो उसकी हार का एक सुबूत है।

ज़ायोनी शासन का दूसरा लक्ष्य ग़ज़ा के भीतर रेज़िस्टेंस के मोर्चे के कमांड ऐन्ड कंट्रोल स्ट्रक्चर को तबाह करना था। वह इस लक्ष्य को हासिल करने में और भी बुरी तरह नाकाम रहा। कुछ मीडियम रैंक और एक ऊंची रैंक के कमांडर, क़स्साम ब्रिगेड के उत्तरी कमांडर और फ़ौजी काउंसिल के सदस्य अहमद अलग़न्दूर शहीद हुए। कुल मिलाकर आईडीएफ़, फ़ौजी स्ट्रक्चर को कोई ख़ास नुक़सान नहीं पहुंचा सकी। बल्कि हक़ीक़त तो यह है कि रेज़िस्टेंस फ़ोर्स अपनी शर्तों पर संघर्ष विराम करवा सकी-जिसका उसने 8 अक्तूबर को एलान किया था। वक़्त तथा जगह भी अपनी मर्ज़ी से चुनना इसका सुबूत है। इस बात की कल्पना कीजिए कि रेज़िस्टेंस फ़ोर्स के मुख़्तलिफ़ भाग न सिर्फ़ यह कि बड़ी आसानी से आपस में एक दूसरे से समन्वय बनाने में कामयाब रहे बल्कि क़ैदियों को हवाले करने में भी आपस में एक दूसरे से समन्वय बनाए रखा जो बताता है कि इनके बीच संपर्क व संवाद ज़बर्दस्त व बिना विघ्न के जारी है। यह बात भी बहुत अहम है कि न सिर्फ़ ज़ायोनी शासन बल्कि उसके घटक अमरीका और ब्रिटेन ने 45 दिनों तक सबसे आधुनिक टेक्नॉलोजी इस्तेमाल की ताकि क़ैदियों का पता लगा सकें लेकिन इसमें भी वे बुरी तरह नाकाम रहे। तीसरा लक्ष्य इन क़ैदियों को आज़ाद कराने का था, यह भी बिना रेज़िस्टेंस से संघर्ष विराम किए और उसकी शर्तों पर झुके बिना हासिल नहीं हुआ।

मज़बूत स्थिति में हुई इस बातचीत को मशहूर फ़िलिसतीनी समीक्षक रम्ज़ी बारूद ने इन शब्दों में बयान किया है; हमास की पोज़ीशन नहीं बदली है। यह बात इस्राईल के बारे में नहीं कही जा सकती। इस्राईल की पोज़ीशन चाहे राजनैतिक हो या सैन्य, भ्रम और विरोधाभास की स्थिति है। जैसे ही फ़िलिस्तीन के इस्लामी आंदोलन हमास की सैन्य शाखा क़स्साम ब्रिगेड को पता चला कि इस्राईल ने 28 नवंबर को संघर्ष विराम का उल्लंघन किया है, तुरंत ही उसने जवाब दिया। एक बार फिर हमास का यह संदेश है कि आंदोलन कमज़ोरी की हालत में संघर्ष विराम के लिए तैयार नहीं हुआ बल्कि लड़ाई शुरू करने के लिए तैयार है जैसे ही इसकी ज़रूरत पड़ेगी।

अब जबकि जंग फिर से शुरू हो गयी है तो हमें क्या अपेक्षा होनी चाहिए? पहले चरण में अपने ऑप्रेश्नल और यहां तक टैक्टिकल गोल हासिल करने में नाकाम रहने वाली आईडीएफ़ रेज़िस्टेंस की फ़ौजी ताक़त को बांटने की कोशिश में है। दक्षिणी ग़ज़ा में कार्यवाही की शुरूआत के ज़रिए उसे लग रहा है कि वह रेज़िस्टेंस फ़ोर्स को दो मोर्चों पर लड़ने के लिए मजबूर करके उसके प्रभाव को कम कर देगी। लेकिन करने के मुक़ाबले में कहना आसान है। अभी तो आईडीएफ़ को उत्तरी ग़ज़ा के मज़बूत इलाक़ों जैसे पिछली बार वाले जबालिया शरणार्थी कैंप और रेज़िस्टेंस का गढ़ समझे जाने वाले अज़्ज़ैतून तथा अश्शुजाइया में दाख़िल होने का जोखिम लेना बाक़ी है। यहाँ पर रेज़िस्टेंस के भूमिगत ढांचे सबसे अहम हैं। संघर्ष विराम से एक दिन पहले, आईडीएफ़ ने ग़ज़ा शहर के रिंग रोड में दाख़िल होने की पहली बार गंभीर रूप से कोशिश की और अपने 13 फ़ौजियों के मारे जाने की बात क़ुबूल की। जबकि ज़मीनी सूत्रों के मुताबिक़, आईडीएफ़ को इससे कम से कम तीन गुना ज़्यादा जानी नुक़सान पहुंचा जिसका वह दावा करती है। यहां तक कि अश्शाती कैंप में भी जो तीन ओर से घिरा हुआ है और वहाँ रेज़िस्टेंस के भूमिगत मूल ढांचे सीमित स्तर पर हैं, आईडीएफ़ अभी तक इस तरह से दाख़िल नहीं हो सकी कि कुछ हासिल कर सके।

7 अक्तूबर को रेज़िस्टेंस मोर्चे ने स्ट्रैटेजिक लेहाज़ से जो फ़तह हासिल की है, उसे अब छीना नहीं जा सकता। ज़ायोनी शासन इस बात को समझता है। ग़ज़ा में उसकी ओर से नागरिकों के ख़िलाफ़ अंधाधुंध ताक़त का इस्तेमाल इस बात का सुबूत है। दो महीने के हमलों में टैक्टिकल फ़तह हासिल न कर पाने से उसकी हताशा और बढ़ गयी है, इसी वजह से नागरिकों और मूल ढांचों पर हमले तेज़ हो गए हैं, लेकिन अंधाधुंध तबाही जितनी भी हो जाए उसकी स्ट्रैटेजिक हार पर पर्दा नहीं डाल सकती।

अपने किसी भी लक्ष्य को हासिल न कर पाने से हताश ज़ायोनी शासन ने एक बार फिर नागरिकों की हत्या और मूल ढांचों पर हमले शुरू कर दिए हैं। सैकड़ों की तादाद में औरतों और बच्चों सहित आम नागरिक, पश्चिम तथा फ़ार्स की खाड़ी और बड़े स्तर पर मिडिल ईस्ट के पुराने इस्लामिक एलिट्स के ख़ामोश रूपी समर्थन से, क़त्ल हो रहे हैं। उनका अपना वजूद कई आयाम से जंग के मैदान में ज़ायोनी शासन के प्रदर्शन से जुड़ा हुआ है। दोनों ही नाकाम होते नज़र आ रहे हैं।