इस्लामी इंक़ेलाब के नेता आयतुल्लाहिल उज़मा सैयद अली ख़ामेनेई ने 11 दिसम्बर 2024 को अपनी स्पीच में कहा कि ज़ायोनी शासन ने सीरिया के इलाक़ों पर क़ब्ज़ा तो किया ही, साथ ही उसके टैंक दमिश्क़ के क़रीब तक पहुंच गए। गोलान हाइट्स के अलावा, जो दमिश्क़ का था और बरसों से उसके हाथ में था, दूसरे इलाक़ों पर भी क़ब्ज़ा करना शुरू कर दिया। अमरीका, योरोप और वे सरकारें, जो दुनिया के दूसरे मुल्कों में इन चीज़ों पर बहुत संवेदनशील हैं और एक मीटर और दस मीटर पर भी संवेदनशीलता दिखाती हैं, इस मसले पर न सिर्फ़ यह कि ख़ामोश हैं, एतेराज़ नहीं कर रही हैं बल्कि मदद भी कर रही हैं। यह उन्हीं का काम है। अब सवाल यह है कि अंतर्राष्ट्रीय क़ानून के मुताबिक़, दूसरे मुल्कों की सरज़मीन पर इस तरह के क़ब्ज़े का क्या हुक्म है और इस सिलसिले में अमरीका और योरोप की उदासीनता की वजह क्या है?
किसी दूसरे मुल्क पर क़ब्ज़े का विषय, अंतर्राष्ट्रीय क़ानून के मूल उसूलों में से एक है और संयुक्त राष्ट्र संघ के घोषणापत्र की धारा 2 के चौथे अनुच्छेद में (threat or use of force) यानी किसी मुल्क पर नाजायज़ क़ब्ज़े या उसकी संप्रभुता के उल्लंघन के लिए ताक़त के इस्तेमाल या धमकी के शीर्षक के तौर पर इस शब्दावली का इस्तेमाल किया गया है और इसे ग़ैर क़ानूनी बताया गया है।
इतिहास में, चाहे वह समकालीन इतिहास हो या इससे पहले का इतिहास हो, किसी दूसरे मुल्क पर हमला, किसी दूसरे मुल्क के इलाक़े पर क़ब्ज़ा, जंग शुरू होने की एक अहम वजह रही है। जैसे पहले विश्व युद्ध, दूसरे विश्व युद्ध, कोरिया युद्ध, वियतनाम युद्ध और इसी तरह इराक़ युद्ध जब सद्दाम ने कुवैत पर हमला कर दिया था और इसी तरह की बहुत सी दूसरी मिसालें। मूल रूप से जंगें शुरू होने की एक अहम वजह, जिनमें करोड़ों लोग मारे गए हैं, दूसरे मुल्क की सरज़मीन पर क़ब्ज़े की कोशिश है।
इस लेहाज़ से इस्लामी इंक़ेलाब के नेता की स्पीच में यह बिन्दु ध्यान देने योग्य है कि अगर यही हरकत किसी और वक़्त किसी दूसरी जगह हो यानी कोई मुल्क किसी दूसरे मुल्क की सरज़मीन में दाख़िल हो जाए तो पश्चिमी मुल्क और वर्चस्ववादी मुल्क उसे एक बहाने में बदल देते हैं और इसे बहुत बड़ा जुर्म बताकर उसके ख़िलाफ़ ग़ुस्से का इज़हार करते हैं। यहाँ दोहरा रवैया पूरी तरह ज़ाहिर है। युक्रेन के ही विषय को लीजिए, पूरब की ओर नैटो के फैलाव का नतीजा है, यह अमरीका और कुछ योरोपीय मुल्कों की ओर से अरबों डालर ख़र्च किए जाने और लाखों लोगों के मारे जाने और घायल होने का सबब बना है, क्यों? इसलिए कि विश्व साम्राज्यवाद के सरग़नाओं और पश्चिम के मीडिया प्रोपैगंडे के मालिकों के बक़ौल, रूस ने युक्रेन की सरज़मीन पर हमला किया है। जिस मुल्क ने किसी दूसरे मुल्क के इलाक़ों पर हमला किया है अगर वह ऐसा मुल्क हो जिससे अमरीका की दुश्मनी हो तो अमरीकी अरबों डालर ख़र्च करने और लाखों लोगों के मारे जाने और घायल होने का तमाशा देखने के लिए तैयार रहते हैं लेकिन अगर इन दोनों मुल्कों में तनाव कम होने की बात हो या सुलह की संभावना हो तो अमरीकी उसके लिए बिल्कुल तैयार नहीं होते बल्कि उनका कहना होता है कि इस आक्रामकता का जवाब दिया जाना चाहिए। यह चीज़ हमने युक्रेन में भी देखी कि युक्रेन की सरकार, जंग के आग़ाज़ से ही रूसी पक्ष के साथ शांति समझौते तक पहुंचना चाहती थी लेकिन बाइडेन सरकार ने ऐसा नहीं होने दिया। उसने हंगामा किया, क्यों? कैसी त्रासदी घट गयी? हमला हुआ है, एक मुल्क ने दूसरे मुल्क की सरज़मीन पर हमला किया है। लेकिन अगर यही आक्रामकता और यही हमला ज़ायोनी सरकार का हो, जैसा कि उसने कुछ महीने पहले लेबनान में किया, ग़ज़ा में उसने जो भयानक अपराध किए और अब सीरिया में यही करतूत की है तो अमरीकी आँखें बंद कर लेते हैं। अमरीकी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता मैथ्यु मिलर से जब पूछा गया कि इस्राईल, सीरिया के इलाक़े पर क़ब्ज़ा कर रहा है, पहले उसने कहा कि एक बफ़र ज़ोन था, हम इस बफ़र ज़ोन को अपने कंट्रोल में ले लेंगे। फिर जब उस पर क़ब्ज़ा कर चुका तो और आगे बढ़ा। सीएनएन ने हाल ही रिपोर्ट दी है कि इस्राईल, दमिश्क़ के क़रीब के ग्रामीण इलाक़ों तक पहुंच गया है और दमिश्क़ सिर्फ़ 16 मील की दूरी पर है। अगर स्थिति दूसरी होती यानी क़ब्ज़ा करने वाला इस्राईल न होता तो इस वक़्त अमरीका, ब्रिटेन, फ़्रांस जो काम करते वह यह होता कि यूएन सेक्युरिटी काउंसिल में एक आपात बैठक बुलाते। अगर हमला और क़ब्ज़ा करने वाला इस्राईल के अलावा कोई दूसरा होता तो उसकी निंदा करते और उसे सातवें अनुच्छेद के दायरे में ले आते और अगर वह फिर भी नाजायज़ क़ब्ज़ा जारी रखता तो उस पर हमला कर देते, सैन्य हमला कर देते, क्यों? इसलिए कि किसी दूसरे मुल्क की सरज़मीन पर हमला और क़ब्ज़ा किया गया है। लेकिन जब सामने वाला पक्षा ज़ायोनी शासन है तो यह चीज़ मैथ्यु मिलर के इंटरव्यू में बहुत स्पष्ट थी। रिपोर्टर ने जब उनसे इस सिलसिले में पूछा तो उन्होंने कहा कि मैं इस्राईली सरकार तो नहीं हूं जो इसका जवाब दूं। ठीक है, आप इस्राईली सरकार नहीं हैं, लेकिन अपने इस जवाब की तुलना कीजिए उन जवाबों से जो आप ऐसे ही मामलों में पहले दे चुके हैं। यह मैथ्यु मिलर का जवाब है जो कह रहे हैं कि हम इस सिलसिले में खुलकर कुछ कहने से पहले इस्राईली अधिकारियों से मशविरा करेंगे और हम उनसे बात कर रहे हैं। बस इतना ही!
पिछले दिनों जो बड़े पैमाने पर हमले हुए जिसके तहत इस्राईल ने सीरिया में 400 से ज़्यादा जगहों को टार्गेट किया और अमरीकियों ने भी क़रीब 80 जगहों पर हमले किए, यह यूएन के घोषणापत्र के ख़िलाफ़ है। इसीलिए अंतर्राष्ट्रीय क़ानून के घोषणापत्र में "ताक़त के इस्तेमाल (use of force)" की इबारत को आम तौर पर दर्ज किया गया है जिसका एक पहलू उस मुल्क की ज़मीन पर क़ब्ज़ा है यानी किसी मुल्क की ज़मीन पर क़ब्ज़ा इसी इबारत के तहत आता है और पिछले कुछ दिनों में इस्राईलियों और अमरीकियों ने सीरिया में जो बमबारियां और हमले किए हैं, वह भी इसी इबारत के दायरे में आते हैं। यही वजह है कि अमरीकी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता इस सिलसिले में ज़्यादा बोलना नहीं चाहते क्योंकि ख़ुद अमरीका, यूएन के घोषणापत्र की धज्जियां उड़ा रहा है।
यह बात भी इस्लामी इंक़ेलाब के नेता की स्पीच में है कि क्यों इस वक़्त सीरिया की सरज़मीन के एक हिस्से पर नाजायज़ क़ब्ज़ा कर रहे हैं? क्यों सीरिया के मूल और सैन्य प्रतिष्ठानों को निशाना बना रहे हैं? इसलिए कि वे जानते हैं कि देर सवेर सीरिया, रेज़िस्टेंस मोर्चे की ओर लौट आएगा। अमरीकी और इस्राईली पक्ष की समीक्षा भी यही है और यह सही समीक्षा है। क्यों सही समीक्षा है? इसलिए कि सीरिया के लोग कभी भी उस सरकार के तहत ज़िंदगी गुज़ारने के लिए तैयार नहीं होंगे जो अमरीका और इस्राईल की नौकर और पिट्ठू हो। उन्हें नौकरों की ज़रूरत है यानी यह चाहते हैं कि या तो वहाँ एक पिट्ठू ज़ालिम सरकार रहे या फिर अराजकता की स्थिति रहे। यह बात इस्लामी इंक़ेलाब के नेता की पिछली स्पीच में भी थी और इस बात की संभावना कम है कि अमरीकी, सीरिया में एक पिट्ठू सरकार क़ायम कर पाएं और ऐसे लोगों को सत्ता में ले आएं जो अमरीका के ग़ुलाम हों। इस्लामी इंक़ेलाब के नेता ने जो शब्द इस्तेमाल किए थे वे ये थेः "सीरिया की जवान नस्ल इस बात की इजाज़त नहीं देगी और अपने मुल्क को आज़ाद कराके रहेगी।" चूंकि अमरीकी और इस्राईली इस बात को अच्छी तरह समझते हैं की सीरिया के अवाम अमरीका तथा इस्राईल के पिट्ठू किसी तानाशाही के तहत ज़िंदगी गुज़ारने के लिए तैयार नहीं हैं, इसीलिए वे यह काम कर रहे हैं। वे इस मौक़े से ग़लत फ़ायदा उठा रहे हैं, क्योंकि वे जानते हैं कि आख़िकार सीरिया, एक ऐसे मुल्क की हैसियत से जिसके इलाक़ों पर पहले भी ज़ायोनी सरकार ने हमला और क़ब्ज़ा किया है, देर सवेर रेज़िस्टेंस मोर्चे की एक कड़ी में तबदील हो जाएगा और यही वजह है कि वे इस मौक़े से फ़ायदा उठाकर सीरिया के मूल और सैन्य प्रतिष्ठान को तबाह कर रहे हैं क्योंकि वे जानते हैं कि एक न एक दिन ये हथियार और ये संसाधन ऐसे लोगों के हाथ में आ जाएंगे जो उन्हें, बच्चों की क़ातिल इस सरकार के ख़िलाफ़ इस्तेमाल करेंगे।