इमाम रज़ा का अज़ीम कारनामा

इस्लामी इंक़ेलाब के नेता आयतुल्लाहिल उज़मा सैयद अली ख़ामेनेई ने 8 मई सन 2024 को पांचवीं इमाम रज़ा अंतर्राष्ट्रीय कॉन्फ़्रेंस के अकैडमिक बोर्ड के सदस्यों से मुलाक़ात में इमामों अलैहिमुस्सलाम की ज़िंदगी के आध्यात्मिक व राजनैतिक पहलुओं और उनकी शिक्षाओं की व्याख्या पर ज़ोर दिया। इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम के शुभ जन्म दिवस के मौक़े पर शिया मत को बचाने के लिए इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम के राजनैतिक संघर्ष के बारे में इस्लामी इंक़ेलाब के नेता आयतुल्लाह ख़ामेनेई के बयानों पर एक नज़र डालते हैं।

इमामों की मज़लूमियत सिर्फ़ इन हस्तियों की ज़िंदगी तक सीमित नहीं रही बल्कि सदियों तक इमामों की ज़िंदगी के अहम बल्कि शायद सबसे मुख्य पहलुओं की अनदेखी ने इतिहास में उनकी नाक़ाबिले फ़रामोश मज़लूमियत को जारी रखा।(19/7/1986) इमामों की ज़िंदगी की सबसे अहम चीज़ जिस पर उस तरह ध्यान नहीं दिया गया जिस तरह ध्यान देना चाहिए था, उनका "भरपूर राजनैतिक संघर्ष" है। (09/08/1984) राजनैतिक संघर्ष या भरपूर राजनैतिक जद्दोजेहद का क्या मतलब है जिसका हम इमामों के सिलसिले में हवाला देते हैं? राजनैतिक जद्दोजेहद एक राजनैतिक लक्ष्य के साथ संघर्ष को कहते हैं। वह राजनैतिक लक्ष्य क्या है? वह इस्लामी सरकार और हमारे लफ़्ज़ों में अलवी सरकार का गठन है। (19/7/1986) इमामत का मतलब है धर्म और दुनिया का नेतृत्व, भौतिक व आध्यात्मिक नेतृत्व। इसका मतलब यही राजनीति, मुल्क का संचालन और सरकार को चलाना है। सभी इमाम इसी लक्ष्य को हासिल करने की कोशिश करते रहे, बिना किसी अपवाद के सारे इमाम इस लक्ष्य के लिए कोशिश करते रहे, बस तरीक़े अलग थे, अलग अलग वक़्त में, अलग अलग तरीक़ों और मुख़्तलिफ़ अल्पावधि के लक्ष्य के साथ लेकिन सभी का दीर्घकालिक लक्ष्य एक था। (08/05/2024)

एक ग़ैर मामूली असैन्य जंग!

अगरचे इमामों के पाक जीवन में, इमामत के 250 वर्षीय दौर में नुमायां बिन्दु बहुत ज़्यादा हैं जिनमें से हर एक ध्यान, समीक्षा और व्याख्या योग्य है लेकिन आठवें इमाम अलैहिस्सलाम का ज़माना, इस सिलसिले के सबसे नुमायां दौर में से एक है। (07/09/2014)

इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम की पाकीज़ा ज़िंदगी क़रीब 55 साल थी...इस 55 साल की मुद्दत में क़रीब 20 साल आपकी इमामत का ज़माना है लेकिन इस मुख़्तसर सी मुद्दत ने इस्लामी जगत पर हक़ीक़त में जो असर डाला और सही अर्थों में इस्लाम को बढ़ावा देने और उसकी गहराई और अहले बैत अलैहिमुस्सलाम से जुड़ने और उनके मत के परिचय पर जो असर डाला वह एक बहुत ही हैरतअंगेज़ चीज़ है, एक बहुत गहरा सागर है। (17/09/2013) इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम की इमामत हारून रशीद के ज़ालेमाना दौर में शुरू हुयी। (07/09/2014) दोस्त, चाहने वाले कहते थे कि अली बिन मूसा ऐसे हालात में क्या कर सकते हैं? हारून के बहुत ही घुटन भरे माहौल में, जिसके बारे में रवायत है कि कहा जाता थाः "हारून की तलवार से ख़ून टपक रहा है" यह नौजवान उन हालात में, जिसके कांधों पर शिया इमामों के जेहाद को आगे बढ़ाने की बड़ी ज़िम्मेदारी है, क्या कर सकता है? (17/09/2013) इतने कठिन हालात में भी इस अज़ीम हस्ती ने पैग़म्बरे इस्लाम के आचरण और क़ुरआनी तथा इस्लामी शिक्षाओं का रौशन रास्ता इस्लामी समाज के सामने पेश किया और उसे व्यापकता दी और दिलों को अहले बैत के मत और पैग़म्बरे इस्लाम के ख़ानदान से क़रीब किया। (07/09/2014)

यहाँ तक कि नौबत मामून तक पहुंची और फिर इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम को मदीने से बनी अब्बास की राजधानी यानी ख़ुरासान के केन्द्र मर्व लाने पर इसरार करने और दबाव डालने की घटना सामने आयी। (07/09/2014) इतिहास हारून के ज़माने में इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम की ज़िंदगी के दस साल और उसके बाद ख़ुरासान और बग़दाद के गृह युद्ध के पाँच वर्षीय दौर में उनकी ज़िंदगी के बारे में कोई साफ़ तस्वीर सामने नहीं आ पाती लेकिन ग़ौर करने से यह बात समझी जा सकती है कि आठवें इमाम इस मुद्दत में भी अहलेबैत की उस लंबी मुद्दत से जारी जद्दोजेहद को, जो आशूरा के बाद हर ज़माने में जारी रही थी, उसी दिशा में उन्हीं लक्ष्यों के साथ जारी रखे हुए थे। (09/08/1984) आप देखिए कि (राजनीति) के मसले में इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम का रोल क्या है...इमाम रज़ा का उत्तराधिकारी बनना अस्ल में मामून, उस होशियार, ज़हीन और बहुत ही चालाक मामून और इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम के बीच एक मुक़ाबला था...एक बड़ा आंदोलन, एक ग़ैर मामूली असैन्य जंग यानी राजनैतिक जंग अस्ल में इमाम रज़ा और मामून के बीच शुरू हो गयी। इस जंग में इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम ने मामून को धूल चटा दी। उन्होंने मामून की नाक रगड़ दी। यहाँ तक कि मामून इमाम रज़ा को क़त्ल कर देने पर मजबूर हो गया। वरना उससे पहले यह स्थिति नहीं थी, वे लोग इमाम रज़ा का सम्मान करते थे, नमाज़ की इमामत के लिए भेजते थे। ये सब चीज़ें थीं। (08/05/2024)

मामून की राजनैतिक और शातेराना चाल के मुक़ाबिले में इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम का युक्तिपूर्ण प्रोग्राम

मामून, इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम को ख़ुरासान आने की दावत देकर कुछ लक्ष्य साधना चाहता था जिनमें पहला और सबसे अहम लक्ष्य शियों की भरपूर क्रांतिकारी जद्दोजेहद के मैदान को शांत और ख़तरा रहित राजनैतिक सरगर्मी के मैदान में बदलना था। दूसरा लक्ष्य उमवी और अब्बासी ख़िलाफ़तों के नाजायज़ होने के शियों के दावे को ग़लत साबित करना और उन ख़िलाफ़तों को क़ानूनी ज़ाहिर करना था। तीसरा लक्ष्य यह था कि मामून अपने इस काम के ज़रिए इमाम को जो जद्दोजेहद और मुख़ालेफ़त का एक आज़ाद मरकज़ थे, अपने शासन के कंट्रोल में लाना चाहता था और इसी तरह वह इमाम अलैहिस्सलाम के साथ ही सभी अलवी रहनुमाओं, प्रभावी हस्तियों और जंगजुओं को अपने कंट्रोल में ले आता।(09/08/1984)

मामून की इस मक्कारी भरी राजनैतिक चाल के जवाब में आठवें इमाम अलैहिस्सलाम ने युक्तिपूर्ण स्ट्रैटिजी अपनाई और उस पर अमल किया, जिसके नतीजे में तत्कालीन ख़लीफ़ा के इरादे पूरे होना तो दरकिनार, इसके बिल्कुल विपरीत दुनिया के सुदूर इलाक़ों में क़ुरआनी शिक्षाओं और अहलेबैत अलैहिमुस्सलाम से जुड़े विचार व नज़रिये फैलने लगे। अल्लाह पर भरोसे के साथ बहुत बड़ा क़दम उठाया और आठवें इमाम ने इलाही उपायों से, गहरी सोच से तत्कालीन ज़ालिम शासन की दुश्मनी भरी राजनैतिक योजनाओं का रुख़ बिल्कुल विपरीत दिशा में यानी सत्य और सत्यता के लक्ष्य की ओर मोड़ दिया। (06/09/2014)

इससे पहले तक शिया गिनी चुनी जगह पर थे लेकिन आपस में एक दूसरे से जुड़े हुए नहीं थे, मायूसी का माहौल था। कोई स्पष्ट क्षितिज निगाहों के सामने नहीं था। कोई उम्मीद नहीं थी। ख़लीफ़ाओं का क़ब्ज़ा हर जगह था। इससे पहले हारून का ज़माना था जो फ़िरऔन जैसी ताक़त का मालिक था। जब हज़रत इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम ख़ुरासान तशरीफ़ लाए और इस रास्ते से गुज़रे तो लोगों की निगाहों के सामने ऐसी शख़्सियत आई जिसने इल्म, महानता, वैभव, सच्चाई और अध्यात्म का नमूना लोगों की नज़रों के सामने रखा। मानो लोग पैग़म्बरे इस्लाम की ज़ियारत कर रहे थे। यह माहौल था। वह आध्यात्मिक जलाल, वह आध्यात्मिक महानता, वह शान, वह अख़लाक़, वह तक़वा, वह अध्यात्म, वह अथाह इल्म कि जो पूछना चाहो पूछ लो, जो चाहो उनके पास मौजूद है! लोगों ने यह चीज़ कभी देखी ही न थी। (10/05/2003)

इमाम रज़ा का अज़ीम कारनामा

जब मर्व में इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम को उत्तराधिकारी की पेशकश की गयी तो आपने साफ़ तौर पर उसे रद्द कर दिया और जब तक मामून ने खुलकर आपको क़त्ल की धमकी नहीं दी थी, आपने उसे क़ुबूल नहीं किया। इन सबके बावजूद इमाम अली बिन मूसा रज़ा अलैहिस्सलाम ने सिर्फ़ इसी शर्त पर उत्तराधिकारी बनना क़ुबूल किया कि वह सरकार के किसी भी मामले में दख़्लअंदाज़ी नहीं करेंगे और जंग, शांति, पद से हटाने, पद पर नियुक्त करने और मामलों की निगरानी में कोई हिस्सा नहीं लेंगे। मामून ने, जो यह सोच रहा था कि फ़िलहाल शुरूआत में ये शर्तें बर्दाश्त के क़ाबिल हैं और बाद में धीरे धीरे इमाम को ख़िलाफ़त की सरगर्मियों में शामिल किया जा सकता है, उनकी इस शर्त को क़ुबूल कर लिया। इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम ने उत्तराधिकारी बनने को क़ुबूल करके एक ऐसा कारनामा अंजाम दिया जो इमामों की ज़िंदगी में बेमिसाल था और वह करनामा इस्लामी जगत के स्तर पर शिया इमामत के दावे सार्वजनिक तौर पर बयान करना, तक़य्ये के पर्दे को उठा देना और शियों के पैग़ाम को सभी मुसलमानों के कानों तक पहुंचा देना था। ख़िलाफ़त का विशाल प्लेटफ़ार्म इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम के अख़्तियार में आ गया और उन्होंने वो बातें खुल्लम खुल्ला बयान कीं जो पिछले 150 साल में सिर्फ़ ख़ामोश तरीक़े से, तक़य्ये की आड़ में और अहलेबैत के ख़ास क़रीबी लोगों के सामने ही बयान की गयी थीं। (09/08/1984)

उस 19 साल की मुद्दत के बाद जब आपकी इमामत व शहादत का दौर पूरा हुआ और हज़रत अली बिन मूसा रज़ा को शहीद कर दिया गया, अगर आप उस वक़्त के हालात को देखिए तो महसूस करेंगे कि अहले बैत अलैहिमुस्सलाम की विलायत और पैग़म्बरे इस्लाम के ख़ानदान से श्रद्धा का सिलसिला इस्लामी जगत में इतना गहरा हो चुका है कि ज़ालिम अब्बासी शासन उस पर क़ाबू पाने में बेबस है। यह कारनामा इमाम अली बिन मूसा रज़ा अलैहिस्सलाम ने अंजाम दिया। (17/9/2013)