सन 1956 में स्वेज नहर जंग पश्चिम एशिया और उत्तरी अफ़्रीक़ा के इलाक़े में अमरीका की दख़लअंदाज़ी के लिए एक अहम मोड़ साबित हुयी। जब मिस्र के राष्ट्रपति जमाल अब्दुन्नासिर ने पूर्व सोवियत संघ के सपोर्ट से वेस्ट एशिया में ब्रिटेन और फ़्रांस की ताक़त को कंट्रोल करने के लिए स्वेज़ नहर के राष्ट्रीयकरण का फ़ैसला किया तो उस वक़्त दुनिया की दो बड़ी ताक़तों के ज़रिए और ज़ायोनी सरकार के हस्तक्षेप से एक जंग हुयी जो इस इलाक़े में एक नए सिस्टम के सामने आने का सबब बनी।
जमाल अब्दुन्नासिर ने सन 1948 में इस्राईल से अरबों की हार के बाद, अरबों की ताक़त का प्रदर्शन करने के लिए स्वेज नज़र के राष्ट्रीयकरण का फ़ैसला किया ताकि इस क़दम से क्षेत्र में पेरिस और लंदन के प्रभाव को ख़त्म कर दें। उनकी यह इच्छा, क़ाहेरा पर उनकी सत्ता का अंत करने ही वाली थी कि अचानक पूर्व सोवियत संघ और अमरीका मैदान में कूद गए और उन्होंने लंदन को अल्टीमेटम देकर जंग को रोक दिया। यही चीज़ क्षेत्र में वाशिंग्टन के आने का सबब बन गयी।
अलबत्ता इसके लिए कुछ चीज़ें बहुत ज़रूरी थीं। अमरीकी सरकार ने अंतर्राष्ट्रीय हालात को समझते हुए, फ़ार्स की खाड़ी में ताक़त के शून्य के मसले में दो बातों को बुनियादी तौर पर ध्यान का केन्द्र बनायाः (1) पश्चिमी दुनिया के हितों के ख़तरे में पड़ने का डर (2) निक्सन की स्ट्रैटिजी की बुनियाद पर प्रॉक्सी फ़ोर्स की हैसियत से सीधे तौर पर हस्तक्षेप में नाकामी। इस बुनियाद पर अमरीका ने अंग्रेज़ों के निकलने की चेमीगोइयां शुरू होने के साथ ही क्षेत्रीय सहयोग पर ज़ोर देना शुरू किया। सन 1968 में अमरीकी विदेश मंत्रालय में सुदूर पूर्व विभाग में अरब प्रायद्वीप डेस्क के प्रमुख ने एक कान्फ़्रेंस में जो वेस्ट एशिया के सिलसिले में आयोजित हुयी थी, कहाः "ब्रिटेन के पुराने रोल के अंत के बाद स्थानीय नेताओं को उनकी जगह लेनी चाहिए और उनकी मदद के लिए अमरीका से जो काम भी हो सकेगा वह ज़रूर करेगा लेकिन फ़ार्स की खाड़ी के मुद्दों में अमरीका के लिए किसी ख़ास रोल के बारे में बात नहीं की जा सकती।" अमरीका ने अपने अगले क़दम में और तत्कालीन अमरीकी राष्ट्रपति की योजना के मुताबिक़, वेस्ट एशिया में सीधे तौर पर हस्तक्षेप शुरू कर दिया। उस वक़्त तक ज़ायोनी सरकार को फ़्रांस और ब्रिटेन की ओर से बहुत ज़्यादा मदद मिल रही थी और उसे नए समय के लिए एक नया चयन करना था। अवैध ज़ायोनी शासन के संस्थापकों का हमेशा से यह ख़्याल था कि उस सरकार को जो ताक़त के बल पर गठित हुयी थी, अपनी मज़बूती के लिए एक बड़ी ताक़त का सहारा हासिल होना चाहिए। जॉनसन इस बात को समझ गए थे और उनके बाद के अमरीकी राष्ट्राध्यक्षों ने भी इस स्ट्रैटिजी को पूरी अहमियत दी। बाद में निक्सन ने ट्विन पिलर पॉलिसी अपनायी और पहलवी दौर के ईरान के साथ, क्षेत्र में इस्राईल के रोल को ज़्यादा मज़बूत बनाना चाहा।
अमरीका का दूसरा बड़ा फ़ैसला क्षेत्र में एक प्रॉक्सी फ़ोर्स गठित करने का था जो सन 1967 की जंग के जम़ाने में लिया गया। फ़्रांस के राष्ट्रपति जनरल डीगॉल, अब इस्राईल का सपोर्ट जारी रखना नहीं चाहते थे और तेल अबीब की भी समझ में आ गया था कि उसे अब किसी दूसरी ताक़त की शरण में जाना होगा। वॉशिंग्टन ने भी फ़ैसला कर लिया था कि वह उस वक़्त पश्चिमी दुनिया की पतन की ओर बढ़ रही दो बड़ी ताक़तों फ़्रांस और ब्रिटेन की ताक़त के शून्य को भरने के लिए वेस्ट एशिया के अहम मैदान में उतरेगा।
यह नीति जारी रही यहां तक कि आइज़न हावर, वाइट हाउस में राष्ट्रपति बनकर पहुंचे। उनकी नीति, जॉनसन की नीति का ही क्रम था और कम्युनिज़्म से टकराव के सिलसिले में उनका अपना तरीक़ा था। वेस्ट एशिया में आइज़न हावर की नीति का एक नमूना सन 1957 का है जब अमरीका ने एलान किया कि वह आर्थिक और सैन्य मदद देगा और ज़रूरत पड़ने पर कम्यूनिज़्म को बाहर निकालने के लिए सैन्य ताक़त का इस्तेमाल करेगा। वेस्ट एशिया की सुरक्षा को निश्चित बनाने के लिए आइज़न हावर ने सन 1957 और सन 1958 में जॉर्डन और लेबनान की पश्चिम की ओर झुकाव रखने वाली सरकार को वित्तीय मदद भेजकर अपनी नीति जारी रखी।
यह नीति उसी वक़्त व्यवहारिक हो पाती जब अमरीका, वेस्ट एशिया की सुरक्षा को एक प्रॉक्सी सरकार के हवाले कर देता। ईरान, सऊदी अरब और इस्राईल, वॉशिंग्टन के विकल्प थे और सन 1967 से इस मामले में तेज़ी आ गयी और सन 1979 में ईरान की शाही सरकार का तख़्ता पलट जाने के बाद यह काम, इस्राईल के हवाले कर दिया गया। इन बरसों के दौरान इस्राईल के लिए अमरीका की दानशीलता का एक नमूना तेल अबीब को सैन्य मामले में दी जाने वाली 318 अरब डॉलर की मदद है जो अब भी जारी है।
तेल अबीब को क्षेत्र में अपनी ताक़त का प्रतीक बनाने की अमरीका की एक और अहम नीति, अरब मुल्कों के साथ ज़ायोनी सरकार के संबंधों को सामान्य बनाने की योजना थी। कैम्प डेविड समझौता इस सिलसिले में अमरीका का सबसे पहला क़दम समझा जाता है और डील ऑफ़ सेंचरी इस सिलसिले की आख़िरी कड़ी थी जिसे ट्रम्प ने आगे बढ़ाने की कोशिश की थी। इसके ज़रिए अमरीका, इस्राईल को क्षेत्र में सैन्य लेहाज़ से सबसे ऊपर रखने के साथ ही सुरक्षा और राजनीति के लेहाज़ से सामान्य संबंध पर लाने के मामले में भी इस्राईल के लिए मार्ग समतल करना चाहता था। अलअक़्सा फ़्लड ऑप्रेशन के ज़माने से अमरीकी मदद की प्रक्रिया से भी साफ़ पता चलता है कि अमरीका सबसे पहले अपने हितों को मद्देनज़र रखता है और उसके बाद इस्राईल की सुरक्षा को। हक़ीक़त में वॉशिंग्टन ने अपनी योजना इस तरह से तैयार की है कि अपने हितों की रक्षा के लिए क्षेत्र में उसकी एक प्रॉक्सी सरकार रहे। ट्रम्प के पहले राष्ट्रपति काल और दूसरे राष्ट्रपति काल में अमरीका की ओर से इस्राईल को दी जाने वाली आर्थिक मदद को इसी परिप्रेक्ष्य में देखा जा सकता है।
अब सवाल यह है कि अमरीका को क्षेत्र में अपने लिए एक प्रॉक्सी सरकार की ज़रूरत क्यों है? इसके जवाब में इन बातों पर ध्यान देना ज़रूरी हैः
(1) पूर्व सोवियत संघ के अंत के बाद अमरीका, वेस्ट एशिया में जो व्यवस्था चाहता है वह सिर्फ़ वॉशिंग्टन के सीधे हस्तक्षेप से व्यवहारिक नहीं हो सकती।
(2) दुनिया और क्षेत्र में इस्राईल, अमरीका का एकमात्र घटक है जो हर हाल में विदेश नीति में अमरीकी उसूलों का पाबंद रहेगा।
(3) क्षेत्र में अमरीका की सुरक्षा और हथियारों की योजना के सही तरह से आगे बढ़ने के लिए इस्राईल, क्षेत्र के अरबों को डराने के लिए अमरीका की एक प्रॉक्सी सरकार है और वॉशिंग्टन हमेशा अरबों को डराने के लिए "इस्राईल कार्ड" खेलता है। यह बात अमरीका की ओर से अरबों को बेचे जाने वाले हथियारों के आंकड़े से पूरी तरह स्पष्ट हो जाती है। कुछ मिसालें पेश हैं:
• फ़रवरी सन 2025 में ट्रम्प ने यह सुझाव दिया कि अमरीका ग़ज़ा पट्टी का कंट्रोल अपने हाथ में ले ले ताकि उसके दोबारा निर्माण की प्रक्रिया की निगरानी कर सके।
• जनवरी सन 2025 में ट्रम्प ने इस्राईल को 1800 एमके-84 बम देने की मंज़ूरी दी जिनमें से हर बम 2000 पाउंड का था। इस फ़ैसले ने पिछली सरकार के इस्राईल को इस तरह के बम न दिए जाने के फ़ैसले को रद्द कर दिया जो उसने ग़ज़ा पट्टी जैसे इलाक़े में बड़ी तादाद में आम नागरिकों के मारे जाने के डर के तहत किया था।
• 7 फ़रवरी सन 2025 को अमरीका ने बड़े पैमाने पर सैन्य साज़ो सामान इस्राईल को बेचने की योजना को स्वीकृति दी जिसमें गाइडेड हथियार, बम और दूसरे संबंधित उपकरण थे।
• 28 फ़रवरी सन 2025 को ट्रम्प सरकार ने इस्राईल को 3 अरब डालर के हथियार बेचे जाने को मंज़ूरी दी जिनमें हज़ारों बम और वॉरहेड भी शामिल थे। ट्रम्प ने एक आदेश पर दस्तख़त किए जिसके नतीजे में अमरीका और इस्राईल सहित उसके घटकों के बारे में जाँच करने की वजह से इंटरनैश्नल क्रिमनल कोर्ट पर कुछ पाबंदियां लगा दी गयीं। इन पाबंदियों से वे लोग प्रभावित होते हैं जिन्होंने अमरीकी नागरिकों और अमरीका के घटक देशों के नागरिकों के सिलसिले में जाँच की हैं।
• ट्रम्प ने सत्ता में वापस आने के पहले ही दिन उस आदेश को रद्द कर दिया जिसके तहत वेस्ट बैंक में फ़िलिस्तीनियों के ख़िलाफ़ ज़ुल्म करने वाले इस्राईली सेटलर्ज़ के ख़िलाफ़ पाबंदियां लगायी गयी थीं। ट्रम्प के इस फ़ैसले का इस्राईल अधिकारियों ने दिल खोलकर स्वागत किया।
(4) अमरीका की विदेश नीति की बुनियाद यह है कि वेस्ट एशिया के ज़रिए पूरी दुनिया पर उसका वर्चस्व रहे क्योंकि इस इलाक़े में दुनिया के तेल और गैस के सबसे बड़े भंडार हैं और दुनिया का आर्थिक ढांचा इसी पारंपरकि ईंधन पर टिका हुआ है। मौजूदा स्थिति में अरब मुल्कों और इस्राईल की आर्थिक सुरक्षा को बनाए रखना अमरीका के लिए अहम है क्योंकि नई वैश्विक व्यवस्था में यूएई, सऊदी अरब और क़तर जैसे मुल्क चीन और रूस से भी दोस्ती की पेंगें बढ़ा रहे हैं जिसकी एक साफ़ मिसाल बीजिंग के साथ फ़ार्स की खाड़ी के तटवर्ती मुल्कों के कई सौ अरब डॉलर के समझौते हैं।
इन सारी बातों पर ध्यान देने से बाइडेन की सन 2023 की वह मशहूर स्पीच याद आ जाती है जिसमें उन्होंने कहा था कि "अगर इस्राईल न होता तो अमरीका, अपने हितों के लिए एक इस्राईल पैदा कर देता ताकि वह क्षेत्र में उसके हितों की रक्षा करे।" इसलिए अमरीका की ओर से इस्राईल को सपोर्ट न सिर्फ़ राजनैतिक और कूटनैतिक लेहाज़ से ग़ज़ा की जंग के दौरान युद्ध विराम के सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव को वीटो करने के सिलसिले में जारी रहा बल्कि इस्राईल की पैसों और हथियारों से मदद के लेहाज़ से भी जारी रहा।
लेखकः मोहम्मद अली हसन निया (वेस्ट एशिया मामलों के टीकाकार)