अमरीका का इतना छोटा सा इतिहास, इंसानों के ख़िलाफ़ ज़ुल्म और अपराधों से भरा हुआ है। इस सरज़मीन के अस्ली मालिकों व मूल निवासियों के नरसंहार से लेकर इस्राईल के सरकारी आतंकवाद के ज़रिए ज़मीनों को हड़पने और फ़िलिस्तीन की जनता के क़त्लेआम को सपोर्ट करने तक और एक जुमले में हिरोशिमा से ग़ज़ा तक, इन सबका सुलह, मानवता, मानवाधिकार, लोकतंत्र जैसे सुंदर लफ़्ज़ों की आड़ में, साम्राज्य के पिट्ठू प्रचारिक तंत्रों के ज़रिए बहुत ही घिनौनी शक्ल में जस्टिफ़िकेशन पेश किया जाता है। इस बारे में लेख पेश है।
1945 का गर्मी का मौसम, वह वक़्त था कि दूसरा विश्व युद्ध पश्चिमी मोर्चे पर जर्मनी की हार के साथ ख़त्म हो गया था जो ऐक्सिस पावर का आख़िरी मोर्चा था, जापानी साम्राज्य के पास भी कि जिसकी सैन्य व रक्षा ताक़त का बड़ा हिस्सा ख़त्म हो चुका था, अलाइड फ़ोर्सेज़ के सामने हार मानने और हथियार रखने के सिवा कोई चारा नहीं था। इस स्थिति में अमरीकी सरकार ने जंग के तुरंत रुकने और शांति की स्थापना के नाम पर एक पागलपन भरा क़दम उठाते हुए, सिर्फ़ तीन दिन के अंतराल से 6 और 9 अगस्त को हिरोशिमा और नागासाकी शहरों पर ऐटम बम मारकर 2 लाख 20 हज़ार से ज़्यादा बेगुनाह लोगों का नरसंहार किया। अलबत्ता यह बात स्पष्ट थी कि अमरीका के इस अमानवीय व आपराधिक क़दम का एकमात्र लक्ष्य, भयानक परमाणु हथियार के साए में दुनिया वालों ख़ास तौर पर अपने पारंपरिक प्रतिद्वंद्वी पूर्व सोवियत संघ पर अपनी निरंकुश ताक़त का रोब जमाना था।
लेकिन ताक़त के इस प्रदर्शन पर नैतिकता और मानवीय दावे का लेप लगाने की भी कोशिश हुयी। तत्कालीन अमरीकी राष्ट्रपित हैरी ट्रूमन ने, जिन्होंने अमरीकी सेना की प्रयोगशाला में परमाणु बम तैयार होते ही इसे इस्तेमाल करने का आदेश देने में, अपने काम का औचित्य दर्शाने यानी बमबारी का अदेश जारी करने में इस हद तक झूठ बोला कि उन्होंने कहा कि दुनिया याद रखेगी कि दुनिया का पहला परमाणु बम हिरोशिमा पर बमबारी के लिए इस्तेमाल किया गया, "जो एक सैन्य छावनी थी।" ट्रूमन ने कहाः "यह काम अंजाम पाया क्योंकि हम चाहते थे कि जिस हद तक मुमकिन हो पहले हमले में आम लोग न मारे जाएं।" ट्रूमन के इस दावे को अमरीका में बाद में आने वाले लेखकों और सैन्य हस्तियों ने चुनौती दी और ख़ुद अमरीका के भीतर बहुत से जानकार लोगों ने इस झूठ को चुनौती दी; जैसे "मार्क वेबर" उन लेखकों में हैं जिन्होंने अपने लेख में जो "हिरोशीमा और नागासाकी पर परमाणु बमबारी" नामक किताब में छपा, ट्रूमन के कथन का हवाला देकर कहते हैं: "निरर्थक बात थी, वास्तव में क़रीब क़रीब सभी मारे जाने वाले आम नागरिक थे और अमरीका की स्ट्रैटेजिक बमबारियों की समीक्षा ने जो 1946 में प्रकाशित हुयी, एक रिपोर्ट में इस बिंदु पर बल दिया कि हिरोशीमा और नागासाकी को घनी आबादी के केन्द्र होने की वजह से टार्गेट के लिए चुना गया। अगर परमाणु बमबारी इसलिए की गयी ताकि जापानी नेता नए हथियार की विनाशकारी ताक़त के प्रभाव में आ जाएं, तो यह काम किसी सुदूर इलाक़े में स्थित सैन्य छावनी पर बमबारी करके भी किया जा सकता था। एक बड़े शहर को तबाह करने की ज़रूरत नहीं थी। अगर हिरोशीमा की बमबारी का औचित्व पेश भी किया जा सके तो नागासाकी की बमबारी का औचित्य पेश करना तो और भी मुश्किल है।" या "डग्लस मैक आर्थर" अमरीकी सेना के कमांडर ने, अपनी मौत से पहले अनेक दलीलें पेश कीं जिससे पता चलता है कि जापान पर परमाणु बमबारी की ज़रूरत नहीं थी। उन्होंने कहाः "मेरे साथियों का एक मन और एक ज़बान होकर यह कहना था कि जापान बिखर रहा है।" जनरल "कर्टिस लीमे" ने जो जर्मनी और जापान पर बमबारी करने में आगे आगे थे और बाद में अमरीकी वायु सेना के चीफ़ आफ़ स्टाफ़ बने, संक्षेप में लिखाः "परमाणु बमबारी ने जंग को ख़त्म करने में कोई मदद नहीं की।"
अलबत्ता, जापान पर परमाणु बमबारी को मानवाधिकार और नैतिकता का कवर देने से, मानवता के ख़िलाफ़ अमरीका की काली करतूत की फ़ाइल बंद नहीं हुयी; पिछले 80 बरसों से शांति के बहाने तथा मानवाधिकार की रक्षा के नाम पर इंसानों के ख़िलाफ़ अपराध, इस निर्दयी शासन की विदेश नीति का हमेशा हिस्सा रहा है। दुनिया के मुख़्तलिफ़ क्षेत्रों में सैन्य हस्तक्षेप और छोटी बड़ी जंगें छेड़ना और कोरिया प्रायद्वीप तथा वियतनाम में आज़ादी और कम्यूनिज़्म के प्रभाव और अफ़ग़ानिस्तान, इराक़ और लीबिया में आतंकवाद, जनसंहारक शस्त्र और तानाशाही सिस्टम से निपटने, प्रजातंत्र क़ायम करने... के नारे के साथ दसियों लाख लोगों का नरसंहार, उन अपराधों का थोड़ा सा भाग है जो विश्व साम्राज्यवाद ने शांति और मानवाधिकार की रक्षा के नाम पर किए हैं।
आज जो कुछ ग़ज़ा में हो रहा है वह इसी बेशरमाना जस्टिफ़िकेशन का ही सिलसिला है। बच्चों के हत्यारे इस्राईली शासन को बिना संकोच के मदद, इस शासन को रोज़ाना विनाशकारी और भारी बम भेजना जिसे आबाद इलाक़ों और आम लोगों को टार्गेट करने के लिए इस्तेमाल किया जाता है, सुरक्षा परिषद में संघर्ष विराम के प्रस्तावों को वीटो, ज़ायोनियों के अधिकारों की आड़ में फ़िलिस्तीनी महिलाओं और बच्चों का क़त्लेआम, फ़िलिस्तीन के मज़लूम अवाम के नरसंहार में अमरीका की सीधी संलिप्तता का एक छोटा सा भाग है। इतिहास का सबसे ज़्यादा कड़वा तंज़ सच है कि ग़ज़ा के क़रीब 40 हज़ार लोगों के क़त्लेआम (जिसमें ज़्यादातर औरतें और बच्चे हैं) इस इलाक़े के बहुत बड़े भाग को तबाह करने, ग़ज़ा के निहत्थे तथा भूख और प्यास की मार झेल रहे 20 लाख लोगों को बेघर करने और उनका धीरे धीरे नरसंहार करने के बाद भी, बड़ी बेशर्मी से यह कहा जा रहा है कि मानवता के ख़िलाफ़ अपराध और नस्लकुशी में अमरीका की रेड लाइन क्रास नहीं हुयी है!! इस्राईल की सरकार आम लोगों की जान की रक्षा की पाबंद है! ग़ज़ा के ज़्यादातर मारे जाने वाले हमास के लड़ाके हैं!... और इसी तरह के दूसरे झूठ जिसे ज़ायोनी शासन के बर्बर अपराधों का औचित्य दर्शाने के लिए पश्चिमी मीडिया में दोहराया जाता है। आज अमरीका के हाथ ज़्यादा नहीं तो ज़ायोनिस्ट रेजीम के बराबर फ़िलिस्तीन की मज़लूम क़ौम के ख़ून से सने हुए हैं।
इस तरह के अपराधों के संबंध में अमरीका और अंतर्राष्ट्रीय संगठनों के नारों और व्यवहार में यह दोग़लापन, बरसों पहले दुनिया की क़ौमों, ख़ास तौर पर मुसलमान क़ौमों के लिए जगज़ाहिर हो चुका है और उनके सामने रास्ता रौशन हो चुका है। यह राह व्यवहार के क्षेत्र में भी मुसलमान अवाम को राजनैतिक व आर्थिक संघर्ष के लिए और सैद्धांतिक चरण में भी प्रचारिक व मानसिक आयाम से संघर्ष की दावत देती है। इस्लामी इंक़ेलाब के नेता आयतुल्लाह ख़ामेनेई ने इस संदर्भ में इस्लामी जगत के सामने एक रास्ता पेश किया हैः
"इस वक़्त जो फ़र्ज़ है वह उन लोगों से मुक़ाबला है जो यह ज़ुल्म, यह इतिहास में महाअत्याचार, यह जातीय सफ़ाया, इस बेहाई, इस बेशर्मी से अपराध और इंसानो का क़त्ल कर रहे हैं, कि इंसान को इनकी बेशर्मी पर हैरत होती है जो आम लोगों के नरसंहार के लिए औचित्य और दलील पेश करते हैं, ये कितने बेशर्म हैं! छोटे बच्चों, मासूम और मज़लूम बच्चों की हत्या के लिए दलील देते हैं; ये कितने घिनौने हैं! ये जुर्म करने वाले हत्यारे और अपराधियों के जुर्म में शरीक हैं, लेकिन सिर्फ़ ये नहीं हैं बल्कि आज हर वह शख़्स जो ज़ायोनियों का सपोर्ट कर रहा है, अमरीका और ब्रिटेन जैसे साम्राज्यवादी मुल्कों के अधिकारियों सहित और इनके अलावा दूसरे मुल्क या यूएनओ वग़ैरह जैसे संगठन जो किसी तरह या अपनी ख़ामोशी से या अपने बयानों से और पक्षपाती बातों से इनका सपोर्ट कर रहा है, इस जुर्म में शरीक हैं। सारा इस्लामी जगत, सभी इस्लामी सरकारें, मुसलमान क़ौम के हर शख़्स का यह फ़र्ज़ है कि इनके ख़िलाफ़ संघर्ष करे, इनसे मुक़ाबला करे, इनसे दूर रहे, इनसे नफ़रत करे, इन्हें इस तरह का स्टैंड लेने पर मलामत करे, यह सबका फ़र्ज़ है; उन्हें अलग थलग किया जाए और अगर आर्थिक लेहाज़ से निपट सकते हैं तो निपटें, राजनैतिक लेहाज़ से निपटें; यह इस्लामी जगत का फ़र्ज़ है।" (29 जुलाई, 2014)
अमरीका का इतना छोटा सा इतिहास, इंसानों के ख़िलाफ़ ज़ुल्म और अपराधों से भरा हुआ है। इस सरज़मीन के अस्ली मालिकों व मूल निवासियों के नरसंहार से लेकर जो योरोपीय मुहाजिरों की लालच की भेंट चढ़े और अश्वेतों की ग़ुलामी व नरंसहार तक, स्वाधीन देशों पर सीधे सैन्य चढ़ाई से लेकर राष्ट्रीय व क़ानूनी सरकारों को गिराने के लिए सैन्य विद्रोह की योजना और उनका दिशा निर्देश किया जाना, हाँ में हाँ मिलाने वाली ज़ालिम सरकारों को सपोर्ट और जनांदोलनों के दमन से लेकर इस्राईल के सरकारी आतंकवाद के ज़रिए ज़मीनों को हड़पने और फ़िलिस्तीन की जनता के क़त्लेआम को सपोर्ट करने तक और एक जुमले में हिरोशिमा से ग़ज़ा तक, इन सबका सुलह, मानवता, मानवाधिकार, लोकतंत्र जैसे सुंदर लफ़्ज़ों की आड़ में, साम्राज्य के पिट्ठू प्रचारिक तंत्रों के ज़रिए बहुत ही घिनौनी शक्ल में जस्टिफ़िकेशन पेश किया जाता है।
वह वक़्त आ गया है कि मुसलमान अवाम और दुनिया के लोग अमरीका जैसे मुल्कों के व्यवहार की, उनके नारों की नहीं, समीक्षा करके अपने दृष्टिकोण और उनके साथ अपने व्यवाहर की शैली को परखें।