ज़ायोनिस्ट रेजीम ने 7 अक्तूबर 2023 को सैन्य, सुरक्षा और इंटेलिजेंस की नज़र से ऐसे वार खाने के बाद कि जिसकी भरपाई नहीं हो सकती, ग़ज़ा में फ़िलिस्तीनियों के ख़िलाफ़ भयानक अपराध और उनके जातीय सफ़ाए को अपना एजेंडा बना लिया। चूंकि 7 अक्तूबर की कार्यवाही में ज़ायोनियों की सुरक्षा और इंटेलिजेंस के लेहाज़ से बढ़त जिस पर वह बरसों से फ़ख़्र करते चले आ रहे थे, पूरी तरह मिट्टी में मिल गयी इसलिए तेल अवीव के अधिकारियों ने ग़ज़ा में फ़िलिस्तीनी औरतों और बच्चों के जातीय सफ़ाए के अलावा एक और रणनीति अपनायी और वह रेज़िस्टेंस मोर्चे के नेताओं की टार्गेट किलिंग थी। अलअक़्सा फ़्लड आप्रेशन के बाद, जिसे एक साल से ज़्यादा मुद्दत हो चुकी है, ज़ायोनियों ने रेज़िस्टेंस मोर्चे के कई नेताओं और कमांडरों को शहीद किया है और इसके अलावा भी रेज़िस्टेंस करने वाले समाज के ख़िलाफ़ ऐसे जुर्म किए हैं जिनकी मिसाल नहीं मिलती ताकि इस समाज को रेज़िस्टेंस मोर्चे से अलग कर सकें। इन अपराधों में ग़ज़ा के मुख़्तलिफ़ इलाक़ों ख़ास तौर पर उत्तरी ग़ज़ा की भीषण नाकाबंदी से लेकर लेबनान में पेजरों के धमाके तक बहुत सारी आपराधिक हरकतें शामिल हैं।
ज़ाहिर सी बात है कि ज़ायोनी सरकार इस नीति से एक मूल लक्ष्य हासिल करना चाहती है और वह रेज़िस्टेंस को घुटने टेकने पर मजबूर करना है। यह चीज़ कुछ दिन पहले इस्लामी प्रतिरोध आंदोलन हमास के मरहूम नेता यहया सिनवार की दिलेरी से भरी शहादत के बाद ज़ायोनी सरकार के युद्ध मंत्री युआव गैलेंट के बयान में भी पूरी तरह से ज़ाहिर है। यहया सिनवार की शहादत पर, जो जंग के मैदान में और टैंक के मुक़ाबले में लड़ते हुए शहीद हुए थे, ख़ुशी के नशे में चूर गैलेंट ने घमंड भरे लहजे में फ़िलिस्तीनी रेज़िस्टेंस के जांबाज़ों को संबोधित करते हुए कहा थाः "अपने हाथ ऊपर करो और हथियार डाल दो। क़ैदी बनाए गए हमारे लोगों को रिहा करो और घुटने टेक दो।" (1) हमास आंदोलन के पोलित ब्यूरो प्रमुख की शहादत के बाद युद्ध अपराध का हुक्म देने वाले इस शख़्स का लहजा और अलफ़ाज़, ज़ायोनियों की ओर से सिर्फ़ एक संदेश पहुंचाते हैं और वह यह है कि हमास के नेताओं और कमांडरों की मौत के बाद इस गुट का काम तमाम हो चुका है। अब सवाल यह है कि क्यों हमास को घुटने टेकने पर मजबूर करना ज़ायोनियों के लिए सपने अलावा कुछ नहीं है?
हमास के संगठनात्मक ढांचे का किसी व्यक्ति पर निर्भर न होना
जंग के अपने एक लक्ष्य यानी हमास को हथियार रखवाने और उसे घुटने टेकने पर मजबूर करने के क़रीब होने की बात लोगों के मन में डालने की ज़ायोनियों की कोशिश ऐसी स्थिति में है कि जब रेज़िस्टेंस आंदोलन का एक बहुत ही व्यवस्थित संगठनात्मक ढांचा है और यह ढांचा बुनियादी तौर पर लोगों पर निर्भर नहीं है कि उनके चले जाने से उसका ताना बाना बिखर जाए। यह वही बात है जिसकी ओर राजनैतिक टीकाकार फ़ुआद ख़फ़्श इशारा करते हैं।
वह कहते हैं: "इस्लामी प्रतिरोध आंदोलन हमास की ताक़त, उसके संगठनात्मक ढांचे में निहित है। यह ढांचा लोगों पर नहीं बल्कि ख़ुद पर निर्भर है।" यह राजनैतिक टीकाकार हमास की राह जारी रहने पर यहया सिनवार की शहादत के असर की भी इसी परिप्रेक्ष्य में समीक्षा करते हैं और कहते हैं: "जो ढांचा किसी व्यक्ति पर टिका हुआ नहीं है वह स्वाभाविक तौर पर सिनवार की शहादत के बाद भी पहले ही की तरह अपना रास्ता जारी रखेगा। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि यह संगठनात्मक ढांचा कई दशक पुराना है और अपनी ज़िंदगी की यह लंबी मुद्दत तय करते करते वह बहुत ज़्यादा मज़बूत हो चुका है। पिछले कई दशकों के दौरान अपने नेताओं और कमांडरों के क़त्ल के बावजूद हमास जैसे आंदोलन के पूरी मज़बूती से क़ायम रहने की वजह उसके ढांचे की मज़बूती है।" (2) फ़ुआद ख़फ़्श हमास के कुछ कमांडरों की शहादत की ओर इशारा करते हुए आगे कहते हैं: अगर हम हमास आंदोलन के इतिहास पर नज़र डालें तो शैख़ अहमद यासीन और अब्दुल अज़ीज़ रन्तीसी जैसे नेताओं की शहादत हमें नज़र आएगी, उस वक़्त से लेकर अब तक हमास न सिर्फ़ यह कि कमज़ोर नहीं हुआ है बल्कि ज़्यादा मज़बूत हुआ है।
छापामार और लंबी जंग के साए में रेज़िस्टेंस का मज़बूत बने रहना
"फ़िलिस्तीनी रेज़िस्टेंस के नेताओं और कमांडरों के क़त्ल के बावजूद, रेज़िस्टेंस के शोले लगातार भड़क रहे हैं और उन्हें बुझाया नहीं जा सकता।" यह बात राजनैतिक मामलों के रिसर्च स्कालर सईद ज़्याद ने यहया सिनवार के क़त्ल के बाद इस्लामी प्रतिरोध आंदोलन हमास की स्थिति के बारे में कही है। उनका कहना है कि हमास की मौजूदा ताक़त व मज़बूती से यह बात पूरी तरह साफ़ है कि कमांडरों के क़त्ल से प्रतिरोध के शोले बुझने वाले नहीं है। अलबत्ता वह फ़िलिस्तीनी प्रतिरोध के लड़ने की शैली को भी एक दूसरी वजह बताते हैं जो यहया सिनवार की शहादत के बाद भी इस आंदोलन को कोई ख़ास नुक़सान न पहुंचने की वजह है। वह बल देकर कहते हैं कि फ़िलिस्तीनी प्रतिरोध और ख़ास तौर पर हमास काफ़ी मुद्दत से ज़ायोनी दुश्मन के साथ छापामार और लंबी मुद्दत की जंग के चरण में दाख़िल हो गया है और कमांडरों की शहादत से यह रणनीति बदलने वाली नहीं है।(3)
विचार का क़त्ल नहीं किया जा सकता
ज़ायोनी संभवतः यह बात अच्छी तरह समझते हैं कि रेज़िस्टेंस के नेताओं और कमांडरों के क़त्ल की रणनीति, दिल दिमाग़ में बैठ चुकी सोच को ख़त्म नहीं कर सकती। इसके बावजूद शायद उनके पास बौखलाहट की वजह से प्रतिरोध के ख़िलाफ़ "डर्टी वार" के एक हथकंडे के तौर पर हत्या करने की नीति को जारी रखने के अलावा कोई और चारा नहीं है। मिस्र की राष्ट्रीय सुरक्षा काउंसिल के पूर्व डिप्टी सेक्रेटरी जनरल इब्राहीम उस्मान हेलाल कहते हैं: "क़ाबिज़ ज़ायोनी, क़त्ल, जासूसी की सूचनाएं इकट्ठा करने, मनोवैज्ञानिक लड़ाई, हवाई, तोपख़ाने और स्पेशल ज़मीनी फ़ोर्सेज़ की फ़ायरिंग की ताक़त से हमास को सोच, इनोवेशन और मज़बूत संगठनात्मक ढांचे से वंचित करने की कोशिश कर रहे हैं। यह ऐसी स्थिति में है कि हमास के नेताओं और कमांडरो का क़त्ल, इस्राईल के लिए एक सैन्य कारनामा नहीं समझा जा सकता। जब तक सोचने, कमान संभालने और नेतृत्व करने के लिए लोग मौजूद हैं, नेताओं और कमांडरों के क़त्ल से रेज़िस्टेंस ख़त्म नहीं होगा।" (4)
वह सबक़ जिससे ज़ायोनियों ने कभी पाठ नहीं लिया
ज़ायोनी शासन के रवैये और रेज़िस्टेंस के नेताओं और कमांडरों की टार्गेट किलिंग के सिलसिले में उसकी हरकतों से पता चलता है कि ज़ायोनियों ने अतीत के वाक़यों से पाठ नहीं लिया है। अतीत के वाक़ए गवाह हैं कि ज़ायोनी जिस चीज़ में अपनी जीत समझते थे, उसमें उन्हें हार उठानी पड़ी। मिसाल के तौर पर ज़ायोनी शासन ने सन 1982 में जब बैरूत की नाकाबंदी कर ली जिसकी वजह से पीएलओ के मुजाहिदों को लेबनान से निकल कर ट्यूनीशिया जाना पड़ा तो उसे विजय का एहसास हुआ लेकिन यह एहसास कभी भी ज़ायोनी शासन के लिए अम्न व सुरक्षा का सबब नहीं बन सका क्योंकि इस वाक़ए के बाद लेबनान में एक दूसरे रेज़िस्टेंस आंदोलन की हैसियत से हिज़्बुल्लाह का गठन हुआ और वह ज़ायोनियों का सुकून छीन लेने का एक स्थायी साधन बन गया। दूसरी मिसाल जेनीन कैंप की नाकाबंदी और दूसरे इंतेफ़ाज़ा आंदोलन के दौरान सन 2000 में उसे तबाह कर देने की है। जेनीन में उस हिंसक और बर्बरतापूर्ण नीति पर अमल के बावजूद आज हम देख रहे हैं कि कई साल बाद जेनीन, वेस्ट बैंक में रेज़िस्टेंस के जांबाज़ों के मुख्य केन्द्र में बदल चुका है। इसलिए हमास के नेताओं का क़त्ल, इस्राईल को फ़त्ह नहीं दिला सकता जिस तरह से कि इज़्ज़ुद्दीन क़स्साम, अबू जेहाद, अबू अली मुस्तफ़ा, शैख़ अहमद यासीन, अब्दुल अज़ीज़ रन्तीसी, सालेह अलआरूरी और इस्माईल हनीया का क़त्ल, हमास के अंत का सबब नहीं बन सका।
राजनैतिक टीकाकारों का कहना है कि ज़ायोनी शासन शायद फ़िलिस्तीनी प्रतिरोध के नेताओं और कमांडरों को क़त्ल करके अस्थायी तौर पर एक फ़तह हासिल कर ले लेकिन आख़िर में उसे हार उठानी ही पड़ेगी। इसी बात की ओर लेबनान की समीक्षक ज़ैनब अत्तहान इशारा करते हुए कहती हैं: "शैख़ अहमद यासीन और इस्माईल हनीया जैसे नेताओं की हत्या के बाद भी हमास ज़िंदा है और इसका सिर्फ़ एक ही मतलब है और वह यह कि अगरचे ज़ायोनियों ने कमांडरों को क़त्ल करके टैक्टिकिल तौर पर एक अस्थायी नतीजा हासिल कर लिया लेकिन रणनीति के लेहाज़ से उन्हें हार हुयी है।" (5)
जब हम उक्त सभी पहलुओं को, हमास के नेताओं के क़त्ल के बाद उसकी स्थिति के सिलसिले में एक साथ रखते हैं तो हमें पता चलता है कि क्यों इस्लामी इंक़ेलाब के नेता इमाम ख़ामेनेई ने कहा हैः "हमास ज़िंदा है और ज़िंदा रहेगा।" (6)