इमाम ख़ामेनेई ने 24 अप्रैल 2024 को अपनी स्पीच में पश्चिम ताक़तों की ओर से इस्लामी गणराज्य पर पाबंदियां लगाने का मक़सद बताते हुए कहा थाः "इन पाबंदियों का मक़सद क्या है? वो कुछ लक्ष्य बयान करते हैं लेकिन झूठ बोलते हैं, लक्ष्य वो नहीं हैं जो वो बयान करते हैं। वो परमाणु ऊर्जा की बात करते हैं। परमाणु हथियार की बात करते हैं, मानवाधिकार की बात करते हैं। हम ईरान पर इसलिए पाबंदी लगाते हैं कि वो आतंकवाद का सपोर्ट करता है! आतंकवादी कौन हैं? ग़ज़ा के अवाम!"

पश्चिमी मीडिया के बरसों से जारी ज़हरीले प्रोपैगंडे इस बात का कारण बने कि विश्व जनमत के मन में ये बात बैठ जाए कि ईरान के कथित फ़ौजी आयाम वाले परमाणु प्रोग्राम के प्रसार और संभवतः इस मुल्क की ओर से परमाणु हथियारों के निर्माण की वजह से उस पर पाबंदियां लगायी गयी हैं अगरचे इन बरसों में अंतर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी की अनेक रिपोर्टों और इस्लामी इंक़ेलाब के नेता के साफ़ लफ़्ज़ों में दिए गए फ़तवे ने ये दिखा दिया कि ईरान का परमाणु प्रोग्राम शांतिपूर्ण है लेकिन पश्चिम ख़ास तौर पर उनकी पाबंदियों के इतिहास से पता चलता है कि ईरान का परमाणु मामला, अगरचे उसके ख़िलाफ़ पाबंदियों की एक वजह रही है लेकिन अस्ली और बुनियादी वजह परमाणु मुद्दा नहीं है।

इंक़ेलाब के बाद पहली पाबंदी

ईरान के ख़िलाफ़ पश्चिम की पहली पाबंदी तेहरान में अमरीकी दूतावास में मौजूद जासूसों की गिरफ़्तारी के बाद लगायी गयी। इस पाबंदी की वजह से मुल्क के बाहर ईरान की दसियों अरब डॉलर की संपत्ति सील कर दी गयी और क़ैदियों की रिहाई के बाद भी ये रक़म ईरान को नहीं लौटायी गयी। ईरान के ख़िलाफ़ सद्दाम की ओर से थोपी गयी जंग के दौरान भी अमरीका ने सन 1984 में ईरान को किसी भी क़िस्म के हथियार की सप्लाई पर पाबंदी लगा दी। उसी साल अमरीकी विदेश मंत्रालय ने ईरान को "आतंकवाद की समर्थक हुकूमत"(1) कहा था। ये पाबंदी, लेबनानी जवानों की ओर से क़ाबिज़ ज़ायोनी हुकूमत के फ़ौजियों के ख़िलाफ़ सुव्यवस्थित संघर्ष के बाद लगायी गयी। ज़ायोनी हुकूमत ने सन 1982 से लेबनान की सरज़मीन के एक हिस्से पर क़ब्ज़ा कर रखा था और ईरान ने लेबनानी जवानों और हिज़्बुल्लाह के गठन का सपोर्ट किया था। (2) सन 1987 से सद्दाम हुकूमत ईरान के तेल की पैदावार और निर्यात को रोकने की कोशिश कर रही थी, अमरीका भी इस मैदान में कूद पड़ा और ईरान की ओर से प्रतिरोध के बाद उसने उसके ख़िलाफ़ पाबंदियां लगा दीं। (3)

थोपी गयी जंग के बाद की पाबंदियां

ईरान के ख़िलाफ़ अमरीका की एक और बड़ी पाबंदी यानी आईएसए जिसे तेल के क्षेत्र में दूसरी पाबंदियों का आधार समझा जाता है, सन 1996 में उस वक़्त लगायी गयी जब ईरान के परमाणु उद्योग का मुद्दा सामने नहीं आया था। उस पाबंदी में भी ईरान पर अस्ल इल्ज़ाम "आतंकवाद का समर्थन"(4) था। ईरान का परमाणु मुद्दा पहली बार सन 2003 और उसके बाद सुर्ख़ियों में आया। सन 2003 के बाद ईरान पर लगायी गई पाबंदियों की समीक्षा करने से पता चलता है कि पाबंदियों का अस्ल मक़सद ईरान का परमाणु प्रोग्राम नहीं था और अब भी नहीं है। एग्ज़ीक्यूटिव ऑर्डर 13324, जो सन 2001 में पास हुआ और ईरान के बहुत से लोगों और विभागों को सन 2007 तक उसके दायरे में लिया गया, आतंकवाद की वित्तीय मदद से मुक़ाबले के लिए लाया गया था। ये पाबंदी सन 2006 में दो अहम वाक़यों के कुछ ही समय बाद लगा दी गयी। पहला वाक़ेया 33 दिवसीय जंग में ज़ायोनी हुकूमत की हार थी जिसमें वो लेबनान की सीमा में घुस गयी थी और उसने 1500 से ज़्यादा लेबनानियों को शहीद कर दिया था। दूसरा वाक़ेया फ़िलिस्तीन के संसदीय चुनावों में हमास की जीत थी। ये इलेक्शन ज़ायोनी हुकूमत, अमरीका और फ़िलिस्तीन के भीतर मौजूद ग़द्दारों की साज़िशों की वजह से बेनतीजा रह गए और बड़े पैमाने पर होने वाली झड़पों के बाद हमास संगठन, क़ाबिज़ ज़ायोनी फ़ौजियों को ग़ज़ा से निकाल बाहर करने में कामयाब हो गया।

एक दूसरा ऑर्डर, एग्ज़ीक्यूटिव ऑर्डर नंबर 13382 था जो सन 2005 में जारी हुआ और उसका लक्ष्य सामूहिक विनाश के हथियारों के प्रसार को रोकना था और उस पाबंदी का मुख्य टार्गेट ईरान था। उस पाबंदी की इबारत और नतीजे की समीक्षा से पता चलता है कि ईरान के सैन्य और मीज़ाईल उद्योग, उस पाबंदी का मुख्य लक्ष्य थे। ईरान के मीज़ाइल उद्योग ने "सच्चा वादा" ऑप्रेशन में ज़बर्दस्त उपयोगिता का प्रदर्शन किया और ईरान की ओर से फ़ायर किए गए मीज़ाइलों में से एक भी, ऐसे किसी मक़बूज़ा इलाक़े में जाकर नहीं गिरा जहाँ आम लोग रहते हैं।

ईरान और उसके परमाणु उद्योग की तरक़्क़ी के ख़िलाफ़ पश्चिम की पाबंदियों की समीक्षा से ये बात अच्छी तरह ज़ाहिर हो जाती है कि इन दोनों के बीच सीधे तौर पर कोई संबंध नहीं है। परमाणु समझौते से पहले तक ईरान के ख़िलाफ़ सबसे बड़ी पाबंदियां, सन 2009 के चुनावों के बाद सड़कों पर होने वाले हंगामों, आतंकवाद के समर्थन और परमाणु मामले से संबंधित थीं। अगरचे उनमें से बहुत सी पाबंदियों में परमाणु मामले का उल्लेख किया गया लेकिन सीआईएसएडीए (CISADA) जैसी पाबंदियों और सन 2012 के राष्ट्रीय सुरक्षा के अख़्तियार के क़ानून वग़ैरह से पता चलता है कि ईरान की अर्थव्यवस्था और आतंकवाद का (कथित) सपोर्ट, इन पाबंदियों का मुख्य लक्ष्य रहा है।

ईरान को कमज़ोर किया जाना चाहिए

रिचर्ड नेफ़्यू ने अपनी किताब "The Art of Sanctions"  में लिखा है कि ईरानी अवाम के ख़िलाफ़ पाबंदियां और दबाव इस बात का कारण बनेंगी कि सत्ताधारी वर्ग अवाम के दबाव के तहत अपने रवैये को बदलने पर मजबूर हो जाएगा। पश्चिमी राजनेताओं के बीच सत्ताधारी वर्ग के रवैये में बदलाव की शब्दावली का मतलब ईरान की ओर से रेज़िस्टेंस फ़्रंट की मदद बंद करना और क्षेत्र में उनकी सांस्कृतिक व आर्थिक नीतियों के सामने झुक जाना है। इस्लामी गणराज्य, अपने गठन के आग़ाज़ से ही साम्राज्यवाद, नाजायज़ क़ब्ज़े और तानाशाही के ज़ुल्म का शिकार पूरी दुनिया के सभी आज़ादी के समर्थक आंदोलनों की मदद का ख़ुद को पाबंद समझता रहा है और अब भी समझता है। क़ाबिज़ ज़ायोनी दुश्मन से लड़ने के लिए लेबनानी मुजाहिदों की ट्रेनिंग के लिए आईआरजीसी के सलाहकारों की मौजूदगी, नस्लभेदी सरकार को तेल का निर्यात रोकने पर दक्षिणी अफ़्रीक़ा के लोगों के आज़ादी के आंदोलन को समर्थन, 1990 के दशक में बोस्निया के मज़लूम मुसलमान मुजाहिदों की मदद के लिए ईरानी लड़ाकों और सलाहकारों की मौजूदगी, इराक़ और सीरिया में दाइश से लड़ाई में ईरानी सलाहकारों और मुजाहिदों की मौजूदगी और सबसे ज़्यादा अहम व बुनियादी चीज़ इस्लामी गणराज्य ईरान की ओर से इस्लामी इंक़ेलाब की कामयाबी के पहले दिन से लेकर अब तक फ़िलिस्तीनी कॉज़ का समर्थन, वो अहम रवैया है जिसे कंट्रोल करने के लिए पाबंदियां लगायी जाती हैं। यही वजह थी कि अक्तूबर सन 2023 में एफ़एटीएफ़ (FATF) की बैठक में और अलअक़्सा फ़्लड ऑप्रेशन के बाद ईरान से मुतालेबा किया गया कि वो सशस्त्र रेज़िस्टेंस गुटों की आर्थिक मदद, जो वो अपने संविधान की धारा 154 के तहत करता है, बंद कर दे।(5) इस्लामी गणराज्य ईरान के संविधान के मुताबिक़, नाजायज़ क़ब्ज़े, साम्राज्यवाद या नस्लपरस्ती के ख़िलाफ़ संघर्ष जायज़ व क़ानूनी है।

इमाम ख़ामेनेई ने इसी परिप्रेक्ष्य में ईरान पर पाबंदियां लगाए जाने की वजह बयान करते हुए 24 अप्रैल 2024 को कहा थाः "पाबंदियों का लक्ष्य ईरान पर दबाव डालना है। वो इस्लामी गणराज्य को पाबंदियों के ज़रिए मुश्किल में डालना चाहते हैं ताकि क्या हो? ताकि वो उनके साम्राज्यवाद और साम्राज्यवादी नीतियों पर चले, उनके ज़ोर ज़बरदस्ती के मुतालबों के सामने झुक जाए और उनकी ज़ोर ज़बरदस्ती की अपेक्षाओं को पूरा करे, अपनी नीतियों को उनके अनुसरण में लगाए...ज़ाहिर है कि इस्लामी सिस्टम, इस्लामी ग़ैरत और इस क़ौम के लिए जिसकी पहचान इस्लामी है, इस ज़ोर ज़बरदस्ती के सामने झुकना नामुमकिन है।"

1.   https://www.state.gov/reports/country-reports-on-terrorism-2021/iran/

2.   https://www.cia.gov/readingroom/docs/CIA-RDP09-00438R000605820019-9.pdf

3.   https://www.reaganlibrary.gov/archives/speech/statement-trade-sanctions-against-iran

4.   https://www.latimes.com/archives/la-xpm-1995-05-01-mn-61015-story.html

5.   https://www.fatf-gafi.org/en/publications/High-risk-and-other-monitored-jurisdictions/Call-for-action-october-2023.html