इसी तरह के मंज़र मैनचेस्टर, बर्मिंघम औक ग्लासगो में बार बार नज़र आए, जहाँ दसियों हज़ार लोग ग़ज़ा की नाकाबंदी के अंत और इस इलाक़े में अमरीका के सपोर्ट से ज़ायोनी सरकार के हाथों होने वाले जातीय सफ़ाए के रुकने का मुतालेबा कर रहे थे। मुसलसल कई हफ़्तों, अमरीका से लेकर जर्मनी तक कार्यकर्ता एकता के पैग़ाम के साथ सड़कों पर निकल आए। वे सिर्फ़ एक ही जुमला कह रहे थेः बस बहुत हो गया। फ़िलिस्तीनियों को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता, ऐसा नहीं हो सकता कि फ़िलिस्तीनियों का जातीय सफ़ाया हो और दुनिया खड़ी तमाशा देखे।

पश्चिम में कम लोगों ने इससे पहले तक ऐसे मंज़र देखे थे। अमरीका में भी हैरत में डालने वाले प्रदर्शन हुए। लास एंजलिस, शिकागो, न्यूयॉर्क और ह्यूस्टन सहित दसियों शहरों में बड़े पैमाने पर प्रदर्शन हुए जिसमें दसियों हज़ार लोग शरीक हुए। सामाजिक आंदोलनों के पर्यवेक्षकों ने इतने बड़े भूभाग पर इस फैलाव (प्रदर्शन) को अभूतपूर्व बताया। इससे पहले ज़ायोनी शासन के हमलों के ख़िलाफ़ जो कुछ छोटे पैमाने पर धरने के रूप में होता था, इस बार वह प्रदर्शनों की लहर में बदल गया जो लगातर हफ़्तेवार जारी रही और उन शहरों में इसे ज़्यादा तवज्जो मिली जहाँ लोग आम तौर पर खेल से जुड़े मसलों या मनोरंजन को लेकर इकट्ठा होते हैं। सिविल सोसाइटी, मानवाधिकार संगठन, धार्मिक सोसाइटी (मुसलमान, ईसाई, यहूदी और अंतर धार्मिक सोसाइटीज़), इसी तरह स्टूडेंट्स अंजुमनें और अन्य सामाजिक कार्यकर्ता एक साथ सामने आए। इतने बड़े पैमाने पर समर्थकों की मौजूदगी से, इन प्रदर्शनों को ताक़त मिली जो ग़ज़ा पर ज़ायोनी शासन के इससे पहले के हमलों के वक़्त देखे नहीं गए और ये प्रदर्शन इन अपराधों में पश्चिम की संलिप्तता पर नज़र रखने का भी सबब बने। लेकिन निर्णायक मोड़ उस वक़्त आया जब प्रदर्शन की इस लहर में अमरीकी बुद्धिजीवी वर्ग यानी यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर और स्टूडेंट्स भी शामिल हो गए। जिस वक़्त कोलंबिया और यूसीएलई जैसी अमरीका की मशहूर यूनिवर्सिटियों के स्टूडेंट्स ने बड़े पैमाने पर कैंप और यूनिवर्सिटी के कैंपस में प्रदर्शन किए अमरीका की फ़ेडरल सरकार ने बहुत कड़ी प्रतिक्रिया दिखाई और तब "अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता" के शीर्षक के तहत होने वाले प्रदर्शन को "राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए ख़तरे" का नाम दिया गया।

सन 2024 में "छात्र प्रदर्शन की व्यापक लहर" पूरे मुल्क की यूनिवर्सिटियों तक पहुंच गयी। इन प्रदर्शनों में अमरीका से ज़ायोनी शासन को सपोर्ट तुरंत रोकने की मांग की गयी थी, ख़ास तौर पर ग़ज़ा पर ज़ायोनी शासन के हाथों तेज़ी से हो रहे जातीय सफ़ाए के मद्देनज़र। इसी तरह उन यूनिवर्सिटियों में उन कंपनियों के  पूंजीनिवेश को रोकने की मांग उठी जिनका हथियारों पर निगरानी या प्रोडक्शन से संबंध है, क्योंकि वे समझ गए कि किस तरह उनकी रिसर्च के नतीजों को ऐसे बम बनाने में लगाया जा रहा है जिनसे ग़ज़ा में बच्चों को मारा जा रहा है। अगरचे ये सरगर्मियां शांतिपूर्ण थीं, लेकिन इसे अमरीकी अधिकारियों की ओर से गंभीर दमनकारी रिएक्शन का सामना हुआ कि जिसके नतीजे में पूरे मुल्क में 2000 से ज़्यादा स्टूडेंट्स को गिरफ़्तार किया गया। कोलंबिया में -मुख्य केन्द्रों में से एक- स्टूडेंट्स के धरनों को पुलिस के हाथों ख़त्म किए जाने और विरोध करने वाले 100 से ज़्यादा स्टूडेंट्स की गिरफ़्तारी की तस्वीरें पूरी दुनिया में पहुंची। यूसीएलई में भी स्टूडेंट्स के एक प्रदर्शन पर दंगा पुलिस का हमला हुआ और 200 से ज़्यादा लोगों को गिरफ़्तार किया गया। डर्टमाउथ कालेज, न्यूहैंपशायर यूनिवर्सिटी और बुफ़ैलो यूनिवर्सिटी भी तनाव का मंच बन गए और यूनिवर्सिटी कैंपस मारपीट का मैदान बन गए कि जिसके नतीजे में बड़े पैमाने पर गिरफ़्तारियां हुयीं।

इमाम ख़ामेनेई ने इन प्रदर्शनों के चरम पर और 25 मई 2024 को इन स्टूडेंट्स के नाम ख़त में, उन्हें "रेज़िस्टेंस मोर्चे का एक हिस्सा" बताया और अमरीकी सरकार के निर्दयी दबाव में उनके संघर्ष को "शराफ़तमंदाना संघर्ष" कहा।

अस्ल चीज़ इन गिरफ़्तारियों से आगे थी; इस स्थिति ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और शांतिपूर्ण रूप से धरने के संबंध में अमरीकी दावों पर प्रश्न चिन्ह लगा दिए।  नागरिक अधिकार संगठनों ने सरकार की क्रूर प्रतिक्रियाओं की भर्त्सना की और संविधान के पहले संशोधन का ज़िक्र करते हुए अकादमी आज़ादी के दमन पर चिंता जतायी। मार्च 2025 तक क़ानून मंत्रालय ने कोलंबिया के प्रदर्शनों से संबंधित "आतंकवाद विरोधी" क़ानून के उल्लंघन की संभावना के बारे में अपनी जाँच शुरू की; ऐसा क़दम जिसे नागरिक आज़ादी के बहुत से समर्थकों ने वैध प्रदर्शनों को दबाने की जान बूझकर की जाने वाले कोशिश कहा। स्थिति उस वक़्त गंभीर हो गयी जब अमरीकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रम्प ने फ़ेडरल बजट में 40 करोड़ डॉलर कटौती का एलान किया और इसका कारण कोलंबिया की ओर से उस चीज़ पर कमज़ोर प्रतिक्रिया कहा जिसे उन्होंने इस यूनिवर्सिटी के कैंपस में यहूदी विरोधी गतिविधि का नाम दिया। उसी महीने अमरीकी सरकार ने महमूद ख़लील नामक फ़िलिस्तीनी स्टूडेंट के ग्रीन कार्ड को रद्द कर दिया। ख़लील को उनकी अमरीकी बीवी के सामने जो गर्भवती थीं, अमरीकी इमीग्रेशन पुलिस (आईसीई) के अधिकारियों ने गिरफ़्तार कर लिया- यह ऐसा मंज़र था जो अमरीका में बहुत तेज़ी से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के उल्लंघन का प्रतीक बन गया। ये सब घटनाएं इसलिए घटीं कि उन्होंने एक सरसरी निगाह से आगे, ऐसे बर्बर मंज़र देखे थे जो ग़ज़ा में घटे थे; ज़ायोनी शासन की ओरे से ऐसी बमबारी कि मोहल्ले तहस-नहस हो रहे थे और परिवार के परिवार ख़ून में नहा रहे थे। यह सवाल बहुत अहम हैः क्या ऐसा नहीं हो सकता कि स्टूडेंट्स के इस क्रोध का कारण सूचनाओं के गट्ठर से सूई की नोक बराबर बाहर आयी हुयी सूचना हो? अगरचे सोशल मीडिया और न्यूज़ चैनल 24 घंटे सक्रिय हैं, क्या मुमिकन है कि पश्चिम के अवाम ने हक़ीक़त का बहुत छोटा सा हिस्सा देखा हो और बाक़ी हिस्सा प्रचार की अंधी दीवार के पीछे छिप गया हो?

वह नरेटिव जो पश्चिमी मीडिया से ग़ायब है

पर्यवेक्षक इस बात को बहुत विश्वास से कह रहे हैं कि पश्चिमी मीडिया में ग़ज़ा के बारे में बहुत सी रिपोर्टों को व्यवस्थित रूप से सेंसर किया जाता है, जबकि बीबीसी जैसे मीडिया चैनल ज़ायोनियों पर हमास के हमलों को बयान करने के लिए 'नरसंहार', 'मार-काट' और 'अपराध' जैसे शब्द इस्तेमाल कर रहे हैं, लेकिन ज़ायोनी शासन के हमलों को बयान करने के लिए, जिसने हज़ारों फ़िलिस्तीनियों का नरसंहार और उन्हें बेघर किया है, ऐसे शब्द इस्तेमाल नहीं करते। इसी तरह अमरीका में अहम अख़बार और चैनल, ज़ायोनी शासन को हुए जानी नुक़सान का बड़े पैमाने पर कवरेज करते और ज़ायोनी परिवारों की पीड़ाओं को पेश करते हैं जबकि फ़िलिस्तीनियों की पीड़ाओं को बहुत ही हल्का और एहसास से ख़ाली दिखाते हैं।

अमरीका के भीतर कुछ समीक्षाओं से इस दृष्टिकोण की पुष्टि होती है। सीएनएन में कुछ पत्रकारों ने संस्थागत पक्षपात का ज़िक्र किया है इस अर्थ में कि ब्यूरो डेस्क जान बूझकर फ़िलिस्तीनियों के मुख्य मुतालबों को पेश नहीं करता; जैसे कई बरस से ग़ज़ा की जारी नाकाबंदी, ग़ैर क़ानूनी कालोनियों का निर्माण और चेकपोस्टों पर हर दिन अपमान। यह पक्षपात सभी चीज़ों में नज़र आता हैः समीक्षात्मक प्रोग्रामों के मेहमानों से लेकर (ज़्यादा तादाद में ज़ायोनी अधिकारियों और कम तादाद में फ़िलिस्तीनी प्रतिनिधियों को अवसर दिया जाना) फ़िलिस्तीनियों के नरसंहार को बयान करने के लिए इस तरह के जुमलों का इस्तेमाल कि उनसे नरसंहार के ज़िम्मेदार का नाम सामने न आए। नतीजे में असंतुलित रूप से ख़बर को कवरेज मिलता है। ज़्यादातर रिपोर्टें हमास की ओर से फ़ायर होने वाले राकेटों या फ़िलिस्तीन की क़ब्ज़ा की गयी ज़मीन पर हमलों पर आधारित होती हैं, लेकिन ज़ायोनी शासन के अपराधों से हुए विनाश के स्तर का ज़िक्र नहीं करतीं। घटनाओं के बारे में यह पक्षपाती रवैया, पर्यवेक्षकों के मुताबिक़, बहुत से पश्चिमी पाठकों को यह यक़ीन दिलाता है कि हिंसा की जड़ फ़िलिस्तीनियों के ऐसे हमलों में है जिसका औचित्य पेश नहीं हो सकता, न कि नाजायज़ क़ब्ज़े, बेवतन होने और हमास के रॉकेटों से बरसों पहले शुरू हुयी नाकाबंदी के चक्र में है। जिसकी वजह से पश्चिमी अवाम तक अभी भी विकृत छवि पहुंच रही है। इस बीच बड़ी तादाद में बलि चढ़ने वाले आम फ़िलिस्तीनियों के बारे में ख़बरें सामने नहीं आ पातीं।

 

सामाजिक प्लेटफ़ार्म का वर्चस्व

मुमकिन है कुछ लोग यह तर्क दें कि यह डिजिटल दौर है जिसमें मेन स्ट्रीम मीडिया अपने ब्यूरो की नीतियों की आड़ में ख़ुद को नहीं छिपा सकता। ग़ज़ा में हर शख़्स के पास मोबाइल है और वह एक फ़िल्म रेकार्ड करके दुनिया से लाइव शेयर कर सकता है। लेकिन यह विचार इस मान्यता पर आधारित है कि सोशल चैनल के प्लेटफ़ार्म एक आज़ाद और सेंसर फ़्री जगह है। साक्ष्य तो कुछ और हक़ीक़त बयान करते हैं।

अक्तूबर 2023 से एक्स (पूर्व ट्वीटर) ने 'सैकड़ों' यूज़र अकाउंट जो उन्हीं के शब्दों में हमास के थे, ब्लॉक कर दिए ताकि हिंसक या घृणा फैलाने वाले कंटेन्ट प्रसारित न हों। फ़िलिस्तीनी कार्यकर्ताओं का कहना है कि बहुत से अकाउंट का सशस्त्र गिरोहों से कोई संबंध नहीं था सिर्फ़ वे ग़ज़ा के अवाम की आवाज़ को पहुंचा रहे थे। पोस्टों को शेडो बैन करने का भी एक मसला है। यूज़र्स का कहना है कि उनकी उन पोस्टों को जिसमें वे ज़ायोनी सरकार की आलोचना करते या फ़िलिस्तीनियों के अधिकारों का समर्थन करते हैं, बिना किसी नोटिस के शैडो बैन कर दिया जाता है या उनकी रीच को अचानक कम कर दिया जाता है। जाँच बताती है कि घृणित कंटेन्ट में 96 फ़ीसदी ऐसे हैं जो अरबों या मुसलमानों के अपमान पर आधारित हैं जो यूज़र्स की शिकायत के बावजूद आनलाइन बाक़ी हैं।

मेटा (फ़ेसुबक और इंस्टाग्राम की मदर कंपनी) की भी आलोचना हो रही है। ह्यूमन राइट्स वॉच की दिसम्बर 2023 की एक रिपोर्ट में आया था कि मेटा की नीतियां, असंतुलित और विषम रूप से फ़िलिस्तीनियों की आवाज़ और ऐसे कंटेन्ट के  दबने का सबब बन रही हैं जिनमें वे अपने अधिकारों की बात करते हैं। इस प्रक्रिया के मेकनिज़्म का संभवतः इस प्लेटफ़ार्म अल्गोरिथम की डिज़ाइन से किसी न किसी तरह संबंध है इस मानी में कि पश्चिम की टेक्नालोजी की विशाल कंपनियां फ़िलिस्तीन का समर्थन करने वाले कंटेन्ट पर जान बूझकर अधिक दबाव डालती हैं। इसी वजह से पश्चिम के अवाम तक ग़ज़ा में ज़ायोनी शासन के अपराधों के बारे में अपेक्षाकृत कम सूचनाएं पहुंच रही हैं। वे थोड़े बहुत नरेटिव जो इस फ़िल्टर से निकल जाते हैं- मिसाल के तौर पर बच्चों को मलबे से निकालने या पूरी तरह तबाह हो चुके परिवारों के बारे में दर्दनाक वीडियो- इस चैनल के तड़क भड़क से भरे कंटेन्ट के बाज़ार में बहुत ज़्यादा उभर नहीं पाते और दूसरी ख़बरों के प्रभाव में दब जाते हैं। ऐसे माहौल में कर्मठ कार्यकर्ताओं को भी त्रासदी की पूरी तस्वीर पेश करने में कठिनाई होती है और पाठक की हक़ीक़त के सिर्फ़ एक भाग तक पहुंच होती है।

मौजूदा स्थिति में उथल पुथल

इस बीच दुनिया में जागरुक इंसानों की अंतर आत्माएं, इसी थोड़ी सी सूचनाओं पर प्रतिक्रिया दिखा रही हैं। लंदन और लॉस एंजलेस में प्रदर्शन कर रहे लोगों- या कोलंबिया में क्रोधित स्टूडेंट्स- का कहना है कि ज़ायोनी शासन को अमरीका की ओर से सैन्य और पैसों की मदद, इस शासन के नेताओं के लिए जातीय सफ़ाए को जारी रखना मुमकिन बना रही है।

हक़ीक़त तो यह है कि अमरीकी नेता, ज़ायोनी शासन का साथ देने के लिए हमेशा जमे रहे हैं। कान्ग्रेस में दोनों दलों के सपोर्ट से सालाना सैन्य मदद जारी है। दूसरी ओर मेन स्ट्रीम मीडिया में छाया हुआ नरेटिव, पश्चिमी जनमत को प्रेरित करता है कि वे ज़ायोनी शासन की सुरक्षा को ग़ज़ा के मानवीय संकट पर अहमियत दें। फ़िलिस्तीन के सपोर्टरों की रैलियां, यूनिवर्सिटियों में प्रदर्शन, सोशल मीडिया के चैनलों पर कार्यकर्ताओं के अभियान से इन नरेटिव को चुनौती मिल रही है लेकिन उन्हें दमन और सेंसर का सामना करना पड़ता है; ख़ास तौर पर जब वे ज़्यादा ताक़तवर हो जाएं।

इन सबके साथ ही बड़े पैमाने पर प्रदर्शन यह बताते हैं कि पश्चिम में एक तरह की जागरुकता आ रही है। लोगों ने ऐसे सवाल पूछने शुरू कर दिए हैं जिन्हें पहले अहमियत नहीं दी जाती थी। वे अब हक़ीक़तों के कुछ भागों से परिचित हो रहे हैं जिससे मीडिया की ओर से लीपापोती करके पेश की गयी छवि पर सवाल खड़े हो रहे हैं। अगर ये सच्चाई समय के साथ ज़्यादा सामने आए और पश्चिम में ज़्यादा से ज़्यादा लोग ग़ज़ा के लोगों की भयानक ज़िंदगी की परत दर परत हक़ीक़त को जान जाएं तो मुमकिन है राजनैतिक समीकरण बहुत हद तक बदल जाएं। जिस तरह 'बीडीएस' अभियान के बारे में अवामी सतह पर जागरुकता से ज़ायोनियों को कई अरब का नुक़सान पहुंचा, इसी तरह राजनैतिक मंच पर यह जागरुकता भी जातीय सफ़ाए का सपोर्ट करने वालों और धड़ों की भर्त्सना करके उनके सामने गंभीर चुनौती खड़ी कर दे। जनमत, इस्राईल के समर्थक राजनेताओं को यह समझा सकता है कि इस्राईल को सपोर्ट उनकी लाल रेखा है और जो भी इस रेखा को पार करेगा, उसे अवाम का मत नहीं मिलेगा।

यही वह बिन्दु है कि जिसकी व्याख्या में इस्लामी इंक़ेलाब के नेता ने इस साल ईदुल फ़ित्र की नमाज़ के ख़ुतबे में कहाः दुनिया के आम लोग इस ज़ुल्म पर ग़ुस्से में हैं, परेशान हैं, जिस हद तक उन्हें खबरें मिलती हैं। दुनिया के बहुत से लोगों को इन समस्याओं और अत्याचारों की जानकारी ही नहीं है। आप देखते हैं कि यूरोप और अमरीका की सड़कों पर ज़ायोनी शासन के ख़िलाफ़ प्रदर्शन हो रहे हैं तो यह सिर्फ़ उनकी सीमित और अधूरी जानकारी की वजह से है। अगर उन्हें पूरी हक़ीक़त का पता चल जाए, तो वे इससे कहीं बड़ा विरोध और प्रदर्शन करेंगे।

मुजतबा दाराबी (रिसर्च स्कॉलर)