इस्लामी क्रान्ति के वरिष्ठ नेता आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई ने 10 मई 2025 को मज़दूर सप्ताह के उपलक्ष्य में देश के मज़दूर वर्ग के हज़ारों लोगों से मुलाक़ात में समाज के इस वर्ग की अहम व बुनियादी हैसियत और किरदार, उसके अधिकारों और ज़िम्मेदारियों के बारे में बातचीत की। उन्होंने फ़िलिस्तीन के मुद्दे को ज़ेहन से दूर करने की कोशिशों का ज़िक्र करते हुए इस मसले पर लगातार ध्यान रखने पर बल दिया।(1)
स्पीच इस प्रकार है:
बिस्मिल्लाह अर्रहमान अर्रहीम
अरबी ख़ुतबे का अनुवादः सारी तारीफ़ पूरी कायनात के पालनहार के लिए है और दुरूद व सलाम हो हमारे सरदार व रसूल हज़रत अबुल क़ासिम मुस्तफ़ा मोहम्मद और उनकी पाक व पाकीज़ा और चुनी हुई नस्ल पर ख़ास कर ज़मीनों पर अल्लाह के ज़रिए बाक़ी रखी गई हस्ती पर।
प्यारे भाइयो और बहनो! आप सभी का स्वागत है। हर साल इस इमामबाड़े में मज़दूर भाइयों से यह मुलाक़ात मेरे लिए बहुत ही अहम होती है। मेहनत और मज़दूरों से जुड़े मुद्दे अस्ल में पूरे देश के भविष्य से जुड़े हुए हैं।
सबसे पहले मैं हज़रत इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम के जन्मदिन की मुबारकबाद पेश करता हूँ और इसे सौभाग्य मानता हूं कि हमारी यह मुलाक़ात उनके जन्मदिन पर हो रही है।
साथ ही मैं अपने अज़ीज़ जनाब शहीद रईसी को याद करना चाहता हूँ, जो लोगों की समस्याओं ख़ास कर मज़दूर वर्ग की समस्याओं को हमेशा पहली प्राथमिकता देते थे और उन्हें हल करने के लिए हमेशा सक्रिय रहते थे।
मंत्री साहिब ने यहाँ जो कुछ भी बताया, वह सब सही और ठीक था, यानी मौजूदा कमियाँ, ज़रूरतें, और जो काम किए जाने चाहिए, जिन्हें उन्होंने यहाँ विस्तार से बताया, ये सब बातें सही हैं। मेरा सिर्फ़ एक निवेदन है कि ख़ुद उन्हें, उनके मंत्रालय को और सरकार के कुछ दूसरे विभागों को यह बात ज़रूर याद रखनी चाहिए कि इन बातों का तअल्लुक़ उन्हीं से है। मैं दिल से दुआ करता हूँ कि ख़ुदा उनकी मदद करे, उन्हें ताक़त और हिम्मत दे कि वे ये काम पूरे कर सकें। अगर वे पक्का इरादा करें और ठान लें, तो ज़रूर कर सकते हैं।
मज़दूरों की समस्याओं को लेकर बहुत सी ज़रूरी बातें कही जा चुकी हैं, कुछ अच्छे क़दम भी उठाए गए हैं लेकिन फिर भी कुछ बातों पर दोबारा ज़ोर देने की ज़रूरत है, चाहे ये बातें पहले भी कही जा चुकी हों, इन्हें दोहराया जाना चाहिए। मैंने कुछ बिंदु नोट किए हैं जो आपके सामने पेश कर रहा हूं।
पहला बिंदु: महत्व और मूल्य के निर्धारण का मामला है। इस हिस्से का अस्ल संबोधन, यानी मज़दूर और मेहनत की क़द्र व क़ीमत के बारे में ख़ेताब, सबसे पहले आप ख़ुद मज़दूर वर्ग से है कि अपनी अहमियत को समझें और यह जान लें कि जो काम आप कर रहे हैं, वह अस्ल में सृष्टि की व्यवस्था, समाज के धारे और रुहानी मूल्यों व दीन के उसूलों में किस स्थान पर है।
एक पहलू तो मज़दूर की अहमियत और उसके स्थान का है, न सिर्फ़ उसके काम की वजह से बल्कि उसकी इंसानी हैसियत के आधार पर। मज़दूर में दो अहम खूबियाँ हैं जो ख़ुदा के नज़दीक बड़ी फ़ज़ीलत रखती हैं: पहली ख़ूबी यह है कि वह अपनी मेहनत और अपनी ताक़त से हलाल रोज़ी कमाता है। वह दूसरों पर बोझ नहीं बनता, मुफ़्त का खाने वाला नहीं होता, लूटपाट नहीं करता, दूसरों के माल को अपनी तरफ़ नहीं खींचता बल्कि अपनी मेहनत से कमाता है चाहे वह किसी भी तरह की मेहनत हो। यह एक बहुत नेक काम है, यह बहुत महान काम है। इंसान को ऐसे ही ज़िंदगी गुज़ारनी चाहिए। अपने आप पर निर्भर रहते हुए, अपनी ताक़त पर भरोसा करते हुए। यही हर इंसान के लिए एक मिसाली ज़िंदगी का आदर्श है।
दूसरी ख़ूबी: जो उतनी ही अहम है, यह है कि मज़दूर दूसरों की ज़रूरतें पूरी करता है। आप लोग उद्योग, कृषि और सेवाओं से जुड़ी चीज़ें तैयार करके आम लोगों तक पहुँचाते हैं, यानी आप दूसरों की ज़िंदगी में मदद कर रहे हैं। इंसानी लिहाज़ से ये दोनों बातें बहुत क़ीमती हैं, नेकी हैं। अगर हम मूल्य की तुलना करें तो अगर कोई शख़्स बहुत इबादत करता हो लेकिन अपने और अपने घरवालों के लिए मेहनत न करता हो तो वो उस मज़दूर से कमतर है जो मेहनत करता है, काम करता है। तो ये अस्ल में क़द्र और मूल्य की बात है। ये मेहनत करने वाले इंसान या श्रमिक का दर्जा व स्थान है, उसके काम के लिहाज़ से और उसकी इंसानी क़द्र व क़ीमत के पहलू से।
दूसरा बिंदु: मेहनत की क़द्र व क़ीमत का मामला जो बेहद अहम और स्पष्ट है। मेहनत इंसानी ज़िंदगी की व्यवस्था का एक बुनियादी स्तंभ है। अगर मेहनत न हो तो इंसानी ज़िंदगी ठप्प हो जाए। बेशक पूँजी का असर होता है, विज्ञान यक़ीनी तौर पर प्रभावी है लेकिन पूँजी और विज्ञान श्रम बल (वर्क फ़ोर्स) के बिना किसी काम के नहीं, उनसे कोई फ़ायदा नहीं उठाया जा सकता। मज़दूर ही पूँजी के बेजान ढाँचे में जान डालता है। हमने इस साल "पैदावार के लिए पूँजी निवेश" का नारा दिया है। बहुत अच्छा! लेकिन याद रखिए कि सबसे बड़ी पूँजी ख़ुद मज़दूर है। पूँजी निवेश ज़रूर कीजिए मगर यह बात अच्छी तरह समझ लीजिए कि यह निवेश मज़दूर के इरादे, उसकी सलाहियतों और उसकी इच्छा के बिना कभी कामयाब नहीं हो सकता। मेहनत का यही किरदार है: यह समाज की स्थिरता और वजूद के बाक़ी रहने के बुनियादी स्तंभों में से एक है।
इसी लिए तो आप देखते हैं कि हर समाज के दुश्मन, ख़ास तौर से इस्लामी गणराज्य ईरान के विरोधी, इन्क़ेलाब के पहले दिन से लेकर आज तक यह कोशिश करते आए हैं कि किसी तरह मज़दूर वर्ग को इस्लामी गणराज्य के दायरे में काम करने से रोकें, उन्हें आपत्ति और विरोध के लिए भड़काएँ। मैं ऐसी कई घटनाए जानता हूँ जिनका ज़िक्र यहाँ ठीक नहीं। पहले कम्युनिस्ट और मार्क्सिस्ट थे जो इस कोशिश में थे कि मज़दूर वर्ग को क़ाबू में लेकर इंडस्ट्रियल यूनिट्स को अचानक बंद कर दें जिससे कि इकॉनमी ठप्प पड़ जाए। आज भी यही इरादे मौजूद हैं। पहले कम्युनिस्ट थे, अब सीआईए और मोसाद के एजेंट इसी कोशिश में हैं लेकिन दोनों ज़मानों में हमारे मज़दूर वर्ग ने डटकर मुक़ाबला किया और उन्हें मुंह तोड़ जवाब दिए।
हमने कहा कि सबसे बड़ी पूँजी मज़दूर है, यानी मज़दूर का असर पैसे, वैज्ञानिक रिसर्च और दूसरे कारकों से ज़्यादा है। अब सवाल यह है कि "हम इस पूँजी के साथ क्या करें?" यही वो शुरुआती बिंदु है जहाँ से मज़दूरों के अधिकारों के बारे में हमारी ज़िम्मेदारियाँ शुरू होती हैं। इन ज़िम्मेदारियों का कुछ हिस्सा संभावित रूप से मेरा है, कुछ माननीय मंत्री का है, कुछ पूँजीपतियों और उद्यमियों का है, कुछ आम जनता का है और कुछ मीडिया का है। यानी सबके ऊपर मज़दूरों के बारे में कुछ ज़िम्मेदारियां हैं।
मज़दूर अपना काम अच्छी तरह से कर सके, काम का बेहतर नतीजा दे सके, दूसरों की मदद कर सके और ख़ुद भी अपने पैरों पर खड़ा हो सके, इसके लिए उसे कुछ चीज़ों की ज़रूरत है। इन ज़रूरतों में से एक है रोज़गार की सुरक्षा। एक ज़रूरत सेफ़्टी के इंतेज़ामात हैं। काम की जगह पर हादसे, जो कभी-कभी मज़दूरों के साथ होते हैं, बेहद दुखद हैं। यह समाज पर गहरी चोट हैं। तो एक ज़रूरत, सुरक्षा के इंतेज़ामात की है। एक ज़रूरत आर्थिक चिंताओं को दूर करने की है। यानी ये सारे काम होने चाहिए। अब मैं इनमें से कुछ बिंदुओं पर संक्षेप में रौशनी डालते हुए आगे बढ़ जाऊँगा।
पहला बिन्दु रोज़गार की गारंटी का है। मज़दूर को यह भरोसा होना चाहिए कि उसका रोज़गार बना रहेगा। ताकि वह अपनी योजना बना सके, उसे यह चिंता न हो कि कल क्या होगा, यह काम कब तक चलेगा। उसका रोज़गार किसी दूसरे की मर्ज़ी पर निर्भर नहीं होना चाहिए। रोज़गार की सुरक्षा यह है। यह गारंटी दी जानी चाहिए। कुछ समय पहले कई कारख़ाने तरह-तरह के बहाने बनाकर बंद कर दिए गए थे, जो रोज़गार सुरक्षा के ख़िलाफ़ था। कभी ख़बर आती है कि अमुक कारख़ाना बंद हो गया, जब हम पूछते हैं कि क्यों बंद हुआ तो कच्चे माल की कमी या मशीनों के पुराने होने जैसी बातें बताई जाती थीं। जबकि ये समस्याएं हल करने लायक़ होती हैं, इनका समाधान निकालना चाहिए, कारख़ाने नहीं बंद करने चाहिए।
एक और समस्या, जैसा कि मैं पहले भी इशारा कर चुका हूँ(2) फ़ैक्ट्रियों का बंद करना एक धोखे भरा काम था। अस्ल बात यह थी कि उस ज़मीन की क़ीमत बढ़ चुकी थी, तो मशीनों को किसी तरह बेच दिया जाए, मज़दूरों को मुआवज़ा देकर हटा दिया जाए और ज़मीन से ज़्यादा फ़ायदा उठाया जाए। पैसे के लिए! ये सब पैसे और निजी लालच की वजह से किया गया। इस मामले पर निगरानी करने वाले विभागों और न्यायिक व्यवस्था को ख़ास ध्यान देना चाहिए। यह एक बुनियादी अहमियत का काम है। श्रम मंत्रालय और दूसरे विभागों समेत संबंधित सरकारी विभाग इसकी रोकथाम करें।
हमें जो रिपोर्ट दी गई उसके मुताबिक़ शहीद रईसी की सरकार ने आठ हज़ार बंद पड़ी फ़ैक्ट्रियों को दोबारा सक्रिय किया। इससे साबित होता है कि यह काम मुमकिन है। चाहे फ़ैक्ट्री पूरी तरह बंद हो या सिर्फ़ एक-तिहाई या एक चौथाई क्षमता भर काम कर रही हो, उसे फिर से पूरी तरह चलाया जा सकता है। हमारे इस अज़ीज़ शहीद का यह एक बड़ा कारनामा था जिसका ज़िक्र उन्होंने मुझसे कई बार किया। तो रोज़गार की सुरक्षा पहला अहम बिंदु है।
साथ ही यह बात भी स्पष्ट रहे कि मज़दूर के रोज़गार की सुरक्षा, व्यवसायी के काम की सुरक्षा से जुड़ा हुआ विषय है। निवेशक को भी यह विश्वास होना चाहिए कि उसका निवेश सुरक्षित है। हमारा रवैया ऐसा हो कि वह यह महसूस न करे कि उसका निवेश उसके लिए नुक़सान दायक होगा। उसे भी काम और पूंजी का सुरक्षा मिलनी चाहिए। सही नीति यह है कि हम इस तरह काम करें कि मज़दूर को भी रोज़गार सुरक्षा मिले और दूसरे पक्ष को भी सुरक्षा मिले।
अगला बिंदु जो काम के संबंध में अहम है और मैंने नोट किया है, वह है मज़दूर के कौशल और दक्षता में बढ़ोतरी है। यह हमारी अहम ज़िम्मेदारी है कि हम अपने मज़दूर भाइयों को अधिक कुशल बनाएँ। जब मज़दूर अपने काम में माहिर हो जाए, तो प्रोडक्शन बेहतर, अच्छे स्तर का और उत्कृष्ट होगा, जो कारख़ाने के मालिक, मज़दूर और पूरे समाज के लिए फ़ायदेमंद है, सबके लिए फ़ायदेमंद है। यह बहुत अहम है। हमारे यहां कौशल प्रशिक्षण के संस्थान हैं। अभी रास्ते में माननीय मंत्री ने भी मुझे बताया और मैं स्वयं भी जानता हूँ कि तकनीकी और व्यावसायिक प्रशिक्षण केंद्र इस संबंध में बेहतरीन साधन हैं। हमारे युवा जो यूनिवर्सिटी की शिक्षा के बजाय कौशल सीखने को प्राथमिकता देते हैं, वे भविष्य के बेहतरीन श्रमिक सिद्ध होते हैं। ये युवा देश की सेवा कर सकते हैं, अपने जीवन स्तर को ऊँचा उठा सकते हैं और आम जनता के जीवन स्तर को भी ऊंचा ले जा सकते हैं। तकनीकी और पेशेवराना प्रशिक्षण केंद्रों के साथ-साथ, जो बहुत अहम हैं और मैं उन पर ज़ोर भी दे चुका हूं, ख़ुद बड़ी औद्योगिक कंपनियाँ भी अपने काम के साथ-साथ कर्मचारियों की महारत को बढ़ाने के लिए ट्रेनिंग प्रोग्राम चला सकती हैं। यह भी संभव है। ये वे काम हैं जिन्हें करना ज़रूरी है। बड़ी कंपनियाँ यह काम कर सकती हैं, ट्रेनिंग प्रोग्राम रखें, छोटी अवधि की ट्रेनिंग वर्कशॉप आयोजित करें। अपने कर्मचारियों को ज़रूरी कौशल सिखाएँ ताकि वे बेहतर तरीक़े से और पूरी महारत के साथ काम कर सकें।
एक और अहम बिंदु जिसकी तरफ़ हमने इशारा किया, मज़दूर की सुरक्षा है, उसकी शारीरिक सुरक्षा का। पिछले दो-तीन साल में खदानों में हुई दर्दनाक दुर्घटनाओं से हम सभी अवगत हैं लेकिन यह समस्या सिर्फ़ खदानों तक सीमित नहीं है। मुझे अन्य जगहों से भी रिपोर्टें मिली हैं। दूसरे उद्योगों में भी सुरक्षा व्यवस्था का मामला बहुत अहम है। इसकी निगरानी होनी चाहिए। तकनीकी सुरक्षा उपायों और सामाजिक सुरक्षा के लेहाज़ से इस तरह काम किया जाए कि मज़दूरों की जान की रक्षा पूरी तरह सुनिश्चित हो।
अगला बिंदु, मज़दूरों के समर्थन का एक अहम पहलू स्थानीय उत्पादों को बढ़ावा देना है, जिस पर मैं कई साल से ज़ोर दे रहा हूँ।(3) यह छठे कार्यक्रम में भी शामिल था।(4) हालाँकि कुछ लोगों ने इस पर पूरी तरह काम नहीं किया लेकिन जहाँ तक इस पर अमल किया गया, यह लाभदायक सिद्ध हुआ। जब हम स्वदेशी प्रोडक्ट ख़रीदते हैं, तो वास्तव में हम अपने देश के मज़दूरों और निवेशकों की मदद कर रहे होते हैं लेकिन अगर हम वही चीज़ विदेशी ख़रीद लें तो इसका मतलब है कि हम उस दूसरे देश के मज़दूरों और निवेशकों को प्राथमिकता दे रहे हैं। क्या यह न्याय है? क्या यह इंसानी रवैया है?
बेशक कुछ बहाने मौजूद हैं, जैसे यह कि देश में बनी वस्तुओं का स्तर ऐसा है, वैसा है। नहीं! कई मामलों में देशी उत्पादों की गुणवत्ता बहुत अच्छी भी है। कुछ सामानों और घरेलू उपयोग के सामानों और अन्य चीजों में हमारे प्रोडक्ट्स का स्तर विदेशी प्रोडक्ट्स से अगर बेहतर नहीं तो कम भी नहीं है। हमें इसे एक आम कल्चर बनाना चाहिए, एक प्रचलित परंपरा के तौर पर हर ईरानी अपनी ज़िम्मेदारी समझे कि वह ईरानी सामान इस्तेमाल करे, सिवाए उन चीज़ों के जो देश में तैयार नहीं होतीं। जो चीज़ें देश में बनती हैं, उनका इस्तेमाल सभी को अपना फ़र्ज़ समझना चाहिए। हमें इसे एक कल्चर बनाना चाहिए।
मैंने सुना है कि हाल ही में किसी संस्था ने ऐलान किया है कि उन प्रोडक्ट्स के आयात पर से पाबंदी हटा दी गई है जिनके जैसे प्रोडक्ट देश में मौजूद हैं। यह पाबंदी क्यों हटाई जाए? जो चीज़ें देश में बन रही हैं उन्हें बढ़ावा दें। अगर उनका स्तर अच्छा नहीं है तो स्तर पर काम करें। मैंने कुछ साल पहले यहाँ गाड़ियों के बारे में बात की थी, जब कहा जाता था कि देशी गाड़ियाँ ज़्यादा फ़्यूल ख़र्च करती हैं, मैंने कहा था(5) कि अगर आर्थिक पाबंदियों और वैज्ञानिक घेराव के बावजूद, जब दुनिया के ज्ञान के मालिक देश हमारे साइंटिस्टों और स्टूडेंट्स के लिए दरवाज़े बंद कर देते हैं तब ईरानी साइंटिस्ट बड़े-बड़े काम करके दिखाता है। अगर ईरानी युवा ऐसी मिसाइल बना सकता है, ऐसे हथियार बना सकता है, ऐसे प्रोडक्ट तैयार कर सकता है कि दुश्मन हैरान रह जाता है और कहता है कि मैं इस काम के सम्मान में खड़ा हो जाता हूँ(6) तो वह ऐसी गाड़ी भी बना सकता है जिसमें फ़्यूल कम ख़र्च हो, जिसकी क्वालिटी बेहतर हो। हमें इसी पर काम करना चाहिए, इसी पर ध्यान देना चाहिए।
यह तो बड़ा आसान रास्ता है कि कह दिया: "ठीक है, रास्ता खोल दो कि बाहर से चीज़ आए।" लेकिन यह देश के नुक़सान में है, यह मज़दूर वर्ग के नुक़सान में है, यह पूरे देश के नुक़सान में है। इसलिए, मज़दूर के समर्थन का एक अहम बिंदु यही है कि हम स्वदेशी माल इस्तेमाल करें और इसे एक कल्चर बना दें।
एक अहम काम जिसके बारे में मेरा मानना है कि अधिकारियों द्वारा व्यापक और पूर्ण योजना बनाने की ज़रूरत है और जो श्रमिकों के लिए भी लाभदायक है, और निवेशकों के लिए भी, वह यह है कि श्रमिकों को प्रोडक्शन के लाभ में भागीदार बनाया जाए। अगर श्रमिक को यह अहसास हो कि जितना अधिक इस माल का लाभ बढ़ेगा, उसका हिस्सा भी उतना ही बढ़ेगा, तो वह काम को अधिक बेहतर ढंग से करने के लिए प्रेरित होगा। यानी यह चीज़ मज़दूर को यह प्रेरणा देगी कि वह काम को अधिक बेहतर, पूर्ण रूप से और उमदा तरीक़े से करे। यह उस हदीस का व्यावहारिक उदाहरण होगा जिसे मैं बार-बार दोहराता रहा हूँ: "अल्लाह उस व्यक्ति पर दया करे जो कोई काम करे तो उसे मुकम्मल तौर से करे।"(7) यानी ठोस और उमदा काम। आज दुनिया में कुछ ऐसे कारख़ाने हैं जब कोई चीज़ बनाते हैं तो अपने प्रोडक्ट पर कारख़ाने की स्थापना की तारीख़ लिखते हैं। वे इस बात पर फ़ख़्र करते हैं कि यह कारख़ाना सौ साल पहले स्थापित हुआ था। किसी औद्योगिक इकाई का, हमने औद्योगिक प्रोडक्शन की मिसाल दी है, बाक़ी उत्पादन क्षेत्र भी इसी तरह हैं, यहाँ तक कि कुछ सेवा क्षेत्र भी, यह तरीक़ा कि वह इस तरह काम करे कि सौ साल तक उसके ग्राहक मौजूद रहें और वह इस पर गर्व करे, यह बेहतरीन चीज़ है। और यह कारीगरों को कारख़ाने के मुनाफ़े में शरीक करने से ही हासिल होगा। यह एक अहम काम है।
एक और अहम बिंदु, जिसकी ओर उन्होंने(8) इशारा किया, मज़दूरों के आवास का मामला है। अगर बड़ी औद्योगिक इकाइयों और कारीगर आवासीय को-ऑपरेटिव सोसाइटियों के बीच, जहाँ ऐसी को-ऑपरेटिव्ज़ मौजूद हों, सहयोग हो तो यह मज़दूरों की सबसे बड़ी मदद होगी। अगर को-ऑपरेटिव्ज़ मौजूद नहीं है तो वे को-ऑपरेटिव स्थापित कर सकते हैं, इसके निर्माण में मदद दे सकते हैं, या फिर बड़े कारख़ानों के पास ही आवासीय इकाइयाँ बना सकते हैं। इस तरह रहने की समस्या, जो सबसे बड़ी परेशानियों में से एक है, ख़त्म हो जाएगी और मज़दूरों का ज़ेहन इस पहलू से शांत रहेगा। मज़दूरों की मदद का यह एक अत्यंत अहम साधन है।
एक और विषय जो मैंने यहाँ नोट किया है, वह काम की जगह के सांस्कृतिक माहौल का मामला है। देखिए, मार्क्सवादियों और कम्युनिस्टों के दर्शन में काम की जगह, संघर्ष का केंद्र है, दुश्मनी का माहौल है। यानी उनके अनुसार मज़दूर को फ़ैक्ट्री मालिक का दुश्मन होना चाहिए, यही उनका दर्शन है। उनकी नज़र में श्रम के पक्ष की गतिविधियां एक दूसरे से संघर्ष और टकराव पर आधारित हैं। उनका मानना है कि संघर्ष का यह सिद्धांत इतिहास में, सामाजिक मुद्दों में, राजनैतिक मामलों में और आर्थिक विषयों में लगातार जारी है। उन्होंने बरसों तक लोगों को इस ग़लत सोच में उलझाए रखा, न सिर्फ़ ख़ुद को बर्बाद किया बल्कि दुनिया के बहुत से लोगों को भी तबाही में डाल दिया। इस्लाम इसके बिल्कुल विपरीत बात करता है।
इस्लाम ज़िंदगी के माहौल को, काम के वातावरण को, इतिहास के माहौल को एकता, समन्वय और साझा सोच का पालना बताता है। जो लोग क़ुरआन में गहराई से विचार और शोध करते हैं, वे "ज़ौजियत" (जोड़) की व्याख्या, "ज़ौज" शब्द और "ज़ौजियत" की अवधारणा को क़ुरआने मजीद में खोजें: "पवित्र है वह (अल्लाह) जिसने सभी जोड़ों की रचना की, चाहे वह वनस्पति हो, जिसे धरती उगाती है या ख़ुद उनकी जाति (इंसान) हो या वे चीज़ें हों जिन्हें ये नहीं जानते।"(9) यानी ब्रह्मांड की हर चीज़ में सामंजस्य, सहानुभूति, सहयोग और पारस्परिक विकास की अवधारणा मौजूद है। काम के माहौल के बारे में भी यही सिद्धांत लागू होता है; यहाँ परस्पर विकास होना चाहिए। दोनों पक्षों की ओर से दिल की गहराई से, न कि सिर्फ़ दिखावे के लिए, एक-दूसरे की मदद की जानी चाहिए।
अंतिम बात यह है कि जब हम मज़दूर के बारे में बात करते हैं, तो सिर्फ़ औद्योगिक मज़दूर को ही मद्देनज़र न रखें। निर्माण क्षेत्र के मज़दूर, खेतों में काम करने वाले मज़दूर, सब्ज़ी मंडी के मज़दूर और घरों में मेहनत करने वाली मज़दूर महिलाएं, जो आज के दौर में संचार साधनों और इस तरह की सुविधाओं के चलते घर बैठे काम करके रोज़ी कमाती हैं, इन सबका भी ध्यान रखा जाना चाहिए। इंश्योरेंस के लेहाज़ से और दूसरे विभिन्न पहलुओं से इन पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए।
मैं आज दुनिया में राष्ट्रों के ख़िलाफ़ शत्रुतापूर्ण नीतियां अपनाए जाने के बारे में एक बात कहना चाहता हूं। फ़िलिस्तीन के मुद्दे को भुलाने का प्रयास किया जा रहा है, मुस्लिम राष्ट्रों को ऐसा नहीं होने देना चाहिए, उन्हें हरगिज़ इसकी इजाज़त नहीं देनी चाहिए। विभिन्न प्रकार की अफ़वाहों के ज़रिए, विभिन्न चीज़ों के ज़रिए, नई नई बेतुकी बातें और नई नई निरर्थक समस्याएं पैदा करके वे फ़िलिस्तीन के मुद्दे से लोगों का ध्यान हटाने की कोशिश कर रहे हैं। ध्यान, फ़िलिस्तीन के मुद्दे से नहीं हटने देना चाहिए। ज़ायोनी सरकार की ओर से ग़ज़ा में और फ़िलिस्तीन में किया जाने वाला अपराध कोई ऐसा मामला नहीं है जिसे नज़रअंदाज़ किया जा सके। पूरी दुनिया को इसके ख़िलाफ़ खड़ा होना चाहिए। ख़ुद ज़ायोनी शासन के ख़िलाफ़ भी खड़े हो जाना चाहिए और ज़ायोनी सरकार के समर्थकों के ख़िलाफ़ भी खड़े हो जाना चाहिए।(10) जी हाँ! आप बिल्कुल सही समझ रहे हैं। अमरीकी वास्तव में उसका समर्थन कर रहे हैं। कभी राजनैतिक दुनिया में कुछ ऐसी बातें कह दी जाती हैं, जो मुमकिन है कि मन में विपरीत कल्पना पैदा कर दें लेकिन यह सच नहीं है।
सच यह है कि फ़िलिस्तीन के मज़लूम राष्ट्र को, ग़ज़ा के मज़लूम लोगों को आज सिर्फ़ ज़ायोनी शासन का सामना नहीं है, उन्हें अमरीका का सामना है, उन्हें ब्रिटेन का सामना है। यही वे शक्तियां हैं जो इस अपराधी शासन को मज़बूत बना रही है वरना उनका फ़र्ज़ तो यह था कि उसे रोकतीं। तुमने उन्हें हथियार दिए, तुमने उन्हें सहूलतें दीं, जब भी वे कमज़ोर पड़ते हैं, तुम्हारी ही तरफ़ से उन्हें मदद मिलती है। अब जबकि तुम देख रहे हो कि वे किस तरह ज़ुल्म कर रहे हैं, इतनी बड़ी संख्या में हत्याएं, इतना ज़्यादा ख़ून-ख़राबा, ये सारे अत्याचार! ज़रूरी है कि उनके ख़िलाफ़ खड़ा हुआ जाए। अमरीका का फ़र्ज़ था कि वह इन अपराधों को रोकता लेकिन न सिर्फ़ वह ऐसा नहीं कर रहा है, बल्कि मदद भी दे रहा है। इसलिए पूरी दुनिया को चाहिए कि वह ज़ायोनी शासन के ख़िलाफ़ भी खड़ी हो और उसके समर्थकों के ख़िलाफ़ भी, जिनमें अमरीका भी शामिल है, सच्चे अर्थों में विरोध करे। कुछ नारों, कुछ बातों और कुछ वक़्ती घटनाओं को फ़िलिस्तीन के अहम मुद्दे को भूल जाने का साधन नहीं बनने देना चाहिए।
बेशक मेरा विश्वास है कि अल्लाह की मदद से और अल्लाह के इज़्ज़त व जलाल से, फ़िलिस्तीन, ज़ायोनियों पर विजयी होगा। यह काम हो कर रहेगा। (लोगों की तकबीर) असत्य की कुछ तड़क भड़क होती है, कुछ दिनों तक वह तड़क भड़क दिखाता है लेकिन वह ख़त्म होने वाला है, उसका अंत हो कर रहेगा, इसमें कोई शक नहीं है। ये जो कुछ सतही बातें दिखाई देती है, वे कुछ काम कर रहे हैं और सीरिया और अन्य स्थानों पर और कुछ प्रगति कर रहे हैं, यह ताक़त का संकेत नहीं हैं बल्कि कमज़ोरी का संकेत हैं और इंशा अल्लाह यह अधिक कमज़ोरी का कारण बनेगा। हमें आशा है कि ईरानी राष्ट्र और मोमिन क़ौमें, इंशा अल्लाह उस दिन को, हमलावरों पर और फ़िलिस्तीन पर क़ब्ज़ा करने वालों पर फ़िलिस्तीन की जीत के दिन को अपनी आंखों से देखेंगी।
आप सब पर सलाम और अल्लाह की रहमत व बरकत हो।
(1) इस मुलाक़ात की शुरुआत में श्रम और सामाजिक विकास मंत्री डॉक्टर अहमद मैदरी ने कुछ अहम बातें पेश कीं।
(2) राष्ट्रपति और कैबिनेट सदस्यों से मुलाक़ात के दौरान दी गई स्पीच (2018/08/29)
(3) मज़दूरों से मुलाक़ात के मौक़े पर दी गई स्पीच (2022/05/09)
(4) छठे विकास प्रोग्राम की जनरल पालिसियाँ (2015/06/30)
(5) औद्योगिक यूनिट्स से वीडियो लिंक के ज़रिए किया गया ख़ेताब (2020/05/06)
(6) योसी राबिन (ज़ायोनी सरकार के मिसाइल डिफ़ेन्स ऑर्गेनाइज़ेशन के पूर्व प्रमुख) के 2015 के बयान की तरफ़ इशारा, जिसमें उन्होंने कहा था: "मैं उन इंजीनियरों के सम्मान में अपनी टोपी उतारता हूँ जिन्होंने ये मिसाइलें तैयार कीं।"
(7) मसाएले अली बिन जाफ़र और मुस्तदरकात, पेज 93 (थोड़े से फ़र्क़ के साथ)
(8) श्रम और सामाजिक विकास मंत्री
(9) सूरए यासीन, आयत 36
(10) उपस्थित लोगों के "अमरीका मुर्दाबाद" के नारे