इस्लामी इंक़ेलाब के नेता आयतुल्लाह ख़ामेनेई ने 24 अप्रैल 2024 को श्रमिक व कामगार सप्ताह के अवसर पर देश के श्रमिक वर्ग के लोगों से ख़ेताब किया। (1)
आयतुल्लाह ख़ामेनेई की तक़रीरः
बिस्मिल्लाह-अर्रहमान-अर्रहीम
अरबी ख़ुतबे का अनुवादः सारी तारीफ़ पूरी कायनात के मालिक के लिए, दुरूद व सलाम हो हमारे सरदार व रसूल हज़रत अबुल क़ासिम मुस्तफ़ा मोहम्मद और उनकी सबसे पाक, सबसे पाकीज़ा, चुनी हुयी नस्ल और ख़ास तौर पर ज़मीनों पर अल्लाह की तरफ़ से बाक़ी रखी गई हस्ती पर।
आप सब का बहुत स्वागत है, प्यारे भाइयो और बहनो, प्यारे श्रमिको! मैं आप सब उपस्थित लोगों के ज़रिए मुल्क के सभी श्रमिकों को दिल की गहराइयों से सलाम करता हूँ। अल्लाह आप सब को कामयाबी दे, आप सब की मदद करे। मुझे तो यह ख़ुशी है कि “मज़दूर सप्ताह” रखा गया है जिसमें हमें मेहनत करने वालों से मुलाक़ात का मौक़ा मिलता है, जिसके दौरान कम से कम हम ज़बान से उनका शुक्रिया अदा कर सकते हैं, यह भी हमारे लिए बहुत अच्छा मौक़ा है। जी हाँ! ज़बान से शुक्रिया अदा करना काफ़ी नहीं है, लेकिन ज़रूरी है। मैं दिल से शुक्रिया अदा करता हूँ, अपने मुल्क के मज़दूरों की मेहनतों पर, उनकी शराफ़त पर, उनके संकल्प पर, और उनकी तरक़्क़ी पर।
मैं कुछ बातें कहूँगा। यह जो बातें मैं कहना चाह रहा हूँ, हो सकता है कि उनमें से कुछ बातें आप लोगों के लिए सामने की हों, स्पष्ट हों। लेकिन इसके बावजूद जो मैं इन बातों का ज़िक्र कर रहा हूँ तो उसकी वजह यह है कि इन बातों को एक परम्परा में बदलना चाहिए, जनमत में यह बातें आम हो जानी चाहिएं, समाज में आम लोगों का ध्यान भी इस तरफ़ जाए, क्योंकि अगर कोई चीज़ जनमत में, समाज में पूरी तरह से स्वीकार कर ली जाती है और परम्परा बन जाती है तो उसे पूरा करना आसान होता है। सरकारें, अधिकारी और सारे ज़िम्मेदार लोग उस काम को पूरा करने के लिए कोशिश करेंगे, हम भी यही चाहते हैं कि यह हो जाए।
सब से पहली बात, श्रमिक की अहमियत के बारे में है। जी मज़दूर की अहमियत के बारे में बहुत कुछ कहा गया है, हमने भी इस बारे में बहुत सी बातें कही हैं (2) दूसरों ने भी कही हैं, आप सब को भी पता है लेकिन इस बारे में सब से बड़ी बात जो कही जा सकती है वह है वो रवायत जिसमें बताया गया है कि पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने मज़दूर के घट्ठे पड़े हुए हाथ को चूमा है। (3) अब इस से बड़ी बात क्या हो सकती है? यह मेहनतकश की अहमियत है। लेकिन यहाँ पर एक बात है और वह यह कि दुनिया में, विभिन्न देशों में, तरह तरह के राष्ट्रों और संस्कृतियों में, एक दिन, मज़दूर दिवस मनाया जाता है, मज़दूर दिवस पूरी दुनिया में मनाया जाता है लेकिन बात यह है कि मेहनतकशों को दुनिया जिस भौतिकता की नज़र से देखती है, मज़दूरों के बारे में इस्लाम का नज़रिया उससे अलग है। जी हाँ, भौतिक दुनिया भी मज़दूरों को अहमियत देती है लेकिन क्यों? क्योंकि मज़दूर एक साधन है। मालिक के लिए दौलत कमाने का साधन है, भौतिक दुनिया मज़दूर को एक साधन के रूप में देखती है, नट-बोल्ट की तरह, गाड़ी की तरह। इस्लाम में यह नही है, इस्लाम जिस नज़रिए से मज़दूर को देखता है और उसे जितनी अहमियत देता है उसकी बुनियाद यह है कि इस्लाम ख़ुद काम को अहमियत देता है, इस्लाम में “कर्म” की ख़ुद अहमियत है।
यह जो क़ुरआने करीम में “नेक अमल” की बात कही गयी है और इसी तरह से “अमल” और कर्म के बारे जो विभिन्न रवायतें हैं उनसे मुराद हमेशा नमाज़ रोज़ा ही नहीं है। “अमल” यानी हर काम, हर वह काम जो इंसान इबादत के लिए करता है, हर वह काम जो इंसान अपने घर में हलाल रोज़ी लाने के लिए करता है, वह सब अमल है “नेक अमल” है, “सिवाए उन लोगों के जो ईमान लाए और नेक काम किये” (4) इस आयत में वे लोग भी शामिल हैं, “अमल” और कर्म एक जनरल चीज़ है। इस लिए आप देखें कि साद बिन मआज़ की घटना जो शहीद हो गये थे, रसूल अकरम उनकी क़ब्र के अंदर गये, उन्हें हाथों में लेकर क़ब्र में लिटाया, उसके बाद जब वो लहद बना रहे थे तो बार-बार कह रहे थे, चूना दो, पानी दो, गारा दो, ताकि लहद को मज़बूत किया जा सके। अच्छा लहद को मज़बूत करने का क्या मतलब? ज़ाहिर है चार दिन बाद ख़राब ही होना है उसे। पैग़म्बरे इस्लाम ने इस छुपे सवाल का जवाब दे दिया, किसी ने पूछा नहीं था, लेकिन एक सवाल था जो दिमाग़ में उठ रहा था। पैग़म्बरे इस्लाम ने कहाः हाँ! हमें मालूम है कि यह कुछ दिनों में ख़त्म हो जाएगा, बदन भी और लहद भी, लेकिन अल्लाह को यह पसंद है कि इंसान जो भी काम करे, वह अच्छी तरह से करे, मज़बूती से करे, रवायत के शब्द यह हैं “अल्लाह को यह अच्छा लगता है कि जब तुम में से कोई, कुछ करे तो उसे अच्छी तरह से करे”।(5) तो इस से यह पता चलता है कि रवायतों में जिस “अमल” की बात की गयी है उसमें यह सब भी शामिल है। इस “अमल” की अपनी इज़्ज़त है।
इसी लिए एक रवायत में, कि जो समाज के बारे में है, इंसानी समाज के बारे में है, कहा गया हैः “जो काम करता है उसकी ताक़त बढ़ती है।” जिस समाज में काम होता है जहाँ काम किया जाता है, वहाँ और उस समाज की ताक़त बढ़ती है, और “जो काम में सुस्ती करता है उसका आलस्य बढ़ जाता है।” (6) जो समाज और जो व्यक्ति काम में कमी करता है वहाँ और उस व्यक्ति में सुस्ती ज़्यादा हो जाती है। काम, ताक़त पैदा करता है, व्यक्ति में भी, और समाज में भी, काम इस तरह होता है। तो इस से पता चलता है कि अमल और काम का इस्लाम में अपना महत्व है। यह काम कौन करता है? आप लोग, आप मेहनतकश। तो मेहनतकश का यह महत्व होता है। देखें, ग़ौर करें, यह नज़रिया है। यह सोच नहीं है कि अगर यह न होगा तो हमारी जेब ख़ाली रह जाएगी, यह नहीं है कि मज़दूर को एक साधन की तरह देखा जाए। इस्लाम इस तरह से मज़दूर को नहीं देखता, इस्लाम का कहना है कि यह अमल कर रहा है, काम कर रहा है और काम की अपनी क़ीमत है, इस लिए इस काम करने वाले का भी महत्व है। मैं यह कहना चाहता हूँ कि आप लोग जो मेहनतकश हैं, ख़ुद आप भी अपनी अहमियत समझें और मज़दूर की पोज़ीशन पर ध्यान दें, उसे अहम समझें और मुल्क का समाज और मुल्क के लोग भी इस बात पर ध्यान दें कि मेहनतकश की कितनी अहमियत है। यह तो रही एक बात।
दूसरी बात मुल्क के जारी मुद्दे के बारे में है जो अर्थ व्यवस्था का मामला है। हमारे मुल्क का आजकल एक बेहद अहम मुद्दा, अर्थ व्यस्था है। इसी लिए हम कई बरसों से नये साल का नारा, मुल्क की संवेदनशील अर्थ व्यवस्था के मुद्दे के बारे देते हैं। इस साल भी (7) हमने कहा “पैदावाद में छलांग” “पैदावार में वृद्धि” नहीं, बल्कि “छलांग!” यह छलांग कैसे लगायी जाएगी, जनता की भागीदारी से। मुझे पक्का य़कीन है, और हमारे सारे अर्थ शास्त्रियों और एक्स्पर्ट्स की राय भी यही है कि अगर जनता अर्थ व्यवस्था के मैदान में उतर आए, ख़ास तौर पर अगर उत्पादन के मैदान में आए तो पैदावार में तेज़ी के साथ वृद्धि होगी, जब पैदावार छलांग लगाएगी, तो मुल्क दौलतमंद होगा, लोग दौलतमंद हो जाएंगे, मेहनतकश की जेब भरेगी, उसके पास बहुत कुछ होगा, रोज़गार बढ़ेगा, बेरोज़गारी कम होगी और मुल्क में अर्थ व्यवस्था और मुल्क के मेहनतकशों के लिए मौजूद बहुत सी समस्याओं का निवारण हो जाएगा। यह तो अर्थ व्यवस्था का मुद्दा है।
जी अब जो यह नारा है “पैदावार में छलांग” तो इसमें पैदावार में छलांग का अस्ल रोल किसका है? मेहनतकश का, यानी वह जो हमने अपनी बाती बात में मज़दूर के व्यक्तिगत मूल्य की बात की थी उसके अलावा दूसरी बात यह है कि इस साल के नारे में और मुल्क की जनरल पॉलीसी में इस साल जिस चीज़ पर ध्यान देना चाहिए और ख़ुदा का शुक्र है कि मुल्क के ओहदेदार इस पर ध्यान दे रहे हैं, बैठकें कर रहे हैं, चर्चा कर रहे हैं, इन्शाअल्लाह वह इसका रास्ता भी निकाल लेंगे, उसमें मज़दूर की भूमिका बहुत अहम है, यानी पैदावार में छलांग के लिए एक एक्स्पर्ट और जोश व जज़्बे से भरे मज़दूर की अहमियत का कोई इन्कार नहीं कर सकता, काफ़ी अहम रोल है। अगर हम सही तौर पर यह बात कहना चाहें तो यह कहेंगे कि मज़दूर और मालिकों का रोल। काम पर रखने वाले लोग भी अहम हैं, उसका होना भी ज़रूरी है ताकि मज़दूर को काम मिल सके, वह काम कर सके। मज़दूर और कारख़ाने का मालिक दोनों एक दूसरे के सहयोगी हैं, आर्थिक लड़ाई के मोर्चे पर। आज हमें एक आर्थिक युद्ध का सामना है, आर्थिक युद्ध हैं, यह जंग भी इंक़ेलाब के आरंभ की 8 वर्षीय जंग की तरह हमारे ऊपर थोपी गयी है। अमरीका ने अपने हिसाब से, अमरीका के साथी मुल्क अपने अपने लिहाज़ से इस्लामी ईरान से, इस्लामी जुम्हूरिया ईरान से दर अस्ल जंग कर रहे हैं, यह आर्थिक युद्ध है। यह जो हमारी आर्थिक जंग है, फ्रंट लाइन पर और सब से आगे की जगह मज़दूरों और कारख़ानों के मालिकों की है, इन लोगों का रोल यह है। (8) लेकिन मैं यह बात नहीं कहना चाहता था मैं यह कहना चाहता हूँ कि आप अमरीका से लड़ रहे हैं, अपने काम की अहमियत समझें, यानी फ्रंट लाइन पर मज़दूर और कारख़ानों के मालिक हैं। आप लोग जितनी अच्छी तरह से काम करेंगे। अच्छा काम करने के लिए आप लोगों की जितनी मदद की जाएगी, कि जिस पर बाद में बात करूंगा, उन सब का इस आर्थिक जंग पर असर होगा। यह दूसरी बात थी।
तीसरी बात यह है कि यहाँ पर कुछ ज़िम्मेदारियां हैं, उनमें से कुछ तो सरकार और सरकारी अधिकारियों की हैं, मेहनतकशों के सिलसिले में। यानी बहुत से काम हैं जो उन्हें मज़दूरों के लिए करने चाहिएं। इसी तरह कुछ काम हैं जो ख़ुद मेहनतकश के ज़िम्मे हैं, यानी दोनों पक्षों की अपनी-अपनी ज़िम्मेदारियां हैं जिन पर अमल होना चाहिए। मैं अब इन ज़िम्मेदारियों की तरफ़ इशारा करुंगा। सब से पहली बात तो यह है कि सब को यह पता होना चाहिए कि मेहनतकशों की दशा अच्छी हुई तो उसका पूरे समाज पर अच्छा असर पड़ेगा। जैसा कि मुझे बताया गया है, हमारे मुल्क में लगभग 1 करोड़ 40 लाख वर्कर वर्ग के लोग हैं। अगर उनके घर वालों को भी जोड़ा जाए तो 4 करोड़ से ज़्यादा ही हो जाएंगे। जी तो हमारे यहाँ चार, साढ़े चार करोड़ का मतलब देश की आधी आबादी है। अब अगर कोई ऐसा काम किया जाए, ऐसी कोशिश की जाए जिससे वर्कर वर्ग की दशा अच्छी हो जाए तो इसका मतलब यह होगा कि हमारे मुल्क की आधी आबादी की हालत अच्छी हो गयी। यह बहुत अहम बात है। अब यहाँ पर जो ज़िम्मेदारियां हैं मैंने उनमें से कुछ को यहाँ पर नोट कर रखा है जिसका मैं ज़िक्र कर रहा हूँ।
सब से पहली बात जो है वह मेहनतकश बिरादरी की सब से अहम ज़रूरत है, सम्मानीय मंत्री (9) भी यहाँ पर हैं, देश के बड़े ओहदेदार भी सुन रहे हैं, वह चीज़ है जॉब सेक्यूरिटी। “जॉब सेक्यूरिटी” यानी यह कि मज़दूर को अपनी नौकरी के भविष्य के बारे में भरोसा हो। एक दौर में हमारे मुल्क में कारख़ानों को बंद करने की बीमारी हो गयी थी और कभी कभी तो बेहद पुराने कारख़ानों को भी बंद कर दिया गया। जी हाँ जब एक बड़ा कारख़ाना बंद होता है तो कभी कभी कई हज़ार लोग बेरोज़गार हो जाते हैं, यह बहुत अहम है। अच्छी बात है कि ख़ुदा के शुक्र से पिछले एक दो बरसों में, अधिकारियों के संकल्प की वजह से, बंद पड़े बहुत से कारख़ानों में काम फिर से शुरु हो गया। जैसा कि मुझे रिपोर्ट दी गयी है लगभग 10 हज़ार कारख़ाने या तो पूरी तरह से बंद थे या फिर उनमें आधा अधूरा काम हो रहा था और अब उन सब को खोल दिया गया, फिर से वहाँ काम शुरु हो गया, यह सिलसिला जारी रहना चाहिए। मज़दूरों के लिए “जॉब सेक्यूरिटी” की हर क़िस्म का इंतेज़ाम होना चाहिए। इस बुनियाद पर “जॉब सेक्यूरिटी” वह ज़िम्मेदारी है जो मुल्क के ओहदेदारों के कांधों पर है ताकि सब्र व शुक्र के साथ अपने काम में व्यस्त मेहनतकश को कम से कम यह यक़ीन तो रहे कि उनकी नौकरी पक्की है और भविष्य में उन्हें इस बारे में कोई समस्या नहीं होगी।
एक और मुद्दा इंश्योरेंस का है कि जिसका ज़िक्र सम्मानीय मंत्री साहद ने किया, इंश्योरेंस का मामला बहुत अहम है। सोशल सेक्यूरिटी की पॉलसियों को बहुत पहले से लागू किया जा चुका है जिसमें मेहनत कश और दूसरे वर्ग सब शामिल हैं।(10) माननीय राष्ट्रपति (11) ने भी आदेश दिया है कि उसके नियम बनाए जाएं, लेकिन जैसा कि मुझे बताया गया है अब तक जैसे काम होने चाहिए थे वह नहीं हुए हैं।
एक दूसरा महत्वपूर्ण मुद्दा, कामगारों की सुरक्षा का है। काम करने वालों के लिए सुरक्षित काम की जगह होनी चाहिए ताकि उन्हें नुक़सान न पहुंचे। काम करने वालों की सुरक्षा बहुत महत्वपूर्ण है। मेहनत कशों की एक अहम ज़रूरत, जिसे पूरा करना सरकारी अधिकारियों और कारख़ानों के मालिकों की ज़्यादा ज़िम्मेदारी है, महारत व दक्षता है। लेबर, काम के लिए तैयार है, लेकिन कहीं और कभी उसे महारत व दक्षता की ज़रूरत होती है। काम के सिलसिले में उसकी महारत को बढ़ाना, काम में तरक़्क़ी के मामले में बहुत मददगार होता है, यह मेहनतकश के फ़ायदे में भी है और मुल्क के हित में भी है। यह महारत को बढ़ाना जो दर अस्ल श्रमबल को ताक़तवर बनाना है, यानी मेहनतकश प्रोडक्टिविटी के मामले में ज़्यादा अच्छा हो जाए, यह भी इन लोगों की ज़िम्मेदारियों में शामिल है। इसी की एक मिसाल असाधारण योग्यता रखने वालों की खोज भी है। मेहनतकशों में कभी कभी कोई असाधारण योग्यता का मालिक होता है और नयी सोच का मालिक होता है, अगर संबंधित विभाग इन लोगों को तलाश कर लें, उनकी योग्यताएं जान लें, उन्हें काम का मौक़ा दें, अपनी योग्यताएं प्रकट करने और काम करने का उन्हें मौक़ा दें तो मेरे ख़्याल से मेहनतकश बिरादरी और पूरे मुल्क में काम की स्थिति में बहुत ज़्यादा तरक़्क़ी होगी।
यक़ीनी तौर पर कुछ ज़िम्मेदारियां जैसाकि मैंने कहा, सरकारी विभागों पर हैं, जैसे लेबर मिनिस्ट्री, बल्कि शिक्षा विभागों पर भी ज़िम्मेदारियां हैं। मैं ने बार बार एजुकेशन मिनिस्ट्री को तकनीकी व पेशवराना ट्रेंनिंग देने की सिफ़ारिश की है। (12) इस से श्रम बल को और उनकी महारत बढ़ाने में काफ़ी मदद मिलेगी। अब कुछ लोगों का यह मानना है कि शायद यह ज़रूरी हो बल्कि मुमकिन हो कि युनिवर्सिटियों में, स्कूलों में, शिक्षा विभाग में, थ्योरी के साथ ही साथ प्रैक्टिकल भी कराया जाए बल्कि डिग्री दी जाए ताकि एक मेहनतकश में, एक नौजवान में काम की योग्यता प्रमाणित हो जाए कि मिसाल के तौर पर उसने तकनीकी शिक्षा प्राप्त की है, यह साबित हो और वह काम कर सके। यह भी एक मुद्दा है जिसके बारे में मैंने कहा कि कुछ हिस्सा सरकार के कांधों पर है, कुछ हिस्सा ख़ुद कारखानों के मालिकों की ज़िम्मेदारी है। अगर इन ज़िम्मेदारियों को पूरा किया जाए, तो मेरी नज़र में मज़दूरों की दशा बेहतर होगी, यह तो मेहनतकशों के बारे में दूसरों पर जो ज़िम्मेदारियां हैं उनकी बात है।
ख़ुद लेबर कम्युनिटी की भी ज़िम्मेदारियां हैं। इस्लाम में यही होता है, जिसका भी आप पर हक़ होता है, उसके ऊपर आप का भी हक़ होता है, अधिकार एक दूसरे पर होता है। आप पर अगर किसी का हक़ है तो उसके लिए यह ज़रूरी है कि आप का भी उस पर हक़ हो, अगर आप का किसी पर हक़ है तो उसका भी आप पर हक़ होगा। यह अधिकार एक दूसरे पर होते हैं। मेहनतकश की एक ज़िम्मेदारी यह है कि वह काम के महत्व को समझे। मैं गंभीरता के साथ लेबर कम्युनिटी से यह सिफ़ारिश करूंगा कि आप लेबर हैं, काम कर रहे हैं, तो यह जान लें कि क़ीमती काम कर रहे हैं। बात सिर्फ़ यही नहीं है कि “हम मेहनत करते हैं और हलाल रोज़ी अपने घर ले जाते हैं” यह भी है, लेकिन सिर्फ़ यही बात नहीं है। आप काम करते हैं तो इसका मतलब यह है कि आप मुल्क को आबाद कर रहे हैं। आप का काम मुल्क में तरक़्क़ी की वजह बन रहा है। मुल्क जब तरक़्क़ी करेगा तो इज़्ज़त व गर्व होगा, मुल्क ताक़तवर बनेगा। मैंने वह रवायत सुनायी है कि अगर काम होगा तो काम से मुल्क की ताक़त बढ़ेगी। इस बुनियाद पर आप के काम के दो पहलु हैं, एक व्यक्तिगत पहलु और दूसरे आम सामाजिक पहलु, तो यह बहुत बड़ी बात है। आप ख़ुद अपने काम का महत्व समझें।
दूसरी बात यह है कि आप काम को अमानत समझें, यह ज़िम्मेदारी आप को दी गयी है, तो यह अमानत है आप के पास। तीसरी बात यह कि काम को अच्छे से करें, ठोस तौर पर करें, बस नाम का काम न करें, यक़ीनी तौर पर मैंने पहले भी इस मामले पर बहुत बातें की हैं, मिसालें भी दी हैं, इस लिए मैं अब फिर वही सब दोहराना नहीं चाहता। (13) काम की जगह में अनुशासन और काम के प्रति ज़िम्मेदारी का एहसास यह सब लेबर की ज़िम्मेदारियां हैं।
यह जो हम कहते हैं कि “काम के महत्व को समझें” तो यह सिर्फ़ लेबर कम्युनिटी के लिए नहीं है बल्कि पूरे समाज को काम के महत्व की समझ होनी चाहिए। इसके दो फ़ायदे हैं, एक तो यह फ़ायदा है कि समाज लेबर को एक महत्वपूर्ण सदस्य समझेगा। जब समाज काम को महत्व देगा, तो काम करने वाले लेबर को, जो भी हो, गाड़ी पर काम करने वाला हो, या ज़मीन पर काम करने वाला हो, बिल्डिंग में काम करने वाला हो कि आम तौर पर उसे ही “मज़दूर” कहा जाता है, उन सब को समाज अपना एक महत्वपूर्ण सदस्य समझेगा। दूसरी बात यह कि ख़ुद उस इंसान में भी काम से दिलचस्पी पैदा होगी। हमारे मुल्क में ऐसे जवान हैं जो अफ़सोस कि जवान तो हैं लेकिन काम का उनका मन ही नहीं चाहता, काम की तलाश भी नहीं करते, न किसी काम की ट्रेनिंग लेते हैं, न ही काम की खोज में रहते हैं। दूसरी तरफ़ कुछ ऐसे भी हैं जो काम की तलाश में तो होते हैं लेकिन वह बस मेज़ कुर्सी पर बैठ कर किये जाने वाले काम को ही काम समझते हैं, वही उन्हें चाहिए होता है, जबकि मेज़ कुर्सी पर बैठ कर किया जाने वाला काम कभी कभी तो काम ही नहीं होता बल्कि निठल्ला पन होता है, और जहाँ काम भी होता है मेज़ कुर्सी पर तो वह काम सिर्फ़ वहीं नहीं होता। इस बुनियाद पर नौजवानों को मुल्क में पैदावार की प्रक्रिया में रोल अदा करना चाहिए, यह उसी वक़्त होगा जब उनकी समझ में यह आएगा कि काम महत्वपूर्ण होता है।
एक और बात पैदावार में जनता की भागीदारी की है। जी हमने कहा कि “जनता की भागीदारी से उत्पादन में छलांग” तो यह “जनता की भागीदारी” कैसे होगी? यह एक सवाल है। अब मिसाल के तौर पर कोई उत्पादन में छलांग के काम में भाग लेना चाहता है, जो वह कैसे भाग ले? उसे कौन सिखाएगा? मेरा यह कहना है। अधिकारियों की एक अहम ज़िम्मेदारी यह है कि वे बैठें और यह बताएं कि उत्पादन में जनता की भागीदारी की तैयारी कैसे होती है और वह किस तरह से इसमें भाग ले सकते हैं, और उन्हें इसका माहौल बनाना चाहिए। अब मिसाल के तौर पर एक राह सहकारी संघ है, उत्पादन के लिए सहकारी कपंनियां बनाना, एक मिसाल, घरेलू उत्पादन में मदद है, एक मिसाल हैंडीक्राफ़्ट में मदद करना है, एक मिसाल नॉलेज बेस्ड कंपनियां बनाने में मदद करना है। यक़ीनी तौर पर सरकार अर्थ शास्त्रियों से जो सरकार में भी हैं और सरकार से बाहर भी हैं ख़ुदा के शुक्र से, मदद ले सकती है, यह लोग दूसरे बहुत से रास्ते दिखा सकते हैं कि जिन के ज़रिए जनता की भागीदारी हो सकती है। उद्योग, घरेलू उत्पादन, हैंडीक्राफ़्ट, कृषि, पशुपालन, इन सब मैदानों में जनता भागीदारी कर सकती है, इसका रास्ता जनता को दिखाया जाना चाहिए, जनता की भागीदारी का माहौल बनाया जाना चाहिए, जनता की भागीदारी की प्रक्रिया आसान बनायी जाए।
वैसे एक और बात भी है जो सरकार की ज़िम्मेदारी है और वह यह है कि बैंक की पुंजी भी उत्पादन की तरफ जाए कि आजकल यह नहीं हो रहा है। बैंक की सुविधाएं और लोन आदि को ज़्यादा से ज़्यादा उत्पादन में लगाया जाना चाहिए, बैंक के ज़िम्मेदारों को इस पर ध्यान देना चाहिए।
आख़िरी बात प्रतिबंधों के बारे में है। ज़ाहिर सी बात है कि हम जब आर्थिक मामलों पर चर्चा करते हैं तो प्रतिबंधों की अनदेखी नहीं कर सकते। हमें बरसों से कड़े प्रतिबंधों का सामना है, वह प्रतिबंध जिनके बारे में ख़ुद प्रतिबंध लगाने वाले यानी ज़्यादातर अमरीकी और उन्ही की देखा देखी कुछ युरोपिय, ख़ुद उन्होंने कहा है कि ईरान पर जो प्रतिबंध लगाए गये हैं उसकी तारीख़ में मिसाल नहीं मिलती! ख़ुद उन लोगों ने कहा है। जी तो सब से पहली बात यह कि इन प्रतिबंधों का मक़सद क्या है? वह कुछ मक़सद की बात करते हैं, लेकिन वह झूठ बोलते हैं, वह सब उनका मक़सद नहीं है। वह परमाणु ऊर्जा की बात करते हैं, परमाणु हथियारों का मुद्दा उठाते हैं, मानवाधिकार की बात करते हैं, लेकिन अस्ल बात यह सब नहीं है। वह कहते हैं कि हम ईरान पर प्रतिबंध लगाते हैं क्योंकि वह आतंकवाद का समर्थन करता है! “आतंकवाद” क्या है उनके हिसाब से? ग़ज़्ज़ा की जनता! ग़ज़्ज़ा की जनता उनकी नज़र में आतंकवादी है! एक दुष्ट, जाली, बेरहम और चोर शासन, 6 महीनों के अदंर लगभग 40 हज़ार लोगों की हत्या करता है जिनमें कई हज़ार बच्चे हैं, लेकिन वह आतंकवादी नहीं है, और वे लोग, जिन पर यह शासन बमबारी कर रहा है आतंकवादी हैं! तो देख लीजिए यह सब बहाने जो हैं सब झूठे हैं, प्रतिबंधों का मक़सद यह सब चीज़ें नहीं हैं।
प्रतिबंधों का मक़सद, ईरान पर दबाव डालना है। वह यह चाहते हैं कि प्रतिबंधों में इस्लामी जम्हूरिया ईरान सख़्ती में रहे, तो इससे क्या होगा? ताकि उनकी साम्राज्यवादी और वर्चस्ववादी नीतियों का पाबंद रहे, उनकी धौंस में आकर उनकी बातें माने और उनकी इच्छाएं पूरी करता रहे, अपनी नीतियां उनके हिसाब से बनाए, मक़सद यह है। अब कुछ शुभचिंतक, इन्शाअल्लाह उनकी नीयत अच्छी होगी, हमेशा समझाते रहते हैं कि “जनाब! अमरीका से अमुक मामले में समझौता कर लीजिए अब वह कुछ कहें तो सुन लीजिए” लेकिन बात यह है कि उनकी अपेक्षाएं तो कम नहीं होतीं, अमरीका की मांगें कभी ख़त्म नहीं होतीं। कुछ बरस पहले की बात है, इसी इमामबाडे में, परमाणु मुद्दे पर बात हो रही थी, मैंने आम सभा में(14) कहा कि अमरीकी यह तय कर दें कि परमाणु मामले में हम कितना पीछे हटें कि जिससे वे संतुष्ट हो जाएंगे, लेकिन वो इस पर तैयार नहीं हैं। ज़ाहिर है क्यों तैयार होंगे। क़दम ब क़दम आगे बढ़ते हैं, और फिर हालत वह हो जाती है जो उत्तरी अफ़्रीक़ा के एक देश की हुई (15) यानी हम अपने सभी परमाणु उपकरणों और संसाधनों को हटा दें। मुल्क को परमाणु ऊर्जा की ज़रूरत है, ताकि बीमारों का इलाज हो सके, जो परमाणु क्षेत्र में तरक़्क़ी के बाद ही हो सकता है, इसी तरह मुल्क में सैंकड़ों ज़रूरी काम इस परमाणु ऊर्जा से होते हैं, इन सब को बंद कर दिया जाए! उन्हें यह चाहिए। राजनीतिक मामलों में, आर्थिक मामलों में, देश की जनरल पॉलीसियों में वो चाहते हैं कि पूरी तरह से उनकी ही बात मानी जाए। उनका कहना है कि हमारे सामने हाथ बांधें खड़े रहिए, वही दशा जो आजकल कुछ सरकारों की है और आप लोग देख रहे हैं और आप सब को पता है, इन सरकारों की दौलत पर उनका क़ब्ज़ा है, इनकी इज़्ज़त भी उन्ही के हाथों में है, वो लोग यही चाहते हैं। अब ज़ाहिर है इस्लामी जम्हूरी सिस्टम, इस्लामी स्वाभिमान, ईरानी की महान क़ौम, इस्लामी अतीत के साथ, यह हो ही नहीं सकता कि इस तरह की ग़ुंडागर्दी के सामने सिर झुका दे। प्रतिबंधों का मामला यह है। हाँ! प्रतिबंधों से देश की अर्थ व्यवस्था को नुक़सान पहुंचता है, इसमें कोई शक नहीं, इसमें कोई संदेह नहीं, यानी हमारे मुल्क की आर्थिक समस्याओं का एक हिस्सा, प्रतिबंधों की वजह से है, इसमें कोई शक नहीं, लेकिन इसके साथ ही एक और बात भी है और वह यह कि यही प्रतिबंध हमारे देश के अंदर आर्थिक विकास का ज़रिया भी बनते हैं, यही प्रतिबंध मुल्क की योग्यताओं के निखरने की वजह भी बनते हैं। आज हम बहुत सी ऐसी चीज़ें जिन्हें हम भारी रक़म देकर विदेशों से और कुछ चीज़ें दुश्मनों से ख़रीदने पर मजबूर थे, मुल्क के अंदर बनाते हैं, क्यों? इस लिए कि हम मजबूर हो गये, उन्होंने हमें बेचने से इन्कार कर दिया, उन्होंने रास्ता बंद कर दिया, तो हम ने ख़ुद पर भरोसा किया, मुल्क के अंदर हमने ख़ुद तरक़्क़ी कर ली। हमारे नौजवान, हमारे साइंटिस्ट उस चीज़ को सस्ते में देश के अंदर ही बनाने में कामयाब हो गये, जिसे विदेशी हमें एहसान जता कर और मोटी रक़म के बदले बेचते थे। एक ज़िंदा क़ौम इस तरह की होती है, एक ज़िंदा क़ौम, दुश्मन की दुश्मनी में भी अपने लिए अवसर तलाश कर लेती है।
हम अपने नौजवानों को, अपने देश के अधिकारियों को, अपने स्वाभिमानी मर्दों और औरतों को हमेशा यह सिफ़ारिश करते हैं कि दुश्मनों की दुश्मनी से अपने लिए अवसर बनाएं। उसकी एक मिसाल यही हथियार और हथियार बनाने में हमारी तरक़्क़ी है, दुश्मन हैरत में पड़ गये कि ईरान ने किस तरह प्रतिबंधों के दौरान इतने माडर्न हथियार वह भी इतनी संख्या में बनाने में सफल हो गया! जी हाँ, बना सकता है, इससे ज़्यादा भी बना सकता है, इससे बेहतर हथियार भी बना सकता है, इन्शाअल्लाह इससे ज़्यादा आधुनिक हथियार भी बना सकता है। सिर्फ़ हथियार ही नहीं, हथियारों ने तो एक जगह अपनी ताक़त दिखा दी। (16) दूसरे बहुत से मैदानों में भी यही स्थिति है, हम आज मेडिकल, हेल्थकेयर के क्षेत्र में सारी परेशानियों व समस्याओं के बावजूद, सभी प्रतिबंधों के बावजूद दुनिया के विकसित देशों में शामिल हैं। मेडिकल के मैदान में तो शायद हमारे इलाक़े में कोई हमारे बराबर भी न हो, मेडिकल के मैदान में भी हम दुनिया के गिने चुने देशों में शामिल हैं। उद्योग में भी यही हाल है। इंजीनियरिंग में भी यही है। यक़ीनी तौर पर बहुत से मैदानों में हम पीछे हैं, लेकिर अगर संकल्प करें तो हर मैदान में हम तरक़्क़ी करेंगे।
दुश्मन आतंकवाद और इस तरह के बहानों से हम पर प्रतिबंध लगाता है, अब धीरे धीरे इन प्रतिबंधों का असर भी कम हो रहा है, बरसों तक प्रतिबंध लगाये लेकिन अब देख लिया कि कुछ फ़ायदा नहीं। भरोसेमंद अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं का कहना है कि इस साल ईरान की जीडीपी पिछले साल से ज़्यादा है, जी तो क्यों ज़्यादा है? क्योंकि ज़्यादा काम किया जा रहा है, क्योंकि अच्छी तरह से काम किया जा रहा है, क्योंकि प्रतिबंधों ने उन्हें पछाड़ नहीं दिया, क्योंकि हमने मुल्क से बाहर की मदद और सरहद पार से मदद से आस ही नहीं लगायी। इस सिलसिले को मज़बूत किया जाना चाहिए, इस जज़्बे को मुल्क में बढ़ाना चाहिए।
वो लोग जो कहते हैं कि “जनाब आप आतंकवाद के समर्थक हैं” तो इसे अहमियत न दें। रेजिस्टेंस फ्रंट को आतंकवाद कहते हैं! कहते हैं कि आप फ़िलिस्तीन का क्यों समर्थन करते हैं। अब आज पूरी दुनिया फ़िलिस्तीन का समर्थन कर रही है, युरोपीय देशों की सड़कों पर, वाशिंग्टन व न्यूयार्क की सड़कों पर, जनता निकल पड़ती है और फ़िलिस्तीन का समर्थन करती है और फ़िलिस्तीन के समर्थन में नारे लगाती है, यह सिर्फ़ हम ही तो नहीं कर रहे हैं। कहते हैं कि आप लेबनान के हिज़्बुल्लाह का क्यों समर्थन करते हैं। टीवी पर दिखाया गया कि अमरीका के एक शहर की सड़क पर हिज़्बुल्लाह का झंडा हाथों में उठाया गया है, दुनिया उनका समर्थन कर रही है, यह रेज़िस्टेंस है, स्वाभिमान है, यह लोग अत्याचार के ख़िलाफ़ हैं। फ़िलिस्तीनी अपने घर की हिफ़ाज़त कर रहा है, वह घर जो हड़प लिया गया है, वह घर जो ज़बरदस्ती उससे छीन लिया गया है। ज़ायोनी सेटलर्ज़, ज़ायोनी शासन की दुष्ट पुलिस के साथ आते हैं किसी फ़िलिस्तीनी के बाग़ में, उसके खेत में, घर पर और बुल्डोज़र से सब कुछ ख़त्म कर दिया जाता है ताकि इन सेटलर्ज़ के लिए कॉलोनी बनायी जाए। जबकि फ़िलिस्तीनी अपने घर की हिफ़ाज़त कर रहा है, लेकिन वह आतंकवादी है! आतंकवादी वह है जो इन पर बमबारी कर रहा है, इन्होंने जो इस त्रास्दी को जन्म दिया है, यक़ीनी तौर पर उससे उनके हाथ कुछ नहीं लगा है और न ही लगने वाला है।
बहरहाल हमारी क़ौम को मालूम रहे, और मालूम है हमारी क़ौम को, कि ईरानी क़ौम से इनकी दुश्मनी, उन बातों के लिए नहीं है जो यह कहते हैं और जो यह झूठ बोलते हैं, बल्कि दुश्मनी इस लिए है क्योंकि ईरान एक स्वाधीन देश है, उनकी धौंस में नहीं आता, उनकी गुंडागर्दी से डरता नहीं, इनकी-उनकी नीतियों की पैरवी करने पर तैयार नहीं है, वह भी नाकाम नीतियां। आज तो दुनिया की बड़ी ताक़त कही जाने वाली सरकारें भी यह मानती हैं कि वे बिखर रही हैं। मैंने एक अमरीकी पत्रिका में एक ख़बर देखी, यही दो तीन दिन पहले की ही है, उस ख़बर में बताया गया था कि अमरीका ने 200 बरसों में जो भरोसा कमाया था, वह 20 बरस में गंवा देगा और गवां चुका है। यह ख़ुद वो लोग कह रहे हें, अमरीका की भरोसेमंद मैगज़ीन लिख रही है यह बात, हम थोड़ी कह रहे हैं। अब इस तरह की पिछड़ी, नाकाम, अमानवीय और सभी इन्सानी व इलाही मूल्यों के ख़िलाफ नीतियां बनाने वालों की इच्छा यह है ईरान जैसी एक महान क़ौम, जिसका पुरानी अतीत और सभ्यता का इतिहास है, इन नीतियों की पैरवी करे! ज़ाहिर सी बात है यह हो ही नहीं सकता।
ईरानी क़ौम डटी हुई है और मज़बूत है। हमें यह मज़बूती व्यवहारिक रूप से दिखानी चाहिए, काम में यह मज़बूती दिखायी देनी चाहिए, पढ़ाई लिखाई में यह मज़बूती नज़र आनी चाहिए, रिसर्च में हमें इस मज़बूती का प्रदर्शन करना चाहिए, राष्ट्रीय एकता में यह मज़बूती दिखानी चाहिए। अगर यह हो गया, तो इन समस्याओं और परेशानियों की कोख से हमारे लिए सुविधाएं निकलेंगी। थोपी गयी परेशानी, वह परेशानी जो दुश्मन हम पर थोप देता है, अपनी कोख में सुविधा व सुख लिए होती है, बस शर्त यह है कि हम काहिली न करें, शर्त यह है कि हम आलस्य न करें। शुक्र है ख़ुदा का कि हमारी क़ौम ज़िंदा है और ज़्यादा ताक़त से ज़िंदा रहने की योग्यता हमारे देश में है। अगर इन्शाअल्लाह हम इसी दिशा में आगे बढ़ते रहे तो अल्लाह की मदद से उज्जवल भविष्य तक पहुंचना संभव है और ईरानी क़ौम इन्शाअल्लाह वहाँ तक पहुंच कर रहेगी।
अल्लाह से दुआ है कि वह आप ईरानी क़ौम को और ईमान से मालामाल मज़दूर बिरादरी की हिफ़ाज़त करे और आप सब को अपने दुश्मनों के मुक़ाबले में कामयाबी दे और हमारे शहीदों की आत्माओं को हम से ख़ुश रखे।
वस्सलाम अलैकुम व रहमतुल्लाहे व बरकातुहू