ईरान के समकालीन इतिहास के रिसर्च स्कॉलर डॉक्टर अली रज़ा ज़ादबर ने वेबसाइट Khamenei.ir को दिए गए इंटरव्यू में, ईरानी क़ौम के कारनामे को एक बड़ी साम्राज्यवादी प्रक्रिया को वजूद में आने से रोकना बताया और साम्राज्यवाद विरोधी एक ताक़तवर सिस्टम के गठन में इस्लामी इंक़ेलाब के रोल की व्याख्या में, इस लड़ाई में ईरानी क़ौम में आत्मविश्वास होने के कारण को बयान किया।

सवालः ईरानी क़ौम का कारनामा क्या था? पहली नज़र में, ईरान-इस्राईल 12 दिवसीय जंग हुयी है। लेकिन ज़्यादा गहरी नज़र रखने वाले कुछ लोगों का मानना है कि यह एक सामान्य मुक़ाबला नहीं था। आपकी नज़र में यह मुक़ाबला किन आयामों से ख़ास अहमियत रखता है?

अली रज़ा ज़ादबरः जो कुछ 12 दिवसीय जंग में हुआ, इसे ईरान-ज़ायोनी शासन के बीच एक आम टकराव के तौर पर नहीं देखा जाना चाहिए। इसी आयाम से अपना विचार पेश करना चाहता हूं। यह लड़ाई, ईरान और इस्राईल के बीच जंग नहीं थी; बल्कि अमरीका की अगुवाई में पश्चिम और ज़ायोनियों की ओर से बनाई गयी करई परतों वाली योजना थी। अगर ईरानी क़ौम की ओर से अंजाम दिए गए कारनामे के बारे में कुछ कहना चाहूं तो यही कहूंगा कि इसे अवैध व जाली शासन के साथ सिर्फ़ एक टकराव के तौर पर न देखें। हक़ीक़त यह है कि अमरीका कई महीने पहले से जबकि बाइडन का राष्ट्रपति काल बाक़ी था और ट्रम्प के हाथ में सत्ता नहीं पहुंची थी, एक आप्रेशन की तैयारी में व्यस्त था और उसने सैनिक अभ्यास भी किया था।

ज़ायोनी शासन, क़ौमों से अकेले मुक़ाबला करने की सलाहियत नहीं रखता। ईरान के भुगोल, आबादी, मूल संरचना, क्षेत्रफल, सभ्यता और इतिहास की नज़र से पायी जाने  वाली ख़ुसूसियतों से उसकी तुलना की जाए तो पता चलता है कि इस्राईल में लंबी मुद्दत की जंग लड़ने की सलाहियत नहीं है। उसकी सैन्य रणनीति आग़ाज़ से ही, ग़ाफ़िल करने और तेज़ी से अंजाम पाने वाली जंगों पर आधारित रही है; ठीक वही चीज़ जो मिस्र, जॉर्डन और सीरिया के साथ जंग में हुआ था। लेकिन ईरान के मुक़ाबले में इस तरह के मॉडल को लागू करने के लिए बुनियादी और अंतर्रष्ट्रीय मदद की ज़रूरत थी कि जो अंजाम पायी कि जिसमें अमरीका और कुछ योरोपीय मुल्कों की ओर से उसे दी गयी आप्रेशनल और ख़ुफ़िया मदद शामिल है।

ईरानी क़ौम का कारनामा सिर्फ़ इस्राईल के मुक़ाबले में डटना नहीं, बल्कि एक बहुत ही जटिल साज़िश से मुक़ाबला था। पश्चिम वालों ने बरसों इस बात की कोशिश की कि मीडिया के ज़रिए विश्व जनमत को तैयार करें और ईरान पर हमले का, परमाणु बम का रास्ता रोकने के नाम पर औचित्य दर्शाएं। व्यवहार में, जो कुछ हमने देखा वह सिर्फ़ परमाणु प्रतिष्ठानों पर सिर्फ़ बमबारी नहीं थी। असैन्य इलाक़े, रेड क्रेसेंट, पुलिस, वेल्फ़ेयर केन्द्र, शहरों के चौराहे निशाना बने और क़रीब हज़ार लोग शहीद हुए जिनमें आम लोगों में बच्चे, नवजात, नौजवान और बूढ़े शामिल हैं। फ़ोर्दो पर जो उनका मुख्य लक्ष्य था, जंग के आख़िरी दिनों में बमबारी हुयी।

सबसे अहम, ज़ायोनी शासन की राष्ट्रपति, संसद सभापति, न्यायपालिका प्रमुख सहित मुल्क की राजनैतिक हस्तियों को ख़त्म करने की कोशिश थी। तो यह जंग सिर्फ़ परमाणु विषय को लेकर नहीं थी। इसका लक्ष्य अस्थिरता पैदा करना, मनोवैज्ञानिक वार करना, अधिकारियों की टार्गेट किलिंग और अंत में राजनैतिक ढांचे को ढाना और मुल्क का बंटवारा करना था। जो कुछ हुआ उसके बारे में शायद यह कहना ग़लत न होगा कि इस जंग की समकालीन इतिहास में बहुत कम मिसाल मिलेगी या यह अभूतपूर्व जंग थी जिसमें सैन्य और साइबर आप्रेशन, मनोवैज्ञानिक युद्ध, ड्रोन, माइक्रो एयर व्हिकिल, इलेक्ट्रॉनिक वारफ़ेयर सब शामिल थे।

अगर यह मॉडल सफल हो जाता तो पश्चिम अपने लक्ष्य यानी ईरान सरकार को गिराने, अशांति फैलाने और बंटवारा करने में कामयाब हो जाता और इस तरह यह दूसरे स्वाधीन राष्ट्रों पर हमले के लिए एक नमूना बन जाता, जैसा कि इसका नमूना लीबिया और सीरिया में हम देख चुके हैं। लेकिन जो हुआ वह यह था कि ईरानी क़ौम दुष्ट व साम्राज्यवादी इरादे के मुक़ाबले में डट गयी। यह दृढ़ता न सिर्फ़ अपनी स्वाधीनता बल्कि बाक़ी क़ौमों की स्वाधीनता की रक्षा के लिए थी। यह काम बहुत बड़ा कारनामा था।

अहम बिन्दु यह है कि पश्चिम और अमरीका के यह दुश्मनी भरे व्यवहार, एक दो दिन का नतीजा नहीं हैं बल्कि अमरीका की ईरान विरोधी कार्वयावही का रिकॉर्ड 47 से ज़्यादा पुराना है; फ़ार्स की खाड़ी में यात्री विमान को गिराने से लेकर थोपी गयी जंग में इराक़ का सपोर्ट और कई लेयर्ज़ वाली पाबंदियां लगाना। इसलिए 12 दिवसीय जंग उसी दुश्मनी भरी नीतियों की एक कड़ी थी, एक नया संयोग नहीं थी।

अगर आज ईरानी क़ौम डट गयी, अगर यह साज़िश नाकाम हो गयी तो यह ईरानी क़ौम की सामाजिक सहनशीलता, राष्ट्रीय एकता और ईरानी अवाम की राजनैतिक सूझबूझ का नतीजा है। इस घटना को सही तौर पर ब्यान करना अपना फ़रीज़ा समझता हूं और इसे ईरान और इस्राईल के बीच परमाणु संकट जैसी चीज़ तक छोटा न करें। यह जंग ईरानी क़ौम की दृढ़ता के इतिहास में निर्णायक मोड़ और साम्राज्यवादी साज़िशों की नाकामी का प्रतीक थी।

सवालः आयतुल्लाह ख़ामेनेई ने, ईरानी क़ौम के इरादे और संकल्प को इस मुक़ाबले और इस्राईल तथा अमरीका पर कामयाबी में, बहुत अहम तत्व बताया। आपकी नज़र में इस दौर और इस मुक़ाबले में ईरान के मुसलमान अवाम का इरादा और संकल्प क्यों बहुत अहम है और इस पर किस आयाम से ध्यान देना चाहिए?

अली रज़ा ज़ादबरः क्लासिकल परिभाषा में जंग का मतलब होता है ताक़त के बल पर अपना इरादा थोप देना। इंसानी जिंदगी के आग़ाज़ से ही जंग, इंसान के साए के साथ रही है और इतिहास के हर दौर में विरोधाभासी इरादों के बीच हथियारों से टकराव देखा जाता रहा है। जंग में जो चीज़ निर्णायक है वह हथियार और उपकरण नहीं बल्कि इरादे हैं। वास्तविक जंग, क़ौमों के इरादों के टकराव का मैदान है।

हालिया जंग में जो कुछ हुआ वह सिर्फ़ हथियारों और उपकरणों की जंग नहीं थी बल्कि दो इरादों का टकराव थाः मुश्किल से 77 साल उम्र वाली ज़ायोनी सरकार के नाम की एक अवैध व दुष्ट सरकार के इरादे के मुक़ाबले में ईरानी क़ौम का इरादा। दुश्मन का प्लान यह था कि एक बड़ा हमला करके और मुल्क के आला अधिकारियों को क़त्ल करके लोगों को उठ खड़े होने की दावत दी जाएगी ताकि सीरिया और लीबिया का नाकाम मॉडल, ईरान में लागू कर दिया जाए। सिस्टम के बदलाव के लिए नेतनयाहू और ट्रम्प की दावत और सड़कों पर उपद्रव करने की कॉल, इस साज़िश से पर्दा उठाती है।

उन्होंने यह सोच लिया था कि अवाम, सिस्टम से दूर हो चुके हैं और सिस्टम के कमज़ोर पड़ते ही सड़कें विरोधी भीड़ से भर जाएंगी और आंतरिक दबाव के नतीजे में सिस्टम बिखर जाएगा। इसीलिए मुनाफ़िक़ों जैसे सशस्त्र गुटों से लेकर रज़ा पहलवी जैसे प्रचारिक लोगों तक को इस्तेमाल करके बड़े पैमाने पर मीडिया प्रोपैगंडा किया गया और मनोवैज्ञानिक जंग छेड़ दी गयी लेकिन इस चरण में मीज़ाईल और ड्रोन से नहीं लड़ते, यहाँ ईरानियों की "राष्ट्रीय सूझबूझ" मैदान में आ जाती है।

ईरानी क़ौम ने अंदाज़ों के बरख़िलाफ़ ऐसा रवैया अपनाया कि जिसकी जड़ें उसकी ऐतिहासिक पहचान में फैली हुयी हैं। ईरानी, नई क़ौम नहीं हैं, ऐसी क़ौम नहीं है जो दूसरे विश्व युद्ध के बाद सामने आयी हो बल्कि एक पुरानी सभ्यता, गहरी संस्कृतिक जड़ों और महान इतिहास की स्वामी हैं। यह क़ौम साम्राज्यवाद की साज़िशों से पैदा नहीं हुयी है बल्कि इतिहास में बार बार लड़ी है, जीती भी है और हारी भी है लेकिन हर बार संकट के बाद उसमें एकता ज़्यादा मज़बूत हुयी है।

दुश्मन को अपेक्षा थी कि क्षेत्र के कुछ मुल्कों की तरह लोग फ़रार होने लगेंगे, दुकानों को लूटेंगे या मुल्क छोड़कर भाग जाएंगे लेकिन वायु सीमा बंद होने के बावजूद, पंद्रह ज़मीनी और समुद्री पड़ोसी होने के बाद भी ईरानी अपने मुल्क से नहीं भागे, उन्होंने डर और उपद्रव का प्रदर्शन नहीं किया बल्कि उनका रवैया, राष्ट्रीय परिपक्वता को चिन्हित कर रहा था। यह चीज़, ईरानियों की राष्ट्रीय पहचान में छिपी ताक़त की गवाह है।

अलबत्ता सिर्फ़ राष्ट्रीयता ने इस इरादे को वजूद नहीं दिया है। धर्म ख़ास कर शिया मत, हालिया जंग में ईरानियों की ताक़त का दूसरा बाज़ू था। शहादत, जेहाद, रेज़िस्टेंस और बलिदान के ज़रिए सौभाग्य जैसे धार्मिक मूल्य ने ईरानी क़ौम की बहादुरी और रेज़िस्टेंस को धार दी है। तकफ़ीरी गुटों के ज़रिए जेहाद के अर्थ को बिगाड़ने की पश्चिम की कोशिशों के बावजूद, ईरान में ये मूल्य धर्म की जीवनदायक संस्कृति का अटूट हिस्सा हैं।

मौजूदा दौर में विलायते फ़क़ीह (वरिष्ठ धार्मिक नेतृत्व) के साए में और इस्लामी गणराज्य सिस्टम के तहत क़ौमें और मत पूरी तरह से एकता तक पहुंच चुके हैं। यह एकता इस्लामी गणराज्य की ताक़त का राज़ है। अगर ईरानी, अतीत में इन तत्वों के बावजूद क़ाजारी और पहलवी जैसे कमज़ोर सिस्टमों के साथ शिकस्त खा चुके हैं तो इसकी वजह, सरकार के राजनैतिक इरादे और राष्ट्रीय संकल्प के बीच समन्वय का अभाव था।

इस्लामी गणराज्य ने सन 1979 में इस्लामी इंक़ेलाब के बाद ईरान में क़ौम और सरकार के बीच लगातार बढ़ते जा रहे मनमुटाव को ख़त्म कर दिया और ताक़त पैदा कर दी। बारह दिवसीय जंग की साज़िश करने वाले, इसी ताक़त को ख़त्म करने की कोशिश में थे। इसीलिए उन्होंने बरसों धर्म, राष्ट्रीयता, सरकार और राष्ट्र में टकराव के लिए काम किया था। जंग के संवेदनशील चरण में ईरानी क़ौम ने उनकी उम्मीदों पर पानी फेर दिया। इतिहास, मज़हब और राजनैतिक ढांचे के बीच एकता ने एक अज़ीम सिविल डिफ़ेंस पैदा कर दिया जो किसी भी मिलिट्री डिफ़ेंस से ज़्यादा प्रभावी था। ईरानी क़ौम न सिर्फ़ सैन्य हमले के मुक़ाबले में डट गयी बल्कि उसने दुश्मन की योजनाओं को नाकाम ही बना दिया। इस बात ने दिखा दिया कि ईरानी क़ौम की ताक़त का स्रोत इतिहास, मज़हब और राजनैतिक एकता है और कोई भी ताक़त अपने ग़लत अंदाज़ों के साथ, इस क़ौम को झुका नहीं सकती।

 

सवालः इतिहास में देखा गया है कि अमरीका जैसी साम्राज्यवादी ताक़तें सिर्फ़ अपने बेड़ों को एक जगह से दूसरी जगह पहुंचाकर क्षेत्र की कुछ सरकारों को बदल देती थीं लेकिन ईरान के सिलसिले में ऐसा नहीं हुआ जबकि ख़तरा बहुत ज़्यादा और व्यापक था। इसकी क्या वजह है?

अला रज़ा ज़ादबरः पश्चिमी सभ्यता अपने पूरे इतिहास में हमेशा ताक़त और प्रोडक्शन के एकाधिकार पर टिकी रही है, पुर्तगाल से लेकर स्पेन तक और फ़्रांस से लेकर ब्रिटेन तक, हर एक ने विश्व स्तर पर किसी न किसी तरह से साम्राज्यवादी मुल्क का रोल अदा किया है। उन्नीसवीं सदी में ब्रिटेन का उपनिवेश इतना फैला हुआ था कि उसका सूरज कभी डूबता ही नहीं था। जिन ताक़तों के हाथ में दुनिया का संचालन था, वे न सिर्फ़ चीज़ों के प्रोडक्शन की राह से बल्कि सोच, संस्कृति और जीवन शैली को थोपकर वर्ल्ड ऑर्डर को अपनी मर्ज़ी के मुताबिक़ बदलने में लगी थीं।

इस साम्राज्यवादी सोच में दुनिया, पश्चिम के कुछ उत्पादकों और दुनिया में अनगिनत उपभोक्ताओं के बीच बंटी होती है। पहली और तीसरी दुनिया, उत्तर और दक्षिण, विकासशील और विकसित जैसी ये सारी शब्दावलियां, इसी एकाधिकार का पता देती हैं। इस इकाधिकार का बाक़ी रहना, साम्राज्यवाद के फलने फूलने की राह समतल करता है। साम्राज्यवाद की पहली पीढ़ी, मुल्कों पर ज़मीनी और सैन्य लेहाज़ से क़ब्ज़ा करने पर टिकी थी लेकिन इस पर आने वाले भारी ख़र्च ने पश्चिम को, साम्राज्यवाद के नए स्वरूपों को तलाश करने पर मजबूर किया।

आज हमें साम्राज्यवाद की नई पीढ़ी का सामना है, नया साम्राज्यवाद, सैन्य चढ़ाई करने के बजाए पिट्ठू शासकों को सत्ता में लाता है और सरकारों के राजनैतिक संकल्प को भीतर से ही पैरालाइज़ कर देता है। स्वाधीनता से ख़ाली और पश्चिमी हितों की संरक्षक सरकारें, साम्राज्यवाद के लिए असैन्य हथकंडे के तौर पर काम करती हैं। पहलवी दौर का ईरान, ऐसे हे एक पिट्ठू की मिसाल था जो अपने राजनैतिक मामलों में ब्रिटेन या अमरीका के इरादे के अधीन था।

इसलिए साम्राज्यवाद का एक दूसरा रूप जिस पर पश्चिम वालों ने भारी पूंजिनिवेश किया है, वह सोच और विचार पर क़ब्ज़ा करना है। यानी वे मुल्कों की बड़ी हस्तियों, विद्वानों और असाधारण सलाहियत वाले ज़ेहनों को अपने कंट्रोल में ले लेते हैं, उन्हें अपने हितों के दायरे में ले आते हैं, उन्हें अनेक तरीक़ों, मुख़्तलिफ़ शैलियों से, मुख़्तलिफ़ विचारों की ट्रेनिंग देते हैं और मुल्कों के अकैडेमिक मैदानों को अपने क़ब्ज़े में ले लेते हैं और फिर वे लोग अपनी क़ौमों को पश्चिम का मानसिक व वैचारिक उपनिवेश बना देते हैं।

लेकिन ईरानी क़ौम अपने इतिहास में साम्राज्यवाद के ख़िलाफ़ संघर्ष का एक लंबा अतीत रखती है। गुलिस्तान और तुर्कमनचाय समझौतों से लेकर तंबाकू आंदोलन और तेल के राष्ट्रीयकरण के आंदोलन तक हमेशा ईरान की धार्मिक और राष्ट्रीय हस्तियां इस रेज़िस्टेंस में आगे आगे रही हैं जिसकी हालिया दशकों की मिसाल अमरीका और इस्राईल के ख़िलाफ़ इमाम ख़ुमैनी रहमतुल्लाह अलैह का आंदोलन है जो ईरानियों के हमेशा स्वाधीन रहने को प्रतिबिंबित करता है। ईरान के इस्लामी इंक़ेलाब में आज़ादी और स्वाधीनता का नारा, कोई संयोग की बात नहीं बल्कि साम्राज्यवाद के ख़िलाफ़ ईरानी अवाम की लगातार कोशिश और ऐतिहासिक अनुभवों का नतीजा था। ईरानी क़ौम को सदियों तक जंग, नाउम्मीदी, हीनता और साम्राज्यवाद का सामना करना पड़ा लेकिन उसने हमेशा रेज़िस्टेंस का प्रदर्शन किया और एक ऐसी ताक़त पैदा की जो आज नए साम्राज्यवाद के मुक़ाबले में पूरी बहादुरी और आत्मसम्मान के साथ डट गयी है। यह दृढ़ता, ईरानी क़ौम के ईमान, ऐतिहासिक पहचान और धर्म पर अमल का नतीजा है।

सवालः इस्लामी इंक़ेलाब से पहले इतिहास के ज़्यादातर युगों में, ईरान पर साम्राज्यवाद का रोब नज़र आता है, लेकिन इस्लामी इंक़ेलाब के बाद इस लेहाज़ से एक बुनियादी बदलाव आ गया है। इस सिलसिले में आपका क्या विचार है?

अली रज़ा ज़ादबरः यहाँ पर ईरान के इस्लामी इंक़ेलाब से पहले की स्थिति को थोड़ा अलग तरह से देखना चाहिए। ईरानियों ने रूस के ज़ार शासन के ख़िलाफ़ 12 साल जंग की जो गुलिस्तान और तुर्कमनचाय समझौते पर जाकर रुकी, उसके बाद पेरिस समझौते के नतीजे में हेरात के रूप में ईरान की भूमि का एक भाग हाथ से निकल गया जिसमें ब्रिटेन का मूल रूप से हाथ था, यहाँ तक कि पहले विश्व युद्ध में भी ब्रिटेन का मुख्य रोल था। उसके बाद क़ाजारी दौर में मशहूर क़ाजारी शासक नासेरुद्दीन शाह है जिसका दौर कंसेशन के नाम से मशहूर है, योरोपियों और पश्चिम वालों को अनेक कंसेशन दिए गए। रोयटर्ज़ समझौता, तंबाकू समझौता, लातारी समझौता और दूसरे अनेक समझौते हैं, जिनमें ज़्यादातर समझौते ब्रिटेन और रूस के ज़ार शासन के साथ हुए। शीलात (फ़िशरीज़) समझौता और...फिर 1919 का मुल्क के भविष्य का फ़ैसला करने वाला मुल्क की खदानों, जंगलों, रेलवे लाइन बिछाने वाला समझौता वग़ैरह...। सवाल यह है कि क्या उस वक़्त ईरानी क़ौम बैठी तमाशा देख रही थी? बिल्कुल नहीं। उस दौर में भी ईरानी क़ौम, उसके बुद्धिजीवी, धर्मगुरू, हमदर्द हस्तियों ने एतेराज़ किया था। अभियान भी चलाए। आंदोलन चलाए गए। जैसे तंबाकू आंदोलन, जैसे उत्तरी ईरान में जंगल आंदोलन जिसका नेतृत्व मीरज़ा कूचक ख़ान जंगली ने किया। दक्षिणी ईरान में दिलवारी जैसे लोगों और दूसरी अनेक हस्तियों ने और जैसा कि पिछले वाले सवाल में हमने स्वाधीनता से संबंधित फ़तवे की बात की। साम्राज्यवाद का मुक़ाबला करने के लिए शासकों, धार्मिक हस्तियों और वरिष्ठ धर्मगुरूओं के फ़तवे। लेकिन अस्ल बात क्या है? सन 1979 में वह आंदोलन सफल हुआ जिसे इमाम ख़ुमैनी ने 15 साल पहले शुरू किया था। आप पाएंगे कि ईरानी खड़े तमाशा नहीं देख रहे थे। संघर्ष किया लेकिन इमाम ख़ुमैनी स्वाधीनता के आंदोलन को सफलता तक पहुंचाने में कामयाब हुए।

दूसरों ने कोशिश की, उतार चढ़ाव आए, अल्पावधि की कामयाबियां मिलीं, लेकिन जो काम इमाम ख़ुमैनी ने किया उसमें दो अंतर है। एक यह कि उसे कामयाबी तक पहुंचाया, अंतिम कामयाबी तक पहुंचा सके, अलबत्ता उन्होंने पूर्ववर्तियों के अनुभव से फ़ायदा उठाया लेकिन अंतर यहां हैः इमाम ख़ुमैनी एक राजनैतिक व्यवस्था क़ायम करने में सफल हुए। ऐसी राजनैतिक व्यवस्था जिसका केन्द्र बिंदु इस्लाम था और इमाम ख़ुमैनी का मानना था कि चूंकि इस्लाम साम्राज्यवाद के मुक़ाबले में डट जाता है, इस्लामी धर्मशास्त्र में, शियों के धर्मशास्त्र, शियों के उसूलों, शियों की फ़िक़्ह में, साम्राज्यवाद, विदेशियों और हमले का मुक़ाबला करना और उसके ख़िलाफ़ डट जाना, फ़िक़ह के उसूल में से है। अंतर सिर्फ़ यह है कि इमाम ख़ुमैनी का विचार सिर्फ़ एतेराज़ की हद तक नहीं था।

इमाम ख़ुमैनी का विचार यह था कि इस्लाम का राजनैतिक सिस्टम क़ायम हो और हमेशा कि लिए स्वाधीनता हासिल की जाए और ताक़त पैदा की जाए। ऐसा नहीं था कि इमाम ख़ुमैनी का यह विचार था कि जब भी पश्चिमी आएं और हमारे मुल्क में कुछ गड़बड़ करें, हम पर कोई समझौता थोपें तो हम उसका विरोध करें, कोई फ़तवा देदें उस समझौते को ख़त्म करने के लिए, उसके बाद फिर वही घटना दोबारा हो। नहीं फ़र्क़ यहाँ पर है। यहाँ इस्लामी इंक़ेलाब के ज़रिए, अवाम पर आधारित एक राजनैतिक सिस्टम क़ायम हुआ।

ईरान के इतिहास में, अवाम का क़ौम की हैसियस से सरकार की स्थापना में कोई रोल नहीं था। ईरान के इतिहास में शासन, क़बायली थे। क़ाजार एक क़बीला था। ख़ुद क़ाजार क़बीला सफ़वियों की सेवा करता था। सफ़वी उस वक़्त कामयाब हुए जब वे कुछ क़बीलों को एकजुट करने में सफल हुए और बाक़ी क़बीलों के शिकस्त दी और इस तरह शासन श्रंख्ला क़ायम हुयी। ईरान के इतिहास में सरकारें, लोगों की राय या लोगों की भागीदारी से क़ायम नहीं होती थीं। अलबत्ता हमारे आस पास के मुल्कों और क़ौमों की भी हालत ऐसी ही थी। शासन की पारंपरिक संरचना ऐसी ही थी। लेकिन इस्लामी इंक़ेलाब के ज़रिए इमाम ख़ुमैनी लोगों को क्रांति लाने, राजनैतिक सिस्टम क़ायम करने और इस सिस्टम को बाक़ी रखने के लिए भागीदार बनाया। सबसे पहले चुनाव कराया। यहाँ तक कि ख़ुद इंक़ेलाब को रेफ़्रेंडम से गुज़ारा। राष्ट्रपति, सांसद, ख़ुद वरिष्ठ नेता लोगों की राय से चुने गए इसलिए इस्लामी इंक़ेलाब जो मूल अंतर लाया वह यह था कि इमाम ख़ुमैनी सिर्फ़ इस बात के क़ायल नहीं थे कि ज़रूरत पड़ने पर एतेराज़ करें और फिर अपनी मस्जिद की संभाले, अपने मदरसे में बैठें। नहीं वे आए और उन्होंने राजनैतिक व्यवस्था क़ायम की।

सवालः ईरानी क़ौम ने इस्लामी इंक़ेलाब के बाद, "साम्राज्य विरोधी साहस" का काफ़ी प्रदर्शन किया है। क्या यह बात कही जा सकती है कि साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद के लिए, क़ौमों की सांस्कृतिक लेहाज़ से साम्राज्य विरोधी तरक़्क़ी से ज़्यादा उनका साम्राज्य विरोधी साहस, ख़तरनाक है? अगर हाँ तो इसकी क्या वजह है?

अली रज़ा ज़ादबरः रज़ा ख़ान ब्रिटेन और अमरीका के सीधे हस्तक्षेप से सत्ता में आया था। उसके बाद सन 1953 में मुसद्दिक़ की सरकार के ख़िलाफ़ अमरीका को सपोर्ट से होने वाले विद्रोह ने सत्ता में मोहम्मद रज़ा पहलवी की स्थिति मज़बूत कर दी। यह ईरान में साम्राज्यवाद और तानाशाही के बीच रिश्तों का स्पष्ट नमूना है। पश्चिम ने ईरानियों की स्वाधीनता छीनने की कोशिश की और पहलवी तानाशाही ने लोगों की आज़ादी को सीमित कर दिया।

ईरान अपनी भूराजनैतिक स्थिति की वजह से हमेशा वैश्विक ताक़तों के हितों के केन्द्र में रहा है। अतीत में जब वह सिल्क रोड पर स्थित था, तबसे लेकर जब उसके पास तेल और गैस के विशाल भंडार हैं। यही रणनैतिक अहमियत इस बात का सबब बनी कि निक्सन के डॉक्ट्राइन में पहलवी सरकार क्षेत्रीय थानेदार का रोल अदा करे कि जो क्षेत्र में अमरीका की जगह हुक्म चलाती थी लेकिन वॉशिंग्टन के हितों को पूरा करती थी। इंक़ेलाब से पहले ईरान पूरी तरह से पश्चिम के हितों के मद्देनज़र काम कर रहा था, कैप्चुलेशन क़ानून की मंज़ूरी से लेकर जो ईरान में अमरीकियों को न्यायिक कार्यवाही से सुरक्षा प्रदान करता था, अरबों की ओर से पाबंदी के हालात में इस्राईल को तेल की आपूर्ति तक। इसी तरह ओमान में सुल्तान क़ाबूस को सैन्य सपोर्ट, कम से कम वक़्त में फ़ाइटर जेट वियतनान भेजना और अमरीका के जंगी उपकरणों व साज़ो सामान का सबसे बड़ा ख़रीदार बनना, यह भी तत्कालीन ईरान की ओर से पश्चिमी हितों की रक्षा की कुछ मिसालें हैं। पहलवी सैन्य ढांचे, ट्रेनिंग और सैन्य उपकरण के लेहाज़ से पूरी तरह से अमरीकी थे और ईरान, क्षेत्र में अमरीकी हथियारों के एक अड्डे में बदल चुका था।

ऐसे हालात में इस्लामी इंक़ेलाब ने न सिर्फ़ राजनैतिक ढांचे को बदल दिया बल्कि ईरानी क़ौम में साम्राज्य विरोधी साहत और संकल्प को भी नुमायां कर दिया, दूसरों पर निर्भरता से आज़ाद हो गया और उसने ऐसा मॉडल बनाया जो एक ओर तो साम्राज्यवाद का विरोध करने पर बल देता था और दूसरी ओर साम्राज्यवाद के ख़िलाफ़ निरंतर प्रतिरोध के प्रतीक में भी बदल गया। ईरान और साम्राज्यवाद विरोधी दूसरे मुल्कों में यह फ़र्क़ है कि ईरान ने न सिर्फ़ यह कि आंदोलन किया बल्कि वह पश्चिमी प्रभुत्व वाले वर्ल्ड ऑर्डर में भी शामिल नहीं हुआ और यह मॉडल पिछले 47 बरसों से जारी है।

एशिया, अफ़्रीक़ा और दक्षिणी अमरीका में बहुत सारी क़ौमों ने ब्रितानी, फ़्रांसीसी और अमरीकी साम्राज्यवाद के ख़िलाफ़ आंदोलन किया है लेकिन उनमें से ज़्यादातर कुछ ही बरसों में पश्चिमी वर्ल्ड ऑर्डर में मिल गए। लेकिन ईरान में रेज़िस्टेंस, एक तरह से जीवन शैली का हिस्सा बन गया और वह भी सामयिक और जज़्बाती रेज़िस्टेंस नहीं बल्कि ठोस, सांस्कृतिक और मज़बूत रेज़िस्टेंस। यह क्रम एक क्षेत्रीय मॉडल का रूप अख़्तियार कर गया जिसका आज़ादी की इच्छुक दूसरी सरकारों पर भी गहरा प्रभाव पड़ा।

ईरानियों ने आंदोनल का साहस दिखाने और साम्राज्यवाद के ख़िलाफ़ क़दम उठाने के साथ ही उसे निरंतर जारी रखा यानी एक मॉडल और आदर्श तैयार कर दिया। 47 बरसों से यह मॉडल क्षेत्र में फल फूल रहा है। इस हालिया जंग का एक मक़सद, इस मॉडल को, रेज़िस्टेंस के मॉडल को ख़त्म करना भी था, वह रेज़िस्टेंस जो अस्थायी नहीं है बल्कि एक उसूल और जीवन शैली है। इन बरसों में ख़ुद ईरान के भीतर भी बहुत से पश्चिम की ओर झुकाव रखने वालों ने कोशिश की कि ईरान भी विश्व साम्राज्यवाद के खेल में शामिल हो जाए लेकिन वरिष्ठ धार्मिक नेतृत्व (वलीए फ़क़ीह) के नेतृत्व ने, जिसकी ज़िम्मेदारी इस्लामी इंक़ेलाब की रक्षा है, कभी भी ऐसा नहीं होने दिया।