इस्लामी इंक़ेलाब के नेता आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई ने, इस्लामी इंक़ेलाब के नेता का चयन करने और उनके क्रियाकलापों पर नज़र रखने वाली विशेषज्ञ असेंबली के सदस्यों से अपने ख़ेताब में इस्लामी गणराज्य और पश्चिम की लिबरल डेमोक्रेसी के बुनियादी फ़र्क़ पर प्रकाश डाला। आपने कुछ अनुशंसाएं भी कीं।(1)
तक़रीरः
बिस्मिल्लाह अर्रहमान अर्रहीम
अरबी ख़ुतबे का अनुवादः सारी तारीफ़ पूरी कायनात के मालिक के लिए, दुरूद व सलाम हो हमारे सरदार व रसूल हज़रत अबुल क़ासिम मुस्तफ़ा मोहम्मद और उनकी सबसे पाक, सबसे पाकीज़ा, चुनी हुयी नस्ल ख़ास तौर पर ज़मीन पर अल्लाह की आख़िरी हुज्जत इमाम महदी अलैहिस्सलाम पर।
आप सभी सम्मानीय लोगों का स्वागत करता हूं और अल्लाह से आप लोगों की कामयाबी में इज़ाफ़े के लिए दुआ करता हूं। याद करना चाहूंगा उन भाइयों और अज़ीज़ों को जो इस सभा का हिस्सा हुआ करते थे और पिछले एक साल में अल्लाह की बारगाह की ओर कूच कर गए। उनमें आख़िरी शख़्स जनाब मरहूम इमामी काशानी रहमतुल्लाह अलैह(2) हैं। अल्लाह इंशाअल्लाह उन्हें और हम सबको अपनी रहमत के साए में जगह दे। जनाब बूशहरी (3) ने हज़रात की जो बातें बयान कीं बहुत अच्छी थीं और उनमें अच्छे बिन्दु थे। यानी हक़ीक़त में वो सारी चीज़ें या ज़्यादातर चीज़ें जो एक मुल्क के लिए, अधिकारियों के लिए इस सभा में हम सबके लिए बयान करना ज़रूरी हैं, कह दी गयीं, बयान कर दी गयीं। अल्लाह हमें और अधिकारियों को मौक़ा दे कि इन सिफ़ारिशों पर इंशाअल्लाह अमल कर सकें।
एक बात शाबान महीने के इन बचे हुए दिनों के बारे में अर्ज़ कर दूं। शाबान का महीना बशारतों का महीना है, ख़ुशियों का महीना है, दिलों को इस्तेग़फ़ार के ज़रिए, दुआ के ज़रिए, मुनाजात के ज़रिए चमकाने का महीना है। रमज़ान मुबारक की असीम बरकतों में दाख़िल होने की तैयारी का महीना है। इस महीने में अल्लाह से इंसान जिस चीज़ की मांग करता है, वो बहुत ख़ास क़िस्म की चीज़ हैः "ऐ माबूद! अपनी बारगाह की ओर पूरी तवज्जो अता फ़रमा",(4) "ऐ अल्लाह! मुझे ऐसा दिल दे जिसका शौक़ उसे तुझसे क़रीब करे, ऐसी ज़बान दे जिसकी सच्चाई उसे तेरी ओर बुलंदियों का सफ़र करवाए।" (5) ये इल्तेजाएं पूरी तरह पाक हैं, मुकम्मल लुत्फ़ हैं, पूरी तरह अध्यात्म हैं। इस महीने का ज़्यादातर हिस्सा गुज़र चुका है। हमें अर्ज़ करना चाहिएः "ऐ अल्लाह! अगर तूने शाबान महीने के गुज़रे हुए हिस्से में हमें नहीं माफ़ किया है तो इस बचे हुए हिस्से में माफ़ कर दे।"(6) इंशाअल्लाह। अल्लाह मदद करे कि इन बाक़ी बचे हुए कुछ दिनों से हम फ़ायदा हासिल कर सकें, शायद अल्लाह हम पर कोई मेहरबानी कर दे।
इस साल बहमन का महीना और इस्फ़ंद का महीना (ईरानी कैलेंडर का ग्यारहवां और बारहवां महीना) इस्लामी गणराज्य की निशानियों के दूसरे बरसों की तुलना में ज़्यादा ज़ाहिर होने का महीना था। "दहे फ़ज्र" (इस्लामी इंक़ेलाब की सालगिरह के मौक़े के 10 दिन) और 11 फ़रवरी (इस्लामी इंक़ेलाब की कामयाबी का दिन) की उत्साह से भरी रैलियों से लेकर, इस्फ़ंद महीने में होने वाले चुनावों तक और विशेषज्ञ असेंबली के गठन तक ये सब निशानियां और चिन्ह हैं जो इस्लामी गणराज्य और धार्मिक लोकतंत्र से संबंध रखते हैं। इसलिए मैं इस्लामी गणराज्य के संबंध में कुछ बातें पेश करना चाहता हूं। विशेषज्ञ असेंबली से ख़ेताब करते हुए, विशेषज्ञों के लिए एक बात अर्ज़ करना चाहूंगा और कुछ बातें मजलिसे शूराए इस्लामी (ईरानी संसद) के बारे में बयान करुंगा। ये हमारे आज के विषयों की लिस्ट है।
इस्लामी गणराज्य का विषय, आप जानते हैं कि इस्लामी गणराज्य ने वजूद में आकर विश्व स्तर पर अपना असर डाला। एक भूंचाल सा आ गया, यह एक अंतर्राष्ट्रीय स्तर का वाक़ेया था। ये सिर्फ़ एक क्षेत्र और एक मूल्क तक सीमित रहने वाला वाक़ेया नहीं था। इमाम ख़ुमैनी रहमतुल्लाह अलैह के नेतृत्व और पूरे मुल्क में ईरानी राष्ट्र के साहस, बहादुरी और क़ुर्बानियों से ऐसे वाक़ए हुए जिससे दुनिया में दो मोर्चे वजूद में आ गए। एक मोर्चा लिबरल डेमोक्रेसी की शैली पर चलने वाले गणराज्यों का मोर्चा, मैं इसे मत का नाम नहीं देना चाहता, एक मोर्चा ये, दूसरा मोर्चा धर्म व इस्लाम से जुड़े लोकतांत्रिक मोर्चे का, बल्कि धर्म व इस्लाम से निकला हुआ। ये दो मोर्चे वजूद में आ गए, जबकि इस्लामी गणराज्य के गठन से पहले, दो मोर्चों की हालत ये नहीं थी। ज़ाहिर सी बात है कि इस मोर्चेबंदी के नतीजे में दोनों पक्षों को कुछ नतीजे मिले। इन दोनों मोर्चों के बीच असहमति स्वाभाविक थी। ये असहमति पहले ही दिन से शुरू हो गयी।
ये नहीं सोचना चाहिए कि ये असहमति सिर्फ़ धार्मिक आदेशों के पालन की वजह से है कि एक पक्ष धार्मिक आदेशों का पाबंद है और दूसरा पक्ष धर्म के मामलों पर कोई ध्यान नहीं देता, किसी तरह की पाबंदी नहीं करता। बात सिर्फ़ इतनी नहीं थी। अलबत्ता ज़ाहिरी तौर पर ये चीज़ थी लेकिन विरोध और असहमति और ज़्यादातर मौक़ों पर टकराव की वजह इससे कहीं बढ़कर है। मामला यह था कि वो प्रचलित पश्चिमी डेमोक्रेसी यह महसूस करने लगी कि ये नया नमूना जो सामने आया है उसके बुनियादी हित और आगे चलकर शायद उसके पूरे वजूद का मुख़ालिफ़ हो और उसे विरुद्ध होगा। उसने ये महसूस किया। बिलकुल शुरू से जब इस्लामी गणराज्य वजूद में आया, सामने वाले पक्ष में थोड़ा बहुत ये एहसास मौजूद था और दिन ब दिन इसमें शिद्दत आती गयी और ये ख़याल मज़बूत होता गया।
ये गंभीर विरोध और टकराव इसलिए है कि लिबरल डेमोक्रेस पर आधारित सिस्टम में और इस तर्क और इस शैली की बुनियाद पर बनने वाली सरकारों और हुकूमतों में, उनके स्वाभाव में "साम्राज्यवाद" पाया जाता है। आक्रामकता और कठोरता पायी जाती है। साम्राज्यवाद उस मानी में जो हम इस्लामी इंक़ेलाब की नज़र से समझते हैं। यानी क़ौमों पर ज़ुल्म, हमला और हिंसा, ये उसके स्वभाव का हिस्सा है। इन सरकारों और हुकूमतों को कमज़ोर क़ौमों और मुल्क़ों के ख़िलाफ़ आक्रामकता और हिंसा में अपनी संपत्ति, अपनी ताक़त और अपनी बेलगाम सत्ता नज़र आयी और महसूस हुयी। इसका सुबूत यह है कि इस धड़े के नारों के चरम के ज़माने में, यानी लोकतंत्र के नारों, आज़ादी के नारों के साथ साथ इस धड़े की ज़्यादातर साम्राज्यवादी सरगर्मियां उसी दौर में अंजाम पायीं। यानी एशिया में मुल्कों को उपनिवेशों में बदलना, अफ़्रीक़ा और लैटिन अमरीका में मुल्कों पर साम्राज्यवादी क़ब्ज़ा इसी उन्नीसवीं शताब्दी में अपने चरम पर पहुंचा जिसका कुछ सिलसिला बीसवीं सदी में भी जारी रहा। यानी ये दोनों चीज़ें एक साथ घटीं। वो नारे भी उन्नीसवीं सदी में बुलंद हुए और ये साम्राज्यवादी सरगर्मियां भी जो ज़ुल्म और क़ौमों के अधिकारों पर हमले करने से जुड़ी हुयी थीं, वो भी उन नारों के साथ उन्नीसवीं सदी में अंजाम दी गयीं।
ज़ाहिर है वहाँ अध्यात्म तो था नहीं, ज़ुल्म, सरकशी और अतिक्रमण की ज़मीन समतल हो गयी। जब किसी गिरोह में अपनी ताक़त का एहसास पैदा हो जाए और वो भारत जैसे मुल्क की दौलत को जो उस ज़माने में धनी भी था, उद्योगों का मालिक भी था और उस दौर की तुलना में विकसित भी माना जाता था, अपनी ताक़त और अपने दबाव के ज़रिए हासिल करने में कामयाब हो जाए, अपने हाथ में ले ले और उसकी दौलत को इस्तेमाल करे, अपनी दौलत, अपनी ताक़त और अपनी क्षमता में इज़ाफ़ा करे तो ऐसा करने से क्यों चूकेगा? जब अध्यात्म नहीं है तो कौन सी चीज़ उसे रोकेगी? वो ऐसा कर सकती थी और उसने ऐसा ही किया। साम्राज्यवाद, एशिया के बड़े हिस्से में, पूर्वी एशिया में, भारत में, भारत के आस-पास के मुल्कों में नज़र आया। ये अफ़्रीक़ा में हुआ, लैटिन अमरीका में हुआ। वैसे उत्तरी अमरीका में भी ये था लेकिन इससे पहले ज़्यादा संघर्ष के ज़रिए, बड़ी लड़ाइयां करके वो ख़ुद के मुक्ति दिला चुके थे वरना साम्राज्यवाद वहाँ भी था। इस मोर्चे की ख़ासियत ही ये है।
इसके मुक़ाबले में जो मोर्चा धार्मिक लोकतंत्र के गठन के बाद वजूद में आया, उसका सबसे अहम मुद्दा इन्हीं मसलों से मुक़ाबला करना है। यानी ज़ुल्म का मुक़ाबला, साम्राज्यवाद का मुक़ाबला, आक्रामकता का मुक़ाबला। ये स्थिति है। यानी उस हुकूमत की अस्ल कार्यशैली जो धर्म की बुनियाद पर और इस्लाम की बुनियाद पर वजूद में आयीः "न तुम ज़ुल्म करोगे और न ही तुम पर ज़ुल्म किया जाएगा"(सूरए बक़रह, आयत-279) (7) है। उसकी कार्यशैली की बुनियाद ही ज़ालिम का मुक़ाबला और ज़ालिम से लड़ना है। "जो लोग ईमान लाए और राहे ख़ुदा में जंग करते हैं" (सूरए निसा, आयत-76)(8) यही वजह है कि ये मुक़ाबला, ये आपस में टकराव ख़ुद बख़ुद पैदा हो गया। ये एक हक़ीक़त है जो सामने आयी। अलबत्ता इसकी तफ़सील काफ़ी ज़्यादा है। यानी इस बारे में बयान करने के लिए बहुत सी बातें हैं जबकि एक बड़ी ख़ासियत यही साम्राज्यवाद है जिसे मैंने अर्ज़ किया।
ताक़त के लिए बेपनाह युद्धोन्माद और रक्तपात इस कथित डेमोक्रेटिक लेकिन अध्यात्म से दूर, धर्म से दूर, धार्मिक बातों से दूरे, धार्मिक व आध्यात्मिक शिक्षाओं से ख़ाली सरकारों की ख़ासियतों में है। ख़ुद योरोप में ऐसे कड़वे वाक़यात बहुत ज़्यादा हुए हैं। लेकिन जब ग़ैर योरोप वालों से मुक़ाबला होता है तो वो सब आपस में एकजुट हो जाते हैं, मगर उन्हें फ़ुरसत का वक़्त मिलता है तो उनमें आपसी मतभेद बहुत सारे हैं, इत्तेफ़ाक़ से इसी 19वीं सदी में योरोप में जो मुश्किलें और वाक़ए हुए, जंगें, क़त्ले आम, एक दूसरे पर हमले, ज़ुल्म से भरी जीत वग़ैरह जैसे वाक़ए, जिनकी तफ़सील बहुत ज़्यादा है, अलबत्ता उनका फ़िलहाल हमारे विषयों से कोई संबंध नहीं है।
तो इस बयान से मैं क्या नतीजा निकालना चाहता हूं? मेरी बात का निचोड़ ये है कि इस्लामी गणराज्य का जिन लोगों से संघर्ष है, वो ज़ुल्म के ख़िलाफ़ संघर्ष है, वो संघर्ष साम्राज्यवाद से है, वो संघर्ष अतिक्रमण से है। ये सवाल न किया जाए कि आप फ़ुलां मुल्क की मुख़ालेफ़त क्यों करते हैं। हुकूमतों से, क़ौमों से और मुल्क़ों से अपने आप में हमारी कोई मुख़ालेफ़त नहीं है। हम ज़ुल्म के ख़िलाफ़ हैं, साम्राज्यवाद के ख़िलाफ़ हैं, अतिक्रमण के ख़िलाफ़ हैं, उन वाक़यों के ख़िलाफ़ हैं जिन्हें आज आप ग़ज़ा में देख रहे हैं। एक राष्ट्र, एक सरज़मीन की मालिक क़ौम, अपने घर में, अपनी सरज़मीन के अंदर इस अंदाज़ से बड़े ज़ुल्म का निशाना बनती है, उनकी औरतें, उनके बच्चे, उनके परिवार वाले, उनके घर, उनका इन्फ़्रास्ट्रक्चर, उनकी संपत्तियां, बहुत ही बेरहमी से बहुत ही निर्दयता से ख़त्म कर दी जाती हैं, मिटा दी जाती हैं और मुल्क खड़े तमाशा देख रहे हैं। सिर्फ़ यह नहीं कि मुख़ालेफ़त नहीं करते, रोकते नहीं बल्कि मदद भी कर रहे हैं। अमरीका मदद कर रहा है, ब्रिटेन सहयोग कर रहा है, कुछ दूसरे योरोपीय मुल्क मदद कर रहे हैं। हमारा ये स्टैंड है, हम इसके ख़िलाफ़ हैं। जो चीज़ इस्लामी गणराज्य को सामने वाले पक्ष के मुक़ाबले में ला खड़ा करती है वो यही चीज़ें हैं जिनकी आलोचना अक़्ल भी, परंपरा भी, शरीअत भी, धर्म भी और इंसान का ज़मीर भी करते हैं। हम इन चीज़ों के मुख़ालिफ़ हैं। इस्लामी गणराज्य इन चीज़ों के ख़िलाफ़ है, मुख़ालेफ़त इन सबसे है। वरना क़ुरआन मजीद ने कुफ़्फ़ार के सिलसिले में भी फ़रमाया हैः "अल्लाह तुम्हे इस बात से मना नहीं करता कि जिन लोगों ने दीन के मामले में तुमसे जंग नहीं की और न ही तुम्हें तुम्हारे घरों से निकाला है कि तुम उनके साथ नेकी करो और उनके साथ इंसाफ़ करो।" (10) इसलिए अगर कोई काफ़िर है जो इस्लाम में लेन देन के लिए तय किए गए नियमों की पाबंदी करता है तो उसके सिलसिले में किसी तरह की कोई मुश्किल नहीं है।
इस्लाम का लश्कर जब ‘शाम्मात’ (पश्चिमी एशिया का इलाक़ा जिसमें मौजूदा सीरिया, जार्डन, फ़िलिस्तीन, लेबनान, साइप्रस के अलावा तुर्की और मिस्र के कुछ हिस्से शामिल थे।) गया और उसने ऐसे इलाक़ों को फ़तह कर लिया जिन पर रोमन साम्राज्य का क़ब्ज़ा था तो उन इलाक़ों में बसे हुए यहूदियों ने मुसलमानों से कहाः आपका स्वागत है! आपके न्याय ने हमें मुक्ति दिला दी। यानी ये स्थिति थी। जब वो कहीं पहुंचते थे तो उनका न्याय और इंसाफ़ पसंदी नज़र आती थी और लोग उसे देखते थे। वो काफ़िर के साथ भी इस तरह पेश आते हैं। अस्ल मुद्दा आक्रामकता, अतिक्रमण, ज़ुल्म और साम्राज्यवाद है। तो ये पहली बात है ताकि स्पष्ट हो कि प्रजातंत्र के नाम के पीछे, मानवाधिकार के नाम के पीछे और लिब्रलिज़्म के नाम के पीछे ख़ुद को छिपाने वाली डेमोक्रेटिक सरकारों से इस्लामी गणराज्य के मुक़ाबले और मोर्चाबंदी, उनके कामों और सरगर्मियों की अस्लियत की वजह से है। उनके काम और व्यवहार की अस्ल हक़ीक़त ज़ुल्म, साम्राज्यवाद वग़ैरह है। तो ये पहला नतीजा है जो मैंने अपनी इस गुफ़्तगू में पेश किया।
दूसरा नतीजा जो हम लेना चाहते हैं ये है कि हम साम्राज्यवाद से मुक़ाबले का ध्वज हमेशा अपने हाथ में उठाए रखें। ख़याल रहे कि इस्लामी गणराज्य किसी भी दौर में ये मौक़ा न दे कि साम्राज्यवाद से मुक़ाबले का परचम उसके हाथ से ले लिया जाए। हमें आगे आगे रहना चाहिए, पेश पेश रहना चाहिए। इस परचम को दिन ब दिन ज़्यादा बड़े पैमाने पर ज़्यादा ऊंचा करना चाहिए।
तीसरा और आख़िरी नतीजा ये है कि हम अपनी आने वाली हर नस्ल के लिए भी इस हक़ीक़त को स्पष्ट करते जाएं। हमारे नौजवानों को मालूम हो, मौजूदा नस्ल के नौजवानों को और भविष्य की नौजवान नस्लों को ये मालूम हो कि इस्लामी गणराज्य की कार्यशैली क्या है। ये प्रतिरोध क्या है। अलबत्ता 4 दशकों से ज़्यादा की इस्लामी गणराज्य की जो उम्र गुज़री है इस दौरान हम इलाक़े में और दुनिया में कामयाब रहे कि इस्लामी गणराज्य के बारे में इस छवि को, इस मोर्चे को और इस रुझान को पूरी इंसानियत के सामने पेश करें, ये हमारी पहली गुज़ारिश थी।
विशेषज्ञ असेंबली के बारे में मेरी गुज़ारिश ये है कि विशेषज्ञ असेंबली के कंधे पर हक़ीक़त में बहुत अहम ज़िम्मेदारी है। ये “इस्लामी इंक़ेलाब के नेता का चयन” और “इस्लामी इंक़ेलाब के नेता में योग्यता मौजूद रहने की निगरानी” बहुत अहम कामों में है। यानी इस्लामी गणराज्य के भीतर ईरानी समाज के संचालन के सिलसिले में ये शायद सबसे बड़ा काम है। विशेषज्ञ असेंबली चुनने और चयन करने में इस बात का ख़याल रखे कि इस्लामी गणराज्य के स्थायी उसूलों को नज़रअंदाज़ न किया जाए। ये बहुत अहम है। यानी इस्लामी इंक़ेलाब के नेता का चयन, स्थायी उसूलों को मद्देनज़र रखते हुए किया जाए। इस्लामी गणराज्य में वो उसूल मंज़ूरशुदा और स्थायी उसूलों का हिस्सा हैं। हमारे यहाँ दो तरह के हुक्म होते हैं। स्थायी हुक्म और बदलने वाले हुक्म। इस्लाम में भी सेकेन्ड्री शीर्षक के तहत कुछ हुक्म हैं जो बदल जाते हैं। इस्लामी गणराज्य में भी यही स्थिति है। कुछ हुक्म अलग अलग तक़ाज़ों की बुनियाद पर बदल जाते हैं। ख़ुद संविधान में भी ज़िक्र है। मिसाल के तौर पर धारा-44 में कुछ चीज़ें इस दफ़ा को मद्देनज़र रखते हुए बदल सकती हैं। इस तरह की बहुत सी चीज़ें हैं। कुछ स्थायी उसूल हैं जो नहीं बदलते। संविधान में इस तरह के उसूल तलाश किए जा सकते हैं। इमाम ख़ुमैनी रहमतुल्लाह अलैह के बयानों में ये उसूल तलाश किए जा सकते हैं। इस्लामी शिक्षाओं में भी ऐसे उसूल देखे जा सकते हैं। इनको मद्देनज़र रखना चाहिए। जैसे न्याय क़ायम करना, जैसे करप्शन के ख़िलाफ़ लड़ाई, जैसे समाज में इस्लामी मारेफ़त की सतह को ऊंचा करना और इस्लामी अमल की सतह को बेहतर करना। ये स्थायी उसूल हैं जो बदल नहीं सकते। ये इस नाचीज़ की तरफ़ से चेतावनियां और नसीहतें हैं उनके लिए जो इस दौर में विशेषज्ञ असेंबली में मौजूद हैं और अपने ओहदे का फ़र्ज़ अदा कर रहे हैं।
ईरानी संसद मजलिसे शूराए इस्लामी के बारे में भी कुछ बातें अर्ज़ करता चलूं। हर नई संसद (12) नई उम्मीद और नई अपेक्षाएं साथ लाती है। जब कोई नई संसद गठित होती है तो उसके साथ नई उम्मीदें भी पैदा होती हैं और नए क्षितिज भी पैदा हो सकते हैं। नई संसद में नए प्रतिनिधि आते हैं। उनके साथ पिछले दौर या पिछले कई दौर के भी कुछ सांसद मौजूद होते हैं। ये बहुत अच्छा संगम होता है। बहुत अच्छा समूह होता है। इसमें इनोवेशन भी होता है, इसमें नई पहल भी है और इसमें तजुर्बा भी है। पिछले कामयाब तजुर्बों से फ़ायदा उठाया जाता है और इनोवेशन भी दिखाई देता है। ये बड़ी क़ीमती संपत्ति है।
हर बार नई संसद के गठन से मुल्क को क़ीमती पूंजी हासिल होती है और उसे इस्तेमाल किया जाता है। इसकी क़द्र करनी चाहिए। ये ताज़ा ख़ून की तरह मुल्क के राजनैतिक और सामाजिक ढांचों की नसों में दौड़ता है और इंशाअल्लाह इसका असर होगा। एक मीठी घठना है। अलबत्ता इस मीठी घटना को कड़ुवाहट में भी बदला जा सकता है। दुनिया के सभी मीठे फ़ैक्ट्स की तरह। कुछ चीज़ें होती हैं, कुछ तत्व होते हैं जो उस मिठास को ख़त्म कर सकते हैं। मैंने यहाँ नोट किया है। वो चीज़ें जो नई संसद की मिठास को ख़त्म कर सकती हैं फूट डालने वाली बातें करना, विवाद पैदा करना और दुश्मन को पसंद आने वाले झगड़े हैं। नई संसद की मिठास को इस तरह की चीज़ें ख़त्म कर सकती हैं। बहुत ख़याल रखने की ज़रूरत है, बहुत सावधान रहने की ज़रूरत है।
नई संसद कुछ ही मुद्दत में गठित होगी, हमारे जो भाई और बहन हैं उन्हें ख़याल रखना चाहिए कि नई संसद के गठन की मिठास को बर्बाद न होने दें और कड़ुवाहट पैदा न होने दें। अगर उन्होंने इसका ख़याल न रखा तो इसका सबसे पहला असर ये होगा कि अवाम में कड़ुवाहट फैल जाएगी। मुल्क का राजनैतिक माहौल कड़ुवा हो जाएगा। जबकि चुनाव, नई संसद का गठन और नए लोगों के आगमन से राजनैतिक माहौल जो स्वाभाविक तौर पर ताज़गी का माहौल है, ये ख़त्म हो जाएगा। इसका पहला असर ये होगा।
इसका अगला असर ये है कि संसद का काम प्रभावित हो जाएगा। यानी जब संसद झगड़े, विवाद, प्रतिस्पर्धा और नाना प्रकार की मोर्चाबंदी का शिकार हो गयी तो स्वाभाविक रूप से अपने अस्ल कामों से पीछे रह जाएगी। मोर्चाबंदी और रस्साकशी उसके कामों में रुकावट पैदा कर देगी।
मैं ये अर्ज़ करना चाहता हूं कि हमारे यहाँ इस्लामी गणराज्य है, है न! ये “इस्लामी” शीर्षक बहुत अहमियत रखता है। ये सिर्फ़ राजनैतिक विभाग तक काम नहीं करता। यानी इस्लामी होना और इस्लामी गणराज्य होना सिर्फ़ ये नहीं है कि हमने एक राजनैतिक सिस्टम का नमूना पेश कर दिया है। बेशक ये काम का बहुत अहम हिस्सा है लेकिन बात सिर्फ़ इतनी ही नहीं है।
इस्लामी गणराज्य का एक मूल इंडिकेटर ये है कि इस्लामी गणराज्य के अधिकारी व कर्मचारी शरीअत के पाबंद हों, हलाल, हराम, झूठ, दूसरों की पीठ पीछे बुराई, इल्ज़ाम जैसी चीज़ों के संबंध में सावधान रहें। जिस तरह हमें अपने व्यक्तिगत मामलों में सावधान रहने की ज़रूरत होती है, तक़वे को मद्देनज़र रखना होता है और हराम चीज़ों से बचना होता है, राजनैतिक मैदान में और राजनैतिक कामों में भी बिलकुल इसी तरह ये चीज़ है। हराम चीज़ों से बचना चाहिए, इसे सबसे ऊपर रखना चाहिए। अमीरुल मोमेनीन अलैहिस्सलाम फ़रमाते हैं: “अगर तक़वा न होता तो मैं अरब का सबसे सियासतबाज़ शख़्स हो सकता था।” (13) तक़वा इंसान को बहुत से कामों से रोक देता है। अमीरुल मोमेनीन अलैहिस्सलाम उन ख़तों में और उन आदेशों में जो आपने नहजुल बलाग़ा में अपने गवरनरों के दिए हैं, उनमें से कुछ में, ये नहीं कह सकते कि ज़्यादातर में, लेकिन उनमें से बहुत सों में आग़ाज़ इस तरह होता है “मेरा ख़त फ़ुला के नाम है, मैं उसे तक़वा का आदेश देता हूं।” (14) पहली ही सिफ़ारिश में: “आमोरोहू बितक़वल्लाह” है। मालिके अश्तर के बारे में और मालिके अश्तर के लिए जारी किए गए हुक्म और मशहूर आदेश में आप फ़रमाते हैं: “मैं उसे तक़वा का आदेश देता हूं और अल्लाह की फ़रमां बरदारी का।” (15) यानी अमीरुल मोमेनीन अलैहिस्सलाम इस तरह ताकीद फ़रमाते हैं। या “तक़वा के रास्ते पर चलो” (16) अल्लाह से डरने की सिफ़ारिश करते हैं। मालूम हुआ कि राजनैतिक मामलों में, राजनैतिक शैली में, राजनैतिक धड़ेबंदी में, ज़ाहिर है वैचारिक विविधता की वजह से एक तरह की धड़ेबंदी है और इसमें कोई हरज नहीं है, तक़वे को मद्देनज़र रखना चाहिए। इंसान को चाहिए कि शरीअत के लेहाज़ से हराम चीज़ों से सख़्ती से बचे। अगर ऐसा हुआ तो इंशाअल्लाह कामों के नतीजे भी अच्छे होंगे और अल्लाह कामों में बरकत देगा।
हम दुआ करते हैं कि अल्लाह, बयान करने वाले को इन बातों पर अमल करने वाला बनाए इंशाअल्लाह और सुनने वाले को भी इंशाअल्लाह तौफ़ीक़ दे कि इन बातों का दिल पर असर हो और हम शरीअत के फ़रीज़े के मुताबिक़ अपने कामों को अपने फ़रीज़ों को अंजाम दे सकें।
आप सब पर सलाम और अल्लाह की रहमत व बरकत हो
1-इस मुलाक़ात के आग़ाज़ में जो पांचवीं विशेषज्ञ असेंबली के 13वें सेशन के बाद हुयी, असेंबली के प्रमुख आयतुल्लाह अहमद जन्नती और असेंबली की अध्यक्ष समिति के सदस्य हुज्जतुल इस्लाम वलमुस्लेमीन सैयद हाशिम हुसैनी बूशहरी ने कुछ बिन्दु बयान किए।
2- आयतुल्लाह मोहम्मद इमामी काशानी का 2 मार्च सन 2024 को निधन हो गया।
3-विशेषज्ञ असेंबली के सचिवालय के प्रमुख
4-इक़बालुल आमाल, जिल्द-2, पेज-687
5-इक़बालुल आमाल, जिल्द-2, पेज-687
6-इक़बालुल आमाल, जिल्द-1, पेज-9
7- सूरए बक़रह, आयत-279 का एक हिस्साः “न तुम ज़ुल्म करोगे और न तुम पर ज़ुल्म किया जाएगा”
8- सूरए निसा, आयत-76 का एक हिस्साः “जो लोग ईमान लाए हैं, राहे ख़ुदा में जंग करते हैं”
9-सूरए मुमतहेना, आयत-8 का एक हिस्साः “अल्लाह तुम्हे इस बात से मना नहीं करता कि जिन लोगों ने दीन के मामले में तुमसे जंग नहीं की और न ही तुम्हें तुम्हारे घरों से निकाला है कि तुम उनके साथ नेकी करो और उनके साथ इंसाफ़ करो।”
10- बारहवीं संसद के चुनाव 1 मार्च 2024 को हुए
11-काफ़ी, जिल्द-8, पेज-24
12-नहजुल बलाग़ा, पत्र नंबर 26
13- नहजुल बलाग़ा, पत्र नंबर 53
14- नहजुल बलाग़ा, पत्र नंबर 25