रहबरे इंक़ेलाब आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई ने 29 नवम्बर 2023 को बसीज फ़ोर्स के ओहदेदारों और जवानों से ख़ेताब में इस विशाल संगठन के महत्व, शानदार योगदान, विशेषताओं और उसकी व्यापकता के बारे में बात की। आयतुल्लाह ख़ामेनेई ने अपने ख़ेताब में तूफ़ान अलअक़सा आप्रेशन और ग़ज़ा पर ज़ायोनी शासन के हमलों की समीक्षा की।
आयतुल्लाह ख़ामेनेई का ख़ेताबः
बिस्मिल्लाह-अर्रहमान-अर्रहीम
अरबी ख़ुतबे का अनुवादः सारी तारीफ़ पूरी कायनात के मालिक के लिए, दुरूद व सलाम हो हमारे सरदार व रसूल हज़रत अबुल क़ासिम मुस्तफ़ा मोहम्मद और उनकी सबसे पाक, सबसे पाकीज़ा, चुनी हुयी नस्ल, ख़ास तौर पर ज़मीन पर अल्लाह की आख़िरी हुज्जत इमाम महदी अलैहिस्सलाम पर।
प्यारे भाइयो बहनो! बसीज फ़ोर्स के लोगो! आप सब का स्वागत है। इसी तरह मैं उन सब का भी स्वागत करता हूं जो लोग दूसरे शहरों में जमा हुए हैं और यह तक़रीर सुन रहे हैं, हम भी यहां उन्हें देख रहे हैं।
बसीज फ़ोर्स के बारे में बातें तो बहुत ज़्यादा हैं। संक्षिप्त में यह कि बसीज, हमारे मुल्क के लिए इमाम ख़ुमैनी की यादगार है। इमाम ख़ुमैनी ने बसीज को वजूद बख़्शा और वही इसके जनक हैं, इसी के साथ, ख़ुद वह कहते हैं कि मैं इस बात पर फ़ख़्र करता हूं कि मैं एक बसीजी हूं। (2) बसीज की शान यह है। जी तो बसीज के बारे में इमाम ख़ुमैनी के बयानों के बारे में मैं कुछ बातें करना चाहूंगा।
सब से पहली बात यह है कि बसीज की बुनियाद, धमकियों और ख़तरों के मुक़ाबले में मुल्क को ज़्यादा से ज़्यादा मज़बूत बनाना है, बसीज के वजूद का मतलब यह है। इमाम ख़ुमैनी (रहमतुल्लाह अलैह) ने सूझबूझ से यह समझ लिया कि मुल्क, क़ौम और इन्क़ेलाब को ख़तरों से बचाने के लिए इस बात की सख़्त ज़रूरत है कि एक बड़ी जनसेना तैयार की जाए क्योंकि, इन्क़ेलाब, जनता का है, मुल्क जनता का है, किसी भी दूसरी चीज़ और किसी भी दूसरे से ज़्यादा, यह जनता है जो अपने मुल्क और अपने इन्क़ेलाब की हिफ़ाज़त कर सकती है, इस शर्त के साथ कि इसका रास्ता उसे दिखाया गया हो, यह रास्ता, इमाम ख़ुमैनी ने दिखाया, स्वंय सेवी बल, बसीज। बसीज की यह बुनियाद है। तो बसीज, मुल्क को डटे रहने की ज़्यादा से ज़्यादा ताक़त देने के लिए है, हर ख़तरे के सामने, हर धमकी के सामने, यह चीज़, बसीज को बनाने की अस्ल वजह थी, आज भी वही वजह मौजूद है और यह आज के दौर की भी वजह है। आज भी स्वंय सेवी बल बसीज़ का वजूद ज़रूरी है, उन कारणों के आधार पर जो हैं और जिनका संक्षेप में मैं ज़िक्र करुंगा, आज भी बसीज की ज़रूरत है, राष्ट्रीय पहचान की और लोगों के हितों की हर तरह से हिफ़ाज़त के लिए बसीज की ज़रूरत है। इन 40-45 बरसों में, बसीज की कार्यवाहियों पर नज़र डालने से यह साबित हो जाता है कि यह फ़ैसला बिल्कुल सही था और उससे यह पता चलता है कि इमाम ख़ुमैनी का सूझबूझ से भरा यह फ़ैसला पूरी तरह से सही था। मेरे प्यारो! हमारे मुल्क में बहुत से ऐसे मौक़े आए हैं जब बसीज की मौजूदगी हमारे मुल्क के लिए निर्णायक साबित हुई है, जिसका एक नमूना, पाकीज़ा डिफ़ेंस है। यक़ीनी तौर पर अगर, जनसेना नहीं होती, तो फिर 8 साल तक चलने वाले डिफ़ेंस का नतीजा जो हुआ है उससे अलग होता। पाकीज़ा डिफ़ेंस, बसीज के रूप में हमारे देश की जनता की शक्ति का विशाल प्रदर्शन है, दूसरे मौक़ों पर भी इस तरह की घटनाएं हुई हैं जिनका ब्योरा इस वक़्त मैं नहीं देना चाहता।
दूसरी बात यह है कि इमाम ख़ुमैनी ने बसीज को कई तरह से याद किया है। इनमें से दो गुणों को मैंने आपके सामने बयान करने के लिए चुना है। एक जगह इमाम ख़ुमैनी कहते हैं कि “बसीज, अल्लाह की सद्भावना से भरी फ़ौज है”। (3) “मुख़लिस फ़ौज” आप शब्दों पर ग़ौर करें। एक और जगह पर इमाम ख़ुमैनी कहते हैं कि “बसीज, प्रेम की पाठशाला है”। (4) जी तो इन दोनों बातों को एक साथ रखें “अल्लाह की मुख़लिस फ़ौज” से यह पता चलता है कि बसीज, सेना है, फ़ौज लड़ने के लिए होती है, युद्ध के लिए होती है। सैनिक होने का क्या मतलब है? यानी शरीर में ताक़त होना और बहादुरी व मज़बूत इरादा भी रखना, इसी तरह युद्ध की रणनीति और स्ट्रैटेजिक उपायों की भी मालूमात होना। इसकी मिसाल हज़रत अली अलैहिस्सलाम हैं, उन्होंने अम्र बिन अब्दोवुद के मुक़ाबले में अपनी शारीरिक शक्ति का भी प्रदर्शन किया, अपनी बहादुरी और निडरता को भी दिखाया और सैन्य रणनीति का भी प्रदर्शन किया, वह अम्र बिन अब्दोवुद से कहते हैं कि “हम और तुम लड़ रहे हैं फिर ये लोग कौन हैं?” जैसे ही वह पलटता है, इमाम अली अलैहिस्सलाम उसे पछाड़ देते हैं, यह युद्ध की रणनीति है, स्ट्रैटेजिक उपाय है। तो सैनिक होने का मतलब, जिस्मानी, रूहानी और वैचारिक ताक़त का मालिक होना है। फिर “अल्लाह की मुख़लिस सेना” होने का क्या मतलब है? यानी यह विशाल ख़ज़ाना, किसी को सत्ता में पहुंचाने के लिए नहीं है। दुनिया की सेनाओं को किस लिए इस्तेमाल किया जाता है? दुनिया की फ़ौज किस राह में आगे बढ़ती और लड़ती हैं? बसीज, अल्लाह के लिए लड़ती है वह भी सच्चे दिल से, पूरी तरह से अल्लाह के लिए काम करती है। इस बुनियाद पर यह बसीज में लड़ने की भावना है और उसकी ताक़त की निशानी है और इस बात का सुबूत है कि वह अल्लाह के लिए कितनी सख़्त बन जाती है। (5) दूसरी तरफ़ “प्रेम की पाठशाला है” बसीज, प्रेमी है, दिल हारा हुआ है, लेकिन यह प्रेम, अकारण, आवारागर्दी व ग़लत राह का प्यार नहीं है, यह प्रेम एक पाठशाला है। उसका रास्ता एक मंज़िल की तरफ़ जाता है और सधा हुआ है, इसका क्या मतलब? यानी वह अल्लाह से प्रेम करता है, रूहानियत से प्रेम करता है, जनता से प्रेम करता है, इस राह पर चल रहा है उससे प्यार करता है, प्रेम में डूब कर आगे बढ़ता है, “प्रेम की पाठशाला” का यह मतलब है। इमाम ख़ुमैनी यह नहीं कहते कि बसीज फ़ोर्स प्रेम करने वाली है, बल्कि वह कहते हैं कि बसीज, प्रेम की पाठशाला है, प्रेम का एक ख़ास मक़सद के तहत पाठ पढ़ाती है, प्रेम करना सिखाती है। तो ये ख़ूबियां, बस ज़बानी नहीं थीं, सिर्फ़ दिमाग की उपज नहीं थी, सब ने इन बातों की सच्चाई को देखा, जंग के मैदान में भी और प्रेम के मैदान में भी। हम सब ने अपनी आंखों से देखा कि बसीज फ़ोर्स क्या करती है। जंग के मैदान में दसियों हज़ार मुख़लिस बसीजियों ने जिनमें से अक्सर का नाम भी कोई नहीं जानता, कितने बड़े बड़े काम किये हैं, उन्होंने निर्णायक क़दम उठाए हैं। मेरे प्यारो! आप लोगों को जंग का ज़माना याद नहीं होगा, लेकिन जंग के हालात पर किताबें छपी हैं, उन्हें पढ़ें, देखें कि उन्होनें क्या किया है, किस तरह से रहे हैं, किस नीयत के साथ मैदान में आए, कितने मज़बूत इरादे के साथ आगे बढ़े, किस तरह से गये, किस तरह से निर्णायक काम किये। यक़ीनी तौर पर उनमें कुछ लोग चोटी पर थे, बसीज की चोटी, सुलैमानी हैं, सैयाद शीराज़ी हैं, हिम्मत हैं, बाबाई हैं, बसीज की चोटी, शीरूदी हैं, शहीद हमदानी हैं, और इस तरह की सैकड़ों हस्तियां हैं। यह वह हस्तियां हैं कि उनकी जैसी कोई एक हस्ती भी आज दुनिया की कौम़ों में नहीं मिलतीं, न वैसी सच्ची नीयत और न ही वैसा बलिदान और वैसी बहादुरी। यह जंग का मैदान है इसे सब ने देखा है, यह भी सब को नज़र आया। पवित्र डिफ़ेंस के दौरान आप बसीजियों की जंग को देख सकते हैं, जो लोग मौजूद थे उन्होंने क़रीब से देखा। उसके बाद दूसरे मैदान में भी, आप डिफ़ेंस के दौर में नहीं थे, लेकिन इमामों के रौज़ों का डिफ़ेंस तो देखा है, दूसरे मैदान भी थे, वह भी आप ने देखे, आप ने देखा कि बसीज क्या करती है। प्रेम व मेहरबानी के मैदान में, जनता की सेवा के मैदान में बसीज हर जगह, पुनिर्माण के मैदान में, स्वास्थ्य के मैदान में, आपदाओं के मौक़े पर, साइंस व रिसर्च के मैदान में बसीज हर जगह नज़र आती है। शहीद फ़ख़्रीज़ादे (6) कि जिनकी बरसी है, वह भी एक बसीजी थे, मरहूम काज़ेमी आश्तियानी (7) भी एक बसीजी थे, साइंस के मैदान में इन्होंने हमारे मुल्क में ज्ञान-विज्ञान की सीमाओं को बदल डाला, ज्ञान-विज्ञान के मैदान में, इनमें से कुछ लोग, अंतरराष्ट्रीय औसत से भी आगे चले गये। सच्चाई को बयान करने और लोगों में सूझबूझ बढ़ाने के मैदान में अहम काम किये गये हैं। इस बुनियाद पर, यह जो इमाम ख़ुमैनी ने कहा है “अल्लाह की सच्ची फ़ौज” और “प्रेम की पाठशाला” तो यह सब काम के मैदान में, व्यवहारिक रूप से हमने उसके नमूने देखे और हम सब ने देखा।
तीसरी बातः बसीज, एक आर्गनाइज़ेशन से ज़्यादा एक कल्चर है, एक सोच है। इस बुनियाद पर, जिन लोगों ने यह कल्चर स्वीकार किया, इस राह में आगे बढ़े, इस सोच को अपना तरीक़ा बनाया, भले ही वह संस्था के अंदर न हों, वह भी बसीजी हैं, और यह बात ईरानी क़ौम के एक बड़े भाग पर लागू होती है, जबकि बसीज संस्था में न तो उनका नाम है, न ही उनका कोई पता है। यह कल्चर क्या है? बसीज की संस्कृति उसका जनता से जुड़ा होना है, ज़िम्मेदार होना है, ज़िम्मेदारी का एहसास करना है, मुल्क के मौजूदा मुद्दों और मुल्क के भविष्य पर असर डालने वाले मुद्दों की तरफ़ से लापरवाह न होना है, बसीजी कल्चर, इन्क़ेलाबी होना है, इन्क़ेलाब की क़द्र करना और इन्क़ेलाब का अर्थ समझना है, बसीज का कल्चर, क़ानून से भागने वाला न होना है, सुव्यवस्था को स्वीकार न करने वाला न होना है, रीति रिवाज को न तोड़ने वाला होना है, यह सब बसीज का कल्चर है। बसीजी हो सकता है किसी बात पर, किसी सच्चाई के सिलसिले में, किसी एक व्यक्ति से उसे शिकायत हो, कोई बात नहीं, लेकिन वह ग़लत काम नहीं करता, दुश्मन के साथ, पहले भी मैंने कहा है (8) कांधा मिला कर नहीं चलता।
बसीज का कल्चर, दिखावे से परहेज़ करना है, उन कामों से बचना जो सिर्फ़ दिखावे के लिए किये जाते हैं। बसीजी अगर कोई चीज़ दिखाता भी है तो उसके पीछे कोई मक़सद होता है, एक सच्चाई होती है। बसीजी, दिखावे वाला काम नहीं करता, सच्चाई भरे कामों की ओर बढ़ता है, सच में आगे बढ़ता है। पता नहीं आप लोगों ने ध्यान दिया, ग़ौर किया उस रिपोर्ट पर जो बसीज के सम्मानीय कमांडर ने पेश की है? उन्होंने जो कुछ बयान किया उसमें बहुत सी बातें थीं।(9) यह सब सच हैं, यह सच्चा काम है।
बसीज का कल्चर, कमज़ोर पर रहम करना है, ज़ालिम से मुक़ाबले में कठोर होना है, सब की सेवा करना है, सब की। जहां बाढ़ आयी, बसीजी, घुटनों तक कीचड़ में गये, बाढ़ ग्रस्त का घर साफ़ करने के लिए, कीचड़ निकालने के लिए घर के मालिक से यह नहीं पूछा कि तुम्हारा नाम क्या है? तुम्हारा मज़हब क्या है? दीन क्या है? क़ौम कौन सी है? राजनीतिक विचारधारा क्या है? यह सब नहीं पूछा, बस बसीजी गये और सेवा किया, जो भी ज़रूरी हुआ किया, जिसके साथ ही ज़रूरी हुआ उसकी सेवा की। यह सब अहम चीज़ें हैं।
बसीज का कल्चर घमंड से दूरी है, यह बसीज का कल्चर है। इन्सान, अपनी अपनी पोज़ीशन के लिहाज़ से, एक तरह की इज़्ज़त हासिल कर लेते हैं, एक हस्ती बन जाते हैं। अगर हम देखें कि लोग हमारी इज़्ज़त करते हैं, हमारे लिए नारे लगाते हैं, हमें आगे बढ़ाते हैं, हमारी तारीफ़ करते हैं, तो इस लिए हम में घमंड पैदा हो जाए, ग़ुरुर करने लगें, हम ख़ुद को बड़ा समझने लगें, तो यह बसीज के कल्चर के ख़िलाफ़ है। इमाम ज़ैनुलआबेदीन सहीफ़ए सज्जादिया की दुआए “मकारिमुल अख़लाक़” में हमें यह सिखाते हैं कि “जब भी मुझे लोगों के बीच कोई मक़ाम दे तो उसी लिहाज़ से मुझे अपनी नज़र में गिरा दे”। (10) लोगों में तुम्हारा जितना क़द बुलंद हो उतना ही अपनी नज़रों में छोटे बन जाएं, ख़ुद पर घमंड न करें।
बसीज का कल्चर, किसी पर एहसान न समझना है, अगर हम यह समझें कि इन्क़ेलाब पर हमारा एहसान है, मुल्क पर हमारा क़र्ज़ है, सरकार पर, जनता पर, पड़ोसी पर, दोस्तों पर, जान पहचान वालों पर सब पर हमारा क़र्ज़ है, एहसान है और हम पर किसी का कोई हक़ नहीं है तो यह बसीज का कल्चर नहीं है। बसीजी का किसी और पर कोई हक़ नहीं होता, वह ख़ुद को ज़िम्मेदार समझता है, फ़र्ज़ को समझता है और उसे अदा करने की कोशिश में रहता है। बसीजी, अपनी संस्था की योग्यताओं से अपने लिए फ़ायदा नहीं उठाता। जो बसीज संस्था में है तो उसे इस संस्था की तरफ़ से जो ताक़त मिलती है वह उसके पास एक अमानत होती है, जिसकी वह पूरी सच्चाई से हिफ़ाज़त करता है, वह अमानतदार होता है।
यह सब हमारे लिए सबक़ है। इमाम ख़ुमैनी में, जो यह कहते थे कि मुझे एक बसीजी होने पर फ़ख़्र है तो, यह सारी ख़ूबियां मौजूद थीं। ये जो चीज़ें मैंने अभी बतायी हैं, वो सब इमाम ख़ुमैनी में मौजूद थीं, हमेशा अपने ऊपर दूसरों का हक़ समझते थे, हमेशा ख़ुद को कमज़ोर समझते थे, हमेशा जनता को ख़ुद से ऊपर समझते थे, यही नौजवान जो उनके पास जाते थे, उनके हाथ चूमते थे, रोते थे, इमाम ख़ुमैनी उन्हें ख़ुद से बेहतर समझते थे, जहां तक हमने पहचाना है इमाम ख़ुमैनी को, जहां तक हमने क़रीब से देखा है इमाम ख़ुमैनी को, तो हमें यही नज़र आया कि इमाम ख़ुमैनी ने अपनी उम्र का एक लम्हा भी, अपने लिए, अपने ओहदे के लिए, अपने को केन्द्र बनाने के लिए, ख़ुद को प्रमुख बनाने के लिए, ख़र्च नहीं किया।
एक और बात जो चौथा बिन्दु है और बहुत अहम है, बसीज का मुल्क और सरहद पार तक असर है। यह भी इमाम ख़ुमैनी के बयान में है। आप ने ग़ौर किया होगा कि इमाम ख़ुमैनी “इन्टरनेशन्ल रेज़िस्टेंट युनिट” की बात करते हैं (11) यह वही बसीज है, हमारे मुल्क की बसीज नहीं, ख़ुद दूसरे मुल्कों की बसीज है, लेकिन कल्चर वही है। यह “इन्टरनेशन्ल रेज़िस्टेंट युनिट” बन चुकी है, यानी आप आज उसके नमूने ख़ुद हमारे इलाक़े में देख रहे हैं। जैसा कि शायर ने कहा है “अभी ठहरो यहां तक कि उसकी हुकूमत की सुबह चमके, यह तो अभी सुबह के आने की निशानी है। (12) आप अपने इलाक़े में देखते हैं यह वही रेज़िस्टेंट की युनिटें हैं जिनकी बारे में इमाम ख़ुमैनी ने बताया था, जिसकी ख़ुशखबरी दी थी, ये युनिटें आज, इस इलाक़े की क़िस्मत का फ़ैसला कर रही हैं, हमारे इस इलाक़े की क़िस्मत का फ़ैसला, रेज़िस्टेंट युनिटें कर रही हैं जिसका एक दूसरा नमूना यही “अलअक़्सा तूफ़ान” है कि जिसके बारे में बात की जाएगी।
कुछ बरस पहले, लेबनान के मामले में, अमरीकियों ने कहा कि वह नया मिडिल ईस्ट बनाना चाह रहे हैं (13) “मिडिल ईस्ट” यानी वही पश्चिमी एशिया। पश्चिमी, युरोपीय और उनके पिछलग्छू हर चीज़ को युरोप के तराज़ू में तौलना चाहते हैं इस लिए जो इलाक़ा युरोप से क़रीब है, वह निअर ईस्ट है, जो बीच में है वह मिडिल ईस्ट है और जो युरोप से दूर है वह फ़ॉर ईस्ट है, यानी तराज़ू युरोप है। यह वही दुष्टता है जो इन लोगों ने की है और दूसरे भी उनकी नक़ल करते हैं और वही रटते हैं। मिडिल ईस्ट यानी पश्चिमी एशिया। कहते थे कि वह इस इलाक़े को जिसे उन्होंने मिडिल ईस्ट का नाम दिया था, उसका एक नया नक़्शा बनाना चाहते हैं, “न्यू मिडिल ईस्ट” यानी वह चाहते थे कि एक नया राजनीतिक मानचित्र बनाएं, किस बुनियाद पर? अमरीका के नाजायज़ मक़सद और हितों की बुनियाद पर। लेकिन वो जो चाहते थे वह नहीं हुआ, उनका मक़सद पूरा नहीं हुआ। वो “हिज़्बुल्लाह को ख़त्म करना चाहते थे, अपने नये प्लान में उनका एक मक़सद यह था, 33 दिवसीय जंग के बाद, हिज़्बुल्लाह दस गुना ज़्यादा ताक़तवर हो गया। यह मैं जो “दस गुना” कह रहा हूं तो वह इस लिए हैं क्योंकि मैं एहतियात से काम ले रहा हूं, लेकिन अस्ल में हिज़्बुल्लाह इससे भी ज़्यादा ताक़तवर हुआ है। उन्होंने इराक़ को निगलना चाहा लेकिन नाकाम रहे। इराक़ का क़िस्सा भी बड़ा अजीब क़िस्सा है। अमरीकियों का यह इरादा था कि इराक़ में अमरीकी सरकार को सत्ता तक पहुंचाएं, एक अमरीकी जनरल(14) को इराक़ की बागडोर थमा दी, लेकिन जब देखा कि अमरीकी जनरल से कुछ नहीं हो पा रहा है तो उसे हटा दिया और एक अमरीकी सिविल अफ़सर (15) को सत्ता में ले आए कि वह इराक़ का प्रमुख बन जाए राष्ट्रपति या फिर इराक़ का राजा, एक अमरीकी बने! फिर उनकी समझ में आ गया कि यह नहीं हो सकता, तो उन्होंने अपने एक इराक़ी एजेंट (16) को सत्ता दे दी, उससे भी कुछ न हुआ और कोई कामयाबी न मिली आज तक। आज इराक़ में रेज़िस्टेंट युनिटें, फ़िलिस्तीन के मामले में आगे आती हैं, इराक़ की सरकार ठोस रुख़ अपनाती है, यानी जिस चीज़ का नाम अमरीकियों ने “न्यू मिडिल ईस्ट” रखा था वह आज जो है उससे 180 डिग्री अलग था। वह पूरे इराक़ को निगलना चाहते थे, लेकिन हलक़ में नहीं उतार पाए उनसे न हो सका। वह सीरिया पर क़ब्ज़ा करना चाहते थे, अपने एजेन्टों को “दाइश” और “अन्नुस्रा फ़्रंट” जैसे नामों से सीरिया की सरकार के पीछे छोड़ दिया, लगभग 10 बरसों तक लगातार उनकी मदद की और एजेन्ट भेजते रहे, पैसे दिये, साधन दिये लेकिन कुछ न कर पाए। वो नाकाम हो गये, वो नया मिडिल ईस्ट बनाने में जिसकी उन्हें ख़्वाहिश थी उसमें वह पूरी तरह से नाकाम हो गये। उस न्यू मिडिल ईस्ट का एक हिस्सा यह था कि फ़िलिस्तीन का मामला, अतिग्रहणकारी ज़ायोनी शासन के हित में पूरी तरह से ख़त्म कर दें, ताकि फ़िलिस्तीन नाम की कोई चीज़ बाक़ी ही न रहे, वह ग़द्दारी की बुनियाद पर जो टू-स्टेट की योजना को मंज़ूरी दी थी उसे भी पैरों तले रौंद दिया, लेकिन फिर भी कुछ न कर सके, कुछ न हो सका। अब आज आप देखें कि फ़िलिस्तीन की पोज़ीशन 20 बरस पहले के मुक़ाबले में कितनी अलग हो गयी है। 20 साल पहले फ़िलिस्तीन क्या था, आज क्या है? हमास 20 साल पहले क्या था, आज क्या है? जी हां हमारे इलाक़े की जियोपॉलिटिकल स्थिति में बुनियादी बदलाव आ रहा है, लेकिन अमरीका के हित में नहीं, बल्कि रेज़िस्टेंट मोर्चे के हक़ में। जी हां पश्चिमी एशिया का जियोपॉलिटिकल नक़्शा बदल गया है, लेकिन रेज़िस्टेंट मोर्चे के हित में, रेज़िस्टेंट मोर्चा जीत गया। इमाम ख़ुमैनी ने सही समझा था, सही आंका था। रेज़िस्टेंट युनिट्स, समय को अपने हित में बदलने में कामयाब हुई हैं।
यह जो नया नक्शा है उसकी कुछ ख़ूबियां हैं, मैं कुछ ख़ूबियां आप को बताता हूं। यह नक़्शा जो धीरे धीरे हमारे इलाक़े में फैल रहा है, उसकी कुछ ख़ूबियां हैं। सब से पहली ख़ूबी अमरीका की सफ़ाई है। अमरीका की सफ़ाई का क्या मतलब? यानी इलाक़े पर अमरीकी वर्चस्व का अंत। इसका मतलब अमरीका से राजनीतिक संबंध ख़त्म करना नहीं है, यह नहीं है कि हमें यह उम्मीद हो या हम यह समझें कि इलाक़े की सरकारें अमरीका के साथ राजनीतिक संबंध ख़त्म कर लें, नहीं, राजनीतिक व आर्थिक संबंध सब से होता है, अमरीका से भी रहेगा, रखें, लेकिन अमरीकी वर्चस्व हर दिन पहले से ज़्यादा कमज़ोर हो रहा है, अमरीका जो एक देश में अपनी मर्ज़ी चलाना चाहता था, तेल के मैदान में, हथियारों के मैदान में, अलग अलग मैदानों में, अब धीरे-धीरे उसकी ताक़त कमज़ोर पड़ रही है, बहुत हद तक कमज़ोर पड़ चुकी है, इससे भी ज़्यादा कमज़ोर होगी। अमरीका बरसों से एक पॉलिसी पर काम कर रहा था जो दरअस्ल हमारे इस इलाक़े पर वर्चस्व की पॉलिसी थी, उस पॉलिसी का सब से अहम भाग, ज़ायोनी शासन की मदद थी, जितना हो सके उसे मज़बूत बनाया जाए, उसे खुली छूट दी जाए, दूसरों को उसके साथ संबंध बनाने पर तैयार किया जाए। यक़ीनी तौर पर यह उसकी पुरानी पॉलिसी है, दसियों बरस पुरानी है, दस बीस बरस से इस पॉलिसी पर ज़्यादा तेज़ी से काम हो रहा है, वो अफ़ग़ानिस्तान गये, इराक़ गये, इन देशों पर क़ब्ज़ा करके पूरे इलाक़े पर अपना वर्चस्व जमाना चाहते थे लेकिन यह न हुआ। आज हमारे इस इलाक़े में नीतियां और सोच, अमरीका से दूरी बनाने की है। इसका एक स्पष्ट और खुला उदाहरण जो आप की आंखों के सामने है वह यही अलअक़्सा तूफ़ान आप्रेशन है। जी हां यह आप्रेशन ज़ायोनी शासन के ख़िलाफ़ है लेकिन अस्ल में यह अमरीका को हटाना है, यह एक नया इतिहास है, जी हां बिल्कुल अस्ली अर्थ में अलअक़्सा तूफ़ान एक इतिहास रचने वाली घटना थी जो इस इलाक़े में अमरीकी पॉलिसियों के ताने बाने को बिखेरने में कामयाब रही और इन्शाअल्लाह अगर यह तूफ़ान जारी रहा तो इस पूरे इलाक़े से अमरीकी पॉलिसियों के जाल का निशान ही मिट जाएगा। तो हमारे इलाक़े के जियोपॉलिटिकल नक़्शे में हो रहे बदलाव की एक ख़ूबी यह है कि इसमें अमरीका को इलाक़े से हटाने का काम शुरु हो गया है, कुछ देश जो पूरी तरह से अमरीकी आदेशों का पालन करते थे, अब अमरीका से मुंह मोड़ना शुरु कर चुके हैं, जिसके बारे में आप सुनते हैं और देख भी रहे हैं और यह सिलसिला जारी रहेगा।
एक और ख़ूबी यह है कि हमारे इस इलाक़े में, फूट पैदा करने वाला जाली अलगाव था, वह भी ख़त्म हो गया। अरब व ग़ैर अरब का फ़र्क़, शिया सुन्नी का फ़र्क़, शिया क्रिसेन्ट की कहानी, इलाक़े में शिया मुसलमानों के फैलाव का ख़तरा, यह एक बेबुनियाद बात थी जिसे फैलाया गया, यह सब ख़त्म हो गया है। यह अलअक़्सा तूफ़ान और उससे पहले भी फ़िलिस्तीनियों की सब से ज़्यादा मदद किसने की? शियों ने की, लेबनान के शियों ने, इराक़ के शियों ने, अरब शियों ने, ग़ैर अरब शियों ने। यह अलगाव भी ख़त्म हो गया और इस तरह से ज़बरदस्ती थोपी हुए दूरी की जगह पर एक नया अलगाव एक नया फ़र्क़ इलाक़े में नज़र आयाः रेज़िस्टेन्स और घुटने टेकने में अलगाव, आज हमारे इलाक़े में यह अलगाव नज़र आता है। रेज़िस्टेन्स का क्या मतलब है? रेज़िस्टेन्स का मतलब, ज़ोर ज़बरदस्ती और अमरीका के वर्चस्व व हस्तक्षेप के सामने घुटने न टेकना, यह रेज़िस्टेन्स है। अब कुछ लोग 100 फ़ीसद रेज़िस्टेन्स करते हैं कुछ 80, कुछ 50 फ़ीसद लेकिन हर हाल में आज हमारे इलाक़े में रेज़िस्टेन्स का मिशन, एक स्पष्ट आंदोलन और मिशन है और घुटने टेकने से ठीक उलट है जो अपमानजनक है और क़ौमों व सरकारों को बेइज़्ज़त कर देता है।
एक और ख़ूबी जो हमारे इलाक़े के नये नक़्शे की है, फ़िलिस्तीन के मुद्दे का समाधान है। अल्लाह की मदद से फ़िलिस्तीन की समस्या, समाधान की ओर बढ़ रही है। “फ़िलिस्तीन की समस्या के समाधान” का क्या मतलब है? यानी पूरे फ़िलिस्तीन पर फ़िलिस्तीनी सरकार का गठन। हमने अपना सुझाव पेश कर दिया हैः फ़िलिस्तीनियों में रेफ़्रेन्डम। यक़ीनी तौर पर जो अवैध क़ब्ज़ा किये हैं उन्हें कोई हक़ नहीं है, लेकिन ख़ुद फ़िलिस्तीनी, चाहें वह फ़िलिस्तीन में हों, चाहें फ़िलिस्तीन के पड़ोसी मुल्कों के शरणार्थी कैंपों में, या फिर कहीं और, चाहे जहां हों, कई करोड़ फ़िलिस्तीनी हैं, यह सब वोट दे सकते हैं। जनमत संग्रह वह रास्ता है जिसे पूरी दुनिया मानती है और फ़िलिस्तीन के लिए यह एक सभ्य समाधान है। अब कुछ लोग यह कहते हैं कि आप जो सुझाव दे रहे हैं उसे ज़ायोनी शासन क़ुबूल नहीं करता, उसे नहीं मानता, हां हमें पता है कि वह नहीं मानेगा, लेकिन मानना उसके हाथ में नहीं है, उसके बस में नहीं है, कभी कोई काम किसी देश, किसी सरकार को पसंद नहीं होता, लेकिन उसे मानने पर मजबूर किया जाता है, वह मजबूर हो जाता है। अगर यह मामला इसी तरह आगे बढ़ता रहा, कि इन्शाअल्लाह आगे बढ़ता रहेगा, अगर यही रेज़िस्टेंट युनिट्स, पक्के इरादे के साथ पूरी गंभीरता के साथ अपने मक़सद की राह पर आगे बढ़ती रहें तो यह होकर रहेगा, इसमें कोई शक ही नहीं। इस बुनियाद पर फ़िलिस्तीन समस्या का समाधान भी वह ख़ूबी है जो नये पश्चिमी एशिया में इन्शाअल्लाह नज़र आएगी। दुनिया के कुछ टीकाकार जब इलाक़े के बारे में इस्लामी जुम्हूरिया ईरान के नज़रिये के बारे में बात करते हैं तो झूठ बोलते हुए यह कहते हैं कि “ईरान कहता है कि यहूदियों को या ज़ायोनियों को समुद्र में फेंक देना चाहिए” नहीं, यह बात पहले दूसरों ने या अरबों ने कही है, हमने यह कभी नहीं कहा, हम किसी को समुद्र में नहीं फेंकते। हमारा यह कहना है कि मर्ज़ी, जनता की होनी चाहिए। फ़िलिस्तीनी जनता के वोटों से जो सरकार बनेगी, वह वहां रहने वाले लोगों के बारे में और उन लोगों के बारे में जो दूसरे देशों से वहां गये हैं, फ़ैसला करेगी, हो सकता है उन सब से कहा जाए कि फ़िलिस्तीन में ही रहें, जैसा कि मैं अपने राष्ट्रपति काल में कुछ अफ़्रीक़ी देशों में गया था तो वहां भी यही हुआ था, जनता ने संघर्ष किया और उसे जीत मिली, वहां अंग्रेज़ों की सत्ता थी, स्थानीय लोग अंग्रेज़ों को हराने में कामयाब हुए लेकिन उन्ही अंग्रेज़ों को अपने देश में बाक़ी रखा, मुल्क के लिए बेहतर समझा तो उन्हें रहने दिया, यह लोग भी हो सकता है उन्हें रहने दें, या फिर हो सकता है कि फ़िलिस्तीन की सरकार कहे कि नहीं, कुछ लोग जाएं और कुछ रह जाएं, या सब चले जाएं, फ़ैसला उसके हाथ में होगा, हमारा इस सिलसिले में कुछ नहीं कहना है। जी तो यह तो इन सब मुद्दों के बारे में बात हुई।
एक बात अलअक़्सा तूफ़ान के बारे में भी कह दूं, यह अलअक़्सा तूफ़ान, यह अहम व बेमिसाल घटना जो हुई है, उसने मंज़िल को क़रीब कर दिया, इस मंज़िल की तरफ़ जाने वाली राह को कम कर दिया, आसान बना दिया, बहुत बड़ा काम हुआ है। ग़ुस्से में आगबगूला ज़ायोनी शासन ने अस्पतालों, स्कूलों, आम लोगों पर बमबारी करके और बच्चों की हत्या करके इस तूफ़ान को ख़त्म करने की कोशिश की, लेकिन यह नहीं कर पाया और न ही कभी कर पाएगा, यह तूफ़ान इन अपराधों से ख़त्म नहीं होने वाला। आप अख़बारों वग़ैरा में पढ़ते हैं, मैं दोहराउंगा नहीं, ज़ायोनी शासन अपना कोई भी मक़सद पूरा नहीं कर पाया इस लिए ग़ुस्से और तिलमिलाहट में वह आम लोगों पर टूट पड़ा है कि जिसका न कोई फ़ायदा हुआ है और न ही होने वाला है, बल्कि इस से ज़ायोनियों की और बेइज़्ज़ती हुई।
यह जो क्रूरता व बेरहमी ज़ायोनी शासन ने दिखायी है, यह जो बेरहमी की है, उससे न सिर्फ़ यह कि उसकी इज़्ज़त मिट्टी में मिल गयी है, बल्कि अमरीका भी बेइज़्ज़त हुआ है, युरोप के कुछ मशहूर मुल्कों की इज़्ज़त भी गयी है, बल्कि इससे पश्चिमी सभ्यता व संस्कृति की इज़्ज़त भी चली गयी है। वेस्टर्न कल्चर, पश्चिमी संस्कृति वही सभ्यता है जिसका झंडा उठाने वाले किसी युरोपीय देश का प्रमुख, जब इस्राईल फ़ास्फ़ोरस बम गिराता है और 5 हज़ार बच्चों को शहीद कर देता है तो वह कहता है कि इस्राईल आत्मरक्षा कर रहा है! यह सेल्फ़ डिफ़ेंस है? वेस्टर्न कल्चर यह है, इस मामले में पश्चिमी सभ्यता की भी बेइज़्ज़ती हुई है। लगभग 50 दिनों में जो भयानक अपराध हुए हैं, वो उन अपराधों का सार है जो बीते 75 बरसों से फ़िलिस्तीन में जायोनी शासन कर रहा है, अब उसमें तेज़ी ला दी है वरना इन बरसों में उसने हमेशा ये सब किया हैः लोगों का क़त्ल किया है, लोगों को उनके घरों से निकाला है, घरों को तबाह कर दिया है। यही जो कॉलोनियां बनी हैं, वह कहां बनी हैं, ज़ायोनी कॉलोनियां कहां बनी हैं? आम लोगों के घरों को गिराया गया, फ़िलिस्तीनियों के खेतों को तबाह किया गया और वहां पर ज़ायोनी कॉलोनी बना दी गयी। अगर कोई खड़ा हो गया तो उसे मार डाला, बच्चा हुआ तो उसे भी मार डाला, महिला हुई तो उसे भी क़त्ल कर डाला, यह वह करतूत है जो ये ज़ायोनी 75 बरस से कर रहे हैं। मेरी नज़र में अलअक़्सा तूफ़ान ख़त्म नहीं होने वाला है इन्शाअल्लाह और वो लोग यह भी जान लें कि यह जो स्थिति है यह भी जारी रहने वाली नहीं है।
जी तो मेरी बातें ख़त्म हुईं लेकिन मैं बसीज फ़ोर्स को कुछ नसीहतें करना चाहता हूं। यह सिफ़ारिशें, बसीज संस्था से भी हैं और कुछ सिफ़ारिशें इस फ़ोर्स के हर मेंबर से हैं। पहली सिफ़ारिशः सूझबूझ बढ़ाएं, अपने अंदर भी, और दूसरों में भी। सूझबूझ बहुत अहम चीज़ है।
अगली सिफ़ारिशः अहम कामों की बागडोर अपने हाथों में लें, दुश्मन के जाल में न फंसें। अगर हम में सूझबूझ होगी, तो हम समझ जाएंगे कि इस मामले में दुश्मन का प्लान क्या है, तो हम दुश्मन के प्लान के हिसाब से कोई काम नहीं करेंगे, यानी आजकल जो कहते हैं कि दुश्मन के ग्राउंड में नहीं खेलेंगे।
अगली सिफ़ारिशः भविष्य से उम्मीद को कभी न गवाएं, भड़कावे में कभी न आएं। आज के नौजवानों में हमेशा उम्मीद ज़िंदा रहने की सब से बड़ी वजह यह है कि उनका यह मुल्क इन 40-45 बरसों में हमेशा पाबंदी का शिकार रहा, हमेशा आर्थिक घेराबंदी में रहा, लेकिन फिर भी इतनी तरक़्क़ी की। न सिर्फ़ हथियारों के मैदान में कि जिसके बारे में टीवी पर रिपोर्टें आयीं और सब ने देखा, बल्कि मुल्क के विभिन्न मैदानों में, सर्विसेज़ में, विभिन्न जनविभागों में सुविधाओं के मैदान में, कम्यूनिकेशन, साइंस, तकनीक, पैदावार, जैसे क्षेत्रों में असाधारण रूप से विकास हुआ है, यह तरक़्क़ी ऐसे हालात में है कि दुश्मन ने अपनी समझ से तरक़्क़ी के सारे रास्ते हमारे लिए बंद कर रखे हैं, व्यापार मना, निर्यात मना, बहुत सी चीज़ों का आयात मना, इन हालात में हमारे मुल्क ने तरक़्क़ी की। तो इस तरह के मुल्क में जो इन हालात में भी तरक़्क़ी करे, नाउम्मीद होने की कोई वजह है? आप सब कुछ कर सकते हैं। आज तक हमने जो तरक़्क़ी की है आप उससे सौ गुना ज़्यादा आगे जा सकते हैं, अगर मैदान में रहें, अगर कोशिश करें, अगर काम करें कि जो आप सब करते हैं।
अगली सिफ़ारिशः घमंड से बचें, जैसा कि मैंने कहा, घमंडी न बनें। यह चीज़ कि “हम इतने अच्छे हैं, इतने इज़्ज़तदार हैं, इतने बड़े बसीजी हैं, हमारी इतनी तारीफ़ें होती हैं, इमाम ख़ुमैनी ने यह कहा था, दूसरों ने वह कहा था” आप लोगों को घमंडी न बना दें। ख़ुदा का शुक्र अदा करें कि आपको उसने यह मौक़ा दिया कि आप बसीजी बनें। ख़ुदा का शुक्र करें और ख़ुदा से दुआ करें कि वह यह नेमत आप से छीन न ले।
अगली सिफ़ारिशः बड़े बड़े कामों के लिए ख़ुद को कमज़ोर न समझें। अगर हमारे सामने कोई ऐसा काम आ जाए जो हम नहीं कर पा रहे हों तो अगर हम ठोस इरादा रखें, सब्र रखें, कोशिश करें तो यक़ीनी तौर पर उसका हल निकल आएगा और वह काम हो जाएगा। ऐसे काम जो तत्काल रूप से जब उन्हें हम देखते हैं तो हमें लगता है कि यह काम नहीं किये जा सकते तो उसका रास्ता यही है कि इरादा मज़बूत करें और सब्र करें जल्दबाज़ी न करें और कोशिश भी करते रहें। यक़ीनी तौर पर हम हर बड़ा काम कर सकते हैं। किसी भी दशा में ख़ुद को मजबूर न समझें।
अगली सिफ़ारिशः जैसा कि मैंने पहले कहा, दिखावे के लिए किये जाने वाले कामों से बचें कि जो खोखले काम हों। हां शोकेस में कुछ चीज़ें रखी जा सकती हैं, कोई बुराई भी नहीं उसमें, लेकिन उसका कोई अर्थ होना चाहिए।
अगली सिफ़ारिशः यह जो आपको नाम और ओहदा दिया गया है यानी बसीजी होने का नाम, बसीजी का ओहदा, यह आपके पास ख़ुदा की अमानत है, इस अमानत की क़द्र करें, अमीन बनें, इस अमानत की अच्छी तरह से हिफ़ाज़त करें।
अगली सिफ़ारिशः झूठी धड़ेबंदी से बचें। हमारे मुल्क में हमेशा धड़ेबंदी की जाती है, यह उसका समर्थक है, वह इसका समर्थक है, यह इस विचारधारा का मानने वाला है, वह उस विचारधारा को मानता है, यह क्या बात हुई! जो लोग आपकी बुनियादी बातों को, आपके उसूलों को, आपके दीन को, आपके इन्क़ेलाब को, आपके सुप्रीम लीडर के नेतृत्व को, इन सब चीज़ों को मानते हैं, वह आपके भाई हैं भले ही उनकी पसंद आपसे कुछ मामलों में अलग हो। एक और वह चीज़ जिसका दुख होता है और जिसकी शिकायत करना चाहिए वह बातें हैं जो सोशल मीडिया पर की जाती हैं, एक बेबुनियाद बात पर यह उस पर हमला करता है वह इस पर धावा बोलता है! बचें इससे, आप बसीजी हैं, यह काम न करें।
आख़िरी सिफ़ारिशः आप्रेशनल फ़ोर्स के साथ ही, प्लानिंग करने वालों को भी अपने साथ ले आएं। उपाय और प्लानिंग की बहादुरी से पहले ज़रूरत होती है। उपाय व रणनीति के साथ आगे बढ़ें।
मेरी आख़िरी बात यह है कि अल्लाह पर भरोसा रखें क्योंकि “जो उस पर भरोसा करता है तो वह उसके लिए काफ़ी होता है”।(17) अल्लाह इन्शाअल्लाह आप सबकी हिफ़ाज़त करे।
वस्सलामो अलैकुम व रहमतुल्लाहे व बरकातुह
1) इस मुलाक़ात के शुरु में बसीज संस्था के प्रमुख जनरल ग़ुलाम रज़ा सुलैमानी ने एक रिपोर्ट पेश की।
2) सहीफ़ए इमाम ख़ुमैनी, जिल्द 21 पेज 194, बसीज सप्ताह के मौक़े पर ईरानी क़ौम और बसीज के नाम संदेश (1988-11-23)
3) सहीफ़ए इमाम ख़ुमैनी, जिल्द 21 पेज 194, बसीज सप्ताह के मौक़े पर ईरानी क़ौम और बसीज के नाम संदेश (1988-11-23)
4) सहीफ़ए इमाम ख़ुमैनी, जिल्द 21 पेज 194, बसीज सप्ताह के मौक़े पर ईरानी क़ौम और बसीज के नाम संदेश (1988-11-23)
5) सूरए फ़त्ह आयत 29 की तरफ़ इशारा है जिसमें कहा गया है कि मोमिन काफ़िरों के साथ कठोर और आपस में मेहरबान होते हैं।
6) शहीद मोहसिन फ़ख़्रीज़ादे, जो ईरान के एटमी व डिफ़ेंस के वैज्ञानिक थे, जिन्हें 27 नवंबर सन 2020 में दमावंद के आबसर्द इलाक़े में शहीद कर दिया गया।
7) ईरान के वैज्ञानिक और इस्लामी इन्क़ेलाब के अहम ओहदेदार जिन्होंने ईरान में जीवविज्ञान के मैदान में काफ़ी अहम काम किये। वह रोयान रिसर्च सेंटर के डायरेक्टर भी रहे और उनके दौर में ईरान ने बांझपन के इलाज, स्टम सेल्स को फ़्रीज़ करने और जानवरों की क्लोनिंग के मैदान में बहुत तरक़्क़ी की।
8) छात्रों से मुलाक़ात में तक़रीर (2022-04-26)
9) बसीज संस्था के प्रमुख जनरल ग़ुलाम रज़ा सुलैमानी ने अपनी रिपोर्ट में संस्कृति, समाज, सुरक्षा, सांइस और बयान, सेवा, और उम्मीद पैदा करने के जेहाद के सिलसिले में इस संस्था की कार्यवाहियों का ब्योरा दिया और ज़ोर दिया कि यह सेना, मुल्क के ख़िलाफ़ हर क़िस्म के ख़तरे का सामना करने और ज़ायोनी शासन के अपराधों से मुक़ाबला करने पर तैयार है।
10) बीसवीं दुआ
11) सहीफ़ए इमाम ख़ुमैनी, जिल्द 21 पेज 194, बसीज सप्ताह के मौक़े पर ईरानी क़ौम और बसीज के नाम संदेश (1988-11-23)
12) अनवरी, शेरों का संकलन, क़सीदे, कुछ फ़र्क़ के साथ
13) अमरीका के रिटायर्ड जनरल रॉल्फ़ पीटर्स ने जून 2006 में “ब्लड बॉडर्स” की सुर्ख़ी के साथ अपने एक लेख में पश्चिमी एशिया का “नया मध्यपूर्व” के नाम एक नक़्शा पेश किया और इस इलाक़े में होने वाले कठिन बदलाव को शांति तक पहुंचने के लिए ज़रूरी पीड़ा का नाम दिया। ग्रेटर मिडिल ईस्ट के बजाए न्यू मिडिल ईस्ट उस वक्त मशहूर हुआ जब उस वक़्त की अमरीकी विदेश मंत्री कोन्डोलीज़ा राइस ने 21 जूलाई को तेलअबीब में 33 दिवसीय जंग में लेबनान पर ज़ायोनी शासन के हमले को “न्यू मिडिल ईस्ट की पैदाइश से पहले होने वाली प्रसव पीड़ा” का नाम दिया और कहा कि हम जो भी करें इस यक़ीन के साथ करें कि हमारा दबाव एक नये मिडिल ईस्ट की रचना की तरफ़ हो न कि पुराने मिडिल ईस्ट की तरफ़ वापसी की दिशा में।
14) जे गार्नर
15) पॉल ब्रेमर
16) ग़ाज़ी मशअल अजील अलयावर
17) सूरए तलाक़ आयत नंबर 3, “जो भी ख़ुदा पर भरोसा करता है तो वह उसके लिए काफ़ी होता है”।