इस्लामी इंक़ेलाब के नेता आयतुल्लाहिल उज़मा सैयद अली ख़ामेनेई ने 20 मई 2025 को पूर्व राष्ट्रपति शहीद रईसी और हेलीकाप्टर की दुर्घटना में उनके साथ शहीद होने वालों की पहली बरसी पर अपने ख़िताब में शहीद रईसी के इख़लास और गुणों को नमूना और सबक़ क़रार दिया।
ख़िताब इस प्रकार हैः
बिस्मिल्लाह अर्रहमान अर्रहीम
अरबी ख़ुतबे का अनुवादः सारी तारीफ़ पूरी कायनात के पालनहार के लिए है और दुरूद व सलाम हो हमारे सरदार व रसूल हज़रत अबुल क़ासिम मुस्तफ़ा मोहम्मद और उनकी पाक व पाकीज़ा और चुनी हुई नस्ल पर ख़ास कर ज़मीनों पर अल्लाह के ज़रिए बाक़ी रखी गई हस्ती पर।
यह सभा हमारे अज़ीज़ शहीद राष्ट्रपति जनाब रईसी और जनसेवा की राह के दूसरे शहीदों की याद में आयोजित हुई है जो उनके साथ पेश आयी कटु घटना में शहीद हुए; शहीद आले हाशिम,(1) शहीद अमीर अब्दुल्लाहियान(2) एयर स्टाफ़ के शहीद(3) आज़रबाइजान प्रांत के गवर्नर(4) सुरक्षा टीम के कमांडर(5) आज ही के दिन इन लोगों की शहादत ने ईरानी क़ौम को दुखी कर दिया था।
इंसान की ज़िंदगी में मीठी और कटु घटनाओं का क्रम चलता ही रहता है और ये गुज़र जाती हैं। अहम यह है कि हम इन घटनाओं पर ध्यान दें और इन घटनाओं के परिप्रेक्ष्य में इतिहास से अपने अतीत और ख़ुद इन घटनाओं से पाठ हासिल करें।
मैं शहीद रईसी के बारे में कुछ बातें अर्ज़ करुंगा, लेकिन मक़सद सिर्फ़ तारीफ़ नहीं है, हालांकि जो अर्ज़ करुंगा वह इस शहीद की तारीफ़ है लेकिन मक़सद सिर्फ़ तारीफ़ नहीं है बल्कि पाठ हासिल करना है।
हम सब, हमारी आने वाली नस्लें, हमारे नौजवान और वे लोग जो इस मुल्क की सत्ता संभालेंगे, इस क़ौम के लिए काम करेंगे, वे सुनें, जान लें और देखें कि इस तरह की ज़िंदगी, अवाम के जज़्बात पर, मुल्क के भविष्य पर और मुल्क के हालात पर क्या असर डालती है; ये सब सबक़ है।
पहली बात जो शहीद रईसी के बारे में अर्ज़ करुंगा वह यह है कि क़ुरआन मजीद की यह आयत उन पर चरितार्थ होती थी,"यह आख़ेरत का घर उन लोगों के लिए क़रार देते हैं जो ज़मीन में तकब्बुर व सरकशी और फ़साद बरपा करने का इरादा भी नहीं करते और (नेक) अंजाम तो परहेज़गारों के लिए ही है।"(सूरए क़सस, आयत83)(6) यह मुल्क चलाने का मानदंड है। ज़मीन में तकब्बुर का इरादा भी नहीं करते। सूरए क़सस में जिसमें यह आयत है, यह आयत सूरे के अंतिम भाग में है, इस सूरे के शुरू में इरशाद होता है, "बेशक फ़िरऔन ज़मीन (मिस्र) में सरकश हो गया था..." (सूरए क़सस, आयत-4)(7), उसके मुक़ाबिले का बिंदु यह है; वह बुलंदी चाहता हैः क्या मिस्र की सल्तनत मेरी नहीं है? और ये नहरें जो मेरे नीचे बह रही हैं तो क्या तुम देखते नहीं हो? (सूरए ज़ुख़रुफ़ आयत-51)(8) ख़ुद को श्रेष्ट समझना, अपना बोझ लोगों पर डालना और अवाम को गिरी निगाह से देखना, फ़िरऔनी हुकूमक की ख़ुसूसियत है।
इसके बिल्कुल विपरीत, अल्लाह की हुकूमत की ख़ुसूसियत हैः "ज़मीन में तकब्बुर का इरादा भी नहीं करते।" जिसकी भरपूर मिसाल शहीद रईसी थे; उनकी राजनैतिक और सामाजिक हैसियत बहुत ऊंची थी। वह ख़ुद दौरे करते थे, उनमें आप देखते थे, लोगों से जो मुलाक़ातें करते थे, लोग उनसे किस तरह श्रद्धा का इज़हार करते थे, कितने लगाव का इज़हार करते थे, लेकिन वह ख़ुद को दूसरों से श्रेष्ठ नहीं समझते थे। ख़ुद को अवाम के बराबर, उनके जैसा और कुछ मामलों में अवाम से भी कमतर समझते थे। वह इस नज़रिए के साथ मुल्क चलाते थे, हुकूमत चलाते थे और मामलों को आगे बढ़ाते थे। इन राजनैतिक और सामाजिक सहूलतों से अपने लिए कुछ नहीं चाहते थे। अपने लिए कुछ नहीं लेते थे, उनकी सारी क्षमता, सारी ताक़तें, सब कुछ अवाम की सेवा के लिए था, अवाम के लिए था, अल्लाह के बंदों की सेवा के लिए था। राष्ट्रीय सम्मान को ऊंचा करने के लिए था; अल्लाह की राह में सेवा के लिए और सेवा की राह में ही अपने ख़ुदा से जा मिले। यह इस अज़ीज़ शहीद की बहुत अहम ख़ुसूसियत थी जिसे सीखने की ज़रूरत है। अलहम्दु-लिल्लाह इस्लामी सिस्टम में ऐसी ख़ुसूसियत रखने वालों की कमी नहीं है लेकिन बहरहाल इनसे सबक़ हासिल करना चाहिए। इसे अवाम में फैलाने की ज़रूरत है।
शहीद रईसी का दिल अल्लाह के डर और उसकी याद से भरा था। उनकी ज़बान साफ़ और सच्ची थी। निरंतर अथक काम करते थे। ये तीन तत्व हैं: दिल, ज़बान और अमल। किसी भी इंसान की शख़्सियत और स्वभाव को समझने के लिए, ये तीन बुनियादी तत्व हैं, उसका दिल, उसकी ज़बान और उसका अमल।
शहीद रईसी का दिल, अल्लाह की याद, उसके डर और उससे तवस्सुल वाला था; यह बात हमने अच्छी तरह नोटिस की थी। पहले से, राष्ट्रपति बनने से पहले यहाँ तक न्यायपालिक प्रमुख बनने से पहले हम नोटिस करते थे, जानते थे कि उनके दिल में अल्लाह का डर और तवस्सलु है और उनका दिल अल्लाह से मानूस था। उनका दिल एक तरफ़ ऐसा था और दूसरी तरफ़ अवाम के लिए मेहरबानी से भरा हुआ था। अवाम का शिकवा नहीं करते थे। अवाम के बारे में बदगुमान नहीं थे। अवाम की शिकायत नहीं करते थे। एक बात जो बहुत होती थी, वह यह थी कि वह अवाम से मिलते थे, लोग आते थे और शिकायत करते थे, बोलते थे, मुमकिन है कि कभी कभी कटु बातें की हों, लेकिन वे अवाम पर मेहरबान थे और इस तरह के रवैये से, ऐसी निगाहों से और हरकतों से नाराज़ नहीं होते थे।
दूसरी ओर उन्हें इस्लामी फ़रीज़े को अंजाम देने की फ़िक्र थी। वह अल्लाह के साथ भी थे और अवाम के साथ भी थे। उन्हें इस्लामी फ़रीज़े को अंजाम देने की फ़िक्र भी रहती थी कि फ़रीज़ा अदा हुआ कि नहीं। इस तरह जो अंजाम दिया, वह काफ़ी है या नहीं? उन्हें हमेशा इस बात की चिंता रहती थी। मुझसे निरंतर मिलते थे, नज़र आता था कि उन्हें काम की फ़िक्र है। फ़रीज़ा अंजाम देने की फ़िक्र है। ज़िम्मेदारी की अहमियत महसूस करते थे। उन्होंने न्यायपालिका की अध्यक्षता सिर्फ़ शरीअत की ओर से फ़र्ज़ होने की हैसियत से क़ुबूल की थी। यह मैं क़रीब से जानता था। राष्ट्रपति पद के चुनाव में सिर्फ़ शरीअत के लेहाज़ से वाजिब होने वाले फ़रीज़े को अंजाम देने के लिए हिस्सा लिया। इस ज़िम्मेदारी की भावना की बात बहुत से लोग करते हैं लेकिन हम जानते हैं कि उन्होंने शरीअत की ओर से फ़र्ज़ होने की वजह से चुनाव में हिस्सा लिया। उन्होंने ज़िम्मेदारी को महसूस किया और आए और वहाँ भी रहे और यहाँ भी। उनके दिल में यह रुझान था। यह उनके दिल की हालत थी।
उनकी ज़बानः वह अवाम से साफ़ अंदाज़ में सच्च बात करते थे। वे अवाम से अस्पष्ट या सांकेतिक अंदाज़ मे बात नहीं करते थे। साफ़, स्पष्ट और सच्ची बात करते थे। उनसे कहा गया था कि अवाम से कहें कि अगर कर सके तो अंजाम देंगे और जहाँ न कर सके, वहाँ अवाम से कहेंगे कि नहीं कर सकते। वह भी इसी तरह अमल करते थे। साफ़ अंदाज़ और सच्चाई के साथ। यह साफ़ अंदाज़ और सच्चाई यहाँ तक कि उनकी कूटनीतिक वार्ताओं में भी नज़र आती थी और सामने वाले को प्रभावित करती थी। कूटनैतिक बातचीत में जहाँ बातें घुमाई जाती हैं और नीयतें छिपाई जाती हैं, वे साफ़ अंदाज़ में और सच बात करते थे और सामने वाले को प्रभावित करते थे और वह उन पर भरोसा करते थे। जानते थे कि जो कहते हैं सही कहते हैं। राष्ट्रपति काल में, पहले इंटरव्यू में, रिपोर्टर ने उनसे पूछा कि क्या आप अमरीका से वार्ता करेंगे? उन्होंने अस्पष्ट बात नहीं की, साफ़ तौर पर कहा कि नहीं! और नहीं किया। उन्होंने इस बात की इजाज़त नहीं दी कि दुश्मन यह कह सके कि मैं धमकी से, लालच और मक्कारी से ईरान को वार्ता की मेज़ पर लाया। उन्होंने यह मौक़ा नहीं दिया। यह जो सामने वाला पक्ष सीधे तौर पर वार्ता के लिए आग्रह कर रहा है, इसलिए है; अहम लक्ष्य यह है, उन्होंने इसकी इजाज़त नहीं दी। अलबत्ता इनडायरेक्ट वार्ता उनके दौर में भी थी, जिस तरह के अब हो रही है, लेकिन बेनतीजा रही। अब भी मैं नहीं समझता हूं कि इसका नतीजा आएगा, पता नहीं क्या होगा।
वार्ता की बात हुई तो मैं ब्रेकिट में दूसरे पक्ष को एक चेतावनी दे दूं। अमरीकी पक्ष, जो इन अप्रत्यक्ष वार्ताओं के बारे में बात करता है, वार्ता करता है, कोशिश करे कि फ़ुज़ूल बातें न करे। यह जो वह कहता है कि कि हम ईरान को यूरेनियम संवर्धन की अनुमति नहीं देंगे, यह अपनी औक़ात से बढ़ कर बात करना है। कोई भी इसकी या उसकी अनुमति के इंतेज़ार में नहीं बैठा है। इस्लामी गणराज्य की अपनी एक नीति और शैली है, वह अपनी नीतियों पर चल रहा है। अलबत्ता मैं किसी और मौक़े पर ईरानी राष्ट्र को विस्तार से बताऊंगा कि ये लोग यूरेनियम संवर्धन की जो इतनी बातें कर रहे हैं उसकी वजह क्या है? पश्चिमी व अमरीकी पक्ष और दूसरे लोग क्यों इस बात पर इतना ज़ोर दे रहे हैं कि ईरान में यूरेनियम का संवर्धन नहीं होना चाहिए। इंशा अल्लाह, मैं इस बारे में ईरानी राष्ट्र को फिर कभी विस्तार से बताऊंगा ताकि वह जान ले कि सामने वाले पक्ष की मंशा क्या है।
उनकी (शहीद रईसी की) ज़बान ऐसी थी: ज़बान सच्ची, पाक, गर्मजोशी से भरी और साफ़ थी। यह बहुत अहम है। अगर हम इस तरह बोलने की अहमियत और क़द्र को समझना चाहें, जो शहीद रईसी का तरीक़ा था कि बेलाग और सच्चाई के साथ बात करें, तो इसकी तुलना कुछ पश्चिमी मुल्कों के नेताओं की बातों से करें जिन्होंने सालों से चिल्ला-चिल्ला कर शांति और मानवाधिकार के दावे करके दुनिया के कान का पर्दा फाड़ दिया, हमेशा मानवाधिकार का दम भरते हैं लेकिन हज़ारों मज़लूम बच्चों के जनसंहार पर, बड़े लोगों के जनसंहार की बात नहीं है, थोड़े से समय में ग़ज़ा में हज़ारों बच्चे शहीद कर दिए गए, शायद बीस हज़ार से ज़्यादा बच्चे क़त्ल कर दिए गए और ये जो मानवाधिकार का इतना दम भरते हैं, न सिर्फ़ यह कि इन्होंने इस क़त्ले आम को नहीं रोका बल्कि ज़ालिम की मदद भी की! उनके शांति और सुलह के दावों, उनके मानवाधिकार के दावों और उनकी झूठी ज़बान की, शहीद रईसी जैसे एक राष्ट्रपति की सच्चाई और साफ़गोई से तुलना करें तो इसकी अहमियत पता चलेगी। यह उनकी ज़बान और वह उनका दिल।
तीसरा काम। शहीद लगातार काम करते थे; बिना रुके! रात-दिन नहीं देखते थे। अनथक मेहनत करते थे। मैं बार-बार उनसे कहता था कि थोड़ा ख़याल रखें, शायद सेहत प्रभावित हो, कभी-कभी इंसान बीमार पड़ जाता है, फिर काम नहीं कर पाता। वे कहते थे कि मैं काम से नहीं थकता। लगातार काम, लगातार काम और अच्छा काम, जनता की सेवा, सीधे जनता की सेवा। जैसे किसी शहर को पानी की पाइप लाइन से जोड़ना है, पानी पहुँचाना है, रास्ता निकालना है, रोज़गार देना है, कई हज़ार बंद पड़े कारख़ानों को चलाना है, जो काम तीन-चार साल में पूरा हो जाना चाहिए था, वह दस-पंद्रह साल से अधूरा पड़ा था, शहीद रईसी ने इन कामों का बीड़ा उठाया, बहुत से शहरों में ये काम किए, उन शहरों की जनता ने अपनी आँखों से यह सेवा देखी और इसे महसूस किया। यह एक तरह से जनता की सेवा थी।
एक सेवा, देश की इज़्ज़त और ईरान के लोगों की प्रतिष्ठा की है। ईरान के लोगों की प्रतिष्ठा! अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों के मुताबिक़, ईरान का आर्थिक विकास तीन साल में शून्य से बढ़कर पांच प्रतिशत हो गया, यह राष्ट्र के लिए गर्व की बात है। यह देश की इज़्ज़त है, यह देश की तरक्क़ी का सबूत है। यह और इस तरह के बहुत से काम हुए हैं। विभिन्न वैश्विक आर्थिक संगठनों में सदस्यता हासिल करना और उसे मज़बूत करना, ईरान के लोगों के लिए अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर गर्व की बात है। जब देश के राष्ट्रपति संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा में क़ुरआन हाथ में लेकर खड़े हों या शहीद सुलैमानी की तस्वीर हाथ में लेकर खड़े हों तो यह पूरे राष्ट्र के लिए गर्व की बात है जो राष्ट्र की इज़्ज़त बढ़ाता है। यह दूसरी तरह की सेवा है। इन बरसों में इस अज़ीज़ शहीद ने दोनों तरह की सेवाएं की हैं।
मैं जो नतीजा निकालना चाहता हूं वह यह है कि अहम बात यह है कि शहीद रईसी और उनके बहुत से नौजवान साथियों में वही जज़्बा और नूरानियत देखने को मिलती है, जो शहीद रजाई के साथियों जैसे, कलान्तरी (9), अब्बास पूर (10), क़ंदी (11), नीली (12) और उन जैसे दूसरे लोगों में देखी जाती थी। वही नूरानियत, वही उत्साह, वही ज़िम्मेदारी का एहसास, और वह भी चालीस साल बाद! यह बहुत अहम है; यह वही इंक़ेलाबी ताक़त है। इससे पता चलता है कि यह क्रांति एक सशक्त क्रांति है, यह वही इमाम ख़ुमैनी (रहमतुल्लाह अलैह) की सबसे बड़ी जीत है। उन्होंने क्रांति के माध्यम से लाभदायक और बलिदान की भावना रखने वाले लोगों के प्रशिक्षण को सबसे बड़ी जीत कहा था, यह हासिल हुई है।
जब 1979 में क्रांति सफल हुई तो शहीद रईसी 18 साल के युवा थे; शहीद आले हाशिम 16 साल के थे, शहीद अमीर अब्दुल्लाहियान 14 साल के किशोर थे, शहीद मालिक रहमती तो पैदा भी नहीं हुए थे; ये सब क्रांति की देन थे। शहीद रईसी मशहद से, आले हाशिम तबरेज़ से, रहमती मराग़े से, अमीर अब्दुल्लाहियान दामग़ान से, मूसवी इस्फ़हान के फ़रीदून शहर से, मुस्तफ़वी गुंबदे क़ाबूस से, दरियानूश नजफ़ाबाद से, क़दीमी अबहर से; ये जवान देश के अलग-अलग कोनों से उठे और आगे बढ़े। क्रांति ने ऐसे लाखों युवाओं को तैयार किया और उनमें से अंतर्राष्ट्रीय स्तर के प्रतिभावान लोग, महान हस्तियां ईरान को दीं; यह क्रांति का काम है, यह क्रांति की ताक़त है, यह क्रांति की ख़ासियत है कि उसने 40 साल में 80-90 साल के बुज़ुर्ग शहीद आयतुल्लाह अशरफ़ी (13) और 18 साल के युवा शहीद आरमान अलीवेर्दी को एक ही पंक्ति में खड़ा कर दिया, उन्हें तैयार किया और आगे बढ़ाया। इस नौजवान जैसे बहुत युवा उसी राह में शहीद हुए जिसमें शहीद अशरफ़ी और शहीद सदूक़ी जैसी हस्तियां शहीद हुईं। बुज़ुर्ग लोग, इंक़ेलाब की शुरुआत में शहीद हुए। क्रांति में यह ताक़त पाई जाती है कि उसने इन बरसों में ऐसे युवा तैयार कर दिए। यह अजेय है।
इंक़ेलाब की क़द्र और अहमियत को समझें, इसके प्रशिक्षण और व्यक्तित्व निर्माण की क़द्र को समझें, ईरानी राष्ट्र के इस महान आंदोलन की क़द्र को समझें, ख़ुदा से मदद मांगें और इस राह पर आगे बढ़ें, इंशा अल्लाह ईरानी राष्ट्र, मानवता के लिए एक अमर पाठ लिखेगा और अल्लाह के फ़ज़्ल व करम से यह सेवा पूरी दुनिया, पूरी मानवता को पेश करेगा।
आप सब पर सलाम और अल्लाह की रहमत व बरकत हो।