इस्लामी इंक़ेलाब के नेता आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई ने 18 फ़रवरी 2023 को अपनी तक़रीर में पैग़म्बरे इस्लाम की बेसत और पैग़म्बरी के एलान के विषय पर रौशनी डाली। देश के ओहदेदारों और इस्लामी देशों के राजदूतों के बीच तक़रीर करते हुए उन्होंने पैग़म्बरे इस्लाम की बेसत को बेमिसाल ख़ज़ानों का स्रो क़रार दिया। (1)
तक़रीर का अनुवाद पेश किया जा रहा हैः
बिस्मिल्लाह-अर्रहमान-अर्रहीम
अरबी ख़ुतबे का अनुवादः सारी तारीफ़ पूरी कायनात के मालिक के लिए है, दुरूद व सलाम हो हमारे सरदार हज़रत मोहम्मद और उनकी पाक नस्ल, ख़ास तौर पर ज़मीन पर अल्लाह की आख़िरी हुज्जत इमाम महदी अलैहिस्सलाम पर।
यहाँ मौजूद आप सभी लोगों को, ईरानी क़ौम को, पूरी दुनिया के मुसलमानों और सत्य की तलाश में रहने वाले सभी लोगों को ईदे बेसत की मुबारकबाद देता हूं। अगर बेसत की आवाज़ दुनिया में सच्चाई की तलाश में रहने वाले लोगों के दिलों तक पहुंचे तो वे यक़ीनी तौर पर इसकी ओर आकर्षित होंगे।
इंसान के अंदाज़े के मुताबिक़, पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहि व आलेही व सल्लम की बेसत पूरी इंसानियत को अल्लाह की तरफ़ से मिलने वाला सबसे क़ीमती तोहफ़ा है। अल्लाह के तोहफ़े तो ʺऔर अगर तुम अल्लाह की नेमतों को शुमार करना चाहो तो शुमार नहीं कर सकते।ʺ (2) लेकिन कोई भी नेमत, कोई भी तोहफ़ा पैग़म्बरे इस्लाम की बेसत जैसा अज़ीम व महत्वपूर्ण नहीं है। इसकी वजह यह है कि बेसत में इंसानों के लिए ऐसे ख़ज़ाने हैं जो कभी ख़त्म नहीं होंगे। मुमकिन है इंसान इन ख़ज़ानों से फ़ायदा उठाए, मुमकिन है फ़ायदा न उठाए लेकिन ये अज़ीम ख़ज़ाना जो बेसत इंसानियत के लिए लाई है, उसके अख़्तियार में दिया है, ये ख़ज़ाने इंसान की दुनिया की पूरी ज़िन्दगी में -परलोक से पहले तक- क़िस्मत सवांर सकते हैं। इंसान अंदाज़ा लगाकर और सही हिसाब किताब के ज़रिए इस मंज़िल तक पहुंच सकता है। सवाल यह है कि ये ख़ज़ाने क्या क्या हैं?
सबसे पहले तौहीद। तौहीद ऐसा ख़ज़ाना है कि कोई भी चीज़ उसके जैसी क़द्र व क़ीमत वाली नहीं है। इसलिए कि अल्लाह की इबादत इंसान को दूसरों की ग़ुलामी और बंदगी से रिहाई दिलाती है। इंसानों की मुसीबत यही तो है, इंसानों की मुसीबत, दूसरों के चंगुल में फंसा रहना है, पूरे इतिहास में यह सिलसिला रहा है, यह, अल्लाह की बंदगी से ख़त्म हो जाती है। अगर इंसान हक़ीक़त में अल्लाह का बंदा हो जाए और हक़ीक़त में तौहीद का दामन थाम ले, जो अल्लाह के अलावा दूसरों के सहारे को नकारने के अर्थ में है, तो दूसरों की ग़ुलामी से आज़ाद हो जाएगा और उन चीज़ों से भी जिसे आपने इतिहास में देखा और सुना है, क़त्ल, ज़ुल्म, नरसंहार, जंग वग़ैरह। यह बेसत के तोहफ़ों में से एक तोहफ़ा है।
तज़किया अर्थात मन को बुराइयों से पाक करना एक और तोहफ़ा है, (उनको पाकीज़ा बनाता है) (3) जो हक़ीक़त में इंसान को बुराई से मुक्ति दिलाने वाली दवा है। तज़किये के ज़रिए, इंसानी समाज से, इंसान के वजूद से और इंसान के मन से मुख़्तलिफ़ तरह की नैतिक बुराइयां दूर होती हैं और वह पाक होता है।
किताब की तालीम, एक और तोहफ़ा है। और उनको किताब की तालीम देता है (4) किताब की तालीम। किताब की तालीम यानी ज़िन्दगी को अल्लाह की हिदायत के तहत चलाना। अल्लाह ने जो सभी चीज़ों का मालिक, पैदा करने वाला, पालने वाला है, इंसान की ज़िन्दगी के लिए एक रास्ता तय किया है ताकि इंसान उस रास्ते पर चले, किताब की तालीम का मतलब यह है। और हिकमत, और उनको किताब और हिकमत की तालीम देता है (5) यानी समाज को बुद्धि, हिकमत, अक़्लमंदी, समझदारी की बुनियाद पर चलाया जाए। ये सब आख़िरी पैग़म्बर की बेसत के तोहफ़े हैं। अलबत्ता इनमें से कुछ या बहुत से उसूल, दूसरे पैग़म्बरों के जैसे हैं, एकसमान हैं, मगर यह उसका पूरी तरह मोकम्मल रूप है।
एक और तोहफ़ा जो वाक़ई ख़ज़ाना है और उन ख़ज़ानों का हिस्सा है जो बेसत में हैं, वह दृढ़ता की तालीम है। दृढ़ता ही मंज़िल तक पहुंचने का राज़ व कुंजी है। आपका जो भी मक़सद हो -दुनिया से संबंधित या आख़ेरत से संबंधित- दृढ़ता से, लगातार लगे रहने से आप उस तक पहुंच सकते हैं, उसके बिना इस तक पहुंचना मुमकिन नहीं है। तो (हे रसूल) जिस तरह आपको हुक्म दिया गया है आप ख़ुद और वे लोग भी जिन्होंने तौबा कर ली है और आपके साथ हैं, (सीधे रास्ते पर) साबित क़दम रहें। (6) क़ुरआन ने हमें यह हुक्म दिया है, बेसत ने यह ख़ज़ाना हमें दिया है, हम सीखें और समझें कि क्या करना चाहिए।
न्याय का बेनज़ीर ख़ज़ाना, भेदभाव से पाक न्याय, चाहे आर्थिक मसलें में हो, चाहे मानवीय मसले में हो, सामान्य तौर पर सामाजिक न्याय के मसले में हो, यह भी एक ख़ज़ाना है जो बेसत से हमें मिला है। ज़िंदगी को न्याय के साथ गुज़ारिए। ताकि लोग अद्ल व इंसाफ़ पर क़ायम हों (7) ख़ुद इंसान अपनी ज़िंदगी को न्याय के साथ चला सकता है, पैग़म्बर इसलिए आए कि इंसान को इस रास्ते पर लगा दें, उसे चलना सिखाएं।
एक और क़ीमती ख़ज़ाना कि अफ़सोस उस पर ज़्यादा ध्यान नहीं दिया जाता, बुरा चाहने वालों के मुक़ाबले में सख़्त व सीसा पिलाई हुयी दीवार की तरह मज़बूत होना है। इंसानी समाजों को जो नुक़सान पहुंचते हैं उनमें से एक, उनके दुश्मनों की घुसपैठ से होने वाला नुक़सान है, जिसकी ओर क़ुरआन मजीद की इस आयत (वे काफ़िरों पर सख़्त हैं) में इशारा है। इस आयत में 'अशिद्दा' लफ़्ज़ आया है जिसका शदीद अमल करना नहीं है। इस आयत में 'अशिद्दा' का अर्थ वह नहीं है जो हम फ़ारसी में अमल में शिद्दत कह कर बयान करते हैं, 'अशिद्दा' का मतलब सख़्त होना, मज़बूत होना, अभेद्य होना, ये 'अशिद्दा' के मानी हैं। अपने समाज में काफ़िरों की घुसपैठ न होने दीजिए। दुश्मन की पैठ, ग़ैरों की पैठ, बुरा चाहने वालों की पैठ का मतलब यह है कि आपका ख़ुद कोई अख़्तियार नहीं रहता, वह आता है और आपके समाज में बेहोश इंसान की तरह कि जिसे जो चाहे इंजेक्ट कर दें, पांव जमा लेता है। आप अपने अख़्तियार से अच्छे, सुव्यवस्थित, तार्किक व अक़्लमंदी से भरपूर संपर्क बना सकते हैं, यह अच्छी बात है।
या समाज के लोगों में मेहरबानी, मोहब्बत और अपनाइयत। यह ʺआपस में मेहरबान हैंʺ (8) उसी ख़ज़ानों में से एक ख़ज़ाना है। समाज में ज़िन्दगी रहम, मुरव्वत और इन जैसी ख़ूबियों के साथ होनी चाहिए।
या इंसान दुनिया के सरकश व दुष्ट लोगों से दूरी अख़्तियार कर ले, उनका साथ न देः ʺताग़ूत की बंदगी से बचोʺ क़ुरआन में सरकशों से दूरी की हमें तालीम दी गयी है, यह भी उन ख़ज़ानों में से एक है जिससे हमेशा फ़ायदा उठाया जा सकता है और ज़िन्दगी को सही दिशा में ले जाया जा सकता है।
या जेहालत, भेदभाव और शिथिलता वग़ैरह के चंगुल से रिहाई, और उन पर से उनके बोझ उतारता है और वह जंज़ीरें खोलता है जिनमें वे जकड़े हुए थे। (10) क़ुरआन में, इस्लामी शिक्षाओं में, बेसत में इस तरह के हज़ारों बेमिसाल ख़ज़ाने हैं, ये सब बेसत ने हमें दिए हैं और हमारे लिए लेकर आयी है।
हम में से कुछ मुसलमान इन ख़ज़ानों को बिल्कुल नहीं पहचानते, हम में से कुछ उनका इंकार करते हैं, अल्लाह के इस अज़ीम तोहफ़े का शुक्र अदा नहीं करते। हम में से कुछ हैं जो उन पर फ़ख़्र करते हैं, लेकिन अमल नहीं करते, ऐसा ही तो है। इसका नतीजा यह है कि इस्लामी जगत आपसी फूट, पिछड़ेपन, इल्म और अमल दोनों लेहाज़ से कमज़ोरी का शिकार है, नतीजा यह है। किसी दौर में मुसलमानों ने इन अज़ीम बातों पर पूरी तरह नहीं, बल्कि आधा-अधूरा अमल करके, अपने ज़माने की सबसे अज़ीम सभ्यता क़ायम की थी, तीसरी और चौथी सदी हिजरी में, पूरी दुनिया में, पूरी ज़मीन पर किसी भी हुकूमत, किसी भी ताक़त, किसी भी क़ौम ने, मुसलमान क़ौम जितनी तरक़्क़ी नहीं की थी, मौजूद ही नहीं थी, हालांकि हम जानते हैं कि उस वक़्त भी अधूरा ही अमल किया जाता था, जो लोग सत्ता में थे, सही लोग नहीं थे, हर लेहाज़ से अच्छे व मुकम्मल इंसान नहीं थे, लेकिन फिर भी असर पड़ा। हम बेसत से मिलने वाले ख़ज़ानों का उपयोग करके इस्लामी दुनिया की कमज़ोरियों को दूर कर सकते हैं, चाहे इस्लाम की आध्यात्मिक शिक्षाओं का ख़ज़ाना हो, चाहे ‘अहकाम’ का ख़ज़ाना हो, चाहे उसका इस्लामी नैतिकता से संबंधित ख़ज़ाना हो। ऐसा ही है।
एक विषय, फ़िलिस्तीन का मसला है जो आज भी हमारे बुनियादी मसलों में से एक है। एक क़ौम, एक मुल्क आम इंसानों नहीं बल्कि बर्बर, घटिया और दुष्ट लोगों के मुकम्मल क़ब्ज़े में आ गया है, इस्लामी दुनिया खड़ी तमाशा देख रही है! सचमुच फ़िलिस्तानी क़ौम पर, उसकी अपनी ही सरज़मीं में, उसके अपने घर में -जो लोग वहाँ रह गए हैं और जिन्हें बाहर नहीं निकाला गया है- दिन ब दिन ज़ुल्म हो रहा है। इस्लामी दुनिया की नज़रों के सामने हर दिन किसी न किसी जगह को ध्वस्त कर देते हैं और एक ज़ायोनी कॉलोनी बना देते हैं, इतनी इस्लामी हुकूमतें, इस्लामी दुनिया की इतनी दौलत, इस्लामी दुनिया की इतनी सामूहिक क्षमता के बावजूद, इस्लामी दुनिया देख रही है और यह काम हो रहा है। बरसों से पूरी दुनिया की नज़रों के सामने इस तरह एक क़ौम पर ज़ुल्म हो रहा है। इससे ख़ुद इस्लामी दुनिया को भी चोट पहुंची है यानी इस्लामी हुकूमतें और इस्लामी मुल्क, इस तरह के अतिक्रमण के सामने -यह अतिक्रमण ख़ुद उनके ख़िलाफ़ भी है, मुस्लिम उम्मत के ख़िलाफ़ भी है- ख़ामोश तमाशा देख रहे हैं और कुछ मौक़ों पर ख़ास तौर पर हालिया कुछ मुद्दत में उसका साथ भी दे रहे हैं, उसने इन मुल्कों को भी कमज़ोर किया है, उनके लिए यह स्थिति पैदा कर दी है और दुश्मन को उन पर थोप दिया है।
आज दुनिया के विकसित मुल्क, दुनिया की बड़ी ताक़तें, इस्लामी दुनिया में हस्तक्षेप को अपना अधिकार समझती हैं, आकर हस्तक्षेप करती हैं, अमरीका एक तरह से, फ़्रांस दूसरी तरह से, कोई दूसरा एक और तरीक़े से। यह, इस्लामी मुल्कों में हस्तक्षेप कर रहे हैं और इसे अपना अधिकार समझते हैं! वे ख़ुद अपने मुल्क को चलाने में लाचार हैं, अपने मुल्क के मसलों को हल नहीं कर पा रहे हैं और आकर इस्लामी मुल्कों पर क़ब्ज़ा करना चाहते हैं और उनका दावा यह है कि वे उनके मसलों को हल करेंगे! इसके मानी, फ़िलिस्तीन के मसले की वजह से इस्लामी दुनिया का कमज़ोर होना और इस्लामी हुकूमतों का कमज़ोर होना है।
अगर फ़िलिस्तीन के मसले में इस्लामी हुकूमतें पहले ही दिन से मज़बूती से डट जातीं, दृढ़ता दिखातीं तो आज निश्चित तौर पर पश्चिमी एशिया की, इलाक़े की हालत दूसरी होती, आज हम ज़्यादा ताक़तवर होते, ज़्यादा एकजुट होते और मुख़्तलिफ़ पहलुओं से आज हमारी हालत पहले से ज़्यादा बेहतर होती।
उसी वक़्त नजफ़ के बड़े ओलमा सहित हमदर्द लोग कह रहे थे, नजफ़ के बड़े ओलमा ने फ़िलिस्तीन के मसले, फ़िलिस्तीन के नाजायज़ क़ब्ज़े वग़ैरह के बारे में ख़त लिखे, बयान जारी किए, स्पीच दी और कुछ लोगों ने जो सचमुच इस्लामी दुनिया का दर्द रखते थे, ऐसा ही किया। एक अरब शायर का शेर हैः
अनुवादः अगर फ़िलिस्तीन को छोड़ दोगे तो पूरी ज़िन्दगी तुम दुख दर्द में घिरे रहोगे
उसने सही कहा है। अगर पहले ही दिन से हम मैदान में आ गए होते तो हमारी हालत बेहतर होती। आज इस्लामी गणराज्य ईरान फ़िलिस्तीन के पीड़ित मुसलमानों के मन की बात को बुलंद आवाज़ में बयान करता है। हमें किसी की परवाह नहीं है, हम हक़ीक़त को ऊंची आवाज़ में बयान करते हैं। हम फ़िलिस्तीनी क़ौम का सपोर्ट करते हैं, उसकी मदद करते हैं और साफ़ तौर पर कहते हैं कि हम उसकी मदद कर रहे हैं और जिस तरह मुमकिन होगा हम फ़िलिस्तीनी क़ौम की मदद करेंगे। यही बात वजह बनी कि दुश्मन एक बिन्दु पर फ़ोकस करे और ईरानोफ़ोबिया फैलाए और वे लोग भी, जिनका ख़ुद फ़र्ज़ है कि कम से कम हमारे जितनी फ़िलिस्तीन की मदद करें, ईरानोफ़ोबिया के सिलसिले में उनके सुर में सुर मिलाएं।
इन सारी मुश्किलों का हल, इस्लाम की ओर वापसी है, मुस्लिम क़ौमों में एकता, मुस्लिम क़ौमों में आपस में सहमति और इस्लामी हुकूमतों में सही मानी में आपस में सहयोग, न कि दिखावे का सहयोग। वे सही मानी में एक दूसरे से सहयोग करें, आपसी सहमति से काम लें, इस्लामी दुनिया के सभी हिस्सों को आपस में सहयोग की ज़रूरत है। मुश्किलें पेश आती हैं। इस वक़्त आप देखिए कि यह जो सीरिया और तुर्किये में विनाशकारी ज़लज़ला आया है, यह एक बड़ी सख़्त घटना है, इसका सभी मुसलमानों से संबंध है, मतलब यह कि सभी को हक़ीक़त में इस तरह की चीज़ें महसूस करनी चाहिएं, तकलीफ़ महसूस करनी चाहिए, लेकिन यह चीज़ फ़िलिस्तीन के मसले जैसी सियासी मुश्किल के मुक़ाबले में छोटी चीज़ है, लेकिन बहरहाल बड़ी घटना है।
हमें उम्मीद है कि अल्लाह मदद करेगा ताकि हम सब बेसत से सही मानी से फ़ायदा उठा सकें और पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहि व आलेही व सल्लम की बेसत को सही मानी में इस्लामी दुनिया और मुसलमान क़ौम की ईद मानें। अल्लाह इस रास्ते पर हमारी मदद करे। इमाम ख़ुमैनी रहमतुल्लाह अलैह का दर्जा जिन्होंने हमें यह रास्ता दिखाया और इस रास्ते पर हमें आगे बढ़ाया, बुलंद करे और हमारे महान शहीदों को इस्लाम के आग़ाज़ के दौर के शहीदों के साथ रखे इंशाअल्लाह।
वस्सलामो अलैकुम व रहमतुल्लाहे व बरकातोह
1 इस मुलाक़ात के आग़ाज़ में राष्ट्रपति हुज्जतुल इस्लाम वलमुस्लेमीन सैयद इब्राहीम रईसी ने कुछ बातें बयान कीं।
2 सूरए नहल की आयत 18 का एक हिस्सा, ʺऔर अगर तुम अल्लाह की नेमतों को शुमार करना चाहो तो शुमार नहीं कर सकते।ʺ
3 नहल सूरे की आयत 164 का हिस्सा
4 आले इमरान सूरे की आयत नंबर 164 का हिस्सा
5 सूरए जुमा की आयत नंबर 2, वह (अल्लाह) वही है जिसने उम्मी क़ौम में उन्हीं में से एक रसूल भेजा जो उनको उसकी आयतें पढ़ कर सुनाता है और उनको पाकीज़ा बनाता है और उनको किताब व हिकमत की शिक्षा देता है।
6 हूद सूरे की आयत नंबर 112, तो हे रसूल जिस तरह आपको हुक्म दिया गया है आप ख़ुद और वे लोग भी जिन्होंने (कुफ़्र व नाफ़रमानी से) तौबा कर ली है और आपके साथ हैं (सीधे रास्ते पर) डटे रहें।
7 हदीद सूरे की आयत नंबर 25, यक़ीनन हमने अपने रसूलों को खुली हुयी दलीलों (चमत्कारों) के साथ भेजा और उनके साथ किताब और मीज़ान नाज़िल की ताकि लोग न्याय व इंसाफ़ पर क़ायम हों।
8 फ़त्ह सूरे की आयत नंबर-29, वह काफ़िरों पर सख़्त और आपस में मेहरबान हैं।
9 नहल सूरे की आयत नंबर 36, और ताग़ूत (की बंदगी) से बचो।
10 आराफ़ सूरे की आयत नंबर 157, और वह (पैग़म्बर) उन पर से उनके कुछ बोझ उतारता है और वह ज़ंजीरें खोलता है, जिनमें वे जकड़े हुए थे।