बेसत दिवस पर पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहि व आलेही व सल्लम पर 28 जनवरी 2025 को मुल्क के अधिकारियों, इस्लामी मुल्कों के राजदूतों और समाज के विभिन्न वर्ग के लोगों से मुलाक़ात में इस्लामी इंक़ेलाब के नेता आयतुल्लाहिल उज़मा सैयद अली ख़ामेनेई ने अपने ख़ेताब में पैग़म्बरे इस्लाम की बेसत को इंसानियत के अज़ीम वाक़यों में से एक क़रार दिया और मौजूदा हालात के मद्देनज़र कुछ बिंदुओं का उल्लेख किया।
स्पीचः
बिस्मिल्लाह अर्रहमान अर्रहीम
अरबी ख़ुतबे का अनुवादः सारी तारीफ़ पूरी कायनात के मालिक के लिए, दुरूद व सलाम हो हमारे सरदार व रसूल हज़रत अबुल क़ासिम मुस्तफ़ा मोहम्मद और उनकी सबसे पाक, सबसे पाकीज़ा और चुनी हुयी नस्ल, हिदायत देने वाले और हिदायत याफ़्ता और ख़ास तौर पर ज़मीनों पर अल्लाह के ज़रिए बाक़ी रखी गई हस्ती पर।
आप सभी आदरणीय लोगों, ईरानी अवाम और पूरे इस्लामी जगत और दुनिया में आज़ादी के समर्थकों की सेवा में, पैग़म्बरे इस्लाम की बेसत की मुबारकबाद पेश करता हूं। पैग़म्बरे इस्लाम की बेसत (पैग़म्बरी का एलान) हक़ीक़त में दुनिया के आज़ादी के समर्थकों के लिए ईद है। इस साल ईदे बेसत कामयाबियों की बहार के साथ आयी है। उम्मीद है कि बहमन आंदोलन (बहमन ईरानी कैलेंडर का 11वां महीना है जिसमें इमाम ख़ुमैनी रहमतुल्लाह अलैह वतन वापस आए और 22 बहमन मुताबिक़ 11 फ़रवरी 1979 को इस्लामी इंक़ेलाब कामयाब हुआ) इस्लामी इंक़ेलाब आंदोलन और वह आंदोलन जो हमारे पास है और इस आंदोलन के संस्थापक (इमाम ख़ुमैनी रहमतुल्लाह अलैह) का मक़सद, पैग़म्बरे इस्लाम (सल्लल्लाहो अलैहि व आलेही व सल्लम) और आपकी बेसत का अनुपालन करना था, इंशाअल्लाह इसी तरह जारी और अपने मार्ग पर बढ़ता रहेगा।
सम्मानीय राष्ट्रपति की बहुत अच्छी स्पीच का शुक्रिया अदा करता हूं, उम्मीद है कि जिन बातों की ओर उन्होंने इशारा किया है, इंशाअल्लाह, अल्लाह की तौफ़ीक़ से हम उन पर अमल करेंगे। मैं कुछ जुमले बेसत के बारे में अर्ज़ करुंगा और उसके बाद अपने आस-पास के मुद्दों पर कुछ बात करुंगा।
बेसत, सृष्टि और मानव इतिहास का सबसे मुबारक और सबसे बड़ा वाक़ेया है। यह कोई साधारण घटना नहीं है, बल्कि मानव इतिहास के सबसे महान वाक़यों में है। वैसे तो अज़ीम वाक़ए मुख़्तलिफ़ व्यक्तिगत और सामाजिक विभागों में बहुत ज़्यादा प्रभाव रखते हैं लेकिन सामने मौजूद लोगों की सोच और समझ में क्रांति पैदा कर देना इस अज़ीम वाक़ए का सबसे बड़ा प्रभाव क़रार दिया जा सकता है। कोई भी बड़ा वाक़ेया और बड़ा बदलाव अवाम के जीवन पर उस वक़्त गहरा प्रभाव और अमर छाप छोड़ सकता है, जब अपने आडियंस में वैचारिक क्रांति ला सके। सोच सही हो जाए तो व्यवहार भी ठीक हो जाता है। अहम यह है कि जीवन शैली उस सोच पर आधारित होती है जो उस सिस्टम को चलाने वालों में पैदा होती है। जब इंसानों में और समाजों में सृष्टि के बारे में समझ और वैचारिक क्रांति पैदा हो जाए तो फिर राजनैतिक, आर्थिक, अख़लाक़ी और सामाजिक सिस्टम भी उसी बुनियाद पर वजूद में आएगा और गठित होगा। इस लेहाज़ से पैग़म्बरे इस्लाम की बेसत सबसे अहम है। (अलबत्ता) दूसरे बदलाव और वाक़यों से उसकी श्रेष्ठता के अनेक पहूल हैं जो इस वक़्त हमारी चर्चा का विषय नहीं है, लेकिन इस ख़ुसूसियत के एतेबार से भी पैग़म्बरे इस्लाम की बेसत असाधारण है। जो क्रांति उसने पैदा की, कैसे लोगों और किन विचारों का उसको सामना करना पड़ा, कैसे समाज से इसका सामना हुआ और इसने कैसे इंसानों, कैसे समाज और कैसे लोगों को तब्दील कर दिया। अपने दौर में भी और पूरे इतिहास में भी।
इस बदलाव के पीछे कौन सा तत्व है? यानी सभी पैग़म्बर, जिसमें हमारे महान पैग़म्बर भी हैं, जब यह बदलाव लाना चाहते हैं तो उनका साधन क्या है? वह तत्व जो यह बदलाव लाता है, क्या है? दो चीज़ें हैं: अक़्ल और ईमान। अक़्ल एक व्यक्तिगत ताक़त है जो अल्लाह ने सभी इंसानों को दी है। कुछ इंसान इसे उपयोग करते हैं, इससे काम लेते हैं और बहुत से लोग इसे उपयोग नहीं करते। ईमान भी अक़्ल की तरह है। सभी इंसानों की प्रवृत्ति में हक़ीक़त और अल्लाह पर ईमान मौजूद होता है। लेकिन इंसान उसको भुला देते हैं। अल्लाह के दूत इंसान की अक़्ल को जगाते हैं ताकि उसको अपना ईमान याद आ जाए। इस बात पर ध्यान दें कि क़ुरआन मजीद में "ज़िक्र" यानी याद करने की कितनी तकरार की गयी है। हम में और आप में यह ईमान मौजूद है। इसको याद करने की ज़रूरत है, ज़रूरत इस बात की है कि हमारा ध्यान उस ओर ले जाया जाए। जब अक़्ल और ईमान ज़िंदा हो जाए तो ज़िंदगी आगे बढ़ती है। इनमें से हर एक का अपना काम है। जब इंसान में अक़्ल और ईमान की ताक़त पैदा हो जाए तो उसमें ज़िंदगी की राह और सीधे रास्ते पर चलने की सलाहियत पैदा हो जाती है।
अब अगर क़ुरआने मजीद से अक़्ल के सुबूत पेश करना चाहें तो इसकी दसियों बार तकरार हुयी है कि "...क्या वह फ़िक्र नहीं करते?" (2) (सूरए यासीन, आयत-68), "...शायद तुम ग़ौर व फ़िक्र करो।" (3) (सूरए बक़रह, आयत-242), "...शायद वह ग़ौर व फ़िक्र करें।" (4) (सूरए आराफ़ आयत-174), "क्या क़ुरआन के मानी पर ग़ौर व फ़िक्र नहीं करते।" (5) (सूरए निसा, आयत-82), "और कहेंगे काश हम (उस वक़्त) सुनते या समझते..." (6) (सूरए मुल्क, आयत-10) यानी अक़्ल का विषय, अक़्ल पर ध्यान और अक़्ल का इस्तेमाल, क़ुरआने मजीद की श्रेष्ठ शिक्षाओं में है। जो भी मुसलमान है उसको जान लेना चाहिए कि उसका अक़्ल से सरोकार होना चाहिए, अक़्ल से काम करना चाहिए, अक़्ल से काम लेना चाहिए और उसको अपनी अक़्ल बढ़ाना चाहिए और उसको विकसित करना चाहिए।
ईमान के सिलसिले में भी पैग़म्बरों ने सबसे पहले जिस चीज़ की ओर बुलाया है और उसकी बात की है, वह तौहीद (एकेश्वरवाद) है। तौहीद सिर्फ़ इस बात पर मामूली आस्था का नाम नहीं है कि अल्लाह है और वह एक है, बल्कि तौहीद दुनिया के बारे में इस्लामी दृष्टिकोण बनाती है। दुनिया के बारे में इस्लामी दृष्टिकोण को जिस आयाम से भी देखेंगे तौहीद तक पहुंचेंगे। आप ध्यान दें सूरए आराफ़ में जहाँ अल्लाह के दूतों और उनके निमंत्रण का ज़िक्र होता है, हज़रत नूह, हज़रत हूद, हज़रत सालेह वग़ैरह की बात होती है, वहाँ उनकी पहली बात यह है कि "ऐ मेरी क़ौम अल्लाह की इबादत करो उसके अलावा तुम्हारा कोई माबूद नहीं है..." (सूरए आराफ़, आयत-59) यह तौहीद है। अलबत्ता तौहीद के साथ क़यामत की बहस की जाती है। इसी आयत में, "ऐ मेरी क़ौम अल्लाह की इबादत करो उसके अलावा तुम्हारा कोई माबूद नहीं है। यक़ीनन मुझे तुम्हारी निस्बत एक बड़े सख़्त दिन (क़यामत) के अज़ाब का अंदेशा है।" (7) (सूरए आराफ़, आयत-59) वह बड़ा दिन क़यामत है। या सूरए शोअरा में भी इसी तरह जहां एक के बाद एक पैग़म्बरों के नाम आते हैं, वहाँ उनकी पहली बात यह है, "सो तुम अल्लाह से डरो और मेरी इताअत करो।" (8) (सूरए शोअरा, आयत-108) अल्लाह का डर। पैग़म्बरों की इताअत भी इसलिए है कि अल्लाह ने पैग़म्बर को भेजा है, वह इंसानी अक़्ल की मदद करते हैं ताकि वह ग़लती न करे, ग़लत न देखे, सराब को पानी न समझे। पैग़म्बरों का काम यह है। इसलिए इसके बाद "मेरी इताअत करो" भी आता है ताकि इंसान के पास एक रहनुमा हो जो उसकी मदद करे।
अमीरुल मोमेनीन अलैहिस्सलाम फ़रमाते हैं: "तो उसने अपने पैग़म्बरों को भेजा और एक के बाद दूसरा पैग़म्बर भेजा ताकि वह ख़ुदा से किए गए वादे पर अमल का जो इंसान की प्रवृत्ति में है, हुक्म दें और उस नेमत की याद दिलाएं जो भुला दी गयी है और तर्क व दलील के ज़रिए उन्हें रास्ते पर लाएं और इल्म व ज्ञान के छिपे हुए ख़ज़ाने को बाहर लाएं।" (9) अल्लाह ने पैग़म्बरों को इन कामों के लिए इन लक्ष्यों के लिए भेजा है कि प्रवृत्ति के अहद और भूली हुयी नेमतें याद दिलाएं और इसी के साथ अक़लों के छिपे हुए ख़ज़ानों को बाहर लाएं। अब यह ख़ज़ाना किस मानी में है? ख़ज़ाने के मानी में है, जैसे आम तौर पर हम जब गड़ा हुआ ख़ज़ाना कहते हैं तो हमारी मुराद ख़ज़ाना होता है या नहीं? बल्कि इसका मतलब दबी हुयी अक़्लें हैं जो ख़ुराफ़ात, वह्म, बुरे ख़याल और कल्पनाओं और अनेक प्रकार की बातों और अनेक मतों वग़ैरह के प्रभाव में दब गयी हैं। यह बात सही है। यही हक़ीक़त है। ला इलाहा इल्लल्लाह जो सही है वह कभी कभी दब जाता है। वह बौद्धिक समझ कभी कभी ग़लत बातों के प्रभाव में दब जाती है, भुला दी जाती है। आप यानी अमीरुल मोमेनीन अलैहिस्सलाम की मुराद इन्हीं दोनों बातों में से कोई एक हो सकती है। ईश्वरीय दूत इस अक़्ल को बाहर लाने के लिए आते हैं। यह कुछ बातें बेसत के संबंध में।
हमें क्या करना चाहिए? यह अर्ज़ करूं कि मेरी नज़र में बेसत अचानक होने वाला कोई वाक़ेया नहीं है। जैसे कभी बिजली चमकती है और चली जाती है। बेसत इस तरह नहीं है। अलबत्ता मुनाफ़िक़ों के लिए इस तरह हैः "तो अल्लाह ने उनकी रौशनी (देखने की क्षमता) छीन ली और उनको अंधों में छोड़ दिया अब उन्हें कुछ सुझाई नहीं देता।" (सूरए बक़रह, आयत-17) जो दिल की गहराइयों से ईमान न रखता हो, उसके लिए एक बिजली चमकती है, रौशनी का एक झमाका होता है और फिर इच्छाएं, भूल, ग़फ़लतों और दूसरी बुराइयों में वह रौशनी छिप जाती है। लेकिन जो मुनाफ़िक़ नहीं है, उसके लिए कायनात के स्वाभाविक व्यवहार में, पूरी बेसत एक आंदोलन है, एक हमेशा जारी रहने वाली चीज़ है, किसी ख़ास ज़माने और किसी ख़ास दिन से मख़सूस नहीं है, बल्कि अमर है। सिर्फ़ पैग़म्बरे इस्लाम की बेसत ही नहीं बल्कि सभी पैग़म्बरों की बेसत। पैग़म्बरों की बातें हमेशा के लिए हैं। क़ुरआन मजीद काफ़िरों से कहता है कि "आप कहिए! तुम सच्चे हो तो अल्लाह की तरफ़ से कोई ऐसी किताब लाओ जो इन दोनों (तौरैत, क़ुरआन) से ज़्यादा हिदायत करने वाली हो तो मैं उसकी पैरवी करुंगा।"(11) (सूरए क़सस, आयत-49) दो किताब यानी एक क़ुरआन और दूसरी तौरैत। हम पैग़म्बरों पर ईमान रखते हैं, सभी पैग़म्बरों पर ईमान रखते हैं। बाद में आने वाला ईश्वरीय दूत भी अपने पहले आने वाले ईश्वरीय दूत की बातों को मुकम्मल करता है। इसलिए उसकी (पहले आने वाले नबी की) बात मनसूख़ हो जाती है। नस्ख़ का मतलब यह है। उसकी बात को पूरा करता है, कुछ चीज़ें बदल देता है और कुछ चीज़ों को ज़माने के मुताबिक़ मुकम्मल करता है। इसलिए यह आंदोलन, धर्म का आंदोलन और बेसत का आंदोलन जारी और हमेशा रहने वाला है। हमेशा रहने वाले से क्या मुराद है? यानी हर दौर में बेसत की बरकतों से फ़ायदा उठाया जा सकता है। यानी वही बदलाव जो बेसत के आग़ाज़ में आया और ख़ुद पैग़म्बरे इस्लाम (सल्लल्लाहो अलैहि व आलेही व सल्लम) डट गए, मैदान में आए, इतनी मेहनत से कामों को अंजाम दिया कि जिसे बयान नहीं किया जा सकता, यह बदलाव हर ज़माने में, ज़माने के मुताबिक़ और इंसानों के अनुपात में, हम में और इन महान हस्तियों में जो फ़र्क़ है, इस (फ़र्क़) के साथ मुमकिन है। लेकिन इसकी शर्त क्या है? शर्त यह है कि वह दो तत्व जो पैग़म्बरे इस्लाम (सल्लल्लाहो अलैहि वआलेही वसल्लम) के पास थे और आपने उन्हें उपयोग किया, यानी अक़्ल और ईमान, हम भी इनसे काम लें। अगर हम अक़्ल और ईमान से काम लें तो बेसत आंदोलन वजूद में आएगा, वही जोश व जज़्बा और बदलाव वजूद में आएगा। मानसिकता में बदलाव आएगा और ज़िंदगी की हक़ीक़तें बदल जाएंगी, मुश्किलें दूर हो जाएंगी और मामले ठीक हो जाएंगे। बेसत से हमें जो सबक लेना चाहिए वह यह है।
आज ये बातें हमारे लिए, मुस्लिम सरकारों के लिए और मुस्लिम राष्ट्रों के लिए हैं। हम सभी के लिए हैं। हमें यह जानना चाहिए कि अगर हम दुनिया में कुछ चाहते हैं या परलोक में अल्लाह के करम की आशा रखते हैं तो हमें बेसत के अर्थ, बेसत की ज़रूरतों और बेसत के आंदोलन से जुड़े रहना होगा। जो कोई इज़्ज़त (ताक़त) चाहता हो तो ताक़त तो सारी की सारी अल्लाह के लिए है।(12) इज़्ज़त उस स्थिति को कहते हैं कि कोई भी दूसरा कारक उस पर प्रभाव न डाल सके, यह इज़्ज़त है। बेशक इज़्ज़त तो पूरी अल्लाह के लिए ही है।(13) अगर इज़्ज़त यानी ताक़त हो तो न कोई दुशमन, न विभिन्न बौद्धिक, आध्यात्मिक, बाहरी, भौतिक और किसी भी प्रकार के कारक, उसे प्रभावित नहीं कर सकते हैं। और दूसरी आयत में कहा गया है: हताश न हो और दुखी न हो, यदि तुम ईमान वाले हो, तो तुम्हीं हावी रहोगे।(14) अगर ईमान हो तो आप श्रेष्ठ हैं, सबसे ऊपर हैं।
आज, हम संसार में अक़्ल के कामों को देखें और अक़्ल से काम लें। अगर हम अपनी अक़्ल से काम लें तो हम दुनिया की बहुत सी चीज़ें समझ सकते हैं। दुआ में कहा गया है कि हे अल्लाह! तू मुझे अपने धर्म में विजय, अपनी उपासना में शक्ति और अपनी सृष्टि (के बारे) में समझ प्रदान कर।(15) मानव समाज की वास्तविकताओं को समझना, इन वास्तविकताओं को समझें। हम, इस्लामी गणराज्य के रूप में, इस्लामी ईरान के रूप में, एक अहम और बड़े देश के रूप में, हमारा देश वास्तव में कई पहलुओं से एक बेमिसाल देश है, इसके शीर्ष राजनेताओं की हैसियत से, हमें दुनिया की वास्तविकताओं पर ध्यान देना और उन्हें समझना चाहिए। ज़ालिम शक्तियों का उपनिवेशवाद पहले दर्जे और पहले चरण में संसाधनों की लूट से शुरू हुआ। अगर आप साम्राज्यवाद का इतिहास पढ़ें तो पाएंगे कि लूट के लिए उनका पहला लक्ष्य प्राकृतिक संसाधन थे। उनका पहला चरण यहीं से शुरू हुआ। यह एक चरण है। इसके बाद का चरण राष्ट्रों की अस्ली सभ्यता और संस्कृति का विनाश है। यह कहानी बहुत कड़वी है। यानी इसकी व्याख्या करते समय सचमुच रोना आ जाता है कि उन्होंने राष्ट्रों और सभ्यताओं के साथ क्या किया है! इसी अफ़्रीक़ा में जो आप देखते हैं, इसकी अपनी सभ्यताएं और संस्कृतियां थीं। वे आये और उन्होंने सब कुछ बर्बाद कर दिया, तबाह कर दिया, वास्तव में पूरी तरह तबाह कर दिया। यहां भी लूटमार की। सांस्कृतिक लूटमार की। सांस्कृतिक तबाही मचाई। फिर उन्होंने राष्ट्रों पर अपना प्रभुत्व स्थापित करने के लिए उनकी धार्मिक और राष्ट्रीय पहचान को निशाना बनाया।
आज हम उपनिवेशवाद के इन तीन चरणों से दोचार हैं। आज दुनिया की मुंहज़ोर दुष्ट शक्तियों की नज़रें देशों और राष्ट्रों के प्राकृतिक संसाधनों पर लगी हुई हैं। उनकी बुरी नज़रें इन संसाधनों पर लगी हुई हैं, उनकी असली सभ्यता और संस्कृति भी उनके निशाने पर है और उनकी राष्ट्रीय और इस्लामी पहचान पर भी उनकी नज़रें हैं। वे इन देशों को तबाह करने के चक्कर में हैं और उन पर अपने पंजे गाड़ना चाहती हैं। हालाँकि ये सभी एक जैसी नहीं हैं, इनका सरग़ना अमरीका है। आज हम उपनिवेशवाद और साम्राज्य की जो परिभाषा करते हैं, वह पूरी तरह अमरीकी सरकार पर लागू होती है, जो विश्व की वित्तीय शक्तियों के कंट्रोल में है। यानी आज विश्व की सबसे बड़ी वित्तीय शक्तियों ने कुछ पश्चिमी सरकारों और शायद सबसे ज़्यादा अमरीकी सरकार को अपने नियंत्रण में ले रखा है। उनकी अपनी प्रचलित शब्दावली में, ट्रस्ट और कार्टेल वग़ैरा इन सरकारों पर हावी हैं और उपनिवेशवाद के तीनों चरणों की योजना बना रहे हैं। ये जो आप देख रहे हैं कि मानवीय, यौन और वित्तीय क्षेत्रों में हर दिन एक नया व्यावहारिक काम सामने आ रहा है, वह इसी योजना का नतीजा है। यानी यही राष्ट्रों की पहचान में बदलाव, राष्ट्रों के हितों में बदलाव और उन्हें अपनी ओर खींचने की कोशिश।
क़ुरआन इस संबंध में स्पष्ट रूप से कहता है कि "वे तुम्हें नुक़सान पहुँचाने में कोई कसर नहीं रखते।" हर वह चीज़ जो तुम्हें कठिनाई में डालती है, वह तुम्हारे दुश्मनों, काफ़िरों, शैतान का आज्ञापालन करने वालों और शैतानी हरकतें करने वालों को पसंद है। उनका द्वेष तो उनके मुँह से बाहर आ चुका है और जो कुछ उनके सीने छिपाए हुए हैं, वह तो इससे भी बढ़ कर है।(16) उनकी दुश्मनी उनकी ज़बान से भी साफ़ झलकती है। जब वे बोलते हैं और बातचीत करते हैं, तो उसमें भी वे अपनी दुश्मनी दिखा देते हैं। जब कुछ करते हैं, तो दुश्मनी प्रकट कर देते हैं लेकिन यह दुश्मनी उनके दिल में और भी ज़्यादा है। कभी-कभी कुछ मामलों में उनकी दुश्मनी खुल कर सामने आ जाती है। यानी कुछ मामलों में वे ख़ुद ही अपनी अंतरात्मा की दुष्टता उजागर कर देते हैं। उदाहरण के लिए, जब हज़ारों बच्चों के टुकड़े-टुकड़े हो जाने पर अमरीकी कांग्रेस के सदस्य खड़े होकर हत्यारे के लिए तालियाँ बजाते हैं और उसका हौसला बढ़ाते हैं! यह वही "जो कुछ उनके सीने छिपाए हुए हैं, वह तो इससे भी बढ़ कर है" का सुबूत है जो यहाँ सामने आता है, यहाँ वे ख़ुद उसे प्रकट कर देते हैं।
कई हज़ार बच्चे टुकड़े-टुकड़े कर दिए जाते हैं और ये लोग हत्यारे को शाबाशी देते हैं! या अमरीकी युद्धपोत विंसेंस का कप्तान तीन सौ यात्रियों को ले जा रहे एक यात्री विमान को मार गिराता है, उसके सभी यात्रियों का जनसंहार कर देता है और उसे पदक से पुरस्कृत करके उसे शाबाशी दी जाती है।(17) "जो कुछ उनके सीने छिपाए हुए हैं" यहाँ दिखाई देता है। यह हमेशा एक कूटनैतिक मुस्कान के पीछे छिपा रहता है। कूटनीतिक मुस्कुराहट के पीछे ये दुश्मनियाँ, यह बुरी नीयत और ये आंतरिक द्वेष छिपा हुआ है। हम अपनी आँखें खोलें: हमें तेरी रचनाओं को समझने की तौफ़ीक़ दे। अपनी आँखें खोलें: "तुम गुप्त रूप से उनसे मित्रता की बातें करते हो"(18) न बनें। इस बात पर ध्यान रखें कि हमारा सामना किस से है, हम किस से डील कर रहे हैं, किससे बात कर रहे हैं। अगर इंसान अपने प्रतिद्वंद्वी को पहचानता होगा तो जब वह उससे डील करेगा तो उसे पता होगा कि क्या करना चाहिए। इसे पहचानें और जानें!
मेरी नज़र में हमारा वर्तमान समय, यह रेज़िस्टेंस और उसका आगे बढ़ना, इसी बेसत की एक किरण हैं। रेज़िस्टेंस ने, जो इस्लामी ईरान से शुरू हुआ, मुस्लिम क़ौमों को जगा दिया। कुछ मुस्लिम क़ौमों को मैदान में ले आया। उसने सामान्य रूप से मुस्लिम क़ौमों को बेदार किया लेकिन बहुत से ग़ैर मुस्लिमों के ज़मीरों को भी जगा दिया। उसने वर्चस्ववादी सिस्टम को पहचनवाया, वर्चस्ववादी सिस्टम पहचान लिया गया। वर्चस्ववादी सिस्टम को लोग नहीं पहचानते थे, बहुत सी क़ौमें नहीं पहचानती थीं।
आप ग़ज़ा को देखिए। एक छोटे से सीमित इलाक़े ग़ज़ा ने सिर से पैर तक हथियारों से लैस और अमरीकी समर्थन वाली ज़ायोनी सरकार को धूल चटा दी। यह मज़ाक़ है? यह वही रेज़िस्टेंस की किरण है, यह वही ईमान और अक़्ल है। यह वही क़ुरआन की आयतों की तिलावत है, यह अल्लाह से उम्मीद लगाना है यह वही इन्नल इज़्ज़ता लिल्लाहे जमीआ (सारी की सारी ताक़त सिर्फ़ अल्लाह के लिए है) पर अक़ीदा है। विजयी हिज़्बुल्लाह को सैयद हसन नसरुल्लाह जैसी हस्ती को खोने की हद तक नुक़सान होता है, यह मामूली बात नहीं है। दुनिया में सैयद हसन नसरुल्लाह रिज़वानुल्लाह अलैह, इस महान शहीद के दर्जे वाले कितने इंसान हैं? ऐसी हस्ती हिज़्बुल्लाह के दरमियान से चली गयी। दोस्त और दुश्मन सब सोचने लगे कि हिज़्बुल्लाह का काम तमाम हो गया। हिज़्बुल्लाह ने दिखा दिया कि न सिर्फ़ यह कि वह ख़त्म नहीं हुआ बल्कि कुछ मौक़ों पर उसका जज़्बा ज़्यादा मज़बूत हुआ और वह ज़ायोनी सरकार के मुक़ाबले में डटा रहा। ये वही बेसत की झलक है। ये मुसलमानों के हिस्से में है।
ग़ैर मुस्लिमों में, ज़मीर झिंझोड़ दिए गए। जो आंकड़े मुझे दिए गए हैं उनके अनुसार लगभग 30,000 ज़ायोनी विरोधी प्रदर्शन, इस अवधि के दौरान लगभग 30,000 ज़ायोनी विरोधी प्रदर्शन दुनिया के 619 शहरों में हुए! लोग जागृत हो गए। ज़मीर जाग गए। यह रेज़िस्टेंस है। यह रेज़िस्टेंस बेसत की एक झलक है। ख़ुद अमरीका में लोग इकट्ठा हुए, ये ख़ुद अमरीकी थे, उन्होंने कहा: "अमरीका मुर्दाबाद" ख़ुद अमरीका के अंदर! यह वही सोच की क्रांति है। यह वही काम है जिसका बीड़ा पैगम्बरों ने उठाया था और इस संबंध में सबसे महान, सबसे अहम और सबसे आश्चर्यजनक कारनामा पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम ने अपने समय और हमेशा के लिए किया और आज, रेज़िस्टेंस वही (चीज़ दुनिया को) दिखा रहा है। इसलिए हमारा पूरा ध्यान इन तथ्यों पर होना चाहिए और हमें पवित्र क़ुरआन की इस आयत को याद रखना चाहिए: हताश न हो और दुखी न हो, यदि तुम ईमान वाले हो, तो तुम्हीं हावी रहोगे।(19)
आप सब पर सलाम और अल्लाह की रहमत व बरकत हो।
1. इस मुलाक़ात के आरंभ में राष्ट्रपति डॉक्टर मसऊद पेज़ेशकियान ने स्पीच दी।
2. सूरए यासीन, आयत 68
3. सूरए बक़रह, आयत 242
4. सूरए आराफ़, आयत 174
5. सूरए निसा, आयत 82
6. सूरए मुल्क, आयत 10
7. सूरए आराफ़, आयत 59
8. सूरए शोअरा, आयत 108
9. नहजुल बलाग़ा, ख़ुत्बा नंबर 1
10. सूरए बक़रह, आयत 17
11. सूरए क़सस, आयत 49
12. सूरए फ़ातिर, आयत 10
13. सूरए यूनुस, आयत 64
14. सूरए आले इमरान, आयत 139
15. उसूले काफ़ी, जिल्द 2, पेज 586
16. सूरए आले इमरान, आयत 118
17. तीन जुलाई 1988 को एक ईरानी यात्री विमान बंदर अब्बास से दुबई जा रहा था कि फ़ार्स की खाड़ी में अमरीका के विंसेंस युद्धपोत ने उसे एक मिसाइल से मार गिराया। इस हमले में यात्री विमान में सवार 290 यात्री शहीद हो गए, जिनमें 66 बच्चे और 53 महिलाएं शामिल थीं। इसके कुछ दिन बाद, युद्धपोत विंसेंस के कप्तान को वीरता पदक से सम्मानित किया गया!
18. सूरए मुम्तहना, आयत 1