इसी संदर्भ में आयतुल्लाह ख़ामेनेई की वेबसाइट KHAMENEI.IR "फ़तह की रूदाद" श्रंख्ला के तहत, जिसमें ज़ायोनी सरकार की तरफ़ से हालिया थोपी गयी 12 दिवसीय जंग में इस्लामी गणराज्य की फ़तह की समीक्षा की जा रही है, आईआरजीसी की एरोस्पेस फ़ोर्स के स्वर्गीय कमांडर शहीद अमीर अली हाजीज़ादे का अब तक प्रसारित न होने वाला एक इंटरव्यू पेश कर रही है जिसमें ईरान की मीज़ाईल ताक़त में तरक़्क़ी में सुप्रीम कमांडर के रोल के बारे में बात की गयी है। यह इंटरव्यू चार साल पहले लिया गया था।

सवालः सबसे पहले यह बताइये कि इस्लामी गणराज्य में आर्म्ड फ़ोर्सेज़ के सुप्रीम कमांडर (आयतुल्लाह ख़ामेनेई) का क्या स्थान है?

जवाबः सुप्रीम कमान का इस्लामी गणराज्य के सैन्य और डिफ़ेंस क्षेत्र में सचमुच बहुत व्यापक रोल है। इन बरसों में हथियार उद्योग और हथियार बनाने के क्षेत्र में शायद इशारे की हद तक कोई बात की गयी हो लेकिन मेरी नज़र में व्यापक रोल है, और इस पर प्रकाश डाला जा सकता है। यानी ऐसा नहीं है कि कोई यूंही कह दे, इन सारी बातों के दस्तावेज़ मौजूद हैं।

पाकीज़ा डिफ़ेंस के आठ बरसों में इस्लामी इंक़ेलाब के नेता की प्रभावी मौजूदगी को, जिस हद तक इमाम ख़ुमैनी ने इजाज़त दी थी, देखा जा सकता है, चूंकि लंबे समय तक के लिए उनको इजाज़त नहीं दी गयी थी। इमाम ख़ुमैनी के स्वर्गवास के बाद, पिछले तीन दशकों में सैन्य मामलों में उनका रोल निर्णायक रहा। इसकी एक वजह शायद उनकी, दुश्मन को पहचानने और इंटैलीजेंस के क्षेत्र की सूझबूझ थी। पिछले तीन दशकों में हम बड़ी बड़ी साज़िशों से पार पाने में सफल रहे और हमारे सिस्टम की राह में दुश्मनों ने जो जाल बिछाए थे, उससे सुरक्षित गुज़र गए। इनमें से एक एक मामले में इस्लामी इंक़ेलाब के नेता का रोल और उनकी सूझबूझ पूरी तरह ज़ाहिर है।

सवालः इस्लामी इंक़ेलाब के नेता का संकटों से निपटने और मुल्क को सुरक्षा और सैन्य क्षेत्र की साज़िशों से बचाने में कैसा रोल था? क्या आप इनकी मिसालें पेश कर सकते हैं?

जवाबः मैं कुछ मिसालों का ज़िक्र करुंगा, मिसाल के तौर पर वेस्ट एशिया की पहली जंग में कुवैत को आज़ाद कराने का विषय था, उस वक़्त मुल्क में बहुत से लोगों ने आकर कहा कि इस वक़्त सद्दाम ख़ालिद बिन वलीद के रोल में है और हमें चाहिए कि सद्दाम का साथ दें और अमरीका से लड़ें। उस वक़्त बहुत से अधिकारियों ने यह बात कही थी। सिर्फ़ एक शख़्सियत जिसने इस बात को समझा कि यह एक चाल है और इस मोर्चे के दोनों पक्ष असत्य के गिरोह हैं यानी एक ओर अमरीका, योरोप और पश्चिमी मुल्क और दूसरी ओर सद्दाम। आग़ा (आयतुल्लाह ख़ामेनेई) ने यह नहीं होने दिया कि मुल्क और आर्म्ड फ़ोर्सेज़ इस चाल में फंसें।

या अफ़ग़ानिस्तान की जंग में और पिछले 30 बरसों में ऐसे बहुत से मौक़े आए जब उनमें कूद पड़ना मुल्क के लिए एक जाल था। यह आग़ा की दुश्मन को पहचानने और ख़ुफ़िया क्षेत्र की सूझबूझ की वजह से है कि मुल्क ने बिल्कुल सही रास्ता चुना, चूंकि वह सिर्फ़ अवाम के स्तर की और सिविलियन बहसों तक सीमित नहीं हैं, इसलिए उनके लिए ज़रूरी है कि महारत हो और हमने सभी आयामों से देखा कि उनमें यह चीज़ है। उच्चस्तरीय और माहिर कमांडरों के बीच जब बहस करते हैं और जो तर्क वे पेश करते हैं वह उनकी परिपक्वता को दर्शाता है और बहुत से मौक़ों पर उन्होंने मुल्क को बचाया है।

आप हमारे आस-पास (के मुल्कों को) देखिए, वेस्ट एशिया को, ज़्यादातर मुल्क ढीले पड़ गए हैं, सरकारें कमज़ोर हो गयी हैं, फ़ौजें ख़त्म हो गयी हैं, अशांति बहुत हो गयी है, बहुत ज़्यादा हंगामा है। ये सब अमरीका, ब्रिटेन, ज़ायोनी शासन और पश्चिम की साज़िशें हैं कि ये क्षेत्र अराजकता का शिकार हो जाएं। उनका मुख्य निशाना ईरान था। ख़ैर आप तो देख ही रहे हैं कि इस वक़्त इराक़ की स्थिति कैसी हो गयी है, इन दिनों अफ़ग़ानिस्तान के हालात को देखिए, सीरिया की स्थिति को देखिए, ईरान वहाँ कितना सक्रिय रहा, मदद की लेकिन अंततः वहाँ फ़ौज को कमज़ोर कर दिया गया, मुल्क को तबाह कर दिया गया।

कुछ जगहों पर कि जहाँ हमें सक्रिय होना चाहिए था, कुछ लोग कहते थे कि हमें ऐसा नहीं करना चाहिए, मिसाल के तौर पर जिस वक़्त तकफ़ीरी गिरोह सीरिया और इराक़ में दाख़िल हुए और वहाँ क़ब्ज़ा कर लिया तो बहुत से लोग कहते थे कि हमसे क्या मतलब, हम किस लिए अपने आपको फंसाएं, यहाँ पर इस्लामी इंक़ेलाब के नेता ने पूरी दृढ़ता से हुक्म दिया कि हमें सक्रिय रूप से भाग लेना चाहिए। आज इस वाक़ए को बरसों हो चुके हैं, इस बारे में राय क़ायम करना बहुत आसान हो गया है। आज कुवैत जंग के बारे में, अफ़ग़ानिस्तान के विषय पर और वे जाल जो दुश्मन ने हमारे लिए बिछाए थे उन पर, बहुत आसानी से बात की जा सकती है। लेकिन देखिए उस वक़्त जब हज़रत आग़ा ने ये फ़ैसले किए, उन्होंने फ़ैसला किया कि हम सीरिया जंग में शामिल हों, क्योंकि अगर वहाँ नहीं लड़ते तो हमें तेहरान में लड़ना पड़ता, किरमानशाह में लड़ना पड़ता, हमदान में लड़ना पड़ता। यानी एक जगह हमें भाग लेना ज़रूरी था, एक जगह भाग नहीं लेना था। यह इस्लामी इंक़ेलाब के नेता की रणनीति और उनकी प्रशासनिक क्षमता थी कि ऐसा हुआ। मेरे विचार में यह एक बहुत अहम विषय है जिसके बारे में अलग से चर्चा होनी चाहिए।

दूसरा क्षेत्र यह है कि इस वक़्त हमारी आर्म्ड फ़ोर्सेज़ में, हमारी सैन्य फ़ोर्सेज़ में- सेना में भी, आईआरजीसी में भी और बसीज में भी- बहादुरी और ज़ुल्म के ख़िलाफ़ लड़ने का जज़्बा है। उनमें यह भावना नहीं है कि किसी फ़ौज के मुक़ाबले में संभवतः हार सकते हैं। ये फ़ोर्सेज़ ताक़तवर होने का एहसास करती हैं, ताक़तवर हैं। ये सब उस तरबियत की देन है जो इन्हें इस्लामी इंक़ेलाब की कामयाबी के बाद ख़ास तौर पर पिछले तीन दशकों में दी गयी है।

सवालः इन बरसों में आर्म्ड फ़ोर्सेज़ की नैतिक और वैचारिक तरबियत का इस्लामी इंक़ेलाब के नेता से क्या संबंध रहा और यह कैसे अंजाम दी गयी?

जवाबः आठ वर्षीय जंग में हमारा मुक़ाबला सद्दाम से था। उसके बाद अमरीका का विषय सामने आया, पश्चिम की ओर से ख़तरे थे, ख़ैर कुछ चिंताएं थीं, हमारी ताक़त भी तो उनके जितनी नहीं है। लेकिन अब हमारे सिपाहियों में, हमारी फ़ौर्सेज़ में बहादुरी है और किसी भी स्तर पर उनके भीतर यह चिंता नहीं है कि कोई उन्हें हरा सकता है। आज सभी इस बात को मान रहे हैं कि ईरान की आर्म्ड फ़ोर्सेज़, आईआरजीसी, सेना, सामूहिक तौर पर ताक़तवर हैं।

यह तरबियत किस तर अंजाम पायी? पिछले तीन दशकों में, आर्म्ड फ़ोर्सेज़ के सभी प्रोग्राम, ट्रेनिंग प्रोग्राम, तरबियत के प्रोग्राम, समारोह, इस्लामी इंक़ेलाब के नेता की कमांडरों के साथ नियमित रूप से साप्ताहिक बैठकें, ये बैठकें स्थायी हैं, मुमकिन है तादाद बढ़ जाए लेकिन कम नहीं होंगी, यानी कम से कम हफ़्ते में एक बैठक उन्होंने सैन्य अधिकारियों से विशेष की है, हज़रत आग़ा की ओर से नियमित रूप से यह काम, फ़ोर्सेज़ की इस तरह तरबियत होने का सबब बना, उन्हें इस तरह से तैयार किया। इसका हथियार और उपकरणों से कोई संबंध नहीं, इसका आध्यात्मिक आयाम है, वैचारिक आयाम है, इसमें तरबियत का आयाम है। ये इस्लामी इंक़ेलाब के नेता की ओर से अंजाम पाने वाले कामों का एक आयाम है और इस संबंध में उन्होंने जो बातें पेश की हैं, उन्हें किताब की शक्ल दी जा सकती है, बहुत ही अर्थपूर्ण और गहरी बातें हैं।

 

सवालः आत्मनिर्भरता की राह और हथियारों को स्वदेशी टेक्नॉलोजी से बनाने में इस्लामी इंक़ेलाब के नेता का क्या रोल रहा और कैसे निर्णायक फ़ैसले लिए गए?

जवाबः जंग के बाद इस्लामी इंक़ेलाब के नेता ने रक्षा उद्योग के क्षेत्र में आत्मनिर्भरता और स्वदेशी तकनीक विकसित करने और ख़ुद पर निर्भर होने के लिए प्रेरित किया।  हम किस राह की ओर जाए, किन हथियारों को स्वदेशी टेक्नॉलोजी से बनाएं, यह काम किस तरह करें, यह बहुत अहम बिंदु है। इस दिशा में दो काम हुएः एक यह कि हम इस बात को मानें कि हम ऐसा कर सकते हैं और हथियार बनाने की सलाहियत की ओर बढ़ें और दूसरे यह कि हम सही दिशा का चयन करें।

पिछले 30 बरसों में, मान लेते हैं कि यह प्रक्रिया 1984 से शुरू हुयी, ख़ास तौर पर मीज़ाईल के क्षेत्र में हम देखते हैं कि मुख़्तलिफ़ बरसों में इन बिंदुओं पर बल दिया गया। अगर हम उस राह की ओर जाते जिस ओर दुनिया गयी, दुनिया मुख्च रूप से -पूरब और पश्चिमी जगत- हमले के हथियारों के लिए फ़ायटर जेट की ओर बढ़ी और इस वक़्त पांचवीं पीढ़ी के फ़ाइटर जेट तक पहुंची है और हम संभवतः तीसरी पीढ़ी के स्तर पर कोशिश कर रहे होते कि आगे बढ़ें। इसका क्या मतलब है? इसका मतलब यह है कि हम जितनी भी कोशिश करते उनके पीछे रहते, हम उनसे 50 साल पीछे थे। हमने दुश्मन के पीछे पीछे चलने के बजाए कि कभी भी उस तक नहीं पहुंच पाते, ऐसे रास्ते को चुना कि आज उनके मुक़ाबले में हैं। यह बात सही है कि इन बरसों में ख़तरों का सामना रहा, ख़तरे पर आधारित पर्सपेक्टिव के साथ काम में लगे रहे लेकिन ऐसे विकल्प हासिल किए जिससे ख़तरों का जवाब दिया जा सके। ज़्यादातर समय, कम से कम हालिया दशक में, प्रीसीजन टार्गेट बेस्ड पर्सपेक्टिव के साथ आगे बढ़े यानी कुछ चीज़ों के पीछे लगे रहे, कुछ हथियार बनाने की कोशिश की, कुछ उपकरणों की कोशिश में लगे रहे ताकि कहीं से ऐसी सफलता हासिल कर लें कि जिससे दुश्मन की सारी सलाहियत को अनुपयोगी बना दें। इन क्षेत्रों में इस्लामी इंक़ेलाब के नेता का प्रशासनिक रोल सचमुच सटीक और उसका असर अतुल्य रहा है।  

कहीं कहीं हम देखते हैं कि इस्लामी इंक़ेलाब के नेता जो फ़ैसला लेते हैं, जो हस्तक्षेप करते हैं, उनके बारे में शायद यह कहना ग़लत न होगा कि हमारे सैन्य इतिहास के मार्ग को बदल देते हैं। जो पटरी बिछाते हैं वह बहुत प्रभावी है। मैं कुछ नमूनों की ओर इशारा करता हूं:

सन 1984 में हमनें कुछ मीज़ाइलें हासिल कीं। इस्लामी गणराज्य व्यवस्था ने फ़ैसला किया कि इस सीमित तादाद में से 2 मीज़ाईलों को रीवर्स इंजीनियरिंग के लिए इस्तेमाल किया जाए। मिसाल के तौर पर लीबिया से हमने 30 मीज़ाईल हासिल किए जिसमें से 2 मीज़ाईलें हमने निर्माण और प्रोडक्शन के लिए विशेष कीं। ऐसा दो साल हुआ। यानी किसी भी वक़्त हम हमारे पास 7-8 से ज़्यादा मीज़ाईल नहीं थे। यानी जब मीज़ाईल मिलते थे तो हम इसे फ़ायर करते थे क्योंकि जंग चल रही थी। अब आप 7-8 मीज़ाईलों में से दो अलग कर दें रीवर्स इंजीनियरिंग के लिए! यह बहुत सख़्त फ़ैसला था।

मुझे याद है कि एक बैठक थी जिसमें ख़ुद हज़रत आग़ा – उस वक़्त राष्ट्रपति थे- आए, वह जगह ऐसी थी जहाँ आईआरजीसी मंत्रालय के कर्मचारियों ने रीसर्च शुरू की थी और हज़रत आग़ा ने उसे देखा। उस वक़्त एक बैठक हुयी। आग़ा को इस बात की चिंता थी कि हम क्यों इतना असमंजस से काम ले रहे हैं, क्यों मीज़ाईल को डिअसेंबल नहीं कर रहे हैं, क्यों काम शुरू नहीं कर रहे हैं, किस बात से हम चिंतित हैं। बल्कि मज़ाक़ में कहा कि अगर मीज़ाईल को जल्दी नहीं खोला तो मुमकिन है वे लोग आएं और इसे भी ले जाकर फ़ायर कर दें और आपके हाथ में कुछ नहीं बचेगा! हज़रत आग़ा रिसर्च, स्वदेशीकरण और आंतरिक उत्पादन को बहुत अहम मानते थे। उन्हीं बरसों में मीज़ाईल बनाने के एक कारख़ाने के निर्माण की नींव रखी जिसकी फ़िल्म भी है। इसका क्या मतलब है? यानी इस विषय को उसी दौर से अहमियत देना, उन्हीं बरसों के दौरान अहमियत दी गयी।

इसलिए यह काम शुरू हुआ, वह भी जंग के दौरान। लेकिन यह काम मीज़ाईल और दूसरे क्षेत्रों में दीर्घकालिक, कठिन और जटिल था क्योंकि हमारे पास बुनियादी ढांचा नहीं था। इस वक़्त मुमकिन है हम कोई चीज़ बनाने का फ़ैसला करें, तो उसके उत्पादन के पुर्ज़े मुहैया करेंगे और एक सिस्टम बनाएंगे। उस वक़्त ढांचागत सुविधाओं का उत्पादन नहीं होता था, मुल्क में उसकी प्रौद्योगिकी ही नहीं थी। हमें मीज़ाईल की टेक्नॉलोजी तक पहुंचने के लिए, पहले से आवश्यक कुछ टेक्नॉलोजी को हासिल करना ज़रूरी था कि हम उस तक पहुंच सकें।

नब्बे के दशक के आग़ाज़ में सन 1991 में पूर्व सोवियत संघ के टूटने के वक़्त, अचानक ऐसी स्थिति पेश आयी कि जिसके तहत ईरान को बहुत अच्छी पेशकश की गयी। पूर्व सोवियत संघ की आर्थिक स्थिति ख़राब हो गयी थी, टूट चुका था, टूटने के नतीजे में जो मुल्क वजूद में आए थे, उन्हें पैसों की मुश्किल थी। उन्होंने हमें मीज़ाईल और उसके लॉन्चर बेचने की पेशकश की। हम उस वक़्त उत्तरी कोरिया से जो मीज़ाईल क़रीब 25 लाख डॉलर में ख़रीदते थे, एक मीज़ाईल 25 लाख डॉलर का! उन्होंने हमें एक मीज़ाईल 10 हज़ार डॉलर में बेचने की पेशकश की। उन दिनों मीज़ाईल लॉंचर पैड क़रीब 25 लाख या शायद 30 लाख डॉलर का उत्तर कोरिया से ख़रीदते थे, कि जिसकी क्वालिटी रूस वाले से अच्छी नहीं थी, उन्होंने उसे हमें 1 लाख डॉलर में देने की पेशकश की। ख़ैर आर्म्ड फ़ोर्सेज़ में, मीज़ाईल इकाई में, वायु सेना में, न सिर्फ़ यह कि किसी ने इस पेशकश का विरोध नहीं किया बल्कि सभी ने इसे सराहा और कहा कि जाइये जल्दी से ख़रीद लाइये। इस्लामी गणराज्य में सिर्फ़ एक शख़्स ने इसका विरोध किया और वह हस्ती थी आयतुल्लाह ख़ामेनेई। बहुत से अधिकारी आए और कहा कि चलते हैं हज़रत आग़ा को राज़ी करते हैं। लेकिन हज़रत आग़ा ने विरोध किया। बार बार इसरार किया गया तो उन्हें ग़ुस्सा आ गया और कहा कि क्यों ऐसा करना चाहते हैं, कोई इस तरफ़ न जाए। क्यों? क्योंकि हमने 1984 में मीज़ाईल बनाने का काम शुरू कर दिया था। सन 1990, 1991 और 1992 में इस काम का नतीजा धीरे धीरे सामने आने लगा। उन दिनों जब हमें नतीजा मिलना शुरू हो गया था, उस वक़्त हम क्या करना चाह रहे थे? कुछ मीज़ाईल ख़रीद कर लाना चाहते थे। उसका नतीजा क्या होता? नतीजा यह होता कि काम रुक जाता। हज़रत आग़ा ने इसलिए कि यह काम न रुके, कहा कि कोई ख़रीदारी नहीं होगी! यहाँ तक कि उन्हें ग़ुस्सा आ गया और कुछ अधिकारियों को डांटा और कहा कि क्यों यह काम करना चाहते हैं, यह काम न कीजिए। उन्होंने मुख़ालेफ़त की।

सवालः आग़ाज़ के बरसों में बड़ी तादाद में मीज़ाईल की ख़रीदारी न करने के उस फ़ैसले का ईरान के मीज़ाईल उद्योग के सफ़र पर क्या असर पड़ा?

जवाबः शायद उस दिन मिसाल के तौर पर हमारे जैसे लोग कि जिनकी उम्र 29-30 साल थी, जैसे शहीद तेहरानी मुक़द्दम जैसे लोग मिसाल के तौर पर कहते थे कि काश आग़ा मान जाते, काश हम ख़रीद लेते, क्यों नहीं ख़रीदी। उस दिन हम लोगों का ध्यान इस बात की ओर नहीं था कि यह उपाय कितना प्रभावी है, और अगर उस दिन मार्ग के चयन का हमारा फ़ैसला सही न होता और हज़रत आग़ा हमारे लिए मार्ग को निर्धारित न करते, तो समझ लीजिए ज़मीन से ज़मीन पर मार करने वाले मीज़ाईल, लंबी दूरी तक मार करने वाले मीज़ाईल या तो बना न पाते या बहुत पीछे होते। चूंकि जब आप ख़रीदते तो वे आपको बाद में दूसरी चीज़ें भी देते, फिर उसके बाद आप ख़रीदने के रास्ते पर लग जाते। ख़रीदने के रास्ते के भी सिर्फ़ एक हद तक खुले रहने की संभावना रहती, एक मुद्दत के बाद वह बंद हो जाता, फिर आप नहीं ख़रीद पाते, या नए स्पेसिफ़िकेशन के साथ, नई मारक क्षमता वाले आप फिर नहीं ख़रीद पाते। ख़ैर, तो यह बहुत ही निर्णायक फ़ैसला था, यह रास्ता जिसकी बुनियाद हज़रत आग़ा ने रखी।

सवालः अगर हम पाकीज़ा डिफ़ेंस के अंत के बाद के ज़माने की आज के दौर की मुल्क की सैन्य स्थिति से तुलना करें तो कितना अंतर नज़र आएगा?

जवाबः हम उस वक़्त सही समीक्षा कर सकते हैं कि जब हमें पता हो कि हमने कितनी तरक़्क़ी की है ताकि तुलना कर सकें। जंग के अंत में और प्रस्ताव 598 क़ुबूल करने की स्थिति को देखें कि हम कहाँ थे और अब सन 2021 में हम कहाँ हैं। देखिए इन 32 बरसों में हमने कितनी तरक़्क़ी की है। जिस वक़्त आईआरजीसी जंग के मैदान में उतरी, उस वक़्त उसके पास कुछ नहीं था लेकिन जंग के अंत में दुश्मन फ़ौज के कुछ हथियार हमारे हाथ लगे थे। ज़्यादा से ज़्यादा तोप, टैंक, हैंड ग्रेनेड, हल्के और भारी हथियार थे, हमारे पास हथियार कहाँ थे। इंक़ेलाब के दस साल गुज़रने के बाद, सेना के भी 8 साल जंग में गुज़रे थे, जो कुछ उसके पास था, या तबाह हो गया या उसकी तादाद कम हो गयी थी और इससे भी अहम बात यह है कि उस वक़्त आधुनिक तकनीक और हमारे बीच क़रीब 10 साल का फ़ासला हो चुका था। यानी इन बरसों में हम पर पाबंदियां थी, दूसरे मुल्क हमें कुछ नहीं बेचते थे।

जो मुल्क बनाते थे, उन्होंने बहुत तरक़्क़ी कर ली थी, जो देश पश्चिम या पूरब (के ब्लॉक) से समन्वित थे, उन्हें उनसे हथियार मिलते थे। इराक़ को जंग के आख़िरी दिन तक हथियार मिलते रहे, उसने आधुनिक हथियार भी हासिल किए, लेकिन हम नहीं ले सके, हमें नहीं बेचते थे, हम पर पाबंदियां थीं, इन पाबंदियों की वजह से हम पीछे हो गए थे। जंग के अंत के वक़्त हमारी सैन्य हालत, हमारी क्षमता, हमारा सैन्य उद्योग, पिछड़ेपन का शिकार था। हमारी स्थिति अच्छी नहीं थी, न फ़ौज की और न ही आईआरजीसी की। हमारे पास सैन्य उपकरण नहीं थे, मुट्ठी भर पश्चिम के सैन्य उपकरण थे। कुछ पूर्वी ब्लाक के थे, कुछ दुश्मन सेना से छीन कर मिले थे जो अपने दौर की क्षमता के हिसाब से भी पुराने थे।

ख़ैर, जब आप पाकीज़ा डिफ़ेंस के दौर के ख़त्म होने को मद्देनज़र रखें तब आपको नज़र आएगा कि हम कहाँ थे। आज के दौर को देखिए कि हम कहाँ पहुंच गए हैं। इन तीन दशकों में हमारे सैन्य उद्योग के ख़िलाफ़ पाबंदियां ज़्यादा कड़ी की गयीं, कम नहीं, बल्कि जंग के दौर से भी ज़्यादा कड़ी की गयी। किसी तरह की हमें कोई मदद भी नहीं मिली। हम पर आर्थिक पाबंदियां भी थीं, कमोबेश हमेशा हम पर आर्थिक पाबंदियां थीं, आर्थिक मुश्किलें और आर्थिक दबाव भी थे, यानी हम पर दबाव डालते थे, तेल की क़ीमत नीचे ले आते थे, स्वाभाविक सी बात है कि आर्म्ड फ़ोर्सेज़ को जितनी पैसों की ज़रूरत थी, उन्हें कभी भी उतने नहीं मिल सकते थे। हमेशा मुश्किलों में थे, यानी बजट की नज़र से भी और दूसरे मुद्दों की हद ही नहीं थी।

सवालः कठिन पाबंदियों के दौर में, ये तरक़्क़ी कैसे मुमकिन हुयी? और इस्लामी इंक़ेलाब के नेता ने इस संबंध में किस तरह का रणनैतिक रोल निभाया?

जवाबः आज देखिए हम कहाँ पहुंच चुके हैं। आज आप देखिए, रक्षा उदयोग, ज़मीन से ज़मीन पर मार करने वाले मीज़ाईल सिस्टम, ड्रोन, रडार, इलेक्ट्रॉनिक वारफ़ेयर, एयर डिफ़ेंस और दूसरे बहुत से क्षेत्रों में चाहे ज़मीन हो या समुद्र, आज हमारी हैसियत विश्व स्तरीय है न कि क्षेत्र के स्तर पर। विकास योजनाएं और निर्धारित लक्ष्य ये कहते हैं कि हमें आर्थिक क्षेत्र में क्षेत्र के अग्रणी मुल्कों में होना चाहिए। यह कि शुरू के तीन अग्रणी मुल्कों में हम हो; लेकिन सैन्य क्षेत्र में, हमारा नाम क्षेत्रीय स्तर पर नहीं बल्कि विश्व स्तर पर लिया जाता है।

अगर दुनिया में बीस मुल्क हैं जो क्वालिटी के लेहाज़ से अच्छा और अपटूडेट रडार बनाते हैं – हो सकता है कि उनके स्टैंडर्ड में थोड़ा अंतर हो- लेकिन हम उन बीस मुल्कों में निश्चित तौर पर शामिल हैं। ड्रोन और चालक रहित विमान के क्षेत्र में दुनिया में कितने मुल्क काम कर रहे हैं? हम निश्चित तौर पर टॉप पाँच में हैं। जो मुल्क आधुनिकतम एयर डिफ़ेंस बना सकते हैं, हम उन मुल्कों में शामिल हैं। आप देखिए ऐसे हालात में जब हमारे हाथ बंधे हुए थे, पाबंदियां थीं, हथियार उद्योग के क्षेत्र में पाबंदियां थीं, यहाँ तक कि मुआयने पर पाबंदी – यानी हमें दुनिया में आयोजित होने वाली सैन्य नुमाइशों में शरीक होने की भी इजाज़त नहीं थी, हमें नहीं बुलाया जाता था, इजाज़त नहीं देते थे- सचमुच बहुत ज़्यादा पाबंदियां थी, किसी मुल्क को ऐसी स्थिति का सामना नहीं था। आज हम इस बिंदु पर पहुंच गए हैं, क्या यह संयोगवश  है? नहीं, इसके लिए कोशिश की गयी, मार्गदर्शन किया गया, रोड मैप दिया गया, प्राथमिकताएं तय की गयीं, बुनियादी ढांचे तैयार किए गए तब हम इस मंज़िल पर पहुंचे। इसका केन्द्र बिंदु इस्लामी इंक़ेलाब के नेता रहे हैं। 

सवालः मीज़ाईल और ड्रोन के क्षेत्र में विशेषज्ञ स्तर के फ़ैसलों में इस्लामी इंक़ेलाब के नेता का क्या फ़ैसला और मार्गदर्शन था?

जवाबः मीज़ाईल क्षेत्र में, कम से कम इन 12 बरसों में, इस्लामी इंक़ेलाब के नेता के साथ हमारे सीधे तौर पर संपर्क थे और नियमित रूप से उनके साथ बैठकें रहती थीं और मूल मुद्दों को, चाहे आमने सामने या फिर ख़त के ज़रिए, उनसे समन्वय बनाते थे। वे इस संबंध में अपनी राय रखते थे और कभी कभी हमारे सामने मौजूद मार्ग में सुधार करते थे। मिसाल के तौर पर जब हम मीज़ाईल के तकनीकी पहलुओं से जुड़े बिन्दुओं पर काम करके रफ़्तार को बढ़ाना चाहते थे, तो वे बल देते थे कि हम सटीक रूप से निशाना बनाने को प्राथमिकता दें।

हम लोग आपस में बहस करते थे, साथी कहते थे मिसाल के तौर पर हम मीज़ाईल के वारहेड्स से मारेंगे, एक टन के वॉरहेड्स से, तो यहाँ पर सटीक निशाने की इतनी अहमियत नहीं रह जाती। सटीकता क्या है अगर 200 मीडर दूर भी लगे तो वह निश्चित तौर पर नष्ट हो जाएगा, हम क्यों इतना ज़्यादा पूंजिनिवेश करें? इसके अलावा यह कि हमारे पास बुनियादी ढांचा भी नहीं है, सहूलतें नहीं हैं। बरसों बाद हमें यह बात समझ में आयी कि नहीं, हमें मिसाल के तौर पर कभी कभी चार घर में से एक को चुनना है जिसमें आतंकवादी है, सटीक रूप से उसी को निशाना बनाना है। हल्के वारहेड्स से अगर हम मारें तो सिर्फ़ आतंकवादी गुट का सरग़ना मारा जाए। दाइश के ख़िलाफ़ जंग में ये चीज़ें हमने देखीं। इराक़ के कुर्दिस्तान में तकफ़ीरी और आतंकवादी गुटों को मारते वक़्त हमने इन चीज़ों को देखा। या मुल्क के दक्षिण-पूर्वी भाग में पुलिस के लिए घात लगाकर होने वाले हमले का जाल बिछाया गया था। उनके सरग़ना से निपटने के लिए हमें इस चीज़ की ज़रूरत थी। इन मौक़ों पर हमने महसूस किया कि सटीकता बहुत ज़रूरी है, सटीक तौर पर लगना चाहिए। ख़ुद एरोस्पेस के क्षेत्र में, मिसाल के तौर पर पुराने कमांडरों का अलग रुझान था, एयर फ़ोर्स और एयरक्राफ़्ट के विकास के क्षेत्र में। हज़रत आग़ा ने कहा कि इस क्षेत्र के पीछे न जाइये, यह आपका काम नहीं है, यह फ़ौज की ज़िम्मेदारी है। आप सिर्फ़ मीज़ाईल में लग जाइये। किसी दूसरी चीज़ के पीछे न जाइये।

या इन हालिया बरसों में ड्रोन के क्षेत्र में, उसके असर को हम देख रहे हैं, बहुत बड़ी ताक़त का उदय हुआ है। आप देखिए क़रेबाग़ जंग के बाद, आर्मीनिया और आज़रबाइजान के बीच जंग के बाद, मिसाल के तौर अचानक कुछ मुल्क जागरुक हो गए, ड्रोन के रोल को देख रहे हैं कि बहुत अहम है, प्रभावी है। मिसाल के तौर पर 30 हज़ार डॉलर के एक ड्रोन से, एक एस-300 सिस्टम को मारते हैं और 30 करोड़ डॉलर मिट्टी हो जाता है। एक टैंक नहीं मालूम कितने मीलियन डॉलर का होता है या एक विशेष प्रकार की कैट्यूशा की मोर्चाबंदी, एक ड्रोन से तबाह हो जाती है। आज ये लोग इसकी अहमियत को समझ रहे हैं।

बरसों पहले हज़रत आग़ा ने इस बात पर ताकीद की थी, फ़ोर्सेज़ का मनोबल ऊंचा था, शौक़ था, कोशिश की गयी और इस वक़्त हम विश्वस्तरीय फ़ोर्स हैं। किसी चीज़ की कमी नहीं है, कुछ क्षेत्रों में तो हम अग्रणी हैं। इनोवेशन, ईरानी है, ईरानी का काम है और मूल रूप से अलग है यानी इसका आयाम मौलिक है।

सवालः कुल मिलाकर अगर आप आज ईरान की ताक़त में इस्लामी इंक़ेलाब के नेता की कमांडरशिप को बयान करना चाहें तो क्या कहेंगे?

जवाबः मेरा यह मानना है कि रक्षा और सैन्य विभाग में इस्लामी इंक़ेलाब के नेता का रोल बहुत बड़ा है। मैंने सिर्फ़ तीन पहलुओं का ज़िक्र किया लेकिन हक़ीक़त में इससे कहीं ज़्यादा है, जिसकी गहराई से समीक्षा करना, अध्ययन करना और रिसर्च करना चाहिए। आज अगर हमारा मुल्क ताक़तवर है, अगर हम एक क्षेत्रीय ताक़त हैं, यहाँ तक कि ख़ुद अमरीकी और पश्चिमी भी कहते हैं, मिसाल के तौर पर यह कि ईरान ने अपने ड्रोन्ज़ से 75 साल बाद हमारे हवाई वर्चस्व को छीन लिया है, तो यह छोटी बात नहीं है, अमरीकी फ़ौज का एक कमांडर यह कह रहा है।

और ऐनुल असद छावनी पर हमले के बारे में कहते हैं कि ईरान ने जिस जगह को निशाना बनाने का फ़ैसला किया, बिलकुल उसी को निशाना बनाया। या दाइश को मारने में, आख़िर यह आतंकवादी गुट पारंपरिक फ़ौज तो नहीं थी कि मोर्चा बनाकर कार्यवाही की जाती। ये वे लोग थे जो घरों में रहते थे, मुमकिन था कि उनके साथ बच्चे और औरतें भी हों। हमें सिर्फ़ उसी जगह को निशाना बनाना था जो सिर्फ़ दाइश की हो, उसकी पहचान करनी थी और निशाना बनाना था और वह भी दुनिया की नज़रों के सामने। यानी जहाँ अमरीकी फ़ाइटर जेट उड़ान भर रहे थे, योरोपीय मौजूद थे, सीरिया था, तुर्किये था। यानी कार्यवाही ऐसी जगह नहीं थी जहाँ हम कहते कि हम पहाड़ के दर्रे में गए, काम किया और कह दिया कि हमने यह काम किया, बल्कि यह सारी दुनिया की नज़रों के सामने था और सबने उसकी समीक्षा की, सभी ने उसे सराहा और कहा कि आपका काम बहुत अच्छा था।

आज हमारे मुल्क में जो यह शांति व सुरक्षा है, इसके नतीजे में अवाम सुरक्षित है। अब भी मुख़्तलिफ़ मुल्कों में असुरक्षा की स्थिति है, यानी सही मानी में सुरक्षा किराए पर हासिल नहीं की जा सकती। इस वक़्त भी जब अमरीकी फ़ौजियों की तादाद क्षेत्र में कम होती जा रही है, अरम मुल्क चिंता जता रहे हैं और कह रहे हैं कि हमें अमरीका के जाने पर चिंता है। क्यों? क्योंकि उनकी ताक़त उनकी अपनी नहीं है, यह किराए की ताक़त और अमरीकी ताक़त है।

इन सब चीज़ों के लिए हम इस्लामी इंक़ेलाब के नेता के ऋणि हैं और इंशाअल्लाह उनके नेतृत्व और मार्गदर्शन से हमारी ताक़त दिन ब दिन बढ़ती रहेगी। उन निर्देशों पर जो जारी किए गए हैं, मैंने सैन्य विभाग की व्याख्या की, आर्थिक क्षेत्र में भी हैं, संस्कृति के लिए भी, अनेक मामलों के लिए भी, जीवन शैली के लिए भी, हर चीज़ के लिए हैं, अगर मुख़्तलिफ़ ओहदेदार, अवाम और वे लोग जिनके पास कोई ज़िम्मेदारी और ओहदा है, अमल करें तो इंशाअल्लाह यह मुल्क गुलिस्ताँ बन जाएगा।

सवालः एरोस्पेस फ़ोर्स में नौजवानों और असाधारण प्रतिभा रखने वाले नौजवानों को किस हद तक शामिल किया गया है  और हमारी मौजूदा कामयाबियां किस हद तक नौजवानों की मौजदूगी का नतीजा हैं?

जवाबः देखिए एरोस्पेस फ़ोर्स में ये कामयाबियां हासिल हुयी हैं और उन कार्यवाहियों की वजह से जो अंजाम पायी हैं, क़रीब क़रीब सभी लोग इन्हें मानते हैं। हम भी जब बात करते हैं तो कहते हैं कि मिज़ाईल उद्योग सन 1984 से शुरू हुआ, शायद सभी ये सोचें कि इस काम को 37 साल गुज़र चुके हैं, उस वक़्त के कुछ बूढ़े लोग आए थे, जिनके पास यह जज़्बा था, उन्होंने यह काम किया। मैं अब बता रहा हूं कि एरोस्पेस फ़ोर्स में काम करने वालों की अवसत उम्र 33 साल है। हमारे कमांडरों की अवसत उम्र, चाहे वे बटालियन कमांडर हों, बेस कमांडर हो, या क्षेत्रीय स्तर के कमांडर हो, 35 से 40 साल है।

संयोग से हमारे रिसर्च स्कॉलर्ज़ में, जो रिसर्च वर्क कर रहे हैं, प्रोडक्शन का काम कर रहे हैं, वे सब जवान हैं, सबकी उम्र कम है। क्या हमने यह काम सिर्फ़ एरोस्पेस फ़ोर्स के अंदर मौजूद इन नौजवानों के ज़रिए ही कामयाबी से पूरे किए हैं? नहीं, ये क्षमता और ताक़त पूरे मुल्क के सहयोग से हासिल हुयी है। हमारा अब सभी यूनिवर्सिटियों से संपर्क है, जैसा कि इस्लामी इंक़ेलाब के नेता ने बार बार फ़रमाया है कि अगर हमें उद्योग में क्रांति लानी है तो उद्योग और यूनिवर्सिटी के बीच संपर्क क़ायम होना चाहिए, हमारा यह संपर्क अब स्थापित है।

हमने बहुत से प्रतिभाशाली नौजवानों की मदद की, उन्हें प्रेरित किया, उन लोगों ने नालेज बेस्ड कंपनियां क़ायम कीं और अब वे हमारे साथ एग्रीमेंट करके मुख़्तलिफ़ विभागों में काम कर रहे हैं, न सिर्फ़ हमारे साथ बल्कि दूसरों के साथ भी। देखिए यह काम ज़्यादातर इन्हीं नौजवानों के ज़रिए अंजाम पाए हैं। मेरे ख़याल में मुश्किलों से निकलने का रास्ता भी इन्हीं नौजवानों के ज़रिए मुमकिन है, अलबत्ता उन लोगों के अनुभवों से फ़ायदा उठाते हुए जिनकी उम्र इन्ही मैदानों में गुज़री है। जब हम जवान कहते हैं तो हमारा मतलब यह नहीं कि एक जवान को, एक 30 बरस के जवान को मंत्री बना दिया जाए, हमारा मतलब यह नहीं है। लेकिन बहरहाल सारी ज़िम्मेदारियां मंत्रालय के मंत्री के स्तर की तो नहीं होतीं। आप देखिए कि हमारे पास कितने निर्देशक हैं, गवर्नर हैं, कारख़ानों में, मुल्क के उद्योगों में, यूनिवर्सिटियों में, नौजवान आकर काम कर सकते हैं और हमारा इस सिलसिले में बहुत कामयाब तजुर्बा रहा है।

ये ढेरों काम जो हम कर रहे हैं, आप कुछ सौ या ज़्यादा से ज़्यादा दो हज़ार लोगों के साथ तो नहीं कर सकते। तो स्वाभाविक सी बात है कि ये जवान ही हैं जो ये काम कर रहे हैं। मेरे ख़याल में न सिर्फ़ सैन्य और शस्त्र उद्योग के मैदान में बल्कि अर्थव्यवस्था और दूसरे क्षेत्रों में भी तरक़्क़ी का रास्ता इन नौजवानों पर भरोसा और उन्हें मौक़ा देना है कि वे आकर इन मसलों को हल करें और हमने भी उनसे भरपूर फ़ायदा हासिल किया है।

सवालः इस्लामी इंक़ेलाब के नेता के साथ मुलाक़ातों और बैठकों के बारे में आपकी कुछ और यादे हैं?

मैं कुछ तो बयान कर चुका हूं। अलबत्ता ऐसा नहीं कि इस्लामी इंक़ेलाब के नेता हर मामले में हस्तक्षेप करते हों या मिसाल के तौर पर जो काम हो रहा हो उसके बारे में कोई अलग राय दें। कई मौक़े ऐसे आए जब हमने उनकी सेवा में हाज़िर होकर रिपोर्ट दी तो उन्होंने फ़रमाया, "इसी रास्ते पर आगे बढ़ो, जिस रास्ते पर तुम लोग बढ़ रहे हो, वही सही है।" कुछ मौक़े ऐसे भी थे जब मैंने उनसे पूछा, "आग़ा! आप एरोस्पेस फ़ोर्स की ओर से मुतमइन हैं?" तो उन्होंने फ़मराया, "मैं पूरी आईआरजीसी की ओर से मुतमइन हूं, अलबत्ता अनेक विभागों में अंतर होता है लेकिन मैं एरोस्पेस फ़ोर्स से बहुत मुतमइन हूं।" ये बहुत मीठी यादें थीं, हमारे लिए यह बहुत ही अच्छी यादे हैं कि हम आग़ा की ख़ुशी हासिल करने में सफल रहे।

ऐसा नहीं है कि इस्लामी इंक़ेलाब के नेता एक बैठक में आएं, कुछ बात करें और बात ख़त्म हो जाए। वे पूरी तैयारी के साथ बैठक में आते हैं। बहुत बार हमने बैठकों में देखा कि वे पिछली रिपोर्ट्स और सभी दस्तावेज़ों को ध्यान से पढ़ते हैं। आम तौर पर जब कुछ लोगों के साथ मीटिंग होती है तो वे अपनी घड़ी देखते हैं, बोर होने लगते हैं और इस रवैए से इंसान उकताहट हमसूस करने लगता है लेकिन इस्लामी इंक़ेलाब के नेता हर मामले का गहराई से अध्ययन करते हैं, पहले के हालात की जानकारी रखते हैं, उनके उपायों से अवगत होते हैं और उनकी नज़रों के सामने कई साल की पूरी प्रक्रिया होती है।

सवालः आपने कहा कि आज हमारी सैन्य तरक़्क़ी इस्लामी इंक़ेलाब के नेता के निर्देशों पर अमल का नतीजा है, दूसरे ओहदेदारों के लिए आपकी क्या नसीहत है?

जवाबः हमें इन बरसों में इस्लामी इंक़ेलाब के नेता के मार्गदर्शन और नेतृत्व से जो तजुर्बा हासिल हुआ है, उसके मद्देनज़र मुझे ठोस यक़ीन है कि मुख़्तलिफ़ विभागों में उनकी ओर से दिए गए उपायों और निर्देशों पर अगर अधिकारी गंभीरता से अमल करें तो ज़रूर तरक़्क़ी करेंगे। यहाँ तक कि अतीत से संबंधित उपाय भी। मेरा मानना है कि हर मंत्री को चाहिए कि अपने मंत्रालय से संबंधित इस्लामी इंक़ेलाब के नेता के तीस वर्षीय उपायों को सामने रखे, उन रुझानों का अध्ययन करे और उनसे फ़ायदा उठाए।

मतलब यह कि सभी विभागों के लिए इस्लामी इंक़ेलाब के नेता ने रणनीति बनायी है। यह हमारा मार्गदर्शन कर सकती है। देखिए! सिर्फ़ दौड़ धूप करने से काम नहीं बनता। कुछ कहते हैं कि हमें 24 घंटे में 20 घंटे काम करना चाहिए! यह ज़रूरी नहीं है, शायद 20 घंटे का काम हमें रास्ते से भटका दे। कुछ ज़िम्मेदारों का ज़्यादा काम हक़ीक़त में ज़्यादा नुक़सान का सबब बनता है। हमें सही दिशा में, सही तरीक़े से काम करना चाहिए। रास्ता सही होना चाहिए, बुनियाद सही होनी चाहिए, रोडमैप सही होना चाहिए। मेरे ख़याल में इस्लामी इंक़ेलाब के नेता की यह रणनीति हमारे लिए एक बहुत क़ीमती संपत्ति है। अगर सभी विभाग इन तीन दशकों की उनकी रणनीतियों से सही तरीक़े से फ़ायदा उठाएं तो मेरे ख़याल में मुल्क को इंशाअल्लाह नजात हासिल हो जाएगी।

सवालः आपके ख़याल में मुल्क के मिज़ाईल उद्योग की तरक़्क़ी और कामयाबी का राज़ क्या है?

जवाबः एरोस्पेस फ़ील्ड में तरक़्क़ी का राज़, जिनमें मिज़ाईल टेक्नॉलोजी भी शामिल है, सबसे पहले यह है कि हम ने निर्धारित लक्ष्य और रणनीति पर पूरी निष्ठा से अमल किया। कमांडर्ज़ बदलते रहे लेकिन सबने उस रास्ते की पाबंदी की। दूसरे विभागों में हम देखते हैं कि नया अधिकारी पिछले अधिकारी के सभी कामों को रद्द कर देता है। अगर दस कामों में से तीन ग़लत थे, तो सात सही थे। सबको रद्द नहीं करना चाहिए। हमने अपने रास्ते में ज़रूरी सुधार किए हैं। मेरा रास्ता शहीद मेक़दाद, जनरल सलामी या दूसरे कमांडरों से अलग हो सकता है लेकिन हमने मूल लक्ष्य के प्रति वफ़ादारी को क़ायम रखा है। यह एक सामूहिक कोशिश थी जिसमें सब शामिल थे और सब अहद के पाबंद थे।

एक और अहम बिन्दु यह है कि मुमकिन है कि हमारे पास प्रतिभाशाली अधिकारी मौजूद हों जिनकी सोच वाक़ई अच्छी है। मैंने ख़ुद तजुर्बा किया है कि कोई माहिर हो, क़ाबिल हो लेकिन सभी अधिकारियों को साथ लेकर चलना बहुत ज़रूरी है। अगर सबका सहयोग न हो और हम सिर्फ़ निर्देश जारी करते रहें, तो काम सिर्फ़ उस वक़्त तक चलेगा, जब तक आप हैं, उसके बाद ठप्प हो जाएगा। हम आज भी शहीद तेहरानी मुक़द्दम के कामों के प्रति वफ़ादार क्यों हैं? इसलिए कि वे साथ में बैठते थे, हमसे बात करते थे, हमें सपोर्ट करते थे और चूंकि हम मसलों को अच्छी तरह समझते थे तो शहीद मुक़द्दम की तरह सोचते थे। यह बात बहुत निर्णायक है। अगर कोई अधिकारी अकेले बंद कमरे में ख़ुद ही फ़ैसला करे, तो नतीजे निश्चित नहीं होते। मुमकिन है कि आप को कुछ चीज़ें आती हों, शायद आप को उन पर कमांड हो लेकिन आप आइये, बैठिए, अपने साथियों से बात कीजिए, उनकी राय जानिए, यह विचारों का आदान प्रदान लोगों को आपस में जोड़ता है। हो सकता है कि बीस या तीस फ़ीसदी लोग आपके निर्णय से सहमत न हों, लेकिन वे आपके प्रति वफ़ादार रहेंगे।