इस मौक़े पर वेबसाइट KHAMENEI.IR "फ़तह की रूदाद" श्रंख्ला के तहत, जिसमें ज़ायोनी सरकार के साथ हालिया थोपी गयी 12 दिवसीय जंग में इस्लामी गणराज्य की फ़तह की समीक्षा की जाती है, आईआरजीसी की एरोस्पेस फ़ोर्स के स्वर्गीय कमांडर शहीद हाजीज़ादे का अब तक प्रसारित न होने वाला एक इंटरव्यू पेश कर रही है जिसमें ईरान की मीज़ाईल ताक़त में तरक़्क़ी में सुप्रीम कमांडर के रोल के बारे में बात की गयी है। यह इंटरव्यू चार साल पहले लिया गया था।

सवालः सबसे पहले यह बताइये कि इस्लामी गणराज्य में आर्म्ड फ़ोर्सेज़ के सुप्रीम कमांडर (आयतुल्लाह ख़ामेनेई) का क्या स्थान है?

जवाबः सुप्रीम कमान के इस्लामी गणराज्य के सैन्य और डिफ़ेंस क्षेत्र में सचमुच बहुत व्यापक रोल है। इन बरसों में हथियार उद्योग और हथियार बनाने के क्षेत्र में शायद इशारे की हद तक कोई बात की गयी हो लेकिन मेरी नज़र में व्यापक रोल है और इन्हें गिना जा सकता है। यानी ऐसा नहीं है कि कोई यूंही कह दे इन सारी बातों के दस्तावेज़ मौजूद हैं।

पाकीज़ा डिफ़ेंस के आठ बरसों में इस्लामी इंक़ेलाब के नेता की प्रभावी मौजूदगी को, जिस हद तक इमाम ख़ुमैनी ने इजाज़त दी थी, देखा जा सकता है, चूंकि लंबे समय तक के लिए उनको इजाज़त नहीं दी गयी थी। इमाम ख़ुमैनी के देहांत के बाद, पिछले तीन दशकों में सैन्य मामलों में उनका रोल निर्णायक था। इसकी एक वजह शायद उनकी दुश्मन को पहचानने और ख़ुफ़िया क्षेत्र की सूझबूझ थी। पिछले तीन दशकों में हम बड़ी बड़ी साज़िशों से पार पाने में सफल रहे और हमारे सिस्टम की राह में दुश्मनों ने जो जाल बिछाए थे, उससे सुरक्षित गुज़र गए। इनमें से एक एक मामले में इस्लामी इंक़ेलाब के नेता का रोल और उनकी सूझबूझ पूरी तरह ज़ाहिर है।

सवालः इस्लामी इंक़ेलाब के नेता का संकटों से निपटने और मुल्क को सुरक्षा और सैन्य क्षेत्र की साज़िशों से बचाने में कैसा रोल था? क्या आप इनकी मिसालें पेश कर सकते हैं?

जवाबः मैं कुछ मिसालों का ज़िक्र करुंगा, मिसाल के तौर पर पहली जंग में कुवैत को आज़ाद कराने का विषय था, उस वक़्त मुल्क में बहुत से लोगों ने आकर कहा कि इस वक़्त सद्दाम ख़ालिद बिन वलीद के रोल में है और हमें चाहिए कि सद्दाम का साथ दें और अमरीका से लड़ें। उस वक़्त बहुत से अधिकारियों ने यह बात कही थी। सिर्फ़ एक शख़्सियत जिसने इस बात को समझा कि यह एक चाल है और इस मोर्चे के दोनों पक्ष असत्य के गिरोह हैं यानी एक ओर अमरीका, योरोप और पश्चिमी मुल्क और दूसरी ओर सद्दाम। हज़रत आग़ा (आयतुल्लाह ख़ामेनेई) ने इजाज़त नहीं दी कि मुल्क और आर्म्ड फ़ोर्सेज़ इस चाल में फंसे।

या अफ़ग़ानिस्तान की जंग में और पिछले 30 बरसों में ऐसे बहुत से मौक़े आए जब उनमें कूद पड़ना मुल्क के लिए एक जाल था। यह हज़रत आग़ा की दुश्मन को पहचानने और ख़ुफ़िया क्षेत्र की सूझबूझ की वजह से है, चूंकि वह सिर्फ़ अवाम के स्तर का संचालन नहीं करते इसलिए उनके लिए ज़रूरी है कि महारत हो और हमने सभी आयाम से देखा कि उनमें यह चीज़ है। उच्चस्तरीय और माहिर कमांडरों के बीच जब बहस करते हैं और जो तर्क वे पेश करते हैं वह उनकी परिपक्वता को दर्शाता है और बहुत से मौक़ों पर उन्होंने मुल्क को बचाया है।

आप हमारे आस-पास (के मुल्कों को) देखिए, वेस्ट एशिया को, ज़्यादातर मुल्क ढीले पड़ गए हैं, सरकारें कमज़ोर हो गयी हैं, फ़ौजें ख़त्म हो गयी हैं, अशांति बहुत हो गयी है, बहुत ज़्यादा हंगामा है। ये सब अमरीका, ब्रिटेन, ज़ायोनी शासन और पश्चिम की साज़िशें हैं कि ये क्षेत्र अराजक हो जाएं। उनका मुख्य लक्ष्य ईरान था। ख़ैर आप तो देख ही रहे हैं कि इस वक़्त इराक़ की स्थिति कैसी हो गयी है, इन दिनों अफ़ग़ानिस्तान के हालात को देखिए, सीरिया की स्थिति को देखिए, ईरान वहाँ कितना सक्रिय रहा, मदद की लेकिन अंततः वहाँ फ़ौज को कमज़ोर कर दिया गया, मुल्क को तबाह कर दिया गया।

कुछ जगहों पर कि जहाँ हमें सक्रिय होना चाहिए था, कुछ लोग कहते थे कि हमें ऐसा नहीं करना चाहिए, मिसाल के तौर पर जिस वक़्त तकफ़ीरी गिरोह सीरिया और इराक़ में दाख़िल हुए और वहाँ क़ब्ज़ा कर लिया तो बहुत से लोग कहते थे कि हमसे क्या मतलब, हम किस लिए अपने आपको फंसाएं, यहाँ पर इस्लामी इंक़ेलाब के नेता ने पूरी दृढ़ता से हुक्म दिया कि हमें सक्रिय रूप से भाग लेना चाहिए। आज इस वाक़ए को बरसों हो चुके हैं, इस बारे में राय क़ायम करना बहुत आसान हो गया है। आज कुवैत जंग के बारे में, अफ़ग़ानिस्तान के विषय पर और वे जाल जो दुश्मन ने हमारे लिए बिछाए थे, बहुत आसानी से बात की जा सकती है। लेकिन देखिए उस वक़्त जब हज़रत आग़ा ने ये फ़ैसले किए, उन्होंने फ़ैसला किया कि हम सीरिया जंग में शामिल हों, क्योंकि अगर वहाँ नहीं लड़ते तो हमें तेहरान में लड़ना पड़ता, किरमानशाह में लड़ना पड़ता, हमेदान में लड़ना पड़ता। यानी एक जगह हमें भाग लेना ज़रूरी था एक जगह भाग नहीं लेना था। यह इस्लामी इंक़ेलाब के नेता की रणनीति और उनकी संचालन क्षमता थी कि ऐसा हुआ। मेरे विचार में यह एक बहुत अहम विषय है जिसके बारे में अलग से चर्चा होनी चाहिए।

दूसरा क्षेत्र यह है कि इस वक़्त हमारी आर्म्ड फ़ोर्सेज़ में, हमारी सैन्य फ़ोर्सेज़ में- सेना में भी, आईआरजीसी में भी और बसीज में भी- बहादुरी और ज़ुल्म के ख़िलाफ़ लड़ने का जज़्बा है। उनमें यह भावना नहीं है कि किसी फ़ौज के मुक़ाबले में संभवतः हार सकते हैं। ये फ़ोर्सेज़ ताक़तवर होने का एहसास करती हैं, ताक़तवर हैं। ये सब उस तरबियत की देन है जो इन्हें इस्लामी इंक़ेलाब की कामयाबी के बाद ख़ास तौर पर पिछले तीन दशकों में दी गयी है।

बाक़ी इंटरव्यू बाद में...