उनकी बेटियां और औरतें अचानक असहाय रूप से इस तरह बलि बन रही हैं कि मानो उन्हें अपनी मुक्ति के लिए अमरीकी मीज़ाइलों की तुरंत ज़रूरत है। मानो आज़ादी, हमलावर मीज़ाइलों और गोला बारूद से हासिल होती है। और इस तरह 'आज़ादी' के नाम पर क़ौमों को दरिंदगी का निशाना बनाया जा रहा है। महिला अधिकार के विषय को पश्चिम के साम्राज्यवादी शासनों के रक्तरंजित इतिहास के जंगी प्रचार में बार बार इस्तेमाल किया गया है। इतिहास बताता है कि पश्चिमी साम्राज्यवाद की वास्तविक चिंता कभी भी आज़ादी या न्याय नहीं रही है, बल्कि उनके आर्थिक और भूराजनैतिक हितों की रक्षा और पैठ में विस्तार के लिए है। मीडिया भी इन सरकारों के ख़ूंख़ार नेताओं के साथ मिलकर इन आपराधिक नीतियों का औचित्य दर्शाने में मदद कर रहा है और जंग और पाबंदी को एक मूल्यवान लक्ष्य के लिए मानवीय हस्तक्षेप दिखाता है जिसे वह "महिला की आज़ादी" कहता है।

जैसा कि "How imperialists justify invasion"1 शीर्षक के तहत लेख में इस बात की व्याख्या की गयी कि पश्चिम के, मुसलमान औरतों के अधिकारों का सपोर्ट करने के दावे की जड़ ऐसे साम्राज्यवादी विचारों में है जो इन औरतों को पिछड़ेपन की बलि और पश्चिम को उसका मुक्तिदाता समझता है। अमरीका, ब्रिटेन और फ़्रांस जैसी पश्चिमी ताक़तें बरसों से "महिला अधिकार" की बहस को स्वाधीन देशों पर सैन्य चढ़ाई, उन पर आर्थिक पाबंदी और राजनैतिक वर्चस्व के लिए एक कवर के तौर पर इस्तेमाल कर रहे हैं। "महिला आज़ादी" जैसे नारे न सिर्फ़ यह कि हमदर्दी के लिए नहीं बल्कि जनमत को अपनी ओर करने, हमले को वैध दर्शाने और साम्राज्यवादी हस्तक्षेप का औचित्य दर्शाने का एक हथकंडा हैं कि जिसका नमूना अफ़ग़ानिस्तान और इराक़ पर नाजायज़ क़ब्ज़ा है जिसे महिला आज़ादी के नाम पर किया गया, लेकिन इसका नतीजा सिवाए नरसंहार, ग़रीबी, मूल ढांचों की तबाही और महिलाओं के लिए दुगुनी पीड़ा के कुछ और नहीं था।

पश्चिमी मीडिया, इस बहस के ज़रिए, अपने आडियंस को यह यक़ीन कराना चाहता है कि बेगुनाहों की हत्या, बच्चों को भूखा रखना, शहरों और उसके मूल ढांचों पर बमबारी, सरकारों को गिराना और उनकी जगहों पर पिट्ठू सरकारों को लाना, एक मानवीय लक्ष्य के लिए है जिसका शीर्षक "महिला आज़ादी" है।

 

ईरान के ख़िलाफ़ कई दशकों से दुष्प्रचार

ईरान के संबंध में भी यही सिनैरियो बरसों से दोहराया जा रहा है। ईरानी महिलाओं के हिजाब को उनका दमन दर्शाने से लेकर इस सरज़मीन की महिलाओं की वैज्ञानिक, सामाजिक और राजनैतिक सफलताओं पर पूरी तरह पर्दा डालने तक, पश्चिमी मीडिया ने ईरानी महिलाओं की छवि को एक मज़लूम और असहाय इंसान के रूप में पेश करने की कोशिश की है जो "आज़ाद जगत" के हाथों मुक्ति दिलाए जाने का इंतेज़ार कर रही है। क्या यह वही आज़ाद जगत नहीं है जिसने ईरानी माँओं को ख़ास दवाओं से वंचित रखा? यह वही नहीं है जिसने पैरालाइज़ कर देने वाली वाली पाबंदियों के ज़रिए परिवार की सरपरस्त महिलाओं के लिए खाने पीने की चीज़ों को मुहैया करना सख़्त कर दिया?

ईरान पर हालिया हमला, साम्राज्यवाद की घृणित जंगों का सिर्फ़ एक अध्याय नहीं है, बल्कि उन लोगों के ख़िलाफ़ बरसों से जंगी प्रोपैगंडे और पहचान की जंग की तफ़सीली दास्तान है जिन्होंने चालीस-पैतालीस साल पहले अपनी भूमि से एक पिट्ठू शासन को बाहर निकालने और सज्जनता और आज़ादी के साथ ज़िंदगी गुज़ारने का फ़ैसला किया। इन बरसों में, पश्चिम के विशाल प्रचारिक तंत्र ने यह कोशिश की कि "ईरानी महिला की आज़ादी" का विषय इस्लामी गणराज्य के ख़िलाफ़ प्रोपैगंडे का केन्द्र बिंदु बना रहे। इस्लामी गणराज्य को गिराने के लिए इस प्रोपैगंडे की बुनियाद नारीवादी नारों की आड़ में रखी गयी है। दुनिया की न्यूज़ एजेंसियों की हेडलाइन हमेशा ईरानी महिला के विषय ख़ास तौर पर हेजाब के क़ानून पर केन्द्रित होती है। हेजाब पहनने वाली महिलाओं को हमेशा ऐसे प्रतीक के तौर पर दिखाया जाता है जो अतिवादी है और उसका ब्रेनवॉश किया गया है या उसे एक धार्मिक सरकार के वर्चस्व के तहत ख़ामोशी से बलि चढ़ने वाली महिला के शीर्षक के तौर पर याद किया जाता है। जब ईरान में सत्ता गिराने का औचित्य दर्शाने की कोशिश की जाती है उस वक़्त ऐसे थिंक टैंकों से नारीवादी और समानता के नारे सुनने में आते हैं जो ऐसे सैन्य संगठनों और ऐसे अधिकारियों के अधीन हैं जो दसियों लाख बेगुनाह लोगों के ख़ून के ज़िम्मेदार हैं।   

यह विषय, ईरान पर ज़ायोनी सरकार के हमले के बाद इमाम ख़ामेनेई के टेलीविजन पर तीसरे संदेश में प्रतिबिंबित था, "अमरीकी इस्लामी इंक़ेलाब के आग़ाज़ से इस्लामी ईरान से लड़ रहे हैं, ज़ोर आज़माई कर रहे हैं। हर बार कोई बहाना निकाल लेते हैं। एक बार मानवाधिकार है, एक बार डेमोक्रेसी की रक्षा का बहाना पेश करते हैं एक बार महिला अधिकार है, एक बार यूरेनियम संवर्धन को बहाने के तौर पर पेश करते हैं, एक बार मूल रूप से परमाणु विषय है, एक बार मीज़ाईल बनाने का विषय है; मुख़्तलिफ़ बहाने पेश करते हैं लेकिन अस्ल बात सिर्फ़ एक है और वह ईरान से सरेंडर कराना है।"

इस बीच मीडिया भी ज़िम्मेदार है जिसने एकतरफ़ा तौर पर विकृत छवि दिखा कर जंग और पाबंदियों के ख़तरनाक प्रभाव को छिपाया, उन बच्चों की जली हुयी लाशों पर खड़ा हुआ जिनके शव बमबारी में टुकड़े टुकड़े हो गए और प्रजातंत्र की हार के लिए एक दूसरे को बधाई दी।

ईरानी महिला, साम्राज्यवादी साज़िशों का मुद्दा

साम्राज्यवादियों की यह बहस कि ईरान की मुसलमान महिला को मीज़ाइलों और बमों के ज़रिए धार्मिक प्रजातंत्र की ज़ंजीर से मुक्ति दिलाई जाए, इतनी आगे जा चुकी है कि अगर इसके ख़िलाफ़ कोई भी विरोधी स्वर उठे तो उसे सीधे तौर पर दमन और रूढ़ीवाद कहते हैं। यह महिला अधिकार के कथित रक्षक, वे लोग हैं जो ज़ायोनी शासन का सपोर्ट करते हैं ऐसी हालत में जब फ़िलिस्तीनी महिलाएं बमों से टुकड़े टुकड़े हो रही हैं, ये वे लोग हैं जिन्होंने यमनी और लेबनानी महिलाओं की पीड़ा की ओर से आँखें मूंद ली है क्योंकि उनकी पीड़ाओं से पश्चिम के साम्राज्यवादी हितों को कोई फ़ायदा नहीं पहुंचता।

ईरानी शहरों पर ज़ायोनी शासन के हमले और बेगुनाह बच्चों और नागरिकों के नरसंहार के वक़्त जब इंटरनेट पर यूज़र्स इस जंग के ख़िलाफ़ कुछ लिखते तो पश्चिमी मीडिया के कुछ लोगों ने महिला अधिकार का सपोर्ट करने के ढोंग के साथ दावा किया कि महिलाओं के साथ इस्लामी गणराज्य के व्यवहार की निंदा होनी चाहिए। ईरानी यूज़र्स के जवाब मुंहतोड़ थे, 1 आपके इस मुक्तिदाता सिन्ड्रोम की निंदा होनी चाहिए। ये आप लोग हैं जिन्हें यह वहम हो गया है कि मुक्ति और आज़ादी आपके हाथों में है। हमने देखा कि आपके झूठे दावों से इराक़ और अफ़ग़ानिस्तान पर क्या बीती। हमने देखा कि आप फ़िलिस्तीनी महिलाओं के नरसंहार, पीड़ा और असीम मुसीबत पर ख़ामोश रहे। हमने देखा कि आपने उन तानाशाही सरकारों का उस वक़्त तक सपोर्ट किया जब तक वे आपके साम्राज्यवादी हितों के लिए काम करती रहीं। पूरा इतिहास इस बात की गवाही देता है कि आपके हाथों से सिवाए मौत और विनाश के कुछ नतीजा नहीं निकलता और यह हम हैं जो आपके वहम को ख़त्म कर देंगे।

क्या कोई है जो उस मुसलमान महिला की आवाज़ को सुने जो अपनी जान की क़ीमत पर अपने अवाम के रेज़िस्टेंस का सपोर्ट करतीहै? जब लोगों के कानों को (regime change enthusiasts) दुश्मनों की गढ़ी हुयी कहानियों को सुनने की आदत हो गयी है, कौन सा प्लेटफ़ार्म है जो उस महिला की आवाज़ को सेंसर न करे जो बमबारी की ज़द पर मौजूद अपने न्यूज़ चैनल से सच्चाई बयान कर रही है? सबसे छोटी दरार भी झूठ से बनायी गयी इस दीवार को पूरी तरह गिरा सकती है। यह बयान कभी भी पश्चिमी मीडिया में प्रतिबिंबित नहीं होता क्योंकि इससे ईरानी महिला "एक असहाय बलि" की मानसिकता पर सवाल उठता है।

जो चीज़ पश्चिमी मीडिया में कभी भी कवरेज नहीं पाती, वह साम्राज्यवादी नीतियों के ख़िलाफ़ ईरान की मुसलमान औरतों का जागरूकता और सम्मान से भरा प्रतिरोध है। वे जान बूझकर इस सच्चाई को छिपाते हैं, क्योंकि पश्चिम की युद्ध मशीनरी को ख़ुद को बचाने के लिए, झूठी छवि की ज़रूरत है। ईरानी महिला अगर डट जाए, अगर होशियारी से विदेशी हस्तक्षेप के ख़िलाफ़ डट जाए, अगर "न अपमान, न क़ब्ज़ा, न साम्राज्यवाद" कहे तो फिर उसे पाबंदी या सैन्य हमले का बहाना नहीं बनाया जा सकता इसलिए उसे बलि का बकरा, मज़लूम, क़ैद और ख़ामोश दर्शाएं, ऐसी महिला जो 'मुक्ति' को सिर्फ़ पश्चिम के हाथों में देखती है।

ईरान की दृढ़ महिला की आवाज़ को जान बूझकर दबाना, पश्चिमी मीडिया की एक स्ट्रैटिजी है, "युद्धोन्मादी मानवता प्रेम" साज़िश का हिस्सा है। वह औरत जो यूनिवर्सिटी में पढ़ाती है, अपने मुल्क की रक्षा में अग्रिम पंक्ति में लड़ती है, पाबंदियों के ख़िलाफ़ डट जाती है, पश्चिम के झूठ का पर्दाफ़ाश करती है, उसे बीबीसी, वॉइस आफ़ अमरीका या न्यूयॉर्क टाइम्ज़ के न्यूज़ फ़्रेम में कोई जगह नहीं मिलती, क्यों? क्योंकि ऐसी औरत पश्चिम के नरेटिव को बेअसर कर देती है। वह नरेटिव जिसमें, आज़ादी जंग से मिलती है और रिहाई आसमान बमों के रूप में आती है।