इस्लामी गणराज्य ईरान, दुनिया में आतंकवाद के सबसे बड़े पीड़ितों में से एक है। इस्लामी इंक़ेलाब की कामयाबी से लेकर अब तक 17000 से ज़्यादा ईरानियों को आतंकवाद का निशाना बनाया जा चुका है जिनमें आम लोग भीं हैं जिन्हें मुनाफ़िक़ीन (एम के ओ) के आंतकवादियों ने सिर्फ़ धार्मिक रूप अपनाने की बुनियाद पर सड़कों पर गोलियों से भून दिया और जनरल क़ासिम सुलैमानी जैसे कमांडर भी जिन्हें अमरीकी राष्ट्रपति के सीधे हुक्म पर शहीद किया गया। ईरान के ख़िलाफ़ आतंकवाद मुख़्तलिफ़ रूप में सामने आया हैः चरमपंथी आतंकवाद, जो धार्मिक शिक्षा की ग़लत समझ का नतीजा था और "फ़ुर्क़ान" जैसे गिरोहों में ज़ाहिर हुआ और फ़ील्ड मार्शल मोहम्मद वली क़रनी और आयतुल्लाह मुर्तज़ा मुतह्हरी जैसी महान हस्तियों की शहादत का सबब बना। इसी तरह सरकारी आतंकवाद जो अमरीका और इस्राईल की सरकारों की ओर से अंजाम पाया कि जिसमें सिर्फ़ इसी 12 दिवसीय जंग में 1000 से ज़्यादी ईरानी शहीद हुए हैं।
30 अगस्त सन 1981, तेहरान, प्रधानमंत्री कार्यालय की इमारत
ईरान के नए राष्ट्रपति
ईरान के नए राष्ट्रपति ने अपने कार्यकाल का पहला महीना भी पूरा नहीं किया है और मुल्क बहुत ही नाज़ुक दौर से गुज़र रहा है। ईरान के पहले राष्ट्रपति अबुल हसन बनी सद्र, बहुत ही विवादों से भरे राष्ट्रपति काल के बाद, उन्हें संसद मजलिसे शूराए इस्लामी के ज़रिए और तत्कालीन इस्लामी इंक़ेलाब के नेता की मंज़ूरी से हटा दिया गया और सन 1981 के गर्मी के मौसम में ईरानी अवाम ने क़ज़वीन के एक टीचर मोहम्मद अली रजाई को जो बनी सद्र के कार्यकाल में प्रधान मंत्री रह चुके थे, ईरान के दूसरे राष्ट्रपति के तौर पर चुना। रजाई, उनके लोकप्रिय प्रधान मंत्री मोहम्मद जवाद बाहुनर अपने कुछ साथियों के साथ एक अहम बैठक में थे कि एक ज़बर्दस्त धमाका पूरी इमारत को हिला कर रख देता है। जल्द ही यह स्पष्ट हो जाता है कि इस धमाके का निशाना ईरान के राष्ट्रपति और प्रधान मंत्री थे। रजाई और बाहुनर 8 शहरीवर 1360 हिजरी शम्सी मुताबिक़, 30 अगस्त सन 1981 को शहीद हो जाते हैं और ईरानी क़ौम एक सादा जीवन गुज़ारने वाले और मेहनती राष्ट्रपति की जुदाई के दुख में डूब जाती है। कुछ वक़्त बाद पता चलता है कि यह धमाका एक काली भेड़ ने किया था; जिसका नाम मसऊद कश्मीरी था और जो मुजाहेदीने ख़ल्क़ संगठन (एमकेओ) का सदस्य था और उसका इस्लामी गणराज्य के बहुत अहम सुरक्षा विभागों में आना जाना था। वह राष्ट्रपति के निकटवर्ती लोगों में से एक था और काफ़ी मुद्दत से उसने ख़ुद को इस जुर्म के लिए तैयार कर रखा था। आतंकवाद से ईरान को बहुत घातक चोट पहुंची लेकिन अवाम बड़ी तेज़ी से इस नुक़सान की भरपाई के लिए मैदान में आ गए और बहुत जल्द ईरान के तीसरे राष्ट्रपति के चुनाव के लिए ज़रूरी तैयारियां पूरी कर ली गयीं ताकि इस्लामी इंक़ेलाब के 2 साल पूरे होने से पहले ही ईरानी अवाम अपने तीसरे राष्ट्रपति को चुन लें। इस बार अवाम ने मशहद के एक लोकप्रिय धर्मगुरू को चुनाः सैयद अली ख़ामेनेई!
सोमवार 16 जून 2025, तेहरान, राष्ट्रीय सुरक्षा की सर्वोच्च परिषद की बैठक
ज़ायोनी सरकार के ख़िलाफ़ ईरानी अवाम की रक्षा की प्रक्रिया चौथे दिन में दाख़िल हो चुकी थी। शुक्रवार की सुबह से, जब ज़ायोनी सरकार ने ईरानी सैन्य कमांडरों, परमाणु वैज्ञानिकों और नागरिकों पर बर्बरतापूर्ण हमले किए, दोनों पक्षों के बीच ज़बर्दस्त हमले जारी थे। ईरानी मिज़ाईल तेल अबीब और हैफ़ा के केन्द्र तक पहुंच चुके थे और ज़ायोनी सरकार जो सोच रही थी कि जंग के शुरू होते ही ईरान में आंतरिक मतभेद और अराजकता फैल जाएगी, अपनी बड़ी ग़लती को महसूस कर चुकी थी। ईरानी अवाम, पहले से कहीं ज़्यादा एकजुट होकर दुश्मन के मुक़ाबले में खड़े हो गए और अपने सभी आंतरकि मतभेदों को पीछे छोड़ चुके थे। शायद यही वह चीज़ है जिससे दुश्मन ज़्यादा दुस्साहसी हुआ और इस्राईल तेहरान के रिहाइशी इलाक़ों पर हमले की राह पर चल पड़ा। इन्हीं हालात में राष्ट्रीय सुरक्षा की सर्वोच्च परिषद की अहम बैठक, कार्यपालिका, विधिपालिका और न्यायपालिका के प्रमुखों और मुल्क के अनेक सैन्य कमांडरों की मौजूदगी में आयोजित हो रही थी। इस बैठक का एजेंडा स्पष्ट थाः जंग के जारी मामलों पर विचार विमर्श। यह बैठक सुरक्षा कारणों से तेहरान के पश्चिम में एक विशेष स्थान पर हो रही थी। बैठक जारी थी कि अचानक बैठक स्थल पर बम धमाके की भीषण आवाज़ ने बैठक को रोक दिया। जिस हाल में बैठक हो रही थी उसकी बिजली कट गयी और मीटिंग की जगह धूल और मिट्टी के पहुंचने से हमले के भयानक होने का पता चल रहा था। इस बैठक में आला सैन्य और सिविल अधिकारी मौजूद हैं और उन्हें किसी भी क़िस्म के संभावित नुक़सान, जंग को कंट्रोल करने में एक बड़ा संकट पैदा कर सकता है लेकिन भीषण गर्मी और धूल मिट्टी और बैठक स्थल तक पहुंचने वाले रास्तों के बंद हो जाने के बावजूद, बैठक में मौजूद अहम हस्तियां, ज़ायोनी सरकार के हमले में बच जाती हैं और बैठक की जगह से बाहर निकल जाती हैं। इस बार इतिहास दोहराया नहीं जाता और इस्लामी गणराज्य के रहनुमा, आतंकवाद से सुरक्षित रहते हैं।
ईरान, आतंकवाद की सबसे बड़ी बलि चढ़ने वाला देश
इस्लामी गणराज्य ईरान, दुनिया में आतंकवाद के सबसे बड़े पीड़ितों में से एक है। इस्लामी इंक़ेलाब की कामयाबी से लेकर अब तक 17000 से ज़्यादा ईरानियों को आतंकवाद का निशाना बनाया जा चुका है जिनमें आम लोग भी हैं जिन्हें मिथ्याचारी गुट (एमकेओ) के आतंकवादियों ने सिर्फ़ ज़ाहिरी मज़हबी रूप अपनाने की बुनियाद पर सड़कों पर गोलियों से भून दिया और जनरल क़ासिम सुलैमानी जैसे कमांडर भी हैं जिन्हें अमरीकी राष्ट्रपति के सीधे हुक्म पर शहीद किया गया। ईरान के ख़िलाफ़ आतंकवाद मुख़्तलिफ़ रूप में सामने आया हैः चरमपंथी आतंकवाद, जो धार्मिक शिक्षा की ग़लत समझ का नतीजा था और "फ़ुर्क़ान" जैसे गिरोहों में ज़ाहिर हुआ और फ़ील्ड मार्शल मोहम्मद वली क़रनी और आयतुल्लाह मुर्तुज़ा मुतह्हरी जैसी महान हस्तियों की शहादत का सबब बना। इसी तरह सरकारी आतंकवाद जो अमरीका और इस्राईल की सरकारों की ओर से अंजाम पाया कि जिसमें सिर्फ़ इसी 12 दिवसीय जंग में 1000 से ज़्यादी ईरानी नागरिक शहीद हुए हैं। ईरान के अवाम बरसों से मानवाधिकार संगठनों से यह सवाल पूछ रहे हैं कि आख़िर उनका क्या गुनाह है जो उन्हें इस तरह आतंकवाद का निशाना बनना पड़ रहा है? क्या एक शांतिपूर्ण परमाणु प्रोग्राम रखना, जो अंतर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी की निगरानी में और कठोर पाबंदियों के तहत जारी है, उनका गुनाह है? क्या सन 1979 में आज़ादी और स्वाधीनता हासिल करने और विदेशी सरकारों के हाथों अपने भविष्य के निर्धारण को रोकने का उनका फ़ैसला उनका बड़ा जुर्म है? क्या इस्राईल की अपारथाइड सरकार और फ़िलिस्तीन की सरज़मीन में उसके हाथों लगातार जारी जातीय सफ़ाए का विरोध उनका क़ुसूर है जिसकी वजह से उन्हें इस तरह आंतकवाद का निशाना बनाया जा रहा है?
ईरानी जो इतिहास में हमेशा सहिष्णुता, मेहमाननवाज़ी, और अपनी समृद्ध संस्कृति के लिए जाने जाते हैं, अपने इस्लामी इंक़ेलाब की कामयाबी के बाद गुज़रे इन 47 बरसों में आतंकवाद के मुख़्तलिफ़ रूपों का शिकार रहे हैं और मुख़्तलिफ़ गुटों और आतंकवादी सरकारों के हमलों का निशाना बनते रहे हैं और ईरान के सभी तबक़ें राष्ट्रपति और आला सैन्य कमांडरों से लेकर दुकानदारों और कर्मचारियों तक, आतंकवाद की चोट खा चुके हैं। फिर भी जो कुछ 12 दिवसीय जंग में और ख़ास तौर पर ईरान की राष्ट्रीय सुरक्षा की सर्वोच्च परिषद की बैठक पर हमले के दौरान हुआ, वह सरकारी आंतकवाद की एक शर्मनाक मिसाल थी, मक़बूज़ा इलाक़ों पर राजनैतिक कंट्रोल का दावा करने वाली एक सरकार की ओर से एक क़ानूनी सरकार के आला अधिकारियों और ज़िम्मेदारों की बैठक पर हमला एक क़ानूनी सरकार के ख़िलाफ़ एक नाजायज़ और क़ाबिज़ हुकूमत का सरकारी आतंकवाद है।
30 अगस्त 1981 से लेकर 16 जून 2025 तक आतंकवाद के इस क्रम में कोई बदलाव नहीं हुआ है; उन अधिकारियों और ज़िम्मेदारों पर हमला जो एक क़ौम के इरादे के प्रतिनिधि और एक इस्लामी सिस्टम के तहत धार्मिक गणराज्य के प्रतीक हैं। ऐसा लगता है कि आतंकवाद के इस मोर्चे की ओर से इस्लामी गणराज्य ईरान के आला राजनैतिक अधिकारियों और ज़िम्मेदारों पर हमले का एक सांकेतिक लक्ष्य है। सरकारी अधिकारियों पर हमला हक़ीक़त में ईरान के राष्ट्रीय संकल्प के प्रतीकों पर हमला है। फिर भी सन 1981 के उस कड़वे दिन से लेकर आज तक ईरानी अपनी क्षमता और अपने जज़्बे के सहारे इतनी ताक़त हासिल कर चुके हैं कि वे नाजायज़ इस्राईली सरकार के आतंकवाद को 12 दिन तक अपने ज़बर्दस्त हमलों के बाद हाथ खड़े करने और युद्ध विराम की पेशकश करने पर मजबूर कर देते हैं।
जी हाँ! यह ईरानी क़ौम का संकल्प ही था जो एक बार फिर अल्लाह की मदद से 12 दिवसीय जंग में सामने आया और ज़ायोनी सरकार को धूल चटा दी, वही संकल्प जो अल्लाह की मदद से, 30 अगस्त 1981 और जंग के हालात में राष्ट्रपति और प्रधान मंत्री की शहादत के बाद से आज तक इस्लामी इंक़ेलाब को गतिशील रखे हुए है।
लेखकः मोहम्मद सालेह सुलतानी