तक़रीरः

बिस्मिल्लाह अर्रहमान अर्रहीम

अरबी ख़ुतबे का अनुवादः सारी तारीफ़ पूरी कायनात के मालिक के लिए, दुरूद व सलाम हो हमारे सरदार व रसूल हज़रत अबुल क़ासिम मुस्तफ़ा मोहम्मद और उनकी सबसे पाक, सबसे पाकीज़ा, चुनी हुयी नस्ल और ख़ास तौर पर ज़मीनों पर अल्लाह की तरफ़ से बाक़ी रखी गई हस्ती पर।

आज आप लोगों के साथ बहुत अच्छी और मालूमाती बैठक रही। यक़ीनी तौर पर छात्रों का माहौल, खुशियों व जोश से भरा, मांगें रखने वाला और शौक़ पैदा करने वाला माहौल होता है। यह छात्रों के माहौल की ख़ूबी है। यह जो कुछ भी दोस्तों ने यहां बयान किया वह सब छात्रों का विश्लेषण है, छात्रों का सुझाव है और बहुत अच्छा मौक़ा है, यानी सच में हम लोग, हमारे जैसे लोगों और मुल्क के दूसरे ओहदेदारों को जो मुल्क चलाने के ज़िम्मेदार हैं, उन्हें चाहिये कि इन बातों को सुनें, इन पर ग़ौर करें, रिसर्च करें, बहुत से सुझाव पूरी तरह प्रैक्टिकल हैं, उन पर काम करें, कुछ हो सकता है व्यवहारिक न हों। अब जैसा हमारे एक प्यारे नौजवान ने कहा कि हमें फ़िलिस्तीन भेजें! तो यह एक बात है, यक़ीन करें, अगर हम अपने युवाओं को फ़िलिस्तीन भेज सकते तो आप के कहने से पहले यह काम हो चुका होता, कर दिया गया होता।

मेरी उम्मीद यह है कि जो लोग, विश्लेषण करते हैं, सोच विचार करते हैं, ज़ाहिर सी बात है यह जो किसी भी छात्र संगठन का प्रतिनिधि कोई बात कहता है तो उसके पीछे चिंतन व विचार होता है, जो उस संगठन में किया जा चुका होता है, यक़ीनी तौर पर यही होगा, रिसर्च हुई होगी, सोच विचार हुआ होगा, हर पहलू से परखा गया होगा, उसके बाद यहां वह बात कही गयी होगी। अच्छी बात है, कोई बात नहीं, यह सब कहा जाना चाहिए, बस ध्यान यह रहे कि सब से पहले तो सुझाव वास्तविकता पर आधारित होने चाहिएं और दूसरे यह कि सही अर्थों में उस पर रिसर्च हो चुकी होनी चाहिए। अब एक साथी ने कहा कि “यह समझा गया कि “न्याय” के बारे में रहबर का नज़रिया, सन 1380 (शम्सी) के मुक़ाबले में अब बदल गया है”। अगर कोई बदलाव आया भी है तो यह है कि “न्याय” पर आग्रह बढ़ गया है। क्योंकि न्याय के क्षेत्र में हमारी तरक़्क़ी कम हुई है, हम ज़्यादा आग्रह करते हैं, अब न्याय को तो कोई छोड़ नहीं सकता लेकिन सभी पहलुओं को समझना और तौलना व देखना चाहिए, किसी की तरफ़ इशारा भी नहीं होना चाहिए, इस तरह के सुझावों में किसी का ज़िक्र नहीं होना चाहिए।

इस बात पर भी ध्यान रहे कि आज सरकार के भीतर वे लोग काम कर रहे हैं जो कुछ बरसों पहले तक आप लोगों की तरह, इस बैठक में हिस्सा लेते रहे हैं और उन्होंने यहां तक़रीर भी की है, यानी मैंने हमेशा अपनी जिस उम्मीद के बारे में बात की है वह यह है कि युवा छात्र आगे बढ़ें और मध्य बल्कि उच्च स्तर के सरकारी ओहदों पर जाएं और काम करें, और अब यह उम्मीद पूरी हो गयी है। यानी बहुत से ऐसे नौजवान हैं जो कुछ बरस पहले यहां इस बैठक में शामिल होते थे और यहां तक़रीर करते थे और आज वे अलग अलग ओहदों पर हैं और तरह-तरह की ज़िम्मेदारियां निभा रहे हैं। यानी यह एक सच्चाई है। जी तो इस सच्चाई को देखने के बाद आज के युवा छात्र का दिमाग़ उस तरफ़ जाना चाहिए जहां समस्याओं का समाधान निकट हो, मुझे यह उम्मीद है। बहरहाल यहां पर तक़रीर करने वाले सभी लोगों का शुक्रिया अदा करता हूँ और जो कुछ उन्होंने लिख कर दिया है इन्शाअल्लाह उसे मैं पढ़ूंगा या फिर उसे संक्षेप में लिखने को दे दूंगा और फिर मैं देखूंगा। बहुत ही अच्छी तिलावत करने वाले सम्मानीय क़ारी साहब का भी शुक्रिया अदा करता हूँ। इसी तरह तराना पढ़ने वाले और बैठक में एनाउंसर का किरदार निभाने वाले का भी शुक्रिया अदा करता हूँ।

जी रमज़ान का महीना ख़त्म होने वाला है। आप सब नौजवान हैं, पाकीज़ा दिल हैं आप के, यह मुंह पर तारीफ़ करने वाली बात नहीं है, सच्चाई है। रोज़ा, क़ुरआने मजीद की तिलावत, रातों की दुआएं, सहर की दुआएं, दिन की दुआएं, मेरे जैसों के मुक़ाबले में आप लोगों पर कई गुना ज़्यादा असर करती हैं। आप लोगों ने यक़ीनी तौर पर इस साल रमज़ान के महीने में ख़ुद को नूरानी बना लिया है, कोशिश करें कि यह नूरानी हालत बनी रहे। उसका रास्ता यह है कि आप गुनाहों से बचें। कुछ गुनाह ऐसे होते हैं कि इंसान को इस बात का ध्यान ही नहीं रहता कि वो गुनाह हैं, हमारी बहुत सी बातें, सोशल मीडिया पर हमारे बहुत से बयान, इन सब का जवाब देना होगा, इस लिए ध्यान देने की ज़रूरत है, बेशक कान, आंख, और दिल, सब से इस बारे में पूछा जाएगा(2) इंसान को जवाब देना होगा। ध्यान दिया जाए और रवैये में जो ग़लत चीज़ है उसे पहचाना जाए। अगर पहचान लिया तो उसका सुधार मुमकिन है, तौबा उसे मुमकिन बनाती है। गुनाहों की माफ़ी से यह मुमकिन होता है। अगर ग़लती का पता ही न चले, तो इंसान तौबा भी नहीं करता, और गुनाह बाक़ी रहते हैं, बढ़ते जाते हैं और फिर वह दिल से नूरानियत को ख़त्म कर देते हैं। अफ़सोस की बात होगी! आप के दिल सच में नूरानी हैं। कोशिश करें कि इस नूरानियत की हिफ़ाज़त करें जो रमज़ान के महीने में बढ़ गयी है। गुनाहों को छोड़ कर, अव्वले वक़्त नमाज़ पढ़ कर, जहां तक हो सके जमाअत के साथ पढ़ कर, अपनी बातों पर बहुत ज़्यादा ध्यान देकर। जैसा कि कहा गया(3) मैं किसी भी सूरत में आप लोगों से चुप रहने की सिफ़ारिश नहीं करूंगा। मैं यह नहीं कहूँगा कि आलोचना न करें, चिंता न रखें, ग़लतियां न पकड़ें। नहीं! मैं किसी भी हालत में यह नहीं कह सकता। मेरी सिफ़ारिश यह है कि ग़ौर करें कि क्या कह रहे हैं, यह ज़रूर सोचें कि आप की इस बात में, इस बयान में, इस तहरीर में ऐसा कोई काम न हो जाए कि जिसके लिए हमारे पास कोई जवाब न हो।

ख़ुदा का शुक्र है कि इस साल रमज़ान का महीना, बड़ा अच्छा था। ख़ासतौर पर क़ुरआने मजीद के रिवाज, तिलावते क़ुरआन की जो स्थिति थी उससे मुझे बहुत ख़ुशी हुई। यह जो विभिन्न शहरों में, विभिन्न लोग, कभी कभी तो कम उम्र नौजवान, इतनी अच्छी तरह से, इतनी प्रवाह से, कभी तो हिफ़्ज़ के साथ, क़ुरआने मजीद की तिलावत करते हैं। यह मेरी बहुत बड़ी आरज़ू थी जो ख़ुदा का शुक्र है कि पूरी हो रही है, और पूरी हो चुकी है। मैं बार बार ख़ुदा का शुक्र अदा करता हूँ।

जितना भी हो सके क़ुरआने मजीद से क़रीब हो जाएं, सब कुछ क़ुरआने मजीद में है, जिसे क़ुरआन में ग़ौर करके हासिल किया जा सकता है। लेकिन यह सोच विचार किसी उस्ताद की देख रेख में होना चाहिए। मरहूम जनाब मिस्बाह यज़्दी का यहां पर दो-तीन बार नाम लिया गया जो सही है। उनकी किताबों से फ़ायदा उठाया जाना चाहिए। सच्ची और इंसाफ़ की बात तो यह है कि इस महान हस्ती का नज़रिया, युवाओं की सही सोच के साथ आगे बढ़ने में बहुत मदद करता है। रमज़ान के महीने में अंजुमनों के प्रोग्राम, सड़कों पर करायी जाने वाली इफ़्तार, यह सब बड़ी अहम चीज़ें थीं।

मैं कुछ चीज़ें नोट करके लाया हूँ, अब पता नहीं, इतना वक़्त होगा भी या नहीं, लेकिन संक्षेप में ज़िक्र करूंगा। जो कुछ ख़ास बातें मैं बताना चाहता हूँ उनमें से एक तो छात्रों और छात्रावस्था के बारे में है और मैं छात्रों के कामों के बारे में एक बात कहना चाहता हूँ, दूसरी बात युनिवर्सिटियों के बारे में है, और कुछ बातें छात्र संगठनों के बारे में भी करूंगा।

पहले छात्रों के बारे में। जी! छात्र को एक जवान, ताक़तवर, जोश से भरा, भविष्य पर नज़र रखने वाले इंसान समझा जाता है। आप अपने आगे देखें! अल्लाह ने चाहा तो 60 साल 70 साल आप के पास है, आप के सामने पूरी दुनिया है। ज़ाहिर सी बात है कि जब छात्रों में यह ख़ूबियां हैं तो उनसे कुछ उम्मीदें भी लगायी जाती हैं। जवान हैं, ताक़तवर हैं, भविष्य वाले भी हैं, पढ़े लिखे हैं, पढ़ाई-लिखाई, ज्ञान-विज्ञान और चर्चा व चिंतन करने वाले लोग हैं, तो ज़ाहिर सी बात हैं कि उन्हें भविष्य के बारे में जागरूक रहना चाहिए, उसके लिए काम करना चाहिए। मेरा आग्रह यह है कि छात्र को भविष्य पर नज़र रखनी चाहिए। आप लोग आज मुल्क के हालात पर एतेराज़ करते हैं, मिसाल के तौर पर वही बातें जो आज यहां पर कही गयीं, हमारे मुल्क में उनसे दस गुना ज़्यादा समस्याएं हैं, हो सकता है इससे ज़्यादा एतेराज़ की बातें हों, सिर्फ़ हो सकता है नहीं, बल्कि यक़ीनन है। जी हां, लेकिन अगर आज हम अपने भविष्य पर नज़र रखेंगे, भविष्य के लिए सोचेंगे, प्लानिंग करेंगे और अपने भविष्य के लिए क्या करना है और क्या बनना है जैसी बातें तय कर लेंगे तो उम्मीद है कि यह समस्याएं भविष्य में नहीं रहेंगी, छात्रों से मेरी एक उम्मीद यही है। जी! हम बरसों से इसी तरह की बैठकों में यह सब कहते हैं और हम देखते भी हैं कि आप लोग इन बातों पर ध्यान भी देते हैं, आज भी आप ने उनका ज़िक्र किया, कहीं कहीं तो पूरे ब्योरे के साथ ज़िक्र किया गया कि “वह बात आप ने कही थी”, जी हां! हमने बहुत कुछ कहा है, लेकिन हमारी बातों पर अमल कितना किया गया? छात्रों के माहौल की बात कर रहा हूँ, छात्रों की ओर से हमारी बातों पर कितना अमल हुआ? हमेशा सरकारी ओहदेदारों पर ही उंगली नहीं उठायी जा सकती, ख़ुद अपने गिरेबान में भी झांकना चाहिए।

आज आप देखें, सोचें, कल के लिए, भविष्य के लिए, नज़रियाती लिहाज़ से भी, और प्लानिंग और कामकाज के हिसाब से भी, एक सही सोच, एक सही भविष्य तय करें, भविष्य में ले जाने वाले रास्ते का निर्धारण करें और एक-एक क़दम आगे बढ़ें, जल्दबाज़ी की भी कोई ज़रूरत नहीं। हमें जल्दबाज़ी की कोई ज़रूरत नहीं है। यही आम रास्ता जो आपका है, वही आप को मंज़िल तक पहुंचा देगा। यक़ीनी तौर पर 5 साल बाद के हालात आज से बेहतर होंगे यानी इसमें कोई शक ही नहीं है। शर्त यह है कि हम जो सोचते हैं, मैंने कहा है कि उस पर हम अमल करें।

यक़ीनी तौर पर इस बात पर भी ध्यान रहना चाहिए कि छात्रों का अस्ल काम, पढ़ना है। छात्रों का मुख्य काम ज्ञान प्राप्त करना है। अब अगर वक़्त हुआ तो मैं इस विषय पर भी बात करुंगा। लेकिन छात्र की हैसियत से पढ़ाई के वैज्ञानिक कामों के साथ ही भविष्य पर नज़र, समाज पर ग़ौर, जनता पर नज़र, समस्याओं की जानकारी, छात्रों के यक़ीनी कर्तव्यों में शामिल है। अगर हम यह चाहते हैं कि हमारा यह मक़सद पूरा हो, यानी “कल”  हमारे “आज” से बेहतर हो, तो हमें ख़ुद अपने लिए अपना मक़सद निर्धारित करना होगा। निर्धारित मक़सद की पहचान के लिए और यह जानने के लिए कि हमें किस चीज़ के पीछे दौड़ना चाहिए, किस चीज़ के लिए कोशिश करना चाहिए, किस चीज़ के लिए भाग दौड़ करनी चाहिए और मेहनत करनी चाहिए, हमें अपनी हालत के बारे में मालूमात हासिल करना होगा। यह जो मैं कह रहा हूँ हो सकता है कि आप लोगों की अपनी हालत के लिहाज़ से, अपनी सोच के लिहाज़ से, अपने रवैये के हिसाब से, ऐसा काम हो जो हो चुका हो लेकिन आम तौर पर छात्रों में यह नहीं होता, आप लोगों को वह काम करना है जिससे यह चीज़, यह मक़सद, छात्रों के माहौल में रहे, सार्वजनिक हो जाए, इस बारे में बात करते हैं।

सब से पहले तो हमें अपनी पोज़ीशन और अपने बारे में सही जानकारी हासिल करना चाहिए। आज के नौजवान छात्र को यह पता होना चाहिए कि वह एक इन्क़ेलाबी शासन के दौर में पैदा हुआ है, पला बढ़ा है, छात्र बना है, ज्ञान विज्ञान के केद्रों तक पहुंचा और यहां तक आगे बढ़ा, एक इन्क़ेलाबी सिस्टम में। सब से पहले हमें यह जानना चाहिए, बहुत से लोगों को इसका पता ही नहीं है। इन्क़ेलाबी सिस्टम का क्या मतलब है? यानी वह सिस्टम जो एक कठिन व पेचीदा संघर्ष और कड़वी घटनाओं के बाद वजूद में आया, यानी वह व्यवस्था जिसे अस्तित्व में आने के लिए संघर्ष करना पड़ा है। हमारी जवानी के दौर में, जहां हम रहते थे, इस तरह के हालात न थे। एक सरकार थी जो अपनी तमाम समस्याओं के साथ किसी भावना के तहत, किसी मक़सद के लिए वजूद में नहीं आयी थी जिसका ब्योरा बहुत ज़्यादा है, लेकिन आज आप के पास जो सिस्टम है और जिसके साथ आप रह रहे हैं, वह संघर्ष से, कठिनाई से, मेहनत से वजूद में आया है। हमारी आज की ज़िंदगी की सब से बड़ी सच्चाई यह है कि यह सिस्टम, एक इन्क़ेलाबी सिस्टम है। हो सकता है, बल्कि ऐसा ही है कि इंक़ेलाब के बहुत से मक़दस पूरे नहीं हुए हैं, यह सही बात है। हमें इसका पूरा यक़ीन है, लेकिन जिस व्यवस्था में हम रहे रहे हैं वह ऐसी व्यवस्था है जिससे हमें इस तरह की उम्मीदें हैं, लेकिन क्यों? क्योंकि यह एक इन्क़ेलाबी सिस्टम है। इस लिए हमें “सरकार के इन्क़ेलाबी होने” की सच्चाई को हमेशा नज़र में रखना चाहिए। यह संघर्ष जिसकी वजह से यह सिस्टम वजूद में आया है, किसके मुक़ाबले में था? यह भी अहम है। किस से संघर्ष किया गया? किस चीज़ से, किस सच्चाई के ख़िलाफ़ संघर्ष किया गया? यह अहम है, ताकि हमें पता चले कि हमारा कल कैसा था। आज की सच्चाई की जानकारी और उनके बारे में सही फ़ैसला उसी वक़्त किया जा सकता है जब हमें पता हो कि हम ने यह काम कहां से शुरु किया था और हमारे मुल्क के हालात क्या थे? मैं बता रहा हूँ कि बरसों तक चलने वाले इस जटिल व घटनाओं से भरे संघर्ष की वजह एक भ्रष्ट व ग़द्दार सरकार थी, भ्रष्ट भी थी और ग़द्दार भी थी और वह पिटठू पहलवी सरकार है, हमें यह नहीं भूलना चाहिए।

वह भ्रष्ट सरकार किस तरह की थी मैं बता रहा हूँ। सब से पहली बात तो यह कि देश की बागडोर एक ऐसे परिवार के हाथ में थी जिसमें हर तरह की बुराई थी। एक “परिवार” यानी एक विरासत में मिलने वाली सरकार, वह भी उस घराने को जो सब से पहली बात तो यह कि घटिया और गिरा हुआ था और दूसरे यह कि तरह तरह के भ्रष्टाचार में ग्रस्त था। मुल्क उनके हाथों में था। हमारा मुल्क यह था। आप आज के ईरान की हालत देख रहे हैं, कल वह ईरान था जिसकी बागडोर, इस महान मुल्क की बागडोर, इस पुराने अतीत व मज़बूत जड़ों वाले देश की क़िस्मत का फ़ैसला, इस तरह के लोगों के हाथों था। वे लोग इस मुल्क पर, यहां की जनता पर शासन करते थे। सरकार चलाने का तरीक़ा भी तानाशाही था और जनता की कोई भूमिका नहीं थी। अब आप यहां नारे लगाते हैं, सही नारे भी हैं कि जनता को यह करना चाहिए, वह करना चाहिए। आज जनता, मुल्क चलाने में जिस तरह से हिस्सा लेती है और भूमिका निभाती है, उसकी तुलना आप अतीत से करें! हम कहां से चले थे, कहां पहुंच गये हैं। हां संतोष नहीं करना चाहिए इसी हालत पर जिस पर हम हैं। यह तो एक ठोस सच्चाई है। उस दौर की सरकार में जनता की इच्छाओं पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता था। किसी भी काम में किसी भी मुद्दे में जनता की गिनती ही नहीं होती थी। राजनीतिक लिहाज़ से भी, वह एक ऐसी व्यवस्था थी जो पिट्ठू थी, बाक़ायदा तौर पर, बाहरी ताक़तों ने उसे बनाया था, कभी ब्रिटेन ने फिर अमरीका ने। मिसाल के तौर पर कभी यह होता है कि कोई नादिर शाह जैसा आदमी उठता है, और ताक़त के बल पर पूरे मुल्क पर क़ब्ज़ा कर लेता है। जी हां, यह भी ताक़त का इस्तेमाल है। तानाशाही है। लेकिन ख़ुद किया है उसने। जबकि पिछली व्यवस्था इस तरह की नहीं थी, ख़ुद सत्ता में नहीं आए थे। ज़ालिम थे, तानाशाह थे, लोगों के क़ातिल थे, लेकिन ख़ुद से सत्ता में नहीं आए थे, बल्कि उन्हें सत्ता में लाया गया था। रज़ा पहलवी को भी और मुहम्मद रज़ा को भी। यह सब एजेंट थे, पिट्ठू थे। यह लोग मुल्क के अंदर तानाशाह थे लेकिन विदेशियों के सामने गर्दन झुकाए रहते थे, उनकी पैरवी करते थे। प्रधानमंत्री फ़ुलां हो, तेल मंत्री उसे बनाया जाए, डिफ़ेंस मिनिस्ट्री में हथियारों की ख़रीदारी की ज़िम्मेदारी अमुक व्यक्ति को दी जाए! इन सब मामलों में विदेशियों के आदेशों का पालन होता था।

सांस्कृतिक लिहाज़ से, पश्चिम के जूठे बर्तन चाटते थे, यानी पश्चिमी जो कुछ करके छोड़ चुके होते थे वह काम इनके लिए अच्छे और मुल्क में किये जाने लायक़ होते थे और वे यही करते भी थे।

सामाजिक लिहाज़ से भी, विभिन्न वर्गों में बहुत ज़्यादा दूरी थी। भेदभाव, चरम पर था, न्याय अर्थहीन था, बड़े लोगों को बेपनाह सुविधाएं मिलती थीं। जिसका भी दरबार से और सरकार से संपर्क होता वह बड़ी आसानी से जनता की दौलत लूटता। मैं सन 1964 में गुरगान में मजलिसें पढ़ता था, वहां पर लोग मेरे पास आते थे बहुत सी बातें करते थे। हालांकि यह मुश्किल काम था, यानी उस दौर में विभिन्न समस्याओं पर इस तरह बात करने पर ख़तरा भी था। लेकिन वे सब आते थे और मुझ से बताते थे।  तेहरान से एक छोटी सी पर्ची लेकर एक रिटायर्ड अफ़सर आता था और वहां जाता था, किसी के भी खेत में जाता और कहता कि यह मेरा है, चलो तुम सब निकलो यहां से! किसान कहताः क्यों जनाब! यह मेरी ज़मीन है, मेरा खेत है, मेरे बाप ने मुझे विरासत में दिया है। तो उससे कहा जाता, यह सब फ़ालतू बातें हैं! ट्रैक्टर चलाते थे और खेत में जो कुछ भी होता था सब ले जाते और खेत पर भी क़ब्ज़ा कर लेते थे। यानी वही काम जो आज ज़ायोनी शासन में ज़ायोनी कॉलोनियों में रहने वाले पश्चिमी तट के फ़िलिस्तीनियों के साथ करते हैं। वो भी इसी तरह के हैं, जाते हैं किसी की भी ज़मीन में घुस जाते हैं। घरों को तबाह कर देते हैं। ज़मीन जायदाद को तबाह कर देते हैं और कहते हैं कि यह सब हमारा है। यही सब ईरान में होता था। मैं मशहद से क़ूचान की तरफ़ जा रहा था। सड़क के बाईं तरफ़। अब मुझे यह याद नहीं आ रहा है कि मशहद, क़ूचान के बीच या फिर क़ूचान व शीरवान के बीच था, मैंने देखा कि कई किलोमीटर पर बाड़ लगायी गयी थी। गाड़ी चलती जा रही थी लेकिन वह ज़मीन ख़त्म नहीं हो रही थी! अब कंटीले तार थे या फिर रेलिंग थी, मुझे सही से याद नहीं। मुझे हैरत हुई। मैंने पूछा यह क्या है? तो मुझे बताया गयाः यह वह ज़मीन है जिसे अमुक व्यक्ति ने ले लिया है। वह आदमी उस दौर में बहुत मशहूर था, यहां मैं उसका नाम नहीं लेना चाहता, बहाई था, वह सावाक के चीफ़ का रिश्तेदार था। सावाक का चीफ़ नसीरी था और यह उसका रिश्तेदार था। अपने इस रिश्तेदार की मदद से इस इलाक़े के किसानों की जम़ीनों पर उसने क़ब्ज़ा कर लिया था। आता था और लोगों को उनके घरों से, उनके खेतों से, उनके बाग़ों से निकाल बाहर करता था। यह हालत थी।

साइंस व टेक्नालॉजी के लिहाज़ से भी देंखें, इस मुल्क में 40 बरसों से युनिवर्सिटी थी, लेकिन पहलवी शासन के ज़माने की इस युनिवर्सिटी से कौन सी नयी वैज्ञानिक चीज़ बाहर निकली? जबकि अच्छे टीचर थे। बहुत से टीचर तो दुनिया की मशहूर युनिवर्सिटियों के पढ़े हुए थे। पढ़े लिखे थे, जानकार थे। डॉक्टर हिसाबी थे, डॉक्टर रियाज़ी थे, मरहूम इंजीनीयर बाज़रगान थे, इस तरह के लोग थे, पढ़े लिखे, जी हां यह सब थे। टीचर की समस्या नहीं थी, लेकिन इस युनिवर्सिटी का कोई फ़ायदा नहीं था। न कोई वैज्ञानिक उपलब्धि थी, न तकनीक व उद्योग के मैदान में कोई तरक़्क़ी थी, न ही मुल्क के मैनेजमेंट के मैदान में कोई नयी सोच पेश की गयी। इस युनिवर्सिटी की सांस्कृतिक व वैज्ञानिक दशा यह थी। यह कि ईरानी किसी भी दशा में आधुनिक तकनीक हासिल नहीं कर सकता, बिल्कुल आम सोच बन गई थी। यह सब मान चुके थे कि एक ईरानी बहुत ऊंची पोज़ीशन हासिल नहीं कर सकता, ज्ञान विज्ञान के मैदान में फ्रंट लाइन तक नहीं पहुंच सकता।

जहां तक राष्ट्रीय पहचान की बात है तो ईरान, को किसी विदेशी सरकार का राजनीतिक व सामाजिक पिटठू बनना था, किसी भी सरकार का, यह उस दौर की स्वीकार कर ली गयी सच्चाई थी! यह हालत थी ईरान की। इस तरह की बहुत सी बातें हैं, उस सिस्टम के बारे में जो ईरान में इंक़ेलाब से पहले था, जिनके ख़िलाफ़ इंक़ेलाब ने संघर्ष किया, इन सब बातों के ख़िलाफ़ इंक़ेलाब आया। सच में बड़ी शर्मनाक हालत थी।

सन 1960 के दशक के आरंभ से संघर्ष शुरु हुआ। विभिन्न प्रकार के विचार रखने वालों ने, विभिन्न सिद्धांतों में विश्वास रखने वालों ने, कुछ मार्क्सवादी थे, कुछ मार्क्सवादियों के विरोधी, कुछ इन दोनों के बीच में थे, कुछ किसी हद तक इस्लामी नज़रिया रखते थे, कुछ राष्ट्रवादी थे। यह संघर्ष शुरु किया, इस संघर्ष का चरम तेल के राष्ट्रीयकरण का आंदोलन था जो मरहूम मुसद्दिक़ और मरहूम काशानी के नेतृत्व में शुरु हुआ और नाकाम रहा। ईरानियों के राष्ट्रीयकरण के आंदोलन में अपमान हुआ! यानी एक अमरीकी, एक ब्रीफकेस में पैसे लेकर ईरान आया और ब्रिटेन के दूतावास में बैठ गया, वहां टीम बनायी, ग़ुंडों, आवारा लोगों और छुरेबाज़ों और दूसरे लोगों में पैसे बांटें, सब को जमा किया और उन्हें सड़कों पर भेज दिया। दरअस्ल यह बग़ावत ग़ुंडों की मदद से हुई, पूरी तरह से उसे एक सैनिक विद्रोह नहीं कहा जा सकता है। इन लोगों ने सरकार गिरा दी और भाग जाने वाला शाह वापस आ गया। यानी सच में ईरान की बेइज़्ज़ती हुई। एक क़ौम की सरकार इस तरह से गिर गयी, जैसे सच में यह स्थिति यह एलान कर रही थी कि ईरानी कितने बे आबरू हैं। जी उसके बाद इन संघर्षों के सिलसिले की आख़िरी और मुकम्मल कड़ी वह जन संघर्ष है जो उलमा के नेतृत्व में शुरु हुआ। यह संघर्ष उलेमा और इमाम ख़ुमैनी के नेतृत्व में शुरु हुआ था कि जो दरअस्ल धीरे धीरे व्यस्क होने वाला आंदोलन था और उसने अतीत के सभी अनुभवों से लाभ उठाया, और चूंकि दीन था और चूंकि दीनी उलमा थे, इस लिए यह आंदोलन, लोगों को जमा करने में कामयाब रहा और इस तरह से राष्ट्रीय शक्ति मैदान में उतर गयी। जब राष्ट्रीय शक्ति मैदान में उतर जाए और नेता भी सही रहे तो फिर ज़ाहिर सी बात है कि सफलता मिलती है और यह सिलसिला भी आगे बढ़ा और इंक़ेलाब कामयाब हो गया, इस्लामी जम्हूरिया बन गयी। यह हमारे सामने की एक हक़ीक़त है, हम इस तरह से पैदा हुए हैं, आज ईरानी क़ौम की तारीख़ी पहचान यह है।

इस इंक़ेलाब की ज़मीन, डेमोक्रेसी और इस्लामियत है। जम्हूरियत भी और इस्लामियत भी। इसी लिए इमाम ख़ुमैनी ने एलान किया था “इस्लामी जम्हूरिया”। लगभग पूरी जनता ने इस्लामी जम्हूरिया को वोट दिया था, यहां तक कि उन लोगों ने भी जिन्हें इस्लाम में विश्वास नहीं था। लेकिन उन लोगों ने भी इस्लामी जम्हूरिया को वोट दिया था। उसी वक़्त यह शक ज़ाहिर किया गया कि किस तरह से “डेमोक्रेटिक” और “ इस्लामी” एक दूसरे के साथ रह सकते हैं। यानी यह शक ज़ाहिर किया गया कि डेमोक्रेसी, जुम्हूरियत, लोगों की भागीदारी, वोट, इस्लाम के दायरे की चीज़ें नहीं हैं। यह शक शुरुआत में ही कुछ लोगों ने ज़ाहिर किया था, लेकिन जिन लोगों ने इन शक का उत्तर दिया वो दीनी उलेमा नहीं थे बल्कि मुल्क के नामवर क़ानून विशेषज्ञ थे जिन्होंने इस संदेह का निवारण किया, इस शंका का जवाब है और जवाब बिल्कुल स्पष्ट है और उसे सब ने क़ुबूल भी किया।

अब इन सब बातों के साथ और जो कुछ मैंने बयान किया है, मैंने आप से कहा है कि अपने मक़सद को पूरा करने की कोशिश में रहें। मेरी नज़र में इस्लामी जम्हूरिया अपने मक़सदों को दो जनरल विषयों में समेट सकती है। एक तो यह है कि “इस्लामी तरीक़े से मुल्क चलाया जाए” और दूसरा यह कि “एक मुल्क को अच्छी तरह से चलाने का नमूना दुनिया के सामने पेश करना” है, यह दो मक़सद है। आप लोगों को इन दोनों मक़सदों को पूरा करने की कोशिश करना चाहिए। आप को उन राहों पर विचार करना चाहें जिन पर चल कर आप इन दोनों मक़सदों को पूरा कर सकते हैं, इस पर सोचें, काम करें, छात्रों की बैठकों, विचार के लिए छात्रों के जलसों, छात्रों की रिसर्च, इंक़ेलाब में यक़ीन रखने वाले बुद्धिजीवियों से छात्रों के संपर्क सब को इसी दिशा में केन्द्रित होना चाहिए। सोचें और पता करें कि इन दो मक़सदों को पूरा करने के लिए, क्या किया जा सकता है, क्या कोशिश की जा सकती है, कैसे कोशिश की जा सकती है।

एक और चीज़, मुल्क को इस्लामी शैली पर चलाना है। अब मुल्क को इस्लामी तरीक़े से चलाने में बहुत कुछ है कि शायद उसके बारे में मैं कुछ बातें यहां बयान कर दूं, इन सब बातों को ब्योरे के साथ बयान करने का वक़्त भी नहीं है, लेकिन बात वही है जो नहजुल बलाग़ा में कही गयी है और आप लोगों में से बहुत से लोगों को उसके बारे में पता भी है और आप जानते हैं। मिसाल के तौर पर हज़रत अली अलैहिस्सलाम का ख़त, मालिके अश्तर के नाम (4) इस्लामी सरकार वही अलवी सरकार है। मैं, इंक़ेलाब से पहले जब युवाओं के लिए तक़रीर किया करता था तो चूंकि सावाक इस्लामी हुकुमत के नाम से ही बिदकती थी, इस लिए मैं यह शब्द इस्तेमाल नहीं करता था, मैं कहा था “अलवी सरकार” वह यह समझ नहीं पाते थे कि अलवी हुकूमत का क्या मतलब। अलवी हुकूमत यानी यही इस्लामी सरकार। जी तो किसी मुल्क को इस्लामी तरीक़े से चलाने का मतलब यह है कि भौतिक लिहाज़ से और आध्यात्मिक लिहाज़ से तरक़्क़ी की राह पर हो, बिना रुके और बिना पीछे हटे। दुनियावी लिहाज़ से जो हम कहते हैं कि तरक़्क़ी करे तो उसका मतलब यह है कि आम जनता को सुविधा मिले, उन्हें शारीरिक और मानसिक सुरक्षा और न्याय मिले। न्याय का क्या मतलब? बहुत से लोग न्याय के बारे में अपनी राय ज़ाहिर करने की कोशिश करते हैं। जी हां पहले न्याय को पूरी तरह से समझना होता है। न्याय यानी “सार्वाजनिक सुविधाओं से फ़ायदा उठाने के मामले में, समाज के वर्गों के मध्य अंतर को ख़त्म करना” हर तरह की सुविधा को बराबर से पूरी जनता की पहुंच में होना चाहिए, सुविधाओं से लाभ उठाने में भेदभाव, ज़ुल्म है, न्याय के ख़िलाफ़ है। अगर आप ने किसी के बारे में कोई बात कही, सोशल मीडिया पर भी उसे डाल दिया और अगर उसे किसी भी वजह से आप का जवाब देने का अवसर नहीं मिला तो यह अन्याय है, यह न्याय नहीं है, क्योंकि अवसर से समान रूप से लाभ नहीं उठाया गया। न्याय सिर्फ़ आर्थिक मामलों में ही नहीं होता, इज़्ज़त, काम, रोज़गार, प्रतिष्ठा और दूसरे बहुत से मामलों में भी न्याय पर ध्यान देना होता है। वैज्ञानिक विकास में न्याय, स्वास्थ्य सेवा में, आबादी में जवानों की संख्या बढ़ाने, तरह तरह की विकास परियोजनाओं, अविष्कारों, इन सब में न्याय का ध्यान रखना ज़रूरी है, इस्लामी तरीक़े से मुल्क को चलाने की जो हम बात करते हैं उसका मतलब यही सब है और इसी तरह की दूसरी चीज़ें हैं। इन सब पर अमल होना चाहिए।  

इन में से हर विषय एक अध्याय है कि जिस पर विचार किया जा सकता है, ग़ौर किया जा सकता है। इनमें से हर अध्याय के लिए नयी सोच लानी चाहिए, नज़रिया पेश करना चाहिए, मैं “आइडिया” का शब्द इस्तेमाल नहीं करना चाहता लेकिन मेरा मतलब वही है और इसी तरह योजना बनानी चाहिए। आप छात्रों से, आप छात्र बिरादरी से, सिर्फ़ छात्र संगठनों से ही नहीं, इस तरह की उम्मीद है।

रूहानी और आध्यात्मिक पहलु भी इसी तरह हैः नैतिकता, दीन पर अमल, सहयोग, इस्लामी जीवन शैली, बलिदान, संघर्ष और इस तरह के काम, इन सब के लिए भी सोच विचार करना और नज़रिया पेश करना चाहिए और इसी तरह कार्यक्रम भी बनाना चाहिए। अब इसका मतलब यह नहीं है कि अब तक इस तरह के काम नहीं हुए हैं। बहुत हुए हैं, लेकिन हर रोज़ नया नया नज़रिया और कार्यक्रम पेश किया जाना और आगे बढ़ना चाहिए और इसके लिए आप को लगातार काम करने की ज़रूरत है। यक़ीनी तौर पर इसके साथ ही, छात्रों की अपनी भी सोच होती है, उनकी अपनी भी मांगें होती हैं, उन्हें भी एतेराज़ होता है, और इसी तरह की बहुत सी बातें, लेकिन उनके साथ यह सब भूल नहीं जाना चाहिए। 

दुनिया के सामने मॉडल पेश करने के सिलसिले में यह कहना है कि जब हम दुनिया और विश्व समुदाय की बात करते हैं तो कुछ लोग मुस्कुराते हुए सोचते हैं कि “अच्छा! तो यह लोग दुनिया को आबाद करना चाहते हैं!” जी हां! तो समस्या क्या है? अगर किसी समाज में यह संकल्प पाया जाता हो, इतनी हिम्मत पायी जाती हो और यह योग्यता हो कि वह पूरी दुनिया पर असर डाल सके और दुनिया को सुधार की तरफ़ ले जा सके तो इसमें समस्या क्या है? यह तो दुनिया वालों के लिए भलाई चाहने वाली बात है। हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने कहा हैः “तो उनकी दो क़िस्में हैं”, यह जनता दो तरह की होती है, “या तो दीन में वह तुम्हारे भाई हैं या फिर रचना के हिसाब से तुम्हारे जैसे हैं” (5) मतलब कुछ लोग तुम्हारे दीन के हैं, तुम्हारे भाई हैं और कुछ लोग तुम्हारे भाई नहीं हैं लेकिन वह भी इंसान हैं, मानव जाति से उनका ताल्लुक़ है, उनका का भी भला चाहो, उनके लिए भी सोचो। इसमें समस्या क्या है? नमूना पेश करना, यह काम भी अब तक किसी हद तक किया गया है। यह मैं पूरे विश्वास के साथ आप से कह रहा हूँ। हालांकि हम ने बहुत से मैदानों में कम काम किया है, पीछे हैं, लेकिन इस मैदान में यक़ीनी तौर पर आगे हैं। कुछ काम हुए हैं, जिन्हें आज आप लोग अपनी आंखों से देख रहे हैं। आप नौजवान छात्रों को आज यह जानना चाहिए कि आज इलाक़े में और दुनिया में बहुत कुछ जो घटनाएं हो रही हैं जिन्हें देख कर आप जोश से भर जाते हैं और उन पर गर्व महसूस होता है तो उनमें से बहुत सी घटनाओं का ताल्लुक़ आप के मुल्क से है, आप के समाज से और आप के इंक़ेलाब से उनका ताल्लुक़ है।

छात्रों के बारे में और भी बहुत कुछ लिखा है लेकिन अब वक़्त नहीं है, अब कुछ बातें युनिवर्सिटी के बारे में भी कह दूं।

देखें, जहां तक युनिवर्सिटी की बात है, तो यहां पर सम्मानीय मंत्री जी भी हैं, युनिवर्सिटी के ज़िम्मेदार लोग भी हैं, मैं उनसे कह रहा हूँ कि अगर हम युनिवर्सिटी की परिभाषा पेश करना चाहिए तो उसका बुनियादी हिस्सा, “ज्ञान” है, इल्म है। हांलाकि युनिवर्सिटी की परिभाषा में बहुत सी बातें राजनीतिक और सामाजिक पहलु से भी ताल्लुक़ रखती हैं लेकिन बुनियादी चीज़ यही ज्ञान है। युनिवर्सिटी की तीन मुख्य ज़िम्मेदारियां होती हैं। मेरी गुज़ारिश है कि युनिवर्सिटी के ज़िम्मेदार इस पर ध्यान दें! युनिवर्सिटी की तीन मुख्य ज़िम्मेदारियां होती हैं।  पहली ज़िम्मेदारी ज्ञानी पैदा करे, दूसरी ज्ञान पैदा करे, तीसरी ज्ञानी और ज्ञान पैदा करने की प्रक्रिया को दिशा दे, यह है। अब हालत यह है कि दुनिया की युनिवर्सिटियां ज्ञानी बनाती हैं, ज्ञान पैदा करती हैं लेकिन तीसरे मामले में कमज़ोर पड़ जाती हैं, नतीजा क्या निकलता है? नतीजा यह निकलता है कि ज्ञान व ज्ञानी की पैदावार का फल, ज़ायोनी और साम्राज्यवादी ताक़तों का हथकंडा बन जाता है। युनिवर्सिटी के सभी ज़िम्मेदारों को इन तीन बातों पर ध्यान देना चाहिए, प्रिंसपल, टीचर, छात्र, सेलेबस, शिक्षा शैली सब को  इन्ही तीन चीज़ों के दायरे में होना चाहिए।

हमें मुल्क में ज्ञान के ख़ज़ाने के बढ़ाना चाहिए और मुल्क को ज्ञान विज्ञान के लिहाज़ से समुद्ध बनाना चाहिए। आज इस्लामी जगत में ईरान की प्रतिष्ठा का एक पहलु क्या है? युनिवर्सिटियों की वजह से है, रिसर्च सेंटरों की वजह से है, ज्ञान की वजह से है। हम ने वैज्ञानिक क्षेत्र में तरक़्क़ी की है, ज्ञान की उपलब्धि की जो तकनीक है, उसमें भी आगे बढ़े हैं, आज दुनिया में हमारी प्रतिष्ठा का एक बड़ा हिस्सा इसकी वजह से है, इसे हमें सुरक्षित रखना चाहिए और बचाए रखना चाहिए। यक़ीनी तौर पर साम्राज्यवादी ताक़तें इस तरह की युनिवर्सिटी हमारे लिए नहीं चाहतीं। युनिवर्सिटी के बारे में मैंने कई पेज पर नोट्स लिखे हैं, लेकिन अब वक़्त नहीं है, अज़ान होने वाली है।

जहां तक संगठनों की बात है तो आप सब संगठनों से जुड़े हैं। संगठनों से मुझे बहुत ज़्यादा अपेक्षाएं हैं। यह जो आप ने सरकार, व्यवस्था, मुझ नाचीज़ से जितनी अपनी उम्मीदों की बात की है यहां पर तो यह जान लीजिए कि उससे कई गुना ज़्यादा मुझे आप लोगों से उम्मीद है। संगठनों से उम्मीद बहुत ज़्यादा है। सब से पहली उम्मीद तो यह है कि आप लोग छात्रों के माहौल पर असर डालें, यह असर नज़र नहीं आता, कम नज़र आता है। आप लोग संगठन हैं। संगठनों को सबसे पहले युनिवर्सिटी के अंदर देखना चाहिए, लेकिन आप लोग सब से पहले युनिवर्सिटी से बाहर देखते हैं। युनिवर्सिटी के बाहर भी नज़र रखें, जैसा कि मैंने कहा, फ़िक्रमंद रहें, आलोचना करें, एतेराज़ करें, समाधान पेश करें, यह सब अच्छी बात है लेकिन उससे अच्छी बात, इससे ज़्यादा ज़रूरी बात यह है कि आप युनिवर्सिटी के अंदर के माहौल पर नज़र रखें, युनिवर्सिटी पर काम करें। हमारे संगठन, युनिवर्सिटी के अंदर कम काम करते हैं, वाक़ई वहां काम कम होता है। युनिवर्सिटी में क्या हो रहा है? क्लासेज़ में क्या हो रहा है? थेसिस की क्या दशा है? आज कल कुछ लोग ईरान की इस्लामी युनिवर्सिटियों में, मुल्क की युनिवर्सिटियों में, यह कोशिश कर रहे हैं कि ईरानी छात्र पश्चिम के पीछे पीछे चलने को अपनी पहचान समझे! आजकल यह कोशिश हो रही है। मेरे पास ख़बरें आती हैं, भरोसेमंद ख़बरें, कि क्लास के अंदर, क्लास के बाहर यह कोशिश की जा रही है कि छात्र इस दिशा में बढ़ें, तो इसके मुक़ाबले में कौन खड़ा होगा? पुलिस? इस मामले में आप लोगों को सक्रिय होना चाहिए, आप लोगों को यह काम नहीं होने देना चाहिए। कुछ लोग थे युनिवर्सिटी में इस तरह के, टीचर ने क्लास में, क्लास के अंदर मुल्क के विभाजन को सही ठहराया! यानी उस चीज़ को सही ठहराया जिसे इंक़ेलाब के दुश्मन भी सही नहीं मानते, उसे तक़रीर करके सही ठहराया! मैंने उसी वक़्त उस युनिवर्सिटी के डीन को चेतावनी दी थी इस बात के लिए, लेकिन उस वक़्त कुछ ख़ास काम नहीं हुआ, यह आप लोगों का काम है।

ख़ुद को वैचारिक लिहाज़ से मज़बूत करें, यह ज़रूरी है। अगर वैचारिक लिहाज़ से आप ख़ुद को मज़बूत नहीं करेंगे, संगठनों ने ख़ुद को मज़बूत नहीं किया, तो उनका काम सही नहीं होगा, सिर्फ़ यही नहीं कि वह इन्क़ेलाबी विचारधारा का प्रचार नहीं कर पाएंगे बल्कि हो सकता है कि वे ख़ुद भी ख़त्म हो जाएं, जैसा कि यह हो चुका है। इस्लाम के नाम पर इस्लाम के ख़िलाफ़ काम होता है, बातें होती हैं, पोस्टर छापे जाते हैं और इस तरह के काम किये जाते हैं।

एक उम्मीद यह हैः आलोचनात्मक नज़रिया रखें लेकिन मुल्क की तरक़्क़ी के बारे में गर्व का भी आभास करें। जी मैं देख रहा हूँ कि मुल्क के कई विभागों में बहुत विकास हुआ है, क्यों संगठनों के बयानों में उनका ज़िक्र नहीं किया जाता? जी हां, आलोचना ज़रूर करें, कोई हर्ज नहीं, लेकिन गर्व भी करें, सिर ऊंचा उठाएं कि विभिन्न मैदानों में अहम काम हुए हैं, अच्छे काम हुए हैं।

बहरहाल छात्र संगठन, मुल्क के लिए बड़े अवसरों में से एक हैं, मैं छात्र संगठनों को, आप सब को, बहुत बड़ा अवसर समझता हूँ। मुझे पता है कि आप लोगों का आपस में मतभेद भी है, कार्यशैली के बारे में भी मतभेद है, कोई बात नहीं लेकिन वैचारिक मतभेद का तक़ाज़ा कॉलर पकड़ना और झगड़ा करना तो नहीं है। जो मैंने साल के शुरु में कहा था (6) उसे दोहराया भी था, अब फिर दोहरा रहा हूँ और उस काम से आप सब को रोक रहा हूँ और वह काम है झगड़ा करना। वैचारिक मतभेद के नतीजे में झगड़ा नहीं होना चाहिए, एक दूसरे का गिरेबान नहीं पकड़ना चाहिए। मतभेद हैं, कोई बात नहीं, लेकिन छात्र संगठन, युनिवर्सिटी के लिए बहुत बड़ा अवसर हैं। जी मेरे ख़्याल में शायद दो तीन मिनट पहले ही अज़ान का वक़्त हो चुका है, बहुत अच्छी बैठक थी।

पालने वाले! तुझे मुहम्मद व आले मुहम्मद की क़सम है कि हमारे इन प्यारे नौजवानों को अच्छे भविष्य में इस्लाम के बड़े व महान सिपाहियों में क़रार दे, उन्हें इस राह पर क़दम जमा कर चलने की तौफ़ीक़ दे। पालने वाले! तुझे मुहम्मद व आले मुहम्मद की क़सम! ईरानी क़ौम को, सही अर्थों में इन नौजवानों की नेमत से नवाज़ दे, पालने वाले! हम सब के दिल, ख़ास तौर पर नौजवानों के दिलों को अपनी नूरानियत में महफ़ूज़ रख, हमारे इमामे ज़माना को हम से राज़ी रख, हमारे शहीदों की रूहों को हम से ख़ुश रख, और इमाम ख़ुमैनी की पाकीज़ा रूह को हम से राज़ी रख।

 

वस्सलाम अलैकुम व रहमतुल्लाहे व बरकातुहू

  1. इस मुलाक़ात की शुरुआत में6 छात्रों ने तक़रीरें कीं
  2. सूरए इसरा, आयत 36
  3. एक तक़रीर करने वाले छात्र की बातों का ज़िक्र
  4. नहजुल बलाग़ा, ख़त 53
  5. नहजुल बलाग़ा, ख़त 53
  6. नये हिजरी शम्सी साल के मौक़े पर तक़रीर 20-03-2024