बिस्मिल्लाह अर्रहमान अर्रहीम

अरबी ख़ुतबे का अनुवादः सारी तारीफ़ पूरी कायनात के मालिक के लिए, दुरूद व सलाम हो हमारे सरदार व रसूल हज़रत अबुल क़ासिम मुस्तफ़ा मोहम्मद और उनकी सबसे पाक, सबसे पाकीज़ा, चुनी हुयी नस्ल पर।

आप सब का स्वागत है, प्यारे नौजवानो, प्यारे भाइयो, बहनो, ख़ास तौर पर यहां मौजूद शहीदों के परिवार मैं आप सब का स्वागत करता हूं। यह बैठक, अस्ल में नौजवानों की बैठक है, जहां पाकीज़ा दिल रखने वाले नौजवान जमा हुए हैं।

मेरी पहली बात, मेरी पहली गुज़ारिश यह है कि आप नौजवान, अपनी नौजवानी के दौर में रुह की पाकीज़गी व सफ़ाई का फ़ायदा उठाएं और शाबान और उसके बाद रमज़ान के बरकतों वाले महीनों में अल्लाह से क़रीब हो जाएं, ख़ुदा से अपनेपन का एहसास करें, ख़ुदा के सामने हाथ फैलाएं और ख़ुदा पर भरोसा करें। शाबान के बहुत कम दिन बचे हैं, ज़्यादा हिस्सा गुज़र चुका है। दुआ का महीना, मुनाजात का महीना, तौबा का महीना, शाबान का महीना इस तरह का है। यह जो अब कुछ दिन बचे हैं उसके लिए मैं गंभीरता के साथ आप नौजवानों से चाहे वो लड़के हों या लड़कियां, सिफ़ारिश करता हूं कि दुआ, तौबा और सलवात की तरफ़ से लापरवाही न करें। दुआ से कायनात को पैदा करने वाले के साथ आप का ताल्लुक़ क़रीब होता है, अल्लाह से आप का ताल्लुक़ मज़बूत होता है, दुआ व मुनाजात का यह असर है। जब हम तौबा करते हैं, तो अस्ल में, उसका मतलब यह होता है कि हम ग़लती की राह से वापसी का इरादा करते हैं। हम सब से ग़लतियां होती हैं, भूल हो जाती है, गुनाह हो जाता है। तौबा ग़लतियों और गुनाहों की राह से वापसी की फ़ैसला है और इसी लिए शाबान के महीने में तौबा पर ज़ोर दिया गया है। आप कहते हैं “अस्तग़फ़िरुल्लाहा व अतूबो इलैह” तो “अतूबो इलैह” का मतलब है मैं अल्लाह की तरफ़ लौटता हूं, गुनाह और ग़लतियों की वजह से मैं ख़ुदा से दूर हो गया हूं, अब अपने पालने वाले की तरफ़ वापसी कर रहा हूं, अल्लाह भी इस वापसी को क़ुबूल करता है। मुहम्मद व आले मुहम्मद पर दुरूद भेजकर दरअस्ल हम इन्सानियत के सब से अच्छे आदर्श को अपने दिमाग़ में ज़िंदा करते हैं। यह महान हस्तियां, सब से अच्छे इंसान और अल्लाह की बेहतरीन रचना हैं, आदर्श हैं। जब हम सलवात भेजते हैं, तो दरअस्ल उनकी यादों को अपने दिल में ज़िंदा करते हैं, तो यह भी बहुत क़ीमती चीज़ है।

यह जो दुआएं बतायी गयी हैं और जिन्हें हम “मासूरा” दुआएं कहते हैं, “मासूर” दुआ यानी वह दुआएं जो इमामों के ज़रिये बतायी गयी हों, उनसे हम तक पहुंची हों, जैसे सहीफ़ए सज्जादिया, या मफ़ातीहुल जेनान की अक्सर दुआएं। यह दुआएं सिर्फ़ मांगना नहीं है, सिर्फ़ चाहना नहीं है, सिर्फ़ अल्लाह से ताल्लुक़ ही नहीं है, बल्कि उससे भी ज़्यादा है, इन दुआओं में शिक्षा है। बड़े बड़े अर्थ, इस्लामी शिक्षा के ऊंचे पहलु इन दुआओं में हैं। इन दुआओं में जो शिक्षाएं हैं उन्हें इंसान कहीं और नहीं पा सकता। दुआओं की आदत से एक मुसलमान व मोमिन इंसान का इल्म व पहचान बढ़ती है, यह बहुत अच्छी चीज़ है। इस बुनियाद पर मेरी पहली गुज़ारिश यह हुई कि अपने दिल के नूरानी होने के इस मौक़े को, क्योंकि आप के दिल नूरानी हैं, साफ़ हैं, ग़नीमत समझें। शाबान और आने वाले रमज़ान के महीने का जो मौक़ा है इन सब को दुआओं के लिए, तौबा के लिए, अल्लाह और उसके क़रीबी बंदों से मदद मांगने के लिए इस्तेमाल करें। यह मेरी आप से पहली बात है।

दूसरी बात जो है उसे आप लोगों और पूरी ईरानी क़ौम से कहना मेरी ज़िम्मेदारी है और वह चुनाव की बात है। ज़ाहिर सी बात है इलेक्शन के बारे में हमने भी बात की है, दूसरों ने भी बात की है, और हम देख भी रहे हैं कि ख़ुदा का शुक्र है कि विभिन्न जगहों पर, युनिवर्सिटियों में, सड़कों पर हमारे नौजवान इस बारे में बात कर रहे हैं, चर्चा कर रहे हैं, लेकिन इस बारे में कुछ बातें मैं आज कहूंगा।

ख़ुदा के शुक्र से इलेक्शन क जोश पूरे मुल्क में जगह जगह देखा जा रहा है। चुनाव का जोश और उसकी इच्छा पूरी तरह से महसूस की जा रही है, इस पर हमें ख़ुदा का शुक्र अदा करना चाहिए। मक़सद यह है कि इलेक्शन, यह दो दिनों बाद होने वाला इलेक्शन ही नहीं, (1) बल्कि हमारे मुल्क में होने वाले हर चुनाव को जोश व शौक़ के साथ आयोजित होना चाहिए लेकिन क्यों?  देखें आप नौजवान लोग, तर्कशील हैं, मुझे सच में यह देख कर ख़ुशी होती है कि इंक़ेलाब के बाद हमारे नौजवानों ने दलील व रिसर्च और चीज़ों को बारीकी से देखने में दिलचस्पी के मामले में कई गुना तरक़्क़ी की है। मैं इंक़ेलाब से पहले के नौजवानों के बारे में जानकारी रखता था, हमारी सारी बैठकें नौजवानों के साथ हुआ करती थीं, मैं उस दौर के नौजवानों को अच्छी तरह से पहचानता था। इंक़ेलाब के बाद, सवाल करने का, रिसर्च करने का, बहस करने का, आज़माने का, चेक करने का जज़्बा नौजवानों में कई गुना बढ़ गया है और यह बहुत अच्छी चीज़ है, यानी नौजवान, विभिन्न मैदानों में जवानी का जोश व उत्साह रखने के साथ ही साथ, दलील व तर्क वाला भी है और उनमें भी उसे दिलचस्पी है। यही हमारे शहीद जो अक्सर आप लोगों की तरह नौजवान थे, यानी पाकीज़ा डिफ़ेंस के दौरान और इसी तरह, मुक़द्दस रौज़ों की हिफ़ाज़त के दौर में हमारे अक्सर शहीद, नौजवान थे अक्सर 20 या 20 साल से कुछ ज़्यादा और ज़्यादा से ज़्यादा 30 साल के थे। वह जोश, जज़्बे और उत्साह से भरे दिल के साथ जंग के मैदान में गये लेकिन वो दिमाग से काम करते थे, उनकी सोचने की ताक़त काम कर रही थी। तर्क था, दलील थी उनके पास, उनकी जीवनी अगर आप पढ़ें, तो यह चीज़ आप महसूस करेंगे। वह तर्क के साथ आगे बढ़ते थे। आज हमारे नौजवान इस तरह के हैं। मैं इस बारे में कुछ बातें कहता हूं।

सब से पहले अगर हम जोश व जज़्बे से होने वाले चुनाव की अहमियत के बारे में एक वाक्य कहना चाहें तो हमें यह कहना चाहिए कि जोश से भरा मज़बूत चुनाव मुल्क को सही तौर पर चलाने के लिए एक अहम बुनियाद है, जिसके बारे में बात के दौरान में ज़्यादा विस्तार से चर्चा करूंगा। यह मुल्क की तरक़्क़ी की एक बुनियाद है, यह तरक़्क़ी की रुकावटों को दूर करने का एक अहम साधन है, मज़बूत चुनाव की यह सब ख़ूबियां हैं।

चूंकि आप लोगों ने वह दौर नहीं देखा है, सब से पहले तो आप नौजवानों से मैं यह कह दूं कि यह जो बैलेट बॉक्स है, यह चुनाव, यह सब हमारे मुल्क को हमारी क़ौम को आसानी से नहीं मिला है, यह सब कहां था, इस तरह की चीज़ें कहां थीं। एक ज़माने तक तो पूरी तरह से तानाशाही थी, उसके बाद दिखावे के लिए इलेक्शन होते थे, इलेक्शन सिर्फ़ दिखावा थे, उसके अदंर कुछ नहीं था, यानी लिस्ट दरबार में और कभी दूसरे देशों के दूतावासों में तैयार की जाती थी, यह लिस्ट दे दी जाती थी और कहा जाता था कि इन लोगों को सांसद बनना है! यह वो बातें हैं जो ख़ुद वो लोग करते हैं, हम नहीं कह रहे हैं। यक़ीनी तौर पर हमें उस वक़्त पता था, हमें इंक़ेलाब से पहले यह पता था कि चुनाव, वोटिंग वगैरा का मतलब क्या है? लेकिन इंक़ेलाब के बाद ख़ुद उन लोगों ने यह क़ुबूल किया, अपनी किताबों में लिखा। यह कि लोग जज़्बे के साथ, पहचान के साथ, ईमान के साथ, उम्मीद के साथ, पोलिंग बूथों पर जाएं और वोट डालें, यह आसानी से नहीं मिला है, इस चीज़ के लिए हमारे मुल्क में बहुत संघर्ष किया गया है। यक़ीनी तौर पर इस संघर्ष की शुरुआत संविधान क्रांति के बाद से हो गयी थी, लेकिन अस्ल मेहनत और संघर्ष, इमाम ख़ुमैनी और इस्लामी आदोंलन के दौरान किया गया कि जब आम जनता इमाम ख़ुमैनी के साथ खड़ी हो गयी और इस राह पर आगे बढ़ी। सन 1962 से यह संघर्ष शुरु हुआ और 11 फ़रवरी 1979 को जब इंक़ेलाब कामयाब हुआ तो यह संघर्ष भी कामयाब हो गया। इन 16 बरसों के दौरान मुल्क में बहुत मेहनत की गयी, बहुत काम किया गया, लोग जेलों में डाले गये, लोगों को टार्चर किया गया, बयान का जेहाद हुआ यहां तक कि हालात बने और सन 1978 से जनआंदोलन शुरु हुआ। इमाम ख़ुमैनी ने हर क़दम पर इस आंदोलन का, इस संघर्ष का मार्गदशन किया। सिखाया, रास्ता दिखाया, यह बताया कि कहां आगे बढ़ना चाहिए, क्या करना है, क्या मांग करनी है, नेता यह है सही अर्थों में।

इंक़ेलाब के रहबर का काम, इमाम ख़ुमैनी का काम या जो भी रहबर होने का दावा करता है, उसका काम दिल से किया जाना वाला काम होता है, सोच विचार का काम है होता है, वह लोगों के दिलों पर, लोगों के दिमाग़ पर असर डालता है और इमाम ख़ुमैनी ने असर डाला, लोग मैदान में उतरे यहां तक कि इंक़ेलाब कामयाब हो गया। अब अगर आप लोगों ने दुनिया के इन्क़ेलाबों की तारीख़ पढ़ी हो, वैसे अफ़सोस की बात है कि नौजवान, किताब कम पढ़ते हैं, आप लोग इस तरह की किताबें ज़्यादा से ज़्यादा पढ़ें, तो जब आप इलाक़े या दुनिया के इन्क़ेलाबों को देखेंगे तो आप को यह नज़र आएगा कि जब इंक़ेलाब होता है, तो कुछ समय तक इन्क़ेलाबी तानाशाही की सरकार होती है, यानी जनता के वोट वग़ैरा की कोई बात नहीं होती। मिसाल के तौर पर आप फ्रांस को देखें। 18 वीं सदी के आख़िर में, फ़्रास में इंक़ेलाब आता है, लोग इंक़ेलाब लाए थे, लोग सड़कों पर उतरे और संघर्ष किया लेकिन इंक़ेलाब के बाद, कुछ गिने चुने लोग सत्ता संभाल लेते हैं, 3-4 साल वह लोग रहते हैं, फिर कुछ दूसरे लोग आते हैं और पहले वालों को हटा कर ख़ुद उनकी जगह पर बैठ जाते हैं, 4-5 साल वे रहते हैं, फिर एक और गुट आकर इन को हटा देता है। लगभग 10-12 बरसों तक यही हालत रहती है, उसके बाद एक नेपोलियन पैदा होता है और सामने आकर इन सब को ख़त्म कर देता है, एक तानाशाही सरकार बना देता है, चुनाव की बात तक नहीं होती। उससे बुरा हाल तो सोवियत संघ के इंक़ेलाब का है। तारीख़ के यह दो अहम इंक़ेलाब हमारे सामने हैं।

लेकिन ईरान में 11 फ़रवरी को इंक़ेलाब होता है, 1 अप्रैल को, यानी लगभग 50 दिनों बाद, इमाम ख़ुमैनी ने जनमत संग्रह का एलान कर दिया ताकि जनता यह तय करे कि सरकार कैसी होगी और जनता ने यह तय भी किया यानी इमाम ख़ुमैनी ने फ़ौरन ही जनता को पोलिंग बूथ पर बुला लिया, जनता में विश्वास का मतलब यह है, चुनाव के महत्व का मतलब यह है, फ़ासला नहीं हुआ। इसके लगभग एक साल बाद संविधान के लिए एक्स्पर्ट सभा का चुनाव हुआ। चुनाव का आयोजन हुआ, उसके बाद एक्सपर्ट सभा में जो संविधान बनाया गया था उस पर वोटिंग हुई जो दूसरा चुनाव था। फिर राष्ट्रपति चुनाव हुआ, फिर संसदीय चुनाव हुआ, एक साल में इतने चुनावों का आयोजन हुआ। यह सब ईरान के इंक़ेलाब की बरकतें हैं, दूसरीं बातों पर कोई ध्यान नहीं देता था। लोग पोलिंग बूथों में गये, वोट दिया, किसी ने समर्थन में तो किसी ने विरोध में। कुछ चुनावों में बहुज जोश व उत्साह व बड़ी संख्या में और कुछ में कम संख्या में लेकिन जनता पोलिंग बूथों पर गयी। यह जान लें प्यारे नौजवानो! यह चुनाव, बैलेट बॉक्स, आप का चुनाव, आप का वोट देना, आप का शामिल होना, एक अधिकार है जो आसानी से नहीं मिला है, इसे बड़ी मेहनत से हासिल किया गया है, संघर्ष से हाथ आया है, बड़े बड़े बलिदानों के बाद मिला है, जनता के आम आंदोलन के बाद मिला है।

जी तो हम जनता की भागीदारी पर क्यों इतना ज़ोर देते हैं? बहुत से लोग थे और शायद अब भी हों जो यह कहते हैं कि जनाब! इलेक्शन हो, कुछ लोग उसमें भाग लें, फिर एक सरकार बन जाए, या एक सरकार किसी तरह से बन जाए, एक संसद किसी तरह से बन जाए और अपना काम करे बात ख़त्म। लेकिन हमारा मानना है कि नहीं, यह नहीं होना चाहिए, चुनाव, जोश व उत्साह के साथ होना चाहिए, वोटिंग भारी संख्या में होनी चाहिए, क्यों? इस लिए क्योंकि मैदान में पोलिंग केन्द्रों पर जनता की उपस्थिति, देश चलाने के अहम मैदानों में जनता की उपस्थिति की निशानी है, यह देश के लिए बहुत बड़ी दौलत है।

अगर हम दुनिया को, आगे मैं बताउंगा कि दुनिया का मतलब क्या है, यह दिखा सकें कि जनता देश के अहम और निर्णायक कामों में उपस्थित है तो हम ने देश को बचा लिया, देश को आगे ले जाने में कामयाब रहे। यह जो मैंने कहा कि “हम दुनिया को दिखा सकें” तो किसे दिखाएं? ज़ाहिर सी बात है दुनिया के बहुत से लोग और बहुत से देशों को हम से कोई मतलब ही नहीं है, उनके लिए अहम ही नहीं है, लेकिन कुछ सरकारें हैं, कुछ नीतिकार हैं जो ईरान के मामलों पर गहरी नज़र रखते हैं, इस्लामी जुम्हूरिया ईरान और हमारे प्यारे देश के मामलों पर नज़र रखते हैं कि वहां क्या हो रहा है। अमरीका, युरोप की अधिकांश सरकारें, ज़ायोनी नीतिकार, दुनिया की बड़ी बड़ी कंपनियों और पुंजीपतियों के नीतिकार, अलग अलग वजहों से, जिसके बारे में बात करने का अभी यहां मौक़ा नहीं है, बहुत सी वजहों के बारे में आप को पता भी है, बहुत सी वजहें हमने बतायी भी हैं, ईरान पर नज़र रखते हैं, वे यह देखना चाहते हैं कि यहां क्या हो रहा है। यह जो दुनिया भर के नीतिकारों के बारे में मैंने कहा है वो सब से ज़्यादा जनता की उपस्थिति से डरते हैं, जनशक्ति से उन्हें चिंता है और उस पर ध्यान देते हैं क्यों? क्योंकि जनता की ताक़त उन्होंने देख ली है। यह देख लिया है कि अगर यह क़ौम, मैदान में उपस्थित होगी तो निश्चित रूप से समस्याओं का समाधान कर लेगी, जैसा कि इस्लामी इंक़ेलाब में, जनता उपस्थित हुई और उस सरकार को उखाड़ फेंकने में सफल हुई जिसके साथ अमरीका, ब्रिटेन युरोप सब खड़े थे, हमारी यह क़ौम इस तरह की है। उन्होंने देखा है कि हमारी क़ौम जब मैदान में उतरती है, पाकीज़ा डिफ़ेंस और थोपी गयी जंग के दौरान उस सद्दाम के सामने जीत दर्ज करती है जिसका अमरीका, सोवियत संघ, नेटो, अरब रूढ़िवादी सरकारें सब साथ दे रही थीं, उसके बावजूद इस क़ौम ने उसे ईरानी सीमा से पीछे खदेड़ दिया, उसे धूल चटा दी और उसकी इज़्ज़त उतार दी, यह सब उन्होंने देखा है। मैदान में ईरानी क़ौम की उपस्थिति का चमत्कार, ईरानी क़ौम के दुश्मनों ने देखा है, इस लिए जनता की उपस्थिति से चिंतित होते हैं और अब यह देखना चाहते हैं कि जनता उपस्थित होती है या नहीं। जब आप लोग पोलिंग बूथों में जाते हैं, तो उनकी समझ में आ जाता है कि जी हां, ईरानी राष्ट्र यथावत मैदान में उपस्थित है।

तो इस बुनियाद पर चुनाव में जनता की भागीदारी का मतलब, राष्ट्रीय शक्ति है और यह वही चीज़ है जिससे दुश्मन डरते हैं, यह हमारी राष्ट्रीय सुरक्षा की गारंटी है। राष्ट्रीय शक्ति, राष्ट्रीय सुरक्षा की गारंटी है। अगर दुश्मन को यह महसूस होगा कि आप के पास ताक़त नहीं है, ईरानी क़ौम के पास कोई ताक़त नहीं है, तो वह हर तरह से आप की सुरक्षा के लिए ख़तरे पैदा करेगा, हर तरह से, यह राष्ट्रीय शक्ति, राष्ट्रीय सुरक्षा की गारंटी और उसे यक़ीनी बनाने वाली है। नेशनल सेक्यूरिटी सब कुछ है, अगर सुरक्षा नहीं होगी, तो कुछ भी नहीं होगा। दुश्मन हमारी राष्ट्रीय शक्ति का विरोधी है, इस लिए आप देखते हैं कि जब यह नया साल (1402 नया ईरानी साल 21 मार्च से) शुरु हुआ तो चूंकि इस साल चुनाव होने वाले थे इस लिए साल के शुरु से ही दुश्मनों की तरफ़ से रेडियो पर, टीवी पर, सैटेलाइट चैनलों पर ईरान में चुनाव के विरुद्ध प्रोपैगंडे शुरु हो गये ताकि लोग निराश हो जाएं और यह सोचें कि क्या फ़ायदा, क्या असर, चुनाव का क्या असर होता है?! इस तरह की बातें लोगों के दिमाग़ में आने लगें। वे चाहते ही नहीं, वे ईरान की राष्ट्रीय शक्ति को सहन ही नहीं कर सकते। इस लिए राष्ट्रीय शक्ति का चिन्ह बनने वाली हर चीज़ का विरोध करते हैं, जिनमें चुनाव भी शामिल है।

वैसे मुल्क के अदंर भी कुछ लोग चुनाव के बारे में अच्छा काम नहीं कर रहे हैं। मैं किसी पर आरोप नहीं लगा रहा हूं लेकिन सब को यह याद दिला रहा हूं कि हमें इलेक्शन को राष्ट्रीय हित की नज़र से देखना चाहिए। पार्टी या धड़े के लिहाज़ से नहीं। आप सब राष्ट्रीय हित को देखें। अगर चुनाव कमज़ोर होगा, सब को नुक़सान होगा, यह नहीं होगा कि कुछ लोगों को कमज़ोर चुनाव से नुक़सान होगा, कुछ लोगों को फ़ायदा! किसी को भी फ़ायदा नहीं होगा। जो भी ईरान से प्यार करता है, जो भी अपने मुल्क को, अपनी क़ौम को, अपनी सुरक्षा को चाहता है उसे यह जान लेना चाहिए कि अगर चुनाव कमज़ोर रहे तो किसी को भी उसका फ़ायदा नहीं मिलेगा, सब को नुक़सान होगा, सब को चोट पहुंचेगी। यह नहीं होगा कि कुछ लोगों को चोट लगे और कुछ दूसरों को फ़ायदा पहुचें, जी नहीं। जी तो तो राष्ट्रीय शक्ति के प्रदर्शन की बात थी और मैंने कहा कि चुनाव, राष्ट्रीय शक्ति को दिखाने और उसका प्रदर्शन करने का एक साधन है।

इसके अलावा चुनाव के दूसरे भी फ़ायदे हैं। उसका एक फ़ायदा यह है कि अगर चुनाव अच्छी तरह से हुए तो चुन कर आने वाले लोग भी मज़बूत होंगे। अगर मिसाल के तौर पर हम संसदीय चुनाव में, जैसा कि अभी संसदीय चुनाव होने वाले हैं, मज़बूती से हिस्सा लें तो संसद भी मज़बूत बनेगी। मज़बूत संसद बड़े बड़े काम कर सकती है, बड़े बड़े क़दम उठा सकती है। क्योंकि उसकी बुनियाद मज़बूत है। राष्ट्रपति चुनाव में अगर चुनाव जोश व भारी वोटिंग से होगा तो राष्ट्रपति के, सरकार के हाथ खुले होंगे, बड़े बड़े कामों के लिए, बड़े बड़े क़दमों के लिए। यह बात है। इस बुनियाद पर मज़बूत इलेक्शन का नतीजा मुल्क की तरक़्क़ी है, उसके नतीजे में मुल्क को फ़ायदा होता है, उससे मुल्क की समस्याएं दूर होती हैं, यह सब उसके नतीजे हैं। इस लिए हम ने कहा कि मज़बूत इलेक्शन, तरक़्क़ी की एक सीढ़ी है।

एक दूसरा फ़ायदा चुनाव में भाग लेने वालों की राजनीतिक समझ में वृद्धि है, ख़ासतौर पर नौजवानों में। यह हमारे लिए बहुत अच्छ मौक़ा है कि हमारे नौजवान चुनाव के दौरान, चर्चाओं में, तुलना करने में, दलीलें लाने में, किसी प्रत्याशी का समर्थन करने वाले जो बातें करते हैं, उसके विरोधी जो कहते हैं, इन सब चीज़ों से राजनीतिक तौर पर पुख़्ता हों। यह राजनीतिक समझ, यह विश्लेषण की ताक़त जो नौजवानों में पैदा होती है, बहुत क़ीमती चीज़ है, बहुत बड़ी चीज़ है, ख़ासतौर पर हमारे मुल्क के लिए। जब हमारे नौजवान में विश्लेषण की ताक़त बढ़ जाती है तो वह दुश्मन को पहचानने लगता है, उसके तरीक़े को समझने लगता है, दुश्मन के कामों का मक़सद समझने लगता है और दुश्मन का सामना करने की राह का उसे पता होता है। यह विश्लेषण की ताक़त मेरी नज़र में बहुत अहम फ़ायदा है। इस बुनियाद पर क़ौम के हर शख़्स को, चुनाव के बारे में हमारी यह बातें सुनने वाले हर व्यक्ति को यह जान लेना चाहिए कि बैलेट बॉक्स में वोट डालना एक बहुत आसान काम है लेकिन उसका नतीजा बहुत बड़ा है। चुनाव में भाग लेना तो कोई कठिन काम नहीं है, एक आसान काम है, कुछ लगाना भी नहीं पड़ता है, लेकिन उसके नतीजे, बहुत बड़े होते हैं जिनमें से कुछ का ज़िक्र मैंने किया है।

आप लोग नौजवान हैं और बहुत से लोग पहली बार वोट डालेंगे, मैं अपने मुल्क की नौजवान नस्ल में, अपनी नौजवान नस्ल में, बहुत यक़ीन रखता हूं। नौजवान हर मैदान में आगे हैं, जोश से भरे हैं, इस मैदान में भी यही हाल है, इस मैदान में भी नौजवान सब से आगे हो सकते हैं, दूसरे लोगों को आगे ले जा सकते हैं, जोश पैदा कर सकते हैं, ख़ुद नौजवान भी भाग लें सब, और दूसरों को भी भाग लेने का शौक दिलाएं। आप नौजवानों का एक काम यह है, मां, बाप, क्लास फेलो, रिश्तेदारों, मोहल्ले के लोगों और ख़ुद से ताल्लुक़ रखने वाले सभी लोगों में आप दलील देकर, चुनाव में भाग लेने का उनमें शौक पैदा कर सकते हैं, यह काम आप लोग कर सकते हैं। वैसे यह भी हो सकता है कि कोई सचमुच भाग न ले पाए यानी यह कि हमारा फ़र्ज़ है कि हम सब में चुनाव में भाग लेने का शौक़ पैदा करें लेकिन कुछ लोग ऐसे भी हो सकते हैं जो किसी वजह से चुनाव में भाग नहीं ले सकते, हमें उनसे कोई मतलब नहीं, हमें उनसे कुछ नहीं कहना। लेकिन जो लोग चुनाव से दूरी ज़ाहिर करते हैं, कि अफ़सोस की बात है कि इस तरह के लोग भी हैं, ख़ुद तो चुनाव से दूरी की बात करते हैं और दूसरे यह कि दूसरों को भी चुनाव में भाग न लेने पर तैयार करने की कोशिश करते हैं, इन लोगों को मेरे ख़याल में इन मामलों पर थोड़ा ज़्यादा सोचना चाहिए, वोट न देने से कोई फ़ायदा नहीं। आप का यह कहना है! वोट देने से हो सकता है कोई फ़ायदा न हो, जी लेकिन यह भी हो सकता है कि उसका कोई फ़ायदा भी हो, यानी वोट देने में फ़ायदे की संभावना है लेकिन वोट न देने में किसी भी तरह के फ़ायदे की कोई संभावना नहीं है। वोट न देने का कोई फल सामने नहीं आता, वोट न देने में किसी भी तरह के फ़ायदे की संभावना नहीं होती लेकिन वोट देने से फ़ायदे की संभावना रहती है। अब मैं तो यह कहता हूं कि फ़ायदा है लेकिन जिन्हें शक है वह यह कह सकते हैं कि फ़ायदे की संभावना है। इस बुनियाद पर वोट न देने का कोई तर्क नहीं है कि जिसके आधार पर हम यह कहें कि वोट नहीं देना चाहिए। यानी इस से किसी समस्या का समाधान नहीं होता, कुछ लोगों के वोट न देने से देश की किसी समस्या का समाधान नहीं होता, बल्कि मुल्क को उससे नुक़सान ही पहुंचता है, क्योंकि बहरहाल अगर आप वोट नहीं देंगे तो दूसरा तो देगा ही, तो हो सकता है जिसका चयन आप न चाहते हों वह चुन कर आ जाए। अगर आप ने वोट दिया तो हो सकता है कि उसकी जीत को रोक दें, एक वोट से या कई वोटों से। अस्ल में मेरा कहना यह हैः जो भी ईरान से प्यार करता है, जो भी इस्लमी जुम्हूरिया को चाहता है, जो भी इंक़ेलाब से प्यार करता है, जो भी राष्ट्रीय शक्ति चाहता है, जो भी तरक़्क़ी पसंद करता है उसे चुनाव में सक्रिय रहना चाहिए, चुनाव में जोश के साथ उसे भाग लेना चाहिए।

चुनाव एक अवसर है, इस अवसर से लाभ उठाया जाना चाहिए, देश के फ़ायदे में है, दुश्मनों को निराश करता है, अमरीकी नेताओं, सीआईए और अत्याचारी व दुष्ट ज़ायोनियों और उन सभी लोगों को निराश करता है जो हमारे मुल्क के मुद्दों पर गहरी नज़र रखे हैं, इससे हमारे दुश्मनों को निराशा होती है। यह है हमारी अस्ली बात।

सब से ज़्यादा योग्य उम्मीदवार के बारे में पूछा जाता है। चूंकि जो लोग प्रत्याशी बन कर चुनाव के मैदान में आते हैं वह सब योग्य होते हैं, मतलब निरीक्षण परिषद और दूसरे निगरानी करने वाले विभाग उसे देख चुके होते हैं और जांच कर चुके होते हैं कि यह प्रत्याशी योग्य है, इस बुनियाद पर प्रत्याशी बन कर हिस्सा लेने वाले सब लोग योग्य तो होते हैं लेकिन आप सब से ज़्यादा योग्य को चुनना चाहते हैं। सब से ज़्यादा योग्य कौन है? कौन है जिसकी योग्यता सब से ज़्यादा है? मैंने यहां पर तीन मापदंडों का ज़िक्र किया हैः

जो भी दीन पर अमल, दीनी ज़िम्मेदारियों पर अमल में बेहतर और आगे हो, जो भी मुल्क की स्वाधीनता और दुनिया की इस ताक़त और उस ताक़त पर निर्भर न रहने पर ज़्यादा आग्रह करे और सच में मुल्क की स्वाधीनता चाहता हो, जो भी भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ संघर्ष का गंभीर इरादा रखता हो और समझता हो कि भ्रष्टाचार का अंत होना चाहिए, जो भी राष्ट्रीय हितों के बारे में ज़्यादा गंभीर हो, यानी राष्ट्रीय हितों के लिए अपने व्यक्तिगत हितों को क़ुरबान करने पर तैयार हो, राष्ट्रीय हितों को तरजीह दे अपने व्यक्तिगत हितों पर, जिसमें भी यह ख़ूबियां हों, वह सबसे ज़्यादा योग्य है। दीन का मामला, स्वाधीनता का मामला, भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ संघर्ष, राष्ट्रीय हितों का मामला। धड़ेबंदी को अलग रखें, विभिन्न मैदानों में यह ध्यान दें कि मुल्क के हित में क्या है और क्या चीज़ मुल्क की ताक़त, तरक़्क़ी और सुविधा के लिए ठीक है, जब व्यक्तिगत हितों, धड़े व पार्टी के हितों और राष्ट्रीय हितों में टकराव हो तो इन चीज़ों को तरजीह दी जाए, मेरी नज़र में सब से ज़्यादा योग्य इस तरह का प्रत्याशी होता है और आप इसकी स्टडी, बातों पर ग़ौर करके, जानकार लोगों से बात करके, जानकारों से पूछ के कर सकते हैं और यह कोई कठिन काम नहीं है, न होने वाला काम नहीं है, जहां तक हो सके। अब मैं अगर वोट देना चाहूंगा तो मिसाल के तौर पर मेरे सामने तेहरान की लिस्ट लायी जाती है, अलग अलग धड़ों की अलग अलग लिस्ट होती है, सब को तो कोई नहीं पहचानता, कुछ को जानता है, कुछ के बारे में इन से उन से पूछ लेता है, कुछ के बारे में उनकी बातों पर भरोसा करते हैं जिन्होंने उन प्रत्याशियों का समर्थन किया है, मिसाल के तौर पर किसी संगठन ने कुछ प्रत्याशियों के नाम लिखे हैं तो वोटर भी उनके नाम लिख कर बैलेट बॉक्स में डाल देता है। जहां तक हो सके इस बारे में ध्यान दिया जाए।

ग़ज़्ज़ा का मुद्दा, इस समय इस्लामी दुनिया का बुनियादी मुद्दा है, जैसा कि हमने बारम्बार कहा है। कुछ दिन पहले भी मैंने एक तक़रीर में (2) कहा कि ग़ज़्ज़ा के मुद्दे ने, ग़ज़्ज़ा की घटना ने दुनिया के सामने इस्लाम को भी पेश कर दिया और यह साफ़ हो गया कि “इस्लामी ईमान” ही वह चीज़ है जिसकी वजह से इस तरह से डट कर संघर्ष किया जा सकता है और लोग बमबारी के सामने डटे रहे, झुके नहीं, दुशमनों के सामने हाथ ऊपर नहीं उठाए, इतनी बड़ी बड़ी त्रासदियों के बाद भी जो इन ज़ायोनियों ने पैदा कीं, इस्लाम को पहचनवाया कि देखें इस्लाम यह है, इस्लामी ईमान इसे कहते हैं, इसी तरह उन्होंने पश्चिमी सभ्यता का भी असली चेहरा दिखा दिया। पश्चिमी सभ्यता और संस्कृति वही चीज़ है जो अपने नीतिकारों को यह सिखाती है कि इन अपराधों को चुपचाप देखें और यह तक स्वीकार करने पर तैयार न हों कि यह जातीय सफ़ाया है, उसे सही अर्थों में रोकने पर तैयार न हों। जी हां, ज़बान से कुछ बातें तो करते हैं, लेकिन जब संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद में इन अपराधों को रोकने की बात होती है तो वीटो कर देते हैं, पश्चिमी सभ्यता यह है। अमरीका और पश्चिम वालों की मानवता विरोधी नीतियां इस हद तक गिर चुकी हैं कि आप ने सुना ही, अमरीकी सेना का एक अफ़सर, अमरीकी वायु सेना का एक अफ़सर खुद को आग लगा लेता है। (3) यानी यहां तक कि उस नौजवान के ज़मीर को भी तकलीफ़ पहुंचती है जो उसी सभ्यता व संस्कृति में पला बढ़ा है। यक़ीनी तौर पर एक के बजाए हज़ार लोगों को आत्मदाह करना चाहिए था, लेकिन भ्रष्टाचार उन्हें यह काम नहीं करने देता, अब एक व्यक्ति का अचानक ज़मीर जाग गया तो उसने ख़ुद को ज़िंदा जला लिया। पश्चिमी सभ्यता की हक़ीक़त सामने आ गयी, उसने ख़ुद को बेनक़ाब कर दिया, ख़ुद अपनी क़लई खोल दी और यह बता दिया कि वह कितनी भ्रष्ट है, कितनी गुमराह और कितनी अत्याचारी है।

मेरी दुआ है कि अल्लाह इस्लाम, मुसलमानों, फ़िलिस्तीन और ख़ासतौर पर ग़ज़्ज़ा की पूरी मदद करे और उम्मीद है कि अल्लाह ईरानी क़ौम के लिए अच्छे और उचित चुनाव का इंतेज़ाम करेगा जो इस क़ौम के लायक़ हो।

वस्सलामो अलैकुम व रहमतुल्लाह व बरकातुहू

 

 

  1. ईरान में 12 वें संसदीय और छठें एक्स्पर्टस एसेबंली के चुनाव का पहली मार्च को आयोजन होगा।
  2. ख़ूज़िस्तान प्रांत के 24 हज़ार शहीदों पर दूसरी कांफ्रेंस के ज़िम्मेदारी से मुलाक़ात में तक़रीर (24/2/2024)
  3. अमरीकी वायु सेना के अफ़सर एरोन बुशनेल ने ग़ज़्ज़ा के ख़िलाफ़ युद्ध और फ़िलिस्तीनियों के जातीय सफ़ाये में अमरीकी की तरफ़ से ज़ायोनी शासन के समर्थन के ख़िलाफ़ 25 फरवरी को वाशिंग्टन में इस्राईली दूतावास के सामने आत्मदाह कर लिया जिससे उसकी मौत हो गयी।