इस्लामी इंक़ेलाब के नेता आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई ने तबरेज़ के अवाम के 18 फ़रवरी 1978 के ऐतिहासिक आंदोलन की सालगिरह पर पूर्वी आज़रबाइजान प्रांत से आने वाले हज़ारों लोगों से इमाम ख़ुमैनी इमाम बारगाह में खेताब किया। 18 फ़रवरी 2024 को अपनी इस तक़रीर में आयतुल्लाह ख़ामेनेई ने ऐतिहासिक आंदोलन के बारे में बात की। आपने इस्लामी इंक़ेलाब की उपलब्धियों को बयान किया और 1 मार्च 2024 को संसद और विशेषज्ञ असेंबली के चुनावों के बारे में कुछ निर्देश दिए। (1)
तक़रीरः
बिस्मिल्लाह-अर्रहमान-अर्रहीम
अरबी ख़ुतबे का अनुवादः और सारी तारीफ़ें कायनात के परवरदिगार के लिए हैं, दुरूद व सलाम हो हमारे सरदार, हमारे नबी अबुल क़ासिम मुस्तफ़ा मुहम्मद और उनकी सबसे पाक, सबसे पाकीज़ा नस्ल विशेष रूप से इमाम महदी अलैहिस्सलाम पर।
मैं आप सभी प्यारे भाइयों और बहनों को ख़ुश आमदीद कहता हूं जिन्होंने कष्ट किया और इतना लंबा रास्ता तय करके यहां तशरीफ़ लाए और अपनी उपस्थिति से इस इमाम बारगाह को रौनक़, रूहानियत और ज्योति प्रदान की। मैं यहीं से तबरेज़ के सारे अवाम, आज़रबाइजान के सारे अवाम, प्यारी क़ौम़ और स्वाभिमानी क़ौम की सेवा में दुरूद व सलाम भेजता हूं और अर्ज़ करता हूं कि सही अर्थों में जैसा कि आपने इस ख़ूबसूरत तराने में पढ़ा, इश्क़ और स्वाभिमान का प्रतीक आज़रबाइजान है। वाक़ई ऐसा ही है। आज़रबाइजान स्वाभिमान का प्रतीक है, मुहब्बत और प्रेम का प्रतीक है, ईमान का प्रतीक है, ईमानी व इस्लामी जोश व जज़्बे का प्रतीक है। यह वह चीज़ है जो हमने आज़रबाइजान और तबरेज़ की तारीख़ में पढ़ी है और संघर्ष के ज़माने से लेकर आज तक इन बर्सों के दौरान ख़ुद अपनी आंखों से देखी है।
मैं शाबान महीने की ईदों की मुबारकबाद पेश करना ज़रूरी समझता हूं कि हक़ीक़त में शियों के लिए यह विलादतों के दिन, यह ईदें, ख़ास तौर पर 15 शाबान का मुबारक दिन बड़ी ख़ुशियों और मसर्रतों के मौक़े हैं। मैं 11 फ़रवरी को इस्लामी इंक़ेलाब की सालगिरह के जुलूसों में भरपूर शिरकत पर ईरानी अवाम का शुक्रिया अदा करना ज़रूरी समझता हूं। देश में हर जगह, सारे प्रांतों में, सारे शहरों में यहां तक कि ग्रामीण इलाक़ों और दूरदराज़ के केन्द्रों में भी अवाम ने अपने जोश और उत्साह का प्रदर्शन किया। ऐसे लोग भी हैं जो ईरानी क़ौम की हताशा की आरज़ू रखते हैं, यह लोग हैरान रह गए। ऐसे लोग भी जिनकी आरज़ू थी और है कि ईरानी क़ौम धीरे धीरे 11 फ़रवरी को भूल जाएगी, वो भौंचक्का रह गए। इस साल अवाम ने 11 फ़रवरी के दिन अपने इंक़ेलाब की सरबुलंदी का वाक़ई दुनिया के सामने नज़ारा पेश किया। मैं दिल की गहराइयों से शुक्रिया अदा करता हूं। अलबत्ता अज़ीज़ अवाम का शुक्रिया अदा करने के साथ ही, उन लोगों का भी दिल से शुक्रिया अदा करता हूं जिन्होंने पूरे देश में हर जगह निकलने वाले इन जुलूसों की सुरक्षा को अल्लाह की मदद से यक़ीनी बनाया। यह जो सुरक्षा है, यह कुछ मुजाहिद और बलिदानी इंसानों की कोशिशों, मेहनतों, क़ुरबानियों और दिन रात काम के नतीजे में हासिल होती है। इसकी क़द्र करनी चाहिए। अलबत्ता अवाम की यह भरपूर भागीदारी और उपस्थिति ओहदेदारों को भी जोश और जज़्बा प्रदान करती है, उनका हौसला बढ़ाती है। यह बात भी सभी लोगों को मालूम होनी चाहिए लेकिन हमारे ओहदेदार अलहम्दो लिल्लाह पुख़्ता इरादा रखते हैं, ज़िम्मेदारी महसूस करने वाले हैं, उत्साह से भरे हुए हैं और अपनी पूरी क्षमता के साथ काम कर रहे हैं लेकिन यह अवामी भागीदारी और अवामी मौजूदगी उनके जोश और जज़्बे को बढ़ा देती है, उन्हें नया हौसला देती है, उन्हें पूरी ताक़त से खड़ा रखती है और जैसा कि माननीय इमामे जुमा ने इशारा किया, समाज, क़ौम, ओहदेदारों और इंक़ेलाब की रगों में ख़ून की गरदिश तेज़ कर देती है।
जहां तक 18 फ़रवरी की बात है तो 18 फ़रवरी 1978 के बारे में बहुत बार बात हुई है और अलग अगल पहलुओं से और आयामों से इस बारे में बताया गया है। आज मैं भी इस सिलसिले में कुछ बातें बयान करूंगा। इसका एक नतीजा भी पेश करने की कोशिश करूंगा। यक़ीनी तौर पर 18 फ़रवरी 1978 का वाक़या नया इतिहास लिखने वाला वाक़या था। इसमें कोई शक ही नहीं है। इतिहास लिखने वाला वाक़या यानी वह वाक़या ऐसा नहीं है कि शुरू हो और फिर ख़त्म हो जाए, बात ख़त्म, नहीं! वह वाक़या शुरू होता है, जारी रहता है, फैल जाता है, बेहतरीन नतीजे हासिल करता है और तारीख़ का नया अध्याय शुरू कर देता है। तबरेज़ का वाक़या इस तरह का था। मिसाल के तौर पर मान लीजिए कि शहीद तजल्लाई लोगों के सामने आए और सड़कों वग़ैरा पर अवाम के निकल पड़ने की वजह बन गए। मरहूम मिर्ज़ा हसन अंगजी साहब, मरहूम शहीद क़ाजी, मरहूम शैख़ अब्दुल हुसैन ग़रवी जैसे बुज़ुर्ग ओलमा और दूसरे ओलमा ने दस्तख़त करके एक बयान जारी किया था, यह सारी बातें प्रभावी थीं। उन्होंने लोगों को प्रेरित किया लेकिन जो वाक़या हुआ वह इन सारी बातों से बड़ा था। इस वाक़ए ने क्या किया? तबरेज़ के वाक़ए ने क़ुम के 9 जनवरी 1978 के वाक़ए के असर को, जिसे शाही सरकार छिपाना चाहती थी, दसियों गुना ज़्यादा बढ़ा दिया। क़ुम के वाक़ए को पूरे मुल्क तक पहुंचा दिया। तबरेज़ का ऐसा वाक़या था। जब रेज़िस्टेंस का जज़्बा, इंक़ेलाबी जोश और आंदोलन पूरे मुल्क तक पहुंच जाता है तो इसका नतीजा यह होता है कि उसके तक़रीबन एक साल बाद 11 फ़रवरी (इस्लामी क्रांति की सफलता का दिन) का वाक़या होता है और ईरान पूरी तरह बदल जाता है। नई तारीख़ लिखने वाले वाक़ए का यह मतलब है।
तबरेज़ के अवाम ने अपने फ़रीज़े को सही समय पर मसहूस कर लिया और कर्तव्य के तहत आंदोलन किया जिसकी तरफ़ मैंने इसी मुनासेबत से एक सभा में इशारा किया था। (2) वाक़ए की अहमियत यह है कि हम जब कोई ज़िम्मेदारी महसूस करते हैं तो पहले तो यह कि उसे सही समय पर महसूस करें और समय बर्बाद न करें, दूसरे यह कि जब हम ने ज़िम्मेदारी को महसूस कर लिया तो फ़रीज़ा समझ कर क़याम करें, तौवाबीन वाला माजरा न हो। तौवाबीन कर्बला नहीं पहुंचे बल्कि उन्होंने उसके बाद विद्रोह किया और सबके सब शहीद भी हुए लेकिन क्या असर हुआ? उन्होंने इतिहास पर कोई असर नहीं डाला। क्योंकि उन्होंने सही समय पर अभियान नहीं चलाया। जिस वक़्त उन्हें आना चाहिए था नहीं आए। उन्हें आशूर के दिन कर्बला में होना चाहिए था लेकिन वो नहीं थे। तबरेज़ का वाक़या, सही समय पर ज़िम्मेदारी का एहसास किया गया और सही समय पर यह अंजाम पाया, आंदोलन भी बिल्कुल सही समय पर हुआ। यही वजह थी कि अल्लाह ने इस वाक़ए में बरकत दी। जब हम इस तरह का आंदोलन करते हैं: “तुम दो दो और एक एक करके ख़ुदा के लिए खड़े हो जाओ” (3) तो इस आंदोलन में बरकत होती है। अल्लाह इस आंदोलन में बरकत देता है और उसने बरकत प्रदान की और यह वाक़या जारी रहा यहां तक कि 11 फ़रवरी तक पहुंच गया।
यह बातें अतीत की है। इस सभा में मौजूद आप लोगों में अधिकतर ने न उस दिन को देखा है, न उस दिन की आपकी कोई स्मृति है। आप लोग आज के मर्दे मैदान हैं, आने वाले कल के मर्दे मैदान हैं। किसी दिन तबरेज़ के लोगों ने बहुत ज़रूरी और बेहद अहम क़दम उठाया था जिसका असर दुनिया ने देखा। जिस वक़्त वह वाक़या हुआ था, उस वक़्त दुनिया समझ नहीं रही थी। लेकिन बाद में जब वह वाक़या अपना असर दिखाने लगा तो दुनिया हिल गई, इतिहास का पन्ना पलट गया, किसी दिन यह काम हुआ था लेकिन वह दिन गुज़र गया। 18 फ़रवरी 1978 का दिन, ख़ुदाई दिनों में से एक था। आज भी ख़ुदाई दिनों में से एक दिन है, कल का दिन भी ख़ुदा के दिनों में से एक दिन है। हमें सबक़ लेना चाहिए, जो चीज़ ज़रूरी है वह यह है कि हम अतीत से अपने आज के लिए और अपने कल के लिए सबक़ हासिल करें।
तो 11 फ़रवरी 1979 का दिन इंक़ेलाब की पैदाइश का दिन था। यह एक असाधारण और जोश व उत्साह में डूबा हुआ दिन था। 11 फ़रवरी से लेकर आज तक जैसे जैसे समय बीता है 11 फ़रवरी को पैदा होना वाला यह अस्तित्व (इस्लामी इंक़ेलाब) ज़्यादा बड़ा हुआ है, ज़्यादा मज़बूत हुआ है, उसकी हड्डियां ज़्यादा मज़बूत हुई हैं, उसकी ताक़त में वृद्धि हुई है, उसकी निगाह ज़्यादा मज़बूत हुई है। वह अस्तित्व आज 45 साल का हो चुका है। अनुभवों, घटनाओं, जंगों, काफ़िरों से टकराव, विश्वासघातियों से टकराव, सियासी दुश्मनों से टकराव, तरह तरह के हंगामे और साज़िशें इन 45 बरसों में सामने आई हैं और इंक़ेलाब ने उन सब का सामना किया है। इंक़ेलाब का क्या मतलब है? इंक़ेलाब यानी वह चीज़ जो आपके दिल में है, इंक़ेलाब यानी आप लोग, इंक़ेलाब यानी अवाम, इंक़ेलाब यानी सत्ताधारी सिस्टम ने इन घटनाओं का सामना किया है, उनका मुक़ाबला किया है और कठिन व दुर्गम राहों से गुज़रा है।
आप कहते हैं “महदी बाकेरी साहब” बाकेरी ने क्या किया? बाकेरी जैसों का, जो एक 20-25 साल के नौजवान थे और इस राह की दूसरी बड़ी हस्तियों का आज सिर्फ़ नाम लिया जाता है जबकि उनके कारनामों का ब्योरा, उनकी कोशिश, उनका संघर्ष, वह भरपूर निष्ठा, वह सूझबूझ, वह सोच और वह ताक़त हमारे दिमाग़ में आनी चाहिए और हमें उनको पहचानना चाहिए। कुछ ज़िम्मेदारियां हैं जिन्हें हमें समझना चाहिए और उन पर अमल करना चाहिए। मेरी आज की गुज़ारिश यह है। आज मैं दो बुनियादी कर्तव्यों का ज़िक्र करूंगा जिनमें हर एक से दसियों ज़िम्मेदारियां सामने आती हैं। ईरानी क़ौम के लिए, मेरे और आपके लिए ख़ास तौर पर आप नौजवानों के लिए दो बुनियादी फ़रीज़े हैं। यह दो बुनियादी फ़रीज़े क्या हैं? एक ख़ुद पर नज़र रखना और दूसरे दुशमन पर नज़र रखना। यह दो फ़रीज़े हैं। अब मैं बताउंगा कि ख़ुद पर नज़र रखने के फ़रीज़े का क्या मतलब है।
ख़ुद पर नज़र यानी ख़ुद को परखना, ख़ुद को समझना और यह देखना कि हम क्या हैं, हमारा महत्व कितना है? हम ख़ुद को फ़रामोश न करें। अल्लाह क़ुरआन में कहता हैः “उन्होंने अल्लाह को फ़रामोश किया तो अल्लाह ने उन्हें अपना आप भुला दिया।” (4) उन्होंने ख़ुदा को भुला दिया तो ख़ुदा ने उन्हें सज़ा दी। उनकी सज़ा क्या थी? यह थी कि वो ख़ुद ही को भुला बैठे। अगर हम अपने आप को परख न सकें और अपने आप को सही तरीक़े से न समझ सकें तो यह बहुत बड़ी मुसीबत है। उस मरीज़ की तरह जो एक ख़तरनाक और जानलेवा बीमारी का शिकार है और उसे इसकी ख़बर ही नहीं है, उसे पता ही नहीं है, उसका क्या अंजाम होगा यह बिल्कुल साफ़ है। अगर वह नजात हासिल करना चाहता है तो उसे यह समझना होगा कि उसे कौन सी बीमारी है ताकि वह अपना इलाज करवा सके। यह एक बात हुई। दूसरी बात यह है कि सिर्फ़ ख़ामियों को ही नहीं जानना चाहिए, अच्छी बातों और मज़बूत बिंदुओं और आयामों को भी जानना चाहिए। मैं आप अज़ीज़ बहनों और भाइयों की ख़िदमत में इस सिलसिले में कुछ बातें संक्षेप में और सूचीबद्ध तरीक़े से पेश करूंगा। अगर हम अपने आप पर यानी अपने इंक़ेलाब पर, अपनी इस्लामी व्यवस्था पर, अपने चरित्र पर, अपनी पहचान पर एक गहरी नज़र डालें तो हम देखेंगे कि कुछ मज़बूत बिंदु मौजूद हैं, कुछ कामयाबियां हैं। इंक़ेलाब के कुछ लक्ष्य थे, वह अहम लक्ष्यों के साथ मैदान में आया था जिनमें से कुछ लक्ष्यों को हम पूरा कर चुके हैं और जो लक्ष्य हमने हासिल किए हैं वह अहम भी हैं। कुछ लक्ष्य अभी हम हासिल नहीं कर पाए हैं। कुछ जगहों पर मज़बूत चीज़ें हैं और कुछ जगहों पर कमज़ोर पहलू हैं। हमें मज़बूत बिंदुओं को और भी मज़बूत करना चाहिए, उनकी हिफ़ाज़त करनी चाहिए, उनकी क़द्र करना चाहिए और कमज़ोरियों को दूर करना चाहिए। हम यह क्यों कहते हैं कि मज़बूत बिंदुओं की क़द्र करनी चाहिए? इसलिए कि एक साज़िश है कि आप अपनी उपलब्धियों को भूल जाएं, आपको पता न चले कि आप में यह सलाहियत है, यह दुश्मनी से भरी एक चाल है जो मौजूद है इसलिए उपलब्धियों को पहचानना चाहिए।
तो हमारी यानी इंक़ेलाब की कुछ उपलब्धियां रही हैं। जब हम हमारी कहते हैं तो इससे तात्पर्य कुछ लोग नहीं बल्कि पूरा इंक़ेलाब है, यानी ईरानी क़ौम, इस्लामी जुमहूरी सिस्टम, ओहदेदार, अवाम सभी इन उपबल्धियों में हिस्सेदार हैं। तो हमारी कुछ कामयाबियां रही हैं। यह कामयाबियां क्या हैं? इनमें सबसे ऊपर एक बेईमान, अधिकारों का हनन करने वाली ज़ालिम और तानाशाही व्यवस्था का ख़ात्मा है, यानी शाही व्यवस्था का। यह कोई मामूली बात नहीं है, सबसे बड़ा करनामा यह है। वह सल्तनती सिस्टम जिसने देश में जड़ें फैला रखी थीं। एक ऐसी व्यवस्था थी जो अवाम को कुछ नहीं समझती थी और न उनका सम्मान करती थी, न देश के संचालन में उनकी किसी भूमिका की क़ायल थी और न ही उसे अवाम की कोई फ़िक्र थी। मुझे बलोचिस्तान में जिस जगह निर्वासित करके भेजा गया था (5) वहां के गवर्नर ने हालांकि वह अपेक्षाकृत रूप से बड़ा शहर था कभी वहां का दौरा नहीं किया था! आज देश का राष्ट्रपति दूरदराज़ के इलाक़ों का और छोटे शहरों और गावों तक का दौरा करता है और अवाम के बीच जाता है। इन दोनों स्थितियों में बहुत फ़र्क़ है। लोगों को कोई अहमियत नहीं दी जाती थी, अवाम का कोई किरदार नहीं था। किस को अहमियत दी जाती थी? ब्रिटेन के दूतावास को, अमरीका के दूतावास को। मैंने कुछ दिन पहले यहीं एक बैठक में कहा था (6) कि अमरीकी एजेंट, अमरीकी फ़ौजी अफ़सर आता था और ईरान के युद्धक विमान में एयरपोर्ट के अंदर सवार होता था और जाकर वियतनाम पर बमबारी करता था और लौट आता था, देश के शाह को ख़बर भी नहीं होती थी! ऐसा नहीं था कि वो अनुमति नहीं लेते थे, नहीं! बल्कि ख़बर तक नहीं देते थे! लोगों की ज़िंदगी इस तरह की थी। इस देश में तक़रीबन 40-50 हज़ार अमरीकी खाते थे, सोते थे, हुक्म चलाते थे और फ़ैसले करते थे, अवाम की कोई हैसियत नहीं थी। अमरीकी बताते थे कि तेल किसे और किस क़ीमत पर बेचा जाए और किसे न बेचा जाए। फ़ुलां जगह गवर्नर हो, फ़ुलां व्यक्ति सांसद बने और फ़ुलां न बने। यह दूतावास बहुत सारे मामलों में हस्तक्षेप करते थे, फ़ैसले करते थे और एलान करते थे जिस पर अमल किया जाता था। वह इस तरह का सिस्टम था। इस्लामी इंक़ेलाब आया और उसने इस सिस्टम को जड़ से उखाड़ फेंका, ख़त्म कर दिया और उसे एक जनाधारित व्यवस्था में बदल दिया। इस व्यवस्था में अवाम पूरे सिस्टम के मालिक हैं, सब कुछ हैं, वही चुनते हैं, वही तय करते हैं, वही वोट देते हैं। उस कई हज़ार साल पुराने तानाशाही सिस्टम में क़ाजारी दौर के आख़िरी समय में और पूरे पहलवी दौर में ग़ैरों पर निर्भरता बढ़ गई थी। इसके अलावा चरित्रहीनता, आर्थिक भ्रष्टाचार, नैतिक पथभ्रष्टता वग़ैरा भी बहुत ज़्यादा थी। तो इंक़ेलाब आया और उसने इस व्यवस्था को एक जनाधारित व्यवस्था में बदल दिया। यानी उस सिस्टम के बिल्कुल उलट क़ानून बनाने वालों का चयन अवाम करते हैं, सुप्रीम लीडर का चयन इनडायरेक्ट तौर पर और विशेषज्ञ असेंबली के ज़रिए अवाम ही करते हैं, नगर परिषदों के सदस्यों और देश के फ़ैसले करने वाले और क़ानून लागू करने वाले दूसरे ओहदेदारों का चयन भी अवाम ही करते हैं। यह सबसे अहम काम था जो अंजाम पाया। यह एक कामयाबी हुई।
अगला काम अलग अलग कामों के लिए ईरानी जनता में राष्ट्रीय आत्म विश्वास पैदा करना था। यानी इल्म में, टेक्नालोजी में, सियासी काम में, आर्ट में और कई तरह के दूसरे कामों में ईरानी क़ौम आत्म विश्वास का आभास करती है, वह क़दम उठा सकती है, काम कर सकती है, उसकी निगाहें दूसरों की मदद पर नही टिकी हुई हैं। मैंने कई बार कहा है कि अतीत में सरकश शाही हुकूमत के ज़माने में हमारा गेहूं अमरीका से आता था और अनाज के हमारे गोदाम पूर्व सोवियत संघ से आने वाले बनाते थे, हमारे डाक्टर भारत से आते थे, पूरे देश में कई हज़ार हिंदुस्तानी और बांग्लादेशी डाक्टर थे। ईरानी क़ौम, ईरानी नौजवान अपने अंदर सलाहियत नहीं देखता था। मतलब यह कि इस एहसास को उसके भीतर कुचल दिया गया था, दबा दिया गया था। यह एहसास सलाहियत और योग्यता में बदल गया। आज हमारे नौजवानों ने बड़े बड़े काम अंजाम दिए हैं जिनके बारे में आपने सुना है और आप जानते हैं। कुछ विभागों में उनका एलान किया गया है और उन्हें देखा गया है जैसे सामरिक विभाग और इसी तरह के दूसरे विभाग जिनके बारे में सभी जानते हैं। बहुत से विभाग ऐसे हैं जिनमें होने वाले बड़े बड़े कारनामों से अवाम बेख़बर हैं। जैसे औद्योगिक विभाग, एटमी उद्योग का विभाग, मेडिकल विभाग, दवाओं का विभाग, इसी तरह के दूसरे विभाग, इनमें बड़े बड़े काम हुए हैं। उन्हें किसने अंजाम दिया है, इन्हीं नौजवानों ने। यह राष्ट्रीय विषयों में आत्म विश्वास है।
इसके अलावा अंतर्राष्ट्रीय विषयों में आत्म विश्वास। ईरानी क़ौम और उसके प्रतिनिधि आज बड़ी ताक़तों का सामना करने में कभी कोई कमज़ोरी महसूस नहीं करते, हीनता नहीं महसूस करते। पहले ऐसा नहीं था। उस वक़्त फ़ुलां देश में विदेश मंत्रालय के चुनिंदा राजनैतिक प्रतिनिधियों के पास, मुझे उनकी निजी चीज़ों से मतलब नहीं है जिनकी बहुत बुरी हालत थी, सियासी विषयों में किसी तरह की कोई नई कोशिश नज़र नहीं आती थी। वे उसी शक्ति के अधीन थे जिसका उन पर प्रभाव था। मिसाल के तौर पर ब्रिटेन की ताक़त, अमरीका की ताक़त, फ़्रांस और दूसरों की ताक़त। तो वैश्विक मामलों में आत्म विश्वास पैदा करना और इंक़ेलाब की सोच और मूल्यों को फैलाना भी जिसकी निशानियां आज आप इलाक़े में देख रहे हैं, इंक़ेलाब की उपलब्धियों में शामिल हैं। इंक़ेलाबी मूल्यों को प्रगति मिली है। हमने इसके लिए अलग से काम नहीं किया है। यह ख़ुद इंक़ेलाब की ख़ासियत है।
श्रेष्ठ कल्चर की हैसियत से पश्चिमी कल्चर के फैलाव को किसी हद तक रोकना, इंक़ेलाब से पहले यही स्थिति थी। पश्चिमी कल्चर को श्रेष्ठ कल्चर समझा जाता था। अलबत्ता यह पूरी तरह से ख़त्म नहीं हुआ है लेकिन काफ़ी हद तक इसका सुधार हो गया है। सर्विसेज़ को सेंट्रलाइज़्ड स्थिति से बाहर निकालना। इंक़ेलाब से पहले ज़्यादातर सुविधाएं और सेवाएं, बुनियादी चीज़ें और जनसेवा के काम तेहरान और कुछ बड़े शहरों तक सीमित थे। आज इंक़ेलाब ने वह काम किया है कि यह सेवाएं पूरे देश में और मुल्क के दूर-दराज़ के इलाक़ों तक पहुंच रही हैं। इंशाअल्लाह यह सिलसिला जारी रहेगा और आगे बढ़ेगा।
विश्व स्तर पर स्कालरों और वैज्ञानिकों का प्रशिक्षण, ऐसे वैज्ञानिक जो पूरी दुनिया में मशहूर हैं, अच्छे सर्जन, अच्छे इंजीनियर, बड़े परमाणु वैज्ञानिक, यह लोग जो दुनिया में जाने पहचाने हैं दुनिया में उनका बड़ा सम्मान है। आप जानते हैं कि आज एक चिंता, जो सही भी है, हमारे कुछ वैज्ञानिकों का देश से बाहर जाना है, डाक्टरों वग़ैरा का। इस चीज़ ने कुछ लोगों को चिंता में डाल दिया है। अलबत्ता उनकी चिंता सही है। लेकिन इस तस्वीर का दूसरा रुख़ क्या है? वह यह है कि दुनिया को हमारे डाक्टरों की ज़रूरत है। एक ज़माने में हमें बांग्लादेशी डाक्टरों की ज़रूरत थी, आज दुनिया को हमारे डाक्टरों की, हमारे इंजीनियरों की, हमारे पायलटों की ज़रूरत है। उन्हें प्रशिक्षण दिया गया है, इंक़ेलाब ने उन्हें तैयार किया है, उन्हें पैदा किया है।
अवामी समूहों का सामने आना यह भी इंक़ेलाब की कामयाबी है। आज हमारे यहां अवामी ज़िंदगी के सभी क्षेत्रों में, ख़ुद-ब-ख़ुद अस्तित्व में आने वाले जन समूह पाए जाते हैं। आर्ट में, साहित्य में, उद्योग में, सामरिक मामलों में, अलग अगल कामों में ऐसे जन समूह पाए जाते हैं जो लोगों ने ख़ुद से बनाए हैं। ऐसे नौजवान हैं जो सरकार पर कोई ख़र्च नहीं डालते, उन्हें सरकारी ओहदेदारों से कोई अपेक्षा नहीं है। वे ख़ुद ही अपने बीच बड़े बड़े काम करते हैं और लोग उन्हें अपनी आंखों से देखते हैं। यह मज़बूत पहलू हैं और ऐसे पहलू हमारे यहां बहुत हैं। अगर हम ख़ुद पर नज़र रखना जारी रखें तो इस तरह के मज़बूत पहलू ईरानी क़ौम में जो इंक़ेलाब से पैदा हुए बेशुमार हैं। ख़ैर तो यह मज़बूत पहलू और मज़बूत बिंदु हैं।
क्या हमारे यहां ख़ामियां नहीं हैं? क्यों नहीं! कम हैं? नहीं! कमज़ोरियां भी हैं। हम एक मज़बूत राष्ट्रीय अर्थ व्यवस्था बनाने में पीछे हैं। हम समाजी इंसाफ़, अदालती इंसाफ़, आर्थिक इंसाफ़ लागू करने में पीछे हैं। इंसाफ़ इंक़ेलाब के सबसे महत्वपूर्ण नारों में से एक था, इंक़ेलाब के सबसे बड़े लक्ष्यों में से एक था। हम सामाजिक समस्याओं को जड़ से ख़त्म करने में पीछे हैं। तलाक़ के विषय में, नशे की लत के मसले में, अख़लाक़ी मसलों में हम उतना आगे नहीं बढ़ सके जितना बढ़ना चाहिए था, हम पीछे हैं। आप सोशल मीडिया पर एक नज़र डालिए, आप वहां नैतिक समस्याओं को देखेंगे, यह पीछे होना है, हम पीछे हैं। हम अपनी ज़िंदगी को इस्लामी मूल्यों के अनुरूप ढालने में पीछे हैं। इस्लाम ने कहा है कि फ़ुज़ूलख़र्ची न कीजिए, हम फ़ुज़ूलख़र्ची करते हैं, इस्लाम ने कहा है कि विलासिता को छोड़िए, हमारे अलग अलग तबक़ों में कुछ लोग जो विलासिता का जीवन गुज़ार सकते हैं गुज़ार रहे हैं। कुछ लोग विलासिता की नक़ल करते हैं। वो विलासिला का जीवन नहीं जी सकते, उनके पास इसके लिए पैसे नहीं हैं लेकिन वो क़र्ज़ लेते हैं कि अपने बच्चे के लिए ख़र्चीली शादी का इंतेज़ाम कर सकें! क्यों! यह हमारी कमियां हैं, यह हमारा पिछड़ापन है।
मैंने कहा कि ख़ुद पर नज़र रखना, अपने आप को परखना, अपने आप को तोलना, यह सब हमारी ज़िम्मेदारी है। अगर हम अपने आप को देखेंगे तो हम अपनी कामयाबियों को भी जान लेंगे, उन पर डटे रहेंगे, उन पर फ़ख़्र करेंगे और उनमें इज़ाफ़ा करेंगे। इसी तरह हम अपनी कमज़ोरियों और ख़ामियों को भी जान लेंगे और उन्हें दूर करने की कोशिश करेंगे। हम में से हर एक की कोई न कोई ज़िम्मेदारी है। सरकार की भी ज़िम्मेदारी है, संसद की भी ज़िम्मेदारी है और अवाम की भी ज़िम्मेदारी है।
सरकार, संसद और दूसरे सरकारी संस्थानों की क्या ज़िम्मेदारी है? ठोस इरादे, लगातार संघर्ष, ईमानदारी से काम, लोगों के साथ सच्चाई से पेश आना, व्यक्तिगत हितों पर राष्ट्रीय हितों को तरजीह, यह सब ओहदेदारों की ज़िम्मेदारियां हैं। मैं आप से अर्ज़ करता हूं कि आज अलहम्दो लिल्लाह मुल्क के वरिष्ठ अधिकारियों में यह ख़ासियतें मौजूद हैं। लेकिन सरकारी, अदालती और दूसरे विभागों में भी सारे ओहदेदारों में यह रचनात्मक विशेषताएं होनी चाहिए और उनमें विस्तार होना चाहिए। हम यह नहीं कहना चाहते कि यह जो मसले हैं, उनके लिए कौन क़ुसूरवार था, वह एक अलग बहस है। इस समय हम इसमें नहीं पड़ना चाहते। हम यह देखना चाहते हैं कि आज हमारी और सरकार की ज़िम्मेदारी क्या है।
प्रतिभावान हस्तियों की ज़िम्मेदारी यह है कि वो कमियों और गैप की शिनाख़्त करें, ख़तरे की राहों की शिनाख़्त करें, गैप को भरने और ख़तरे की राहों को बंद करने के तरीक़े तलाश करें, जायज़ा लें और सरकार की फ़िक्री मदद करें, संसद की वैचारिक मदद करें, ओहदेदारों की वैचारिक मदद करें। एक ज़िंदा और गतिशील समाज में, क़ौम के प्रतिभावान लोग अपनी ज़िम्मेदारी महसूस करते हैं, उनकी ज़िम्मेदारी यह है।
नौजवानों की भी ज़िम्मेदारी है। नौजवानों की ज़िम्मेदारी है। अलबत्ता उनकी ज़िम्मेदारियां बहुत ज़्यादा हैं। पहले चरण में यह है कि वो अपने अंदर भविष्य में भूमिका अदा करने के लिए ज़रूरी क्षमता पैदा करें। जवान भूमिका निभा सकते हैं। आप देखिए कि आज कितने योग्य और माहिर नौजवान जाकर सरकार के ढांचे के भीतर काम कर रहे हैं?! उन्हें अपने अंदर यह क्षमताएं पैदा करना चाहिए। नौजवान आगे आगे रहने वाले हैं, समाज को आगे ले जाने वाले हैं, उन्हें देश को आगे ले जाने में अपनी भूमिका निभाने के लिए मुख़्तलिफ़ नैतिक और इल्मी क्षमताओं के पहलुओं से ख़ुद को तैयार करना चाहिए।
आम लोगों की भी ज़िम्मेदारी है। अलबत्ता ज़िम्मेदारियां अलग अलग हैं। एक दुकानदार की अलग ज़िम्मेदारी है, आफ़िस में काम करने वाले एक मुलाज़िम की अलग ज़िम्मेदारी है, एक आलिमे दीन की अलग ज़िम्मेदारी है। इस तरह के सभी लोगों की अलग अलग ज़िम्मेदारियां हैं लेकिन आम ज़िम्मेदारी ओहदेदारों का समर्थन, ख़िदमत करने वालों का समर्थन, अच्छे कामों का समर्थन है। अलग अलग ज़िम्मेदारियों में से एक यही है।
एक बुनियादी और अहम ज़िम्मेदारी जो अवाम की भी ज़िम्मेदारी है, ओहदेदारों की भी ज़िम्मेदारी है, प्रतिभावान लोगों की भी ज़िम्मेदारी है, जवानों की भी ज़िम्मेदारी है, छात्रों और ओलमा वग़ैरा की भी ज़िम्मेदारी है, यह है कि वो याद रखें कि वे सारे काम जो हम कह रहे हैं वो अंजाम दें, जेहाद है। जेहाद का क्या मतलब है। जेहाद का मतलब वो कोशिश है जो एक दुश्मन के मुक़ाबले में की जाती है, जेहाद का यह मतलब है। यह जो काम हमने बताए हैं, जेहाद है। हमने कहा कि प्रतिभावान लोग फ़ुलां काम करें, मतलब यह कि इस बात के मद्देनज़र कि एक दुश्मन नहीं चाहता कि यह काम अंजाम पाए, वो यह काम करें, यह दुश्मन के मुक़ाबले में किया जा रहा हो तो यह जेहाद है। जवान यह काम करें, वो जान लें कि दुश्मन नहीं चाहता कि यह काम हो। अवाम ओहदेदारों का समर्थन करें, अपनी एकता बनाए रखें। वे जान लें कि दुश्मन चाहता है कि यह काम न हो। अगर उन्होंने यह काम किया तो उन्होंने जेहादी अमल अंजाम दिया है। जेहाद का मतलब यह है। दुश्मन इस्लामी जुम्हूरी व्यवस्था में होने वाले हर अच्छे काम का विरोधी है। यह सिर्फ़ दावा नहीं है, इसके साक्ष्य मौजूद हैं। इसकी वजह यह है कि इस्लामी जुम्हूरी सिस्टमः “न तुम किसी पर ज़ुल्म करोगे और न तुम पर ज़ुल्म किया जाएगा।”(7) की शासन व्यवस्था है। क़ुरआन ने हमसे कहा है किः“न तुम किसी पर ज़ुल्म करोगे और न तुम पर ज़ुल्म किया जाएगा।” न ज़ुल्म करो और न ज़ुल्म बर्दाश्त करो। किसी भी क़ीमत पर ज़ुल्म बर्दाश्त न करो। यह इस्लामी लोकतांत्रिक व्यवस्था है। तो वो जिनकी बुनियाद ही ज़ुल्म करने के लिए रखी गई है वो इस तरह के सिस्टम के विरोधी हैं। यह बहुत ज़ाहिर सी बात है। इसलिए इस्लामी जुम्हूरिया में होने वाली हर प्रगति से वे तिलमिला उठते हैं। तो इस बात को मद्देनज़र रखते हुए कि आपके मुक़ाबले में दुश्मन है आप यह सारे काम कीजिए।
अब कुछ बातें इस दूसरे फ़रीज़े के बारे में भी अर्ज़ कर दूं। पहला फ़रीज़ा ख़ुद पर नज़र रखना था। दूसरा फ़रीज़ा दुश्मन पर नज़र रखना है। ख़ुद पर नज़र रखने की मैंने तशरीह कर दी। दुश्मन पर नज़र रखने का मतलब यह है कि हम जान लें कि दुश्मन है, दुश्मन से ग़ाफ़िल न हों। जान लें कि दुश्मन फ़रेब, मक्कारी, साज़िश और हथकंडे का इस्तेमाल करता है। दुश्मन को कमज़ोर और बेबस न समझें। “दुश्मन को कमज़ोर व बेचारा नहीं समझा जा सकता।” (8) हम दुश्मन से डरें नहीं, विजय की अहम शर्त यह है कि दुश्मन को पहचानें, उसकी क्षमताओं को जानें, लेकिन उससे डरें नहीं। अगर आप डर गए तो हार गए। दुश्मन की धमकी से डरना नहीं चाहिए, उसकी बयानबाज़ी से घबराना नहीं चाहिए। उसके दबाव से ख़ौफ़ज़दा नहीं होना चाहिए। इन चीज़ों से नहीं डरना चाहिए। इस बात पर तवज्जो देनी चाहिए कि जो चीज़ दुश्मन को इस तरह आक्रोश में ले देती है और उस पर दबाव डालती है वह क्या है। वही आपका मज़बूत पहलू है। वही हमारा मज़बूत पहलू है। हम अगर कमज़ोर होते, हमारे अंदर मज़बूत पहलू न होते तो दुश्मन इस तरह आग बबूला न होता, इस तरह वह दबाव न डालता, इस तरह भागदौड़ न करता, इस तरह हथकंडे इस्तेमाल न करता, इस तरह फ़रेब देने की कोशिशें न करता। दुश्मन पर नज़र रखने का मतलब यह है। हम इस्लामी इंक़ेलाब की उपलब्धियों पर तवज्जो दें, जान लें कि यही चीज़ें हैं जो दुश्मन को तैश में ले आती हैं। तो दुश्मन से डरना नहीं चाहिए और उसके मुक़ाबले में पीछे नहीं हटना चाहिए। कभी कभी कुछ लोग दुश्मन की ओर से अपना अपमान शुरू होते ही, हीन भावना का शिकार हो जाते हैं, पीछे हटने लगते हैं, नहीं! दुश्मन की रणनीति ही यही है कि वो लोगों को उनके पास मौजूद क़ीमती सम्पत्ति की तरफ़ से मायूस कर दे कि उस पर भरोसा न करें। दुश्मन से मुक़ाबले में पीछे नहीं हटना चाहिए। ख़ैर तो यह बात उन फ़रीज़ों के बारे में थी जो हम अर्ज़ करना चाहते थे।
मुझे एक बात और भी कहनी है और वह चुनाव (9) के बारे में है। हम चुनाव के क़रीब होते जा रहे हैं। इस बात में कोई शक नहीं कि साम्राज्यवादी मोर्चा हमारे चुनावों का विरोधी है। क्यों विरोधी है? क्योंकि हमारा सिस्टम “इस्लामी लोकतांत्रिक सिस्टम” है। इसके दो हिस्से हैं। वे इसकी जुम्हूरियत के भी विरोधी हैं और इस्लामियत के भी विरोधी हैं। जुम्हूरियत का प्रतीक यही चुनाव है। यह चुनाव जुम्हूरियत का प्रतीक है। तो जब अमरीका इस्लामी लोकतांत्रिक सिस्टम का विरोधी है तो मतलब यह है कि वह दरअस्ल चुनाव का ही विरोधी है, अवाम की भागीदारी का भी विरोधी है, अवाम के मतदान का विरोधी है, चुनाव में जो उत्साह है उसका और अवाम की भरपूर शिरकत का विरोधी है। उन्होंने, हालांकि यह लोग अब नहीं कहते, एक बार एक अमरीकी राष्ट्रपति ने चुनाव के क़रीब ईरानी अवाम को संबोधित करके कहा था कि चुनाव में हिस्सा न लीजिए! अब मुझे सही से याद नहीं है कि राष्ट्रपति चुनाव था या संसदीय चुनाव था, उसने कहा था। मतलब यह कि वे इस हद तक विरोधी हैं कि अमरीका का उस समय का राष्ट्रपति, यह कई साल पहले की बात है, ईरानी क़ौम को संबोधित करके कहे कि अपने चुनाव में हिस्सा न लीजिए। वैसे वह चुनाव हमेशा से ज़्यादा शानदार रहा। मतलब यह कि उस अमरीकी राष्ट्रपति ने अनजाने में ईरानी क़ौम की मदद कर दी। वह चाहता था कि जनता वोट न डाले। उसने कहा कि हिस्सा न लजिए, अवाम ने उसकी ज़िद में ज़्यादा तादाद में शिरकत की। यह हमारी मदद थी। उसके बाद से अब नहीं कहते, खुल कर नहीं कहते लेकिन अलग अलग तरीक़ों से कोशिश करते हैं कि अवाम को चुनाव से दूर रखें, मायूस कर दें, निराश कर दें। इस सिलसिले में उनके पास कई तरीक़ें हैं।
सभी को चुनाव में भाग लेना चाहिए। चुनाव इस्लामी लोकतांत्रिक व्यवस्था का स्तंभ है। देश के मसलों के सुधार का ज़रिया है। जो लोग मुश्किलों को दूर करने, उनका सुधार करने की चिंता में हैं, उन्हें चुनाव पर तवज्जो देनी चाहिए। सही रास्ता चुनाव है। यह एक बात हुई।
दूसरी बातः लोगों को सबसे योग्य उम्मीदवार की तलाश करनी चाहिए। अलबत्ता पहले चरण में अवाम की भरपूर भागीदारी है और अगला चरण सबसे योग्य उम्मीदवार का चयन है। सबसे योग्य उम्मीदवार का चयन यानी जो लोग सामने आते हैं, चूंकि वो निरीक्षक परिषद या शूराए निगहबान की नज़रों से गुज़र चुके हैं, इसलिए वे सभी योग्यता रखते हैं लेकिन उनके बीच जो सबसे ज़्यादा योग्य हो उसका चयन करना चाहिए। यह बात अक़्ल कहती है। सबसे योग्य उम्मीदवार को कैसे पहचाना जाए? ईरानी अवाम जहां तक संभव हो जाएं पता लगाएं और जहां वे यह काम नहीं कर सकते वहां पर वे जिन लोगों पर विश्वास रखते हैं और वे बता सकते हैं, उन पर भरोसा करे और सबसे योग्य उम्मीदवार को पहचाने।
जो लोग अवाम से बात करने की क्षमता रखते हैं और लोग उनकी बातों को मानते हैं और उन पर यक़ीन करते हैं वो अवाम को चुनाव में भाग लेने के लिए प्रेरित करें। जो लोग चुनावी मैदान में उतरते हैं उन्हें एक-दूसरे के बारे में अपशब्द कहने, अपमान करने और तौहीन करने से बचना चाहिए। देखिए यह वो ज़रूरी काम हैं जो चुनाव के बारे में हमें करना चाहिए। जो प्रेरित कर सकता है, प्रेरित करे, जो चुनाव में हिस्सा लेता है वह अशिष्टता न करे। सोशल मीडिया के प्लेटफ़ार्म पर एक दूसरे को बुरा भला कहना, अपशब्द कहना, अपमान करना, आरोप लगाना, इस तरह के काम चुनाव की बरकत को ख़त्म कर देते हैं। दूसरों पर कीचड़ उछालने से परहेज़ किया जाए। यह न हो कि कुछ लोग अवाम की तवज्जो अपनी ओर केन्द्रित करने के लिए दूसरों पर कीचड़ उछालें! यह ग़लत काम है, हक़ीक़त के ख़िलाफ़ है, झूठ है और ऐसे व्यक्ति पर अल्लाह लुत्फ़ और करम नहीं करता।
अलबत्ता चुनाव की पारदर्शिता, स्वस्थ चुनावों का आयोजन तो ओहदेदारों से हमेशा हमारी मांग रही है। मैं आप से अर्ज़ करता हूं कि इन वर्षों में, इन दशकों में जो चुनाव हुए मैंने एक ओहदेदार की हैसियत से जो कभी राष्ट्रपति था और अब इस ओहदे पर हूं, कह रहा हूं कि अब तक कभी भी चुनावी धांधली उन अर्थों में जो दुश्मन कहते हैं नहीं देखी। दुश्मन बकवास करते हैं। कुछ मौक़ों पर कुछ लोगों ने दावे किए कि इस चुनाव में, अलग अलग प्रकार के चुनावों में गड़बड़ी हुई है। हमने जांच की, जांच पड़ताल की, लोगों को भेजा, उन्होंने तफ़तीश की, पता चला कि ऐसा कुछ नहीं हुआ कि चुनावों के नतीजे बदल जाएं। हां यह मुमकिन है कि कहीं किसी जगह पर कुछ गड़बड़ हुई हो लेकिन उससे चुनाव के नतीजे पर कोई असर नहीं पड़ा। अलहम्दो लिल्लाह हमारे देश में चुनाव हमेशा स्वस्थ और पारदर्शी तरीक़े से हुए हैं। इंशाअल्लाह इस बार भी ऐसा ही होगा।
मेरी आख़िरी बात ईरानी क़ौम की एकता के विषय में है। मेरे प्यारो! हमने एकता व एकजुटता के साथ संघर्ष किया, एकता की वजह से ही हम विजयी हुए, एकता के साथ ही हमने काम जारी रखा है, आइंदा भी हमें एकता के साथ ही आगे बढ़ना चाहिए। राजनैतिक मतभेद वग़ैरा से दुश्मन के मुक़ाबले में ईरानी क़ौम की एकता व एकजुटता पर असर नहीं पड़ना चाहिए।
वस्सलामो अलैकुम व रहमतुल्लाह व बरकातोहू