बिस्मिल्लाह अर्रहमान अर्रहीम

सारी तारीफ़ें पूरी कायनात के परवरदिगार के लिए, दुरूद व सलाम हो हमारे सरदार अबुल क़ासिम मुस्तफ़ा मोहम्मद और उनकी पाकीज़ा नस्ल, ख़ास तौर पर ज़मीन पर अल्लाह की आख़िरी हुज्जत इमाम महदी अलैहिस्सलाम पर।

मैं अल्लाह का शुक्रगुज़ार हूं, सच में ख़ुश हूं कि अल्लाह ने एक बार फिर इस अहम बैठक के आयोजन की ख़ुशी हमें प्रदान की। यह अहम है क्योंकि मुल्क के मुख़्तलिफ़ विभागों के अधिकारी -चाहे मौजूदा अधिकारी हों या पूर्व अधिकारी- यहाँ पर आते हैं और इस बैठक में मुल्क और सिस्टम के सभी अधिकारियों के बीच एक संगठित सोच देखी जा सकती है, उसे तैयार किया जा सकता है और कुछ ग़लतफ़हमियों को दूर किया जा सकता है। यह जो एक दूसरे से मुलाक़ात करते हैं, एक दूसरे से बातचीत करते हैं, यह राजनैतिक, सामाजिक और देश के कार्यकर्ताओं के बीच एकता का चिन्ह है और इसका मुल्क के आम माहौल और पब्लिक ओपीनियन पर इंशाअल्लाह सार्थक असर पड़ेगा। यह बैठक बड़ी अहम और संवेदनशील है।

मैंने अर्ज़ करने के लिए कुछ बातें तैयार की हैं। सबसे पहले तो मैं सम्मानीय राष्ट्रपति जनाब रईसी साहब का वाक़ई शुक्रिया अदा करता हूं, उन्होंने बड़ी अच्छी रिपोर्ट पेश की।

इस तरह की रिपोर्टें ज़रूरी हैं, सिर्फ़ अवाम और पब्लिक ओपीनियन के लिए नहीं बल्कि मुख़्तलिफ़ विभागों के अधिकारियों के लिए भी ज़रूरी है। हमारे अंदर एक कमी यह है कि अकसर मुख़्तलिफ़ विभागों को एक दूसरे के कामों की ख़बर नहीं होती, जानकारी नहीं होती। मैंने एक बार जो कहा था कि फ़ौजी, ग़ैर फ़ौजी और दूसरे विभागों के कुछ अधिकारियों के लिए एक टूर रखा जाना चाहिए। (2) वाक़ई ऐसा ही है, हमें इस बात की ज़रूरत है कि हर कुछ दिन बाद मुल्क के मुद्दों, मुल्क के विकास के लिए अंजाम दिए गए कामों, जो महसूस किए जा सकें, नज़र आएं, उनके बारे में एक रिपोर्ट सबकी नज़रों के सामने रखें और सब आगाह हों। इस लेहाज़ से  का जनाब बयान अलहम्दो लिल्लाह बहुत फ़ायदेमंद था। मैं भी लगभग इन्हीं मुद्दों के बारे में कुछ बातें पेश करुंगा जो उन्होंने पेश कीं।

सबसे पहली बात जो मैं अर्ज़ करना चाहता हूं, वह एक आध्यात्मिक विषय है, अपने लिए और आप सबके लिए एक याददेहानी है और वह यह है कि रमज़ान का महीना, अल्लाह के ज़िक्र का महीना है, अल्लाह को याद करने का महीना है, दिलों पर अल्लाह के नूर के चमकने का महीना है, इस मौक़े से चूक न जाएं। साल के किसी भी वक़्त अल्लाह के नूर और अल्लाह की बरकत व रहमत के लिए मन इतने तैयार नहीं होते, यह रमज़ान की ख़ूबी है, वह महीना जिसमें एक रात ऐसी है जो हज़ार महीनों से बेहतर है। (3) यह बहुत अहम चीजें हैं। यह वह महीना है जिसमें आपकी सांसें तस्बीह और नींद इबादत का दर्जा रखती है। (4) यह मन और आत्मा की पाकीज़गी का महीना है। यह भौतिक ज़िन्दगी ख़ास तौर पर मशीनी ज़िन्दगी हमारे रिश्तों को, हमारे ज़मीर को, हमारी भीतरी दुनिया को, हमारे कामों को पाकीज़गी से दूर कर देती है, इसे पहिये की तरह जिसे ग्रीसिंग की ज़रूरत होती है, ताकि वह आसानी से घूम सके और उसका नुक़सानदेह घिसाव न हो, इस महीने में ज़िक्र व दुआ ऐसा ही असर रखते हैं, हमारे मन को, हमारी आत्मा को क़ुरआन की तिलावत से, दिन रात की दुआओं से, ख़ुद रोज़े से, शबे क़द्र से पाकीज़ा बनाते हैं। तो पहली बात यह कि अल्लाह के ज़िक्र से मन इस क़ाबिल हो जाता है कि उस पर अल्लाह के नूर की चमक पड़े, हमें यह बात याद रखनी चाहिए।

यह हमें ग़फ़लत से बाहर निकालता है। ग़फ़लत एक बहुत बुरी बला है। हम मुबारक दुआ, दुआए अबू हम्ज़ा सुमाली में पढ़ते हैं: तेरी याद से, तेरे ज़िक्र से मेरे दिल को ज़िन्दगी मिली, तुझसे मुनाजात करके, बेचैनी और ख़ौफ़ मुझसे दूर हुआ और मैंने रिहाई पायी। (5) यह जो क़ुरआन मजीद में बहुत सी आयतें, दसियों आयतें, शायद सौ के क़रीब आयतें, अलबत्ता मैंने गिनी नहीं हैं- अल्लाह के ज़िक्र के बारे में हैं – इससे हमारी ज़िन्दगी में, हमारे संबंधों में, हमारे अंजाम में इस हक़ीक़त की अहमियत का पता चलता है। यह जो अल्लाह फ़रमाता हैः ऐ ईमान वालो! अल्लाह को बहुत ज़्यादा याद करो और सुबह और शाम उसकी तस्बीह करो (6) यह इस बात की ओर इशारा है कि ज़िक्र करना भी ज़रूरी है और बहुत ज़्यादा ज़िक्र करना भी ज़रूरी है। तो यह अल्लाह के ज़िक्र का एक पहलू है कि यह मन को सचेत करता है और उसे ग़फ़लत से बाहर निकालता है। अल्लाह के ज़िक्र का एक पहलू और भी है और वह अमल में इस ज़िक्र का असर है। जब ज़िक्र निरंतरता की हालत में आ जाता है तो हमारे कर्म पर असर डालता है। अमीरुल मोमेनीन के हवाले से एक कथन हैः जो अपने मन में हमेशा अल्लाह को याद करता है, उसका ज़ाहिर और बातिन नेक हो जाता है। (7) ज़िक्र को लगातार करते रहने से हमारा कर्म, हमारे पोशीदा अमल भी जो हम दिल ही दिल में करते हैं, अपने घरवालों के दरमियान करते हैं, अपने कमरे में करते हैं और साथ ही वह कर्म भी जो हम सामाजिक माहौल में अंजाम देते हैं, अच्छा हो जाता है, नेक हो जाता है।

हम मुल्क के अधिकारी हैं न! मुल्क के कामों का एक हिस्सा, कार्यपालिका, विधिपालिका और न्यायपालिका, हिदायत और डिफ़ेन्स वग़ैरह, उन लोगों के ज़िम्मे है जो यहाँ मौजूद हैं। हम लोग जो यहाँ इकट्ठा हुए हैं, हमारा क्या काम है? जन सेवा। हमारे काम क्या हैं? मुल्क को अच्छी तरह चलाना। तो ʺज़ाहिर और बातिन नेक हो जाता हैʺ हमारे बारे में यह है। अगर हम अल्लाह का ज़िक्र करते हैं तो वह लोगों की सेवा के हमारे काम पर असर डालता है जो अल्लाह के निकट हमारी बड़ी ज़िम्मेदारी है।

सेवा के इस भाव को हम दुआओं में भी पाते हैं। दुआए कुमैल में आया हैः ऐ पालने वाले मैं तुझसे तेरे हक़ और तेरी पाकीज़गी और तेरी सबसे अज़ीम ख़ूबियों और नामों के वास्ते से सवाल करता हूं कि मेरे दिन और रात के वक़्त को अपने ज़िक्र से भर दे और मुझे अपनी ख़िदमत में लगाए रख। ज़िक्र और ख़िदमत एक साथ हैं। और मेरे कर्म तेरे नज़दीक स्वीकार्य हों यहाँ तक कि मेरे सभी कर्म और इरादे एक गर्दिश में हो जाएं और लगातार तेरी सेवा में रहूं। निरंतर तेरी सेवा में रहूं। इसके बाद कहा गया हैः ऐ पालने वाले! मेरे जिस्म को अपनी सेवा के लिए ताक़त दे और इस इरादे के लिए मेरे दिल को इस क़ाबिल बना दे और तुझसे ख़ौफ़ में कोशिश की तौफ़ीक़ अता कर और तेरी ख़िदमत लगातार अंजाम देने की। (8) फिर ख़िदमत देखिए सब कुछ ख़िदमत है। अल्लाह की सेवा का मतलब क्या है? अल्लाह को हमारी और आपकी ओर से सेवा की ज़रूरत ही नहीं है, अल्लाह की ख़िदमत यानी ज़िन्दगी की ख़िदमत, लोगों की ख़िदमत, अल्लाह की मख़लूक़ की सेवा, लक्ष्य को आगे बढ़ाने के लिए ख़िदमत, यह हमारी बुनियादी ज़िम्मेदारी है जिसे दुआओं में भी बारंबार कहा गया है, दोहराया गया है। जिस चीज़ को हम दूसरों के साथ भलाई कहते हैं वह, लोगों की इस ख़िदमत का एक हिस्सा हैः बेशक अल्लाह अद्ल, एहसान और क़राबतदारों को (उनका हक़) देने का हुक्म देता है (9) इस नेकी या भलाई के बारे में अमीरुल मोमेनीन अलैहिस्सलाम का एक कथन है, जिसे मैं (किताब) “ग़ुररुल हेकम” से नक़्ल कर रहा हूं, वे फ़रमाते हैं: भलाई करने के लिए सबसे योग्य वह शख़्स है जिसके साथ अल्लाह ने भलाई की और उसके अख़्तियार में क्षमता दी है। (10) सभी लोगों को भलाई करनी चाहिए, सभी को नेकी करनी चाहिए, ख़िदमत करनी चाहिए, लेकिन इस ज़िम्मेदारी को अदा करने का सबसे ज़्यादा हक़ उस पर है जिसे अल्लाह ने काम की ताक़त दी है। जैसे आप। आप अधिकारी हैं, प्रबंधक हैं, आप में से कुछ पब्लिक ओपीनियन के अधिकारी हैं, कुछ पब्लिक अफ़ेयर्ज़ के अधिकारी हैं, यह आपकी ताक़त है, यह आपकी क़ाबिलियत है। इस्लामी गणराज्य में अल्लाह ने मोमिनों को यह मौक़ा दिया है कि वे इस्लाम के मुताबिक़ और इस्लाम के तक़ाज़ों के मुताबिक़ जन सेवा करें, यह बेहतरीन मौक़ा है। तो यह हमारा सबसे अहम काम है। अल्लाह की ओर से हमारे इम्तेहान का सबसे अहम ज़रिया है और अल्लाह हमारा इम्तेहान लेता है।

एक वक़्त था -आप में से ज़्यादातर लोग जवान हैं, वह वक़्त आपको याद नहीं होगा- मोमिन लोगों और धार्मिक व इस्लामी सोच वाले लोगों के पास मुल्क के संचालन के मामलों में ज़रा सा भी अख़्तियार नहीं था, वे कुछ भी नहीं कर सकते थे, सारे मामले सरकशों और उनके पिट्ठुओं के हाथ में थे, एक ज़माना ऐसा था। अल्लाह ने उन्हें इन ओहदों से निकाल बाहर किया, उनकी जगह आपको सौंपी। हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम ने बनी इस्राईल से फ़रमायाः अनक़रीब तुम्हारा परवरदिगार तुम्हारे दुश्मन को हलाक कर देगा और तुम्हे ज़मीन में (उनका) जानशीन बनाएगा (तुम्हे इक़तेदार अता फ़रमाएगा) ताकि देखे कि तुम कैसे अमल करते हो? (11) अल्लाह ने मुझे और आपको यह जगह अता की है, तो हमें इम्तेहान देना होगा। हम किस तरह काम करते हैं? उन्होंने ख़राब काम किया, हम किस तरह काम करेंगे? इसलिए ज़िक्र का एक दूसरा रुख़ और दूसरा पहलू ख़िदमत है। रमज़ान का महीना, ज़िक्र का महीना है, यानी ख़िदमत का महीना है।

जहाँ तक मुल्क चलाने और ऐसे ही मामलों से संबंधित मुद्दों और विषयों की बात है तो इस सिलसिले में बहुत सी बातें हैं लेकिन अर्थव्यवस्था का विषय सबसे अहम मुद्दा है। जैसा कि आपने राष्ट्रपति की स्पीच में सुना, केन्द्रीय बिन्दु अर्थव्यवस्था है, मेरी आज की बात भी ज़्यादातर आर्थिक मुश्किलों के बारे में है, अलबत्ता कुछ दूसरे मुद्दे भी हैं और अगर आप थके नहीं और हम भी न थके तो इंशाअल्लाह आख़िर में उन पर बात करेंगे।

अर्थव्यवस्था मुल्क का पहला और बुनियादी मुद्दा है, मुल्क का सबसे अहम मुद्दा है, पब्लिक की आर्थिक स्थिति का मुद्दा, मुल्क के हर शख़्स को महसूस होने वाला मुद्दा है। इस साल का नारा (12) एक अहम नारा है, एक संवेदनशील नारा है, अलबत्ता पिछले बरसों के नारे भी, लगातार पिछले कई बरसों से, आम तौर पर अर्थव्यवस्था के बारे में ही रहे, लेकिन अगर हमने साल के नारों का आधार आर्थिक पहलू को रखा है तो इसका मतलब यह नहीं है कि सांस्कृतिक व सामाजिक और दूसरे क्षेत्रों के मुद्दों की अनदेखी की जाए, वे भी अपनी जगह पर अहम हैं, मगर एक अस्थिर अर्थव्यवस्था का समाज की संस्कृति पर भी असर पड़ता है, मतलब यह कि सामाजिक मामलों पर और सांस्कृतिक मामलों पर मुल्क की अस्थिर अर्थव्यवस्था के असर को नज़रअंदाज़ नहीं किया जाना चाहिए। लगातार कई बरसों से इंफ़्लेशन का बढ़ना बहुत ख़तरनाक बात है, कई बरस से लगातार बहुत ज़्यादा इंफ़्लेशन दर। इसका मुल्क में आय के वितरण के सिस्टम पर भी असर पड़ता है, यह चीज़ मुल्क में आय के वितरण को असंतुलित बना देती है, कुछ लोग वंचित रह जाते हैं और मुख़्तलिफ़ तरीक़ों से कुछ लोगों की जेबें भर जाती हैं। दोनों ही हालत में भ्रष्टाचार पैदा होता है, उन लोगों की ओर से भी जिन्होंने मौक़े का फ़ायदा उठाया है, ग़ैर क़ानूनी फ़ायदा उठाया है, हराम ख़ोरी की है और जो महरूम रह गए हैं उनकी तरफ़ से भी कुछ भ्रष्टाचार वजूद में आता है। इंफ़्लेशन ज़ाहिरी तौर पर पूरी तरह से आर्थिक विषय लगता है लेकिन ऐसा है नहीं, इसका लोगों की संस्क़ति पर, लोगों की सोच पर, लोगों के रवैये पर और मुल्क के सामाजिक मामलों पर असर पड़ सकता है। बहुत सी सामाजिक और आर्थिक बुराइयां हैं जिनकी जड़ों को तलाश किया जाए तो हम उन्हें हराम के पैसों और भेदभावपूर्ण सहूलतों में पाएंगे।

अब इंफ़्लेशन पर कंट्रोल और प्रोडक्शन बढ़ाने पर बात करते हैं। जनाब रईसी (राष्ट्रपति) साहब ने सही बात की ओर इशारा किया, कभी ऐसा हुआ कि हमने इंफ़्लेशन पर कंट्रोल कर लिया लेकिन इस कंट्रोल के नतीजे में मंदी आयी, यह मुल्क के नुक़सान में है। यह कोई अच्छी चीज़ नहीं है कि इंफ़्लेशन पर कंट्रोल हो जाए लेकिन मुल्क की अर्थव्यवस्था मंदी का शिकार हो जाए। अहम बात यह है कि हम इंफ़्लेशन को भी कंट्रोल कर ले जाएं और पैदावार भी रुकने न पाए, प्रोडक्शन बढ़े और यह चीज़ मुमकिन है। यह जो हम कहते हैं कि मुमकिन है तो यह मैं अपनी तरफ़ से बात नहीं कर रहा हूं, अर्थशास्त्रियों की बात है जो वे हमसे कहते हैं, उसे साबित करते हैं, दलीलें पेश करते हैं, हम उनकी बात मान सकते हैं। अगर कोशिश की जाए, अच्छी कोशिश की जाए और कामों को संजीदगी से आगे बढ़ाया जाए। अलहम्दो लिल्लाह अच्छे काम हो रहे हैं और मैं इस सिलसिले में कुछ बातें पेश करुंगा। तो हम “इंफ़्लेशन पर कंट्रोल और प्रोडक्शन में वृद्धि” के इस नारे को व्यवहारिक बना सकते हैं।

अगर हम इस नारे को व्यवहारिक बनाना चाहते हैं तो सबसे पहले ज़रूरी है कि मुल्क के मुख़्तलिफ़ विभाग इस चीज़ की प्राथमिकता को समझें, सबसे पहली बात यह है।

प्राथमिकता मानने का क्या मतलब है? मतलब यह है कि पूरे साल -हमारे सामने एक पूरा साल है- सभी हौसले और सभी इरादे, इस केन्द्र बिन्दु पर लगे रहें। ऐसा न हो कि हम कुछ दिन तक इस बारे में बात करें, बोलते रहें, लेटर हेड्स पर छपवा दें, प्रचार करें और फिर धीरे धीरे यह बात पुरानी हो जाए, हाशिए पर चली जाए, किनारे लग जाए, हम इसे भूल जाएं, नहीं! अलबत्ता यह नारा सिर्फ़ एक साल का नहीं है, ज़्यादातर ये नारे क्रम मैं हैं और इन्हें जारी रहना चाहिए लेकिन इस साल, सन 1402 हिजरी शम्सी के आख़िर तक सारा इरादा चाहे वह विधिपालिका में हो, चाहे कार्यपालिका में हो, चाहे न्यायपालिका में हो या फिर दूसरे विभागों में हो, इसी अस्ली मुद्दे पर केन्द्रित होना चाहिए, यानी इस बात की ओर ध्यान रहे कि यह ज़िम्मेदारी अस्ली व बुनियादी ज़िम्मेदारी है।

प्राथमिकता देने का एक मतलब और भी है और वह यह है कि मुल्क के सभी संसाधनों और सलाहियतों को इस काम के लिए इस्तेमाल किया जाए, हमारे मुल्क में बहुत ज़्यादा संसाधन और सलाहियतें हैं। हमारे कुछ संसाधन व्यवहारिक रूप में हैं, प्राकृतिक संसाधन हैं, भौगोलिक स्थिति है, आर्थिक ढांचा है -कारख़ाने, विभाग- कुछ सहूलतों का स्वरूप साफ़्टवेयर जैसा है यानी वैचारिक हैं, सार्थक सोच वाले मानव संसाधन, पुरजोश नौजवान हैं, इल्मी व वैज्ञानिक सलाहियतें हैं, टेक्नॉलोजी की क्षमता है, नई सोच और इनोवेशन है। बहुत से विशेषज्ञ मुझे ख़त लिखते हैं, मैं भी वक़्त निकाल कर उन लोगों के बहुत से ख़त जो इन मामलों के माहिर हैं, पढ़ता हूं, अलबत्ता उसे लागू करना मेरा काम नहीं है, मैं संबंधित विभागों को भेज देता हूं लेकिन उनके ख़त पढ़ता हूं। इंसाफ़ की बात यह है कि कभी कभी बहुत अच्छी सोच और नई सोच दिखाई पड़ती है, ये सब मुल्क के संसाधन हैं, इन सबको इंफ़्लेशन पर कंट्रोल और प्रोडक्शन को बढ़ावा देने की दिशा में इस्तेमाल होना चाहिए। हमारे पास प्रशासनिक सहूलतें हैं, क़ानून बनाने की सहूलते हैं, न्यायिक सहूलतें हैं, मीडिया की सहूलतें हैं, तजुर्बेकार लोग हैं, ऐसे लोग हैं जिनके पास भरपूर तजुर्बा है, उन्होंने काम किया है, वे जानते हैं, उन्हें आता है, उन सबसे फ़ायदा उठाया जाना चाहिए। विदेशी संबंधों से फ़ायदा उठाया जाना चाहिए, विदेश संबंध सिर्फ़ दो चार यूरोपीय मुल्कों तक तो सीमित हैं नहीं, दुनिया में दो सौ से कुछ ज़्यादा मुल्क हैं, इनमें से हर एक की कुछ न कुछ सलाहियत है, इस काम के लिए विदेश संबंध से फ़ायदा उठाया जा सकता है। तो यह प्राथमिकता का दूसरा पहलू था।

प्राथमिकता का एक और भी मतलब है -हमने कहा कि इस मुद्दे को प्राथमिकता देनी चाहिए- और वह यह कि बेकार की रुकावटें नहीं डाली जानी चाहिए। कभी आप देखते हैं कि इंफ़्लेशन पर कंट्रोल के लिए एक अच्छा काम शुरू हुआ है, उसका क़ानून भी है, सरकार भी काम कर रही है, व्यवहारिक बना रही है, अचानक कहीं से, किसी ओर से एक बिल सामने आता है जो इंफ़्लेशन को बढ़ाने वाला है, काम को रोकने वाला है, ऐसी बातों पर नज़र रखनी चाहिए। कभी कभी राजनैतिक विचार और दलीय आइडियालोजी हस्तक्षेप करते हैं। मिसाल के तौर पर फ़र्ज़ कीजिए कि एक शख़्स चूंकि सरकार में फ़ुलां शख़्स या ख़ुद सरकार की राय से सहमति नहीं रखता, इसलिए वह सरकार की ओर से किए जाने वाले एक अच्छे काम की राह में रुकावट डालता है, ऐसा नहीं होना चाहिए। प्राथमिकता का मतलब यह है कि सभी हक़ीक़त में प्राथमिकता दें।

ख़ैर, तो यह पहला अहम प्वाइंट हुआ कि अगर हम चाहते हैं कि यह नारा व्यवहारिक हो सके तो हमें उन्हीं बातों के साथ, जिन्हें अर्ज़ किया गया, इस नारे को प्राथमिकता देनी चाहिए, ऐसा न हो कि सिर्फ़ नीति का एलान हो। कभी ऐसा होता है कि एक नीति का एलान होता है, एक वर्किंग ग्रुप बना दिया जाता है, आदेश भी जारी हो जाते हैं लेकिन यह सब काफ़ी नहीं होता, मसले को उस तरह आगे बढ़ाया जाना चाहिए, जैसा अभी अर्ज़ किया गया। आगे बढ़ाने के सिलसिले में भी कुछ बिन्दु हैं जिन्हें मैं अर्ज़ करुंगा। अगर इस विषय को प्राथमिकता दी गयी तो साल के आख़िर में इसके असर को साफ़ तौर पर देखा जा सकता है। सबसे पहले अर्थशास्त्री आर्थिक इंडेक्स को देखेंगे- जिसमें प्रोडक्शन में वृद्धि के इंडेक्स को जिसे उन्होंने बयान किया और वह बहुत अहम है, या पूंजिनिवेश के इंडेक्स को या इंफ़्लेशन के इंडेक्स को और इसी तरह दूसरी बातों को- और ये इंडेक्स स्पष्ट हो जाएंगे, दूसरे यह कि लोग अपनी ज़िन्दगी में महसूस करेंगे, यानी किसी तरह और किसी हद तक आराम को महसूस करेंगे, अगर इंशाअल्लाह हम ने इस काम को आगे बढ़ाया और इस नारे को व्यवहारिक बनाया तो ऐसा होगा।

अब अगर हम यह चाहते हैं कि इस नारे पर अमल हो तो कई बातें ज़रूरी हैं जिन्हें मैंने नोट किया है और अर्ज़ करुंगा। पहली ज़रूरी बात यह है कि मुख़्तलिफ़ विभाग एक दूसरे की मदद करें, यानी सरकार इस तरह से, संसद एक तरह से, न्यायपालिका एक तरह से एक दूसरे की मदद करें, क़ानून, अमल की ज़रूरत के मुताबिक़ हो। अगर हम चाहते हैं कि यह काम अंजाम पाए तो सभी का सहयोग ज़रूरी है। इसलिए आप सब लोग जो यहाँ मौजूद हैं। संसद के लोग भी यहाँ हैं, सरकार के लोग भी यहाँ हैं, न्यायपालिका वाले भी यहाँ हैं और सशस्त्र बल के लोग भी यहाँ हैं। फ़ैसलों पर सभी हक़ीक़त में अमल करें, सभी एक दूसरे की मदद करें ताकि काम आगे बढ़े। यह एक ज़रूरी काम हुआ।

अगला ज़रूरी काम, जो मेरी राय में बहुत अहम है, फ़ैसलों के बारे में संजीदगी से नज़र रखना है। मैं जब सम्मानीय अधिकारियों के साथ विशेष बैठकों में बैठता हूं और हम बातें करते हैं तो मैं इस मसले पर ताकीद करता हूं, फ़ैसलों पर अमल को मद्देनज़र रखना ज़रूरी है। कभी बहुत से अच्छे फ़ैसले किए जाते हैं लेकिन चूंकि अच्छी तरह फॉलोअप नहीं किया जाता, इसलिए फ़ैसरे धरे के धरे रह जाते हैं। ये जो अधूरे प्रोजेक्ट की बात उन्होंने की, इसकी वजह फ़ैसलों पर संजीदगी से नज़र न रखना है। मिसाल के तौर पर फ़र्ज़ कीजिए कि संसद या सरकार में एक बहुत ही अच्छे प्रोजेक्ट का फ़ैसला हुआ, सरकार ने काम करना शुरू किया, इस प्रोजेक्ट को तीन साल में, चार साल में पूरा हो जाना चाहिए लेकिन 13 साल हो चुके हैं और वह प्रोजेक्ट पूरा नहीं हुआ! क्यों? इससे पता चलता है कि इस पर नज़र नहीं रखी गई और यूं ही छोड़ दिया गया, तो फ़ॉलोअप करना बहुत अहम है। मैं एक मिसाल पेश करुं और यह मिसाल अभी जल्द की है। सरकार की कई बड़ी कंपनियों ने, जिन्होंने अच्छा मुनाफ़ा कमाया था, राष्ट्रपति साहब से वादा किया कि वह मुख़्तलिफ़ विभागों में पब्लिक के लिए लाभदायक नागरिक प्रोजेक्ट्स पर काम करेंगी, इसका मुतालबा राष्ट्रपति साहब ने उनसे किया है, उन्होंने भी वादा किया है कि वो कुछ प्रोजेक्ट्स पूरे करेंगी। मैंने दो तीन हफ़्ते पहले उनसे पूछा कि मामला कहाँ तक पहुंचा, इन कंपनियों ने क्या किया? इन कंपनियों ने एक रिपोर्ट तैयार करके उन्हें दी, उन्होंने हमें दी, हमने रिपोर्ट देखी, हमें लगा कि यह संतोषजनक नहीं है, यानी वह काम जो होना चाहिए था, नहीं हुआ है, कुछ काम हुआ है लेकिन वह चीज़, जो केन्द्रीय बिन्दु है, यानी लोगों की सेवा और काम का फ़ायदा लोगों तक पहुंचाना, वह व्यवहारिक नहीं हुआ। इसलिए दूसरा ज़रूरी काम फ़ॉलोअप है, कामों की निगरानी होनी चाहिए, सम्मानीय अधिकारियों को काम पर नज़र रखनी चाहिए और यह काम ख़ास तौर पर हुकूमत में अंजाम पाना चाहिए।

एक दूसरा ज़रूरी काम, आर्थिक नीतियों और फ़ैसलों में स्थिरता और टिकाउपन है। अगर हम अपनी मुद्रा नीतियों, वित्तीय नीतियों में लगातार बदलाव करते रहे तो यह मुल्क के लिए बहुत नुक़सानदेह है। इससे अविश्वास की स्थिति पैदा हो जाती है, उद्यमियों को संदेह पैदा हो जाता है, यह चीज़ पूंजिनिवेश का इरादा रखने वालों और उद्यमियों को असमंजस में डाल देती है। हम विदेशी पूंजिनिवेश चाहते हैं, विदेशियों से कहते हैं कि वे यहाँ आकर पूंजीनिवेश करें, मुल्क के भीतर पूंजीनिवेश करने वालों को प्राथमिकता ही हासिल है। अल्लाह मरहूम असगर औलादी साहब (13) पर रहमत नाज़िल करे! बरसों पहले यहाँ एक बैठक थी, उन्होंने बात की और कहा कि आप विदेशियों से चाहते हैं कि यहाँ आकर पूंजीनिवेश करें। विदेशी, ईरानी पूंजीनिवेशकों को देखते हैं, ये लोग- उनके शब्दों में- सिस्टम का शोकेस हैं, सिस्टम का आइना हैं, वे देखते हैं कि आप स्वदेशी पूंजीनिवेशकों, मुल्क के उद्यमियों के साथ कैसा सुलूक करते हैं, अगर वे देखते हैं कि आप अच्छा सुलूक करते हैं तो वे भी आ जाते हैं। यह बिल्कुल ठीक बात है, नीतियों में बदलाव, दिशा में बदलाव से बहुत नुक़सान पहुंचता है। इसलिए मुद्रा नीति, वित्तीय नीतियों वग़ैरा में टिकाउपन बहुत अहम विषय है।

इस नारे को व्यवहारिक बनाने के लिए ज़रूरी कामों में से एक अवाम की भागीदारी है। यह एक निर्णायक मामला है, बहुत अहम मसला है। इस मामले में हमारा प्रदर्शन कमज़ोर रहा है, पिछले कुछ बरसों में लगातार हमारा प्रदर्शन लचर रहा है। अगर हम ज़बानी तौर पर नहीं, जिसे हम मुसलसल कहते आ रहे हैं, बल्कि व्यवहारिक तौर पर, जिसके बारे में मैं संक्षेप में चर्चा करुंगा, पब्लिक की भागीदारी हासिल करने में कामयाब रहे तो प्रोडक्शन में वृद्धि निश्चित तौर पर होगी। जो चीज़ पैदावार में वृद्धि को निश्चित बनाती है वह पैदावार की प्रक्रिया में पब्लिक की भागीदारी है, विभिन्न विभागों में, छोटे प्रोडक्ट्स से लेकर बड़े प्रोडक्ट्स में पब्लिक की भागीदारी हो। ख़ुद प्रोडक्शन में वृद्धि, इंफ़्लेशन पर कंट्रोल करने में प्रभावी है, यानी इस पर भी असर डालती है।

यह, सिर्फ़ बातों और नारों तक न रहे, यानी अगर हम सिर्फ़ ज़बान से कहें कि “लोगो! आओ भागीदारी करो” तो कोई नहीं आएगा, इसका कोई मतलब ही नहीं है, इसका कोई नतीजा नहीं निकलेगा कि हम लोगों से कहें कि वे भागीदारी करें। किस तरह भागीदारी करें? कहाँ भागीदारी करें? भागीदारी की राह समतल होनी चाहिए।

अच्छे तजुर्बों में से एक यही नॉलेज बेस्ड कंपनियां हैं। यह अच्छा तजुर्बा है। अलबत्ता सिर्फ़ इसी तक सीमित नहीं रहना चाहिए, जिसके बारे में अर्ज़ करुंगा लेकिन यह एक अच्छा तजुर्बा था। नॉलेज बेस्ड कंपनयों की भागीदारी के लिए नियम और मेकनिज़्म बनाए गए जो इस बात का सबब बने कि वे लोग जो सलाहियत वाले थे, असाधारण सलाहियत वाले थे, क्षमता रखते थे, जोश व जज़्बा रखते थे, आए और हज़ारों नॉलेज बेस्ड कंपनियों को वजूद में लाए, उन्होंने प्रोडक्शन को बढ़ाने में मदद की, ये कंपनियां बहुत प्रभावी हुयीं और उनकी तादाद बढ़नी चाहिए। ख़ुद इस काम यानी कामों को नॉलेज बेस्ड बनाने के लिए भी प्लानिंग की ज़रूरत है। कौन से हिस्से और कौन से विभाग नॉलेज बेस्ड होने चाहिए? मिसाल के तौर पर फ़र्ज़ कीजिए कि पेट्रोलियम का क्षेत्र या खेती का क्षेत्र नॉलेज बेस्ड होना चाहिए, तो किस तरह? किस प्रोग्राम के साथ? कौन लोग इस काम में शामिल हो सकते हैं? इसके लिए एक प्लानिंग और प्रोग्राम की ज़रूरत है जिसका उन लोगों के लिए एलान होना चाहिए जो सलाहियत रखते हैं, दिलचस्पी रखते हैं और इस काम में शिरकत करना चाहते हैं। पढ़े लिखे जवान, मानव संसाधन के लेहाज़ से क्षमता बहुत ज़्यादा हैं, अलहम्दोलिल्लाह, अब तक हमारे यहां पढ़े लिखे तैयार नौजवान बहुत ज़्यादा हैं, इनमें से बहुत से, ऐसे कामों में लगे हैं जो उनकी शैक्षणिक क़ाबिलियत से मेल भी नहीं खाते लेकिन वे काम कर रहे हैं, क्योंकि वह काम जो उनके सब्जेक्ट के मुताबिक़ हो, वह उन्हें नहीं मिला है। अगर हम इस प्रोग्राम को सही तरीक़े से अंजाम दे पाएं, तो यह मुश्किल दूर हो जाएगी। राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था को नॉलेज बेस्ड करने का रोडमैप और उस पर अमल होने का प्रोग्राम, सरकार के मोहतरम ओहदेदार तैयार करें, लोगों को इसकी सूचना भी दें और उनकी भागीदारी की राह भी समतल करें। जैसा कि मैंने अर्ज़ किया, यह बात साफ़ होनी चाहिए कि किस सेक्टर को नॉलेज बेस्ड होने के लिए प्राथमिकता हासिल है और उनके नॉलेज बेस्ड होने का मेकैनिज़्म क्या है? ये बातें स्पष्ट होनी चाहिए और लोगों को इसकी जानकारी मिलनी चाहिए। नॉलेज बेस्ड कंपनियों की हालत में पब्लिक की भागीदारी के लिए ढांचा तैयार होना चाहिए और इसकी भी लोगों को सूचना होनी चाहिए।

अलबत्ता लोगों की भागीदारी के बारे में मैंने जो इशारा किया, वह सिर्फ़ इन्हीं चीज़ों तक सीमित नहीं है यानी ऐसा नहीं है कि लोगों की भागीदारी सिर्फ़ नॉलेज बेस्ड कंपनियों के दायरे तक सीमित रहे। हमें ऐसा काम करना चाहिए कि लोग, वे सभी लोग जो क़ाबिलियत रखते हैं, काम की क्षमता रखते हैं, काम के दायरे में हैं, ऐसा काम कर सकें जो उनकी ज़िन्दगी में मदद करे, उनकी आर्थिक हालत को बेहतर बनाए, आम लोगों की ज़िन्दगी में उनके दस्तरख़ान पर रौनक़ आ जाए, प्रतिरोधक अर्थव्यवस्था की नीतियों के पहले अनुच्छेद में इसी बात पर ताकीद की गयी है। ऐसे उपाय अपनाइये कि कम आय वाले तबक़ों की आय इस तरीक़े से बढ़ जाए। इस तरह कमज़ोर तबक़ों को मज़बूत बनाने का काम भी हो जाएगा, मतलब यह कि इस सिलसिले में एक मुकम्मल रोडमैप तैयार हो और हो सकता है, यानी सरकार का प्लानिंग कमीशन और ऐसे दूसरे विभाग बैठ कर प्लानिंग कर सकते हैं और तय कर सकते हैं कि लोग, पब्लिक के कमज़ोर तबक़े किस तरह आर्थिक सरगर्मियों में सहयोग कर सकते हैं। अर्थव्यवस्था को नॉलेज बेस्ड करने का यही बेहतरीन रास्ता है। यह जो हम इंसाफ़ के मसले पर ताकीद करते हैं तो इस्लाम में अर्थव्यवस्था के काम की बुनियाद इंसाफ़ है -ताकि लोग अद्ल व इंसाफ़ पर क़ायम हों (14) – न्याय बेस्ड करने का लक्ष्य इसी राह से हासिल होगा, हम, सभी के लिए काम करने और आमदनी हासिल करने की राह समतल कर सकेंगे।

मेरे पास इस बात की जानकारी है कि कुछ विभागों ने मुल्क के दूर दराज़ के इलाक़ों में यानी तेहरान से बहुत दूर मिसाल के तौर पर देहातों में जाकर कुछ काम किए हैं, उन्होंने कुछ परिवारों को, फ़र्ज़ कीजिए कुछ अदद भेड़ों के साथ- यह इस तरह की सबसे छोटी मिसालें हैं- अपने पैरों पर खड़ा करने में कामयाबी हासिल की है, कुछ भेड़ों वाली एक फ़ैमिली को या ईरानशहर में कुछ जगहों पर जहाँ हम थे, कुछ बकरियों वाली एक फ़ैमिली को वहाँ ख़ास तरह की बकरियां हैं, अपने पैरों पर खड़ा कर दिया है। इस छोटे से काम से लेकर बड़े बड़े कामों तक, जो एक शहर को, एक इलाक़े को आबाद कर सकते हैं। अगर हम इस नारे को व्यवहारिक बनाना चाहें तो यह कुछ ज़रूरी काम हैं जिन्हें मैंने अर्ज़ किया। अलबत्ता काम तो इससे ज़्यादा हैं लेकिन इस बैठक में इस बारे में इससे ज़्यादा अर्ज़ करने की गुंजाइश नहीं है। सम्मानीय अधिकारियों, विशेषज्ञों, जो लोग इन मुद्दों पर सोच विचार करने वाले हैं, वे इन कामों में और भी मामलों को शामिल कर सकते हैं, इस पर ज़्यादा काम कर सकते हैं। यह सब इस नारे को व्यवहारिक बनाने के लिए ज़रूरी काम हैं।

अर्थव्यवस्था के मसले में कुछ बहुत ही अहम सिफ़ारिशें भी हैं, जिन्हें मैं संक्षेप में पेश करुंगा और अधिकारी उन पर ध्यान देंगे। उन सिफ़ारिशों में सबसे पहले भ्रष्टाचार से मुक़ाबला है, भ्रष्टाचार से मुक़ाबला जो सम्मानीय राष्ट्रपति के चुनाव के दौरान और चुनाव के बाद के नारों में भी मौजूद रहा है और हम सबकी हक़ीक़त में यही सोच है। भ्रष्टाचार से मुक़ाबला एक ज़रूरी काम है, अलबत्ता यह बहुत सख़्त काम है। मैंने आज से कुछ साल पहले, जब इस मसले के बारे में तफ़सील से एक बयान जारी किया था। (15) उसमें कहा था कि इसका ख़तरा- मेरे ख़्याल में मेरे लफ़्ज़ यही थे- एक सात सिरों वाले ड्रैगन की तरह हर तरफ़ से इंसान को घेरे हुए है, इसलिए भ्रष्टाचार से मुक़ाबले में पूरे वजूद के साथ मैदान में उतर जाना चाहिए। भ्रष्टाचार लोगों में मायूसी लाता है, नाउम्मीद कर देता है, ईमानदारी की तरफ़ लोगों के रुझान को कम कर देता है। जब कोई देखता है कि फ़ुलां शख़्स, ग़लत और ग़ैर क़ानूनी तरीक़े से अपनी जेब भर रहा है तो वह भी उकसावे का शिकार होता है। भ्रष्टचार एक महामारी की तरह है, बहुत ही ख़तरनाक बीमारी है और हक़ीक़त में समाज की तबाही का सबब है। भ्रष्टाचार से मुक़ाबला ज़रूरी है। बिना किसी झिझक के, बग़ैर कुछ लेहाज़ किए हुए, भ्रष्टाचार से मुक़ाबला करना चाहिए, वह चाहे जहाँ भी हो और यह उन सभी अहम कामों में सबसे ऊपर है जो आर्थिक मसलों के सिलसिले में ज़रूरी हैं।

अगला विषय वित्तीय सिस्टम है। फ़ायनेन्शल डिसिप्लिन पहले चरण में बजट के ढाँचे में सुधार से जुड़ा है। जब हमने पिछली सरकार में कार्यपालिका, विधि पालिका और न्यायपालिका के सम्मानीय अधिकारियों के साथ आर्थिक मुश्किलों की समीक्षा के लिए आग़ाज़ में बैठक आयोजित करवाई थी तो एक अहम टार्गेट जिसका हमने एलान किया था और वह लिखित भी था और उसका नोटिफ़िकेशन भी जारी हुआ था, बजट के ढांचे में सुधार था, अलबत्ता अब तक यह काम पूरी तरह से अंजाम नहीं पाया है। बजट के ढांचे में सुधार का विषय बहुत अहम है, इससे फ़ायनेन्शल डिसिप्लिन आता है। फ़ायनेन्शल डिसिप्लिन का एक अहम हिस्सा यह है कि ऐसे वित्तीय वादों से निश्चित तौर पर परहेज़ किया जाना चाहिए जिनकी आय का कोई ठोस स्रोत नहीं है। यह विषय बहुत हद तक संसद से संबंधित है। निश्चित ख़र्च के लिए अनिश्चित फ़ायनेन्शल स्रोत के एस्टिमेशन से इनडिसिप्लिन वजूद में आता है और बहुत सी मुश्किलें पैदा होती हैं।

किफ़ायत करनी चाहिए, फ़ायनेन्शल डिसिप्लिन में जो काम अहम हैं उनमें से एक किफ़ायत है। हमें किफ़ायत करना आना चाहिए। अफ़सोस की बात है कि यह चीज़ हमारी सामाजिक मुश्किल है, हम फ़ुजूलख़र्ची करते हैं, ज़्यादा फ़ुज़ूलख़र्ची होती है। हम देखते हैं कि कुछ मुल्क किफ़ायत करने में बहुत बेहतर हैं, आम लोग भी और अधिकारी भी और मुख़्तलिफ़ सरकारी विभाग भी। सादी शीराज़ी के बक़ौलः

अगर तुम्हारी आमदनी नहीं है तो कम ख़र्च करो क्योंकि मल्लाह एक गीत गाते हैं कि अगर पहाड़ों पर बारिश नहीं होगी तो दजला नदी एक साल में सूख जाएगी। (16)

जब इंसान की आमदनी कम है, आमदनी की मुश्किलें हैं तो किफ़ायत करनी चाहिए। अलबत्ता जब आमदनी ज़्यादा हो तब भी किफ़ायत करना चाहिए, यानी फ़ुजूलख़र्ची न करना हमेशा के लिए है और ख़ास तौर पर उस वक़्त जब आमदनी कम हो। तो मुख़्तलिफ़ विभागों में हम फ़ुज़ूलख़र्ची का शिकार हैं, इस बात पर ध्यान दें, मिसाल के तौर पर फ़ुज़ूल के दौरे, बिला वजह की बैठकें और मुख़्तिलफ़ विभाग जो कुछ काम अंजाम देते हैं, कुछ चीज़ें ख़रीदते हैं और इसी तरह के काम करते हैं।

अगला मुद्दा और यह भी अर्थव्यवस्था के बारे में बहुत अहम है- यह विशेषज्ञों की सिफ़ारिश है और वह यह बात हमसे बार बार कहते हैं -सही प्रोडक्टिविटी का मुद्दा है- छठी पंच वर्षीय योजना में कि जो दरअस्ल संसद से पास हुआ एक क़ानून है, जिसकी मुद्दत बाद में बढ़ायी गयी और इस साल भी उसकी मुद्दत थोड़ी बहुत बढ़ाई गयी है- मुल्क की आर्थिक तरक़्क़ी की दर आठ फ़ीसद तय की गयी थी, इसमें साफ़ तौर पर कहा गया था कि इसमें एक तिहाई विकास प्रोडक्टिविटी के ज़रिए होना चाहिए।

जब हम उन पिछले बरसों पर नज़र डालते हैं तो देखते हैं कि न सिर्फ़ आर्थिक विकास का एक तिहाई भाग प्रोडक्टिविटी के ज़रिए अंजाम नहीं पाया है यानी प्रोडक्टिविटी में कोई बेहतरी नहीं हुयी है और उसने अर्थव्यवस्था को आगे नहीं बढ़ाया है बल्कि प्रोडक्टिविटी की सतह बहुत कम है। इसके आंकड़े मौजूद हैं, मुझे भी दिए गए हैं, मैं यहाँ आंकड़े बयान नहीं करना चाहता लेकिन प्रोडक्टिविटी की सतह बहुत ही कम है। पानी के सही इस्तेमाल के सिलसिले में हम दुनिया के ज़्यादातर मुल्कों से पीछे हैं, ऊर्जा के सही और वाजिबी इस्तेमाल में हम पीछे हैं। मैंने कुछ साल पहले, साल के पहले दिन की स्पीच में भी कहा था कि हमारे मुल्क में ऊर्जा का इस्तेमाल, दुनिया के विकसित देशों से कई गुना ज़्यादा है। (17) यानी ख़र्च ज़्यादा और नतीजा कम। यह भी एक मुद्दा है।

आर्थिक मुद्दों के बारे में एक दूसरी सिफ़ारिश जो मैं करना चाहता हूं वह बड़ी सरकारी कंपनियों से ज़िम्मेदार विभागों के तार्किक संबंध का विषय है। हमारे यहाँ बहुत बड़ी कंपनियां हैं जो सरकारी हैं, उनकी पूंजि सरकार की है, उनकी आमदनी भी सरकार की है, उनके साथ सरकार के संबंध को सुव्यवस्थित किया जाना चाहिए, इन कंपनियों के साथ सरकार के संबंध सुव्यवस्थित होना चाहिए। इन कंपनियों में कुछ बहुत ही मेहनती प्रबंधक हैं, जिनका सपोर्ट होना चाहिए, जिनकी मदद होनी चाहिए। प्राइवेट सेक्टर भी ऐसा ही है, ऐसे ही अच्छे और सरगर्म प्रबंधकों में से कुछ, कुछ महीने पहले यहाँ आए थे। (18) उनमें से कुछ ने बात भी की, रिपोर्टें दीं, एक दम साफ़ रिपोर्टें, यानी कैमरे से रिकॉर्ड हुयी और आँखों के सामने की रिपोर्टें, जिनमें किसी तरह का संदेह नहीं हो सकता, उन्होंने बड़े अच्छे काम किए हैं। मेरे ख़याल में हमारी और ख़ास तौर पर प्रशासन और सरकार की ज़िम्मेदारियों में से एक यह है कि ऐसे अच्छे और सरगर्म प्रबंधकों का सपोर्ट और मदद होनी चाहिए। एक सरगर्म उद्यमी के प्रति जो बेहतरीन सपोर्ट हो सकता है वह यह है कि हम उसके प्रोडक्ट के लिए मंडी मुहैया कराएं- चाहे विदेशी मंडी हो, चाहे स्वदेशी मंडी हो- हम उसे कंपटीशन की ताक़त दें, क्वालिटी को बेहतर से बेहतर बनाने में उसकी मदद करें। कुछ प्रोडक्टस में हमारी तादाद अच्छी है, स्टैंडर्ड अच्छा नहीं है, यह दुनिया में कंपटीशन नहीं कर सकता, मुल्क की मंडियों में भी प्रतिस्तपर्धा नहीं कर सकता, हमें मदद करनी चाहिए और क्वालिटी, कंपटीशन की ताक़त वग़ैरह में भी मदद करनी चाहिए।

अलबत्ता जिन प्रबंधकों की मैंने बात की है, उनकी ख़ूबी यह है कि ये लोग इन बरसों की कड़ी आर्थिक जंग के मैदान में काम करने में कामयाब रहे हैं, ये लोग डट कर खड़े रहे हैं, ये लोग कुछ मैदानों में मुल्क को आगे ले जाने में कामयाब हुए हैं, इसलिए उनकी मदद की जानी चाहिए और उनका सपोर्ट होना चाहिए। अलबत्ता उनकी भी कुछ ज़िम्मेदारियां हैं, ख़ास तौर पर सरकार के लोगों की। सरकारी अधिकारियों को यह तय करना चाहिए कि मुल्क की अर्थव्यवस्था की बुनियादी नीतियों के सिलसिले में रोल क्या है? यह तय होना चाहिए, यानी फ़ुलां बड़ी कंपनी जो सरकारी है, उसका कच्चा माल भी देश के भीतर से ही मुहैया होता है -ऐसी अनेक बड़ी कंपनियां हैं जिनकी आमदनी काफ़ी है और कच्चा माल भी मुल्क के भीतर का ही है- लेकिन वे अपने प्रोडक्ट की क़ीमत डॉलर की जाली क़ीमत के हिसाब से तय करती हैं और डॉलर की यह जाली क़ीमत दुश्मन के ज़रिए तय की जाती है, ऐसा क्यों है? आप क्यों डॉलर को हुक्मरानी दे रहे हैं? आप रियाल के प्रतिस्पर्धी को क्यों ताक़त दे रहे हैं? हमारी एक अहम ज़िम्मेदारी यह है कि हम मुल्क के भीतर रियाल के प्रतिस्पर्धी को मज़बूत न होने दें।

किसी ज़माने में -आज से चालीस पचास साल पहले- अमरीकियों ने अपने मुल्क में डॉलर को मज़बूत बनाने के लिए, सोने को जो डॉलर का प्रतिस्पर्धी था, बड़ी क़ीमत पर ख़रीदा और इकट्ठा कर लिया ताकि अवाम के हाथों में सोना न रहे, ताकि अमरीका के भीतर डॉलर की हैसियत बन जाए लेकिन हम अपने रियाल के लिए लगातार प्रतिस्पर्धी तैयार करते रहे हैं! सच में हमारे मुल्क की मुश्किलों में से एक हमारी अर्थव्यवस्था के विभिन्न अंगों का डॉलर से चिपके रहना है। मैंने मशहद में कहा (19) कुछ मुल्कों ने ख़ुद को डॉलर से अलग कर लिया और वह अपना व्यापार और लेन देन दूसरे तरीक़ों से अंजाम देते हैं, यहाँ तक कि इन मुल्कों को स्विफ़्ट (20) से भी निकाल दिया गया था, स्विफ़्ट से भी उनके संबंध ख़त्म कर दिए गए। उन्होंने भी संबंध तोड़ लिए थे, उन्होंने भी संबंध ख़त्म कर दिए। उनकी हालत बेहतर हो गयी। इस वक़्त कई मुल्क हैं जिनकी हालत बेहतर हो गयी है। इसलिए बड़ी सरकारी कंपनी को यह तय कर देना चाहिए कि मिसाल के तौर पर इस साल, जब नीति इंफ़्लेशन को कंट्रोल करने की है, इंफ़्लेशन को कंट्रोल करने में इसका रोल क्या है? इस सिलसिले में वह कौन सा रोल अदा करेगी और क्या काम करेगी और मुल्क की आर्थिक स्ट्रैटेजी के सिलसिले में क्या रवैया अख़्तियार करेगी? यह बात सरकारी कंपनियों और प्राइवेट सेक्टर के लिए है, हमने कहा कि वाक़ई अच्छे प्रबंधकों का सपोर्ट किया जाना चाहिए जिन्होंने कठिन हालात में मुल्क की अर्थव्यवस्था में मदद की। इसके मुक़ाबले में ऐसे लोग भी हैं जिन्होंने मुल्क के फ़ायनेन्शियल सिस्टम में विध्वंसक रोल अदा किया, उनके साथ बिना झिझक सख़्ती से निमटा जाना चाहिए। कुछ धोखेबाज़ क्रेडिट संस्थाएं, कुछ प्राइवेट बैंक प्रॉपर्टी ख़रीदें, ज़मीन ख़रीदें, रिज़र्व बैंक से ज़्यादा पैसे निकालें जो ख़ुद इंफ़्लेशन और दूसरी मुश्किलों का कारण है, उनसे निमटा जाना चाहिए।

अगला काम भी बहुत ज़रूरी काम है और वह है प्लानिंग सिस्टम की पहले से अंदाज़ा लगाने की ताक़त। हमें कभी कभी ज़रूरत की चीज़ों में कमी का सामना करना पड़ता है, इसका हमें अपनी प्लानिंग में अंदाज़ा लगा लेना चाहिए, यानी मुल्क के प्लैनिंग विभाग -इस ज़िम्मेदार विभाग- में अंदाज़ा लगाने की ताक़त होनी चाहिए कि इस तरह की कमी पेश आ सकती है। अगर हमने पहले से अंदाज़ा नहीं लगाया हो तो संकट के वक़्त अचानक ही हमें उस कमी का सामना करना पड़ता है, फिर हम क्या करते हैं? बौखलाहट में जल्दबाज़ी में इस चीज़ को बाहर से इम्पोर्ट करते हैं, मुल्क की पैदावार की कमर तोड़ देते हैं, अगर पहले से अंदाज़ा लगाने की यह क्षमता न हो तो ऐसी स्थिति पेश आती है। यह भी बहुत अहम है। कमियों को हर मैदान में संकट का रूप लेने नहीं देना चाहिए, जैसे ही कमी का एहसास हो -मिसाल के तौर पर गोश्त, चिकन, चावल या कोई भी दूसरी चीज़- यह महसूस हो कि इसकी कमी हो सकती है, इससे पहले ही पब्लिक संसाधनों को, आम लोगों की क्षमता को इस्तेमाल करना चाहिए और इससे फ़ायदा उठाया जा सकता है और क्षमताओं को मुश्किल के हल के लिए संगठित किया जा सकता है और मुश्किल को संकट का रूप अख़्तियार करने से रोका जा सकता है।

एक दूसरा बिन्दु जो मैं यहाँ अर्ज़ करुंगा, यह है कि कुछ बुनियादी क़दम हैं जिससे अर्थव्यवस्था आगे बढ़ती है, कुछ तो अर्थव्यवस्था के तेज़ी से विकास करने का सबब बनते हैं, ज़िम्मेदार तंत्र को उन्हें तलाश करना चाहिए। दो तीन मिसालें मेरी नज़रों में आयीं और मैंने उन्हें नोट कर लिया है।

इनमें से एक ब्लू इकॉनमी है जिसके बारे में हाल में हमें रिपोर्टें दी जा रही हैं और लगातार सुझाव पेश किए जा रहे हैं और यह सही बात है। समुंदर, बरकत का केन्द्र है, समुद्र के लेहाज़ से अलहम्दो लिल्लाह हमारे हाथ खुले हुए हैं, हमारे मुल्क के दक्षिण और उत्तर में समुद्र है। ब्लू इकॉनमी बहुत ही बरकत वाली अर्थव्यवस्था है, एक यह है, इस पर हमें ध्यान देना चाहिए। इसके लिए भी कुछ ज़रूरी मामले हैं जिन पर हमें अमल करना चाहिए, नज़र रखनी चाहिए और काम करते रहना चाहिए।

दूसरी मिसाल उत्तर-दक्षिण कोरिडोर की है जिसके बारे में काफ़ी समय से मुल्क में बात हो रही है और यह भी बिल्कुल सही है, इसे अंजाम पाना चाहिए। इस वक़्त मुल्कों के बीच एक कंपटीशन शुरू हो गया है कि अंतर्राष्ट्रीय व्यापार की राहों को अपने यहाँ से गुज़ारें। एक मुल्क चाहता है कि उसके यहाँ से होकर यह रास्ता गुज़रे, दूसरा मुल्क चाहता है कि उसके यहाँ से होकर गुज़रे। हम बड़ी संवेदनशील जगह पर स्थित हैं। भौगोलिक नज़र से हम बहुत ही संवेदनशील जगह पर स्थित हैं, इस इलाक़े में शायद एक भी ऐसा मुल्क नहीं है जिसके पास ऐसी बेहतरीन भौगोलिक पोज़ीशन हो। हमारी भौगोलिक स्थिति बेहतरीन है। हमें इस उत्तर-दक्षिण कोरिडोर को विकसित करना चाहिए। अलबत्ता दूसरे कोरिडोर भी हैं जैसे पूरब-पश्चिम कोरिडोर लेकिन सबसे अहम यही है। हम उत्तर-दक्षिण कोरिडोर पर काम करें इसके लिए स्वयंसेवी भी हैं, विदेशी सरकारों के ऐसे लोग हैं जो इस सिलसिले में सहयोग कर सकते हैं। इस पर गंभीरता से काम कीजिए, यह भी एक अहम मसला है।

एक दूसरा मुद्दा खदानों से फ़ायदा उठाने का है। राष्ट्रपति ने खदानों के सिलसिले में अंजाम पाने वाले कामों के बारे में बताया (21) जिसकी मुझे सूचना नहीं थी। यह बहुत अच्छा है, यह वाक़ई ख़ुशख़बरी है। खदानों के लेहाज़ से हम मालामाल हैं। मैंने कभी यहाँ पर सरकारी अधिकारियों की एक ऐसी ही बैठक में स्टैटिस्टिक्स के हवाले से -जो आंकड़े मुझे दिए गए थे और बहुत सही थे- कहा था कि हमारी आबादी दुनिया की एक फ़ीसद है, हमारी संवेदनशील खदानें ज़्यादा हैं, दो फ़ीसद, तीन फ़ीसद, पाँच फ़ीसद या ऐसी ही कोई अदद (22) मतलब यह कि खदानों के लेहाज़ से हम बहुत मालामाल हैं, मुख़्तलिफ़ तरह की खदानों, खदानों की तादाद वग़ैरह के लेहाज़ से। तो यह खदानों की बात हुयी।

हाउसिंग का मुद्दा भी ऐसा ही है। हाउसिंग मुल्क के लिए रोज़गार पैदा करने वाला और संपत्ति मुहैया करने वाला काम है। तो इस पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए। अलहम्दो लिल्लाह सरकार में ऐसे लोग हैं जिनकी आर्थिक सोच है, अर्थव्यवस्था की बहुत अच्छी समझ है और हमें उनसे वाक़ई मदद लेनी चाहिए, उनकी बात सुननी चाहिए, उनसे सीखना चाहिए, ऐसे लोग बहुत हैं और ऐसे माहिर कभी कभी हमें कुछ रिपोर्टें भी देते हैं, दूसरे माहिर भी ऐसे ही हैं। हम भी कुछ बातें अर्ज़ करते हैं। यह जो बातें हमने अर्ज़ की हैं, ये वे बातें हैं जिन्हें अंजाम पाना चाहिए। तो यह अर्थव्यवस्था के विषय पर कुछ बातें थीं।

दो तीन बातें और भी हैं जिन्हें मैं जल्दी जल्दी अर्ज़ कर दूं। पहला विषय विश्व स्तर पर होने वाले बदलाव का है। मैंने कुछ समय पहले कहा था कि दुनिया एक बहुत बड़े राजनैतिक बदलाव के मुहाने पर है (23) यानी वर्ल्ड ऑर्डर की स्थिति बदल रही है और यह बात अब मुख़्तलिफ़ जगहों से सुनाई दे रही है, दोहराई जा रही है। मैं आज यह अर्ज़ करना चाहता हूं कि अलहम्दोलिल्लाह यह वैश्विक बदलाव, इस्लामी गणराज्य के दुश्मनों के मोर्चे की कमज़ोरी की दिशा में जा रहा है। यह अहम बात है। पहले तो यह कि ये बदलाव बड़ी तेज़ी से आ रहे हैं, बहुत तेज़ रफ़्तार से, दूसरे यह कि उसी ख़ुसूसियत के साथ जो मैंने अर्ज़ की यानी इस मोर्चे की कमज़ोरी की दिशा में है, ये बदलाव अब तक इसी तरह के रहे हैं। तो इस स्थिति का क्या तक़ाज़ा है? इस स्थिति का तक़ाज़ा है कि हम विदेश नीति में पहल करें। पहल करने और अपनी लगन वग़ैरह को बढ़ाएं और मौक़े से फ़ायदा उठाएं। मैंने कहा कि इस सिस्टम में हमारा मुख़ालिफ़ मोर्चा कमज़ोर होता जा रहा है जिसके कुछ नमूने हैं जिन्हें मैं अर्ज़ करता हूं। विश्व स्तर पर हमारे सबसे बड़े विरोधियों में से एक अमरीकी सरकार है न। ओबामा का अमरीका, बुश के अमरीका से ज़्यादा कमज़ोर था, ट्रम्प का अमरीका, ओबामा के अमरीका से ज़्यादा कमज़ोर था, इन साहब (24) का अमरीका ट्रम्प के अमरीका से भी ज़्यादा कमज़ोर है। हम क्यों कह रहे हैं कि कमज़ोर है? पहले तो यह कि अमरीका के भीतर दो तीन साल पहले इलेक्शन के मसले पर एक दूसरे के विरोधी दो अलग अलग धड़े पैदा हो गए थे, (25) ये विभाजन पूरी तरह अब भी बाक़ी है, यह कमज़ोरी ही तो है! यह बहुत अहम है। अभी कुछ महीने पहले उनकी कांग्रेस का जो इलेक्शन हुआ, उसमें भी ज़ाहिर हो गया कि यह विभाजन अब भी पूरी तरह बाक़ी है।

अमरीका, ज़ायोनी शासन के राजनैतिक संकट को -जो उसके लिए बहुत अहम है- हल नहीं कर सका, यह अमरीका की कमज़ोरी है। ज़ायोनी सरकार, अमरीका के लिए बहुत अहमियत रखती है। आप देख रहे हैं कि ज़ायोनी सरकार किस हालत में है, इसके बारे में बाद में संक्षेप में कुछ अर्ज़ करुंगा, अमरीका उसे हल नहीं कर पाया है।

अमरीका ने एलान किया है कि वह इस्लामी गणराज्य के ख़िलाफ़ मोर्चा बनाना चाहता है ताकि वह एकजुट होकर ईरान के ख़िलाफ़ काम कर सके, आज जो कुछ वह चाहता था, उसके बरख़िलाफ़ हो रहा है और ईरान के साथ अरब मुल्कों के संबंध दिन ब दिन बढ़ रहे हैं। अमरीका, पाबंदियों के दबाव के ज़रिए ऐटमी मसले को अपने प्रोग्राम के मुताबिक़ ख़त्म करना चाहता था लेकिन वह ऐसा नहीं कर सका, यह अमरीका की कमज़ोरी है। उसने बड़ी कोशिश की, शोर मचाया, मीडिया के ज़रिए, राजनीति, पाबंदी वग़ैरह वग़ैरह लेकिन वह नहीं कर सका, वह ऐटमी मसले को अपनी योजना के मुताबिक़ हल नहीं कर सका।

अमरीका ने युक्रेन जंग शुरू कराई। यह मेरा दावा है, इसके लिए बहुत सी दलीलें भी हैं, दुनिया में बहुत से लोग भी यही मानते हैं, अलबत्ता ख़ुद अमरीकी नहीं मानते लेकिन उन्होंने ही यह जंग शुरू करायी, मगर इस वक़्त यह जंग इस बात का कारण बन गयी कि अमरीका और उसके यूरोपीय घटकों के बीच धीरे-धीरे खाई पैदा हो जाए और दोनों के बीच दूरियां बढ़ जाएं। क्योंकि इस जंग में मार यूरोप वालों को खानी पड़ रही है, फ़ायदा अमरीका उठा रहा है, इस बात ने फ़ासला पैदा कर दिया है, यह अमरीका की कमज़ोरी है। अमरीका, लैटिन अमरीका को अपना बैकयार्ड समझता है, लेकिन इस वक़्त लैटिन अमरीका के अनेक मुल्कों में अमरीका विरोधी हुकूमतें सत्ता में आ रही हैं। अमरीका, वेनेज़ोएला में पूरी तरह बदलाव लाना चाहता था, उसने मौजूदा अमरीका विरोधी सरकार की जगह एक दूसरी सरकार भी बना दी थी, एक नक़ली राष्ट्रपति भी तैयार कर दिया था, उसे फ़ौजी ताक़त भी मुहैया करा दी थी, उसे पैसे भी दिए, हथियार भी दिए, दो तीन साल तक तनाव भी बनाए रखा लेकिन आख़िरकार वह इसमें कामयाब नहीं हो सका, यह सारी उसकी कमज़ोरी की निशानियां हैं।

दुनिया में डॉलर कमज़ोर हो रहा है, बहुत से मुल्क हैं जो डॉलर में होने वाले अपने लेन-देन को एक दूसरे की राष्ट्रीय मुद्रा या किसी अन्य मुद्रा में बदल रहे हैं। यह कमज़ोरी की निशानियां हैं। यह जो हम कहते हैं कि इस्लामी गणराज्य विरोधी मोर्चा कमज़ोर पड़ गया है, इसकी दलीलें ये हैं। तो अमरीका जो इस्लामी गणराज्य से दुश्मनी में सबसे आगे है, यह सब उसकी कमज़ोरी की निशानियां हैं। कुछ और भी निशानियां हैं जिनका फ़िलहाल हम ज़िक्र नहीं कर रहे हैं।

जहाँ तक ज़ायोनी सरकार की बात है -वह भी हमारी एक दुश्मन है- तो वह अपनी पचहत्तर साल की उम्र में कभी भी आज जैसी ख़ौफ़नाक मुसीबत में गिरफ़्तार नहीं हुयी थी। सबसे पहले राजनैतिक अस्थिरता, चार साल में चार प्रधान मंत्री बदल गए, दलीय गठबंधन बनने से पहले ही टूट जाते हैं, गठबंधन बनाते हैं और थोड़ी ही मुद्दत में वह गठबंधन बिखर जाता है। वे पार्टियां जो पहले बन चुकी हैं या बन रही हैं, धीरे-धीरे टूटती जा रही हैं, भंग होती जा रही हैं, यानी वह इतना कमज़ोर हो जाती हैं कि टूटने जैसी ही होती हैं। पूरी ज़ायोनी सरकार में गंभीर मतभेद पाया जाता है अगर आप मौजूदा स्थिति को देखें- फ़िलिस्तानियों का मामला अलग है, तो उनके बीच बुरी तरह मतभेद पैदा हो गया है। तेल अबीब और दूसरे शहरों में एक लाख और दो लाख लोगों के प्रदर्शन, इसी बात की निशानी हैं। मुमकिन है वे (ज़ायोनी) किसी जगह दो चार मीज़ाइल मार दे लेकिन वे इस मामले की भरपाई नहीं कर सकता। सही अर्थों में ज़ायोनी सरकार राजनैतिक अस्थिरता में घिरी हुयी है। बताया जाता है कि जल्द ही उन लोगों की तादाद जो इस्राईल से निकल रहे हैं, वे यहूदी जो भाग रहे हैं, उनकी तादाद 20 लाख तक पहुंच जाएगी। इसका उन्होंने एलान किया है, यानी उन्होंने कहा कि निकट भविष्य में क़रीब 20 लाख लोग, ज़ायोनी शासन के क़ब्ज़े वाले इलाक़ों से निकल जाएंगे। उनके ख़ुद अधिकारी बार बार चेतावनी दे रहे हैं कि बहुत जल्द बिखराव होने वाला है। उनका राष्ट्रपति कह रहा है, उनका पूर्व प्रधान मंत्री कह रहा है, उनका सुरक्षा विभाग का प्रमुख कह रहा है, उनका रक्षा मंत्री कह रहा है, वे सभी कह रहे हैं कि जल्द ही बिखर जाएंगे और हम 80 साल के नहीं हो पाएंगे। हमने कहा था, ʺतुम अगले 25 साल नहीं देख पाओगेʺ (26) लेकिन उनको तो (मिट जाने की) और भी जल्दी पड़ी है।

फ़िलिस्तीनी संगठनों की ताक़त, अतीत की तुलना में, यह नहीं कहना चाहिए कि कई गुना, बल्कि शायद दसियों गुना बढ़ चुकी है। हम तक एक रिपोर्ट पहुंची कि फ़िलिस्तीनियों ने ज़ायोनी शासन के क़ब्ज़े वाले इलाक़ों में 24 घंटे में 27 ऑप्रेशन किए, पूरे फ़िलिस्तीन में, बैतुल मुक़द्दस में, वेस्ट बैंक के इलाक़े में, 1948 के इलाक़ों में (27) वो हर जगह काम कर रहे हैं। वह ओस्लो वाला फ़िलिस्तीन -आपको याद ही होगा कि यासिर अरफ़ात और दूसरों ने ओस्लो समझौते (28) में फ़िलिस्तीन की कैसी रुसवाई करायी- अरीनुल उसूद (29) तक पहुंच चुका है, उसूद यानी शेरों का फ़िलिस्तीन! इतना ज़्यादा फ़र्क़ आ चुका है। फ़िलिस्तीनी इस तरह से आगे बढ़े हैं। तो जब ज़ायोनी कमज़ोर पड़े तो प्रतिरोध का मोर्चा अलहम्दोलिल्लाह मज़बूत बनता जा रहा है, जिसकी मिसाल यही फ़िलिस्तीनी संगठन हैं, जिसके बारे में मैंने अर्ज़ किया। यह भी एक बात थी जिसे मैं अर्ज़ करना चाहता था।

अगली बात हमारे मुल्क के भीतरी हालात के लिए दुश्मनों की साज़िश है, कुछ साज़िशें थीं, कुछ साज़िशें रहेंगी। पिछले पतझड़ के हंगामों में औरत के मसले को बहाना बनाया गया, हंगामे मचाए गए, इसके पीछे दुश्मनों यानी पश्चिमी सरकारों की ख़ुफ़िया एजेंसियां थीं, वे मुल्क जो ख़ुद ही औरत के मसले में कटघरे में खड़े हैं। हाल ही में बताया गया कि फ़ुलां यूरोपीय मुल्क की पुलिस ने कहा है कि औरतें रात को सड़कों पर न निकलें, किसी मर्द के साथ जाएं! मतलब यह कि औरतों के लिए सेफ़्टी नहीं है। कुछ केन्द्रों और कैंप्स में जहाँ मर्द और औरतें दोनों हैं, औरतें रात को शौचालय जाने की हिम्मत नहीं करतीं। उनकी मिलिट्री फ़ोर्सेज़ में एक तरह से, उनकी गली और बाज़ार में दूसरी तरह से। फिर ये मुल्क औरतों के मसले पर इस्लामी गणराज्य पर, जो औरत को बेहतरीन दर्जा देता है, ऐतराज़ करते है, सवाल उठाते हैं!

एक यूरोपीय मुल्क में एक परदेदार मुसलमान औरत को अदालत में पुलिस और अदालत की नज़रों के सामने क़त्ल कर दिया गया! उनकी नज़रों के सामने। औरत को मारा पीटा गया था, उसने अदालत में केस दायर कर दिया था, सुनवाई हुयी, ख़ुद अदालत में उसी शख़्स ने, जिसने पहले मारा पीटा था, उस पर वार किया और वह औरत दुनिया से गुज़र गयी, शहीद हो गयी! यह औरतों के साथ इस तरह का सुलूक करते हैं। हमारे मुल्क के भीतर भी कुछ लोग फ़रेब में हैं -मेरे ख़्याल में ज़्यादातर लोग फ़रेब में थे- विदेशी दुश्मन और बाहर रहने वाले ग़द्दारों की बातों में आकर, वे लोग वरग़लाते थे और उन लोगों ने औरत की आज़ादी के नारे लगाए। इस मसले में भी उन्होंने हंगामा मचाया, बहुत से दूसरे मामलों की तरह, तार्किक बात, सही और ठोस बात पेश करने के बजाए, जिसे सुना जा सकता हो, बात की जा सकती हो, सिर्फ़ शोर मचाया।

औरतों का मुद्दा सिर्फ़ पहनावा तो नहीं है, शिक्षा का मसला है, रोज़गार का मसला है, राजनैतिक सरगर्मियों का मसला है, सामाजिक मामलों में भागीदारी का मसला है, सरकारी सतह के आला ओहदे मिलने का मसला है, ये सारे औरतों के मुद्दे हैं। इनमें से किस मसले में मुल्क में आज़ादी नहीं है? इस्लामी गणराज्य ने इनमें से किस में, औरतों के काम में हस्तक्षेप किया है और उनकी आज़ादी को रोका है? इतनी तादाद में छात्राएं, इतनी तादाद में कॉलेज और यूनिवर्सिटी के स्टूडेंट्स, इतनी बड़ी तादाद में आला सरकारी ओहदों पर काम करने वाली महिलाएं, इतनी तादाद में बड़े बड़े प्रोग्राम चलाने पाली औरतें, जिद्दो जेहद के दौर में प्रभावी सभाओं में औरतों की ये सरगर्म भागीदारी, इस्लामी इंक़ेलाब की कामयाबी से पहले और बाद में जंग में, मोर्चे के पीछे की सरगर्मियों से लेकर आज तक प्रदर्शनों में, रैलियों में, 22 बहमन (11 फ़रवरी के जूलूसों) में, क़ुद्स दिवस में, दुनिया में कहाँ औरत इतनी ज़्यादा सरगर्मियां अंजाम देती है जितनी ईरानी औरतें पूरे गर्व के साथ अंजाम दे रही हैं।

पहनावे की बात करें तो जी हाँ! हेजाब का मसला यह है कि शरीअत और क़ानून की नज़र में हिजाब करना ज़रूरी है, यह सरकार की ओर से ज़रूरी क़रार नहीं दिया गया है, हेजाब करना शरई और क़ानूनी हुक्म है, हेजाब न करना शरई लेहाज़ से हराम है और राजनैतिक लेहाज़ से हराम है, शरई हराम भी है और सियासी हराम भी है। बहुत सी औरतें जो पर्दा नहीं करतीं, वे इस बात को नहीं जानतीं, अगर वे जान जाएं कि वे जो काम कर रही हैं उसके पीछे कौन लोग हैं तो यक़ीनी तौर पर वे यह काम नहीं करेंगी, मैं जानता हूं, इनमें से बहुत सी औरतें हैं जो दीनदार हैं लेकिन इस बात की ओर उनका ध्यान नहीं हैं कि हेजाब के विरोध के पीछे किसकी चाल है। दुश्मन के जासूस, दुश्मन की ख़ुफ़िया एजेंसियां, इम मामले के पीछे हैं। अगर वे जान जाएं तो बिल्कुल यह काम नहीं करेंगी। बहरहाल यह मसला निश्चित तौर पर हल हो जाएगा। इमाम ख़ुमैनी ने इंक़ेलाब के कामयाब होने के बाद शुरूआत के हफ़्तों में हेजाब के मसले को ज़रूरी क़रार दिया था और यह बात ठोस अंदाज़ से बयान की थी। (30) यह इमाम ख़ुमैनी रहमतुल्लाह अलैह के शुरूआत के अहम कामों में से एक था। इन्शाअल्लाह यह मसला हल हो जाएगा सभी को यह जान लेना चाहिए कि दुश्मन ने पूरी योजना और चाल के साथ यह काम शुरू किया है, हमें भी पूरी योजना और उपाय के साथ काम शुरू करना चाहिए। असैद्धांतिक और बिना प्लानिंग वाले काम नहीं करने चाहिए। अधिकारियों के पास प्रोग्राम होना चाहिए और है, इन्शाअल्लाह यह काम प्रोग्राम और प्लानिंग के साथ आगे बढ़े। यह भी एक बिंदु था।

एक दूसरा मुद्दा -शायद आख़िरी या आख़िरी से पहले का मुद्दा- इस साल के आख़िर में होने वाले इलेक्शन का है।(31) यह इलेक्शन बहुत अहम है। चुनाव क़ौमी ताक़त के प्रतीक हो सकते हैं। अगर इनका सही तरीक़े से आयोजन न हुआ तो यह चीज़ मुल्क की कमज़ोरी और क़ौम की कमज़ोरी को ज़ाहिर करती है। इससे सरकार की कमज़ोरी, अधिकारियों की कमज़ोरी, अवाम की कमज़ोरी और पूरे मुल्क की कमज़ोरी का पता चलता है। हम जितने कमज़ोर होंगे, दुश्मनों का हमला और दबाव भी उतना ज़्यादा होगा। अगर आप चाहते हैं कि दुश्मन का दबाव ख़त्म हो जाए तो हमें मज़बूत होना होगा। मुल्क की मज़बूती के अहम साधनों में से एक यही इलेक्शन है। संबंधित अधिकारी अभी से- अलबत्ता मुझे इल्म है कि उन्होंने काम शुरू कर दिया है- लोगों की भागीदारी की, चुनाव की सुरक्षा की, चुनाव में प्रतिस्पर्धा की स्ट्रैटेजी को तय करें, इन्शाअल्लाह जारी (हिजरी शम्सी) साल के आख़िर में लोगों की भरपूर भागीदारी से अच्छा और साफ़ सुथरा चुनाव आयोजित हो।

आख़िरी मसला मीडिया का मसला है जो अहम है। मैंने मीडिया के बारे में बहुत बार बात की है, फिर अर्ज़ कर रहा हूं। दुश्मन की ओर से सही बात को ग़लत बनाकर पेश करने की कोशिश, शख़्सियत को बदनाम करने की कोशिश, साइबर स्पेस और सोशल मीडिया वग़ैरह में दुश्मन के ज़रिए मुल्क के मज़बूत पहलुओं के ख़िलाफ़ साज़िश को बेनक़ाब करना चाहिए, यह काम मीडिया का है। अलहम्दोलिल्लाह क़ौमी मीडिया मोमिन और पुरजोश लोगों के हाथों में है, वे कोशिश करें कि इस सिलसिले में दुश्मन की साज़िशों को नाकाम बना दें।

ऐ परवरदिगार! तुझे मोहम्मद व आले मोहम्मद का वास्ता, हमने जो कुछ कहा और जो कुछ सुना, उसे अपने लिए और अपनी राह में क़रार दे। ऐ पालने वाले! हमें उस चीज़ पर अमल करने की और उसका वफ़ादार रहने की तौफ़ीक़ अता कर जिस पर हम अक़ीदा रखते हैं और जिसका ज़बान से इज़्हार करते हैं। ईरानी क़ौम को सरबुलंद कर दे। ईरानी क़ौम को उसके दुश्मनों पर फ़तह दे। मोमिन, पुरजोश और वफ़ादार ओहदेदारों को तौफ़ीक़ दे और उनकी मदद कर। ऐ परवरदिगार! इस महीने में हम सभी को अपने ज़िक्र की तौफ़ीक़ अता कर। नेक कामों और लोगों के साथ भलाई की तौफ़ीक़ हम सबको अता कर। हमें न्याय और भलाई की मिसाल बना (32) पालने वाले! हम सबको क़ुरआन की तिलावत, क़ुरआन पर ग़ौर व फ़िक्र करने, क़ुरआन से फ़ायदा उठाने, क़ुरआन से हिदायत पाने की तौफ़ीक़ अता कर, इमाम ख़ुमैनी को उनके औलिया के साथ महशूर कर, उन्हें हमसे राज़ी कर, इमाम ज़माना के पाक दिल को हमसे राज़ी कर दे, हमें अपने वली के सिपाहियों में क़रार दे, हमारे अज़ीज़ शहीदों को कर्बला के शहीदों के साथ महशूर कर।

आप सब पर अल्लाह का सलाम, उसकी रहमत और बरकत हो

1. इस मुलाक़ात के आग़ाज़ में राष्ट्रपति हुज्जतुल इस्लाम वलमुस्लेमीन सैयद इब्राहीम रईसी ने रिपोर्ट पेश की।

2. 2/7/2014  को यूनिवर्सिटियों के टीचरों से मुलाक़ात में स्पीच

3. सूरए क़द्र आयत-3 का एक हिस्सा

4. अमालिए सुदूक़, बीसवां भाग, पेज-93

5. इक़बालुल आमाल, पेज 73

6. सूरए अहज़ाब की आयत 41 और 42

7. ग़ोररुल हकम, पेज 644

8. मिस्बाहुल मोतहज्जिद, जिल्द-2, पेज-849 (दुआए कुमैल)

9. सूरए नह्ल, आयत-90 का एक हिस्सा

10. ग़ोररुल हेकम, पेज-387

11. सूरए आराफ़, आयत-129 का एक हिस्सा

12. ईरानी हिजरी शम्सी साल 1402 का नारा, “इंफ़्लेशन पर कंट्रोल और प्रोडक्शन में वृद्धि”

13. जनाब हबीबुल्लाह असकर औलादी

14. सूरए हदीद, आयत-25 का एक भाग

15. 21/4/2001 को तीनों पालिकाओं के अध्यक्षों को आठ अनुच्छेदों वाले 15 आदेश

16. गुलिस्ताने सादी, सातवां बाब, कहानी-5

17. 21/3/2009 को इमाम रज़ा के रौज़े में मुजाविरों और ज़ायरों के बीच स्पीच

18. 30/1/2023 उद्यमियों, मैन्युफ़ैकचरर्ज़ और नॉलेज बेस्ड कंपनियों के मालिकों के बीच स्पीच

19. 21/3/2023 को इमाम रज़ा के रौज़े में मुजाविरों और ज़ायरों के बीच स्पीच

20. SWIFT

21. राष्ट्रपति ने अपनी रिपोर्ट में बताया कि मुल्क में मौजूद 3000 खदानों में सिर्फ़ 300 खदानें ऐसी हैं जिनकी स्थिति अभी तय नहीं हुयी है।

22. 5/8/2004 को इस्लामी गणराज्य व्यवस्था के अधिकारियों के बीच स्पीच

23. 2/11/2022 को साम्राज्यवाद के ख़िलाफ़ संघर्ष के राष्ट्रीय दिवस पर पूरे मुल्क के स्टूडेंट्स के प्रतिनिधियों के बीच स्पीच

24.  मौजूदा अमरीकी राष्ट्रपित जो बाइडेन

25. सन 2020 ईसवी में अमरीका में राष्ट्रपति पद के चुनाव की ओर इशारा, जिसमें बाइडेन की जीत और ट्रम्प की ओर से चुनाव के नतीजे को स्वीकार न किए जाने पर, अमरीका के कुछ शहरों में झड़प और अमरीकी कांग्रेस की इमारत पर ट्रम्प के समर्थकों का धावा, जिसके नतीजे में फ़ौज का सड़कों पर आना और कुछ शहरों में कर्फ़्यू के बाद हालात का ज़ाहिरी तौर पर सामान्य होना।

26. 9/9/2015 को जनता के विभिन्न वर्गों के बीच स्पीच

27. सन 1948 में ब्रिटेन और अमरीका की मदद से फ़िलिस्तीन की सरज़मीन पर नक़ली इस्राईल को वजूद दिया गया, फ़िलिस्तीनी अवाम पर ज़ायोनियों के हमले में लाखों फ़िलिस्तीनी बेवतन हो गए। सन 1948 में वेस्ट वैंक, बैतुल मुक़द्दस और ग़ज़्ज़ा पट्टी फ़िलिस्तीनियों के हाथ में और ज़ायोनियों के क़ब्ज़े से बचा रहा, लेकिन वेस्ट बैंक जॉर्डन के अधीन और ग़ज़्ज़ा पट्टी मिस्र के अधीन हो गया।  

28. सन 1993 में इस्हाक़ रॉबिन (तत्कालीन ज़ायोनी प्रधान मंत्री) और यासिर अरफ़ात ( फ़िलिस्तीन लिब्रेशन ऑर्गनाइज़ेशन की कार्यकारी समिति के प्रमुख) के बीच समझौता हुआ जिसके नतीजे में दोनों पक्षों ने एक दूसरे को औपचारिक रूप से मान्यता दी।

29. फ़िलिस्तीनी प्रतिरोध गुटों के संघर्षकर्ताओं का अरीनुल उसूद नामी गुट

30. सहीफ़ए इमाम, जिल्द-6, पेज 329, 6/3/1979 को धर्मगुरुओं के बीच स्पीच

31. ईरान में मजलिसे शूराए इस्लामी (संसद) का बारहवां चुनाव

32. सूरए नह्ल, आयत 190 का एक हिस्साः बेशक अल्लाह अद्ल, एहसान और क़राबतदारों को (उनका हक़) देने का हुक्म देता है।