बिस्मिल्लाह-अर्रहमान-अर्रहीम

अरबी ख़ुतबे का तरजुमाः सारी तारीफ़ पूरी कायनात के परवरदिगार के लिए और दुरूद व सलाम हो हमारे सरदार अबुल क़ासिम हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा और उनकी पाक नस्ल ख़ास तौर पर ज़मीन पर अल्लाह की आख़िरी हुज्जत इमाम महदी अलैहिस्सलाम पर, जिन पर हमारी जानें क़ुरबान!

 

प्यारे भाइयो, बहनो और बहादुर ‘बसीजियो’ (स्वयंसेवियो) आपको ख़ुश आमदीद कहता हूं! आपने हमारे इस इमामबाड़े को उन बसीजी जज़्बों के नूर से जगमगा दिया जो आपके भीतर हैं। बसीज का हफ़्ता आप सबको मुबारक हो, बल्कि पूरी ईरानी क़ौम को मुबारक हो।

बसीज, हमारे अज़ीम क़ाएद इमाम ख़ुमैनी के क्रिएटिव कारनामों में से एक था। उनके क्रिएटिव कारनामें एक दो नहीं थे, ऐसे क्रिएटिव कारनामें जो लोगों की ज़िन्दगी में, मुल्क के इतिहास में अज़ीम बदलाव ले आते थे, लेकिन उनके क्रिएटिव कारनामों में एक सबसे अहम और सबसे बड़ा क्रिएटिव कारनामा बसीज (स्वयंसेवी फ़ोर्स) का गठन था, उन्होंने नवंबर 1979 के आख़िर में अपनी मशहूर स्पीच में 2 करोड़ की फ़ौज बनाने की ज़रूरत का एलान किया था। (1) ख़ैर, बसीज फ़ोर्स बन गयी। इमाम ख़ुमैनी के हुक्म के बाद क़ायम हुयी। यह सन 1979 की बात है। इस बसीज, इस अज़ीम क्रिएटिव कारनामे की बर्कतें इतनी ज़्यादा थीं कि इमाम ख़ुमैनी ने नवंबर 1988 में यानी उसके नौ साल बाद, बसीज की तारीफ़ में वह ज़बर्दस्त फ़साहत व बलाग़त से भरा बयान जारी किया।(2) स्वयंसेवियों ने उन नौ बरसों में मुल्क में क्या कर दिया था कि इमाम ख़ुमैनी इतने प्रभावित हो गए कि उन्होंने उन हैरतअंगेज़ जुमलों के साथ वह ज़बर्दस्त बयान जारी किया।

मैं इमाम ख़ुमैनी रहमतुल्लाह अलैह के उस ज़बर्दस्त बयान के कुछ जुमले पेश करुंगा ताकि आपको वह बयान याद आ जाए। प्रिय इमाम ख़ुमैनी उस बयान में उस मेहरबान बाप की तरह बात करते हैं जो अपने बच्चों से टूट के प्यार करता है। मैं उनके यह जुमले पढ़ता हूं: बसीज इश्क की दर्सगाह और उन गुमनाम शहीदों और शाहेदान (काएनात की हर चीज़ में अल्लाह का जलवा देखने वालों) का स्कूल है जिन्होंने इस दर्सगाह के ऊंचे मीनारों पर शहादत और शुजाअत की अज़ान दी। क्या ख़ूबसूरत अल्फ़ाज़ हैं, कितनी आला उपमाएं (तशबीहें) है। एक फलदार पेड़ जिसकी कोंपलें मिलन की बहार, यक़ीन की शादाबी, अल्लाह से इश्क़ की दास्तान है। अलबत्ता मैं इन जुमलों को तरतीब के मुताबिक़ नहीं पढ़ रहा हूं, आप जाकर ग़ौर कीजिए, यह आपसे ख़िताब है, इसके बाद वह कहते हैं कि मेरे लिए फ़ख़्र की बात यह है कि मैं ख़ुद स्वयंसेवी हूं, वह अज़ीम इमाम ख़ुमैनी जिन्होंने दुनिया को हिला दिया, तारीख़ को झिंझोड़ दिया, वह कहते हैं कि मेरे लिए फ़ख़्र की बात है कि मैं बसीजी हूं। इसके बाद वह कहते हैं कि मैं आपमें से हर एक के हाथ चूमता हूं। सच में ये बातें भुलाई नहीं जा सकतीं। तो इस बयान में आप से ख़िताब किया गया है। आप आज के स्वयंसेवी, इमाम ख़ुमैनी ने नहीं फ़रमाया था कि अस्सी की दहाई के स्वयं सेवी, उन्होंने कहाः बसीजी, आप लोग, आपके बाद के स्वयंसेवी, आने वाले ज़मानों तक के स्वयंसेवियों को इमाम ख़ुमैनी ने मुख़ातिब किया है। वह कहते हैं कि मैं आपके हाथ चूमता हूं।

इसी बयान में, नवंबर सन 1988 के बयान में इमाम ख़ुमैनी ने स्टूडेंट्स और दीनी स्टूडेंट्स के स्वयंसेवियों का एलान किया है, इसका एक ख़ास अर्थ हैं। वह स्टूडेंट्स से मुतालेबा करते हैं, मदरसों के स्टूडेंट्स से मुतालेबा करते हैं कि स्वयंसेवा का जज़्बा पैदा करें, स्वयंसेवी बनें, इसका मतलब यह है कि बसीज सिर्फ़ फ़ौजी मैदान के लिए नहीं है, बल्कि धार्मिक ज्ञानों और भौतिक ज्ञानों सहित सभी मैदानों में बसीज को सरगर्म होना चाहिए। इमाम ख़ुमैनी के इस काम ने, ग़ौर कीजिए, ये बड़े अहम प्वाइंट्स हैं, हक़ीक़त में इमाम ख़ुमैनी ने इस काम से एक ख़तरे को मौक़े में बदल दिया। वह ख़तरा क्या था? उन्होंने 26-27 नवंबर सन 1979 को यह आम एलान किया, बल्कि हक़ीक़त में स्वयंसेवी बल के गठन का हुक्म दिया, इसका मतलब है कि यह हुक्म (अमरीका के) जासूसी के अड्डे पर क़ब्ज़े के क़रीब बीस या बाईस दिन बाद दिया। जासूसी के अड्डे पर क़ब्ज़ा 4 नवंबर को हुआ और यह बयान, इमाम ख़ुमैनी का पहला हुक्म 26-27 नवंबर 1979 को जारी हुआ। जब 4 नवंबर को वह वाक़या पेश आया और इमाम ख़ुमैनी की विचारधार के अनुयायी कहे जाने वाले स्टूडेंट्स ने जासूसी के अड्डे पर क़ब्ज़ा कर लिया और दस्तावेज़ों को वहाँ से बाहर निकाल लिया तो अमरीकी बहुत ज़्यादा तैश में आ गए, उन्होंने धमकी देना शुरू किया, ज़बान से भी और अमल से भी, अमल में उनकी धमकी यह थी कि उन्होंने अपने बेड़ों को धीरे धीरे फ़ार्स की खाड़ी में भेजना शुरू किया। यह धमकी ही तो थी। इमाम ने घबराने या डरने के बजाए -आम तौर पर लोग घबरा ही जाते हैं- मुल्कों के रहनुमा, अमरीका की त्योरी चढ़ते ही घबरा जाते हैं, डर जाते हैं, ख़ौफ़ज़दा हो जाते हैं। इमाम ख़ुमैनी डरे नहीं, वह पूरी क़ौम को लामबंद करते हुए मैदान में ले आए। यानी ख़तरे को मौक़े में बदल दिया। यह इस बात का सबब बना कि जंग का मैदान, सरकारी विभाग तक सीमित न रहे बल्कि क़ौम के सभी तबक़े इसमें दाख़िल हो जाएं। यही ख़तरे को मौक़े में बदलना है। यह इमाम ख़ुमैनी की महारत और उनकी ख़ुदादाद सलाहियतों में से एक थी कि वह ख़तरों को मौक़ों में बदल देते थे।

यहाँ एक अहम प्वाइंट है जिसकी ओर मैंने इशारा किया और वह यह है कि अगरचे स्वयंसेवी बल ने हक़ीक़त में फ़ौजी मैदान में अपना शानदार कारनामा दिखाया, वैसे जब इमाम ख़ुमैनी ने यह बयान जारी किया था तो अभी जंग शुरू नहीं हुयी थी, फिर बाद में जब सन 1980 में जंग शुरू हुयी तो जंग के मैदान में स्वयंसेवी बल की मौजूदगी बहुत फ़ायदेमंद व कारसाज़ थी, मुश्किलों को हल करने वाली थी, सही अर्थों में वह फ़ौज और आईआरजीसी जैसे रवायती फ़ौजी संगठनों की बहुत बड़ी मददगार थी। तो जंग के मैदान में बसीज ने बहुत शानदार इम्तेहान दिया, लेकिन बसीज सिर्फ़ एक फ़ौजी विभाग नहीं है, वह इससे कहीं आगे की चीज़ है। मतलब यह है कि बसीज की शान और उसका मक़ाम एक फ़ौजी विभाग से बढ़ कर है। बसीज क्या है? बसीज एक कल्चर का नाम है। बसीज एक नैरेटिव है, बसीज एक सोच है। 

यह सोच क्या है? यह कल्चर क्या है? यह कल्चर समाज और मुल्क की बेग़रज़ व दिखावा किए बग़ैर ख़िदमत का अर्थ पेश करता है। यह बहुत अहम है। बिना कोई उम्मीद लगाए, इस बात की उम्मीद के बिना कि कोई शाबाशी दे, यहाँ तक कि ऐसे बहुत से मामलों में भी जिसमें किसी काम में शामिल होने के लिए बजट तक न दिया जाए, पैसे और संसाधन तक न दिए जाएं –ज़ाहिर है हर काम के लिए संसाधन की ज़रूरत होती है- बसीजी इन सबके बिना मुख़्तलिफ़ मैदानों में पहुंच जाता है, जेहादी ख़िदमत अंजाम देता है, जेहादी ख़िदमत के ख़तरों को दिलों जान से क़ुबूल करता है, यह बसीजी कल्चर है। बसीजी कल्चर का क्या मतलब है? मतलब यह कि वह घुटनों तक कीचड़ में चला जाए ताकि बाढ़ की चपेट में आने वाले घरों के कमरों से कीचड़ साफ़ करे, मतलब यह कि वह ख़ुद को कोरोना से संक्रमित होने के ख़तरे और मौत के ख़तरे में डाल दे ताकि कोरोना के मरीज़ों को बचा सके और उन्हें मौत के ख़तरे से दूर कर सके। स्वयंसेवा के कल्चर का मतलब है मोमिनों के जज़्बे से की जाने वाली मदद में हरगिज़ थकन महसूस न करना, जिसका एक नमूना, हमें यहाँ आते हुए इस नुमाइश में देखने को मिला। (3) अलबत्ता मुझे पूरी तरह इल्म है कि स्वयंसेवियों ने मोमेनाना मदद के एलान के बाद इस सिलसिले में क्या किया, या बसीज के जेहादी कामों के लिए लगाए जाने वाले कैंपों में (कितनी मेहनत की जाती है) यह बसीज है, स्वयंसेवा के कल्चर का मतलब यह है। उन्होंने इस बात का इंतेज़ार नहीं किया कि कोई शाबाशी दे और तारीफ़ करे, नहीं! वह गए और जिस तरह से भी मुमकिन हो सका और कई मौक़ों पर तो बड़े ही दिलचस्प और क्रिएटिव तरीक़ों से पूरे मुल्क में इस मोमेनाना मदद के काम को फैला दिया। साइंस और रिसर्च के मैदान में, लैब के मैदान में बसीज का विभाग बहुत कारसाज़ व फ़ायदेमंद रहा है। वह जवान जो इल्म से लगाव रखते थे, रिसर्च करने वाले थे, साइंस से लगाव रखते थे, बसीजी जज़्बा रखते थे, लैब में काम कर रहे थे, उन्होंने कोरोना के मामले में भी और दूसरे मामलों में भी शानदार काम किया। इसका एक नमूना हमारे एटमी मैदान के शहीद हैं, ये स्वयंसेवी थे, ये बसीजी हैं। इसकी एक मिसाल मरहूम काज़ेमी हैं (4) और उन्होंने जो यह बड़ा रिसर्च सेंटर क़ायम किया है और दूसरे साइंटिफ़िक व रिसर्च के काम किए हैं, यह स्वयंसेवा का कल्चर है। फिर दुश्मन से मुक़ाबले के मैदान में भी यानी जंग के मैदान में भी बिना झिझक मैदान में कूद पड़ना, दुश्मन से न डरना, दुश्मन को मौक़ा न देना, यह बसीजी कल्यर है। हर सियासी, फ़ौजी और साइंसी संघर्ष के मैदान में दाख़िल हो जाना और अपनी पूरी ताक़त व सलाहियत का इस्तेमाल करना, यह बसीजी कल्चर है। बसीजी होना, गुमनाम मुजाहिदों का कल्चर है। जैसा कि इमाम ख़ुमैनी के बयान में भी इस बात की तरफ़ इशारा है। बेग़रज़ काम करने वाले मुजाहिदों का कल्चर है, ख़तरे का सामना करना, न डरना, सभी की और मुल्क की ख़िदमत करना, दूसरों की ख़िदमत के लिए ख़ुद की परवाह न करना, यहाँ तक कि मज़लूम को निजात दिलाने के लिए ख़ुद ज़ुल्म सह लेना, हालिया घटनाओं में आप लोगों ने देखा मज़लूम बसीजी ख़ुद ज़ुल्म का शिकार हुए ताकि क़ौम, मुट्ठी भर दंगाइयों –ग़ाफ़िल या जाहिल या बिके हुए एजेन्टों- के ज़ुल्म का शिकार न होने पाए, ख़ुद ज़ुल्म सह लेते हैं ताकि दूसरे ज़ुल्म का शिकार न होने पाएं, कभी नाउम्मीद नहीं होते, यह बसीजी कल्चर का अहम हिस्सा है, बसीजियों की नज़र में नाउम्मीदी कोई चीज़ नहीं है।

तो यह बसीज और बसीजी की ख़ुसूसियतों का मुख़्तसर ज़िक्र था। अलबत्ता इस बारे में अगर बात करना चाहें तो बड़ी अहम बातें बयान की जा सकती हैं, मुख़्तसर तौर पर यही बातें हैं जिनका हमने ज़िक्र किया, यह किसी दहाई मिसाल के तौर पर 1980 की दहाई, 1990 की दहाई और इक्कीसवीं सदी की पहली दहाई से मख़सूस नहीं है। आप इक्कीसवीं सदी की पहली दहाई, 1990 की दहाई वग़ैरह के नई उम्र के जवान हैं, न इमाम ख़ुमैनी को देखा, न इंक़ेलाब के दौर को देखा, न पाकीज़ा डिफ़ेंस का दौर देखा, लेकिन जंग के मैदान में मौजूद जवान का वही जज़्बा आपके भीतर भी है, 1980 की दहाई, 1990 की दहाई और इक्कीसवीं सदी की पहली दहाई की कोई बात नहीं है। यह जो जनरेशन गैप और इस तरह की बातें होती हैं यह रौशन ख़याल कहलाने वालों की बैठकों की गपशप है, हक़ीक़त इससे अलग है। आज का बसीजी वही अस्सी की दहाई का बसीजी है। एक दूसरा अहम प्वाइंट यह है कि आज मुल्क में इस बात की भी सलाहियत व गुंजाइश है कि स्वयंसेवियों को परवान चढ़ाए, स्वयंसेवियों की परवरिश करे, बसीज में नई नई बातें वजूद में लाए और बसीज में भी इस बात की सलाहियत व गुंजाइश है कि वह अपने बुलंद क़दमों के साथ मुल्क को क़दम ब क़दम आगे ले जाए। यानी मुल्क भी इस बात की तैयारी रखता है कि स्वयंसेवियों को परवान चढ़ाए, नए नए लोगों को बसीज में शामिल करके और बसीज भी -बसीज का विभाग और आम बसीजी भी, मैं अर्ज़ करुंगा कि हमारे यहां रजिस्टर्ड और ग़ैर रजिस्टर्ड स्वयंसेवी भी हैं- और हमारे मुल्क में बसीज की दुनिया इस बात के लिए तैयार है कि मुल्क को तरक़्की दिलाए और आगे ले जाए। यह जो हमने कहा कि मुल्क में क्षमता है तो यह क्षमता हाल ही में पैदा नहीं हुयी है, यह पहले भी थी लेकिन इसे दबा दिया जाता था, इसे इस्तेमाल नहीं किया जाता था, बसीज को परवान चढ़ाने का यही जज़्बा, इन्ही ख़ुसूसियतों के साथ जो मैंने अर्ज कीं, जैसे मैदान में पहुंच जाना, ख़ौफ़ज़दा न होना, दुश्मन के मुक़ाबले में डट जाना, सरकश शाही हुकूमतों के दौरान अतीत में भी था, लेकिन या तो विदेशी, मुल्क पर हावी थे और वे इसे परवान चढ़ने नहीं देते थे और उसे दबा देते थे या ख़ुद हुकूमतें बेईमान थीं। मैंने इसके कुछ नमूने यहाँ नोट किए हैं। मिसाल के तौर पर विदेशियों की मुदाख़ेलत के ज़माने में- यह हमारे इसी समकालीन इतिहास की बात है, बहुत पुरानी बात नहीं है। तबरेज़ में शैख़ मोहम्मद ख़याबानी, वह एक लेहाज़ से स्वयंसेवी ही हैं, क़याम करते हैं, तहरीक चलाते हैं, शहीद हो जाते हैं। मशहद में मोहम्मद तक़ी ख़ान पेस्यान, वह भी इसी तरह के थे, अफ़सोस कि इनमें से ज़्यादातर की ज़िन्दगी के बारे में आप नहीं जानते, आपको ज़्यादा से ज़्यादा किताबें पढ़नी चाहिए, उनकी बायोग्राफ़ी को जानना चाहिए, समझना चाहिए। रश्त में मिर्ज़ा कूचक ख़ान जंगली, इस्फ़हान में आक़ा नजफ़ी और अलहाज आक़ा नूरुल्लाह, शीराज़ में आक़ा सैय्यद अब्दुल हुसैन लारी और कुछ दूसरे धर्मगुरू जैसे शैख़ जाफ़र महल्लाती, बूशहर में रईस अली दिलवारी जिनके बारे में एक फ़िल्म भी बनी और रिलीज़ की गयी है। दूसरी जगहों पर भी ऐसे बहुत से लोग हुए हैं, मुझे यही लोग याद आए और मैंने नोट कर लिया। इन में से ज़्यादातर को दबा दिया गया, यानी उनमें से एक दो छोड़ कर सभी को दबा दिया गया, या तो उन्हें कुचल दिया गया या उनकी मदद नहीं की गयी या हुकूमतों ने उनके रास्ते में रुकावट पैदा की। तो यह स्वयंसेवी जज़्बा मौजूद रहा है। जहाँ तक इंक़ेलाब के ज़माने की बात है तो पहली बात यह है कि यह सलाहियत और गुंजाइश बढ़ गयी है, चूंकि इंक़ेलाब ने उम्मीद पैदा की, ख़ुद उन लोगों के बक़ौल ढाई हज़ार साल के शाही शासन पर मिलने वाली फ़तह ने साम्राज्यवाद मुख़ालिफ़ और तानाशाही के ख़िलाफ़ जज़्बे में नई जान डाल दी। बसीज की सलाहियत और गुंजाइश बढ़ गयी, फिर इमाम ख़ुमैनी जैसे एक शख़्स ने मुल्क का नेतृत्व करते हुए, बसीज में रूह फूंक दी, उसमें रूह फूंक दी, इसलिए यह सलाहियत और गुंजाइश ज़िन्दा हो गयी और यह सलाहियत इस्तेमाल के लायक़ हो गयी।

हमने अर्ज़ किया कि पाकीज़ा डिफ़ेंस में बसीज की मौजूदगी बहुत प्रभावी थी। अलबत्ता उस वक़्त हम ख़ुद थोड़ा बहुत कभी कभार उस अज़ीम मैदान के कुछ हिस्सों को देखा करते थे, हमने भी देखा था लेकिन जो कुछ उन किताबों में है और उन बायोग्राफ़ियों में है, वह शायद उस चीज़ से सैकड़ों गुना और हज़ारों गुना ज़्यादा है जिसे हम अपनी आँखों से देखा करते थे। शहीदों की ज़िन्दगी, जंग के मैदान के दिलेरों की ज़िन्दगी के बारे में बड़ी अजीब बातें हैं, चाहे वह ऐसे लोग हों जिनका कोई नामो-निशान नहीं था, वो कहीं के कमांडर नही थे, सिर्फ़ एक बसीजी थे लेकिन अहम थे, अज़ीम थे। यह चीज़ वाक़ई इंसान को हैरत में डाल देती है। यह जंग के मैदान की बात थी, साइंस के मैदान में भी न्यूक्लियर साइंटिस्ट, रोयान इंस्टीट्यूट के साइंटिस्ट, साइंस और रिसर्च के दूसरे सेंटर और दूसरे मुख़तलिफ़ सेंटर के साइंटिस्ट भी इसी तरह के हैं। 

तो अल्लाह का शुक्र है हमारे यहाँ रजिस्टर्ड शक्ल में दसियों लाख स्वयंसेवी हैं, दसियों लाख ग़ैर रजिस्टर्ड हैं। ये वे लोग हैं जो मस्जिदों में, यूनिवर्सिटियों में, अंजुमनों में, स्कूलों में और दूसरी मुख़तलिफ़ जगहों पर वही काम करते हैं जो स्वयंसेवी करते हैं और हक़ीक़त में बसीजी ही हैं, बस संगठन में शामिल नहीं हैं। बसीज के इदारे के मेंबर नहीं हैं।

हमारे मुल्क के बसीज का सिलसिला इस्लामी दुनिया के अंदर फैला हुआ है, इस्लामी दुनिया में भी दसियों लाख बसीजी हैं, ये वे बसीजी हैं जो हमारी ज़बान नहीं समझते, हम भी उनकी ज़बान नहीं समझते लेकिन हमारे दिल की ज़बान और उनके दिल की ज़बान एक ही है, उनका स्टैंड भी वही है जो हमारा स्टैंड है, मुख़्तलिफ़ मुल्कों में हैं, यह भी बसीज की बरकतों में से एक है।

तो यह इमाम ख़ुमैनी की यादगार है, यह यादगार आज भी बाक़ी है और इंशा अल्लाह कल भी बाक़ी रहेगी और मुल्क को इसके फ़ायदे दिखाई देंगे। तो इमाम ख़ुमैनी ने बसीज के बारे में जो जुमले और जो अलफ़ाज़ इस्तेमाल किए हैं उनमें से एक यह है कि उन्होंने बसीज को "शजर-ए-तय्यबा" यानी पाकीज़ा दरख़्त बताया।(5) शजर-ए-तय्यबा वही है जिसके बारे में क़ुरआन मजीद में कहा गया है: अल्लाह ने किस तरह अच्छी मिसाल बयान की है कि पाकीज़ा कलाम, पाक दरख़्त की तरह है जिसकी जड़ मज़बूत है और उसकी डाली आसमान तक पहुंची हुयी है। जो अपने परवरदिगार के हुक्म से हर वक़्त फल दे रहा है। (6)

पाकीज़ा दरख़्त की ख़ुसूसियत यह है कि वह हर दौर में अपने मीठे फल और अच्छे नतीजे देता है। हमने कहा कि बसीज में मुल्क को आगे ले जाने की सलाहियत है, मैं इसके उन फ़ायदों में से कुछ का ज़िक्र करता हूं।

सबसे पहले तो यह कि हर मैदान में बसीज की मौजूदगी से इन्क़ेलाब के ज़िन्दा होने का पता चलता है, इससे पता चलता है कि इन्क़ेलाब ज़िन्दा है। उन लोगों के न चाहते हुए भी जो इन्क़ेलाब लफ़्ज़ और इन्क़ेलाब के नाम से वहशत में आ जाते हैं, ग़ुस्से में आ जाते हैं, पसंद नहीं करते कि इन्क़ेलाब का नाम लिया जाए। इन्क़ेलाब से बेज़ारी दिखाते हैं, दूरी का इज़हार करते हैं, लेकिन बसीज का वजूद यह बताता है कि इन्क़ेलाब ज़िन्दा है, इन्क़ेलाब की वजह से नई नई चीज़ें वजूद में आ रही हैं, ईजाद हो रही हैं। तो बसीज की मौजूदगी का एक फल यह है कि यह इन्क़ेलाब के ज़िन्दा होने और नई चीज़ों को वजूद में लाने की निशानदेही करता है।

दूसरे यही जज़्बा जिसके बारे में हमने कहा, बेग़रज़, गुमनाम, कोई उम्मीद लगाए बग़ैर, किसी दिखावे के बिना जेहादी काम का जज़्बा मुल्क में तेज़ रफ़्तार तरक़्क़ी लाता है। ऐसा काम जो शाबाशी, दिखावे और शोहरत के लिए हो उसमें कोई बरकत नहीं होती। ख़ुद यह बिना बेग़रज़ जेहादी काम मुल्क को रफ़्तार देता है और उसे आगे बढ़ाता है। यह भी बसीज की बरकतों और उसके फलों में से एक है।

तीसरे स्वयंसेवी जो भी काम करता है, उसमें रूहानी पहलू को नुमायां कर देता है, यह बहुत अहम है, स्प्रिचुअल एलिमेन्ट। रोयान इंस्टीट्यूट का बड़ा अहम साइंटिस्ट जब कोई अहम साइंटिफ़िक कारनामा अंजाम देता है तो शुक्र का सजदा करता है, यह बात ख़ुद मरहूम काज़ेमी ने इस साइंटिस्ट के सामने मुझसे कही थी और दोनों रोने लगे थे, दोनों की आँखों से आंसू बहने लगे थे। अहम न्यूक्लियर साइंटिस्ट का स्टूडेंट कहता है कि एक मसले में हम फंस गए, देर रात तक काम करते रहे -शहीद बहिश्ती यूनिवर्सिटी में- उन्होंने मुझसे कहा कि आओ चलें, हम उठे और काम के कमरे से बाहर आ गए, हम नमाज़ख़ाने पहुंचे, वो हमें नमाज़ख़ाने में ले गए, हमने नमाज़ पढ़ना और दुआ करना शुरू किया और अचानक ही वो बोलेः समझ में आ गया, मसला हल हो गया, वह वापस काम के कमरे में पहुंचे। देखिए साइंस के माहौल में, ऐटमी काम के माहौल में, सजदा, दुआ, नमाज़! स्वयंसेवी की मौजूदगी, मुख़्तलिफ़ विभागों में अपने साथ रूहानियत लेकर पहुंचती है, यह बात बहुत अहम है, बहुत महत्वपूर्ण है।

चौथे, बसीजी अमल करने के साथ ही मक़सद पर भी नज़र रखता है -स्वयंसेवी ऐसा ही होता है- इसलिए कि बसीजी, अमल करने वाला होता है, क़दम उठाने वाला होता है। सिर्फ़ बातें नहीं करता, अमल भी करता है लेकिन अमल के साथ ही वह सिर्फ़ अमल तक सीमित नहीं रहता, मक़सद और टार्गेट को भूलता नहीं, उन लक्ष्यों की ओर बढ़ता रहता है। मक़सद को भूल जाना बड़ा ख़तरा है। यह भी बसीज के फलों में से एक है। अगर मैं पाकीज़ा दरख़्त के फलों को गिनना चाहूं तो वो काफ़ी ज़्यादा हैं, मैंने तीन चार का ज़िक्र किया, बसीज में यह बरकतें हैं।

तो, हमने बसीज की इतनी ख़ुसूसियतें बतायीं, इमाम ख़ुमैनी की बयान की गई बातों की रौशनी में बसीजियों की मुख़्तलिफ़ मिसालें पेश कीं, यह सब इस बात पर टिका है कि आप स्वयंसेवी के जज़्बे की हिफ़ाज़त कीजिए। हम किसी धोखे में न आएं। अगर हम धार्मिक स्टूडेंट्स ने, अपने धार्मिक स्टूडेंट होने के जज़्बे को बाक़ी रखा तो हमारे वजूद में बरकत पैदा होगी, अगर हम धार्मिक स्टूडेंट होने के जज़्बे से दूर हो गए -इमाम ख़ुमैनी सरकारी विभागों में काम करने वाले धर्मगुरुओं को सचेत करते थे और कहते थे कि धार्मिक स्टूडेंट होने के अपने जज़्बे की हिफ़ाज़त कीजिए।(7) अगर हम इससे दूर हो गए तो बरकत ख़त्म हो जाएगी। बसीज भी इसी तरह से है, स्वयंसेवा के जज़्बे को महफ़ूज़ रखिए। अलबत्ता क़ुरआन मजीद की तिलावत पर, मुस्तहेब चीज़ों पर, जितनी आप में ताक़त है, जितना उत्साह और हौसला हो, जितनी तैयारी हो, ध्यान दीजिए, शहीदों की बायोग्राफ़ी भी पढ़ते रहिए, उन स्वयंसेवियों की बायोग्राफ़ी को, जो शहीद हुए। उनके बारे में ढेरों किताबें छप चुकी हैं, जितना मुमकिन हो, इन किताबों को पढ़िए। तो यह बसीज के बारे में कुछ बातें थीं।

एक दूसरी बात जिसे मैंने यहाँ नोट किया है, वह बसीज के मक़ाम और स्थान के बारे में है। मैं ताकीद करता हूं कि स्वयंसेवी, बसीज की क़द्र को समझे, बसीज के मक़ाम को पहचाने, बसीज के वजूद के फ़लसफ़े को जाने, मैं इस सिलसिले में कुछ मुख़्तसर सी बात पेश करुं। बसीज क्या है? आपके मुक़ाबले में कौन है? क्या आपका मुक़ाबला सड़क पर आकर हंगामा करने वाले दो चार लोगों से हैं? क्या बसीज सिर्फ़ इसी के लिए है? इस्लामी दुनिया के जियो पोलिटिकल क्षेत्र में बसीज का बड़ा नुमायां मक़ाम है, मुझे इसकी थोड़ी सी वज़ाहत करनी होगी। अलबत्ता अहले फ़िक्र, अहले नज़र, आप जवान इस मसले पर ध्यान दीजिए, इसके बारे में सोचिए -सिर्फ़ अभी नहीं- इन मसलों पर काम करते रहिए, सेल्फ़ स्टडी के ज़रिए, बहस के ज़रिए, बातचीत के ज़रिए, ग़ौर व फ़िक्र के ज़रिए।

पश्चिमी साम्राज्यवाद के मोर्चे ने हमारे इस ख़ास इलाक़े, वेस्ट एशिया के इलाक़े के बारे में एक ख़ास रवैया अपना रखा है, यही इलाक़ा जिसका नाम ख़ुद उन्होंने मिडिल ईस्ट रखा है। दो वर्ल्ड वॉर के बाद पश्चिमी साम्राज्यवाद ने -पहले यूरोप और फिर अमरीका ने- इस इलाक़े को ख़ास तौर पर अपने ध्यान का केन्द्र बनाया, एक ख़ास रवैया अपनाया, क्यों? इसलिए कि यह इलाक़ा एक अहम इलाक़ा है। वेस्टर्न वर्ल्ड की इंडस्ट्री के पहियों को चलाने के लिए सबसे अहम एलिमेन्ट, तेल है, उनकी इंडस्ट्री, तेल पर डिपेन्ड है और दुनिया भर में तेल का अहम सेंटर यही इलाक़ा है। वेस्ट एशिया का इलाक़ा, पूरब और पश्चिम के संगम की जगह है, एशिया, यूरोप और अफ़्रीक़ा को जोड़ने वाला इलाक़ा है, स्ट्रैटेजिक पोज़ीशन की नज़र से, या दूसरे प्रचलित शब्दों में कहा जाए तो रणनैतिक नज़र से बड़ा अहम इलाक़ा है। इसलिए पश्चिमी साम्राज्यवादियों ने, जिन्होंने दौलत भी हासिल कर ली थी और अपने क़ब्ज़े वाले कॉलोनी मुल्कों को लूटकर ताक़त भी हासिल कर ली थी, साइंस के लेहाज़ से भी आगे निकल चुके थे, उनके पास मॉडर्न हथियार भी थे, वेस्ट एशिया को ख़ास ध्यान का केन्द्र बनाया। इसी ख़ास तवज्जो की वजह से उन्होंने इस इलाक़े में जाली ज़ायोनी शासन को वजूद दिया। इस जाली शासन को इलाक़े में पश्चिम के अड्डे -पहले यूरोप के अड्डे और फिर अमरीका के अड्डे- के तौर पर क़रार दिया ताकि इस इलाक़े पर छाए रहें, उनका दिल जो चाहे करें, मुल्कों को एक दूसरे से लड़ाते रहे, जंगें करवाएं, जंग थोपें, बढ़ाते रहें, लूटते रहें, वह ज़ायोनी शासन को इसीलिए वजूद में लाए। तो इस इलाक़े पर उनकी ख़ास नज़र थी।

वेस्ट एशिया के इस इलाक़े में एक जगह है जो सबसे अहम है और वह ईरान है। इस इलाक़े में जितने भी मुल्क और जगहें हैं उनमें ईरान सबसे ज़्यादा अहम है, क्योंकि उसकी दौलत भी -तेल, गैस, नेचुरल रिसोर्सेज़- यहाँ के दूसरे मुल्कों से ज़्यादा है और इसकी जियोग्राफ़िकल पोज़ीशन भी सबसे ज़्यादा अहम है। चौराहा है, पूरब और पश्चिम का चौरहा, उत्तर-दक्षिण का चौराहा। पुराने ज़माने में कहा जाता रहा है कि इस इलाक़े का सबसे अहम चौराहा ईरान है। वे ईरान के सिलसिले में सबसे ज़्यादा चौकन्ने थे। इसीलिए उन्होंने ईरान के संबंध में ज़्यादा कोशिश की। पहले अंग्रेज़ आए और उन्होंने जहाँ तक मुमकिन था यहाँ अपनी पैठ बनायी, यहां पर अपना नेटवर्क खड़ा किया, मुख़्तलिफ़ तबक़े से अपने लिए सपोर्टर और पिट्ठू तैयार किए। ईरान में अंग्रेज़ों की ओर से अपने पिट्ठु और सपोर्टर तैयार करने का मामला एक अलग ही कहानी है! इसके इतने ज़्यादा अहम पहलू हैं लेकिन अफ़सोस कि उन्हें कम ही बयान किया गया है, उनके बारे में कम ही लिखा गया है, लेकिन ऐसा था, हमने उन्हें देखा है, कुछ को तो क़रीब से महसूस भी किया है। फिर अमरीकी आए। अमरीकी जब शुरू में आए तो मदद के नाम पर आए। ट्रूमेन (8) के राष्ट्रपति काल में, ट्रूमेन का चौथा प्वाइंट (The Point Four Program) मदद का था। पहले वह इसके नाम पर आए। फिर धीरे धीरे उन्होंने अपनी पोज़ीशन मज़बूत की, दूसरों को हटा दिया या कमज़ोर कर दिया और ख़ुद ईरान पर हावी हो गए, हर चीज़ उनके हाथ में थी। अगर आप देखें तो पहलवी दौर के अहम राजनेताओं को जो आटोबायोग्राफ़ियां बाक़ी बची हैं, वहाँ आप देखेंगे कि ख़ुद मोहम्मद रज़ा पहलवी तक को, जो ख़ुद ही अमरीकियों का पिट्ठू था और उनके लिए काम करता था, उनसे शिकवा था, लेकिन वह उसे ज़बान पर लाने की हिम्मत नहीं कर पाता था, वह निजी महफ़िलों में असदुल्लाह अलम और अपने क़रीबी लोगों से अपने शिकवों का ज़िक्र करता था, मतलब यह कि अमरीकी इतना ज़्यादा आगे बढ़ चुके थे कि वो मुंहज़ोरी करते थे, ग़ुन्डा टैक्स वसूल करते थे और उन्होंने मोहम्मद रज़ा जैसे शख़्स को भी ख़ुद से नाराज़ कर लिया था, ईरान इस तरह उनकी मुट्ठी में आ चुका था।

वेस्ट एशिया के दूसरे मुल्कों पर भी वे इसी तरह हावी थे। हर किसी पर एक अलग अंदाज़ में। अलबत्ता साम्राज्यवादी मुदाख़ेलत सिर्फ़ पश्चिम की तरफ़ से नहीं थी, पूर्व सोवियत संघ भी मुदाख़ेलत करता था लेकिन वह ईरान पर हावी नहीं था, वह तूदे पार्टी और लेफ़्ट पार्टियों के ज़रिए अपनी पैठ बनाना चाहता था। उसने कुछ काम भी किए, जिन्हें आपको समकालीन इतिहास की किताबों में पढ़ना चाहिए। लेकिन कुछ दूसरे मुल्कों में उसकी पैठ ज़्यादा थी, जैसे इराक़, जैसे सीरिया, लेकिन बहरहाल पश्चिम हावी था। ये लोग अपना प्रभाव बढ़ाना चाहते थे लेकिन फ़्रांस मिसाल के तौर पर लेबनान और सीरिया में मौजूद था और कुछ दूसरे पश्चिमी मुल्क और साम्राज्यवादी मुल्क भी थे। मुल्क के यह हालात और हक़ीक़त में इलाक़े की यह हालत इन्क़ेलाब से पहले की है। तो यह इलाक़ा, सेंटर प्वाइंट था।

इस्लामी इन्क़ेलाब ने अचानक ही उनके सारे ख़्वाबों को चकनाचूर कर दिया! एक वाक़या ऐसा पेश आया, इन्क़ेलाब ने उस साम्राज्यवादी पॉलिसी पर गहरा वार किया, ये भौंचक्का रह गए। इस्लामी इन्क़ेलाब की कामयाबी से पहले, अमरीकी प्रेज़िडेन्ट (9) ईरान आए थे और उन्होंने कहा था कि यह अमन का जज़ीरा है, वह ईरान को अमन का आइलैंड बता रहे थे। इसके कुछ ही महीने के बाद उसी अमन के जज़ीरे में इन्क़ेलाब आ गया। इस तरह ये लोग भौंचक्का रह गए, इस तरह इन्क़ेलाब अचानक उनके सामने आ गया और उसने उन पर ख़ौफ़, शक और डर बिठाकर तन्हाई में ढकेल दिया, इन्क़ेलाब से ऐसे हालात पैदा हो गए। इन्क़ेलाब एक मज़बूत बांध बन गया, उसने उन्हें बाहर कर दिया, उनके कुछ आदमी ख़ुद भाग गए, कुछ बाहर निकल गए और कुछ को सज़ाए मौत दे दी गयी, इसलिए इन्क़ेलाब ने इलाक़े में अमरीका की मौजूदगी और कुल मिलाकर वेस्ट की मौजूदगी के ख़िलाफ़ एक बांध बना दिया।

तो एक नई पहचान सामने आयी, यानी ब्रिटेन और अमरीका का सहारा और उनके सहारे टिके रहने वाले मुल्क की पहचान को ख़त्म करके मुल्क ने इंडिपेंडेंस, मज़बूती, अपने पैरों पर खड़े होने, पूरे विश्वास से बात करने, ग़ुन्डा टैक्स न देने की पहचान हासिल की। सबसे अहम आख़िरी बात थी। ग़ुन्डा टैक्स न देना। ईरान ने एक ऐसा बांध बनाया जिसका दायरा ज़ाहिर है कि सिर्फ़ उस तक सीमित नहीं रहा। उसी दौरान हमने कहा था, क्योंकि हमेशा विदेशों में यही प्रोपैगन्डा किया जाता था कि ʺईरान इन्क़ेलाब को एक्सपोर्ट करना चाहता हैʺ। मैंने एक बार जुमे की नमाज़ में कहा था, (10) इन्क़ेलाब को एक्सपोर्ट करने की हमारी बात दूसरे इन्क़ेलाबों को एक्सपोर्ट करने जैसी नहीं है, हमारा इन्क़ेलाब फूल की ख़ुशबू की तरह है, बहार की हवा की तरह है, कोई उसे रोक नहीं सकता, वह फैल ही जाती है। जब आपके पास यहाँ फूलों से भरा एक चमन है तो पड़ोसी, आस-पास के लोगों को फूलों की ख़ुशबू अच्छी लगती है, कोई ख़ुशबू पर पहरे नहीं बिठा सकता और यही बात हुयी। दूसरे मुल्कों में क़ौमें जागरुक हो गयीं। हमारा यह इरादा हरगिज़ नहीं था कि किसी मुल्क में बग़ावत कराएं, हुकूमत बदलवा दें, नहीं! हम ऐसा नहीं चाहते थे लेकिन हमारे इन्क़ेलाब ने स्वाभाविक तौर पर हमारे पड़ोसी मुल्कों के मन और इलाक़े की क़ौमों के मन को बदल दिया, दिलों पर असर डाला। अलबत्ता ईरान की ख़ुसूसियत यही है। क़ौमी तहरीक में भी ऐसा ही हुआ था, मुसद्दिक़ के ज़माने में क़ौमी तहरीक और तेल वग़ैरह का मामला उठाया गया था, मुसद्दिक़ का तख़्ता पलट दिया गया लेकिन उसी वक़्त सबका यह कहना था कि नासिर (11) ने मिस्र में जो तहरीक चलायी थी और इराक़ में बाग़ी सरग़नाओं के ज़रिए इराक़ियों के सामने जो तहरीक आयी थी, उस पर ईरान की तहरीक का असर था, उस वक़्त भी ईरान का असर था। तो क़ौमी तहरीक कहाँ और इस्लामी इन्क़ेलाब कहाँ!

तो उन्हें इसके इलाज के बारे में सोचना था। उन्हें क्या करना चाहिए? पश्चिम वाले जो कल तक ईरान पर और पूरे इलाक़े पर छाए हुए थे और अब क़रीब क़रीब हर चीज़ गवां चुके थे या गवां रहा थे, क्या करें? ईरान की हुकूमत को गिरा दें, ख़त्म कर दें, रास्ता यही है, उनके पास कोई दूसरा रास्ता नहीं है। वे देखते हैं तो पाते हैं कि वे यह नहीं कर सकते। यह चीज़ भी जो मैं कह रहा हूं, चालीस साल पहले की है, आज की बात नहीं है। उस वक़्त इन्क़ेलाब एक नन्हा सा पौधा था, अभी यह मज़बूत दरख़्त इस शक्ल में तबदील नहीं हुआ था, लेकिन ये लोग इस पौधे से भी डरते थे, जानते थे कि वे यह काम नहीं कर सकते, ईरानी क़ौम और इन्क़ेलाबी फ़ोर्स मैदान में है, वे जानते थे कि यह काम उनके बस का नहीं है। फिर जब यह थोपी हुयी जंग शुरू हुयी जो आठ साल तक जारी रही तो पूरी दुनिया ने सद्दाम का साथ दिया, लेकिन इसके बाद भी सद्दाम को शिकस्त हुयी। ये लोग और अच्छी तरह समझ गए कि ईरान से टकराया नहीं जा सकता, ईरान से टकराना बहुत सख़्त है, वह इस्लामी इंक़ेलाब के बढ़ते दायरे को देख रहे थे, इलाक़े के मुल्कों में इन्क़ेलाब की स्ट्रैटेजिक गहराई को देख रहे थे, ये सब चीज़ें देख रहे थे, इसलिए उन्होंने सोचा कि इससे पहले कि ईरान पर हमला किया जा सके -या फ़ौजी हमला या किसी भी तरह का हमला जो इस्लामी हुकूमत को, इस्लामी जुम्हूरिया को गिरा दे- उसके आस-पास के मुल्कों को, जो ईरान की स्ट्रैटिजिक डेप्थ हैं और उनमें से हर एक किसी न किसी तरह इस्लामी जुम्हूरिया से जुड़ा हुआ है, मफ़लूज कर देना चाहिए, पहले उन पर कंट्रोल हासिल करना चाहिए। इस चाल पर से ख़ुद अमरीकियों ने पर्दा उठाया, यह जो अर्ज़ कर रहा हूं, एनालिसिस नहीं है, यह अमरीकियों की साज़िश है, इस साज़िश को इस चाल को ख़ुद अमरीकियों ने, नुमायां अमरीकी हस्तियों ने, अमरीका की नुमायां सियासी शख़्सियतों ने इस सदी के शुरूआत के बरसों में, सन 2006 में ज़ाहिर कर दिया।

उन्होंने कहा कि छह मुल्क हैं जिन्हें ईरान से पहले गिराया जाना चाहिए, उन पर हावी होना चाहिए, जब ये छह मुल्क गिर जाएंगे तो ईरान कमज़ोर हो जाएगा, फिर उस पर हमला किया जा सकेगा। ये छह मुल्क कहाँ हैं? इनमें से हर एक के लिए अलग वजह है। इनमें से एक इराक़ था। चूंकि सद्दाम जंग के बाद कुवैत पर हमला करना चाहता था, उसने ईरान से दोस्ती का दिखावा किया, हमारे जंगी क़ैदियों को रिहा किया, मुझे ख़त लिखा, उस वक़्त के ईरान के प्रेज़िडेन्ट को ख़त लिखे, डेलिगेशन भेजा। तो सद्दाम ख़तरनाक था, वह सद्दाम की उस वक़्त तक हिमायत कर रहे थे, उनके लिए नापसंदीदा एलिमेन्ट बन गया, यह इराक़ की बात हुयी।

दूसरे सीरिया, चूंकि सीरिया हाफ़िज़ अल-असद (12) के ज़माने से ही जंग के आग़ाज़ से हमारे साथ था। सीरिया ने हमारी मदद के लिए, मेडिट्रेनियन सी ओर इराक़ के तेल के रास्ते को बंद कर दिया। इसके बाद भी उससे जिस तरह की भी मदद मुमकिन हो सकी, वह करता रहा। प्रेज़िडेन्ट बनने के बाद मेरा पहला विदेशी दौरा सीरिया का था।

तीसरे लेबनान, लेबनान क्यों? इसलिए कि वहाँ इन्क़ेलाब के मज़बूत गढ़- हिज़्बुल्लाह और अमल पार्टी- हैं जो  ईरान के सपोर्टर हैं।

चौथे, उत्तरी अफ़्रीक़ा में लीबिया, इसलिए कि वे जानते थे कि लीबिया ने कुछ मौक़ों पर हमारा सपोर्ट किया था, हमारा फ़ौजी लेहाज़ से सपोर्ट किया था। वह ज़बान से भी हमारा सपोर्ट करता था।

पांचवें, सूडान। सूडान की भी अपनी ख़ास वजहें थीं जो बिल्कुल ज़ाहिर थीं। उसके लीडर हमारे यहाँ आते जाते थे, आते थे, जाते थे, वहाँ पर इन्क़ेलाब आने के बाद और उन्हें फ़तह मिलने के बाद, मुख़्तलिफ़ मौक़ों पर वे हमसे संपर्क में थे।

छठा मुल्क सुमालिया था, इसकी भी एक दूसरी वजह थी।

ये छह मुल्क थे जिन्हें कमज़ोर किया जाना था, उनकी हुकूमतों को गिराया जाना था। हक़ीक़त में उनकी नज़र में ईरान की स्ट्रैटिजिक डेप्थ यह छह मुल्क थे, इनको अमरीका और साम्राज्यावद के कन्ट्रोल में आना चाहिए था, इसके बाद वे ईरान का रुख़ करते। ईरान ने क्या किया? इस्लामी जुम्हूरिया ने क्या किया? इस्लामी जुम्हूरिया ने उत्तरी अफ़्रीक़ा का रुख़ ही नहीं किया, न वह लीबिया में गया, न सूडान में और न ही सुमालिया में। इस काम की ठोस वजहें थीं, जिन्हें यहाँ बयान करने की गुंजाइश नहीं है। कुछ वजहें थीं, हमने वहाँ जाना नहीं चाहा और नहीं गए। लेकिन इन तीन मुल्कों यानी इराक़, सीरिया और लेबनान में ईरान की पॉलिसी ने काम किया। इन मुल्कों में हमारी फ़ौजी मौजूदगी नहीं थी, लेकिन वहाँ काम हुआ, बड़ा काम हुआ, अहम काम। इस काम का नतीजा क्या हुआ? इन तीनों मुल्कों में अमरीका को शिकस्त हुयी। ये लोग इराक़ को अपने हाथ में लेना चाहते थे, लेकिन ऐसा नहीं हुआ, ये लोग सीरिया की हुकूमत को गिराना चाहते थे, लेकिन गिरा नहीं सके, ये लोग चाहते थे कि लेबनान में हिज़्बुल्लाह और अमल पार्टी को ख़त्म कर दे, नहीं कर सके। 

यह वह चाल और साज़िश थी जो अमरीकियों ने लाखों करोड़ों डॉलर-यानी कई अरब डॉलर- ख़र्च करके और अपने सैकड़ों या शायद हज़ारों पॉलिटिकल थिंकर्ज़ की हज़ारों घंटे के सोच विचार के बाद तैयार की थी ताकि ईरान को नुक़सान पहुंचा सकें, उनकी चाल, उनकी साज़िश इस्लामी जुम्हूरिया की एक अज़ीम व कारसाज़ फ़ोर्स के ज़रिए नाकाम हो गयी और उस अज़ीम फ़ोर्स का परचम और मज़हर एक शख़्स था जिसका नाम था जनरल क़ासिम सुलैमानी। अब पता चलता है कि क्यों अलहाज क़ासिम सुलैमानी का नाम ईरानी क़ौम के लिए इतना लोकप्रिय और ईरान के दुश्मनों को इतना तैश दिलाने वाला है कि उनका नाम आते ही यह लोग तिलमिला जाते हैं, ग़ुस्से में आ जाते हैं। दुश्मन के मुक़ाबले में उसकी गहरी साज़िश को इस्लामी जुम्हूरिया के जिस परचम ने नाकाम बना दिया, वो अलहाज क़ासिम सुलैमानी थे, ख़ुदा उन पर अपनी रहमत नाज़िल करे।

ख़ैर, ये जो बातें मैंने बयान कीं उनकी बुनियाद पर आप प्यारे स्वयंसेवी, आप जवान, दुश्मन के साथ इस्लामी जुम्हूरिया की जंग के मैदान का तसव्वुर कीजिए, इससे बड़ी जंग का मैदान कहाँ है? मसला क्या है? मसला, मुल्क के अंदर इन्क़ेलाब के मुख़ालिफ़ चंद लोग नहीं हैं। यहाँ आपकी समझ में आएगा कि दुश्मन, जेसीपीओए-2 और जेसीपीओए-3 पर इतना इसरार क्यों कर रहा था? दूसरी न्यूक्लियर डील का क्या मतलब है? मतलब यह कि ईरान पूरी तरह इलाक़े से निकल जाए, अपना इलाक़ाई रोल ख़त्म कर दे। जेसीपीओए-3 का क्या मतलब है? मतलब यह कि ईरान इस बात को तसलीम करे कि वह कोई भी अहम स्ट्रैटिजिक हथियार नहीं बनाएगा, उसके पास ड्रोन नहीं होंगे, मीज़ाइल नहीं होंगे कि अगर कभी हमने हमला किया तो वह हेक्लर एंड कोख़ जी-3 जैसे हथियार लेकर हमारे टैंकों के मुक़ाबले में आए! इसका मतलब यही तो था। वह इस पर इसरार कर रहे थे, कुछ लोग मुल्क के अंदर भी यक़ीनन ग़फ़लत की बिना पर उनकी बातों को दोहराते थे। जंग का मैदान यह है, आप इस मैदान में लड़ रहे हैं। मुल्क में बसीज की मौजूदगी का मतलब, इस तरह की बड़ी साज़िशों के मुक़ाबले में सीना तान कर खड़े हो जाना है। आपने पवित्र स्थलों की हिफ़ाज़त की, अमरीका के हाथों तैयार शुदा गुट यानी दाइश के मुक़ाबले में डट गए, संघर्ष किया, ये आप थे। आपने लेबनान के बहादुर मुजाहिदों की जिस तरह से भी हो मदद की, आपने फ़िलिस्तानियों की भी मदद की, आगे भी करेंगे, हम फिर उनकी मदद करेंगे।

लड़ाई का मैदान इस तरह का मैदान है। मैदान सड़क पर आकर हंगामा मचाने वाले दो चार लोग नहीं हैं। अलबत्ता इसका मतलब यह नहीं है कि हम हंगामा करने वाले लोगों को नज़रअंदाज़ कर दें, नहीं, हर हंगामा करने वाले और आतंकवादी को सज़ा मिलनी चाहिए- इसमें किसी तरह की शक की गुंजाइश नहीं है- लेकिन मैदान सिर्फ़ यही नहीं हैं, मैदान इससे कहीं ज़्यादा बड़ा है, मैदान इससे कहीं ज़्यादा गहरा है। आप उस मैदान के बीच में खड़े हैं। मैं चाहता हूं कि स्वयंसेवी अपनी क़द्र जाने। बसीज की क़द्र को जानिए। आप इस तरह के मैदान में लड़ रहे हैं, अपने आस-पास मौजूद इन मामूली कामों तक ख़ुद को सीमित न समझिए। अलबत्ता इन कामों का भी इलाज होना चाहिए। हंगामा करने वाले उन बलवाइयों से मुक़ाबला भी बसीज के सबसे अहम कामों में से एक है। ये बलवाई उन्हीं लोगों के हथकंडे के तौर पर काम कर रहे हैं जिन्होंने उस बड़ी साज़िश में मुंह की खाई थी, वहाँ शिकस्त खाई थी, अब दूसरी तरह मैदान में आना चाहते हैं, हंगामे शुरू करवाते हैं, कोई नारा लगाता है, कोई लिखता है, कोई कुछ और करता है। बसीज को यह नहीं भूलना चाहिए कि टकराव, विश्व साम्राज्यवाद से है। हंगामा मचाने वाले ये दो चार लोग या ग़ाफ़िल हैं या जाहिल हैं या बेख़बर हैं, या उन्हें ग़लत एनालिसिस पेश किया गया है, या बिके हुए लोग हैं, असली दुश्मन वहां है, अस्ल मुक़ाबला वहाँ हैं।

वाक़ई अफ़सोस होता है, कुछ लोग सियासी सूझबूझ रखने का दावा करते हैं लेकिन कुछ अख़बारों में या साइबर स्पेस और सोशल मीडिया के कुछ प्लेटफ़ार्मों पर उनके एनालिसिस देखकर इंसान को दुख होता है। वे कहते हैं कि पिछले कुछ हफ़्तों में मुल्क में जो ये हंगामे करवाए जा रहे हैं, उन्हें ख़त्म करवाने और लोगों को ख़ामोश करने के लिए -यह बात वे लोग कहते हैं जो सियासत का इल्म रखने, सियासत की हक़ीक़त और इंटरनैश्नल हालात के जानकार होने का दावा करते हैं!- आपको अमरीका से अपने मसले हल कर लेने चाहिए, यह बात वे लोग खुल कर लिखते हैं! साफ़ तौर पर लिखते हैं कि अमरीका से अपने मसलों को हल कीजिए। या कहते हैं कि क़ौम की आवाज़ सुनिए। मैंने ये दो बातें तहरीरों में देखी हैः “अमरीका से अपने मसले हल कीजिए, अवाम की आवाज़ सुनिए।”

अच्छा! अमरीका से किस तरह मसाएल हल हो सकते हैं? यह असली सवाल है, गंभीर सवाल है। हम आपस में झगड़ना नहीं चाहते, हम सवाल करते हैं? अमरीका के साथ मसला कैसे ख़त्म हो सकता है? बैठ कर बात करने और अमरीका से वादा लेने से मसला हल हो जाएगा? अमरीका के साथ बैठ कर बात करने से, उससे वादा लेने से कि आफ फ़लां काम कीजिए और फ़लां काम न कीजिए, मुश्किल हल हो जाएगी? अलजज़ायर घोषणापत्र के मामले में, सन 1981 में बंधकों की रिहाई के मसले में आपने अमरीका के साथ बैठकर बातचीत की थी। मैं उन दिनों पार्लिमेन्ट का मेंबर था -अलबत्ता उस वक़्त पार्लिमेन्ट में नहीं था, जंग के मोर्चे पर था, अहवाज़ में था- उस वक़्त यहाँ तेहरान में नेता अलजज़ायर की मध्यस्थता में बैठे, अमरीकियों से इनडायरेक्ट बातचीत हुयी -अलबत्ता संसद की मर्ज़ी से, ग़ैर क़ानूनी काम नहीं था- अमरीका से बातें हुयी, उससे कई वादे लिए कि हमारे ऐसेट्स को रिलीज़ कीजिए, हम पर से पाबंदियां ख़त्म कीजिए, हमारे इंटरनल मैटर्ज़ में मुदाख़ेलत न कीजिए, हम अपनी तरफ़ से बंधकों को रिहा कर देंगे। हमने बंधकों को रिहा कर दिया, क्या अमरीकियों ने अपने वादे पूरे किए? क्या अमरीका ने पाबंदियां हटायीं? क्या अमरीका ने हमारे सील्ड ऐसेट्स लौटाए? नहीं! अमरीका अपना वादा पूरा नहीं करता है, तो यह अमरीका के साथ बैठने और उससे बातचीत करने की सच्चाई है। या न्यूक्लियर डील, उन्होंने कहा कि अगर आप न्यूक्लियर फ़ील्ड में इंडस्ट्रियल सरगर्मियां कम कर दीजिए -उनकी यह कहने की हिम्मत तो नहीं हुयी कि बंद कर दीजिए- इस हद तक कम कर दीजिए तो हम ये काम करेंगे, पाबंदियां हटा लेंगे, ये काम करेंगे, वह काम करेंगे, क्या उन्होंने ये सारे काम किए? नहीं किए न? बातचीत से अमरीका के साथ हमारे मसले हल नहीं होंगे।

जी हाँ अमरीका के साथ हमारे मसलों को एक चीज़ हल कर सकती है। कौन सी चीज़? हम अमरीका को गुन्डा टैक्स दें! सिर्फ़ एक बार नहीं, अमरीकी सिर्फ़ एक बार ग़ुन्डा टैक्स पर राज़ी नहीं हैं, आज ग़ुन्डा टैक्स दें, कल दूसरी तरह से मांगेंगे, हम फिर उन्हें ग़ुन्डा टैक्स दें, परसों फिर आएंगे, एक अलग तरह से ग़ुन्डा टैक्स मांगेगे, हम फिर उन्हें ग़ुन्डा टैक्स दें। आज वे कह रहे हैं कि न्यूक्लियर सरगर्मियां बंद करो -पहले कहेंगे बीस फ़ीसद एन्रिचमेन्ट को बंद करें, फिर कहेंगे कि पाँच फ़ीसद को बंद करो, फिर कहेंगे कि न्यूक्लियर सरगर्मियां पूरी तरह रोक दो- फिर कहेंगे कि अपने संविधान को बदल दो, फिर कहेंगे कि गार्डियन काउंसिल को ख़त्म करो, अमरीकी ग़ुन्डा टैक्स वसूल करते हैं। अगर आप चाहते हैं कि अमरीका से आपके मसले ख़त्म हो जाएं तो आपको यह काम करना होगा, लगातार ग़ुन्डा टैक्स देना होगा। अमरीका यह सब चाहता है। अपनी सरहदों के अंदर ख़ुद को क़ैद कर लो, निहत्थे हो जाओ, अपनी डिफ़ेन्स इंडस्ट्री बंद कर दो। कौन ग़ैरतमंद ईरानी यह ग़ुन्डा टैक्स देने के लिए तैयार है? मैं यह नहीं कहता कि इस्लामी जुम्हूरिया का सपोर्टर, मुमकिन है कोई इस्लामी जुम्हूरिया को न मानता हो लेकिन ईरानी हो और उसमें ईरानी ग़ौरत हो तो वो भी यह ग़ुन्डा टैक्स देने के लिए तैयार नहीं होगा। अमरीका इससे कम पर राज़ी नहीं है, वे यह बात क्यों नहीं समझते? अमरीका से बातचीत से कोई मुश्किल हल नहीं होगी। अगर आप ग़ुन्डा टैक्स देने के लिए तैयार हैं, एक दो बार नहीं, लगातार, सभी बुनियादी मामलों में और अपनी सभी रेडलाइनों को क्रॉस कर जाइये! हाँ फिर अमरीका को आपसे कोई प्रॉब्मल नहीं होगी, पहलवी दौर की तरह। लोग उस हालत से निकलने के लिए इन्क़ेलाब लेकर आए, इसके लिए इतने शहीदों की क़ुर्बानी दी। यह मुल्क जो इस तरह तरक़्क़ी कर रहा है, ये जो जवान हर मैदान में इस तरह काम कर रहे हैं, उनके साथ इस तरह की बात की जानी चाहिए? उनसे यह कहा जाना चाहिए?

कहते हैं क़ौम की आवाज़ सुनिए! क़ौम की बिजली की घन गरज वाली आवाज़ इस साल 4 नवंबर को बुलंद हुयी, आपने सुनी? आप क़ौम की आवाज़ सुनिए! शहीद क़ासिम सुलैमानी के जनाज़े के जुलूस को कितने दिन हुए हैं? वह शानदार मजमा, ईरानी क़ौम की आवाज़ थी। एक करोड़ या शायद एक करोड़ से ज़्यादा लोगों की शिरकत से निकलने वाला जनाज़े का जुलूस, ईरानी क़ौम की आवाज़ थी। आज शहीदों के जनाज़े के जुलूस, ईरानी क़ौम की आवाज़ हैं। जैसे ही कोई इस्फ़हान में, शीराज़ में, मशहद में, करज में, किसी भी दूसरी जगह, शहीद होता है, लोगों की भीड़ चल पड़ती है और आतंकवादियों के ख़िलाफ़, हंगामा करने वालों के ख़िलाफ़ नारे लगाती है, क़ौम की आवाज़ यह है, आप क़ौम की आवाज़ क्यों नहीं सुनते?

ख़ैर, ये वे बातें थीं जो मैं बसीज के बारे में कहना चाह रहा था। वक़्त भी गुज़रता जा रहा है। मैं यहाँ और मुल्क में किसी भी जगह ये बातें सुनने वाले स्वयंसेवी भाइयो और बहनो को कुछ नसीहतें करना चाहता हूं।

पहली नसीहत यह है कि बसीजी बने रहिए, बसीजी बने रहने के लिए अल्लाह से मदद मांगिए, स्वयंसेवा के जज़्बे और स्वयंसेवा के ईमान की हिफ़ाज़त कीजिए।

दूसरी, अपनी क़द्र जानिए, घमंड करने का मशविरा नहीं दे रहा हूँ, नहीं! स्वयंसेवी होने की ख़ूबी ही घमंड न करना है, लेकिन यह जान लीजिए कि अल्लाह ने आपको इतना अहम स्टैंड लेने की तौफ़ीक़ दी है और आपने अख़्तियार भी किया है, इसकी क़द्र कीजिए।

तीसरी, अपने दुश्मन को पहचानिए और पहले तो यह समझिए कि दुश्मन कौन है, दुश्मन के बारे में ग़लतफ़हमी न कीजिए। दूसरे जब आपने दुश्मन को पहचान लिया कि वह कौन है तो फिर उसके कमज़ोर पहलुओं को पहचानिए, दुश्मन की कमज़ोरियों को पहचानिए। दुश्मन हमेशा कोशिश करता है कि ख़ुद को आपकी नज़रों में बड़ा और मज़बूत दिखाए, यह जानने की कोशिश कीजिए कि दुश्मन किस हाल में है, उसकी क्या कमज़ोरियां हैं, कौन से पहलू कमज़ोर हैं, उसकी ताक़त क्या हैं, दुश्मन को पहचाहिए, उसकी चालों को पहचानिए, बहुत से लोग दुश्मन की चालों के सामने घबरा जाते हैं, इस ओर से होशियार और चौकन्ना रहिए।

अगली नसीहत आपकी रूहानी तरक़्क़ी के बारे में है। अपनी रूहानी तरक़्क़ी का जायज़ा लीजिए, देखिए कि आप आगे बढ़ रहे हैं या पीछे जा रहे हैं, यह अहम है। देखिए कि आपने पिछले महीने में कौन से नेक काम अंजाम दिए थे, कौन से अच्छे क़दम उठाए थे, क्या मदद की थी, या ख़ुदा न ख़ास्ता कौन सा बुरा काम किया था। इस महीने आपके नेक काम में इज़ाफ़ा हुआ है या कमी हुयी है? या मिसाल के तौर पर वह ग़लत काम जो आप कर रहे थे, वह इस महीने ज़्यादा हुआ है या कम हुआ है? अंदाज़ा लगाइये, जायज़ा लीजिए, आगे बढ़ने की कोशिश कीजिए।

हमने कहा कि दुश्मन के तरीक़ों को पहचानिए। आज दुश्मन का सबसे बड़ा तरीक़ा झूठ बोलना और गढ़ी हुयी बातें पेश करना है। आज दुश्मन जो सबसे अहम काम कर रहा है, वह झूठ फैलाना है। यानी यही टीवी चैनल जिन्हें आप जानते हैं और देखते हैं कि दुश्मन के हैं, या यही साइबर स्पेस, झूठी ख़बरें देते हैं और झूठे एनालिसिस पेश करते हैं, क़त्ल के झूठे वाक़ए गढ़ते हैं। झूठ कह कर किसी को अच्छा और किसी को बुरा बना देते हैं, झूठ। कुछ लोग यक़ीन कर लेते हैं। जान लीजिए कि दुश्मन आज झूठ की बुनियाद पर काम कर रहा है। जब आपको पता चल गया तो फिर स्वाभाविक तौर पर आपके कंधे पर ज़िम्मेदारी आ जाती है, सही बात बयान कीजिए, वज़ाहत कीजिए। वज़ाहत के जिस जेहाद का हमने ज़िक्र किया है (13) उसकी एक जगह यही है, सही बात बयान करने का जेहाद।

 

हमने कहा कि दुश्मन के कमज़ोर पहलुओं को पहचानिए। दुश्मन का एक कमज़ोर पहलू, आपकी गहरी समझ है। जब आप में गहरी समझ आ गयी तो वह नुक़सान उठाएगा। कोशिश कीजिए कि आप में बेदारी बढ़ती जाए। दुश्मन की यह कोशिश है कि लोगों के दिल व दिमाग़ पर छा जाए। दुश्मन के लिए लोगों के दिल व दिमाग़ पर हावी होना, मुल्कों पर हावी होने से ज़्यादा अहम है। अगर उन्होंने किसी क़ौम के दिल व दिमाग़ पर क़ब्ज़ा कर लिया तो फिर वह क़ौम अपने मुल्क को अपने हाथों दुश्मन के हवाले कर देगी। दिल व दिमाग़ की हिफ़ाज़त कीजिए, दिमाग़ पर क़ाबू अहम है। कुछ लोगों ने ख़ुद तो झूठ नहीं बोला लेकिन अफ़सोस कि दुश्मन के झूठ की तसदीक़ की। ख़याल रखिए कि ये ख़तरे आपको और आपके लोगों को पेश न आएं, अपने लोगों की मदद कीजिए।

अमली तौर पर तैयारी को बनाए रखिए। ग़ाफ़िल नहीं होना चाहिए, सियासत की दुनिया में भी इस तरह की ग़फ़लतें ज़्यादा देखने में आती हैं। उनके मुख़्तलिफ़ तरीक़े हैं, मैं दुश्मन का एक तरीक़ा बताता हूं। दुश्मन का एक काम यह है कि वह किसी जगह पर कोई काम बहुत शोर व ग़ुल के साथ करता है ताकि सबका ध्यान उस तरफ़ मुड़ जाए, फिर अस्ली काम जो वह अंजाम देना चाहता है, किसी दूसरी जगह अंजाम देता है। सबका ध्यान दूसरी ओर है, इस ओर किसी का ध्यान नहीं है, हमें अपने होश व हवास को क़ाबू में रखना चाहिए, ख़ास तौर पर मुल्क के ओहदेदारों को। मुल्क के ओहदेदारों को, मुल्क के भीतर, मुल्क के बाहर, मुल्क के आस-पास, हर ओर ध्यान देना चाहिए, हमारे लिए मुल्क के आस-पास के हालात भी बहुत अहमियत रखते हैं, हमारे लिए वेस्ट एशिया का इलाक़ा भी अहम है, कॉकेशिया का इलाक़ा भी अहम है और हमारे पूर्वी इलाक़े भी अहम हैं, ये सब अहम हैं। हमारा ध्यान इस बात पर होना चाहिए कि दुश्मन क्या करना चाहता है, सभी को इन मैदानों में कोशिश करनी चाहिए और यह भी एक प्वाइंट है, ख़ास तौर पर जब फ़ुटबॉल वर्ल्ड कप जारी है, मुझे उन कामों की लिस्ट दी गयी है जो मुख्तलिफ़ वर्ल्ड कप के दौरान अंजाम पाए हैं और ग़फ़लत से फ़ायदा उठाया गया है। क्योंकि वर्ल्ड कप के दौरान पूरी दुनिया का ध्यान वर्ल्ड कप पर होता है और यह कई हफ़्तों तक जारी रहता है। इंटरनैश्नल सतह पर इस ग़फ़लत का बहुत से लोग फ़ायदा उठाते हैं, कुछ काम करते हैं। अब जबकि वर्ल्ड कप का ज़िक्र आ गया तो कल हमारी क़ौमी फ़ुटबाल टीम के खिलाड़ियों ने क़ौम का दिल ख़ुश कर दिया, इंशा अल्लाह, अल्लाह उन्हें ढेरों ख़ुशियां दे, उन्होंने कुल अवाम को ख़ुश कर दिया। तो यह भी एक नसीहत थी।

आख़िरी नसीहत से पहले यह अर्ज़ करूं कि बसीज के भीतर दुश्मन की पैठ की ओर से चौकन्ना रहिए। इस पर ध्यान दीजिए, कभी एक बुरा आदमी, एक नामाक़ूल आदमी, ग़लत लेबास पहन लेता है, ख़ुद को किसी विभाग या समूह में पहुंचा देता है, धर्मगुरू का लेबास पहन लेता है और ख़ुद को धर्मगुरूओं की लाइन में खड़ा कर देता है। बुरा आदमी, बेईमान आदमी, धर्मगुरू के लेबास में भी आ सकता है, वह स्वयंसेवी का भेस भी बदल सकता है, आपका ध्यान इस पर भी रहे, यह भी एक नसीहत थी।

मेरी आख़िरी नसीहत कुरआन मजीद की यह आयतः कमज़ोरी न दिखाओ और ग़मगीन न हो, अगर तुम मोमिन हो तो तुम ही ग़ालिब व बरतर रहोगे। (14)

वस्सलामो अलैकुम व रहमतुल्लाहे व बरकातोह

 

1. सहीफ़ए इमाम ख़ुमैनी, जिल्द-11, पेज-117, आईआरजीसी के बीच स्पीच (25/11/1979) ʺहर जगह ऐसा हो जाए कि क़ौम कुछ साल बाद दो करोड़ जवानों वाली क़ौम बन जाए, उसके पास हथियार उठाने वाले दो करोड़ लोग हों, दो करोड़ की फ़ौज हो।ʺ

2.  सहीफ़ए इमाम ख़ुमैनी, जिल्द-21, पेज-194, बसीज के हफ़्ते के मौक़े पर ईरानी क़ौम और बसीजियों के नाम पैग़ाम (23/11/1988)

3. अलग अलग विभागों में बसीज के कारनामों के बारे में एक नुमाइश तेहरान में इमाम ख़ुमैनी इमामबाड़े में लगायी गयी थी।

4. रोयान इंस्टीट्यूट के पूर्व डायरेक्टर, डॉक्टर सईद काज़ेमी आश्तियानी

5. सहीफ़ए इमाम ख़ुमैनी, जिल्द-21, पेज-194, बसीज के हफ़्ते के मौक़े पर ईरानी क़ौम और बसीजियों के नाम पैग़ाम (23/11/1988) ʺबसीज पाक दरख़्त और एक तनावर फलदार दरख़्त है जिसकी कोंपलें मिलन की बहार, यक़ीन की ख़ुशी और इश्क़ के बयान की ख़ुशबू देती है।ʺ

6. सूरए इब्राहीम, आयत-24, 25, अल्लाह ने किस तरह अच्छी मिसाल बयान की है कि कलम-ए-तैय्यबा (पाक कलमा) पाकीज़ा दरख़्त की तरह है जिसकी जड़ मज़बूत और उसकी शाख़ आसामन तक पहुंची हुयी है, जो अपने परवरदिगार के हुक्म से हर वक़्त फल दे रहा है।

7. सहीफ़ए इमाम ख़ुमैनी, जिल्द-18, पेज 12, माहेरीन काउंसलि के मेंबरों के बीच स्पीच (19/7/1983)

8.  1945 से 1953 के बीच का दौर

9. जिमी कार्टर

10. तेहरान की जुमे की नमाज़ के ख़ुतबे  (28/3/1980)

11. मिस्र के नेता जमाल अब्दुन नासिर

12. सीरिया के तत्कालीन प्रेज़िडेंट

13. अहलेबैत अलैहिमुस्सलाम के मद्दाहों और ज़ाकिरों से मुलाक़ात में स्पीच, (23/1/2022)

14. सूरए आले इमरान, आयत-139, कमज़ोरी न दिखाओ और ग़मगीन न हो अगर तुम मोमिन हो तो तुम ही ग़ालिब व बरतर रहोगे।