बिस्मिल्लाह-अर्रहमान-अर्रहीम

अरबी में ख़ुतबे का तरजुमाः सारी तारीफ़ें पूरी कायनात के परवरदिगार लिए और दुरूद व सलाम हो हमारे सरदार अबुल क़ासिम हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा और उनकी पाक नस्ल ख़ास तौर पर ज़मीन पर अल्लाह की आख़िरी हुज्जत इमाम महदी अलैहिस्सलाम पर।

 

आप मोहतरम भाईयों और बहनों को ख़ुशआमदेद कहता हूं। आप इस्फ़हान के प्यारे अवाम का एक नमूना हैं जो सच में तारीफ़ के क़ाबिल हैं। जैसा कि तबातबाई नेजाद साहब ने भी कहा और इस बात पर बहुत ख़ुश हूं कि इस इमामबाड़े में आपसे एक बार फिर मुलाक़ात का मौक़ा मिला, ख़ास तौर पर शहीदों के मोहतरम घरवालों और बहादुर पुराने मुजाहेदीन से जो यहाँ तशरीफ़ रखते हैं, मैं यहाँ इस्फ़हान के सभी लोगों की ख़िदमत में सलाम पेश करता हूं और उनकी ज़हमतों, उनके ईमान, उनके जेहाद और उनकी इस्फ़हानी ख़ूबियों के लिए उन पर दुरूद व सलाम भेजता हूं।

आज सोलह नवंबर के वाक़ए (2) के तअल्लुक़ से यह सभा हो रही है। मैं इस बहुत ही अहम वाक़ए और जेहाद के मसले में इस्फ़हानियों की हिस्सेदारी के सिलसिले में कुछ बातें पेश करुंगा। एक बात ईरान और साम्राज्यवाद के बीच टकराव पर हमारे, इंक़ेलाब के और मुल्क के मूल नज़रिये के बारे में है। इस की वजह के बारे में मोटे तौर पर एक बात और इस टकराव के सिलसिले में कुछ बातें पेश करुंगा। फिर मुल्क में जारी वाक़यों और हंगामे वग़ैरह के बारे में भी कुछ बातें मुख़्तसर तौर पर पेश करुंगा।

जहाँ तक इस्फ़हान की बात है तो इस्फ़हान की ख़ूबियां एक दो नहीं हैं। इस्फ़हान इल्म का शहर है, कला व हुनर का शहर है, जेहाद का शहर है, सरगर्म रहने वाला शहर है। इल्म के बारे में बात की जाए तो शायद पिछले चार सौ बरसों में इस्फ़हान में ऐसे ऐसे बड़े उलमा पैदा हुए हैं जिनकी अहमियत, क़द्र व क़ीमत और शोहरत सिर्फ़ इस्फ़हान तक महदूद नहीं है, कुछ की शोहरत पूरी इस्लामी दुनिया तक फैली, कुछ की शोहरत पूरे ईरान में फैली, फ़िक़ह में, फ़िलॉस्फ़ी में, हदीस में, तफ़सीर में और इल्म की दूसरी शाख़ाओं में अगर हम सबका नाम ही लेना चाहें तो एक मोटी किताब तैयार हो जाएगी, अगर सिर्फ़ उनका नाम लिखें तो। हमारे क़रीब के ज़माने तक हमारे बड़े धर्मगुरू जैसे मरहूम आक़ाए नाईनी, मरहूम सैय्यद अबुल हसन इस्फ़हानी, मरहूम शैख़ मोहम्मद हुसैन इस्फ़हानी ये सब मुख़्तलिफ़ ज़मानों के बड़े बड़े धर्मगुरू हैं, इनसे पहले क़रीब चार सौ साल तक बड़े बड़े उलमा, इस्फ़हानी रहे हैं। यह इल्म का शहर है, यानी परवरिश करने वाला है, सिर्फ़ फ़िक़ह में ही नहीं, फ़िलॉस्फ़ी में भी, कुछ ओलमा इस्फ़हानी नहीं हैं, लेकिन वे इस्फ़हान में परवान चढ़े, इस्फ़हान में निखरकर सामने आए, इस्फ़हान उन्हें सामने लेकर आया, यह इस्फ़हान की ख़ासियत है।

यह ईमान और अहलेबैत सो मोहब्बत का शहर है, यह उन ख़ासियतों में से है जिन पर कम ध्यान दिया गया है, मैं काफ़ी पहले से, सन पचास और साठ की दहाई के आख़िरी बरसों से इस्फ़हान बहुत आया जाया करता था, इस बात ने मेरी तवज्जो अपनी ओर खैंची कि इस्फ़हान के लोग तवस्सुल वाले हैं, अल्लाह के सामने रोने व गिड़गिड़ाने वाले हैं, अल्लाह पर तवज्जो रखने वाले हैं, यह चीज़ ईमान से पैदा होती है। मिसाल के तौर पर फ़र्ज़ कीजिए कि इन बरसों में हमारे मशहद में एक दुआए कुमैल पढ़ी जाती थी और इत्तेफ़ाक़ से वह भी इस्फ़हान के ही धर्मगुरू की कोशिश होती थी, मरहूम कलबासी मशहद में थे, उनकी दुआए कुमैल में जो लोग शिरकत करते थे, उनकी तादाद बीस तक भी नहीं पहुंचती थी, मैं एहतियात करते हुए बीस कह रहा हूं, वरना शायद आठ, नौ या दस लोग दुआए कुमैल पढ़ते थे। उसी वक़्त इस्फ़हान में मरहूम अलहाज महदी मज़ाहेरी की दुआए कुमैल में मस्जिदे सैयद, पूरी तरह से भर जाती थी, यह मशहद और इस्फ़हान की एक तुलना है। इमामों की अज़ादारी के बारे में बात की जाए तो इंसान जितना भी कहे वह वाक़ई कम है, यह ईमान का शहर है।

तो इस्फ़हान इल्म का शहर भी है, ईमान का शहर भी है, कला व हुनर का भी शहर है, तरह तरह की ईरानी कलाएं, इस्फ़हान में हैं। यह कला की क़ीमती विरासतों का शहर है। कला व हुनर की जितनी विरासत इस्फ़हान में हैं, मुझे नहीं लगता किसी दूसरी जगह पर होगी, यानी मुझे याद नहीं आता कि इस तरह के विरसे मौजूद होंगे। यह इस्फ़हान के अवाम की नज़र आने वाली ख़ासियतें हैं। पूरी तरह ईरान व इस्लामी पहचान वाला एक शहर, ईरानी और इस्लामी पहचान रखने वाला एक शहर, मेरे ख़्याल में इन चीज़ों से और इस मुख़्तसर बयान से जो मैं बाद में अर्ज़ करुंगा, हमारे अच्छे डॉक्यूमेंट्री बनाने वाले, जिनकी तादाद अल्लाह के करम से काफ़ी ज़्यादा है, इस्फ़हान के बारे में कई डॉक्यूमेंट्री फ़िल्में बना सकते हैं जो सभी दिलचस्प होंगी।

अब बात करते हैं, इंक़ेलाबी पहचान की। इल्मी, ईमानी, कला से संबंधित पहचान के बारे में कुछ बातें हमने पेश कीं, अब इंक़ेलाबी पहचान के बारे में कुछ जुम्ले। हमारे मुल्क के बहुत से शहरों में इंक़ेलाब से पहले, इंक़ेलाबी कोशिशें जारी थीं, अच्छी कोशिशें थीं, ठोस भी थीं लेकिन इस्फ़हान को बरतरी हासिल थी, अगर यह न कहा जाए कि वह सबसे बरतर शहर था तो कम से कम इतना तो था ही कि वह सबसे ज़्यादा इंक़ेलाबी शहरों में से एक था, कम से कम सबसे बरतर शहरों में से एक तो था ही। सरकश शाही हुकूमत के ज़माने में जिस शहर में सबसे पहले मार्शल लॉ लगाया गया वह इस्फ़हान था, इस्फ़हान से पहले किसी भी जगह पर मार्शल लॉ नहीं लगा था, इस्फ़हान में मार्शल लॉ लगा। इससे इस बात का पता चला कि वहाँ के लोग दूसरों से ज़्यादा जिद्दोजेहद कर रहे हैं। पाकीज़ा डिफेंस में दो बड़ी मशहूर व निडर डिविजनें थीं: इमाम हुसैन (अलैहिस्सलाम) डिवीजन कि जिसके मशहूर कमांडर शहीद ख़र्राज़ी थे और नजफ़ डिविजन जिसके मशहूर व शहीद कमांडर शहीद अहमद काज़ेमी थे। ख़र्राज़ी की शहादत के बाद और नजफ़ डिविजन के शहीद काज़ेमी के दूसरी जगह चले जाने के बाद दूसरे नुमायां कमांडरों ने इन दोनों डिविजनों की कमान संभाली, वाक़ई बड़े बहादुर व दिलेर लोग थे जिनमें से ज़्यादातर को हमने क़रीब से देखा और उन्हें क़रीब से जानते थे। तो इस्फ़हान सूबे ने इसी संघर्ष की वजह से क़रीब चौबीस हज़ार शहीदों का नज़राना पेश किया, जिनमें क़रीब साढ़े सात हज़र इस्फ़हान शहर के गुलिस्ताने शोहदा (क़ब्रिस्तान) में दफ़्न हैं। यह काफ़ी बड़ी तादाद है, यह एक बड़ी निशानी है, जंग में ज़ख़्मी होकर जिस्मानी तौर पर मजबूर हो जाने वाले दसियों हज़ार लोग, इराक़ की जेलों में लंबे समय तक रहने वाले कई हज़ार जंगी क़ैदी, ये सब इस्फ़हान के क़ाबिले फ़ख़्र दस्तावेज़ हैं। यह चीज़ आपकी ज़िम्मेदारियां बढ़ाती है, हम सिर्फ़ तारीफ़ करना नहीं चाहते, इन अज़मतों और इन अज़ीम निशानियों को बाक़ी और महफ़ूज़ रखना, हर बाज़मीर इंसान का फ़र्ज़ है।

अब 16 नवंबर सन 1982 के वाक़ए के बारे में कुछ बात करते हैं। इस्फ़हान में सिर्फ़ 16 नवंबर 1982 को क़रीब 360 लोगों का जुलूसे जनाज़ा निकाला गया। इसे कोई शहर कैसे झेल सकता है? 360 शहीद! जिन कमांडरों के सामने ये शहीद, शहीद हुए थे ख़ुद उन्हें समझ में नहीं आ रहा था कि किस तरह इन शहीदों को इस्फ़हान लाएं और उनके जनाज़ों को दफ़्न करें। यह वाक़ेया इतना बड़ा और अजीब था! मेरे ख़्याल में दुनिया की किसी भी जगह अगर एक दिन में ख़ून में लथपथ 360 जवानों को लाया जाए और लोगों के बीच उनकी आख़िरी रुसूमात अदा की जाएं तो उस दिन वह पूरा शहर मफ़लूज हो जाएगा, संभल नहीं सकेगा, लेकिन इस्फ़हान मफ़लूज नहीं हुआ। हमारे पास जो पुख़्ता ख़बरें और सही रिपोर्टें हैं उनके मुताबिक़, उसी दिन शाम को बड़ी तादाद में जवान और अगले दिनों में और भी ज़्यादा लोग, मोर्चों की ओर रवाना हुए, उसी रात रसद और मदद का एक बड़ा कारवां इस्फ़हान से चल पड़ा। अगर आज 360 शहीदों को लाया गया है तो लोग बैठ कर ग़म मनाएं, अब उनकी तवज्जो मोर्चे की ओर न हो, लेकिन नहीं! उसी दिन और उसके बाद के दिनों में बड़ी तादाद में लोग रवाना हो गए। इस जज़्बे को देखिए, इस मोटिव को देखिए! दो शहीदों वाले घराने, तीन शहीदों वाली फ़ैमिली, चार शहीदों वाले घराने, पाँच शहीदों वाले कई घराने, छह शहीदों वाले कई घराने, सात शहीदों वाला परिवार! ये सब इस्फ़हान के हैं। ये हमारे सामने इस्फ़हान की इंक़ेलाबी और जेहादी पहचान को रखते हैं, यह इस्फ़हान की बेनज़ीर ख़ासियतों का एक हिस्सा हैं, इस्फ़हान के बारे में कहने के लिए इससे कहीं ज़्यादा बातें हैं। इन चार दशकों में भी, जब भी ज़रूरत हुयी, इस्फ़हान सीना तान कर सामने आया, इस्फ़हान के लोग किसी भी मामले में पीचे नहीं हटे हैं। कुछ वाक़ए मुझे ख़ास तौर पर याद हैं लेकिन मैं उन्हें दोहरना या उनका नाम लेना नहीं चाहता। इस्फ़हान के लोग इतने बेदार हैं कि एक इशारे और एक नोटिस पर बारहा मैदान में आ गए और फ़ितने को दबा दिया।

अलबत्ता इस्फ़हान के अवाम की इन ख़ासियतों का इस्फ़हानियों के शिकवे से कोई तअल्लुक़ नहीं है। यह बात जो तबातबाई साहब ने कही, बिल्कुल सही है, उनकी बात दुरुस्त है, इस्फ़हान के पानी का मसला, अहम मसला है, मैं भी इस मामले को देखता रहा हूं, अनेक दोस्तों ने ख़त लिखे, हमने उन्हें संबंधित अधिकारियों तक भेज दिया, फिर उनके बारे में पूछते रहे, हाल ही में, मैंने फिर इस सिलसिले में मालूम किया, अल्लाह का शुक्र है काम हो रहा है, मतलब यह है कि अच्छे काम हो रहे हैं, पाँच छह स्टेप लिए गए हैं जिनमें से कुछ को दीर्घकालीन कहा जा सकता है, ठीक है, काम हो रहा है, आगे बढ़ रहा है और इंशा अल्लाह यह मसला हल हो जाएगा। मैं मोहतरम सरकारी ओहदेदारों को भी, वाक़ई काम कर रहे हैं, कोशिश कर रहे हैं, सिफ़ारिश करुंगा कि इस मामले में जितनी मुमकिन हो कोशिश की जाए, जितनी जल्दी हो सके काम पूरा किया जाए, मतलब यह कि वाक़ई इस्फ़हान के लोग इस बात के हक़दार हैं कि हम उनकी दिन रात ख़िदमत करें।

तो यह इस्फ़हानियों के बारे में बात थी। मुल्क के दूसरे शहरों में भी हर एक ने किसी न किसी तौर पर क़ीमती ख़िदमत अंजाम दी है, मैं सिर्फ़ इस्फ़हान की बात नहीं कर रहा हूं। सभी एक तरह के नहीं थे, सभी एक सतह के नहीं थे, कुछ आगे आगे थे, इस्फ़हान आगे आगे रहने वालों में है। दूसरीं जगहों पर भी अच्छी कोशिशें हुयीं। पूरे मुल्क में अवाम की मुख़्तलिफ़ पहलुओं पर आधारित इन कोशिशों की वजह से हम बड़े इम्तेहानों में से एक ऐसी आज़माइश में कामयाब हुए जिसकी मिसाल कम मिलती है। आठ साल का पाकीज़ा डिफेंस मामूली इम्तेहान नहीं था, बहुत बड़ा मरहला था, हमारी जवान नस्ल के बहुत से लोग नहीं जानते क्या हुआ था। आठ साल तक दुनिया की सारी ताक़तें एक तरफ़, ईरान एक तरफ़! कभी मिसाल के तौर पर किसी जगह कुछ घटनाएं होती हैं और किसी मुल्क पर हमले होते हैं, लेकिन पहली बात तो यह कि ये हमले इतने बड़े पैमाने पर नहीं होते और दूसरे यह कि बहरहाल कुछ होते हैं जो उसकी मदद भी करते हैं। हमारी कोई भी मदद नहीं कर रहा था। नेटो सद्दाम के साथ था, अमरीका ख़ास तौर पर सद्दाम के साथ था, पूर्व सोवियत संघ भी सद्दाम के साथ था, कुछ यूरोपीय मुल्कों ने भी जो न तो पूर्व सोवियस संघ पर निर्भर थे और न ही अमरीका पर, सद्दाम का साथ दिया जैसे युगोस्लाविया, मैंने जाकर क़रीब से देखा है (3) ये सब भी उसके साथ थे, यानी पूरी दुनिया एक तरफ़ और इस्लामी जुम्हूरिया एक तरफ़। तो इस जंग में लोगों के इन्हीं कामों से, लोगों के इन्हीं जज़्बों से, वह भी ख़ाली हाथ होने के बावजूद, ईरान कामयाब हुआ। हमने आठ साल की जंग में मुकम्मल और शानदार कामयाबी हासिल की। हमने फ़त्ह हासिल की, लेकिन मामला ख़त्म नहीं हुआ। मैं अब इस दूसरे बिन्दु पर कुछ बातें करना चाहता हूँ। साम्राज्यवाद और साम्राज्यवादी नेटवर्क से इस्लामी जुम्हूरिया के टकराव का मोटे तौर पर जायज़ा।

आप इस बात को ज़रा ध्यान से सुनिए। साम्राज्यवादी मोर्चे की नज़र में तकलीफ़ की वजह यहीं पर है। इस्लामी जुम्हूरिया से साम्राज्यवाद के टकराने की वजह यह है कि अगर इस्लामी जुम्हूरिया, यह सिस्टम तरक़्क़ी करे, आगे बढ़े, दुनिया में नाम कमाए तो पश्चिमी जगत का लिबरल डेमोक्रेसी का नज़रिया फ़ेल हो जाएगा। मैं इत्तेफ़ाक़ से एक बार यह बात इस्फ़हान में कह चुका हूं, इस्फ़हान के बड़े स्कवायर पर लोगों की बड़ी भीड़ में, मैंने इस प्वाइंट की तरफ़ इशारा किया था। (4) पश्चिम, लिबरल डेमोक्रेसी के नज़रिये से क़रीब 3 सदियों तक पूरी दुनिया को लूटता रहा, एक जगह यह कह कर घुस गए कि आज़ादी नहीं है, दूसरी जगह यह कह कर घुस गए कि डेमोक्रेसी नहीं है, डेमोक्रेसी लाने के बहाने और दूसरे बहानों से, उस मुल्क की संपत्ति को, ख़ज़ानों को, रिसोर्सेज़ को लूटकर ले गए। ग़रीब यूरोप, भारत जैसे अमीर मुल्क को मिट्टी में मिलाकर मालदार हो गया। भारत की यह हालत इन्होंने बनायी, आप नेहरू की इस किताब को- Glimpses of World History- अगर पढ़ें तो सही तरह से समझ जाएंगे कि क्या घटना घटी, और दूसरे बहुत से मुल्कों को, चीन को लूटा, दूसरी जगहों को तबाह किया। हालांकि ईरान सीधे तौर पर कॉलोनी नहीं बना, लेकिन यहाँ भी, लिबरल डेमोक्रेसी के नाम पर जो कर सकते थे उन्होंने किया, यानी आज़ादी और डेमोक्रेसी के नाम पर, आज़ादी और अवाम की हुकूमत के नाम पर उन्होंने मुल्कों पर क़ब्ज़ा किया, आज़ादी के ख़िलाफ़ भी, मुल्कों की जुम्हूरियत के ख़िलाफ़ भी जो कर सकते थे किया।

एक नमूना आँखों के सामने यही अफ़ग़ानिस्तान है। अबसे 21 साल पहले वह अफ़ग़ानिस्तान में घुसे ताकि उस हुकूमत को शिकस्त दें जिसके बारे में वह दावा कर रहे थे कि अवामी नहीं है, उसमें लोगों को आज़ादी नहीं है। अमरीकियों ने बीस साल तक अफ़ग़ानिस्तान में जुर्म किए, मुख़्तलिफ़ तरह के जुर्म किए, जितना मुमकिन था, चुराया, लूटा, क़त्ल किया, तबाह किया, परिवारों को ख़त्म किया, अख़लाक़ को ख़राब किया, बीस साल बाद अफ़ग़ानिस्तान को उसी हुकूमत के हवाले किया जिसके ख़िलाफ़ ये लोग वहाँ घुसे थे और इस ज़िल्लत के साथ बाहर निकले! यह एक नमूना है जो इस वक़्त आपकी नज़रों के सामने है।

तीन सौ साल, पहले यूरोप वालों ने, बाद में अमरीकियों ने लिबरल डेमोक्रेसी के नाम पर काली करतूतें की। अब अगर दुनिया में कोई हुकूमत, कोई सिस्टम ऐसा आ जाए जो लिबरल डेमोक्रेसी के विचार को ख़ारिज कर दे और सही विचार के ज़रिए लोगों को पहचान दे, मुल्क के अवाम को पहचान दे, उनमें जान भर दे, उन्हें बेदार कर दे, उन्हें ताक़तवर बना दे और लिबरल डेमोक्रेसी के ख़िलाफ़ डट जाए, लिबरल डेमोक्रेसी के इस विचार को ख़ारिज कर दे, तो वह इस्लामी जुम्हूरिया है! लिबरल डेमोक्रेसी, धर्म के इंकार की बुनियाद पर आधारित नज़रिया था, इस्लामी जुम्हूरिया धर्म की बुनियाद पर क़ायम हुआ, उन्होंने अवामी न होने का दावा किया जबकि इस्लामी जुम्हूरिया सही अर्थों में अवामी सिस्टम है।

सीधे तौर पर अपने प्रचारों में, अपने टीवी चैनलों में इंकार करते हैं, लेकिन वे जानते हैं, ख़ुद उन्हें पता है। यह जो आप देख रहे हैं कि यहाँ पर कुछ लोग कहते हैं कि आज़ादी नहीं है, अवामी हुकूमत नहीं है और इस तरह की दूसरी बातें, दरअस्ल उन्हीं की बातें दोहराते हैं, वरना आज़ादी होने की यही दलील है कि ये लोग सिस्टम के ख़िलाफ़ यही बातें कहते हैं और कोई उन्हें नहीं रोकता। अवामी होने की दलील यह है कि इमाम (ख़ुमैनी रहमतुल्लाह अलैह) के इंतेक़ाल के बाद से आज तक जो सरकारें सत्ता में आयीं, कोई भी दो सरकारें नज़रिये के लेहाज़ से एक जैसी नहीं थीं, एक सरकार आयी, उसके बाद दूसरी सरकार दूसरे विचार के साथ सत्ता में आयी, सीधी सी बात है कि फ़िक्री आज़ादी है। लोग आज़ाद हैं, चुनते हैं, एक वक़्त इसको चुनते हैं, दूसरे वक़्त किसी दूसरे को चुनते हैं।

तो इस्लामी जुम्हूरिया से पश्चिम और साम्राज्यवाद के टकराव की वजह यह है कि इस्लामी जुम्हूरिया तरक़्क़ी कर रही है, आगे बढ़ रही है और इस तरक़्क़ी को पूरी दुनिया देख रही है और इसे मान भी रही है और यही बात पश्चिम बर्दाश्त नहीं कर पा रहा है, इसे बर्दाश्त करने के लिए तैयार नहीं है, मुश्किल यहाँ पर है। टकराव इस बात पर है कि इस्लामी जुम्हूरिया तरक़्क़ी कर रहा है। अगर हम तरक़्क़ी नहीं करते, अगर हम इलाक़े में अपने ताक़तवर रोल का मुज़ाहेरा न करते, अगर अमरीका और साम्राज्यवाद के सामने हमारे लहजे में कंपकपाहट होती, अगर हम उनकी धौंस धमकी के सामने दब जाते, तो यह दबाव कम हो जाते। अलबत्ता वे हावी होने के लिए आते, लेकिन तब ये पाबंदियां, ये दबाव और इस तरह के चैलेंज कम हो जाते। जब जब दुनिया में इस्लामी जुम्हूरिया की मज़बूती का डंका बजा है-चूंकि इन बरसों में हालात अलग तरह के रहे, आप लोग तो जानते ही हैं- तब तब इस्लामी जुम्हूरिया को नुक़सान पहुंचाने की दुश्मन की कोशिशें तेज़ हुयीं।

तो हमारे सामने मुल्क में इस वक़्त बुनियादी चैलेंज तरक़्क़ी (रुक जाने) और ठहराव का चैलेंज है, या दूसरे लफ़्ज़ों में तरक़्क़ी और वापस लौटने का चैलेंज, चूंकि रुकने का मतलब है पीछे पलटना। जो भी रुक जाता है, हक़ीक़त में वह पीछे चले जाता है, चूंकि दुनिया आगे बढ़ रही है, अगर आप रुक गए तो पीछे रह जाएंगे। मसला यह है। हम तरक़्क़ी कर रहे हैं, तरक़्क़ी की कोशिश में हैं, वे चाहते हैं ऐसा न हो। दुनिया की सभी साम्राज्यवादी ताक़तें जिनमें मुख्य अमरीका और यूरोप है, इस्लामी जुम्हूरिया के तरक़्क़ी की ओर बढ़ते क़दम से तिलमिला रही हैं, बेचैन हो रही हैं, नाराज़ हो रही हैं, इसलिए वो मैदान में आती हैं और उनसे जो मुमकिन होता है करती हैं, अलबत्ता वे कुछ बिगाड़ नहीं सकतीं, अब तक कुछ नहीं कर पायीं, आगे भी कुछ नहीं बिगाड़ पाएंगी।

इस लड़ाई में दुश्मन की फ्रंट लाइन में अमरीका है, हम जो अमरीका का नाम लेते हैं, इसकी वजह यह है कि वह फ्रंट लाइन पर है, दूसरे भी हैं, लेकिन अमरीका के पीछे। इन्क़ेलाब की कामयाबी की इन कुछ दहाइयों के दौरान अमरीका के सभी प्रेज़िडेन्ट इन जो बरसों में इस्लामी जुम्हूरिया के ख़िलाफ़ फ्रंट लाइन पर रहे हैं, अब कहां हैं? कुछ नाबूद हो गए, मिट गए, ख़त्म हो गए, कुछ तो तारीख़ के कूड़ेदान में चले गए। चाहे ज़ाहिरी तौर पर ज़िन्दा ही क्यों न हों, डेमोक्रेट कार्टर, क्लिंटन और ओबामा से लेकर रिपब्लिकन रिगन, बुश और पिछले कम अक़्ल (5) और इस  बेचारे मौजूदा बदहवास (6) तक जो ईरान को नजात देना चाहता है, ईरानी अवाम को नजात देना चाहता है, इनमें से हर एक इस्लामी जुम्हूरिया के ख़िलाफ़ खड़े हुआ और हर एक ने अपने दोस्तों से जितनी मुमकिन थी मदद ली, ख़ास तौर पर ज़ायोनी हुकूमत को उकसाया, उसकी मदद की। यह भी कहा जाता है कि क़ाबिज़ ज़ायोनी हुकूमत उन्हें उकसाती है। जी हां मुमकिन है कुछ मौक़ों पर ऐसा हुआ हो, लेकिन ज़ायोनी शासन उनका पालतू कुत्ता है, इलाक़े में उनका कटखना कुत्ता है, उसका काम इलाक़े में फ़ितना फैलाना है, दबाव डालना है, अफ़सोस कि इलाक़े की कुछ हुकूमतों ने उसका साथ दिया। उन्होंने नुक़सान भी पहुंचाया -ऐसा नहीं है कि कुछ नहीं किया- लेकिन कुल मिलाकर वे नाकाम रहे, इस्लामी जुम्हूरिया को नहीं रोक पाए। उनकी कोई भी साज़िश कामयाब नहीं हुयी, यानी उनका मक़सद नहीं पूरा हुआ। जी हां, कुछ मुश्किलें पैदा कीं, लेकिन वे अपना मक़सद हासिल नहीं कर पाए, न तो पाबंदी, न ही साइंसटिस्टों की टार्गेट किलिंग, न ही कुछ लोगों को रिश्वत देना ताकि वे मुल्क के भीतर इस्लामी गणराज्य के ख़िलाफ़ बोलें, न ही मुख़्तलिफ़ तरह के उनके सियासी व सेक्युरिटी के हथकंडे, कोई भी उस फ़ैक्टर को नाकाम नहीं कर पाया जिसके ज़रिए ईरानी क़ौम आगे बढ़ रही है, तरक़्क़ी और रेज़िस्टेंस कर रही है।

तो इस वक़्त हम इस तरह के हालात में हैं। हम सबका फ़रीज़ा -मुल्क के ओहदेदारों का भी, एक एक शख़्स का भी, समाज के रौशन ख़्याल लोगों का भी, ऐक्टिव जवानों का भी, समाज के ग़ौर मामूली सलाहियत वालों का भी, साइंटिफ़िक सोसाइटियों का भी, चाहे मदरसे हों, चाहे यूनिवर्सिटियां हों- यह बख़ूबी समझना है कि हमें तरक़्क़ी करनी चाहिए। आज तरक़्क़ी करना हमारा फ़रीज़ा है, सभी मैदानों में। हमें तरक़्क़ी करनी चाहिए, हमें साइंटिफ़िक तरक़्क़ी करनी चाहिए, आर्ट के मैदान में हमें तरक़्क़ी करनी चाहिए, इकनॉमिक तरक़्क़ी करनी चाहिए, सियासी मैदान में तरक़्क़ी करनी चाहिए, इन तरक़्क़ियों से सिस्टम मज़बूत होता है, सिस्टम को ताक़त मिलती है। जब आप ताक़तवर हो जाते हैं तो दुश्मन आपको टेढ़ी नज़र से नहीं देख सकता। दुश्मन का टार्गेट यह है कि सत्ता के पिलर्ज़ को कमज़ोर कर दे, आप लोग तो देख ही रहे हैं कि वे नहीं चाहते सिस्टम मज़बूत हो। हम सबको तरक़्क़ी की कोशिश करनी चाहिए, चूंकि तरक़्क़ी हमें ताक़तवर बनाती है, हमें सेल्फ़ डिपेंडेंट बनाती है, हमें मज़बूत करती है। अगर ये तरक़्क़ियां- साइंटिफ़िक तरक़्क़ी भी, रूहानी तरक़्क़ी भी, अख़लाक़ी तरक़्क़ी भी, इकनॉमिक तरक़्क़ी भी, सियासी तरक़्क़ी भी- जारी रहे, अल्लाह के शुक्र से अब तक ऐसा ही रहा है, तो दुश्मन बेचैन हो जाएगा, दुश्मन इस चीज़ से बहुत डरा हुआ है। तो वह रोकने के लिए जो भी बन पड़ रहा है कर रहा है।

हम कैसे तरक़्क़ी करें? तरक़्क़ी के कई साधन हैं, मुख़्तलिफ़ साधन हैं, मैं सिर्फ़ एक अहम प्वाइंट की तरफ़ इशारा करना चाहता हूं और वह 'उम्मीद' है। 'उम्मीद' तरक़्क़ी का सबसे अहम साधन है और दुश्मन ने इसी को निशाना बनाया है। दुश्मन मन में नाउम्मीदी भरने और बंद गली में होने का एहसास दिलाने के लिए पूरी कोशिश में लगा हुआ है। एक जवान जिसे दुनिया के मुद्दों की समझ नहीं है, आप देखते हैं कि उस पर असर होता है और वह मायूस हो जाता है, जब मायूस हो जाता है तो फिर काम नहीं करता। तरक़्क़ी के लिए 'उम्मीद' की ज़रूरत होती है। तरक़्क़ी को उम्मीद की ज़रूरत होती है। दुश्मन ने ईरानी क़ौम की उम्मीद को टार्गेट किया है। दुश्मन की तरफ़ से बड़े पैमाने पर इस्तेमाल होने वाले ये संसाधन, ये मीडिया, ये सैटेलाइट्स, ये अजीब व ग़रीब साइबर स्पेस, यह बिके हुए टीवी चैनल, ये सबके सब इसलिए हैं कि लोगों के मन से इस उम्मीद को ख़त्म कर दें। ख़ुशक़िस्मती से उम्मीद बाक़ी है -मैं अभी इस सिलसिले में एक बात की तरफ़ इशारा करुंगा- लेकिन वे नहीं चाहते कि हमारे जवानों में उम्मीद बाक़ी रहे, नहीं चाहते कि हमारे ओहदेदारों के मन में उम्मीद बाक़ी रहे, इन लोगों ने ओहदेदारों पर नज़रें लगा रखी है कि उनके मन से भी उम्मीद को ख़त्म कर दें, अफ़सोस के मुल्क के भीतर भी उनके संपर्क हैं, मैं यह कहने पर मजबूर हूं। इंसान का दिल नहीं चाहता कि यह बात सच हो लेकिन है! मुल्क के भीतर उनके राबेते हैं और यह सिलसिले नाउम्मीदी फैलाने के हैं, मायूसी फैलाने के हैं। ʺकोई फ़ायदा नहीं हैʺ, ʺकुछ हासिल नहीं होगाʺ, ʺहम क्या कर लेंगेʺ, इस तरह की बातें आप सुनते रहते हैं। मुल्क के भीतर भी कोई अख़बार या कोई सोशल मीडिया वर्कर, इस तरह की बातें करता है, यह भी वही सिलसिला है।

इस तरह की बातों के मुक़ाबले में एक ज़मीनी हक़ीक़त मौजूद है। वह हक़ीक़त यह है कि हम आगे बढ़ रहे हैं। हम तरक़्क़ी कर रहे हैं। अलबत्ता इकनॉमिक मुश्किलें हैं -मैं इकनॉमिक मुश्किलों का इंकार करना नहीं चाहता, ये भी इंशा अल्लाह हल हो जाएंगी- लेकिन दूसरे मैदानों में हम लगातार आगे बढ़ रहे हैं। वे नहीं चाहते कि ख़ास तौर पर जवान नस्ल इन तरक़्क़ियों के बारे में जाने, इसलिए उसे छिपाते हैं। मुल्क के भीतर उनका सिलसिला भी जिसका मैनें ज़िक्र किया, ऐसा ही है, हमारी बहुत सी तरक़्क़ियां छिपायी जाती हैं, उन्हें छोटा करके दिखाया जाता है।

इस वक़्त जो मैंने नोट किया है, आपको बताता चलूं कि इन कुछ हफ़्तों के दौरान, कुछ शैतानी फ़ितरत के या धोखा खाए हुए लोगों ने कुछ सड़कों पर आकर दंगा किया, इन्हीं दंगों के दौरान बड़े बड़े काम हुए। अगर हम दूसरे हफ़्तों या महीनों में हुए कामों को भी इसमें शामिल कर दें तो एक बड़ा नतीजा हाथ आएगा। 

ईरानी साइंटिस्टों की ब्लड कैंसर के इलाज के नए तरीक़े की खोज, यह तरक़्क़ी है, बहुत अहम तरक़्क़ी है, छोटी बात नहीं है। 

तेल और गैस निकालने वाली मशीन का लोकलाइज़ेशन, हमारे पास मौजूद नेचुरल रिसोर्सेज़ में से एक अहम रिसोर्स तेल और गैस है। हमें तेल और गैस निकालने के लिए इनोवेशन की ज़रूरत है, यह इनोवेशन हो रहा है, इन्हीं कुछ हफ़्तों के दौरान, इस काम के लिए एक बड़ा क़दम उठाया गया, तो यह एक बड़ा काम है।

सीस्तान-व-बलोचिस्तान में रेलवे लाइन का उद्घाटन हुआ। यह रेलवे लाइन बहुत पहले से यानी इंक़ेलाब की कामयाबी के शुरुआती के वक़्त से -इंक़ेलाब से पहले तो इसकी बात भी नहीं थी- एक अहम आरज़ुओं में से एक यह थी कि हम नार्थ से साउथ की ओर रेलवे लाइन बिछाएं। इसी का हिस्सा बलोचिस्तान की रेलवे लाइन भी है। नार्थ से साउथ रेलवे नेटवर्क है, इन्हीं कुछ दिनों के भीतर, इस रेलवे नेटवर्क के एक अहम हिस्से का उद्घाटन हुआ। यह तो बड़ा काम है, यह तरक़्क़ी है।

कई कारख़ाने शुरू हो गए, मुल्क से बाहर रिफ़ाइनरी का निर्माण, छह बिजली घरों का ऑप्रेशनल होना, इन्हीं कुछ हफ़्तों के दौरान, दुनिया के सबसे बड़े टेलीस्कोपों में से एक टेलीस्कोप का इन्हीं दिनों अनावरण हुआ, दुनिया के सबसे बड़े टेलीस्कोपों में से टेलिस्कोप का काम इन्हीं दिनों पूरा हुआ, अनावरण हुआ, सैटेलाइट ले जाने वाले रॉकेट और एक नए मिसाइल का अनावरण हुआ। इसी तरह दूसरी चीज़ें इन्हीं कुछ हफ़्तों के कारनामे हैं कि जिनके दौरान बलवे भी हुए। अगर एक एक करके गिना जाए तो बहुत होंगे। वे नहीं होने दे रहे हैं, वे नहीं चाहते कि जवान नस्ल को इन सब बातों के बारे में पता चले, इन सब चीज़ों को छोटा ज़ाहिर करते हैं, नीचा दिखाते हैं, इंकार करते हैं। ख़ैर हमने डिफ़ेन्स के मैदान में बहुत तरक़्क़ी की है, वे इंकार करते थे, उसकी तस्वीर दिखाते और कहते थे कि ये फ़ोटोशॉप का कमाल है, यह हक़ीक़त नहीं है, बाद में वे ख़ुद ही यह मानने पर मजबूर हुए, उन्हें एतराफ़ करना ही पड़ा।

तो ये सब वे काम हैं जिनकी ओर हमने इशारा किया, अपने आप में यह बहुत अहम काम हैं और इस लेहाज़ से भी अहम हैं कि यह समाज में काम और लगन की निशानी हैं, यानी समाज ठहरा हुआ नहीं है, हरकत में है, तरक़्क़ी कर रहा है, यह बहुत अहम है कि समाज तरक़्क़ी और हरकत की हालत में हो। ईरानी जवान ज़िन्दा दिल है, जोश से भरा है, वह भी दुश्मन की शैतानी हरकतों के दिनों में। तो अगर आप ईरान से मोहब्बत करते हैं तो आपकी ईरान से मोहब्बत की एक निशानी व कसौटी यह है कि आप लोग उम्मीद जगाइये, अगर आपने मायूसी पैदा की, तो ख़ुद को ईरान से मोहब्बत करने वाला नहीं कह सकते। ईरान से दुश्मनी की एक बड़ी निशानी, मायूसी पैदा करना है, उम्मीद को ख़त्म करना है, बेबसी की सोच मन में बिठाना है, बंद गली में होने का एहसास कराना है, ये सब ईरान से दुश्मनी की निशानियां हैं। जो लोग ईरान से मोहब्बत करते हैं, इसके सामने वाले प्वाइंट की ओर हरकत करते हैं। ऐसा न होने दीजिए कि जो लोग ईरान के दुश्मन हैं, वे क़ौमी हितों की रक्षा की आड़ में ग़लत लेबास पहन लें, अपना रूप बदल लें और इस तरह के काम करें, मतलब यह है कि कसौटियों को सामने रखिए। आप राइटर्ज़, आप शायर, आप आलिम, आप धर्मगुरू ईरान से मोहब्बत करते हैं, इस्लामी ईरान को पसंद करते हैं, बहुत अच्छी बात है, उम्मीद जगाइये। अगर इसके बरख़िलाफ़ हुआ, तो दावे को क़ुबूल नहीं किया जा सकता।  

तो इस बिना पर मुद्दा, तरक़्क़ी का मुद्दा है। मैं मुख़्तसर करता हूं। साम्राज्यवादी दुनिया से हमारी टकराव की वजह यह है कि हम तरक़्क़ी कर रहे हैं, हम तरक़्क़ी करने का इरादा रखते हैं, वह हमारी तरक़्क़ी को अपने नुक़सान में देखता है, यह हमारे सामने अस्ल चैलेंज है। अमरीका और साम्राज्यवादी सरकारों और उनके जैसी सरकारों की मर्ज़ी है कि इस्लामी ईरान को तरक़्क़ी नहीं करना चाहिए! इसके मुक़ाबले में हम कहते हैं कि इस्लामी ईरान को इस्लाम का परचम बुलंद करने के लिए ज़रूर तरक़्क़ी करनी चाहिए।

तीसरी बात जो मैंने कही कि दंगों के बारे में हैं, कुछ जुमलों में पेश करुंगा। दंगों को डायरेक्शन देने वाले, जो पर्दे के पीछे हैं-उन लोगों के अलावा जो सड़कों पर आते हैं, वे लोग भी जो पर्दे के पीछे हैं और हालात को रुख़ देना चाहते हैं- वे लोगों को सड़कों पर लाना चाहते हैं और अब जबकि ऐसा नहीं कर सके तो वे शैतानी हरकतें करना चाहते हैं ताकि मुल्क के ओहदेदारों और सिस्टम को थका दें। यह उनकी ग़लतफ़हमी है, इन शैतानी हरकतों की वजह से अवाम तंग आ जाएंगे, उनसे और बेज़ार हो जाएंगे, और ज़्यादा नफ़रत करेंगे। अवाम तो इन लोगों से -दुष्ट लोगों से- नफ़रत करते हैं, इस काम को जारी रखने से अवाम में नफ़रत और बढ़ जाएगी।

पहली बात यह कि इस तरह के वाक़यों से अवाम के लिए मुश्किलें पैदा होती है, सड़कों पर आपको अपनी दुकानों को बंद करना पड़ता है, अपनी कार को रोकना पड़ता है और इस तरह के दूसरे काम करने पड़ते हैं, वे मुश्किलें खड़ी करते हैं, वे लोग जुर्म  भी करते हैं, नुक़सान पहुंचाते हैं, इस तरह के काम करते हैं, लेकिन जो लोग सड़कों पर हैं और जो लोग उन्हें गाइड कर रहे हैं, वे सब मिलकर भी इस्लामी सिस्टम का कुछ नहीं बिगाड़ पाएंगे। इस बात में शक नहीं कि इन हंगामों की बिसाट लपेट दी जाएगी, उस वक़्त ईरानी क़ौम ज़्यादा मज़बूती के साथ, ज़्यादा जोश के साथ मैदान में आकर तरक़्क़ी को क़दम बढ़ाएगी। यह काम का मेज़ाज है, ईमान रखने वाली क़ौम का यह मेज़ाज होता है। जी हाँ उसके सामने घटना होती है, लेकिन मुमकिन है जिस वाक़ए में ख़तरा हो, उसे अपने लिए मौक़े में बदल दे। हादसों को, ख़तरों को अपने लिए मौक़े में बदल देती है। अब तक ऐसा ही रहा है, इस्लाम के आग़ाज़ में ऐसा ही था।

हमारे भाई ने इस आयत तिलावत कीः और सच्चे अहले ईमान का हाल यह था कि जब उन्होंने लश्करों को देखा तो कहने लगे कि यह है वह लश्कर जिसका अल्लाह और रसूल ने वादा किया था, और अल्लाह और रसूल ने सच फ़रमाया था। (सूरे अहज़ाब, आयत-22) जंगे अहज़ाब छोटी जंग नहीं थी, अरब के सभी क़बीले, क़ुरैश, ताएफ़, मक्का और दूसरी जगहों से इकट्ठा हुए और कुछ हज़ार की आबादी वाले मदीना पहुंचे जंग के लिए। जंगे अहज़ाब थी, इससे दिलों में कंपकपी आ जानी चाहिए थी, लेकिन जब मोमिनों ने देखा तो कहाः यह है वह लश्कर जिसका अल्लाह और रसूल ने वादा किया था, उन्होंने कहा यह नई चीज़ नहीं है। अल्लाह ने कहा था आएंगे, तुम्हारे दुश्मन हैं, दुश्मन तुम्हारी तरफ़ आएंगे, तो वे आ गए, और इस बात ने उनके ईमान और तस्लीम के जज़्बे में इज़ाफ़ा कर दिया, (7) वैसा ही मौक़ा है। ख़तरा था, उस ख़तरे से सही तरह से फ़ायदा उठाया, उनका ईमान बढ़ गया, यानी ईमान को बढ़ाने का एक मौक़ा सामने आया। इस्लाम के आग़ाज़ में और हमेशा से ऐसा ही रहा है।

पाकीज़ा डिफ़ेंस के मामले में भी इसी तरह, पाकीज़ा डिफ़ेंस जंगे अहज़ाब की तरह थी, इसमें भी हर तरफ़ से हमले हुए। ईरानी क़ौम ने इस ख़तरे को मौक़े में बदला, वह मौक़ा क्या था? वह मौक़ा यह था कि पूरी दुनिया को दिखा दिया कि ईरानी क़ौम शिकस्त नहीं खाती। सभी तो आए थे, अमरीका ने सपोर्ट किया, यूरोप ने सपोर्ट किया, नेटो ने सपोर्ट किया और उस वक़्त के वॉर्सा ने -वॉर्सा पैक्ट कम्यूनिस्टों का था- सद्दाम का सपोर्ट किया, सभी ने सपोर्ट किया, लेकिन ईरान नहीं हारा, ईरानी क़ौम नहीं हारी, यह एक तारीख़ हुयी, यह मौक़ा है। दुनिया की ताक़तें जब भी यह सोचती हैं कि उन्हीं के लफ़्ज़ों में सभी ऑप्शन मेज़ पर हैं, सभी नए ऑप्शन मेज़ पर -तो इन आप्शनों में एक ऑप्शन फ़ौजी ऑप्शन होता है- जब भी इस बारे में सोचती हैं तो उन्हें आठ साल की थोपी गयी जंग याद आ जाती है, वे जानती हैं कि ईरानी क़ौम शिकस्त नहीं खाती, बहुत बार ईरानी क़ौम अपने विरोधियों, अमरीका को, दूसरों को कह चुकी है कि आप आएंगे तो अपने अख़्तियार से लेकिन आपका जाना आपके बस में नहीं होगा! हो सकता है आगे आ जाएं लेकिन फिर घिर जाएंगे, सख़्त बदला लेंगे! ईरानी क़ौम ने थोपी गयी जंग को मौक़े में बदला। 25 आबान को मौक़े में बदला, उन्होंने इस तरह मौक़े में बदला कि उनका जोश बढ़ गया, जैसा कि मैंने कहा कि जंग के मोर्चे की ओर इस्फ़हान के बहादुर जवानों के रवाना होने का सिलसिला तेज़ हो गया।

हालिया दंगों में भी इसी तरह है, इन दंगों में भी कथित ख़तरे को -उन्होंने इसे ईरानी क़ौम के लिए ख़तरा समझा-ईरानी क़ौम ने मौक़े में बदल दिया। क्या किया? अपनी हक़ीक़त और अपने रुझान को दिखा दिया, कहाँ? 4 नवंबर को, इस साल का 4 नवंबर, सभी गुज़रे बरसों से अलग था। कुछ लोग अमरीका की इच्छा पर सड़कों पर आए, लेकिन अज़ीम ईरानी  क़ौम ने 4 नवंबर को बाहर निकलकर अमरीका के ख़िलाफ़ नारे लगाए, एक नमूना 4 नवंबर है। एक और नमूना, इन शहीदों की शवयात्रा है। इन दिनों एक प्यारा, एक जवान शहीद होता है -इन्हीं प्यारे शहीदों में कोई सेक्युरिटी का शहीद है, कोई स्वयंसेवी शहीद है, कोई पुलिस फ़ोर्स का शहीद है, या आम लोगों में जो शहीद हो रहे हैं- मिसाल के तौर पर फ़र्ज़ कीजिए शहीद रूहुल्लाह अजमियान कि एक अनजान जवान है, लेकिन उसकी शहादत पर बहुत बड़ी भीड़ उनकी शवयात्रा के लिए बाहर आती है! यह अवाम का रिएक्शन है। उस ख़तरे को मौक़े में बदल देते हैं, यानी अवाम ख़ुद को ज़ाहिर करते हैं, कहते हैः हम इस तरह के हैं। तुम हमारे जवानों को शहीद करते हो, हम सब इन जवानों के साथ हैं! उस स्थिति के ठीक विपरीत जो दुश्मन दिखाना चाहता है कि ईरानी क़ौम सड़क पर आई, ईरानी क़ौम फ़ुलां के ख़िलाफ़ है, ईरानी क़ौम ने ऐसा किया, लेकिन क़ौम ने ख़ुद को दिखा दिया। इस ख़तरे को इस्तेमाल किया, मौक़े में बदला।

दूसरा मौक़ा जो हाथ लगा वह यह कि दंगों को गाइड करने वालों का असली चेहरा सामने आ गया। गाइड करने वाले ख़ुद को ईरानी क़ौम का सपोर्टर ज़ाहिर करते हैं लेकिन ईरानी क़ौम की इच्छाओं, अक़ीदों और पाक स्थलों से दुश्मनी निकाली, इस्लाम से दुश्मनी निकाली, मस्जिद को जलाया, क़ुरआन को जलाया, ईरान से दुश्मनी निकाली, ईरान के परचम को जलाया, ईरानी क़ौम के नेश्नल एंथम की बेइज़्ज़ती की, इन लोगों का असली चेहरा सामने आ गया। वे ईरानी क़ौम के सपोर्टर होने का दावा करते हैं, तो ईरानी क़ौम मुसलमान है, क़ुरआन को मानने वाली क़ौम है, इमाम हुसैन को मानने वाली क़ौम है। तुम इमाम हुसैन की तौहीन करते हो, गाली बकते हो, बेहयाई करते हो, तुम ईरानी क़ौम के सपोर्टर हो? अरबईन की तौहीन करते हो, मिलियन मार्च की तौहीन करते हो, तुम ईरानी क़ौम के सपोर्टर हो? तो इन दंगों को गाइड करने वालों का अस्ली चेहरा भी सामने आ गया। इसलिए इन दंगों के तअल्लुक़ से एक बात जो कही जा सकती है वह यह कि ईरानी क़ौम ने इस ख़तरे को अपने लिए कई मौक़ों में बदल दिया।

सरग़नाओं से निपटने के बारे में एक और अहम बात। कुछ सरग़ना हैं, कुछ धोखे में आने वाले लोग हैं, कुछ लोग पैसे लेकर हंगामा कर रहे हैं, कुछ ने ग़द्दारी की है, ये सबके सब एक जैसे नहीं है। जो लोग सिर्फ़ धोखे में आ गए हैं और उन्होंने कोई जुर्म नहीं किया है, उन्हें आगाह करना चाहिए, नसीहत करनी चाहिए, हिदायत करनी चाहिए-चाहे यूनिवर्सिटी के स्टूडेंट्स हों, चाहे ग़ैर स्टूडेंट्स हों, चाहे सड़कों पर हों याहे यूनिवर्सिटी में हों- उससे पूछना चाहिए कि तुम्हारी यह हरकत ईरान की तरक़्क़ी में मददगार है या ईरान की तरक़्क़ी के ख़िलाफ़ है? उसे सोचने पर मजबूर करना चाहिए। ये धोखा खाए हुए लोग हैं। उसे सोचने पर मजबूर कीजिए। जो शख़्स दुश्मन की इच्छा पर ध्यान दिए बिना, उसका साथ दे रहा है, उसे जगाना चाहिए, उससे कहना चाहिएः “दुश्मन वहाँ है, होश में आओ दुश्मन की आवाज़ में आवाज़ मित मिलाओ” इमाम ख़ुमैनी रहमतुल्लाह अलैह के लफ़्जों में जितना चिल्लाना है अमरीका पर चिल्लाओ। (8) तो यह बात थी उन फ़रेब खाए हुए लोगों के बारे में।

 

लेकिन जिस शख्स ने क़त्ल किया या नुक़सान पहुंचाया या धमकियां दीं- किसी दुकानदार को धमकी दी कि बंद करो वरना तुम्हारी दुकान को आग लगा देंगे, गाड़ी वाले को धमकी दी कि रुको या रुककर हार्न बजाओ या इस तरह की हरकतें करो वरना तुम्हारी कार को ऐसा कर देंगे, वैसा कर देंगे, धमकी देने वाला- इन लोगों को सज़ा मिलनी चाहिए, उनके जुर्म के मुताबिक़ उन्हें सज़ा मिलनी चाहिए। क़ातिल को एक तरह से, नुक़सान पहुंचाने वाले को दूसरी तरह से, जो शख़्स इन लोगों को प्रचार के ज़रिए इस तरह की हरकतों के लिए उकसाता है, उसे अलग तरह से, हर एक को उनके जुर्म के मुताबिक़ सज़ा मिले। अलबत्ता यह बात भी अर्ज़ कर दूं कि सज़ाएं न्यायपालिका के ज़रिए मिलें। किसी को यह हक़ हासिल नहीं है कि अपने तौर पर किसी को सज़ा दे। नहीं! न्यायपालिका है, ताक़तवर है, अल्लाह के करम से मज़बूत, सरगर्म और सक्रिय भी है, वह उन्हें सज़ा दे। तो नसीहत भी है और सज़ा भी है, पैग़म्बरे इस्लाम की तरह, अल्लाह के रसूल की तरह। अमीरुल मोमेनीन पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहि व आलेही व सल्लम के बारे में फ़रमाते हैः ʺहरकत में रहने वाला हकीम जिसने मरहम भी तैयार रखा है और दाग़ने का औज़ार भी तैयार कर लिया है।ʺ (9) उन्होंने ज़ख़्म पर लगाने के लिए उसका मरहम भी तय्यार किया और दाग़ने के औज़ार भी। पुराने ज़माने में जब ज़ख़्म अच्छे नहीं होते थे तो उसे दाग़ा जाता था, एक लोहे को आग में डालते, जब लाल हो जाता तो उसे ज़ख़्म पर रखते थे ताकि ज़ख़्म अच्छा हो जाए। अमीरुल मोमेनीन फ़रमाते हैं कि पैग़म्बरे इस्लाम ने मरहम भी तय्यार किया और लोहे को भी गर्म किया, दोनों तय्यार हैं।

सादी के बक़ौलः

दुरुश्ती व नर्मी बहम दरबे अस्त - चू रग ज़न के जर्राहो मरहम ने अस्त (10)

सख़्ती और नर्मी दोनों एक साथ अच्छे हैं, उस रग काटने वाले की तरह जो सर्जन भी है और मरहम रखने वाला भी है। सर्जरी भी करता है और मरहम भी रखता है, दोनों काम अंजाम पाने चाहिए। यह दूसरी बात हुयी।

एक और बात यह कि अभी तक तो अल्लाह के करम से दुश्मन को शिकस्त हुयी है। दुश्मन, अवाम को मैदान में लाना चाहता था, अवाम ने बता दिया कि वे दुश्मन के साथ नहीं हैं। अलबत्ता दुश्मन, मीडिया में बढ़ा-चढ़ा कर दिखाता है, झूठी भीड़, झूठा मजमा, आप दुश्मन के मुख़्तलिफ़ तरह के मीडिया प्लेटफ़ार्म देखते ही हैं, वह इस तरह ज़ाहिर करता है कि ग़ाफ़िल और बेख़बर इंसान को लगे कि सच में कुछ हो रहा है, जबकि हक़ीक़त में ऐसा नहीं है। जो चीज़ नुमायां और अज़ीम है वह अवाम की इंक़ेलाब की ख़िदमत और इंक़ेलाब के मैदानों में मौजूदगी है, जी हाँ यह बहुत अज़ीम है लेकिन वह नहीं, वह चाहते थे कि अवाम को मैदान में ले आएं लेकिन अवाम ने उन्हें ज़न्नाटेदार थप्पड़ रसीद किया। अलबत्ता मैं यह अर्ज़ कर दूं कि दुश्मन के पास हर दिन के लिए अलग तरह की चाल है, अलग तरह की मक्कारी है, यहाँ पर उसे हार हुयी, पता नहीं है कि वह बाज़ आएगा, वह दूसरी जगह जाएगा, अलग अलग तबक़ों को वरग़लाएगा, मज़दूरों को वरग़लाएगा, औरतों को वरग़लाएगा, अलबत्ता हमारी शरीफ़ औरतें, हमारे शरीफ़ मज़दूर इस बात से कहीं बुलंद हैं कि दुश्मन के वरग़लाने में आएं, दुश्मन के धोखे में आएं, यह बात तो पक्की है।    

तो दुश्मन का जो टार्गेट था वह उसे हासिल नहीं हुआ, लेकिन जो बात हक़ीक़त है समाज में, यह है कि हम इकनॉमिक मुश्किल में हैं, हमारे सामने मुश्किलें हैं। इस वक़्त जो हमारी सबसे बड़ी मुश्किल है वह इकनॉमिक मुश्किल है। आप तो जानते हैं कि मैं बरसों से हर साल का नारा किसी न किसी इकनॉमिक प्वाइंट को क़रार देता हूं और ओहदेदारों से कहता हूं कि वे इस मुश्किल को हल करने की कोशिश करें, इस प्वाइंट के पीछे लग जाएं। 2010 की दहाई इकनॉमिक नज़र से हमारे लिए अच्छी दहाई नहीं थी। कई तरह की मुश्किलें हमारे सामने आयीं। अगर उन नतीहतों पर, उन कामों को जिसे इंशा अल्लाह अंजाम देने का इरादा है और अंजाम दे रहे हैं, उन दिनों अंजाम दिया होता, तो आज हमारी हालत बेहतर होती। आख़िरकार पाबंदियों का असर तो होता है, जो उपाय किए जाते हैं उनका असर होता है, मैनेजमेंट का असर होता है, इन सभी चीज़ों का असर होता है। मैं देखता हूं –इंसान को जो नज़र आता है वह यह है- कि ओहदेदार हक़ीक़त में कोशिश कर रहे हैं, पूरी संजीदगी से कोशिश कर रहे हैं, काम कर रहे हैं, बहुत से मामलों में उनके कामों का असर हो रहा है, इसी इकनॉमिक हालत पर भी असर है, लेकिन बहरहाल इकनॉमिक मुश्किल तो है। अलबत्ता इन दिनों दुनिया के मुख़तलिफ़ मुल्कों को इकनॉमिक मुश्किलों का सामना है, हमें भी सामना है। हमे कोशिश करनी चाहिए, इंशा अल्लाह इस मुश्किल को दूर कर दें। यह चीज़, अवाम की ओर से ओहदेदारों को सपोर्ट, हुकूमत के साथ क़ौम के सपोर्ट, एकता, हमदिली और एक दूसरे का हाथ बटाने से इंशा अल्लाह हासिल होगी और इकनॉमिक मैदान में भी ईरानी क़ौम अल्लाह की मदद से दुश्मन के मुंह पर तमांचा रसीद करेगी।

हमें उम्मीद है कि अल्लाह आप प्यारे लोगों को अपनी रहमत व बरकत में से नवाज़े। हमे उम्मीद है कि इंशा अल्लाह इस्फ़हान के अवाम दिन ब दिन ज़्यादा ख़ुशक़िस्मत, ज़्यादा ज़िन्दा दिल, ज़्यादा तय्यार और इंशा अल्लाह इंक़ेलाब की फ़्रंट लाइनों में ज़्यादा हाज़िर रहेंगे। उम्मीद है इमाम की पाक रूह, हमसे, आपसे राज़ी होगी, हम भी, जो प्यारे अवाम, ख़िदमत करने वाले अवाम के तअल्लुक़ से हमारी ज़िम्मेदारी है, उसे अंजाम दे पाएं, इंशा अल्लाह।

वस्सलामो अलैकुम व रहमतुल्लाहे व बरकातोह

 

  1. इस मुलाक़त के शुरू में इस्फ़हान के इमामे जुमा और आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई के नुमाइंदे हुज्जतुल इस्लाम वलमुस्लेमीन सैय्यद यूसुफ़ तबातबाई नेजाद ने कुछ बातें पेश कीं।
  2. 16 नवंबर सन 1982 को मोहर्रम ऑप्रेशन में शहीद होने वाले इस्फ़हान के 370 जवानों का जुलूसे जनाज़ा निकाला गया था, जिनमें बड़ी तादाद में अवाम ने शिरकत की थी।
  3. मार्च 1989 में सुप्रीम लीडर के प्रेज़िडेंट की हैसियत से युगोस्लाविया के दौरे की तरफ़ इशारा
  4. इस्फ़हान के अलग अलग तबक़ों के लोगों से मुलाक़ात में स्पीच 30-10-2001
  5. डोनल्ड ट्रम्प
  6. जो बाइडन
  7. सूरए अहज़ाब, आयत 22 और सच्चे अहले ईमान का हाल यह था कि जब उन्होंने लश्करों को देखा तो कहने लगे कि यह है वह लश्कर है जिसका अल्लाह और रसूल ने वादा किया था, और अल्लाह और रसूल ने सच फ़रमाया था और इस बात ने उनके ईमान और तस्लीम के जज़्बे में इज़ाफ़ा कर दिया।
  8. सहीफ़ए इमाम, जिल्द-11, पेज 121
  9. नहजुल बलाग़ा, ख़ुतबा-108, पैग़म्बरे इस्लाम ऐसे तबीब थे जो अपनी तबाबत के साथ चक्कर लगा रहा हो और उसने अपने मरहम को तैय्यर कर लिया हो और दाग़ने के औज़ार को भी तपा लिया हो।
  10. गुलिस्ताने सादी, आठवीं युनिट