बिस्मिल्लाह-अर्रहमान-अर्रहीम

अरबी ख़ुतबे का तरजुमाः सारी तारीफ़ कायनात के परवरदिगार के लिए  है और दुरूद व सलाम हो हमारे सरदार हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैहि व आलेही व सल्लम और उनकी पाकीज़ा नस्ल पर, चुने हुए साथियों पर और उन पर जो भलाई में उनके नक़्शे क़दम पर चलने वाले हैं क़यामत के दिन तक।

मोहतरम हाज़ेरीन, मुल्क के सम्मानीय अधिकारियों और इस्लामी युनिटी कांफ़्रेंस के अज़ीज़ मेहमानों का स्वागत करता हूं और यहाँ मौजूद आप सभी प्रिय लोगों, पूरी ईरानी क़ौम और दुनिया के पूरब व पश्चिम में पूरे इस्लामी जगत को पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहि व आलेही व सल्लम और इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम के मुबारक जन्म दिन की मुबारकबाद पेश करता हूं। हमें उम्मीद है कि हुज़ूरे पाक और अल्लाह की इनायत की बरकतें अज़ीम मुसलमान क़ौम और इस्लामी जगत के लिए इंशाअल्लाह तरक़्क़ी का सबब होंगी। पैग़म्बरे इस्लाम की बेमिसाल शख़्सियत में एक चरम बिन्दु पाया जाता है और वह है आपके पैग़म्बर होने का एलान। पैग़म्बरे इस्लाम की शख़्सियत पूरी कायनात में बेनज़ीर व बेमिसाल है। इस शख़्सियत की सबसे बड़ी बुलंदी वह मौक़ा है जब अज़मत, इज़्ज़त और हिकमत को वजूद देने वाली हस्ती यानी अल्लाह से हुज़ूर के पाकीज़ा मन का रिश्ता क़ायम हुआ, यानी आपकी पैग़म्बरी के एलान का लम्हा। यह सही है लेकिन पैग़म्बरे इस्लाम की ज़िन्दगी का हर लम्हा यहाँ तक कि पैग़म्बर बनने के बाद की ज़िन्दगी का हर लम्हा पैग़म्बर चुने जाने की अज़मत से प्रभावित और उसी के तहत है। यानी ऐसा नहीं है कि हम फ़र्ज़ कर लें कि पैग़म्बरी के एलान से पहले, पैग़म्बरे इस्लाम की ज़िन्दगी एक आम इंसान की ज़िन्दगी थी, नहीं! हुज़ूरे पाक के काम, उन पर अल्लाह की बरकतें, बरकतों में डूबे उनके वजूद से भौतिक दुनिया में आने वाले बद्लाव, ये सब ग़ैर मामूली बातें हैं। सबके सब उनकी शख़्सियत की अज़मत की ऊंचाइयों के मुताबिक़ हैं और वह सबसे बड़ी बुलंदी पैग़म्बरी का एलान है। पैग़म्बरे इस्लाम की ज़िन्दगी के हर दौर में अल्लाह की अज़मत की निशानियां देखी जा सकती हैं, यहाँ तक उनकी पैदाइश के मौक़े पर भी। हमने आज के दिन, पैग़म्बरे इस्लाम के जन्म दिन का जश्न मनाया, ईद की तरह जश्न मनाया, यहाँ तक कि इंसान उनकी पैदाइश के दिन में भी अल्लाह की निशानियां और उसकी बरकत के असर, जिनका स्रोत वही बुलंदी यानी पैग़म्बरी का एलान है, देख सकता है। तौहीद के असर और तौहीद की अमली निशानियों को इंसान उनके जन्मदिन में भी देख सकता है। काबे के भीतरी भाग से लेकर, जहाँ मूर्तियां गिर पड़ीं, सरकश बुतों से मुक़ाबले तक, उस दौर में इंसानी शक्ल में मौजूद बड़े सरकशों से मुक़ाबले तक (यह निशानियां देखी जा सकती हैं।), या यह कि फ़ुलां मुक़द्दस झील सूख जाती है, फ़ुलां आतिशकदा, कथित मुक़द्दस आतिशकदा बुझ जाता है, कसरा का ताक़ टूट जाता है, कसरा के ताक़ के कंगूरे गिर पड़ते हैं, इस तरह के वाक़यात होते हैं। इसलिए हुज़ूरे पाक का जन्म दिन, कोई मामूली दिन नहीं है,  बहुत अहम दिन है, बहुत बड़ा दिन है। हम इस दिन को ईद के तौर पर मनाते हैं। बुनियादी बात यह है कि ईद मनाना, सिर्फ़ जश्न और याद मनाने या इस जैसी दूसरी चीज़ों तक सीमित नहीं हैं। ईद मनाना सबक़ सीखने के लिए है। पैग़म्बरे इस्लाम को आइडियल क़रार देने के लिए है। हमें इस चीज़ की ज़रूरत है, आज इंसान को इसकी ज़रूरत है, आज मुसलमान क़ौम को इसकी ज़रूरत है, हमें सबक़ सीखना चाहिए। इसलिए पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहि व आलेही व सल्लम के मुबारक जन्म दिन की याद को ज़िन्दा रखने का म़कसद यह है कि हम उस आयत पर अमल कर सकें जिसमें कहा गया हैः बेशक तुम्हारे लिए पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहि व आलेही व सल्लम की शख़्सियत में पैरवी के लिए बेहतरीन नमूना मौजूद है, हर उस शख़्स के लिए जो अल्लाह की बारगाह में हाज़री और क़यामत के आने की उम्मीद रखता है और अल्लाह को बहुत ज़्यादा याद करता है।(2) पैग़म्बरे इस्लाम बेहतरीन नमूना हैं, बेहतरीन आइडियल हैं, इसे क़ुरआन साफ़ लफ़्ज़ों में कह रहा है। ‘उस्वा’ का क्या मतलब है? मतलब यह है कि वह हमारे लिए एक नमूना और आइडियल हैं और हमें उस आइडियल के पीछे-पीछे चलना चाहिए, वह चोटी पर हैं, हमें इस पस्ती से उस चोटी की तरफ़ जाना चाहिए, आगे बढ़ना चाहिए, उस्वा का यह मतलब है।

ख़ैर हमें इस नमूने व आइडियल के पीछे पीछे चलना चाहिए, जो सबक़ हैं वे एक दो तो हैं नहीं, सैकड़ों हैं, पैग़म्बरे इस्लाम की निजी ज़िन्दगी, पैग़म्बरे इस्लाम की घरेलू ज़िन्दगी में, पैग़म्बरे इस्लाम की हुकूमत में, अपने दोस्तो के साथ, दुश्मनों के साथ, मोमिनों के साथ, काफ़िरों के साथ पैग़म्बरे  इस्लाम की सामाजिक शख़्सियत में सैकड़ों अहम व बुनियादी सबक़ मिलते हैं। इनमें से एक सबक़ को मैं आज बयान करना चाहता हूं और वह क़ुरआन मजीद की इस आयत का मफ़हूम है जिसमें कहा गया हैः हे लोगो! तुम्हारे पास अल्लाह का एक ऐसा पैग़म्बर आ गया है जो तुम ही में से है, जिस के लिए तुम्हारा ज़हमत में पड़ना बड़ा तकलीफ़देह है, तुम्हारी भलाई की चाहत रखता है और ईमान वालों के साथ बड़ी शफ़क़त व मेहरबानी से पेश आने वाला है। (3) मैं ʺजिस के लिए तुम्हारा ज़हमत में पड़ना बड़ा तकलीफ़देह हैʺ के बारे में बात करुंगा। आयत में कहा गया है कि पैग़म्बरे इस्लाम के लिए तुम्हारी तकलीफ़ और परेशानी दर्दनाक है, तकलीफ़देह है, जब तुम्हें कोई तकलीफ़ होती है तो तुम्हारी तकलीफ़ से पैग़म्बर को तकलीफ़ होती है। इस बात में शक नहीं कि यह बात पैग़म्बरे इस्लाम के ज़माने में मौजूद मुसलमानों से मख़सूस नहीं है, यह ख़िताब पूरी तारीख़ के सभी मोमिनों से है। यानी अगर आज आप फ़िलिस्तीन में तकलीफ़ उठा रहे हैं, म्यांमार में, दूसरी जगहों पर मुसलमान तकलीफ़ उठा रहे हैं तो उन्हें जान लेना चाहिए कि यह तकलीफ़, पैग़म्बर की पाकीज़ा रूह को भी तकलीफ़ पहुंचाती है, यह बहुत अहम है। हमारे पैग़म्बर इस तरह के हैं। पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहि व आलेही व सल्लम की यह ख़ासियत जो इस आयत में बयान की गयी है, दुश्मनों की ख़ासियत के बिल्कुल उलट है और वह ख़ासियत इस आयत में बयान की गयी हैः हे ईमान वालो! अपने लोगों के सिवा दूसरे ऐसे लोगों को अपना जिगरी दोस्त न बनाओ जो तुम्हें नुक़सान पहुंचाने में कोई कसर उठा नहीं रखते, जो चीज़ तुम्हें मुसीबत व ज़हमत में मुब्तला करे, वह उसे पसंद करते हैं।(4) यहाँ दुश्मनों के लिए कहा गया है ʺजो चीज़ तुम्हें मुसीबत व ज़हमत में मुब्तला करे, वह उसे पसंद करते हैंʺ  तुम्हारी तकलीफ़ उन्हें ख़ुश करती है। हमारी इस वक़्त यह हालत है, मौजूदा दुनिया में अपनी हालत को समझने पर ध्यान दीजिए। एक तरफ़ वह पाकीज़ा वजूद है कि ʺजिस के लिए तुम्हारा ज़हमत में पड़ना बड़ा तकलीफ़देह हैʺ और दूसरी तरफ़ वह मोर्चा है कि ʺजो चीज़ तुम्हें मुसीबत व ज़हमत में मुब्तला करे, वह उसे पसंद करते हैंʺ, वह तुम्हारी तकलीफ़ों से ख़ुश होते हैं, मसरूर होते हैं, तुम्हारी परेशानियों पर वह ख़ुशी महसूस करते हैं। स्वाभाविक तौर पर जब इस मोर्चे की यह हालत है तो वह तुम्हे कठिनाई, परेशानी और तकलीफ़ की ओर ढकेलने की कोशिश करेगा। हमें यह हालत समझनी चाहिए, जाननी चाहिए और इस ओर ध्यना देना चाहिए। अब सवाल यह है कि इस दौर में मुसलमान क़ौम की तकलीफ़ों और परेशानियों की जड़ क्या है? क्यों मुसलमान क़ौम आर्थिक लेहाज़ से, सियासी दबाव के लेहाज़ से, जंगों की आग, सिविल वार, ग़ौर क़ानूनी क़ब्ज़े, इम्पेरियलिज़्म और नियो इम्पेरियालिज़्म के दबाव वग़ैरह के लेहाज़ से इतनी तकलीफ़ में हैं? मुसलमानों की इस तकलीफ़ और तकलीफ़ें उठाने की हालत में फंसे होने की वजह क्या है? इसकी बहुत सी वजहें हैं। साइंस के मैदान में पीछे रह जाना इसकी एक वजह है, इम्पेरियलिस्ट ताक़तों के क़ब्ज़े के सामने झुक जाना इसकी एक वजह है। इसकी दूसरी वजहें हैं और जो लोग सियासत में दिलचस्पी रखते हैं, सियासी व समाजी मामलों का विशलेषण करते हैं और इसी तरह के दूसरे लोग हैं जिन्होंने इन मैदानों में काम किया है, उन्होंने इस सिलसिले में हज़ारों लेख लिखे हैं, लेकिन एक वजह जो शायद सबसे अहम या सबसे अहम वजहों में से एक है, वह है मुसलमानों में बिखराव और फूट। हम अपनी क़द्र नहीं समझते, एक दूसरे की क़द्र नहीं समझते, हमारी सबसे बड़ी कमी यह है, हम एक दूसरे से दूर हैं, बिखरे हुए हैं।

जब हम बिखरे हुए हैं, एक दूसरे का भला नहीं चाहते, बल्कि कभी एक दूसरा का बुरा चाहते हैं, तो नतीजा यही होगा। यहाँ क़ुरआन मजीद साफ़ लफ़्ज़ों में कहता है, वाक़ई इंसानी ज़िन्दगी के इन बुनियादी मामलों में, हमें ऐसा कोई विषय नज़र नहीं आता जहाँ क़ुरआन मजीद ने साफ़ लफ़्ज़ों में बात न की हो, यहाँ भी वह कहता हैः और अल्लाह और उसके रसूल की इताअत करो, और आपस में झगड़ा न करो, वरना कमज़ोर पड़ जाओगे और तुम्हारी हवा उखड़ जाएगी। (5) जब तुम आपस में झगड़ोगे तो कमज़ोरी पैदा हो जाएगी, ‘तज़हबा रीहोकुम’ यानी तज़हबा इज़्ज़ोकुम यानी तुम्हारी इज़्ज़त ख़त्म हो जाएगी, तुम्हारी हवा उखड़ जाएगी। जब तुम आपस में मतभेद करोगे तो स्वाभाविक तौर पर पतन में जाओगे, बेइज़्ज़त हो जाओगे, अपने ऊपर दूसरों के वर्चस्व का रास्ता साफ़ करोगे, बिखराव व फूट का नतीजा यह है।

अमीरुल मोमेनीन अलैहिस्सलाम ने क़ासेआ नाम के ख़ुतमें जो नहजुल बलाग़ा के सबसे अहम ख़ुतबों में से एक है, इस बात को साफ़ लफ़्ज़ों में बयान किया है। वह ख़ुतबा सुनने वालों को तारीख़ का हवाला देते हैं और कहते हैं कि देखो पिछले लोग जब तक एक दूसरे के साथ थे, एकजुट थे तो उन्होंने क्या कामयाबी हासिल की और किस मुक़ाम तक पहुंचे, लेकिन जब वह एकता की हालत से निकल गए ʺतो देखो कि जब उनमें फूट पड़ गई और उनकी एकता टूट गई तो आख़िरकार उनका क्या अंजाम हुआ।ʺ इसके  बाद कुछ जुमले इसी संदर्भ के हैं और फिर आप फ़रमाते हैं जब ऐसा हो गया, जब जुदाई, फूट, आपसी दुश्मनी का चलन हो गया ʺअल्लाह ने उन के वजूद पर पड़ा प्रतिष्ठा का लिबास उतार लिया और अपनी नेमतों की बहुतायत को ख़त्म कर दिया।ʺ (6) तो अल्लाह ने इज़्ज़त व करामत के लेबास को उनके जिस्म से उतार लिया वह इज़्ज़त जो उनके पास थी, वह शरफ़ जो उनके पास था, वह नेमत जो अल्लाह ने उन्हें दी थी, वह फूट व मतभेद की वजह से उनसे ले ली गयी, छीन ली गयी।

तो हमें हक़ीक़त में इस बारे में सोचना चाहिए, मुसलमानों के बीच एकता के बारे में सोचना चाहिए, आज दुश्मन ठीक इसका उलट चाहता है। इलाक़े में कैंसर के सेल का एक गंदा बीज बो दिया गया है जिसका नाम है ज़ायोनी शासन ताकि वह इस्लाम दुश्मन पश्चिम की छावनी बन जाए, क्योंकि उन्होंने उस वक़्त विशाल उस्मानी सल्तनत के टुकड़े कर दिए, तबाह कर दिया, कई मुल्कों में बांट दिया, तो यहाँ उनकी एक छावनी भी होनी चाहिए थी ताकि वे मुसलसल क़ब्ज़ा करते रहें और इस इलाक़े में किसी को बड़ा मक़सद हासिल न करने दें, यह छावनी, यही मज़लूम फ़िलिस्तीन था जिसमें उन्होंने आकर इस मक़सद के लिए दुष्ट, भ्रष्ट, क़ातिल और बेरहम ज़ायोनियों को बिठा दिया, एक जाली हुकूमत बना दी, एक जाली क़ौम बना दी। मुसलमानों की भी इस ओर तवज्जो थी, अब दुश्मन ऐसा काम कर रहे हैं कि यह नुक़सानदेह ज़ात, यह पक चुका कैंसर, दुश्मन की लिस्ट से निकल जाए और इलाक़े के मुल्कों के बीच और ज़्यादा विवाद पैदा करे। हर जगह क़ब्ज़ा कर रहे हैं, ज़ायोनी शासन के साथ संबंध बहाली का यह प्रोसेस, इस्लाम और मुसलमानों के साथ होने वाली सबसे बड़ी ग़द्दारी है। फूट डालना, मतभेद पैदा करना, दुश्मन यही तो कर रहा है। दुश्मन लगातार काम कर रहा है।  

हमें इस मुबारक जन्म दिन से यह सबक़ हासिल करना चाहिएः ʺअल्लाह के रसूल के वजूद में तुम्हारे लिए बेहतरीन नमूना मौजूद हैʺ और पैग़म्बरे इस्लाम के बारे में हमने बताया कि उनका क्या मक़ाम है। इसीलिए हमने इस्लामी जम्हूरिया में इस दिन को ईद क़रार दिया है, एकता का दिन क़रार दिया है, यानी 12 रबीउल अव्वल से लेकर, जो पैग़म्बरे इस्लाम के जन्म दिन के बारे में सुन्नी समुदाय की रवायत है, 17 रबीउल अव्वल तक, जो पैग़म्बरे इस्लाम के जन्म दिन के बारे में शियों की रवायत है, इन दोनों के बीच हमने एक जश्न का हफ़्ता कऱार दिया है और उसका नाम रखा है, ʺएकता का हफ़्ताʺ यह अच्छा काम था लेकिन इस नारे को अमली शक्ल पहनना चाहिए, हमें इसे अमली शक्ल देने की ओर आगे बढ़ना चाहिए।

शायद आप यह कहें कि ʺहम हुक्मरान तो हैं नहींʺ ठीक है, हुक्मरान को हरकत में लाने वाली फ़ोर्स कुछ और होती हैं, राजनैतिक फ़ोर्स होती हैं, दूसरे मक़सद होते हैं लेकिन किसी मुल्क के विचारक, उलमा, लेखक, शायर, इंटलक्चुअल और अहम हस्तियां इस माहौल को दुश्मन की इच्छा के बिल्कुल उलट, दिशा में मोड़ सकती हैं, जब माहौल बदल जाएगा तो उस नतीजे तक पहुंचना ज़्यादा आसान हो जाएगा।

अब सवाल यह है कि युनिटी का मतलब क्या है? युनिटी से मुराद निश्चित तौर पर मज़हबी एकता नहीं है, यानी यह कि वह इस मसलक में आ जाए और यह उस मसलक में चला जाए, सिर्फ़ एक ही मसलक रहे, नहीं! यक़ीनन यह मुराद नहीं है। भौगोलिक एकता भी नहीं है, उस चीज़ की तरह जो 1960 और 1970 की दहाई में हुई, कुछ अरब मुल्कों ने एलायंस बनाया और एलान किया कि वे एक हैं, हालांकि वह नहीं हो सका और हो भी नहीं सकता, मुमकिन ही नहीं है, यह भी मुराद नहीं है। एकता से मुराद, इस्लामी दुनिया के हितों की हिफ़ाज़त के लिए एकता है। सबसे पहले तो हमें यह तय करना होगा कि इस्लामी दुनिया के हित क्या हैं, कहाँ हैं और फिर क़ौमें इस सिलसिले में एक दूसरे से सहमत हों। इंशाअल्लाह सरकारों को भी इस रास्ते पर ले आया जाए, अल्लाह उनके दिलों को इस रास्ते पर ले आए और वे मुसलमान क़ौम के हित के बारे में एकमत हो जाएं, देखें कि आज क़ौम को किस चीज़ की ज़रूरत है, उसे किससे दुश्मनी करनी चाहिए, किससे किस तरह दुश्मनी करनी चाहिए, किससे दोस्ती करनी चाहिए और किस तरह दोस्ती करनी चाहिए, इन सारी बातों पर बातचीत में सहमति बने और वे इस रास्ते पर आगे बढ़ने लगें, मुराद यह हैः साम्राज्यवादवाद की साज़िशों से निपटने के लिए ज्वाइंट ऐक्शन प्लान।

इस बात में शक नहीं कि साम्राज्यवाद की हमारे इस क्षेत्र और हमारे मुल्कों के ख़िलाफ़ साफ़ तौर पर साज़िशें हैं। यह इस्लामी क्षेत्र, बड़ी संभावनाओं वाला इलाक़ा है। हमारा क्षेत्र, अगर सबसे ज़्यादा संवेदनशील इलाक़ा नहीं तो कम से कम दुनिया के सबसे संवेदनशील इलाक़ों में से एक तो है ही, अगर यह न कहा जाए कि सबसे मालामाल इलाक़ा तो कम से कम दुनिया के सबसे मालामाल इलाक़ों में से एक हमारा इलाक़ा है, सेन्ट्रल एशिया, वेस्ट एशिया और उत्तरी अफ़्रीक़ा जो इस्लामी इलाक़ा है, बहुत ही अहम इलाक़ा है। साम्राज्यवाद और साम्राज्यवाद की नीतियों के पीछे काम करने वाली ताक़तों यानी अंतर्राष्ट्रीय कंपनियों, कार्टल्ज़ और ट्रस्ट्स ने इस इलाक़े के बारे में साज़िशें तैयार कर रखी हैं। उनकी साज़िशों के मुक़ाबले में हमारे पास ज्वाइंट ऐक्शन प्लान होना चाहिए, एकता का मतलब यह है। हमने इस्लामी दुनिया के सामने यह सुझाव रखा और इस्लामी दुनिया से यही चाहा।

यहाँ पर एक अहम बिन्दु जिसकी ओर से लापरवाही नहीं होनी चाहिए, यह है कि आज, दिन-ब-दिन यह बात पहले से ज़्यादा ज़ाहिर होती जा रही है कि विश्व स्तर पर राजनैतिक ऑर्डर बदल रहा है, आज दिन ब दिन यह बात पहले से ज़्यादा ज़ाहिर होती जा रही है कि दुनिया का सियासी नक़्शा बदल रहा है, एक ताक़त की ओर से- या फिर दो ताक़तों की ओर से, इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता- मुल्कों और क़ौमों पर धौंस जमाने वाले सिस्टम और युनीपोलर सिस्टम का विषय अपनी हैसियत खो चुका है, यानी क़ौमें जागरुक हो गयी हैं। युनीपोलर सिस्टम को किनारे लगा दिया गया है और वह धीरे-धीरे अपने अंत की ओर बढ़ रही है। आज दुनिया में पहले दर्जे के नेताओं की ज़बान से यह बात काफ़ी सुनने में आती है कि हम युनीपोलर सिस्टम को नहीं मानते। युनीपोलर सिस्टम का क्या मतलब है? इसका मतलब यह है कि मिसाल के तौर पर अमरीका बैठ कर इराक़ के लिए, या सीरिया के लिए या ईरान के लिए या लेबनान के लिए या किसी और मुल्क के लिए यह प्लानिंग करे कि ʺयह काम कीजिए, यह होना चाहिए, यह नहीं होना चाहिए।ʺ कभी कहे और कभी न कहे लेकिन अमली तौर तौर पर यही काम करे। आज ऐसा है, वे लोग मुल्कों के बारे में प्लानिंग करते हैं और अपनी फ़ोर्सेज़ को लामबंद करते हैं।

तो उनके पास साज़िश है, साम्राज्यवाद के पास साज़िशें और चालें हैं लेकिन यह चीज़ बदल रही है। मुल्कों, क़ौमों और अनेक मुल्कों पर साम्राज्यवाद का जो क़ब्ज़ा था, यह हालत धीरे-धीरे बदल रही है, ठीक वैसे ही जैसे बीसवीं सदी के मध्य में साम्राज्यवाद विरोधी आंदोलन के दौरान हुआ था, जब मुल्कों ने साम्राज्यवाद के ख़िलाफ़ लगादार बग़ावतें की थीं- एशिया में एक तरह से, अफ़्रीक़ा में किसी और तरह से, लैटिन अमरीका में दूसरे तरीक़े से- कि उस वक़्त दुनिया के सियासी मैदान में बड़ी तब्दीली आयी थी, आज भी बड़ी तब्दीली आ रही है। क़ौमों के ख़िलाफ़ विश्व साम्राज्यवाद का ख़ामोशी से किया जाने वाला यह काम धीरे धीरे अपनी क़ानूनी हैसियत खोता जा रहा है, शुरू से ही उसे क़ानूनी हैसियत तो हासिल ही नहीं थी, लेकिन अब उसके सिलसिले में क़ौमों की राय साफ़ तौर पर ज़ाहिर होती जा रही है। तो एक नई स्थिति सामने आएगी, एक नई दुनिया वजूद में आएगी। मुमकिन है कि हम पूरी तरह से अंदाज़ा न लगा पाएं कि यह नई दुनिया कैसी होगी लेकिन हमें पूरा यक़ीन है कि धीरे-धीरे आने वाले बरसों में एक नई दुनिया वजूद में आएगी। तो उस नई दुनिया में इस्लामी जगत की क्या पोज़ीशन होगी? यह अहम सवाल है।

मुसलमान क़ौम यानी डेढ़ अरब से ज़्यादा इंसान, हमारी उस अज़ीम व जगमगाती तारीख़ के साथ- जी हाँ पिछली कुछ सदियों में हम साइंस की फ़ील्ड में पिछड़े हैं, लेकिन उससे पहले साइंस की चोटी हम मुसलमानों के अख़्तियार में थी, यह हमारी विरासत है, हमारे पास है। नेचुरल रिसोर्ज़े मौजूद हैं, ह्यूमन रिसोर्सेज़ मौजूद हैं, नई बेदारी पैदा करने वाले प्रेरक तत्वों मौजूद हैं, इन ख़ूबियों की मालिक इस इस्लामी दुनिया और मुसलमान क़ौम की क्या हालत है? यह जो नई दुनिया वजूद में आ रही है, इसमें हम कहाँ होंगे? हमारे क़दम कहां होंगे और मौजूदगी की जगह क्या होगी? यह बहुत अहम है, यह वह मामला है जिसके बारे में इस्लामी जगत को सोचना चाहिए। पश्चिमी दुनिया और यूरोप में ये जो घटनाएं हो रहीं हैं, यह आम और मामूली घटनाएं नहीं हैं, यह अहम बदलाव का इशारा दे रही हैं।

हम बहुत अहम रोल अदा कर सकते हैं। इस्लामी दुनिया, इस्लामी मुल्क और मुसलमान क़ौमें नई दुनिया में, जो धीरे-धीरे वजूद में आ रही है, बुलंद मक़ाम हासिल कर सकते हैं, एक आइडियल के तौर पर सामने आ सकते हैं, क़ायद के तौर पर सामने आ सकते हैं, लेकिन इसकी एक शर्त है, वह शर्त क्या है?

युनिटी, फूट से दूरी, दुश्मनों के बहकावे की बुराई से मुक्ति, अमरीका के बहकावे, ज़ायोनियों के बहकावे, कंपनियों के बहकावे से मुक्ति, उसे बहकावे की बुराई से आज़ादी जो कभी कभी अपने लोगों की ज़बान से सुनाई देते हैं। हम देखते हैं कि इस्लामी जगत में, इस्लामी दुनिया के भीतर से कुछ लोग उन्हीं लोगों की बातें दोहराते हैं, वही बातें करते हैं, एकता के ज़रिए, फूट से दूरी के ज़रिए, आपसी इत्तेहाद के ज़रिए उनकी शैतनत से मुक्ति हासिल करें, शर्त यह है। अगर हम यह शर्त पूरी कर सके तो इस बात में शक नहीं कि इस्लामी जगत, आने वाले दौर में और दुनिया के भविष्य के सियासी प्लेटफ़ार्म पर ऊंचे मक़ाम पर होगा।

क्या यह मुमकिन है? कुछ लोग हैं जो सभी अहम मामलों में, उनका पहला क़दम और रिएक्शन इंकार और मायूसी होती हैः ʺअरे जनाब यह नहीं हो सकता, इसका कोई फ़ायदा नहीं है।ʺ हम इसे नहीं मानते,  हम कहते हैं कि यह मुमकिन है, मुसलमान क़ौम के बीच एकता व इत्तेहाद मुमकिन है, लेकिन इसके लिए कुछ काम करने ज़रूरी हैं, अमल ज़रूरी है। मैंने अर्ज़ किया कि हम इस्लामी मुल्कों के रहनुमाओं और हुक्मरानों की ओर से भी मायूस नहीं हैं, लेकिन हमारी ज़्यादा उम्मीदें इस्लामी दुनिया की अहम शख़्सियतों से हैं, यानी जैसा कि हमने कहा उलमा से, मुफ़क्किरों से, युनिवर्सिटियों के प्रोफ़ेसरों से, समझदार नौजवानों से, दानिशवरों से, अदीबों से, क़लमकारों से, प्रिंट मीडिया के लोगों से, हमें इनसे उम्मीद है, इन्हें आज़ादी महसूस होनी चाहिए, ज़िम्मेदारी महसूस करनी चाहिए, फ़र्ज़ का एहसास होना चाहिए। जब अहम हस्तियां किसी रास्ते पर चल पड़ती हैं तो जनमत भी उसी तरफ़ बढ़ने लगता है। जब किसी मुल्क में जनमत बन जाता है तो उस मुल्क की व्यवस्था चलाने की नीतियां भी उसी ओर बढ़ने लगती हैं, मजबूर हैं, कोई चारा नहीं है। इसलिए यह एक मुमकिन काम है, यह हो सकता है, लेकिन अमल के बिना नहीं हो सकता। दुनिया में किसी भी चीज़ का अमल के बिना न तो दुनिया में कोई नतीजा मिलता है और न ही आख़ेरत में नतीजा सामने आता हैः ʺऔर यह कि इंसान के लिए वही कुछ है जिसकी वह कोशिश करता है।ʺ (7) कोशिश करनी चाहिए, अमल करना चाहिए, अगर हम अमल करेंगे तो यह मुमकिन है।

मैं इसकी एक छोटी सी मिसाल पेश करता हूं। इसका छोटा सा नमूना हम हैं, यानी इस्लामी जम्हूरिया। हम बड़ी ताक़तों के ख़िलाफ़ डट गए। कभी यह दुनिया दो बड़ी ताक़तों के हाथ में थीः अमरीका की ताक़त और पूर्व सोवियत युनियन की ताक़त। दोनों ताक़तें, जो दसियों मामलों में एक दूसरे से इख़तेलाफ़ रखती थीं, मगर एक बात में मुत्तफ़िक़ थीं और वह, इस्लामी जम्हूरिया की मुख़ालेफ़त थी। अमरीका और पूर्व सोवियत युनियन, अपने सारे इख़तेलाफ़ों के बावजूद, इस्लामी जम्हूरिया की मुख़ालेफ़त में मुत्तफ़िक़ थे, एक राय रखते थे। इमाम ख़ुमैनी रहमतुल्लाह अलैह उनके मुक़ाबले में डट गए, झुके नहीं, उन्होंने साफ़ लफ़्ज़ों में कहाः ʺन पूरब न पश्चिमʺ ना यह, ना वह। वो कामयाब हो गए, लोग सोच रहे थे कि मुमकिन नहीं है, सोच रहे थे कि इस पौधे को जड़ से उखाड़ दें, आज वह पौधा तनावर पेड़ में बदल चुका है, अब वह उसे उखाड़ने के बारे में सोच भी नहीं सकते! हम डट गए और आगे बढ़ते गए। अलबत्ता मुश्किलें हैं, हर चीज़ में मुश्किल है, बग़ैर मुश्किल के तो कुछ हो ही नहीं सकता। जो लोग झुक जाते हैं, उनके लिए भी मुश्किल है। कठिनाई सिर्फ़ रेज़िस्टेंस के रास्ते में नहीं है, सिर झुकाने की भी कठिनाईयां हैं, इस फ़र्क़ के साथ कि जब इंसान रेज़िस्टेंस के रास्ते पर चलता है तो कठिनाईयां उसे आगे ले जाती हैं- हम कठिनाईयां उठाते हैं लेकिन आगे बढ़ते हैं- जो सिर झुका देता है वह कठिनाई भी उठाता है और पीछे रह जाता है, तरक़्क़ी नहीं करता। इसलिए हमारी राय है कि काम किया जा सकता है, कोशिश की जा सकती है, सभी इख़्तेलाफ़ों के बावजूद इस्लामी दुनिया में इस्लाम और क़ुरआन के मद्देनज़र जो युनिटी होनी चाहिए, उसकी ओर बढ़ा जा सकता है।

क़ुम दूरियां क़ौमी सतह पर हैं, कुछ नस्ली हैं, कुछ भाषाई हैं, यह अहम नहीं है। मेरे ख़्याल में आज जिस चीज़ पर सबसे ज़्यादा ध्यान दिया जाना चाहिए वह मसलक का मामला है, शिया और सुन्नी की बहस है। हमें अक़ीदे और नज़रिए में इख़्तेलाफ़ को विवाद में बदलने नहीं देना चाहिए, यह नहीं होने देना चाहिए। कुछ चीज़ें हैं जिनसे झगड़ा पैदा होता है, उन्हें रोकना चाहिए, संजीदगी से रोकना चाहिए। आप देख ही रहे हैं कि अमरीकी और ब्रितानी नेता भी अपनी बैठकों में शिया और सुन्नी की बातें करने लगे हैं, यह बहुत ख़तरनाक चीज़ है, बहुत ख़तरनाक है। यह लोग जो इस्लाम के मुख़ालिफ़ हैं, वह न शिया के लिए फ़ायदेमंद हैं, न सुन्नी के लिए, ये लोग शिया और सुन्नी की बातें कर रहे हैं!

मैंने कभी कहा था ʺब्रितानी शियाʺ और ʺअमरीकी सुन्नीʺ (8) कुछ लोगों ने समझा बल्कि झूठ का सहारा लेकर यह प्रोपैगंडा किया कि हम जो कहते हैं ʺब्रितानी शियाʺ इसका मतलब है ब्रिटेन में रहने वाला शिया! नहीं! मुमकिन है कि ब्रिटिश शिया ख़ुद इस्लामी मुल्क में हो। यह ब्रिटेन के इशारे पर काम करने के अर्थ में है, यानी टकराव पैदा करने वाला शिया, झगड़ा कराने वाला सुन्नी, जैसे दाइश, जैसे वहाबी वग़ैरह जो झगड़ा कराते हैं। या तकफ़ीरी जो कहते हैं कि ʺयह काफ़िर है, वह काफ़िर है।ʺ इन लोगों का नाम मुसलमानों वाला है, मुमकिन है निजी तौर पर इस्लामी हुक्म पर सख़्ती से अमल भी करते हों, लेकिन यह दुश्मन की ख़िदमत के रास्ते पर चल रहे हैं। 

जो इख़्तेलाफ़ पैदा करता है, वह दुश्मन की ख़िदमत कर रहा है, कोई फ़र्क़ नहीं है वह चाहे जिस पोज़ीशन पर हो, जिस ओहदे पर हो, जिस मुल्क में हो। हमारा यह मानना है, हम पूरे यक़ीन से इस बात को मानते हैं। हमने उन लोगों के ख़िलाफ़ कार्रवाई की, सख़्ती के साथ कार्रवाई की जो शिया मसलक की हिमायत करने के नाम पर सुन्नी भाइयों के जज़्बात को भड़काते थे, यह चीज़ बड़े पैमाने पर फैलनी चाहिए, इस सिलसिले में आम इत्तेफ़ाक़ बनना चाहिए। अलबत्ता दोनों तरफ़ शिद्दत पसंद लोग पाए जाते हैं, शियों में भी ऐसे लोग हैं जो अपने अक़ीदे की बुनियाद पर या किसी भी और वजह से शिद्दत पसंदी से काम लेते हैं, सुन्नियों में भी ऐसे लोग हैं जो शिद्दत पसंद हैं, शिद्दत पसंदी पायी जाती है। हमें शिद्दत पसंदों की इस शिद्दत पसंदी को इस बात का लाइसेंस नहीं समझना चाहिए कि ख़ुद मज़हब को कटहरे में खड़ा करे दें, हमारा तर्ज़े अमल इस तरह का रहा है।

हमने देखा कि वहाबियों ने 200 साल पहले, इमामों की क़ब्रों को ध्वस्त कर दिया, वे कर्बला गए और इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की क़ब्र को ध्वस्त कर दिया, लकड़ी की ज़रीह थी, उसे जला दिया, रौज़े के अंदर आग लगाई, कॉफ़ी बनाई, कॉफ़ी पी, यह सब हुआ। फिर वे लोग नजफ़ गए, लेकिन शहर के अंदर नहीं जा सके, मरहूम शैख़ जाफ़र काशेफ़ुल ग़ेता की वजह से, जिनके पास फ़ोर्स थी और उन्होंने दीनी स्टूडेंट्स और दूसरों को लामबंद कर दिया, नजफ़ शहर के चारों ओर दीवार थी, इसलिए वे लोग नजफ़ में नहीं जा सके, कूफ़े चले गए और मस्जिदे कूफ़ा में बहुत सारे लोगों का जो शिया थे, क़त्ल किया। यह इस बात का सबब बन सकता है कि शिया उलमा, बड़े उलमा, बड़े शिया उलमा अहले सुन्नत पर इल्ज़ाम लगाएं? नहीं! ये शिद्दत पसंद लोग थे जिन्होंने यह काम किया था। ख़ुद हमारे ज़माने में दाइश गिरोह, इराक़ में एक तरह से, सीरिया में दूसरी तरह से और हाल ही में अफ़ग़ानिस्तान में किसी और तरह से बच्चों के स्कूल पर भी रहम नहीं करता, बच्चियों के स्कूल और बच्चों के स्कूल को धमाके से उड़ा देता है, घरवालों को उनके बच्चों के ग़म में सोगवार कर देता है, वे लोग ये करतूत करते हैं, लेकिन हम किसी भी हालत में और कभी भी अहले सुन्नत पर इल्ज़ाम नहीं लगाते, क्योंकि यह शिद्दत पसंद लोग हैं। दूसरी ओर से भी ऐसा ही होना चाहिए। मुमकिन है कि कुछ लोग शिद्दत पसंदी से काम लें, लेकिन उनकी शिद्दत पसंदी की वजह से पूरी शिया क़ौम पर इल्ज़ाम नहीं लगाना चाहिए। इस सिलसिले में काम होना चाहिए, उलमा को काम करना चाहिए।

हम इस फूट व बिखराव की वजह से चोट खा रहे हैं, फ़िलिस्तीन में चोट खा रहे हैं, अनेक मुल्कों में मार खा रहे हैं। फ़िलिस्तीन में ज़ायोनी रोज़ाना लोगों को क़त्ल कर रहे हैं, छोटे बच्चों को क़त्ल कर रहे हैं, नौजवान को क़त्ल कर रहे हैं, बच्चों को क़त्ल कर रहे हैं, बूढ़ों को क़त्ल कर रहे हैं, जेलों में डाल रहे हैं, जेलों में हज़ारों लोगों को टार्चर कर रहे हैं, ये सब हो रहा है और ये सब हमारी आँखों के सांमने है। म्यांमार में अलग तरह से, दूसरी जगहों पर दूसरी तरह से, ये सब सख़्त है, ये सब इस्लामी दुनिया के लिए सख़्त है, ʺजिस के लिए तुम्हारा ज़हमत में पड़ना बड़ा तकलीफ़देह है, इन चीज़ों से पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहि व आलेही व सल्लम को तकलीफ़ पहुंचती है। इन सब चीज़ों के बारे में सोचना चाहिए, कोशिश करनी चाहिए। क़ुरआने मजीद पैग़म्बरे इस्लाम से कहता हैः हे रसूल कहिए अहले किताब! आओ एक ऐसी बात की तरफ़ जो हमारे और तुम्हारे बीच संयुक्त व समान है, मुसलमान भी नहीं हैं, लेकिन उनका आपस में संयुक्त पहूल है और वह है तौहीद, क्योंकि तौहीद तो सभी धर्मों में है, तौहीद सभी धर्मों की बुनियाद हैः हम अल्लाह के सिवा किसी की इबादत न करें। पैग़म्बरे इस्लाम, इस्लाम और दूसरे धर्मों के बीच मौजूद इस संयुक्त बिन्दु को इस्तेमाल करते हैं, यानी क़ुरआन हुक्म देता है कि कह दीजिएः आओ एक ऐसी बात की तरफ़ जो हमारे और तुम्हारे बीच संयुक्त व समान है, और वह यह कि हम अल्लाह के सिवा किसी की इबादत न करें और किसी को उसका शरीक न बनाएं और हम में से कोई किसी को अल्लाह के सिवा अपना रब (मालिक व मुख़्तार) न बनाए। (9) ग़ैर मुसलमानों के लिए इस तरह से कहता है तो हम मुसलमानों के बीच तो बहुत सारी चीज़ें एक जैसी हैं। काबा एक, क़िबला एक, नमाज़ एक, हज एक, इबादतें एक, पैग़म्बर एक, पूरी इस्लामी दुनिया में अहले बैत से मोहब्बत, ये सब हमारे संयुक्त बिन्दु हैं। हमें इन संयुक्त बिन्दुओं को नज़रअंदाज़ नहीं करना चाहिए।

ख़ैर, हमने अब तक कोशिश की है, हमारी जितनी ताक़त व क्षमता थी, उसे हमने अब तक रास्ते में इस्तेमाल किया है, इसके बाद भी हम यही करेंगे। हमने फ़िलिस्तीनी भाइयों का, जो सभी अहले सुन्नत हैं, हर तरह से सपोर्ट किया है, सियासी नज़र से और अमली तौर पर मदद की है, आगे भी सपोर्ट करते रहेंगे। हमारे लिए कोई फ़र्क़ नहीं है, यहाँ हमारे लिए जो चीज़ अहम है वह इस्लाम का रास्ता और इस्लामी सिस्टम है। यह जो रेज़िस्टेंस का मोर्चा है, जो अल्लाह के करम से इस्लामी दुनिया में तैयार हुआ है, हम उसका सपोर्ट करते हैं, जहाँ तक हमसे मुमकिन है, जहां तक हमारी ताक़त है, हम उसका सपोर्ट करते रहेंगे, पहले भी करते रहे हैं, आगे भी करते रहेंगे।

हमें उम्मीद है कि इंशाअल्लाह पूरी कायनात का मालिक अल्लाह हम सबकी हिदायत करेगा, इंशाअल्लाह हम इस रास्ते पर आगे बढ़ सकेंगे और इस अज़ीम आरज़ू को जो इस्लामी दुनिया की बड़ी हस्तियों की बड़ी आरज़ू रही है, यक़ीनी तौर पर पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहि व आलेही व सल्लम की पाकीज़ा रूज आत्मा की भी यही आरज़ू है, यानी इस्लामी एकता को इंशा अल्लाह अमली शक्ल देंगे।

आप सब पर सलाम और अल्लाह की रहमत व बरकत नाज़िल हो।

 

1-इस मुलाक़ात के आग़ाज़ में राष्ट्रपति हुज्जतुल इस्लाम वल मुसल्लेमीम सैयद इब्राहीम रईसी ने स्पीच दी। छत्तीसवीं इस्लामी एकता कॉन्फ़्रेंस 12 अक्तूबर सन 2022 को तेहरान में शुरु हुयी।

2-सूरे अहज़ाब, आयत-21

3-सूरे तौबा, आयत-128

4-सूरे आले इमरान-आयत 118

5-सूरे अनफ़ाल की आयत 46 का हिस्सा

6-नहजुल बलाग़ा-ख़ुतबा-192

7-सूरे वन्नज्म, आयत 39

8- इस्लामी एकता कॉन्फ़्रेंस के मौक़े पर स्पीच 17-12-2016

9-सूरे आले इमरान आयत 64 का एक भाग