बिस्मिल्लाह-अर्रहमान-अर्रहीम(1)

अरबी ख़ुतबे का अनुवादः सारी तारीफ़ें अल्लाह के लिए जो पूरी सृष्टि का चलाने वाला है, दुरूद व सलाम हो हमारे सरदार व पैग़म्बर हज़रत अबुल क़ासिम मुस्तफ़ा मोहम्मद और उनकी पाक नस्ल पर ख़ास तौर पर हज़रत इमाम महदी पर जो ज़मीन पर अल्लाह की हुज्जत हैं।

आप लोगों से मुलाक़ात करके मुझे बहुत ख़ुशी हुई –दो साल दूरी के बाद बेतकल्लुफ़ी के माहौल में बैठक– इसी तरह जो तक़रीरें हुईं। अलबत्ता यह बात भी आपको बताता चलूं कि कुछ सज्जन बहुत जल्दी जल्दी बोल रहे थे -सिवाए आख़री शख़्स के, जनाब पनाही ने थोड़ा ठहराव के साथ बात की और मुझे उनकी बात ज़्यादा समझ में आयी, बाक़ी दोस्तो ने बहुत जल्दी जल्दी बात की- मुझे कुछ बातें समझ में आयीं और कुछ नहीं। जो लोग अपनी तक़रीर लिख कर लाएं हैं वह मुझे ज़रूर दें ताकि मैं बाद में उन्हें देख सकूं।

इस बारे में जो बात मैं कहना चाहता हूं उसे संक्षेप में कहूंगा और फिर अस्ली बात पर आउंगा। वह यह कि जो बातें आपने कीं, वह दिल की आवाज़ है। इस तरह की बातें सुनना अच्छा लगता है, इनमें से बहुत से सवालों के संतोषजनक जवाब मौजूद हैं।  इनमें से बहुत सी आलोचनाओं के जवाब हैं जिनसे मुश्किल हल हो सकती है। ऐसा नहीं है कि जो ग़लतियां आपके या आपके ग्रुप के मन में आयीं जिन्हें यहां आपने बयान किया, उनका हल न हो। नहीं! इनमें से ज़्यादातर के जवाब हैं। अलबत्ता आपकी बातों में कुछ सुझाव थे जिनमें से कुछ हक़ीक़त में मुमकिन हो सकते हैं, अमल हो सकता है लेकिन बड़ा हिस्सा एतेराज़ व कमियों पर आधारित था। बहुत सी कमियों और एतेराज़ का, हम नहीं कहते सबके सब, हल निकलना चाहिए। हमारी मुश्किल यह है कि आपका संबंधित अधिकारियों के साथ संपर्क व बातचीत नहीं है।

अभी की नहीं 40 साल पुरानी बात है कि मैं हर हफ़्ते तेहरान युनिवर्सिटी जाता था। स्टूडेंट्स इकट्ठा होते थे, अपने सवाल पेश करते थे, मैं जवाब देता था। बहुत सी मुश्किलें हल हो जाती थीं, बहुत सी गिरहें खुल जाती थीं। कभी ऐसा भी होता था कि एतराज़ का जवाब नहीं होता था। हम समझ जाते थे कि कुछ करना होगा। इसे किसी तरह ठीक करना चाहिए। हमनें अधिकारियों से सिफ़ारिश की है। मंत्रियों से भी कहा है कि आएं और आप लोगों से बात करें, विभिन्न विभागों के अधिकारी भी –मिसाल के तौर पर ज्वाइंट चीफ़ ऑफ़ स्टाफ़ का नाम लिया गया, आईआरजीसी का नाम लिया गया- आएं बात करें। इनमें से बहुत सी बातों की व्याख्या हो सकती है। जी हाँ, हो सकता है कि कुछ बातें ऐसी हों जिनकी व्याख्या नहीं हो सकती, फिर भी सामने वाला इंसान समझा जाता है कि कुछ करना होगा, क़दम उठाना होगा। यह एक बिन्दु था जिसे पेश करना चाहता था, इस पर ध्यान दीजिए।

इस बीच संसद का भी ज़िक्र निकल आया, उस पर एतराज़ हुआ और मुझसे संसद को क्रांतिकारी न कहने की दर्ख़ास्त की गई।(2)  ख़ैर इस संसद के प्रतिनिधि, इनमें बहुत से कल के वे जवान हैं जो आपकी जगह पर थे। यानी बहुत से जवान हैं जो कुछ साल पहले आपकी तरह आते थे खड़े होते थे, एतराज़ करते थे, बात करते थे, कमियां पेश करते थे, क्रांतिकारी हैं, ऐसा नहीं है कि क्रांतिकारी न हों। अलबत्ता मैं एक एक को नहीं पहचानता बल्कि समूह के बारे में राय देता हूं। बुरा समूह नहीं है, अच्छा है। सरकार में भी, संसद में भी और कुछ दूसरे विभागों में अच्छा समूह है। हाँ मुमकिन है कुछ चीज़ें एतेराज़ के लायक़ हों।

बहरहाल मुझे आज आपकी बातें अच्छी लगीं, इसे आप जान लीजिए। आप लोग बैठते हैं, ग़ौर करते हैं, मुद्दों का विभिन्न पहलुओं से अध्ययन करते हैं, किसी नतीजे तक पहुंचते हैं और यहाँ साफ़ तौर पर बयान करते हैं, यह चीज़ मुझे पसंद है और मेरे लिए फ़ायदेमंद है।

अब वो बातें जो मैं आपके सामने पेश करना चाहता हूं, उनमें सबसे पहले एक नसीहत है, मैं आप प्यारों को एक नसीहत करना चाहता हूं। अमीरुल मोमेनीन (अलैहिस्सलातो वस्सलाम) ने अपने प्यारे बेटे इमाम हसन के नाम ख़त में लिखा हैः अहये क़लबका बिल मौएज़ह(3) अपने दिल को नसीहत के ज़रिए ज़िन्दा रखो! यह अमीरुल मोमेनीन ने फ़रमाया, वह भी किससे इमाम हसन जैसे अपने बड़े बेटे, अपने प्रिय बेटे से। और यह भी जानना रोचक रहेगा कि इमाम अली अलैहिस्सलाम ने यह ख़त सिफ़्फ़ीन से पलटते वक़्त रास्ते में वह भी कई तरह के मामलों में उलझे होने के बीच, लिखा। यह ख़त नहजुल बलाग़ा मैं है, देखिए, पढ़िए। अपने दिल को नसीहत से ज़िंदा करो। इस वक़्त नसीहत ज़रूरी है।

मैं जो नसीहत करना चाहता हूं वह सूरए मरयम की आयत है जो कुरआन की उन आयतों में है जो अंदर से दहला देती हैं, जब भी यह आयत याद आती है तो भीतर से दहला देती है। आयत कहती हैः हमारे पैग़म्बर! उन लोगों से जो ग़फ़लत में पड़े हैं, कहिए और उन्हें “हसरत के दिन” से डराइये।(4)  हसरत का दिन क़यामत का दिन है जिसे हसरत का दिन कहा गया है। (इज़ क़ुज़ियल अम्र) यानी जब काम पूरा हो चुका होगा और कुछ भी न किया जा सकेगा। (क़ुज़ियल अम्र) का मतलब यह है। आयत कहती है कि पैग़म्बर उन लोगों को उस दिन से डराइए! इंसान क़यामत में देखेगा कि कभी ऐसा भी हो सकता था कि एक छोटे से काम से यहाँ एक बड़ा इनाम हासिल कर लिया जाता। दुनिया में एक छोटे से काम का यहाँ पर बहुत ज़्यादा फ़ायदे वाला स्थायी नतीजा हासिल कर लेता और वह काम, उसने नहीं किया। इस पर इंसान हसरत करेगा। या वह दुनिया में एक चीज़ से परहेज़ के ज़रिए, किसी काम से दूर रह कर किसी बात को या अमल को न करके एक दर्दनाक अज़ाब को ख़ुद से दूर कर सकता था, लेकिन उसने नहीं किया, कोशिश नहीं की। हमें फ़ैसला करना चाहिए कि सही काम करें, हमें सही अमल करने का, सही बात करने का, सही प्रोग्राम तैयार करने का फ़ैसला करना चाहिए, हसरत का दिन बहुत सख़्त दिन है। यह काम और ये फ़ैसले जवानी में मुमकिन हैं, मेरी और मेरी जैसी उम्र के लोगों की तुलना में ज़्यादा आसान है। कभी कभी हम इस बड़ी हसरत के नमूने दुनिया में भी देखते हैं। कोई चीज़ हमारे हाथ से निकल जाती है, हम हासिल नहीं कर पाते तो हमें हसरत होती है कि हमने ऐसा क्यों नहीं किया? वैसा क्यों नहीं किया? अलबत्ता यह क़यामत की हसरत के मुक़ाबले में बहुत छोटी चीज़ है। उस हसरत से हज़ारों गुना छोटी है लेकिन बहरहाल हसरत ही है। अल्लाह का शुक्र है कि आपको आज यह हसरत नहीं है, क्योंकि आप जवान हैं। यह चीज़ हम जैसे लोगों के लिए है जो जवानी और अधेड़ उम्र को पार कर चुके हैं, हमें कुछ काम करने चाहिए थे, हमने नहीं किए और कुछ काम नहीं करने चाहिए थे, वो हमने किए।

आप अपने सामने मौजूद इस मौक़े की क़द्र कीजिए। आप जिस उम्र में हैं, मुमकिन है आपके सामने 60 साल, 70 साल की उम्र हो, इस मौक़े की क़द्र कीजिए जो आपके सामने और आपकी सेवा में है। यह मेरी आज की नसीहत है।

अब जो चीज़ मैंने तैयार की है, वह ज़्यादतर युनिवर्सिटी और युनिवर्सिटी से जुड़े विषयों के बारे में है। आप लोगों ने जो बातें कीं, उनमें एक साहब ने युनिवर्सिटी या शायद स्टूडेंट्स के मामलों के बारे में संक्षेप में एक आलोचना की थी। मैं युनिवर्सिटी के मालमों के बारे में बात करना चाहता हूं, मेरे पास राय भी है और सुझाव भी है, जिसे मैं बयान करूंगा। सबसे पहले युनिवर्सिटी का रोल, रोल की संभावना और निकट भविष्य में उस रोल को निभाने की ज़रूरत। इसके अलावा दूसरे कुछ मौक़े मौजूद हैं, कुछ ख़तरे मौजूद हैं और फिर स्टूडेंट्स के लिए कुछ ज़रूरी बातें। यह हमारी आज की बातचीत के बुनियादी विषय हैं, इंशाअल्लाह अगर आपने संयम दिखाया और मैं भी बयान कर सका तो इन बातों के पेश करुंगा।

क्रांति के आग़ाज़ से ही युनिवर्सिटी को एक बुनियादी मुद्दे की हैसियत से देखा गया। यानी जब क्रांति आ गयी तो उसके कुछ लक्ष्य थे, कुछ बड़े लक्ष्य थे। व्यक्तिगत और तानाशाही शासन को प्रजातांत्रिक शासन में बलदना, देश विदेश की नीतियों में दूसरों के अनुसरण को स्वाधीनता में बदलना और इसी तरह दूसरे अहम लक्ष्य थे जो क्रांति के थे लेकिन उन लक्ष्यों के सामने कुछ व्यवहारिक तौर पर फ़ौरन अंजाम देने वाले प्रोग्राम भी थे जिनमें से एक युनिवर्सिटी का मामला था। दूसरे प्रोग्रामों में फ़र्ज़ कीजिए देश की सुरक्षा, सरहदों की सुरक्षा, देश की आंतरिक सुरक्षा वग़ैरह थे जो उन अहम बुनियादी मुद्दों में थे जो क्रांति के सामने थे और क्रांति को उन पर काम करना था, उन्हीं में से एक युनिवर्सिटी का मामला था।

युनिवर्सिटी का मामला इस लेहाज़ से अहम था कि युनिवर्सिटी एक हक़ीक़त थी और एक ऐसी हक़ीक़त जिसकी ज़रूरत भी थी। अलबत्ता दो तरह के नज़रिये थेः एक नज़रिया, क्रांति का नज़रिया था और दूसरा नज़रिया युनिवर्सिटी के बारे में क्रांति विरोधी रूढ़ीवादी धड़े का था। इस दूसरे नज़रिये को पहले नज़रिये में तब्दील होना चाहिए था। इसलिए वह एक चैलेंज था। क्रांति के पहले दिन से युनिवर्सिटी का मामला, चुनौती भरे मामलों में से एक था। इसलिए आप देखते हैं कि इमाम ख़ुमैनी ने आग़ाज़ में ही, सांस्कृतिक क्रांति के सेंटर का गठन किया। (5) आप में से किसी एक साहब ने सांस्कृतिक क्रांति की ऊच्च परिषद की तरफ़ इशारा किया। यह परिषद गहरे अध्ययन के बाद गठित हुयी, ऐसा नहीं था कि बिना किसी वजह के परिषद का गठन करना चाहते थे। इस परिषद से पहले, इसकी पूर्ववर्ती संस्था थी सांस्कृतिक क्रांति का सेंटर जिसे ख़ुद इमाम ख़ुमैनी ने गठित किया था। अलबत्ता उच्च काउंसिल को भी इमाम ख़ुमैनी ने ही क़ायम किया था। (6) लेकिन सेंटर के बाद। शुरूआत में इमाम ख़ुमैनी ने यूनिवर्स्टियां चलाने के लिए सांस्कृतिक क्रांति का एक सेंटर क़ायम किया। देखिए, ये चीज़ इमाम ख़ुमैनी की नज़र में युनिवर्सिटी की अहमियत को बयान करती है। इसके बाद इमाम ख़ुमैनी रहमतुल्लाह अलैह ने युनिवर्सिटी के बारे में अहम बयान दिए जिनसे पता चलता है कि युनिवर्सिटी का मामला, क्रांति के पहले दर्जे के चुनौतीपूर्ण मामलों में से एक था। हम ने जो दो नज़रिये बयान किए, उनमें टकराव किस बात में है? एक तो यह कि क्रांति युनिवर्सिटी को, मुल्क की तरक़्क़ी और मुल्क के मामलों के हल के लिए असाधारण योग्यता वाले लोगों की ट्रेनिंग की जगह समझती थी। युनिवर्सिटी के बारे में क्रांति का यह नज़रिया था। मुल्क के मामलों के हल के लिए, मुल्क की तरक़्क़ी के लिए, मुल्क के दो-तीन सौ बरसों के पिछड़ेपन की भरपाई के लिए असाधारण सलाहियत वाले लोगों की ट्रेनिंग ज़रूरी है। क्रांति इस नज़र से युनिवर्सिटी को देखती थी, जबकि युनिवर्सिटी के बारे में उस रूढ़िवादी व क्रांति विरोधी धड़े का नज़रिया बिल्कुल यह नहीं था, उन्होंने मुल्क में यूनिवर्स्टियां बनाई थीं और चलाई थीं ताकि पिट्ठू और मोहरे तैयार करें, ताकि ख़ुद क़ौम के भीतर से और क़ौम के अंदर कुछ लोग ऐसा काम करें जिसे वे लोग बाहर से करना चाहते थे। यह एक लंबी कहानी है, बड़ा लंबा मामला है। नियो कालोनियलिज़म की रणनीति।

अफ़सोस की बात है कि नौजवान किताबें कम पढ़ते हैं। मुझे नहीं पता कि आपने साम्राज्यवाद और नए उपनिवेशवाद वग़ैरह के बारे में कितनी किताबें पढ़ी हैं और उनके बारे में कितना जानते हैं। यूरोप वालों ने किसी ज़माने में यानी सत्रहवीं शताब्दी के क़रीब सन 1600 ईसवी से। पहले पुर्तगालियों ने, फिर हिस्पानवियों ने और फिर दूसरों ने –दुनिया में साम्राज्यवाद और कॉलोनियां बनाने का काम शुरू किया। यानी वह मुल्कों पर क़ब्ज़ा करते थे और लोगों का ख़ून बहा कर, ज़ुल्म ढाकर और ताक़त के ज़रिए कमज़ोर मुल्कों की बागडोर अपने हाथ में ले लेते थे और उनका धन-दौलत लूट लेते थे। बीसवीं सदी में यानी क़रीब चार सदी तक नई औपनिवेशिक व्यवस्था चलाने के बाद वे इस नतीजे पर पहुंचे कि अब सीधे तौर पर साम्राज्यवाद का कोई फ़ायदा नहीं है। एक नई नीति वजूद में आयी और वह यह थी कि टार्गेट बनाए गए देशों में कुछ लोगों को तैयार किया जाए ताकि वे लोग वही काम करें जो वह साम्राज्यवादी देश अंजाम देने वाला था, वही बातें करें जो वह करने वाला था, अपने मुल्क में वह क़दम उठाएं जो वह साम्राज्यवादी करने वाला था, तो यह लक्ष्य है। इसलिए पश्चिम वालों के लिए टार्गेट बनाए गए देश में युनिवर्सिटी, एलीट वर्ग की ट्रेनिंग और उनकी पहचान के सिलसिले में जो नज़रिया था वह यही है जो मैं बता रहा हूं और इसी का नाम नियो कालोनियलिज़म था। इस बारे में किताबें लिखी गई हैं, लोगों ने रिसर्च पर आधारित बहुत ज़्यादा लेख वग़ैरह लिखे हैं। बेहतर होगा कि आप उन्हें देखें। युनिवर्सिटी के बारे में रूढ़िवादी और क्रांति विरोधी धड़े का नज़रिया यह था और यह क्रांति के नज़रिये से पूरी तरह टकराव रखता है।

युनिवर्सिटी के बारे में एक दूसरी चुनौती यह थी कि क्रांति युनिवर्सिटी को इल्म के प्रोडक्शन के सेंटर और इल्म की तरक़्क़ी के सेंटर की नज़र से देखती थी ताकि युनिवर्सिटी इल्म को आगे बढ़ा सके। पहले सीखें, फिर पैदावार करें और फिर आगे बढ़ाएं। ताकि इल्म के ज़रिए क़ौमी ताक़त को सुनिश्चित किया जा सके। क्योंकि ज्ञान व विज्ञान, क़ौम को और मुल्क को ताक़तवर बनाते हैं, ताक़त देते हैं। क्रांति का यह नज़रिया था। उस रूढ़ीवादी और क्रांति विरोधी धड़े का नज़रिया बिल्कुल ऐसा नहीं था। उसे युनिवर्सिटी से यह अपेक्षा नहीं थी कि वह इल्म की पैदावार करे। नहीं, वह यह चाहता था कि हमारी यूनिवर्स्टियां,  सिर्फ़ हमारे मुल्क की यूनिवर्स्टियां नहीं, टार्गेट बनाए गए सभी देशों की यूनिवर्स्टियां, पश्चिमी ज्ञान विज्ञान की तलछट को ले लें यानी उस बेकार व अनुपयोगी चीज़ को सीखें और ज्ञान विज्ञान की पैदावार न कर सकें। यानी सही अर्थ में उन मुल्कों में विज्ञान तरक़्क़ी न कर सके और उसका विकास न हो सके। उन लोगों का यह टार्गेट था। उन देशों में किसी भी क्षेत्र में वैज्ञानिक इनोवेशन के लिए उठने वाले हर क़दम को दबा दिया गया। यह दावे नहीं, सच्चाई है। ये ऐसी घटनाएं हैं जो हुयीं हैं। तो यह भी एक चुनौती थी। वे चाहते थे कि युनिवर्सिटी के ज़रिए “उपभोग करने वाला वैज्ञानिक” और “उपभोग करने वाला समाज” तैयार करें। उपभोग करने वाला वैज्ञानिक यानी वह शख़्स जो पश्चिमी विज्ञान को इस्तेमाल करता है और वह भी आधुनिक नहीं बल्कि पिछड़ा हुआ, आउटडेटेड इल्म। उपभोग करने वाले समाज का मतलब यह है कि यही शिक्षित उपभोग करने वाला विद्वान जब समाज में आता है, जब किसी चीज़ का संचालन अपने हाथ में लेता है तो उपभोग करने वाला समाज वजूद में ले आता है, पश्चिमी उत्पादों के लिए उपभोक्ता मंडी तैयार करता है। युनिवर्सिटी का लक्ष्य यह था। युनिवर्सिटी के बारे में इस तरह के नज़रिये थे।

यूनिवर्स्टियों के बारे में एक दुसरी चुनौती यह थी कि क्रांति का लक्ष्य, एक धर्मपरायण युनिवर्सिटी तैयार करना था ताकि जब मुल्क का कोई नौजवान युनिवर्सिटी में आता है और कई साल तक युनिवर्सिटी में रहता है और फिर बाहर आता है तो वह धर्मपरायण बन कर बाहर आए, बल्कि जब उसने युनिवर्सिटी में दाख़िला लिया, उस वक़्त से भी ज़्यादा धर्मपरायण बन कर निकलना चाहिए, लेकिन उन लोगों का लक्ष्य इसके बिल्कुल विपरीत था। वह चाहते थे कि युनिवर्सिटी से धर्म का सफ़ाया कर दें और उन्होंने इसकी कोशिश भी की लेकिन इस लक्ष्य में वह ज़्यादा कामयाब न हो सके मगर उन्होंने हर संभव कोशिश की। यह जो मैंने कहा कि “वह कामयाब नहीं हुए” तो इसलिए कहा कि सरकश शाही शासन की बनायी हुयी युनिवर्सिटी और पश्चिम के प्रोग्रामों के तहत चलाई जाने वाली युनिवर्सिटी से हसन बाक़ेरी जैसे लोग निकले, एक महान शहीद जो इसी तेहरान युनिवर्सिटी की लॉ फ़ैकल्टी के स्टूडेंट थे। या एटमी विभागों के शहीदों में से कई उस ज़माने के स्टूडेंट हैं। पवित्र प्रतिरक्षा के बहुत से शहीद, प्रतिष्ठित लोग और कमांडर वग़ैरह, क्रांति से पहले की यूनिवर्स्टियों के स्टूडेंट हैं। इसलिए धर्म का सफ़ाया करने के उस लक्ष्य में वह पूरी तरह सफल नहीं हो सके, लेकिन बहरहाल उन्होंने अपनी हर संभव कोशिश की और बड़ी कटु घटनाओं को जन्म दिया जिनमें से कुछ को तो बयान भी नहीं किया जा सकता और कुछ ऐसी हैं कि इस बैठक और इस सीमित वक़्त के मद्देनज़र ज़िक्र करना उचित नहीं है। इसलिए युनिवर्सिटी का मामला, पहले दिन से ही क्रांतिकारी धड़े और क्रांति विरोधी धड़े के बीच चुनौती भरा मामला था।

अब यह सवाल कि क्रांति ने युनिवर्सिटी के लिए क्या किया? क्रांति ने युनिवर्सिटी के लिए जो बड़ा काम किया, वह युनिवर्सिटी को पहचान प्रदान करना और उसके नतीजे में ईरानी क़ौम को पहचान देना था। क्रांति ने क़ौम को पहचान, आदर्श होने, शख़्सियत और स्वाधीनता का आभास कराया और उसे स्पष्ट क्षितिज दिखाया। यह वह काम हैं जो क्रांति ने ईरानी क़ौम के लिए अंजाम दिए। स्वाभाविक रूप से जब किसी क़ौम में पहचान बनाने और आइडियलाइज़ेशन का राष्ट्रीय आंदोलन शुरू होता है तो जिसे सबसे ज़्यादा फ़ायदा हासिल होता है वह युनिवर्सिटी का जवान और स्टूडेंट है, वह नौजवान स्टूडेंट जिसके अपने जज़्बात हैं, अपनी पहचान है, और पाकीज़गी है। युनिवर्सिटी ने अपने लिए पहचान का आभास किया और यह आभास इस बात का कारण बना कि युनिवर्सिटी और स्टूडेंट्स, पश्चिमी ताक़तों के मुक़ाबले में कमज़ोरी और हीन भावना का शिकार न हों और यह चीज़ पहले के माहौल के बिल्कुल ही उलट थी। यानी तेहरान युनिवर्सिटी का स्टूडेंट यह जानते हुए भी कि जिन लोगों ने आकर इस युनिवर्सिटी में मोर्चाबंदी की है, उन्हें सोवियत संघ के दूतावास से मदद मिल रही है और उन्हें सोवियत यूनियन की नीतियों का सहारा है, पूरी ताक़त से जाकर उनके मुक़ाबले में डट गया और उसने तेहरान युनिवर्सिटी को ऐसे लोगों से साफ़ किया। या वह स्टूडेंट, जिन्होंने जाकर इस्लामी व्यवस्था के ख़िलाफ़ साज़िशों के केन्द्र (अमरीकी दूतावास) पर क़ब्ज़ा कर लिया, यह जानते थे कि वह क्या कर रहे हैं। वह अमरीका जैसी ताक़त से लोहा ले रहे थे। उन्होंने कमज़ोरी का एहसास नहीं किया, ताक़त का एहसास किया, यह वही पहचान है। यह वही पहचान की भावना है, स्वाधीनता का एहसास है, शख़्सियत का एहसास है। यह एहसास यूनिवर्सिटी को दिया गया।

इसके बाद मेरे ख़याल में स्टूडेंट्स की तादाद उन लोगों में सबसे ज़्यादा थी जिन्होंने पासदाराने इंक़ेलाब फ़ोर्स आईआरजीसी ज्वाइन की थी। मैं आंकड़े तो नहीं बता सकता लेकिन मुझे ऐसा ही लगता है। यानी आग़ाज़ में ही स्टूडेंट्स आईआरजीसी के सदस्य बन गए। उस वक़्त आईआरजीसी को क़ौमी और क्रांतिकारी ताक़त का एक सेंटर समझा जाता था और सही समझा जाता था। अब भी ऐसा ही है। वह जाकर आईआरजीसी ज्वाइन करते थे और तैयार रहते थे। यानी जो आईआरजीसी में चला जाता था, उसका मतलब यह होता था कि हम दुनिया की बड़ी ताक़तों के मुक़ाबले में लड़ने और डटने के लिए तैयार हैं। यह युनिवर्सिटी को पहचान दिलाना था। स्वाधीनता का एहसास था, दुनिया की बड़ी ताक़तों को कुछ नहीं समझते थे।

उस वक़्त नौजवान स्टूडेंट, स्वाधीनता के एहसास की मिठास को महसूस कर सकता था। आज आप लोग, स्वाधीनता की भावना की मिठास को बहुत ज़्यादा महसूस नहीं करते। क्योंकि आपने अपनी पूरी उम्र एक ऐसे मुल्क में गुज़ारी है जो शायद नीतियों के लेहाज़ से सबसे ज़्यादा स्वाधीन देशों में से एक रहा है। यानी बड़ी ताक़तों के हुक्म पर न चलना। आपने किसी के हुक्म पर चलने के अपमान को महसूस ही नहीं किया है इसलिए आप आज के नौजवान, स्वाधीनता को ज़्यादा नहीं जानते लेकिन उस दिन का नौजवान जानता था, वह देखता था कि अमरीका के मुक़ाबले में दरबार, शासन और अधिकारियों का रवैया एक तरह का है, यूरोप के मुक़ाबले में एक और तरह का है। इसे वे लोग देखते थे। उस अपमान को उन्होंने देखा इसलिए स्वाधीनता के जज़्बात का एक मधुर हक़ीक़त के तौर पर स्वागत करते थे।

इसलिए पहले चरण में क्रांति ने युनिवर्सिटी से संबंधित चुनौतियों में बड़ी कामयाबी हासिल की। मैं यह नहीं कहता कि उसने युनिवर्सिटी को पूरी तरह बदल दिया और क्रांति व इस्लाम की पसंद के मुताबिक़  युनिवर्सिटी को ढाल दिया। नहीं कोई भी यह दावा नहीं करता लेकिन वह क्रांति विरोधी धड़े के मुक़ाबले में युनिवर्सिटी के संबंध में एक सही, ठोस और तारीफ़ के क़ाबलि क़दम उठाने में कामयाब रही। उसने युनिवर्सिटी को एक पहचान दी, शख़्सियत दी। उसी वक़्त के कुछ स्टूडेंट्स ने क़ुम जाकर एक सेंटर से समन्वय किया और ह्यूमैनिटीज़ से संबंधित किताबों के संकलन के लिए लंबी बैठकें की, हालांकि वह ज़्यादा कामयाब नहीं रहे, लेकिन इस काम के लिए हौसले की ज़रूरत थी और उन्होंने यह काम किया, तेहरान के प्रोफ़ेसरों और कुछ स्टूडेंट्स और क़ुम के कुछ इस्लामी विचारकों ने किताबों का एक विस्तृत संग्रह तैयार भी किया। आग़ाज़ में इस तरह से काम किया गया।

फिर मुल्क की यूनिवर्स्टियों में इस्लामी यूनियन बनी, फिर स्टूडेंट्स की और प्रोफ़ेसरों की स्वंयसेवी अंजुमन गठित हुयी और ये क्रांति के परचम हैं। इस्लामी यूनियनें सही अर्थ में उस वक़्त इस्लाम का परचम समझी जाती थीं। अच्छी बहसें होती थीं, गहरी बातें होती थी। मैं भी जुड़ा हुआ था। यानी इस्लामी यूनियनों ने इमाम ख़ुमैनी से संपर्क किया था और उन्होंने मेरा नाम लिया था कि फ़लां से संपर्क में रहिए।(7) यूनियंज़ और उनसे संबंधित जवानों से मैं नियमित रूप से संपर्क में रहता था। इसी अमीर कबीर युनिवर्सिटी में हमारी अनेक बैठकें हुयी थीं, हम विभिन्न विषयों पर बातें करते थे, बड़ी अच्छी वैचारिक बहसें हुया करती थीं। तो यह पहला क़दम था, लेकिन इसका मतलब यह नहीं था कि टकराव ख़त्म हो गया था। जी नहीं, मतलब ऐसा नहीं था कि क्रांतिकारी धड़े की इस कामयाबी से, क्रांति विरोधी धड़ा पीछे हट गया हो और उसने युनिवर्सिटी का पीछा छोड़ दिया हो और चुनौती ख़त्म हो गयी हो। नहीं, ऐसा नहीं था। चुनौती जारी थी, टकराव जारी था, इसी लिए युनिवर्सिटी में उन बरसों में, उन दहाइयों में उतार चढ़ाव मौजूद था जिसके बहुत से क़िस्से हैं। मेरे ख़याल में रिसर्च का विषय बन सकता है। बुनियादी रिसर्च के कामों में से एक हो सकता हैः क्रांति के बाद मुल्क की यूनिवर्स्टियों की हालत, उनका उतार चढ़ाव, उसके लोगों का बदल जाना कि कौन लोग थे, कहाँ चले गए, उनका अंजाम क्या हुआ और उनकी जगह पर कौन लोग आए? यह बड़ी अहम बातें हैं जो एक अच्छी और विस्तृत रिसर्च का विषय बन सकती हैं।

मैं इन बातों से जो नतीजा हासिल करना चाहता हूं और पेश करना चाहता हूं, वह यह है कि आज इस्लामी गणराज्य पहले तो यह कि अपनी युनिवर्सिटी पर गर्व कर सकता है, दूसरे यह कि यूनिवर्स्टियों की फ़िक्र में रहना उसकी ज़िम्मेदारी है। मैं इन दोनों बिन्दुओं की व्याख्या करना चाहूंगा। जहाँ तक युनिवर्सिटी पर इस्लामी गणराज्य के फ़ख़्र करने की बात है वह इसलिए है कि आज की युनिवर्सिटी की क्रांति के आग़ाज़ के दौर की युनिवर्सिटी से कोई तुलना नहीं की जा सकती। हाँ उस वक़्त जोश व जज़्बा ज़्यादा था और जोशीले क़दम उठते थे क्योंकि क्रांति के आग़ाज़ का ज़माना था लेकिन आज हमारे मुल्क की युनिवर्सिटी की, क्रांति के आग़ाज़ की युनिवर्सिटी से कोई तुलना ही नहीं है।

पहले तो स्टूडेंट्स की तादाद के लेहाज़ से देखिए, उस वक़्त मुल्क की सभी यूनिवर्स्टियों के कुल स्टूडेंट्स की तादाद क़रीब डेढ़ लाख थी जबकि आज यूनिवर्स्टियों के स्टूडेंट्स की तादाद दसियों लाख है। यह तादाद यूनिवर्स्टियों से पढ़ कर निकलने वालों से हट कर है, इस वक़्त यूनिवर्स्टियों में पढ़ रहे स्टूडेंट्स की तादाद दसियों लाख है। तादाद की नज़र से इसकी सही अर्थ में तुलना नहीं की जा सकती। इस में सरकारी और ग़ैर सरकारी दोनों यूनिवर्स्टियां हैं।

दूसरे शिक्षकों व प्रोफ़ेसरों के लेहाज़ से। उस वक़्त हमें जो रिपोर्टें दी जाती थीं उनके मुताबिक़, क्रांति के आग़ाज़ के दिनों में तेहरान की यूनिवर्स्टियों में टीचरों की कुला तादाद क़रीब 5000 थी जबकि आज दसियों हज़ार है जिनके बीच बहुत से बड़े ही प्रतिष्ठित हैं, असाधारण योग्यता रखते हैं। यानी स्टूडेंट्स और शिक्षक की तादाद फ़ख़्र करने लायक़ है।

फिर ज़बरदस्त वैज्ञानिक प्रगति। उस वक़्त वैज्ञानिक काम के लेहाज़ से युनिवर्सिटी में हमारे पास सही अर्थ में फ़ख़्र करने वाली कोई भी चीज़ नहीं थी, हक़ीक़त में ऐसा ही था। अलबत्ता यह मुमकिन है कि कभी किसी असाधारण सलाहियत वाले जवान ने मुल्क के किसी सुदूर इलाक़े में कोई सोच दी हो कोई काम अंजाम दिया हो और हमें उसकी ख़बर न हो लेकिन कुल मिलाकर एक यूनिट की हैसियत से युनिवर्सिटी में उल्लेखनीय काम, ध्यान देने लायक़ काम नहीं होता था। आज अल्लाह की कृपा से युनिवर्सिटी में बड़े बड़े व उल्लेखनीय काम अंजाम पाए हैं और प्रोफ़ेसरों, वैज्ञानिक वर्कशाप्स और एलिट क्लास वाले स्टूडेंट्स के ज़रिए लगातार अंजाम पा रहे हैं।

एलिट स्टूडेंट्स की ट्रेनिंग। हमारे पास आज कितनी बड़ी तादाद एलिट जवानों की है। कुछ लोग मुल्क से चले जाते हैं और कुछ लोग इस बात का रोना रोते हैं कि वे लोग मुल्क से चले गए। ठीक है हम चाहते हैं कि एलिट्स मुल्क में रहें लेकिन इस वक़्त मुल्क में जितनी तादाद में एलिट्स मौजूद हैं वह उन लोगों की तादाद से कई गुना है जो मुल्क से बाहर चले गए हैं। अल्लाह की कृपा से हमारी यूनिवर्स्टियां बहुत अच्छी हैं।

सरकार के प्रशासनिक ओहदों पर यूनिवर्स्टियों से शिक्षा पूरी करने वालों की नियुक्ति। यह बहुत अहम है। अलग अलग मौक़ों पर हमारे यहां अच्छे प्रशासनिक अधिकारी रहे हैं, अब आपकों मिसाल के तौर पर फ़लां सरकार पर एतराज़ है और उसके अधिकारियों पर आप एतेराज़ करते हैं तो इसका मतलब यह नहीं है कि उस सरकार में अच्छे अधिकारी और हमारे उस भाई के शब्दों में पढ़े लिखे, बहादुर और सच्चे अधिकारी नहीं थे! क्यों नहीं बहुत अच्छे अधिकारी रहे हैं, इस वक़्त भी हैं। इस वक़्त भी ऐसे लोग, आम ज़बान में इस तरह कहें कि जिनके मुंह से अभी युनिवर्सिटी की महक आती है, सरकार और संसद वग़ैरह में मौजूद हैं। यह देश के फ़ख़्र करने वाले कारनामों में से एक है।

इसके बाद ख़ास इस्लामी व धार्मिक मापदंड की मौजूदगी। ऐसा नहीं है कि आज की यूनिवर्स्टियों की वैचारिक, धार्मिक व इल्मी मुश्किलो से मैं बेख़बर हूं। किसी हद तक जानता हूं लेकिन मुल्क की यूनिवर्स्टियों में धर्म की मौजूदगी, पूरी तरह से ज़ाहिर, बेनज़ीर और हौसला दिलाने वाली है। यक़ीनी तौर पर इस्लामी जगत में कहीं और यूनिवर्स्टियों में इतने ज़्यादा इबादत करने वाले, एतेकाफ़ करने वाले, मुस्तहेब नमाज़ें पढ़ने वाले, दुआएं पढ़ने वाले, रात भर जाग कर इबादत करने वाले व क़ुरआन पढ़ने वाले नौजवान नहीं हैं। इस्लामी जगत में कहीं भी यह चीज़ नहीं है मगर अल्लाह की कृपा से यहाँ है। इसलिए आज इस्लामी गणराज्य अपनी युनिवर्सिटी पर हक़ीक़त में फ़ख़्र कर सकता है। मैंने कहा कि इसका मतलब यह नहीं है कि आज की युनिवर्सिटी वही युनिवर्सिटी है जो क्रांति को वांछित है। नहीं लेकिन यही युनिवर्सिटी, वह युनिवर्सिटी है जिस पर सही अर्थ में फ़ख़्र किया जा सकता है।

जहाँ तक चिंता की बात है तो युनिवर्सिटी की चिंता क्यों होनी चाहिए? इसलिए कि वह क्रांति विरोधी रूढ़िवादी पिट्ठू धड़ा, विदेशी जड़ों से जुड़ा हुआ था और वह जड़ें अब भी बाक़ी हैं और उस धड़े का समर्थन किया जा रहा है। वह धड़ा अब भी है और सरगर्म भी है। पश्चिम की साम्राज्यवादी नीतियां रुकी नहीं हैं। वह नए उपनिवेशवाद जिसके बारे में, मैंने संक्षेप में बयान किया, वह अब भी अपनी जगह पर काम कर रहा है। उनके थिंक टैंक्स सोचते रहते हैं, बजट देते हैं और यूनिवर्स्टियों में काम करते हैं। इसलिए यह चिंता होना चाहिए। अभी चैलेंज बाक़ी है।

अब आप इस युनिवर्सिटी और मुल्क तथा मुल्क के मामलों पर इस युनिवर्सिटी के पड़ने वाले असर की तुलना काजिए, क्रांति के आग़ाज़ के दौर की डेढ़ लाख स्टूडेंट्स वाली यूनिवर्स्टियों के प्रभावों से, यक़ीनन आज की युनिवर्सिटी का असर कहीं ज़्यादा है। इसलिए अगर दुश्मन, युनिवर्सिटी को भीतर से गिरा सके तो उसके प्रभाव और नुक़सान, क्रांति के आग़ाज़ के दौर से कई गुना ज़्यादा होंगे, इसलिए कि युनिवर्सिटी ज़्यादा विस्तृत है, इसमें ज़्यादा नौजवान हैं, बात करने वाले हैं, सरगर्म स्टूडेंट्स हैं, कलाकार हैं और इसी तरह के दूसरे लोग।  इसलिए हमें इस ओर से चिंतित रहना चाहिए।

किस चीज़ की चिंता होनी चाहिए? कौन सी चीज़ है जिसका तक़ाज़ा है कि अधिकारी और ख़ुद युनिवर्सिटी वाले और आप स्टूडेंट्स उसकी ओर से चिंतित रहें? मेरे ख़याल में सबसे पहले चरण में युनिवर्सिटी की पहचान का अंत और युनिवर्सिटी के आइडियलाइज़ेशन का अंत है। पहले चरण में जिस चीज़ की चिंता होनी चाहिए और जिस चीज़ की ओर से फ़िक्रमंद रहना चाहिए, वह यह है। इसलिए कि कुछ सोचना चाहिए, सभी को सोचना चाहिए। युनिवर्सिटी के अधिकारियों को भी, युनिवर्सिटी के वैज्ञानिक अमले को जैसे प्रोफ़ेसरों और रीसर्च स्कॉलर्ज़ को भी, स्टूडेंट्स को भी और इसी तरह मुल्क के अधिकारियों को भी इस बारे में सोचना चाहिए।

आज आप अख़बारों और साइबर स्पेस में छपने वाले बहुत से बयानों में सुनते हैं कि आइडियालोजी के अंत को एक ज़रूरी काम के तौर पर पेश किया जाता है। यह वही पहचान का अंत करने का मामला है। आइडियालोजी, विचार और संस्कार क़ौम की पहचान हैं। आज उनका अगुआ अमरीका है और अमरीकी हमेशा अमरीकी संस्कारों पर बल देते हैं कि अमरीकी संस्कारों का यह कहना है, अमरीकी संस्कारों का यह मानना है। अमरीकी संस्कार यानी वही आइडियालोजी। लेकिन यह लोग, यह चीज़ अमरीका से सीखने के लिए तैयार नहीं हैं। यह जो कहा जाता है कि मुल्क के अंदर से आइडियालोजी को ख़त्म किया जाए तो इसका मतलब यह है कि समाज की वैचारिक पहचान, जिसका सबसे अहम प्रतीक युनिवर्सिटी और स्टूडेंट्स हैं, ख़त्म कर दी जाए। पहचान के अंत का मतलब यह है। किसी मुल्क की वैचारिक बुनियादों और ऐतिहासिक व राष्ट्रीय विरासत का अनादर किया जाए, किसी मुल्क के अतीत को गिरी नज़र से देखा जाए, क्रांति के अतीत का अपमान किया जाए, बड़े बड़े कारनामों को छोटा बताया जाए। अलबत्ता कुछ कमियां भी हैं, जिन्हें दसियों गुना बढ़ा कर दिखाया जाए। पहचान के अंत का मतलब यह है। उसके बाद इस पहचान की जगह पश्चिम के वैचारिक सिस्टम को दे दी जाए। जिसका एक नमूना अमरीकियों का यही डॉक्टूमेंट 2030 है जो हमारे ज़माने में पश्चिम के नौ उपनिवेशवादी वर्चस्व का प्रतीक है। इसका एक नमूना यह है।

जी हां इस्लामी इन्क़ेलाब की बरकत से, ग़ौर व फ़िक्र और कल्चर की विरासत को नयी ज़िदंगी मिली, इन विरासत को, ख़त्म करना या उसे बेअसर बनाना, दुश्मन का मक़सद है। आज हमारे मुल्क में करोड़ों नौजवान हैं जो चोटियों को फ़तह करने पर तैयार हैं, यानी सच में आज हमारे मुल्क के नौजवान पूरी तरह से तैयार हैं, कुछ नौजवान दीनी और इन्क़ेलाबी सोच की वजह से तैयार हैं लेकिन बहुत से ऐसे भी हैं जो दीनी और इन्क़ेलाबी सोच नहीं रखते लेकिन मुल्क की ख़िदमत के लिए तैयार हैं, साइंस के मैदान में आगे बढ़ने के लिए मुल्क को इज़्ज़त की चोटियों पर ले जाने और मुल्क की ताक़त बढ़ाने के लिए पूरी तरह तैयार हैं, इन लोगों को बेकार करना और इन नौजवानों को नाउम्मीद करना, बड़े मक़सद की तरफ बढ़ने से रोकना, अपने किये पर पछताने पर मजबूर करना, प्रोपैगंडे करके उनके दिलों में नाउम्मीदी पैदा करना और मुल्क के नौजवानों को हर तरफ़ से मायूस करना दुश्मन का मक़सद है। आज यह काम किया जा रहा है। इस लिए इस तरह की साज़िशों के सामने खड़े होने की ज़रूरत है, आप लोग जब यहां आते हैं और इतनी हिम्मत के साथ, इतने भरोसे के साथ बात करते हैं तो उससे सच में जी ख़ुश हो जाता है, मुझे तो बहुत मज़ा आता है, हर इन्सान को बात चीत की ताक़त, अच्छी लॉजिक पसंद होती है। इस लिए वह इसे बहका कर ठंडा करना चाहते हैं, मायूस करना चाहते है, यह समझाना चाहते हैं कि बस अब कोई रास्ता ही नहीं बचा है, बस सब कुछ ख़त्म, बंद गली है, अब कोई फ़ायदा नहीं, यह काम किया जा रहा है, पहचान को ख़त्म करने का यह मतलब था।

मक़सद से हटाना यानी मुल्क में ग़रीबी, करप्शन और डिस्क्रिमिनेशन व भेदभाव की तरफ़ से उदासीन बनाना भी एक साज़िश है। यह तीन बड़े शैतानों यानी बिगड़े समाजों की इन तीन बुराइयों की तरफ़ से जिन्हें दरअस्ल ख़त्म किया जाना चाहिए, बे परवाह बनाना, वेस्टर्न कल्चर के फैलाव की तरफ़ से बेफ़िक्री और इस्लामी इन्क़ेलाब की पहचान पर ध्यान कम होना यह सब साज़िश है। ज़ाहिर है इस्लामी इन्क़ेलाब की अपनी पहचान और ख़ूबियां हैं जिसने दुनिया को हिला दिया है, मुल्कों में डट जाने की हिम्मत पैदा की है, ज़ुल्म के सामने डट जाने की ख़ूबी, ज़ोर ज़बरदस्ती के सामने न झुकने की ख़ूबी, गुंडा टैक्स न देने की ख़ूबी, यह सब इस्लामी इन्क़ेलाब की ख़ूबियां और पहचान हैं। इन ख़ूबियों ने दुनिया को, इस्लामी मुल्कों को हिला दिया और लोग ईरान पर ध्यान देने लगे। इन बरसों में अलग अलग ख़यालात के मालिक हमारे मुल्क के प्रेसिडेंट जब किसी दूसरे मुल्क में गये और वहां के लोगों से मिले तो उन लोगों ने उनके लिए नारे लगाए, उनकी इज़्ज़त की हालांकि बहुत से प्रेसिडेंट ऐसे थे जो एक दूसरे से बिल्कुल अलग ख़याल रखते थे लेकिन दूसरे मुल्कों के लोगों ने उन सब की इज़्ज़त की तो इसकी वजह क्या है? इस्लामी जुम्हूरिया ईरान का झंडा दूसरे मुल्कों के लोगों के हाथों में क्यों लहराता है? और उन्हीं के हाथों से अमरीकी झंडा क्यों जलाया जाता है? इन्क़ेलाब की इन ख़ूबियों ने दुनिया को हिला कर रख दिया लेकिन वे इन ख़ूबियों के असर को मुल्क के अंदर कम करना चाहते हैं और लोगों को इन ख़ूबियों से दूर करना चाहते हैं। ख़ालिस इस्लाम की तरफ़ वापसी की ख़ूबी, दक़ियानूसी ख़यालात से दूरी की ख़ूबी, फ़िलिस्तीन के मामले में डट जाने की ख़ूबी इन सब चीज़ों की तरफ़ से मायूस करने की कोशिश की जा रही है। मैं आख़िर में फ़िलिस्तीन के बारे में भी एक बात कहूंगा।

तो यह अस्ली बात है, मतलब इन चीज़ों पर ध्यान दिये जाने की ज़रूरत है। अब जो लोग पहचान को ख़त्म करने की कोशिश कर रहे हैं, मक़सद को ख़त्म करने की कोशिश कर रहे हैं, अपने पैरों पर खड़े होने की कोशिश से रोकना चाह रहे हैं, वह लोग कौन हैं? कितने हैं? कितना कामयाब होंगे? यह सब एक अलग बात है, और इन सब पर ग़ौर करना आप लोगों का काम है। आप लोगों को बैठ पर इस बारे में चर्चा करना चाहिए, जायज़ा लेना चाहिए, रिसर्च करना चाहिए और नतीजे तक पहुंचना चाहिए लेकिन यह समझ लीजिए कि यह हो रहा है वैसे आप को तो पता ही होगा। यह सब चैंलेंजेज़ हैं।

हो सकता है मिसाल के तौर पर आज से दस साल पहले भी यह चैंलेंजेज़ रहे हों लेकिन आज वह ज़्यादा हैं, क्यों? यह मैं आप को बताता हूं, आज दुनिया एक न्यू वर्ल्ड आर्डर की दहलीज़ पर खड़ी है, यह नया वर्ल्ड आर्डर हमारे सामने है जो बीस बाइस साल पहले के दो ब्लॉकों वाले सिस्टम के मुक़ाबले में है, अमरीका और सोवियत यूनियन, ईस्ट व वेस्ट और इसी तरह यह न्यू वर्ल्ड आर्डर सीनियर बुश (8) के मद्देनज़र उस युनीपोलर वर्ल्ड आर्डर से भी अलग है जिसका एलान 20-22 साल पहले किया गया था। बर्लिन की दीवार गिराए जाने और दुनिया में मार्कसिस्ट और सोशलिस्ट हुकूमतों के ख़ात्मे के बाद, सीनियर बुश ने कहा था कि आज की दुनिया, न्यू वर्ल्ड आर्डर की और अमरीका के एकल ब्लॉक की दुनिया है यानी अमरीका पूरी दुनिया का मालिक है। वह बिल्कुल ग़लत थे, सही से समझ नहीं पाए थे। उसी दौर से यानी 20-22 साल से लेकर आज तक अमरीका हर दिन पहले से ज़्यादा क़मज़ोर हुआ है, अंदर से भी अपने मुल्क की पॉलिसियों के लिहाज़ से भी और अपनी फ़ॉरेन पॉलिसियों के मैदान में भी, इकानॉमी में भी, सिक्योरिटी में भी हर मैदान में अमरीका 20-22 साल से लगातार कमज़ोर हुआ है लेकिन बहरहाल यह सच्चाई है कि दुनिया अब न्यू वर्ल्ड आर्डर के दरवाज़े पर है। मेरे  ख़याल में युक्रेन की जंग पर ज़रा ज़्यादा गहराई से नज़र डालने की ज़रूरत है, यह जंग किसी एक मुल्क पर फ़ौजी हमला ही नहीं है। यह आज जो कुछ युरोप में हो रहा है उसकी जड़ें बहुत गहरी हैं और इससे लगता है कि बड़ा मुश्किल और पेचीदा दौर आने वाला है।

अब अगर यह मान लें कि हमारा अंदाज़ा सही है और दुनिया सच में एक न्यू वर्ल्ड आर्डर के दरवाज़े पर खड़ी है तो फिर ईरान समेत दुनिया के सभी मुल्कों की यह ज़िम्मेदारी होगी कि इस न्यू वर्ल्ड आर्डर में अपनी जगह बनाएं, हर तरह से, फ़िज़िकली और मेंटली ताकि नेशनल इन्ट्रेस्ट और अपने लोगों के फ़ायदे को यक़ीनी बनाया जा सके और मुल्क, किनारे और पीछे न रह जाए। अच्छा तो अगर कोई मुल्क इतना बड़ा काम करना चाहेगा यानी न्यू वर्ल्ड आर्डर में हर तरह से रोल अदा करना चाहेगा तो सब से ज़्यादा ज़िम्मेदारी किस के कांधों पर होगी? मैदान में सब से आगे रहने वाले कौन लोग हैं? स्टूडेंट्स, यूनिवर्स्टियों से जुड़े लोग, यानी आप लोगों को सब से आगे रहना होगा, आप लोगों को सब से ज़्यादा असर वाला होना होगा। इस बुनियाद पर जिन चैलेंजों का मैंने ज़िक्र किया है, वही पहचान और मक़सद ख़त्म करने का चैलेंज तो अगर यूनिवर्स्टियों के बारे में वह सही हो तो फिर इस दौर में यह चैलेंज और भी बड़ा होगा क्योंकि दुनिया के हालात ही इस तरह के हैं।

जी तो यह तो युनिवर्सिटी के बारे में एक जायज़ा और एक बात थी यक़ीनी तौर पर इस सिलसिले में बहुत बातें हैं जो एक बैठक में नहीं कहीं जा सकतीं, वक़्त भी कम है और इसके लिए जैसा कि आप लोगों ने भी कहा, कई मीटिंग्स की ज़रूरत है जिसके लिए ज़ाहिर सी बात है अगर हालात ठीक हों तब हो सकती है, यह चीज़ कोरोना की वजह से फ़िलहाल मुमकिन नहीं हैं। इंशाअल्लाह जब कोरोना ख़त्म हो जाएगा, तो देखते हैं! हो सकता है कि इस बारे में कई बैठकें की जाएं। दूसरों को भी मीटिंग करना चाहिए यानी मुल्क के पढ़े लिखे लोगों को, अपनी राय रखने वाले लोगों को और हमारे मुल्क में ऐसे लोग हैं, उन सब को बैठक करना चाहिए, बात करना चाहिए। इस बारे में बहुत कुछ कहने को है, बहुत सी बातें हैं, हमारे पास भी कहने के लिए बहुत कुछ है मगर अब आगे बढ़ते हैं।

मैं कुछ सिफ़ारिशें करना चाहूंगा, आप स्टूडेंट्स से मेरी पहली सिफ़ारिश ना उम्मीदी और लक्ष्यहीनता से दूरी है। ख़याल रखिए, मतलब अपना ख़याल रखिए, अपने दिलों का ख़याल रखिए, ख़याल रखिए कि मायूस न हो जाएं। आप लोगों को दूसरे मैदानों में उम्मीद पैदा करने वाला बनना चाहिए। हां बहुत से मैदानों में कमियां हैं लेकिन क्या इन कमियों को दूर करना मुमकिन नहीं है? बिल्कुल मुमकिन है, इन कमियों को दूर किया जा सकता है। बहुत से अच्छे ओहदेदार हैं, वे हैं, वे इन कमियों को दूर कर सकते हैं और कर रहे हैं, जैसा कि अब तक बहुत से काम हुए भी हैं। आज से दस पंद्रह साल पहले सांइस के मैदान में काम शुरु हुआ था किसे यक़ीन था कि आज हम इस पोज़ीशन में पहुंच जाएंगे, ख़ुदा का शुक्र है कि इस काम में तरक़्क़ी हुई, बड़े-बड़े काम हुए, तकनीक के मैदान में भी यही हाल है, मेडिकल के मैदान में भी ऐसा ही है, सार्वजनिक हेल्थ केयर के सिलसिले में भी तरक़्क़ी हुई है, बहुत से मैदानों में बड़े-बड़े काम हुए हैं तो बाक़ी मैदानों में भी हो सकते हैं। इस बुनियाद पर सब से पहली बात जो मैं कहूंगा वह यह है कि इस सिलसिले में आप तक़वे का रास्ता अपनाइए, वही तक़वा जिसके बारे में मैंने हुकूमती ओहदेदारों से मुलाक़ात में कहा था। (9) तक़वा यानी ख़ुद पर हमेशा नज़र रखना और ख़याल रखना। इस बात का ख़याल रखिए कि कहीं आप के दिल में नाउम्मीदी तो नहीं पैदा हो रही है कि अब नहीं हो पाएगा, अब कोई फ़ायदा नहीं इस तरह के ख़यालात दिल में न आने पाएं। यह मेरी पहली सिफ़ारिश है। अगर आप लोग इस सिफ़ारिश पर ध्यान नहीं देंगे तो न सिर्फ़ यह कि स्टूडेंट की पोज़ीशन से हट जाएंगे बल्कि तरक़्क़ी के दूसरे कामों की रफ़्तार भी कम हो जाएगी, उन पर भी ग़लत असर पड़ेगा।

आप की उम्र के नौजवानों ने मुक़द्दस डिफ़ेन्स के वक़्त, मज़बूत इरादा किया और मुल्क को बचा लिया, सही अर्थों में मुल्क को बचा लिया। उन सब की उम्रें आप लोगों के इतनी ही थीं। उस दौरान भी बहुत से लोग कहते थे कि यह नहीं हो सकता! मैं बीच मैदान में था। जंग के मैदान में नहीं बल्कि फ़ौजी फैसलों और इस तरह के सरकारी काम–काज के मैदान में था, हम देखते थे कि कुछ लोग कहते थे कि जनाब! कोई फ़ायदा नहीं, यह नहीं हो सकता, मुमकिन नहीं, अब कुछ नहीं हो सकता।यानी हम सद्दाम के फ़ौजियों को जो अहवाज़ से दस किलोमीटर की दूरी तक पहुंच गये थे वहीं रहने दें, अब उनका कुछ नहीं किया जा सकता है, उस दौर में भी ऐसा कहने वाले लोग मौजूद थे। लेकिन आप जैसे नौजवान ही आगे बढ़े और उन्होंने जो काम किया उस पर पूरी दुनिया हैरान रह गयी। जब ख़ुर्रमशहर को आज़ाद करा लिया गया था तो कई इस्लामी मुल्कों के राष्ट्रपतियों का एक डेलीगेशन ईरान आया था सात आठ प्रेसीडेंट रहे होंगे। जिनके हेड, सेकूटूरे साहब थे, गिने के प्रेसिडेंट, यह लोग सुलह के लिए ईरान आया करते थे, ख़ुर्रमशहर की आज़ादी के बाद भी ईरान आए। एक या दो बार उससे पहले भी ईरान आ चुके थे। मैं प्रेसिडेंट था और इन लोगों से मेरी मुलाक़ात होती थी। उस बार जब आए तो सेकूटुरे साहब ने कहा कि इस बार जब हम आए हैं तो ईरान की पोज़ीशन पहले से अलग है। क्यों? क्योंकि ख़ुर्रमशहर को हमने आज़ाद करा लिया था, इस शहर को हमने वापस ले लिया था। मतलब यह होता है, दुनिया में तरक़्क़ी का असर इस तरह से होता है। यही आप की उम्र के नौजवान थे जिन्होंने यह काम किये, आप भी कर सकते हैं।

अलबत्ता, आप की कुछ पहले की पीढ़ियां इस मैदान में आगे नहीं बढ़ पाईं और हिम्मत हार गयीं जिसकी वजह से उनसे ग़लतियां हुईं, जहां उन्हें उम्मीद का दामन नहीं छोड़ना चाहिए था, वहां वह नाउम्मीद हो गयीं, और इसी नाउम्मीदी ने उन्हें मैदान से बाहर कर दिया और कुछ लोग तो बहुत बुरी तरह से इस मैदान से बाहर हुए! कुछ लोग मैदान से बाहर चले गये थे लेकिन कुछ दूसरे वह लोग भी थे जो इन्क़ेलाब के मैदान से निकलने के अलावा दूसरों के सुर में सुर भी मिलाने लगे थे। तो यह  है मेरी पहली सिफ़ारिश, कि ख़याल रहे, तरक़्क़ी की चोटियों की तरफ़ पीठ न करें, तरक़्क़ी की राह से दूर न हों हमेशा चोटियों की तरफ़ बड़े कामों की तरफ़ बढ़ते रहें।

दूसरी सिफ़ारिश, सोच विचार है। देखिए युनिवर्सिटी में दो चीज़ें ज़रूरी होती हैं, नॉलेज और सोच विचार। बिना सोच के नॉलेज, मसले पैदा कर सकता है, बिना सोच विचार के जो नॉलेज होता है, वह ग़लत राह पकड़ लेता है, वह आम तबाही फैलाने वाले, एटमी हथियारों, केमिकल हथियारों और दूसरी वैसी चीज़ों में बदल जाता है जो आज इन्सानियत को तबाह कर रही हैं, जिस नॉलेज के साथ सही सोच न हो और जो बिना सोच के या ग़लत सोच के साथ आगे बढ़े उसका नतीजा यही होता है। इंसाफ़ की बात तो यह है कि नॉलेज के बारे में हमने युनिवर्स्टियों से जो सिफ़ारिश की थी उस पर अच्छी तरह से काम हुआ है और तरक़्क़ी हुई है। मैं ने सोचने और समझने की भी काफ़ी सिफ़ारिश की है, शायद यह ज़्यादा मुश्किल काम है, इस सिलसिले में चूंकि शायद यह मुश्किल काम है, ज़्यादा काम नहीं हो सका।

सोच समझ कर काम करना काफ़ी अहम है, मेरी सिफ़ारिश यह हैः बैठिए सोचिए, समझिए! आप सब में सलाहियत है, अच्छी सोच के मालिक हैं, आप सोच सकते हैं, बैठ कर ग़ौर व फ़िक्र कीजिए। यक़ीनी तौर पर ग़ौर करने के लिए एक गाइड की भी ज़रूरत होती है, उस्ताद भी ज़रूरी है। अगर बिना सोचे समझे आगे बढ़ेंगे तो हमारे क़दम टेढ़े-मेढ़े रास्तों पर चले जाएंगे और ठहराव और वापसी की वजह बन जाएंगे। ग़ौर करना चाहिए, हर मैदान में, जैसा कि आप लोगों में से भी कुछ लोगों ने अपनी तक़रीर में यह बात कही है, कि मुल्क को चलाने के लिए भी सोच समझ कर काम करना बहुत अहम है। मैं आप स्टूडेंट्स से सिफ़ारिश करता हूं, बड़े ओहदेदारों का मामला अलग है, कि आप लोग बैठिए और सोच समझ कर काम करने की राहों पर ग़ौर कीजिए।

सोच  समझ कर काम करने से  यह पता चलता है कि “क्या करना चाहिए” और “क्या नहीं करना चाहिए”  नॉलेज हमें हर चीज़ की हक़ीक़त से परिचित कराता है और सोच हमें यह बताती है कि क्या करना और क्या नहीं करना चाहिए, यह बहुत अहम मामला है। यह सोच यह नॉलेज सही राह पर होना चाहिए। अगर आप ने अपनी सोच को सही राह पर नहीं लगाया तो वह गलत रास्ते पर जा सकती है। मैं आम तौर पर लोगों का नाम नहीं लेता लेकिन यहां ले रहा हूं, जनाब मिस्बाह यज़्दी, ग़ौर व फ़िक्र के माहिर थे। यक़ीनी तौर पर वह पॉलिटिक्स में भी थे और उनका सियासी नज़रिया भी था। मैं उस बारे में यानी उनकी सियासी सोच के बारें में यहां कुछ नहीं कहना चाहता लेकिन सोच विचार करने, ग़ौर व फ़िक्र करने के मैदान में वह एक गाइड और उस्ताद थे जिन पर भरोसा किया जा सकता था। इस तरह के लोगों की ज़रूरत होती है जो सोच समझ कर काम करने का तरीक़ा सिखाएं। जिस तरह से नॉलेज के लिए टीचर की ज़रूरत होती है उसी तरह सोचने समझने के लिए भी गाइड ज़रूरी है, एक तो रही यह बात, हालांकि मैंने इस बारे में कुछ और बातें भी नोट की थीं लेकिन वक़्त की कमी की वजह से उनका ज़िक्र नहीं करूंगा।

मेरी दूसरी सिफ़ारिश यह है कि मुल्क के विषयों से जुड़े रहिए। इन्सान जब मुल्क के विषयों पर दूर से नज़र डालता है तो वे अलग रूप में नज़र आते हैं, लेकिन जब वह क़रीब जाता है तो उनकी शक्ल दूसरी होती है, कभी बहुत अलग हो जाते हैं। अब मिसाल के तौर पर पानी का विषय ही ले लीजिए! जिसका यहां अपनी तक़रीर में एक साहब ने ज़िक्र किया है, यह पानी का मुद्दा वह मुद्दा है कि जब आप उसके क़रीब जाएं, गहराई में जाएं, तहक़ीक़ करें और जायज़ा लें तो ऐसे नतीजे सामने आएंगे जो  मिसाल के तौर पर यहां जो बातें कही गयी हैं उनसे अलग होंगे। मुल्क के मामलों को क़रीब से देखिए। मुल्क के मामलों का क़रीब से जायज़ा लीजिए, उन्हें समझिए, उन पर काम कीजिए और ध्यान दीजिए। इसके लिए यह भी ज़रूरी नहीं है कि आप या वह आर्गनाइज़ेशन जिसमें आप काम करते हैं वह मुल्क के हर मामले में अंदर तक घुस जाए! नहीं! आप मुल्क के किसी एक मसले पर या दो मुद्दों पर ध्यान दीजिए, उन्हीं पर फ़ोकस कीजिए और काम कीजिए, उन पर तहक़ीक़ कीजिए! आपकी रिसर्च के नतीजे से फ़ायदा उठाया जाएगा।

हमारे मुल्क में आज ऐसे नौजवान स्टूडेंट्स हैं जिनकी रिसर्च के नतीजे से सरकारी संस्थाओं में फ़ायदा उठाया जा रहा है, इस तरह के लोग मौजूद हैं। यहां पर मैं किसी का नाम नहीं लेना चाहता, लेकिन ऐसे नौजवान स्टूडेंट्स हैं कि जिन की रिसर्च से उन जगहों पर भी फ़ायदा उठाया गया है जहां आम तौर पर नौजवानों के कामों पर ध्यान नहीं दिया जाता था। इस तरह की जगहों में भी यह देखा गया कि नौजवान स्टूडेंट्स की रिसर्च के बारे में सिफ़ारिश की गयी, मदद की गयी, रिसर्च के नतीजे पर ध्यान दिया गया और उस पर काम भी हुआ।

मिसाल के तौर पर मैं यह कहना चाहूंगा कि इस साल का जो हमारा नारा है।(10) नॉलेज बेस्ड कंपनियों के बारे में तो एक साहब ने नॉलेज बेस्ड कंपनियों की तादाद ज़्यादा होने को फ़ायदेमंद नहीं माना। अस्ल में वह चूंकि जल्दी-जल्दी बोल रहे थे इसलिए उनकी बात पूरी तरह से समझ में नहीं आयी, लेकिन मुझे लगता है कि उन्होंने इसे नुक़सानदेह भी बताया है। जी नहीं! इस पर ग़ौर कीजिए, यह जो नॉलेज बेस्ड कंपनियों का मामला है उस पर काम कीजिए। एक वह मुद्दा जिस पर आप ग़ौर कर सकते हैं, काम कर सकते हैं, उसे क़रीब से समझ सकते हैं यही नॉलेज बेस्ड कंपनियां का मुद्दा है। यह मैदान बहुत बड़ा है और ज़ाहिर सी बात है कि इसका युनिवर्स्टियों से क़रीबी ताअल्लुक़ है। आप नॉलेज बेस्ड कंपनियों के बारे में क्या काम कर सकते हैं? अब जो लोग नॉलेज बेस्ड कंपनियां बना सकते हैं मैं उनकी बात नहीं कर रहा हूं। मैं स्टूडेंट्स की बात कर रहा हूं। स्टूडेंट्स, बहस का माहौल बना सकते हैं, नॉलेज बेस्ड कंपनियों के बारे में बहस का माहौल बनाया जाए। जब किसी मामले पर बहस व चर्चा होती है और मुल्क में वह आम लोगों के बीच बात चीत और बहस का मुद्दा बन जाता है तो ज़ाहिर सी बात है वह काम आगे बढ़ता है! माहौल बनाने का यह मतलब है।

या फिर लोगों की सोच का रुख़ बदलिए! नॉलेज बेस्ड मिशन की राह में रुकावटों के ख़िलाफ़ माहौल बनाइए। मिसाल के तौर पर, कच्चा माल बेचने के ख़िलाफ माहौल बनाइए जो अफ़सोस की बात है आज हमारे मुल्क में बेचा जा रहा है, बहुत ज़्यादा बेचा जा रहा है, इस के ख़िलाफ़ माहौल बनाइए ताकि पैदावार के ख़िलाफ़ किये जाने वाले इस काम के ख़िलाफ़ माहौल बने। या फिर इस्तेमाल की चीज़ों का आयात है जिनका पैदावार से कोई ताल्लुक़ नहीं है, हमारे मुल्क में इम्पोर्ट होने वाली कुछ चीज़ें ज़रूरी हैं, उनका आयात होना चाहिए लेकिन कुछ चीज़ें हैं तो सिर्फ़ उपभोग के लिए इम्पोर्ट की जाती हैं, अलबत्ता इनमें भी कुछ चीज़ें ज़रूरी होती हैं, जिन्हें इम्पोर्ट करना ही पड़ता है। इस सिलसिले में मेरी राय यह है कि एक्सपर्ट की राय लेना चाहिए वह जो कहें वही करना चाहिए। लेकिन कुल मिला कर जो चीज़ मुल्क के अंदर बनती है वही बाहर से इम्पोर्ट करना नुक़सानदेह है। मुल्क के लिए रुकावट है, और यह चीज़ मुल्क में नॉलेज बेस्ड मिशन की राह में आने वाली रुकावटों में से एक है। या मिसाल के तौर पर स्मगलिंग है। स्टूडेंट्स इन सब मैदानों में भी माहौल बनाने का काम कर सकते हैं।

मेरी एक और सिफ़ारिश, अपनी मांगे रखने के बारे में है। अपनी मांगें रखना स्टूडेंट्स की फ़ितरत में होता है, अपनी मांगें रखिए और ओहदेदारों से कहिए कि संजीदगी से काम करें, आप यह काम भी कर सकते हैं, आप मुल्क के बड़े ओहदेदारों को नुमाइशी कामों से रोकिए, उनसे मांग कीजिए कि संजीदगी के साथ सही काम करें, यह स्टूडेंट्स की एक सही मांग है जो आप लोग रख सकते हैं।

अलबत्ता इसके लिए यह ज़रूरी नहीं है कि आप कड़वे स्वर में बात कहें! कुछ लोगों को लगता है कि किसी को टोकने का यह तरीक़ा है कि उससे सख़्ती के साथ बात की जाए, बुराई बतायी जाए, झगड़ा किया जाए, हगांमा मचाया जाए। जी नहीं! इसकी कोई ज़रूरत नहीं है, वैसे हम भी जब जवान थे तो यह सब करते थे, मैं जब नौजवानों को कठोर स्वर में बात करते देखता हूं तो मुझे अपनी जवानी याद आ जाती है, बहुत से काम किये हैं लेकिन बहरहाल, लॉजिक के साथ और पूरी संजीदगी से अपनी मांगें रखी जा सकती हैं और मांग की जा सकती है। जब ऐसा होने लगेगा तो फिर कोई स्टूडेंट्स पर, ज़बरदस्ती शिकायत करने का इल्ज़ाम नहीं लगाएगा। आप लोग जब हंगामा करते हैं तो आप पर यह इल्ज़ाम लगाया जाता है कि यह स्टूडेंट्स आकर बस शिकायतें ही करते हैं नहीं! जब आप लॉजिक के साथ संजीदगी से अपनी मांगें रखेंगे तो इस तरह से रोना रोने का इल्ज़ाम आप पर नहीं लगाया जाएगा। इसके अलावा इस तरह की मांगें रखने से कुछ लोगों को यह भी कहने का मौक़ा नहीं मिलेगा कि मिसाल के तौर पर, हुकूमत चलाने वाले लोग इन्क़ेलाबी हैं, पार्लिमेंट, इन्क़ेलाबी है और इसी तरह सारे संस्थान इन्क़ेलाबी हैं। तो फिर मसलन इन्क़ेलाबी स्टूडेंट्स का क्या रोल है? जी नहीं यह नहीं कहा जा सकता। उनका रोल इस स्थिति में बहुत ज़्यादा होता है। क्योंकि, उन्हें काम करने का ज़्यादा मौक़ा मिलता है। तो एक बात तो यही है, अपनी मांगें रखना जो आप कर सकते हैं।

मैंने इस साल के नारे की मिसाल दी कि पैदावार को नॉलेज बेस्ड होना चाहिए, इस तरह की बहुत सी और भी मिसालें हैं जिनके बारे में अपनी मांगें आप रख सकते हैं। मिसाल के तौर पर यही इकोनॉमिक जस्टिस, कल्चर का मामला, लाइफ़ स्टाइल, यह सब वह मुद्दे हैं जिनके बारे में अपनी मांगें आप रख सकते हैं और संजीदगी से काम करने की मांग की जा सकती है। यह सब मुल्क के बड़े ओहदेदारों से मांग की जा सकती है लेकिन जैसा कि मैंने कहा, तार्किक ढंग से और सही दलील के साथ।

अपनी मांगें रखने के बारे में एक और बात जो अहम है और मेरी नज़र में स्टूडेंट्स के सभी कामों में यह चीज़ बहुत अहम है, यह है कि स्टूडेंट्स को अपना अक़ीदा मज़बूत करना चाहिए। अपने अक़ीदे की बुनियाद, अपने ईमान की बुनियाद स्टूडेंट्स को ख़ुद मज़बूत करना चाहिए। इसके अपने तरीक़े हैं जिनमें से एक स्टडी और ओलमा के साथ उठना-बैठना है। दुआए अबू हम्ज़ा सेमाली में जो यह ख़ुदा से कहा जाता है कि क्यों कभी-कभी दुआ का जी नहीं चाहता, ख़ुदा से लौ लगाने का जी नहीं चाहता? तो इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम के हवाले से इस की एक वजह जो बतायी गयी है वह यह है कि “शायद तूने मुझे ओलमा की सोहबत से दूर कर दिया है”(11) अब यहां पर यह ज़रूरी नहीं है कि ओलमा का मतलब वह लोग हों जो अमामा लगाए होते हैं। बल्कि इसका मतलब यह है कि वह लोग जिन्हें, अख़लाक़ के बारे में मालूमात है, या वह लोग जो दीन के बारे में पूरी मालूमात रखते हैं। इस तरह के लोगों की बैठकों में हिस्सा लेना चाहिए। उनके यहां जाना चाहिए, उनसे फ़ायदा हासिल किया जाना चाहिए। तो अक़ीदे की बुनियाद को मज़बूत करना, सोच को मज़बूत करना और मुल्क के मामलों में गहराई तक जाना और फिर मामलों को सुलझाने और तजुर्बे की राहों का जायज़ा लेना ज़रूरी है। आप लोग रास्तों का जायज़ा लें। अब यहां पर आप यह समझ लीजिए कि किसी काम में कमी निकालते हैं, फिर यह कहते हैं कि मिसाल के तौर पर यह काम किया जाना चाहिए, सुझाव और समाधान के तौर पर कुछ मशविरा भी देते हैं। सवाल यह है कि आप ने इस समाधान का जायज़ा कैसे लिया? कितना तजुर्बा किया है? उस कितना जांचा परखा है? यह सब चीज़े अहम हैं। अगर यह सब काम किया गया होगा तो यह बहुत अच्छी चीज़ है और ज़ाहिर है इससे काम की क़ीमत बढ़ जाती है।

यह जो मैं कहता हूं कि “कटुता से पेश न आएं” तो इसका मतलब यह न निकालिए कि मैं यह कह रहा हूं कि समझौता कर लें, सौदेबाज़ी कर लें, चापलूसी से बात करें, जी नहीं! मैंने कभी नौजवानों और स्टूडेंट्स को यह करने को नहीं कहा और न ही कभी कहूंगा कि इनकी-उनकी चापलूसी करें, जी नहीं! बिल्कुल नहीं! मेरा यह मतलब नहीं है, मेरे कहने का मतलब है कि लॉजिक के साथ आगे बढ़िए और बात कीजिए। बिना लॉजिक के, कड़वी बातें करके और तंज़ कस कर काम नहीं किया जा सकता। हालांकि अफ़सोस की बात है कि आज कल सोशल मीडिया में इस तरह के तंज़ कसने का तरीक़ा और यह सब कुछ बहुत चल रहा है जो बड़ी नुक़सानदेह चीज़ है। अगर आप लोग इस तरह काम करने में कामयाब हो गये तो हमारी बहुत सी कमज़ोरियों को इस्लामी जुम्हूरी सिस्टम और इन्क़ेलाब की कमज़ोरी नहीं समझा जाएगा। यानी इन्क़ेलाब के मक़सद और इन्क़ेलाब जो चाहता है उसमें और मेरे जैसे ओहदेदार के कामकाज में कमज़ोरी को एक दूसरे से अलग समझा जाएगा, दोनों के अंतर को समझना भी बहुत ज़रूरी चीज़ है।

एक और सिफ़ारिश है जिसे मैंने यहां नोट किया है उसका भी ज़िक्र कर दूं कि यह जो मैंने अपनी मांगें रखने की बात की है तो उसके बारे में यह ध्यान रहे कि दुश्मन आप की सही मांगों से ग़लत फ़ायदा न उठा पाए। अपनी बात रखने में और किसी मसले को हल करने के लिए दिए जाने वाले मशविरे में आप यह कोशिश कीजिए कि दुश्मन के सुर में सुर न मिल जाए, दुश्मन के मोर्चे में न खड़े हो जाएं, क्योंकि दुश्मन भी इसी तरह की बातें पेश करता है, वह भी मुद्दे उठाता है, मुद्दे भी उठाता है और फिर अपने ख़याल में उसका हल भी पेश करता है। आप की तरफ़ से मुद्दा उठाने का जो तरीक़ा है वह भी अलग होना चाहिए और आप जो नतीजा निकालते हो वह भी दुश्मन के नतीजे से अलग होना चाहिए, क्योंकि वह दुश्मन है, उसके दिल में दुश्मनी है तो ज़ाहिर है वह नेक नीयती के साथ यह सब तो नहीं कर रहा है।

एक और बात इन्टरनेश्नल प्लेटफ़ार्म पर किये जाने वाले कामों के बारे में भी है। वैसे मैंने पहले भी यह सिफ़ारिश की है, एक दो बार यह बात कह चुका हूं कि हमारे स्टूडेंट्स को और हमारे संस्थानों को दुनिया की सतह पर काम करना चाहिए। आजकल दुनिया में स्टूडेंट्स और दूसरे नौजवानों के बहुत से आर्गनाइज़ेशन हैं तो काम  कर रहे हैं, ख़ुद युरोप में भी हैं, शायद अमरीका में भी होंगे, अस्ल में मुझे अमरीका में इस तरह के आर्गनाइज़ेशनों के बारे में ज़्यादा मालूमात नहीं है लेकिन युरोप में इस तरह के बहुत से संगठन हैं, इस्लामी मुल्कों में इस्लामी संगठन तो ज़ाहिर है बहुत ज़्यादा हैं। अगर इन सब से सही तौर पर जुड़ा जाए तो इसके दो फ़ायदे होंगेः पहला फ़ायदा यह है कि आप उन्हें ताक़त पहुंचाएंगे और उनकी मदद करेंगे। दूसरा फ़ायदा यह होगा कि इस्लामी जुम्हूरिया से उनकी पहचान हो जाएगी। यानी आप एक स्टूडेंट के तौर पर मिसाल के तौर पर फ़्रांस या आस्ट्रिया या फिर ब्रिटेन के स्टूडेंट को इस्लामी गणराज्य के बारे में बताएंगे कि इस्लामी जुमहूरिया यह है, अगर आप यह करने में कामयाब हुए तो यह बहुत अच्छा काम है। वैसे मैं इस बारे में पहले भी बात कर चुका हूं। आप लोगों का यह काम, इस्लामी जुम्हूरिया को पहचनवाने के अलावा उसके लिए एक ढाल की हैसियत भी रखता है, क्योंकि ज़ाहिर है इस्लामी जुम्हूरिया के ख़िलाफ़ मीडिया का माफ़िया पूरी शिद्दत से काम कर रहा है, यह दरअस्ल उनका एक जवाब भी होगा लेकिन मैं कुछ पड़ोसी मुल्कों के बारे में ज़्यादा ताकीद करना चाहता हूं। आप इराक़, अफ़ग़ानिस्तान और पाकिस्तान के स्टूडेंट्स से जितना हो सके रिश्ते क़ायम कीजिए और उनसे अपना ताल्लुक़ जितना हो सके मज़बूत कीजिए। इन का मिज़ाज और तौर तरीक़ा आप से बहुत ज़्यादा मिलता जुलता है इस लिए उन से जुड़िए।

मेरी आख़िरी सिफ़ारिश उन नौजवानों के लिए है जो आज से कुछ बरस पहले तक आप की तरह थे और आज ख़ुदा के शुक्र से, बड़े ओहदों पर हैं, चाहे पार्लिमेंट में हों कि अभी एक साहब ने उन लोगों को अच्छी ख़ासी ख़बर ले ली।(12) या फिर हुकूमती ओदहों पर हों। यह बातें सब के लिए हैं। यह बहुत अच्छी बात है। यक़ीनी तौर पर जोश से भरे, मज़बूत ईमान वाले क़ाबिल नौजवानों के बिना, इस्लामी जुम्हूरिया का भारी बोझ किसी से उठाया नहीं जाएगा। यह जो मैंने इसी तरह की एक बैठक में कई साल पहले कहा था कि “हिज़्बुल्लाही नौजवान ओहदेदार” (13) तो वह इस लिए था कि जोश से भरे ईमानदार नौजवानों के बिना काम चल नहीं सकता। नौजवानों को वहां होना ही चाहिए। मैं तो उन नौजवानों से जो ख़ुदा के शुक्र से मैदान में उतर चुके हैं चाहे पार्लिमेंट में, चाहे न्यायपालिका या फिर सरकार में हों यह सिफ़ारिश करना चाहता हूं कि वह यह कोशिश करें कि अपनी मौजूदा ज़िम्मेदारी को उससे ज़्यादा बड़े ओहदे की सीढ़ी न बनाएं! पहली और सब से अहम सिफ़ारिश यह है। ऐसा न हो कि हम कहें: “अब तो यह ओहदा, ज़्यादा बड़े ओहदे के लिए एक एक्सपीरियंस बनेगा!” जी नहीं, इसी काम को अच्छी तरह से कीजिए। अल्लाह के लिए काम कीजिए, उस मुद्दे पर ध्यान दीजिए जिसकी ज़िम्मेदारी आप को दी गयी है। चाहे वह इकोनॉमी का मैदान हो, पॉलिटिक्स हो, कल्चर का मैदान हो या कोई और मैदान, आप प्रॉब्लम पर ध्यान दीजिए और उसे ख़त्म करने की कोशिश कीजिए जो आप की ज़िम्मेदारी है, यह ज़रूरी है। ओहदा हासिल करने वाले नौजवानों से हमें यह उम्मीद है कि वे मुद्दों को सुलझाने को अपना मक़सद बनाएं, तो एक बात यह है।

अब स्टूडेंट्स और उनके मुद्दों के बारे में हमारी बात ख़त्म हुई बस एक बात कह दूं कि कुद्स दिवस आ रहा है, मेरे ख़याल से इस साल का क़ुद्स दिवस पिछले बरसों से अलग है। फ़िलिस्तीनी पिछले साल रमज़ान के महीने में और इस साल के रमज़ान में भी बड़ी बड़ी क़ुरबानियां दे रहे हैं और ज़ायोनी हुकूमत भी ज़ुल्म और अपराध की हदें पार रही है, अब इस से ज़्यादा बुरा क्या कर सकती है? उनसे जो कुछ हो सकता है वह कर रहे हैं, अमरीका भी साथ दे रहा है, युरोप भी उनके साथ है। फ़िलिस्तीन, मज़ूलम है और ताक़तवर भी, ताक़तवर मज़लूम है! मैंने कई बरस पहले इस्लामी जुमहूरिया के बारे में यही बात कही थी।(14) बिल्कुल हज़रत अली अलैहिस्सलाम की तरह, जो ताक़तवर भी थे और मज़लूम भी। आज फ़िलिस्तीन की यही हालत है, वह सच में ताक़तवर है, यानी फ़िलिस्तीन के नौजवानों, फ़िलिस्तीन के मसले को हाशिए पर नहीं जाने दे रहे हैं, वह डटे हुए हैं, दुश्मनों के सामने, उनके ज़ुल्म व सितम के सामने।

क़ुद्स दिवस, फ़िलिस्तीन के मज़लूम लोगों के साथ हमदर्दी और एकजुटता ज़ाहिर करने, उनका हौसला और उनकी ताक़त बढ़ाने का बहुत अच्छा मौक़ा है ताकि वे पूरी ताक़त से मैदान में डटे रहें। यक़ीनी तौर पर यह बड़े अफ़सोस की बात है कि इस्लामी सरकारों ने इस सिलसिले में काफ़ी लापरवाही की है, बहुत ख़राब मिसाल पेश की है, फ़िलिस्तीन के लिए बहुत ज़्यादा कोशिश, काम और बात किये जाने की ज़रूरत है। इन में से बहुत से लोग न सिर्फ़ यह कि काम नहीं करते बल्कि कई तो सही से बात करने पर भी तैयार नहीं हैं, यानी फ़िलिस्तीनियों के लिए कोई ठोस बात कहने तक पर तैयार नहीं हैं। अगर कोई यह समझता है कि फ़िलिस्तीनियों की मदद का तरीक़ा, ज़ायोनी हुकूमत से ताल्लुक़ात बनाना है तो वह बहुत बड़ी ग़लती कर रहा है। चालीस बरस पहले मिस्र के लोगों ने यह ग़लती की थी, मिस्र और जार्डन ने ज़ायोनी हुकूमत से ताल्लुक़ात क़ायम कर लिए तो क्या इन चालीस बरसों में ज़ायोनियों के ज़ुल्म और अपराध में कोई कमी हुई? नहीं, दस गुना बढ़ गए। यह जो यहूदी कॉलोनियों के लोग आजकल कर रहे हैं, यह जो मस्जिदुल अक़्सा पर हमले हो रहे हैं, उस वक़्त नहीं होते थे, आज फ़िलिस्तीनियों पर ज़्यादा ज़ुल्म हो रहा है। अब कुछ लोग चालीस साल पहले के अनवर सादात के मिस्र के तजुर्बे को आज दोहराना चाहते हैं ! जो न उनके फ़ायदे में है, न ही फ़िलिस्तीनियों को उससे कोई फ़ायदा मिलने वाला है बल्कि यह ख़ुद के लिए नुक़सानदेह है और फ़िलिस्तीनियों के लिए भी। वैसे इसका ज़ायोनी हुकूमत को भी कोई फ़ायदा नहीं मिलने वाला है, यानी उसे भी इससे कुछ हासिल नहीं होगा, कोई फ़ायदा नहीं होगा। हमारी दुआ है कि ख़ुदा फ़िलिस्तीन के लिए और फ़िलिस्तीनियों के लिए अच्छा अंजाम क़रार दे और उन्हें जीत दिलाए।  

या परवरदिगारः मुहम्मद व आले मुहम्मद के सदक़े में, रमज़ान के मुबारक महीने के आख़िरी दिनों में, ईरानी क़ौम पर अपनी रहमतें नाज़िल कर, रमज़ान की रातों में जो हाथ दुआ के लिए उठते हैं ख़ास तौर पर नौजवानों के हाथ,  उन्हें उनकी मुरादों से भर दे और हमारे नौजवानों पर करम कर, इस्लामी दुनिया को, दुनिया भर के शियों पर अपनी ख़ास रहमत नाज़िल कर। परवरदिगारे आलम! तुझे वास्ता है मुहम्मद व आले मुहम्मद का, हमारे शहीदों और इमाम ख़ुमैनी की रूह को हम से ख़ुश रख, हमें उनकी राह पर बाक़ी रख। परवरदिगार! इस बैठक को अपने लिए क़रार दे और इसे क़ुबूल फ़रमा और इसे आइंदा सुनने वालों के लिए फ़ायदेमंद बना दे।  

वस्सलामो अलैकुम व रहमतुल्लाहे व बरकातोहू

 1 इस मुलाक़ात के आग़ाज़ में कुछ स्टूडेंट्स और स्टूडेंट्स यूनियनों के प्रतिनिधियों ने अपने नज़रिये पेश किए

2 सुप्रीम लीडर ने 21 जून 2020 को ग्यारहवीं संसद के प्रतिनिधियों के साथ वीडियो लिंक के ज़रिए हुयी बैठक में इस संसद को पूरे क्रांति के दौर की सबसे ज़्यादा क्रांताकारी संसद कहा था।

3 नहजुल बलाग़ा, ख़त नंबर 31

4 सूरए मरयम की आयत 39 का एक भाग

5 सहीफ़ए इमाम, जिल्द 12 पेज 431। सांस्कृतिक क्रांति की कमेटी के गठन का हुक्म (22 मई सन 1980)

6 सहीफ़ए इमाम, जिल्द 19, पेज 110। सांस्कृतिक क्रांति की कमेटी के सदस्यों के नाम संदेश (22 नवंबर सन 1984)

7 सहीफ़ए इमाम, जिल्द-8, पेज 138। तेहरान युनिवर्सिटी के स्टूडेंट्स के बीच भाषण देते हुए (22 मई सन 1979)

(8)जार्ज वॉकर बुश

(9)रमज़ान के महीने में गवर्नमेंट के उच्चाधिकारियों से मुलाक़ात(12/04/2022)

(10) नालेज बेस्ड और रोज़गार पैदा करने वाले प्रोडक्शन का साल

(11) मिस्बाहुल मुतहज्जिद व सेलाहुल मुतअब्बिद, जिल्द 2 पेज 588

(12) सब हंस पड़े

(13)  स्टूडेंट्स यूनियनों के लिए वीडियो कांफ्रेसिंस के ज़रिए तक़रीर 17/05/2020

(14) इमाम हुसैन कैडिड कॉलेज में तक़रीर 30/06/2018