इस्लामी इंक़ेलाब के लीडर आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई ने 12 मार्च 2022 को असेंबली ऑफ़ एक्सपर्ट्स के मेंबरों के बीच बड़ा अहम ख़िताब किया। सुप्रीम लीडर ने अपने संबोधन में ताज़ा हालात की चर्चा की। (1)
आयतुल्लाह ख़ामेनेई की स्पीच पेश हैः
बिस्मिल्लाह-अर्रहमान-अर्रहीम
मोहतरम हज़रात! प्यारे भाइयो! आपका स्वागत है, बहुत ख़ुशी की बात है कि अल्लाह की कृपा से यह अहम बैठक अपने तयशुदा वक़्त पर हो रही है और सभी इसमें शामिल हो रहे हैं। जैसा कि जनाब रईसी साहब ने बताया, इसमें पूरी संजीदगी से विषयों की समीक्षा हो रही है। इंशाअल्लाह, पूरी कायनात का मालिक आप लोगों की मदद करे और आपकी मेहनतों को क़ुबूल फ़रमाए। मैं शाबान के महीने की ईदों की मुबारकबाद पेश करता हूं, ख़ास तौर पर 15 शाबान की ईद की, जो पूरे इतिहास में पूरी इंसानियत की सभी इच्छाओं के पूरा होने का दिन है और हमें उम्मीद है कि इंशाअल्लाह, ख़ुदा वह दिन, मुश्किल के हल होने का दिन, (इमाम के) प्रकट होने का दिन जल्द से जल्द दिखाए।
इन ईदों से हट कर भी शाबान का महीना बहुत अहमियत रखता है। “ हे परवरदिगार यह शाबान का महीना वह महीना है जिसमें पैग़म्बरे इस्लाम पाबंदी के साथ दिनों में रोज़ा रखते और रातों को नमाज़ें पढ़ते थे। तेरे आज्ञापालन और इस महीने की अहमियत की वजह से वह ज़िन्दगी भर ऐसा करते रहे।” पैग़म्बर अपनी उम्र के आख़िरी दिनों तक इस महीने में ऐसा ही करते रहे। इसके बाद हम अल्लाह से दुआ करते हैं: “तू इस महीने में उनकी सुन्नत पर अमल करने में हमारी मदद कर!”(2) ख़ुद वह ज़बर्दस्त दुआ भी जो इस महीने से मख़सूस है, इस महीने की महानता की गवाही देती है। इस ज़बरदस्त दुआ में जो जुमले हैं, वैसे जुमले दूसरी जगहों पर कम हैं। वैसे तो हमारे पास अहलेबैत अलैहिमुस्सलाम के हवाले से सारी दुआएं, बहुत ही गहरे अर्थों वाली, ज़बर्दस्त दुआएं हैं, सब असाधारण हैं, जो दर्ज हुई हैं। लेकिन इस दुआ जैसी दुआएं वाक़ई कम हैं।
एक बार मैंने इमाम ख़ुमैनी रहमतुल्लाह अलैह से पूछा कि ये जो दुआएं हैं, उनमें आप किस दुआ को सबसे ज़्यादा पसंद करते हैं या किस दुआ से ज़्यादा लगाव रखते हैं? मुझे अपने जुमले ठीक से याद नहीं हैं, लेकिन इसी तरह का कुछ सवाल किया था। उन्होंने कुछ देर सोचा और फिर जवाब दिया कि दुआ-ए-कुमैल और शाबान की विशेष दुआ ‘मुनाजाते-शाबानिया’। ये दोनों दुआएं, दुआ-ए-कुमैल भी वाक़ई बहुत ही ज़बर्दस्त दुआ है, अर्थ की नज़र से एक दूसरे से बहुत क़रीब भी हैं। यहाँ तक कि उनके कुछ जुमले तो एक दूसरे के बहुत ही क़रीब हैं। ख़ुद यह दुआ भी एक अच्छा मौक़ा है। “हे अल्लाह! मुझे ऐसा दिल दे जिसका गहरा लगाव उसे तुझसे क़रीब कर दे। ऐसी ज़बान दे जिसकी सच्चाई उसे तेरी ओर ऊपर ले आए और ऐसी निगाह जिसकी सच्चाई उसे तेरी निकटता के दायरे में दाख़िल कर दे!” अल्लाह से इस तरह की बात करना, अपनी ज़रूरत का ज़िक्र करना, अल्लाह से अपने लगाव को ज़ाहिर करना, बहुत ही असाधारण बात है, बहुत ही महान बात है। या यह जुमला “हे अल्लाह! तुझे तेरी हस्ती की दुहाई! मुझे अपने आज्ञापलक बंदों के दर्जे और अपनी रज़ामंदी के नतीजे में मुनासिब स्थान तक पहुंचा दे।” या यह जुमला जो इस दुआ का चरम बिंदु है और जिसे इमाम ख़ुमैनी रहमतुल्लाह अलैह बार बार अपने बयानों में दोहराते थे कि “हे अल्लाह! तेरे अलावा, हर मख़लूक़ से दूर होने और उनसे उम्मीद न लगाने में मुझे इतना आगे पहुंचा दे कि मैं पूरे वजूद से तेरी बारगाह में पहुंच जाऊं और हमारे दिल की निगाहों को तेरी तरफ़ ध्यान लगाए रहने के नूर से रौशनी देते रहना, यहाँ तक कि दिल की आँखें नूर के परदों को पार कर लें। वाक़ई हम लोग किस तरह ये बातें कह सकते हैं? हमारे सामने तो एक के बाद एक तारीकी के परदे हैं। जबकि इस दुआ में दर्ख़ास्त यह की गईः “यहाँ तक कि दिल की आंखें नूर के परदों को पार कर लें।” (3) ख़ैर यह सब असाधारण शिक्षाएं और मालूमात हैं। बड़े ख़ुशनसीब हैं वे लोग जो इन तक पहुंच रखते हैं, उनके दिमाग़, मन और आत्मा इन बातों से परिचित हैं और इन बातों को सही तरीक़े से महसूस करते हैं। ख़ुशनसीब हैं वे लोग! अल्लाह हमें भी इसका मौक़ा दे। बहरहाल शाबान का महीना, बर्कतों का महीना है और इंशाअल्लाह हम इस महीने से अपनी क्षमता भर ज़्यादा से ज़्यादा फ़ायदा उठा सकें।
एक्सपर्ट्स काउंसिल उन संवैधानिक संस्थाओं में है जिनका इस्लामी सिस्टम को मज़बूत बनाने में बड़ा अहम रोल है। अलबत्ता सारी संवैधानिक संस्थाएं, सरकार, संसद, आर्म्ड फ़ोर्सेज़, हित संरक्षक परिषद, गार्डियन काउंसिल वग़ैरह ये सब- इस्लामी सिस्टम की मज़बूती में किसी न किसी तरह अहम रोल रखते हैं, लेकिन कुछ का रोल ज़्यादा है, कुछ का कम है। मेरे ख़्याल में एक्सपर्ट्स काउंसिल, इस्लामी गणराज्य व्यवस्था में सबसे बड़ा रोल रखने वाली संस्थाओं में है। अलबत्ता इन सभी संवैधानिक संस्थाओं के प्रभावी होने की शर्त यह है कि संविधान की ओर से उनके लिए तयशुदा नियम के मुताबिक़, सीमा के अंदर रहते हुए काम करें। आपके लिए भी यही शर्त है। यानी वाक़ई उन्हीं चीज़ों पर अमल कीजिए जो एक्सपर्ट्स काउंसिल से चाही गयी हैं। चाहे उस शख़्स के बारे में जो इस वक़्त सुप्रीम लीडर के ओहदे पर है, या उस शख़्स के बारे में जो बाद में आपके ज़रिए इंक़ेलाब का लीडर चुना जाएगा और इस मैदान में आएगा, क़ानूनी नियमों पर सख़्ती से अमल कीजिए। संसद को भी यही करना चाहिए, सरकार को भी यही करना चाहिए। सरकार की तयशुदा क़ानूनी सीमाएं हैं। उसे संसद के सभी क़ानूनों पर अमल करना चाहिए। संसद की तयशुदा सीमाएं हैं। उसे कार्यपालिका के काम में बिल्कुल भी दख़ल नहीं देना चाहिए। उसे क़ानून बनाना चाहिए। इसी तरह की दूसरी मिसालें भी मौजूद हैं।
यह जो हमने सिस्टम की मज़बूती की बात कही और कहा कि संसद और दूसरी संस्थाएं, सिस्टम को मज़बूत बनाने में असरअंदाज़ हैं तो इसकी ज़रूरत इसलिए है कि अगर यह मज़बूती रही तो राष्ट्रीय ताक़त और राष्ट्रीय संप्रभुता व्यवहारिक होगी। एक क़ौम के लिए राष्ट्रीय संप्रभुता सबसे ज़्यादा अहमियत रखती है। यानी अगर एक क़ौम स्वाधीन रहना चाहती है, कामयाब रहना चाहती है, अपने इरादे से अपने हक़ में अपने मूल संसाधनों को इस्तेमाल करना चाहती है, अपने बुनियादी मुद्दों में अपनी राय पर अमल करना चाहती और दूसरों की राय पर अमल के लिए मजबूर नहीं रहना चाहती है, दूसरों की ललचायी नज़रों ख़ुद को सुरक्षित रखना चाहती है, हमेशा डर की हालत में नहीं रहना चाहती, अगर कोई क़ौम इन सब चीज़ों को चाहती है तो वह क्या करे? उसे चाहिए कि ताक़तवर और मज़बूत बने। राष्ट्रीय शक्ति और राष्ट्रीय संप्रभुता एक क़ौम के लिए सबसे ज़्यादा अहमियत रखती है। अगर राष्ट्रीय शक्ति न हुई और कोई क़ौम ताक़तवर न हुयी तो ये चीज़ें जिनके बारे में हमने ज़िक्र किया कि एक क़ौम के सबसे अहम व बुनियादी मुद्दे हैं, उसके लिए अमली शक्ल हासिल नहीं कर पाएंगी। वह हमेशा चिंतित रहेगी, हमेशा कमज़ोर और अपमानित रहेगी, दूसरे उस पर हावी रहेंगे और इसी तरह की दूसरी मुश्किलें पेश आती रहेंगी। इसलिए सिस्टम का मज़बूत होना ज़रूरी है, राष्ट्रीय शक्ति और राष्ट्रीय संप्रभुता ज़रूरी है।
जब हम राष्ट्रीय संप्रभुता की बात करते हैं तो यह एक सामूहिक चीज़ है, कई चीज़ों से मिलकर बनने वाली एक चीज़ है, एक दूसरे से जुड़े हुए तत्वों से मिल कर बनने वाली चीज़ है। राष्ट्रीय संप्रभुता को, किसी एक ख़ास बिन्दु, किसी एक ख़ास समूह या किसी ख़ास अमल में नहीं देखा जाना चाहिए, बल्कि यह एक ऐसी चीज़ है जो अनेक तत्वों का समूह है और अगर ये तत्व इकट्ठा हो गए तो क़ौमी ताक़त वजूद में आएगी, मै उनमें से कुछ की तरफ़ इशारा करता हूं।
राष्ट्रीय संप्रभुता का एक तत्व विज्ञान व टेक्नॉलोजी है। यानी इस ताक़त का एक हिस्सा साइंस और टेक्नॉलोजी है। एक और तत्व, सोच और सूझबूझ है। सोच से संपन्न होने और ज्ञानी होने में फ़र्क़ है। सोच होनी चाहिए यह जो वैचारिक आज़ादी का नारा लगाते हैं और जो भी इसका नारा लगाए हम उसका साथ देते हैं, उसका नतीजा यही सोच का विकास है। अगर सोच का विकास न हो तो साइंस वग़ैरह किसी क़ौम के पास आ जाएं तो भी उसके काम नहीं आएंगे। दिमाग़ को काम करना चाहिए, पूरी क़ौम को आगे बढ़ना चाहिए और यह चीज़ वैचारिक आज़ादी के बिना मुमकिन नहीं है। यानी सोच की आज़ादी के बिना वैचारिक तरक़्क़ी मुमकिन नहीं है।
एक दूसरा तत्व सुरक्षा और रक्षा की ताक़त है। किसी भी क़ौम को इस बात की ओर से संतुष्ट होना चाहिए कि आपात हालात में वह अपनी रक्षा कर सकती है। एक और तत्व आर्थिक व सामाजिक नज़र से समृद्ध होना है। यह भी बहुत प्रभावी चीज़ है कि लोग आर्थिक नज़र से सुकून में रहें। एक दूसरा तत्व राजनीति और राजनैतिक व कूटनैतिक बहस की ताक़त का है। यह भी राष्ट्रीय संप्रभुता का एक हिस्सा है कि एक देश और एक क़ौम के पास ऐसे ज़बर्दस्त माहिर लोग हों जो राजनीति और कूटनीति के मैदान में अच्छा विमर्श कर सकें, बातचीत कर सकें, राष्ट्रीय हित को पुख़्ता कर सकें, हासिल कर सकें। एक दूसरा तत्व संस्कृति और लाइफ़ स्टाइल है; यह भी ताक़त का एक तत्व है। अगर एक क़ौम, लाइफ़ स्टाइल की नज़र से दूसरों की देखादेखी करेगी, दूसरों की नक़ल करेगी, दूसरों की राय को बिना सोचे समझे मान लेगी और उसका अपना कोई मज़बूत कल्चर नहीं होगा, तो यह राष्ट्रीय शक्ति के लिए बहुत ही कमज़ोर पहलू है।
एक दूसरा तत्व वह आकर्षक तर्क है जो दूसरी क़ौमों पर असर करे और देश के लिए स्ट्रैटेजिक गहराई पैदा करे। अगर इस्लामी गणराज्य में आपके पास एक ऐसा आकर्षक विमर्श हो जिसे जब सीधे तौर पर दूसरी क़ौमों के सामने पेश करें और वह उनके लिए दिलचस्प हो, आकर्षक हो और वे उसे मानें तो इस तरह आपकी रणनैतिक गहराई बन जाती है। यह सारी चीज़ें राष्ट्रीय शक्ति के एक दूसरे से जुड़े तत्व हैं। अलबत्ता इनके अलावा भी कुछ दूसरे तत्व हैं और उनमें जो तत्व हमारी बहस से संबंधित हैं, उनकी ओर मैं बाद में इशारा करुंगा।
शक्ति के इन बाज़ुओं में से किसी को भी दूसरे भागों के फ़ायदे के लिए काट देना उचित नहीं है। इस पर ज़रूर ध्यान दें। हमें इस बात का हक़ नहीं है कि शक्ति के इन तत्वों में से किसी को भी, यह सोचकर कि यह फ़लां दूसरे तत्वों के हित में नहीं है, काट दें, जी नहीं! इन सबको एक दूसरे के साथ आगे बढ़ना चाहिए और यह मुमकिन भी है। वाक़ई भोलापन होगा कि अगर कोई यह सुझाव दे कि दुश्मन को उत्तेजित होने से रोकने के लिए, हम अपनी रक्षा ताक़त को कम कर दें! मेरे ख़्याल में इससे ज़्यादा भोलेपन और मूर्खता भरी कोई चीज़ नहीं कि इंसान इस तरह की बात करे कि हम अपने सिलसिले में दुश्मन को क्रोधित होने से रोकने के लिए अपनी रक्षा ताक़त और अपनी विदेशी सुरक्षा की शक्ति को कम कर दें। या फ़र्ज़ कीजिए कि क्षेत्रीय मामलों में हमारा रोल न हो ताकि फ़लां विदेशी ताक़त को बुरा न लगे या वह हमारे ख़िलाफ़ उसे बहाना न बनाए! बिल्कुल नहीं! क्षेत्र में हमारी सक्रियता हमारी रणनैतिक गहराई है। ख़ुद यह चीज़ सिस्टम की मज़बूती का ज़रिया है। सिस्टम की ताक़त का साधन है। हम इसे कैसे अपने हाथ से जाने दे सकते हैं जबकि ऐसी चीज़ हमारे पास हो सकती है और होनी ही चाहिए।
वैज्ञानिक तरक़्क़ी पर रोक! कुछ लोग कहते हैं कि “जनाब! ऐटमी मामले को छोड़ दीजिए, ऐटमी मामले की वजह से बड़ी संवेदनशीलता पैदा हो गयी है, मुश्किलें पैदा हो गयी हैं।” ऐटमी मुद्दा एक वैज्ञानिक मुद्दा है, हमारी भविष्य की वैज्ञानिक तरक़्क़ी व टेक्नॉलोजी के क्षेत्र में तरक़्क़ी का मुद्दा है। हमें बहुत देर में नहीं बल्कि जल्द ही, कुछ ही साल बाद एटमी ऊर्जा के प्रोडक्ट्स की ज़रूरत होगी। यानी पूरी तरह से इसकी ज़रूरत होगी। तब हम किसके पास जाएंगे? कब काम शुरू करेंगे कि उसका नतीजा हासिल कर सकें?! इन चीज़ों को नज़रअंदाज़ करना और इन्हें अहमियत न देना, ठीक नहीं है। या मिसाल के तौर पर अमरीका या किसी दूसरी ताक़त के मामले में, पाबंदियों से बचने के लिए झुक जाना! यानी हम अपनी राजनीति और राजनैतिक मोल-तोल की ताक़त के बाज़ू को काट दे, उनके मुक़ाबले में झुक जाएं क्योंकि मिसाल के तौर पर अगर हमने थोड़ी सी भी सख़्ती की तो वह हम पर पाबंदी लगा देंगे। यह सब मेरे ख़याल में वे ग़लतियां हैं, वे ख़ताएं हैं कि जिनके बारे में कुछ लोगों ने कहा है कि किसी वक़्त हमसे हो चुकी हैं। खोखली दलीलों के ज़रिए, कमज़ोर और आपत्तिजनक तर्क के ज़रिए कभी कभी अख़बारों में और इधर उधर इस तरह की बातें की गयी हैं। जबकि ये सारी दलीलें रद्द किए जाने के लायक़ थीं और उन्हें रद्द कर भी दिया गया। अब उन पर ताकीद करने का कोई फ़ायदा नहीं।
अगर इन बरसों में उन लोगों को जो ताक़त के बाज़ुओं को काटना चाहते थे, इस बात की इजाज़त दी गई होती कि वे यह काम करें तो आज देश को बहुत बड़े ख़तरे का सामना होता। अल्लाह ने इरादा किया और मदद की जिसकी वजह से ऐसा नहीं हुआ। यह भी एक अहम बात थी।
मैंने कहा था कि मैं राष्ट्रीय शक्ति के कुछ तत्वों की तरफ़ इशारा करुंगा। राष्ट्रीय शक्ति का एक अहम तत्व वे चीज़ें हैं जिनका क़ौम से सीधा संबंध हैं; जैसे क़ौमी एकता, जैसे राष्ट्रीय विश्वास, जैसे राष्ट्रीय स्तर पर उम्मीद, सामाजिक स्तर पर उम्मीद जैसे राष्ट्रीय स्तर पर आत्मविश्वास। कभी ऐसा भी होता है कि आप जो देश की किसी संस्था के अध्यक्ष हैं और आप में आत्मविश्वास भी है लेकिन आप ऐसा काम करना चाहते हैं जिसके लिए अवाम की मदद की ज़रूरत है। अगर अवाम में यह आत्मविश्वास न होगा तो आप उस काम को अंजाम नहीं दे सकते। मैंने कभी इस क़ौमी आत्मविश्वास के बारे में तफ़्सील से बात की थी(4)। या क़ौमी सतह पर ईमान में मज़बूती। कुछ उसूल हैं जिन पर हमारी क़ौम ईमान रखती है; यह ईमान इस बात का कारण बना कि जब अवाम के हाथों में कोई हथियार नहीं था, यहां तक कि बहुत से मौक़ों पर पत्थर भी नहीं होता था, वह शैतानी शाही शासन के फ़ौजियों की गोलियों के सामने खड़े हो जाएं और उसे गिरा दें। यह ईमान की वजह से हुआ। यह क़ौमी ईमान बहुत ही क़ीमती संपत्ति है। क़ौमी ईमान की रक्षा, उन ज़िम्मेदारियों में से एक है जिनका संबंध अवाम से है। या अवामी सतह पर अर्थव्यवस्था का मामला या फिर सामाजिक मामलों में किसी तरह की रुकावट का न होना।
प्रेसिडेंट साहब ने आप लोगों की बातों को अच्छी तरह से समझा दिया है। मुल्क और लोगों का इंतेज़ाम संभालने के लिए एक अहम काम यह है कि लोगों का काम चलता रहे, उस में मुश्किल पैदा न हो और न ही काम में कोई रुकावट हो। जैसे यही जो मुल्क के ज़िम्मेदारों ने पूंजीनिवेश और इस तरह के कामों के लिए “वन विन्डो” सिस्टम लागू करने का फ़ैसला किया है।(5) इस तरह से काम बिना रुकावट के आगे बढ़ता है और आसान भी हो जाता है। यह वह चीज़ें हैं जिनका ताल्लुक़ आम लोगों से है। अगर यह काम होने लगे तो आम लोग भी हर मौक़े पर मैदान में मौजूद रहेंगे। यानि अगर हम उन मुद्दों को हल करने में कामयाब हो जाएं जो सीधे तौर पर आम लोगों से ताल्लुक़ रखते हैं तो फिर मैदान में आम लोगों की मौजूदगी सौ फ़ीसद होगी। वैसे ख़ुदा का शुक्र है कि बहुत से मैदानों में मुश्किलों के बावजूद हमारे मुल्क के लोग मैदान में डटे हैं। यहां तक कि जब ईरान पर जंग थोपी गयी थी तब भी यानि चालीस बरस पहले भी बहुत सी परेशानियां होने के बावजूद, लोग मैदान में मौजूद रहे, इस में तो कोई शक नहीं है। लेकिन अगर लोगों की परेशानियां खत्म हो जाएं तो लोग एक साथ मिल कर मैदान में उतर जाएंगे और जब आम लोग मैदान में हों तो फिर उस मुल्क को उस क़ौम को कोई परेशानी नहीं होती। उसे किसी चीज़ का डर नहीं होता। यही वजह है कि चूंकि लोगों की मौजूदगी बहुत अहम है और लोगों की मौजूदगी भी इस तरह की चीज़ों की बुनियाद पर होती है, आप देखते हैं कि छोटे-बड़े शैतान, लोगों को बहकाने की कोशिश कर रहे हैं, जैसा कि उनके सरगना ने कहा थाः मैं “सबके सब को बहकाउंगा (6)।” यह लोग हमेशा बहकाने में लगे रहते हैं और इसके लिए वे आज के उस मीडिया को इस्तेमाल करते हैं जिसने बात को इधर से उधर करना, हर बात को फैलाना, झूठ बोलना, लीपापोती करना और हर ग़लत काम को सही ठहराना बहुत आसान बना दिया है। यह लोग हमेशा समाज के दिमाग़ में अपनी बातें भरते रहते हैं। बहकाते हैं। यह लोग उसी बात पर अमल कर रहे हैं जो शैतान ने कही थी कि सबको बहकाउंगा। यह शैतान, लोगों के अंदर ईमान, भरोसे, उम्मीद और आत्मविश्वास का जज़्बा ख़त्म कर देने और उन्हें नाउम्मीद करने के लिए, उनका अपने ऊपर भरोसा ख़त्म कर देते हैं। वे मुल्क के ज़िम्मेदारों पर भरोसा ख़त्म कर देते हैं, क़ौम़ी इत्तेहाद को कमज़ोर करते हैं, हमेशा यही सब करते रहते हैं। यह दरअस्ल दुश्मनों का काम है। यक़ीनी तौर पर इस का मक़सद यह है कि लोग बहक जाएं लेकिन आम लोगों को बहकाने का हथियार, ख़ास लोगों को बहकाना है। आज एक ख़ास काम जो किया जा रहा है वह, समाज के ख़ास लोगों को बहकाना है। यानि उन लोगों को बहकाया जा रहा है जिनके पास कोई ओहदा है या जो मशहूर हैं, या कुछ पढ़े लिखे लोग भी, इस तरह के लोगों को बहकाया जा रहा है। क्योंकि जब ख़ास लोग बहक जाते हैं, तो फिर अगर इन बहक जाने वाले ख़ास लोगों को मौक़ा दिया जाए, और संसाधन दिए जाएं तो वे बड़ी आसानी से आम लोगों को बहका लेंगे। हमारे मुल्क की तारीख़ में बहुत बड़ी सॉफ्ट वॉर आज कल इसी मैदान में जारी है। हमारे दुश्मन मक्कारी से लोगों को अपना एजेन्ट बना रहे हैं, उन्हें हराम खिला रहे हैं, तरह तरह के हथकंडों से उन्हें हराम खाने पर मजबूर कर रहे हैं और जब हरामख़ोरी की आदत पड़ जाती है तो फिर, नजासत खाने वाले जानवर की तरह, उसे भी हरामख़ोरी से रोकना बहुत मुश्किल काम होता है, वे लोगों को अपना एजेन्ट बना लेते हैं, कुछ को धमकी से और कुछ को लालच और इसी तरह के दूसरे हथकंडों से अपना ग़ुलाम बना लेते हैं। इससे पता चलता है कि इस वक्त़ एक बड़ी सॉफ़्ट वॉर चल रही है।
वैसे मैं यह भी बता दूं कि क्या वजह है कि आज कल हमारे ख़िलाफ़ चलने वाली यह सॉफ़्ट वॉर इतनी सख़्त है? इसकी वजह यह है कि हम ताक़तवर हो गये हैं, हम ताक़तवर हो चुके हैं। आज हक़ का मोर्चा, बुनियादी ढांचे की नज़र से, संसाधन की नज़र से मज़बूत हो गया है। आज सच्चाई के इस मोर्चे को चैलेंज करना दुश्मन के लिए आसान नहीं है, मुश्किल काम है। इस लिए वह अब सॉफ़्ट वॉर का सहारा ले रहे हैं और लोगों के दिल व दिमाग़ को बदलने की पूरी कोशिश कर रहे हैं, यह हमारी ताक़त की वजह से है। हमने यह कहा है कि ख़ास लोगों को निशाना बनाया जा रहा है। लेकिन इन ख़ास लोगों में भी बहुत ज़्यादा लोग, ख़ुदा के शुक्र से ख़ास लोगों की तादाद भी मुल्क में बहुत ज़्यादा है, युनिवर्सिटियों और दीनी मदरसों से पढ़ लिख कर निकलने वाले यह लोग, सूझबूझ भी रखते हैं और जोश व जज़्बा भी इन में कूट कूट कर भरा है। यह लोग सही अर्थों में एक सुतून और पिलर बन सकते हैं एक मज़बूत सहारा बन सकते हैं। वैसे दुश्मन भी पूरी ताक़त से लगा हुआ है और पूरी ताकत से लोगों पर असर डालने की कोशिश कर रहा है। तो अब दुश्मन के इस क़दम के मुक़ाबले में हम क्या करें? बयान का जेहाद। वही जिसके बारे में आप लोगों ने भी अपनी तक़रीरों में बार बार कहा है। मैंने भी पहले कई बार यह बात दोहरायी है और बयान के जेहाद पर रौशनी डाली है। सवाल यह है कि हम जेहाद क्यों कहते हैं? बयान का जेहाद क्यों कहते हैं? यह दर अस्ल इमाम अली अलैहिस्सलाम की हदीस से लिया गया है। हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने, इमाम हसन और इमाम हुसैन अलैहिमुस्सलाम के नाम अपनी मशहूर वसीयत में जो वैसे तो हसनैन अलैहिमुस्सलाम के नाम है मगर उसमें इमाम अली अलैहिस्सलाम फ़रमाते हैं कि “जिस तक मेरी यह तहरीर पहुंचे ” यानि मेरे और आप के लिए भी यह वसीयत है, इस में एक जगह इमाम फ़रमाते हैं कि ख़ुदा के लिए अल्लाह की राह में अपनी दौलत से , अपनी जान से, अपनी ज़बान से जेहाद करना, सुन्नत की मदद से जेहाद करना (7)। अब हमारी क़ौम में ख़ुदा के शुक्र से ऐसे लोग थे जिनमें ताक़त थी, महारत थी, उन्होंने अपनी दौलत से और अपनी जान से जेहाद किया और इस वक़्त भी कर रहे हैं, लेकिन ज़बान से भी जेहाद किया जाना चाहिए इस लिए जो यह काम कर सकते हैं उन्हें इस मैदान में आगे आकर जेहाद करना चाहिए।
बयान के जेहाद के बारे में हम ने बहुत सी बातें की हैं, लेकिन आज भी मैं इस सिलसिले में कुछ बातें करना चाहता हूं जिनका ज़िक्र शायद मैंने पहले नहीं किया हो। एक बात जो सब से पहले मुझे करना है, यह है कि मैंने सुना है कि पार्लियामेंट में बयान के जेहाद के लिए एक भारी बजट रखा गया है, मुझे इस तरह का रवैया ज़्यादा पसंद नहीं है। हमारे पास बरसों से इस तरह के इदारे और बजट मौजूद हैं। मेरा तजुर्बा कहता है कि इस तरह के बजट, आम तौर पर बर्बाद होते हैं और उनका फ़ायदा नहीं होता। पार्लियामेंट एक बड़ा बजट रखती है वैसे यह भी बता दें कि जिन लोगों के हाथों में यह बजट जाने वाला है मुझे उन पर भरोसा है! यह भी आप लोग सुन लें कि मुझे उन लोगों पर शक नहीं है, चाहें तबलीग़ की मिनिस्ट्री के ज़िम्मेदार हों, या तबलीग के इदारे के लोग और इस तरह के सभी इदारे और ज़िम्मेदार, उन सब पर मुझे भरोसा है, ईमानदार और साफ़ सुथरे लोग हैं लेकिन इस काम का तरीक़ा, ग़लत है कि बयान के जेहाद के लिए एक बड़ा बजट अलग कर दिया जाए। मुझे उम्मीद है कि ज़िम्मेदार लोग इस पर ध्यान देंगे, मतलब यह कि मेरी मर्ज़ी नहीं है, बयान के जेहाद को बहुत ज़्यादा अहमियत देने वाले एक शख़्स के तौर पर मैं इस तरह बजट विशेष करने और इस तरह से ख़र्च करने की हिमायत नहीं करता। यह तो एक बात है।
दूसरी बात यह है कि जंगों में अब पुराने हथियारों से लड़ना मुमकिन नहीं है। आज तलवार, भाले और इस तरह की चीज़ों से, तोप और मिसाइल वग़ैरा का मुक़ाबला नहीं किया जा सकता। बयान के जेहाद में भी ऐसा ही है, पुराने तरीक़ों से काम नहीं किया जा सकता। यक़ीनी तौर पर कुछ पुराने तरीक़े हैं जिनकी जगह कोई चीज़ नहीं ले सकती जैसे मजलिस या महफ़िल वग़ैरा, यह सब तरीक़े पुराने हैं लेकिन इनकी जगह कोई चीज़ नहीं ले सकती, यह तरीक़ा आज भी असर रखता है और कोई भी दूसरा तरीक़ा इन की जगह नहीं ले सकता। लेकिन दूसरे तरीक़ों के सिलसिले में, नये ज़माने के साथ चलना चाहिए। यक़ीनी तौर पर आज इस सिलसिले में ज़रूरी चीज़ें हमारे पास हैं। मतलब यह कि साइबर स्पेस वग़ैरा में काम हो रहा है। हालाकि साइबर स्पेस में कुछ मसले हैं जिन्हें रईसी साहब और उनके साथी जल्द ही हल कर दें लेकिन बहरहाल चीज़ें हमारे हाथ में हैं, संसाधनों के लिहाज़ से जो काम हो सकता है वह हमारे हाथ में हैं, अहम चीज़, प्रोग्राम है। बयान के हथियार का सॉफ़्ट वेयर एक अहम चीज़ है, उसमें सूझबूझ की ज़रूरत है, नयी बात कहने की ज़रूरत है और बयान के नये तरीक़े की ज़रूरत है।
मेरी नज़र में आज जो चीज़ एक असरदार हथियार के तौर पर काम कर सकती है, वह अलग अलग मैदानों में इस्लाम की तालीम को बयान करना है। हमारे पास, अल्लाह की पहचान, दीन वग़ैरा के बारे में कहने के लिए बहुत कुछ है, हमारे पास वे बातें हैं जो दुनिया वालों के लिए दिलचस्प और अच्छी हैं। इस्लामी लाइफ़ स्टाइल के सिलसिले में हमारे पास बहुत सी अनकही बातें हैं। आप सोचिए! एक मैदान, इनवार्मेंट का है, इनवार्मेंट का मामला है, एक मैदान, जानवरों के साथ किया जाने वाला सुलूक है। एक मैदान फ़ैमिली के मामले हैं, यह सब जीवन शैली से जुड़ी चीज़ें हैं। इन सभी मैदानों में इस्लाम के पास कहने को बहुत कुछ है। इन सब के लिए इस्लामी तालीम को इस्लामी हदीसों और रवायतों से निकाल कर सब के सामने पेश किया जा सकता है। या इस्लामी हुकूमत के सिलसिले में भी यही हालत है, यह बहुत ही अहम चीज़ है और इसे भी पेश किया जा सकता है। इस्लामी हुकूमत का मामला भी बहुत अहम है। इस्लाम में हुकूमत का जो क़ानून है, उसकी जो बुनियाद है वह दुनिया की हुकूमतों और उनके क़ानूनों से बहुत अलग है। इस्लाम में हुकूमत, न तो शाही सरकारों की तरह और न ही आज कल दुनिया में चलने वाले रिपब्लिकन तरीक़े जैसी है और न ही फ़ौजी हुकूमत जैसी है और न ही बाग़ियों की सरकारों जैसी है। इनमें से किसी से नही मिलती। बल्कि इस्लाम में सरकार, एक अलग चीज़ है और उसकी बुनियाद, रूहानी है। इस्लामी सरकार का तरीक़ा यह हैः अवामी हो, दीनी हो, मज़हबी हो, दिखावा न हो, पैसे की बर्बादी न हो, ज़ुल्म न हो, न ज़ुल्म बरदाश्त करना पड़े न कोई ज़ुल्म करे। यह जो दुआएं हैं: “मैं हरगिज़ ज़ुल्म का निशाना नहीं बन सकता क्योंकि मेरी हिफ़ाज़त की ताक़त रखता है और मैं हरगिज़ ज़ुल्म नहीं कर सकता क्योंकि तू मुझे रोकने की ताक़त रखता है।” (8)
यह जो सहीफ़ए सज्जादिया की दुआएं हैं उनका हर लफ्ज़ इल्म के खज़ाने की चाभी है, यह अस्ल में हमारे नये हथियार हैं, इन्हें इस्तेमाल करना चाहिए।
बयान के जेहाद के बारे में तीसरी बात यह है कि बयान के जेहाद में, कौम की तरक़्क़ी की राह को गुमराही की राह से अलग समझना चाहिए, यह एक बहुत अहम बात है। हमने कभी जुमा की नमाज़ के खुत्बे में “अपनों और दूसरों“ की बात की तो हंगामा हो गया। (9) “आप लोगों को अपनों और दूसरों“ में क्यों बांट रहे हैं? हालांकि जो लोग यह बात कर रहे थे वह पहले ही बार बार अपने और दूसरों के मामले पर काम कर चुके थे। “अपनों और दूसरों“ का मामला एक बुनियादी मामला है, अपनों का मतलब, रिश्तेदार, एक दीन का, एक पार्टी का या एक सोच का होना नहीं है। बल्कि अपने से मुराद वह है जो इस्लाम की राह पर यक़ीन व अक़ीदे में हमारे जैसा हो, क़ुरआने मजीद के हुक्म के बारे में उसकी राय हमारे जैसी हो, इस्लामी ईमान के बारे में उसका नज़िरया हमारे जैसा हो और वह इस्लामी जुम्मूहिरया के बारे में हमारी तरह सोचे जिसके लिए इतनी क़ुरबानियां दी गयी हैं। यह अहम बात है, इस सही राह को, गुमराही के रास्ते से अलग रखना चाहिए, साफ़ होना चाहिए यह है बयान के जेहाद का मतलब जो काफ़ी अहम है।
बयान के जेहाद के सिलसिले में आख़िरी जो बात है वह हमारे लिए एक अलार्म है और एक ख़तरा भी है। हमें यह जानना चाहिए कि अगर बयान के जेहाद पर सही तरीक़े से अमल नहीं हुआ तो दुनिया की पूजा करने वाले लोग, दीन को भी अपनी मर्ज़ी से और अपनी ख़्वाहिश पूरी करने के लिए इस्तेमाल करने लगेंगे। यानि अगर मैं और आप अपना काम सही तरह से नहीं करेंगे तो वह व्यक्ति जिसके लिए यही दुनिया सब कुछ है, जिसके लिए अपना फ़ायदा, अपनी ख़्वाहिश ही अहम है, वह दीन को भी अपने फ़ायदे के लिए इस्तेमाल करने लगेगा। यह बात, मालिके अश्तर के नाम हज़रत अली अलैहिस्सलाम के मशहूर ख़त में कही गयी है।(10) इस में हज़रत अली अलैहिस्सलाम बताते हैं कि उन लोगों को चुनो जो इस तरह की खूबियों के मालिक हों और फिर आप तफ़सील के साथ उन ख़ूबियों का ज़िक्र करते हैं और कहते हैं इस तरह के लोगों को अपने काम के लिए अपने पास रखो। फिर ख़ूबियां बयान करते वक़्त कहते हैं कि “गहरी नज़र डालो, गौर करो! यह दीन बुरे लोगों के हाथों में फंसा था।” यह बात हज़रत अली अलैहिस्सलाम जनाबे मालिके अश्तर से कहते हैं, यानी पैग़म्बरे इस्लाम के बीस बाइस साल बाद, बनी उमिया के असर की तरफ़ इशारा है जो इतना बढ़ गया था कि सुबह की नमाज़ चार और छह रकअत पढ़ा दी जाती थी और उसके बाद यह भी कहा जाता था कि आज हमारी तबीअत अच्छी है, हम खुश हैं, अगर कहो तो और भी पढ़ा दें। “यह दीन बुरे लोगों के हाथों में फंसा था और उसे दुनिया और अपनी ख़्वाहिशों की आग बुझाने के लिए इस्तेमाल किया जाता था।” खुदा की पनाह मांगते हैं इस से कि हम शैतान के इस सख़्त जाल में फंस जाएं, चाहें हम या हमारे लोग। मुझे उम्मीद है कि मैंने जो बातें कही हैं उन पर सब से पहले हम खुद अमल करेंगे तभी यह बातें असर करेंगी।
या अल्लाह! मुहम्मद व आले मुहम्मद के सदक़े में, शाबान के महीने को, पूरी इस्लामी उम्मत और ईरानी क़ौम के लिए मुबारक महीना बना दे। ख़ुदावन्दे आलम! इमाम ज़माना अलैहिस्सलाम को हम से खुश रख और उनकी दुआओं में हमें शामिल कर और हमारा सलाम और हमारी अक़ीदत उन तक पहुंचा दे।
वस्सलाम अलैकुम व रहमतुल्लाहे व बरकातुहु
1. मुलाक़ात के शुरु में प्रेसिडेंट सैयद इब्राहीम रईसी ने तक़रीर की जो विशेषज्ञ असेंबली के उप प्रमुख हैं।
2. मिस्बाहुल मुतहज्जिद, जिल्द 3 पेज 829
3. इक़बालुल आमाल, जिल्द 2 पेज 686
4. यज़्द के स्टूडेंट्स से मुलाकात में तक़रीर 3/1/2008
5. पार्लिमेंट के कानून के मुताबिक़ रोज़गार और व्यापारिक कामों के लाइसेंस और दूसरे काग़ज़ात से संबंधित सारे काम नए ईरानी साल की शुरुआत 21 मार्च 2022 से एक नेश्नल पोर्टल से इंटग्रेटेड तौर पर अंजाम पाएंगे।
6. सूरए साद की आयत नंबर 82 में भी शैतान का यह जुमला है कि सब लोगों को गुहराह करूंगा
7. नहजुलबलागा खत नंबर 47
8. सहीफए सज्जादिया दुआ नंबर 20
9. तेहरान में जुमा की नमाज़ का ख़ुतबा 30/7/1999
10. नहजुलबलागा खत नंबर 53