अलबुर्ज़ प्रांत के 5580 शहीदों पर सेमिनार के प्रबंधकों ने 16 दिसम्बर 2025 को इस्लामी इंक़ेलाब के नेता से मुलाक़ात की। इस मुलाक़ात में इस्लामी इंक़ेलाब के नेता ने शहीदों की याद में सेमिनारों के आयोजन के मक़सद पर रौशनी डाली और कुछ निर्देश दिए।
स्पीच इस प्रकार हैः
बिस्मिल्लाह अर्रहमान अर्रहीम (1)
अरबी ख़ुतबे का अनुवादः सारी तारीफ़ पूरी कायनात के पालनहार के लिए है और दुरूद व सलाम हो हमारे सरदार और पैग़म्बर अबुल क़ासिम मुस्तफ़ा मोहम्मद और उनकी सबसे पाक, पाकीज़ा और मासूम नस्ल पर।
आप अज़ीज़ भाइयों और बहनों का स्वागत है! बहुत शुक्रिया कि आप लोगों ने हिम्मत दिखाई इस फ़ायदेमंद और एक लेहाज़ से निर्णायक प्रक्रिया को जिसका काम शहीदों के नाम और उनकी याद को ज़िंदा रखना है, करज शहर और अलबुर्ज़ प्रांत में शुरू किया।
अलबुर्ज़ प्रांत की एक ख़ुसूसियत कि जिसकी ओर सम्मानीय लोगों ने इशारा किया; मुल्क के मुख़्तलिफ़ इलाक़ों के लोगों का आकर बसना है जो अब से कुछ दशकों पहले, इस शहर में आकर बसे हैं; इसलिए इस शहर में जो भी अच्छा काम होगा, इस बात की संभावना है कि वह पूरे मुल्क में फैल जाए और वहाँ भी अपना असर छोड़े। इसलिए आपका काम बहुत अच्छा है, अल्लाह को पसंद आने वाला और फ़ायदेमंद काम है। मैं इस काम में लगे हुए सभी लोगों का शुक्रगुज़ार हूं।
एक और बिंदु यह है कि आप ने इस सेमिनार के प्रोग्रामों की व्याख्या के दौरान अच्छी बातें बयान कीं- दोनों ही सम्मानीय हस्तियों ने (2) अहम बातें बयान कीं, इस काम के अपेक्षित प्रभाव को बयान किया- लेकिन यह आपकी इच्छाएं हैं; इसे व्यावहारिक होना चाहिए; इस बारे में सोचिए; यानी जिस किताब के लिए कोई पढ़ने वाला हो, जिस फ़िल्म के लिए देखने वालो हो, तो इसके लिए दूसरी कोशिश ज़रूरी है; यानी अगर आप काम को कुशलतापूर्वक अंजाम न दें या उसकी पैरवी न करें या उसके मुख़्तलिफ़ आयामों को मद्देनज़र न रखें, यह कोशिश तो अच्छी हुयी, अच्छी तरह अंजाम पायी लेकिन अपने नतीजे तक नहीं पहुंचेगी; ऐसा काम कीजिए कि ये कोशिश अपने नतीजे तक पहुंचे, और इसके लिए दूसरी कोशिश की ज़रूरत है। मैं यह कहना चाहता हूं कि एक अच्छे काम की सोच और एक अच्छे काम के लिए योजनाबंदी, उस काम का आधा हिस्सा है; दूसरा आधा जो ज़्यादा अहम है, वह उस काम की पैरवी, उस काम को अंजाम देना है और आप ऐसा कीजिए।
जो बिंदु ध्यानयोग्य है वह इन सेमिनारों से संबंधित मसला है; सवाल यह है कि हम ये सेमिनार क्यों कर रहे हैं? जब हम थोपी गयी जंग के शहीदों, इस हालिया जंग के शहीदों, इन जंगों के मुख्य शहीदों की ज़िंदगी की समीक्षा करते हैं तो इन में कुछ जज़्बे पाते हैं जो इन्हें ख़तरनाक मैदान की ओर ले गया और कभी कभी उसमें जानें भी गयीं; दूसरे बहुत से थे जिनमें ये जज़्बे थे, बेहम्दिल्लाह वे सुरक्षित लौट आए; ये जज़्बे क्या हैं? क्यों एक जवान आराम की ज़िंदगी, माँ-बाप का साथ, क्लास, काम, आरज़ूएं, व्यवसाय और सभी चीज़ों की ओर से आँखें मूंद लेता है और जंग की सख़्तियों की ओर जाता है, जंग की कठिनाइयों में- जो लोग इस मैदान में थे वे जानते हैं कि कैसी मुश्किलें पेश आती हैं- ख़ुद को डाल देता है?
अगर हम इस बड़े काम को, इस महान क़दम को, सिर्फ़ जज़्बात में उठाए गए क़दम तक सीमित कर दें, तो हम ने ज़ुल्म किया; अगर हम यह कहें कि भाषण दिए गए, जिन से बच्चों में भावना जागी और वे चल पड़े; तो सचमुच इस वाक़ए के हक़ में ज़ुल्म है, इन लोगों के हक़ में ज़ुल्म है; ऐसा नहीं है। दूसरे तत्व हैं; उन्हें भी शामिल कीजिए, उन्हें ढूंढ कर निकालिए।
इन जज़्बों में से एक "अल्लाह से मुलाक़ात का शौक़" है। हम इन जवानों में ऐसे लोगों को पहचानते हैं, ऐसे लोग मिलते हैं जिन में सही मानी में अल्लाह से मुलाक़ात का शौक़ था; यानी वही चीज़ जिसकी ओर इमाम ख़ुमैनी ने इशारा किया इन आत्मज्ञानियों में, सच्चाई के रास्ते पर चलने वालों और इन जैसे लोगों में, उन्होंने कहा कि आप ने एक उम्र इबादत की, (अल्लाह के यहाँ) क़ुबूल हो लेकिन जाइये इस जवान के वसीयतनामे को भी पढ़िए; इस जवान ने सत्तर साल और अस्सी साल की राह को कभी कभी कुछ महीनों और कुछ दिनों में तय कर लिया और वहाँ पहुंच गया। यह शौक़ का मसला है, अल्लाह से मुलाक़ात के शौक़ को जवान नस्ल में पैदा होना चाहिए। "धार्मिक कर्तव्य की भावना" कि यह एक फ़रीज़ा है और उसे बताया गया है, वह इसे अंजाम दे; नमाज़ की तरह; इसे भी व्यावहारिक होना चाहिए, अंजाम पाना चाहिए। "दुश्मन से मुक़ाबला करने की भावना" का मसला; यह भावना अहम है। जब एक जवान में अपनी जवानी की समझ पैदा होती है- वह स्थिति जब वह किशोरावस्था और नौजवानी की सीमा से निकल जाता है- यह महसूस करता है कि मुल्क के संबंध में उस पर एक फ़रीज़ा है जिसे उसे अंजाम देना चाहिए और ऐसे लोग हैं जो घात लगाए बैठे हैं कि उसके घर को, उसके मुल्क को, उसकी सांस्कृतिक और नागरिक संपत्ति को, उसकी अमर विरासतों को उससे छीन लें; तो वह इनके मुक़ाबले में डटना चाहता है; यह इंसान के भीतर एक जज़्बा है; वग़ैरह वग़ैरह। शायद इन जवानों के इस क़दम के पीछे, एक के बाद एक दस अहम जज़्बे हों जिन्हें शुमार करना चाहिए। आप सम्मानीय लोग यह काम कर रहे हैं और अंजाम दे रहे हैं। हमें इन्हें आने वाली नस्ल में पैदा करना चाहिए; मैं यह कहना चाहता हूं।
मैं यह कहना चाहता हूं कि आप डट जाइये, यह जज़्बे दबने नहीं चाहिए; यह जज़्बे आने वाली नस्ल में पैदा होने चाहिए। यह ऐसा रवैया है जिसे कुछ सांस्कृतिक तंत्रों, कुछ सरकारी तंत्रों और जिन लोगों को इस चीज़ की फ़िक्र होनी चाहिए उन में, नज़र आना चाहिए, लेकिन नज़र नहीं आता; यानी वाक़ई हम इन उच्च विचारों को, इन मूल्यों को जवान नस्ल में पैदा करें, ऐसा दिख नहीं रहा है; और बहुत से मौक़ों पर ऐसा नज़र नहीं आता।
हमारी नौजवान नस्ल बहुत अच्छी है। ये सुविधाएं जो आज मुहैया हैं, इंक़ेलाब के आग़ाज़ में थोपी गयी जंग के वक़्त नहीं थीं; बातों को पहुंचाने, अर्थ को पहुंचाने, सामने वाले पक्ष के दिमाग़ में विषय को पहुंचाने और उस पर प्रभाव डालने के लिए जो विकसित तंत्र आज मौजूद है, उस वक़्त नहीं था; आज हमारी जवान नस्ल इन चीज़ों के मुक़ाबले में डयी हुयी है। वह जो नमाज़ पढ़ता है, वह जो नमाज़े शब पढ़ता है, जो नाफ़िला की नमाज़ पढ़ता है, जो मस्जिद जाता है, अंजुमन में जाता है और मातम करता है, हक़ीक़त में, ऐसी विशाल लहरों के मुक़ाबले में अपनी धार्मिक पहचान को बचाता है, रक्षा करता है, उसे मज़बूत करता है; यह बहुत क़ीमती चीज़ है; हमें इसकी क़द्र होनी चाहिए। आज की हमारी जवान नस्ल मेरी नज़र में बहुत अच्छी है और तैयार है; हमारा प्रोग्राम ऐसा होना चाहिए कि हम इन मूल्यों को जिनसे शहादत का ऐसा जज़्बा पैदा हुआ, ईरानी क़ौम में ऐसी महानता और बलिदान ने जन्म लिया, बयान करें और आने वाली नस्ल में पैदा करें ताकि वे इंशाअल्लाह मुल्क को आगे ले जाएं, समाज को आगे ले जाएं।
ख़ुशक़िस्मती की बात है कि इन सब कठिनाइयों, मुश्किलों और समस्याओं के बावजूद, मुल्क में सार्थक बिंदु बहुत से हैं और इंक़ेलाब की दिशा में, इस्लाम की दिशा में आगे बढ़ने के लिए मुल्क में ज़्यादा तैयारी नज़र आती है। हमें उम्मीद है कि इंशाअल्लाह ये बिंदु और मज़बूत होंगे और इस राह में आप कारनामा अंजाम देंगे और इंशाअल्लाह अपने अपने इलाक़ों में इस काम को अंजाम दीजिए। जैसा कि मैंने कहा कि सिर्फ़ अपने प्रांत तक सीमित न रहिए; यानी इस तरह अमल कीजिए, इस तरह क़दम उठाइये कि जिन लोगों का दूसरे प्रांतों, दूसरे शहरों और दूसरे इलाक़ों से संबंध है, इस सौग़ात को यहाँ से लेकर जाएं और उन्हें तैयार करें, सोच और रुझान पैदा करें, तैयार करें और ये मूल्य इंशाअल्लाह मुल्क के दूसरे इलाक़ों में भी पैदा हों।
अल्लाह, आप सबको इंशाअल्लाह कामयाब करे, आपकी मदद करे, ताकि जिस मक़सद के लिए आप ने यह काम किया है, वह हासिल हो और अल्लाह आप सब भाइयों की कोशिश को क़ुबूल करे और हम करज के अज़ीज़ अवाम ख़ास तौर पर अज़ीज़ शहीदों के परिवारों को भी सलाम अर्ज़ करते हैं।
आप सब पर सलाम और अल्लाह की रहमत और बरकत हो
1-इस मुलाक़ात के आग़ाज़ में अलबुर्ज़ प्रांत में इस्लामी इंक़ेलाब के नेता के प्रतिनिधि और सेमीनार की आयोजक कमेटी के प्रमुख हुज्जतुल इस्लाम वलमुस्लेमीन सैयद मोहम्मद महदी हुसैनी हमदानी, अलबुर्ज़ प्रांत के गवर्नर जनाब मुजतबा अब्दुल्लाही और अलबुर्ज़ प्रांत में आईआरजीसी की इमाम हसन मुजतबा (अ) डिविजन के कमांडर सेकेंड ब्रिगेडियर अली रज़ा हैदर निया ने कुछ बातें पेश कीं।
2-अलबुर्ज़ प्रांत के शहीदों पर सेमीनार करने वाली अंजुमन की पालीसी कमेटी के प्रमुख और अंजुमन के महासचिव