शहीद नसरुल्लाह ज़िंदा हैं
हुज्जतुल इस्लाम वलमुस्लेमीन हबीबुल्लाह बाबाई ने जो बाक़ेरुल उलूम यूनिवर्सिटी में सभ्यता व संस्कृति अध्ययन फ़ैकल्टी में असिस्टेंट प्रोफ़ेसर हैं, Khamenei.ir से इंटरव्यू में, शहीद नसरुल्लाह और शहीद सफ़ीउद्दीन के अंतिम संस्कार के मौक़े पर इस्लामी इंक़ेलाब के नेता के संदेश में शहीदों के "इज़्ज़त की चोटी पर होने" और "शहीदों की रूह और उनके रास्ते की दिन ब दिन बढ़ती सरबुलंदी" के तात्पर्य की व्याख्या की।
इस्लामी इंक़ेलाब के नेता ने शहीद सैयद हसन नसरुल्लाह को आज यानी उनकी शहादत के बाद, "इज़्ज़त की चोटी" पर विराजमान और उनकी रूह और राह को पहले से ज़्यादा सरबुलंद बताया।
सवालः आपकी नज़र में इस्लामी इंक़ेलाब के नेता की ओर से शहीद नसरुल्लाह के बारे में यह वाक्य, वह भी ऐसी स्थिति में जब पश्चिमी दुनिया में बहुत से लोग शहीद की हत्या को हार और अंत और इस्लामी जगत में कुछ लोगों ने उसे निराशा के तौर पर देखा, किस चीज़ पर आधारित है?
अगर हम इस बात की गहराई और राज़ को समझना चाहते हैं तो हमें इज़्ज़त से संबंधित क़ुरआन की आयतों को समझना होगा, क्योंकि इस्लामी इंक़ेलाब के नेता के सभी मूल दृष्टिकोण और उनके विवेकपूर्ण स्टैडं की बुनियाद, क़ुरआन है, इसलिए इस बारे में आयतों को देखना बहुत अहम है।
मिसाल के तौर पर जिस जगह पर संबंधित आयत में अल्लाह फ़रमाता हैः वे (मुनाफ़िक़) जो अहले ईमान को छोड़कर काफ़िरों को अपना दोस्त बनाते हैं, क्या ये उनके पास इज़्ज़त तलाश करते हैं। इज़्ज़त तो सारी की सारी अल्लाह ही के लिए है(उसके अख़्तियार में है)। (सूरए निसा, आयत-139) इस मानी वाली आयतें क़ुरआन में बार बार आयी हैं कि ग़ैर मोमिनों के बीच और उन चीज़ों में इज़्ज़त नहीं है जो ग़ैर ख़ुदा वाली हैं। जो शख़्स इज़्ज़त, कामयाबी और एक सामाजिक मक़ाम, विश्व स्तर या सभ्यता के स्तर पर चाहता है तो उसे अल्लाह से अपना संपर्क मज़बूत बनाना और व्यवस्थित करना चाहिए और अगर वह अल्लाह के ज़्यादा निकट हो जाए तो अल्लाह की ओर से इज़्ज़त उसे भी मिलेगी। यह एक बिन्दु है कि इज़्ज़त मूल रूप से उस संपर्क से मिलती है जो इंसान अल्लाह से बनाता है और ज़िंदगी में उन चीज़ों के ख़िलाफ़ कि जिनका ख़ुदा से संबंध नहीं है- ज़ालिम हाकिम, वर्चस्ववादी व्यवस्था और दुनिया में अन्याय पर आधारित संबंधों- प्रतिरोध करता है, चाहे वह जान से मार दिया जाए, तो हक़ीक़त में अल्लाह की वह इज़्ज़त उसके भी शामिले हाल हो जाएगी।
हक़ीक़त यह है कि हमारे और पश्चिमी जगत के बीच ज़िंदगी के स्टैंडर्ड, मौत के मानदंड, हार के मानदंड, जीत के मानदंड, मानवीय महानताओं के मानदंड, इंसान की इज़्ज़त के मानदंड को लेकर अलग अलग सोच है। यह जो हम सोचते हैं कि जो इंसान ज़ुल्म के ख़िलाफ़ प्रतिरोध करता है और कभी मार दिया जाता है, शहीद हो जाता है, यह इंसान, हारा हुआ इंसान है और वह इंसान जो किसी भी वजह से व्यवहारिक रूप से प्रतिरोध नहीं करता और झुक जाता है, यह इंसान कामयाब है, इसकी वजह यह है कि इसके ज़ाहिरी रूप को इस तरह दर्शाया जाता है कि हर हाल में अमरीका की इच्छाओं के सामने झुकने में कि जिसकी आर्थिक स्थिति ज़ुल्म पर आधारित है, पाबंदी नहीं रहेगी, मुल्क की अपनी विकास योजनाएं होगीं, मुख़्तलिफ़ योजनाएं होंगी।
यह समझ, पूरी तरह से एक धर्म से दूर समझ है। यानी सांसारिक समझ और शायद भौतिकवादी सोच है, इस मानी में हम मूल रूप से ख़ुशक़िस्मती, सौभाग्य और उम्मीद को पूरी तरह भौतिक जगत में ढूंढ रहे हैं। हालांकि इस्लाम के साहित्य में इज़्ज़तदार होने, सम्मानीय होने, ज़िंदगी के लिए यहाँ तक कि मरने या न मरने का मापदंड, हक़ीक़त में मानवीय मानदंड की ओर पलटता है। जैसा कि हमारी महान हस्तियों के कथन, हज़रत अमीरुल मोमेनीन के मुताबिक़ अपमान और इज़्ज़त, ज़िदगी और मौत के अर्थ में है, यह बताते हैं कि ज़िल्लत के साथ ज़िंदगी आपकी मौत और इज़्ज़त के साथ मौत आपकी ज़िंदगी है। यह उसूल हक़ीक़त में इस्लामी साहित्य में ज़िंदगी और मौत को लेकर, रेज़िस्टेंस की दुनिया से मख़सूस है।
जिस चीज़ ने हक़ीक़त में पश्चिमी जगत में लोगों को असहाय बना दिया है वह यही बिंदु है कि रेज़िस्टेंस न मौत को अपने लिए हार समझता है और न ज़िंदा रहने को अपने लिए कामयाबी समझता है। बल्कि वह ज़िम्मेदारी और फ़रीज़े के मुताबिक़ अमल करता है कि अगर हक़ीक़त में जीत जाए तो कामयाब है और अगर मर जाए और शहीद हो जाए तब भी कामयाब है। इस नज़रिए को पश्चिमी जगत, जिसने इंसान की ज़िंदगी को मुख्य रूप से भौतिक ज़िंदगी तक सीमित कर दिया, आसानी से नहीं समझ सकता जबकि ज़िंदगी और मौत के बारे में इस पैराडॉक्स को रेज़िस्टेंस जगत पूरी तरह समझता है। संयोगवश इसी ख़ुसूसियत की वजह से रेज़िस्टेंस का दुश्मन असहाय हो गया है और वह उस राष्ट्र को जिसके तन मन में यह विश्वास बैठ चुका है, नहीं झुका पा रहा है।
सवालः शहीद नसरुल्लाह और शहीद सफ़ीउद्दीन के अंतिम संस्कार से संबंधित अपने बयान में इस्लामी इंक़ेलाब के नेता पेशीनगोई करते हैं कि "उनकी (हसन नसरुल्लाह) रूह और राह हर दिन ज़्यादा से ज़्यादा रौशनी बिखेरेगी और रास्ता चलने वालों का मार्गदर्शन करेगी।" इस निरंतरता का क्या आधार और तर्क है? कैसे हो सकता है कि शहादत के बाद और भौतिक रूप से चले जाने के बाद, इस हद तक "असर", "जिंदगी", "ताक़त" और मार्गदर्शन बाक़ी हो?
जवाबः यह सवाल कि शहीद नसरुल्लाह, शहीद सुलैमानी और रेज़िस्टेंस के दूसरे बड़े शहीदों की रूह और रास्ता इसी तरह बाक़ी रहेगा और उनका अनुसरण करने वाले ज़्यादा गंभीरता, ज़्यादा गहराई और ज़्यादा प्रभाव से रेज़िस्टेंस के मैदान में दाख़िल होंगे। इस संबंध को हम इतिहास में खंगाल सकते हैं कि देखें कि रेज़िस्टेंस के शहीद ख़ास तौर से फ़िलिस्तीन में होने वाला रेज़िस्टेंस किस स्थिति में है; क्या वह पतन की स्थिति या उन्नति की स्थिति में है; और ऐसा लगता है जैसा कि तजुर्बा और इतिहास बताता है कि नेताओं की हत्या और रेज़िस्टेंस की बड़ी हस्तियों को शहीद करने से रेज़िस्टेंस कम नहीं हुआ, बल्कि वह और ज़्यादा तेज़ हुआ है। वे बच्चे जो आज कैंपों में हैं, जो इस्राईल की बमबारी में अपनी जान बचा सके, वही रेज़िस्टेंस के भविष्य के नेता होंगे। यह बिन्दु कि जिसमें इतिहास के लेहाज़ से एक हठ और दुश्मनी छिपी हुयी है और इस ऐतिहासिक हक़ीक़त को पश्चिमी जगत क़ुबूल करना नहीं चाहता कि फ़िलिस्तीनियों का क़त्ल करके फ़िलिस्तीन की उमंगें , रेज़िस्टेंस की उमंगें और स्वाधीनता तथा आज़ादी चाहने वाले देशों की उमंगें ख़त्म नहीं की जा सकतीं।
एक दूसरा बिंदु जिसे अक़ीदे की नज़र से देखना चाहिए वह शहीदों के ख़ून की हक़ीक़त है। हक़ीक़त में क़ुरआने मजीद में इस संबंध में अनेक अर्थ हैं जहाँ अल्लाह फ़रमाता हैः "और जो लोग अल्लाह की राह में मारे गए हैं उन्हें हरगिज़ मुर्दा न समझो बल्कि वे ज़िंदा हैं अपने परवरदिगार के यहाँ रिज़्क़ पा रहे हैं।" (सूरए आले इमरान, आयत-169) इस आयत में है कि वे ज़िंदा हैं और अल्लाह के पास से रिज़्क़ पा रहे हैं। दूसरी आयत में "अल्लाह के पास" नहीं आया है "बल्कि वे ज़िंदा हैं मगर तुम्हें (उनकी ज़िंदगी की हक़ीक़त का) का एहसास (समझ) नहीं है।" (सूरए बक़रह, आयत-154) वे ज़िंदा हैं तुम समझ नहीं पाते।
शहीद के ज़िंदा होने का अर्थ, बहुत अहम बिन्दु है। शहीद के संबंध में रेज़िस्टेंस की समझ की बुनियाद क़ुरआन है और शहीद के ज़िंदा होने पर आधारित है। शहीद हक़ीक़त में इस दुनिया में भी जिंदा है और उस दुनिया में ज़िंदा होने के साथ ही ऐसी ज़िंदगी रखता है जिस पर रश्क हो। शहीद के ज़िंदा होने के बारे में कई सतह पर और कई आयाम से बात की जा सकती है, लेकिन अगर हम इस सीमित वक़्त में शहीद नसरुल्लाह के बारे में इस्लामी इंक़ेलाब के नेता के बयान के बारे में कि उनकी रूह और राह "हर दिन ज़्यादा से ज़्यादा रौशनी बिखेरेगी और इंशाअल्लाह रास्ता चलने वालों का मार्गदर्शन करेगी।" बात करें तो हमें बड़े शहीदों या शहीदों की उम्मत को केन्द्र बिंदु बनाना होगा। शहीदों की उम्मत कि जिनका ख़ून बहुत महान है। अब हम उसे "ख़ूने ख़ुदा" कहते हैं। एक बार ख़ूने ख़ुदा इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के ख़ून में, अली इब्ने अबी तालिब अलैहिस्सलाम के ख़ून में, ख़ुद का असर दिखाता है। एक बार ख़ूने ख़ुदा इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के अनुयाइयों में अपना असर दिखाता है। यानी जो ख़ून उम्मत के स्तर पर ज़मीन पर बहाया जाता है, जैसे शहीद नसरुल्लाह का ख़ून, जैसे क़ासिम सुलैमानी का ख़ून और बड़े शहीदों और सरदारों का ख़ून जैसा, वे बड़े शहीद जो इस्राईल और अमरीका जैसे बड़े दुश्मनों के हाथों बड़े स्तर पर और उम्मत के स्तर पर सेवा करते हुए शहीद हुए। ये ख़ून चूंकि बड़ा ख़ून है, चूंकि ख़ूने ख़ुदा है, इसलिए ख़ूने ख़ुदा के स्तर पर उसका प्रभाव बाक़ी रहता है।
मूल रूप से यहाँ शहीद का ख़ून या बड़े शहीद का ख़ून व्यवहारिक रूप से अल्लाह का नूर है और "हालांकि अल्लाह अपने नूर को कामिल करके रहेगा..."।(सूरए सफ़, आयत-8) हक़ीक़त में अल्लाह अपने नूर को कामिल करेगा। वह इस बात की इजाज़त नहीं देगा कि यह दुनिया में दूसरों और अपराधियों के हाथों बुझा दिया जाए। "ये लोग चाहते हैं कि अल्लाह के नूर को अपने मुंह (फूंकों) से बुझा दें हालांकि अल्लाह अपने नूर को कामिल करके रहेगा..." (सूरए सफ़, आयत-8)
यह अगला बिन्दु है कि जिस स्तर पर हमारे बुज़ुर्गों का ख़ून ज़मीन पर बहाया जाएगा, हक़ीक़त में समाज में उसका बड़ा असर पड़ेगा। सबसे बड़ा असर आप हुसैन इब्ने अली अलैहिस्सलाम के ख़ून में देखते हैं।
बहरहाल अगर यह होना है कि इस्लामी जगत और मूल रूप से मुस्लिम समाज नाउम्मीद हो जाए, पीछे हट जाए और निराशा में घिर जाए और रास्ता छोड़ दे, क्या हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम से ज़्यादा बड़ी और महान शहादत किसी की हो सकती है? जब एक इमाम, इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के स्तर का शहीद होता है तो होना यह चाहिए था कि निराशा फैल जाती और वह नूर इतिहास में हमेशा के लिए बुझ जाता। ऐसा क्यों नहीं हुआ? क्यों अमर हो गया? इसका अमर होना हक़ीक़त में अल्लाह का नूर होने की वजह से है जो हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम जैसी हस्तियों में मौजूद है। इसी तरह उन अनुयाइयों में भी जो इस मार्ग में शहीद हुए।
वस्सलामो अलैकुम व रहमतुल्लाह।