तक़रीरः

बिस्मिल्लाह अर्रहमान अर्रहीम

अरबी ख़ुतबे का अनुवादः सारी तारीफ़ पूरी कायनात के मालिक के लिए, दुरूद व सलाम हो हमारे सरदार व रसूल हज़रत अबुल क़ासिम मुस्तफ़ा मोहम्मद और उनकी सबसे पाक, सबसे पाकीज़ा, चुनी हुयी नस्ल पर ख़ास तौर पर ज़मीन पर अल्लाह की आख़िरी हुज्जत इमामे ज़माना पर।

आप सब का स्वागत है। आज ख़ुदा के शुक्र से हमारी यह बैठक हर लिहाज़ से अच्छी थी। बहुत अच्छी बैठक, मुकम्मल, हर चीज़ इसमें शामिल थी। मैं दिल से शुक्रिया अदा करता हूं, इस बैठक का आयोजन करने वालों का भी और इस शानदार, अर्थपूर्ण, और बहुत सुदंर बैठक में हिस्सा लेने वालों का भी, उनका भी जिन्होंने तिलावत की, प्रोग्राम पेश किये, मैं सब का शुक्रिया अदा करता हूं।

यह बड़ी अच्छी बात है कि क़ुरआने मजीद की तिलावत, सही तिलावत, क़ेराअत के क़ानूनों और नियमों के हिसाब से तिलावत का चलन हमारे मुल्क में बढ़ रहा है। शायद ही कोई दिन ऐसा हो जब मैं इस बड़ी नेमत पर अल्लाह का शुक्र न करूं। मैं जब भी टीवी चलाता हूं, या किसी एक क़ारी की, कि जिनमें से कुछ इस वक़्त यहां मौजूद हैं, तिलावत सुनता हूं तो बहुत अच्छा लगता है और मैं ख़ुदा का शुक्र अदा करता हूं। यह सब इन्क़ेलाब की बरकत से हमें मिला है और हम जब अपने मुल्क की दूसरे इस्लामी मुल्कों से तुलना करते हैं, अब मैं पक्के तौर पर नहीं कह सकता, मेरे पास सटीक आंकड़े तो नहीं हैं, लेकिन मेरा यह ख़याल है कि हमारे मुल्क में सही तौर से और अच्छी आवाज़ में तिलावत करने वाले क़ारियों की तादाद सारे इस्लामी मुल्कों से ज़्यादा है अब यह हो सकता है कि कोई एक मुल्क इससे अलग हो, लेकिन बाकी देशों में जैसा कि हम सुनते हैं और कभी कभी देखते हैं, हमारे युवाओं, हमारे प्यारे क़ारियों और हमारे बच्चों जैसे क़ारी नहीं हैं।

क़ुरआने की तिलावत की महानता व फ़ज़ीलत को, क़ुरआने मजीद की महानता व फ़ज़ीलत से समझना चाहिए। आप देखें ख़ुद क़ुरआने मजीद में, क़ुरआन का किस तरह से और किन शब्दों में परिचय कराया गया है, मैंने कुछ मिसालें लिख रखी है जैसेः “क़ुरआने अज़ीम”, “क़ुरआने करीम”, “क़ुरआने मुबीन”, “क़ुरआने मजीद”, “क़ुरआने हकीम”, “क़ुरआने  शिफ़ा”, “क़ुरआने रहमत”, “क़ुरआने नूर” और इसी तरह के दूसरे बहुत से नाम। जब ख़ुदा, कि जो महानता का स्रोत है और सारी महानताएं उसी से हैं और वह महानता की रचना करने वाला है, किसी चीज़ को “महान” कहे, “और महान क़ुरआन की क़सम” (2) तो इसका अर्थ बहुत बड़ा है, बहुत ऊंचा है, बहुत क़ीमती है। आप इसकी तिलावत कर रहे हैं! क़ुरआने मजीद, अल्लाह ने इस आसमान के नीचे जो कुछ भी बनाया है उन सब से बड़ा है, क़ुरआने मजीद, “बड़ा वज़्न” है, ज़रा सोचें! “मैं तुम लोगों के बीच दो भारी चीज़ें छोड़े जा रहा हूं”।(3) बड़ी भारी चीज़, “सिक़्ल” यानी भारी, क़ीमती, यानी क़ुरआने मजीद, यानी हमारे इमाम, जिनके नूर से यह कायनात रौशन है, उनका मर्तबा, क़ुरआने मजीद के बाद है। क़ुरआन “सिक़्ले अकबर” बड़ा वज़्न है, यह बहुत अहम बात है। हमारा रवैया क़ुरआने मजीद के साथ कैसा होता है? आप लोग क़ुरआने मजीद की तिलावत करते हैं, आप सारे तिलावत करने वाले लोग, हम ज़मीन पर रहने वालों के लिए अर्शे इलाही का पैग़ाम लाने वाले हैं, क़ुरआने मजीद की तिलावत का यह अर्थ है। आप लोग ख़ुदा के कलाम को हम तक पहुंचाते हैं, हम में से जो भी इस लायक़ होता है उसके दिल पर आप क़ुरआन नाज़िल करते हैं, हम में से जो भी सुनने वाला होता है उसे आप ख़ुदा का कलाम सुनाते हैं। अपनी क़द्र समझें।

अच्छा तो अब कुछ बातें, जिनमें से एक क़ुरआने मजीद की अहमियत है, क़ुरआने मजीद की महानता तो अपनी जगह पर है, इस पूरी कायनात में सब से अहम नूरानी बातों के ज्ञान से भरी किताब होना अपनी जगह, लेकिन ख़ुद क़ुरआने मजीद की तिलावत भी अहम है। ख़ुदा ने जो सब से बड़ी हस्ती पैदा की है यानी पैग़म्बरे इस्लाम, उन्हें हुक्म देता है कि क़ुरआन पढ़ो, “क़ुरआन में से जो भी हो सके पढ़ो” (4)  “तो जितना हो सके पढ़ो” (5) क़ुरआन पढ़ना चाहिए, उसकी तिलावत करना चाहिए। “उनके सामने नूह की ख़बर पढ़ो” (6) “उनके सामने इब्राहीम की ख़बर पढ़ो” (7) अल्लाह अपने प़ैगम्बर को क़ुरआन पढ़ने का हुक्म देता है। हमारा एक फ़र्ज़ क़ुरआने मजीद की तिलावत है। मेरी नज़र में, इस्लामी दुनिया में कोई ऐसा नहीं होना चाहिए जिसका एक दिन गुज़र जाए और उसने क़ुरआन की कोई आयत न पढ़ी हो, हम सब को क़ुरआने मजीद की तिलावत करना चाहिए। मैंने कई बार अलग अलग मौक़ों पर कहा है, जितना हो सके तिलावत करें, “तो जितना हो सके पढ़ो” कुछ लोग एक दिन में पांच पारे पढ़ते हैं, कुछ लोग एक पारा पढ़ते हैं, कुछ लोग बस एक हिस्सा ही पढ़ पाते हैं, अगर नहीं पढ़ सकते, तो हर दिन एक पेज पढ़ लीजिए, तो हर रोज़ आधा पेज ही पढ़ें लेकिन पढ़ें ज़रूर। क़ुरआने मजीद की तिलावत होनी चाहिए।

मैंने अभी जो कहा है उसमें तिलावत और क़िराअत की बात क़ारी के लिए है लेकिन सिर्फ़ उन्ही के लिए नहीं है, सिर्फ़ उनकी बात नहीं है। क़ारी का दिल भी क़ुरआने मजीद की तिलावत से नूरानी होना चाहिए और समाज के लोगों का दिल भी क़ुरआने मजीद की तिलावत से नूरानी होना चाहिए। अल्लाह ने अपने पैग़म्बर से कहा हैः “और हमने (महान) क़ुरआन को कई हिस्सों में (तुम पर) उतारा है ताकि तुम ठहर ठहर कर उसे लोगों के लिए पढ़ो”।(8) और दूसरी बहुत सी आयतों में, इन्ही आयतों में जिनका मैंने ज़िक्र किया, यानी लोगों के लिए भी पढ़ें, यह आप का काम है। हम घर में अपने लिए क़ुरआन पढ़ते हैं, आप उससे बड़ा काम करते हैं। आप, लोगों के लिए क़ुरआन पढ़ते हैं, लोगों के सामने क़ुरआन पढ़ते हैं, यह बहुत क़ीमती है। अपनी क़द्र करें। अपने काम का मूल्य समझें।

एक दूसरी अहम बात सोच विचार है। क़ुरआने मजीद को सोच विचार के साथ पढ़ना चाहिए। वैसे सोच विचार के भी अपने दर्जे हैं। सोच विचार का मतलब यह है कि क़ुरआने मजीद के नज़र आने वाले ख़ूबसूरत रूप से उसके अंदर के गहरे अर्थों तक पहुंचनाः “उसका ज़ाहिरी रूप ख़ूबसूरत, उसकी अंदरूनी हक़ीक़त बहुत गहरी” है (9) यह सामने की ख़ूबसूरती, यही आप के काम की सुन्दरता और ख़ुद क़ुरआन के शब्दों और क़ुरआन की ख़ूबसूरती है। अंदरूनी हिस्सा गहरा है और वहां तक ग़ौर व फ़िक्र करके पहुंचा जा सकता है। जब आप किसी आयत से जुड़ी बातों पर, उसके शब्दों पर ग़ौर करते हैं, ज़्यादा सोच विचार करते हैं और समझने की कोशिश करते हैं तो आप को ज़्यादा गहरे अर्थ समझ में आते हैं, इसे चिंतन कहते हैं। “वह मुबारक किताब है कि जिसे हम ने तुम पर नाज़िल किया है ताकि (उसकी) आयतों पर ग़ौर करो” (10) यह होता है, यानी यह किताब उतारी ही गयी है चिंतन व ग़ौर के लिए, समझने के लिए। यह सब कुछ समझने के लिए ही है।

एक और बात यहां पर है और वह यह कि जब हम से कहा जाता है कि ग़ौर करें, तो उसका मतलब यह होता है कि अल्लाह ने हमें पैदा किया, उसे पता है कि हम क़ुरआने मजीद की गहराई तक पहुंच सकते हैं, वर्ना वह हम से ग़ौर करने को कहता ही नहीं। आप के अंदर यह योग्यता है कि आप क़ुरआने मजीद की गहराई नापें। वैसे सब को इस बात का भी ख़्याल रखना होगा कि क़ुरआने मजीद की गहराई में जाना और अपनी मर्ज़ी से उसकी आयतों का मतलब निकालना दो अलग चीज़ें हैं, क़ुरआने मजीद पर अपना नज़रिया थोपना अलग है, अपनी आधी आधूरी मालूमात पर भरोसा करना अलग है, इस (गहराई में जाने) की अपनी शर्तें हैं और अगर वक़्त मिला तो उन शर्तों पर भी कुछ बात करेंगे।

एक और बात तिलावत की कला की है। यह भी कह दूं कि आज ख़ुशक़िस्मती से बड़ी अच्छी अच्छी तिलावतें थीं, यानी हमारी आज की इस बैठक की अक्सर तिलावतें अच्छी थीं। आज इन बच्चों की एक नयी तरह की तैयारी नज़र आयी कि जो ख़ुदा के शुक्र से क़ुरआने मजीद के मैदान में उतरे हैं, क़ुरआने मजीद की वादी में क़दम रखा है, हमारे बच्चों ने भी जो कुछ पेश किया वह अच्छा था, तिलावत करने वालों ने भी सच बात है कि बहुत अच्छी तरह से तिलावत की।

तिलावत एक कला है, लेकिन दूसरी कलाओं से इस लिहाज़ से अलग है कि यह कला पवित्र है। यह बहुत अच्छी चीज़ है, यह, कला भी है, इंसान के दिमाग़ से पैदा होने वाली ख़ूबसूरती को कला कहते हैं, और पवित्र भी है, लेकिन बुनियादी बात यह है कि यह कला और इस कला के सारे पहलू, कि आप लोग इस कला के मालिक हैं, और इसके सभी पहलू आप लोगों की नज़र में हैं, यह सब साधन हैं, यह सब ज़रिया हैं, किस चीज़ का साधन हैं? अर्थ को पहुचांने का साधन हैं।

मैंने पिछले साल इसी प्रोग्राम (11) में कहा था कि जब आप लोग तिलावत करते हैं तो उससे क्या करना चाहते हैं? क़ुरआन को दिखाना चाहते हैं या ख़ुद का दिखावा करना चाहते हैं? यह अहम है। हम लोग तो कमज़ोर इरादे के लोग हैं, इस लिए ख़ुद को पूरी तरह नज़रअंदाज़ कर देना, मिटा देना, पीछे कर देना, हमारे जैसे और कमज़ोर लोगों के बस की बात नहीं है, लेकिन कम से कम  इस का तो ध्यान रखना ही चाहिए कि अस्ल मक़सद क़ुरआने मजीद को पेश करना है, अब अगर इसके साथ ख़ुद को भी पेश कर दिया तो कर दिया। क़ुरआने मजीद को पेश किया जाना चाहिए, इस से आप की तिलावत के तरीक़े में बहुत फ़र्क़ पैदा हो जाएगा। कहीं कहीं हमें यह सब नज़र आता है जैसे यह जो मशहूर क़ारी हैं, यह चीज़ कभी कभी उनकी तिलावत में नज़र नहीं आती। जी मिसाल के तौर पर एक आयत को बार बार पढ़ना, कभी और किसी एक आयत के बारे में अच्छा होता है, कहीं ज़रूरी होता है, लेकिन कितना दोहराया जाना चाहिए? मैं एक तिलावत सुनता हूं, एक आयत को बार बार दोहराया जाता है जबकि उसकी ज़रूरत नहीं है, क़ारी इस आयत को 10 बार दोहराता है! इसका क्या मतलब है? इसका यह मतलब है कि इस क़ारी को म्यूज़िक की अच्छी मालूमात है, आवाज़ भी अच्छी है, इस लिए वह इस आयत को अलग अलग अंदाज़ में पढ़ना चाहता है। मिसाल के तौर पर “जब युसुफ़ ने अपने बाप से कहा” (12) तो “जब युसुफ़ ने अपने बाप से कहा” की आयत दोहराने की क्या ज़रूरत है? अब मान लें कि दो बार दोहरा भी दिया गया लेकिन इसे 10 बार दोहराने की कोई वजह नहीं। यह जो मैं 10 बार कह रहा हूं तो शायद 9 बार दोहराया था, मैंने गिना था, इसी तरह से बार बार दोहराया गया, बार बार! यह वह चीज़ नहीं है जिसकी इंसान को क़ारी से उम्मीद होती है, हमें यह नहीं भूलना चाहिए।

ख़ुद क़ुरआने मजीद एक कला है, ख़ुद क़ुरआन एक इलाकी हुनर है, एक कलाकृति है। अब जो लोग जानकार हैं, बारीकी से देखने वाले हैं, सोच विचार करते हैं, उन्होंने पूरी तारीख़ में धीरे धीरे इस कला के नमूने में कुछ चीज़ों को तलाश कर लिया जैसे यह कि मिसाल के तौर पर क़ुरआन मंज़र कशी की कला रखता है यानी घटनाओं की तस्वीर खींच देता है, जैसे कि एक किताब लिखी गयी है “अत्तसवीरुल फ़न्नी फ़िल क़ुरआन” (13) क़ुरआन में तस्वीर खींचने की कला। क़ुरआने मजीद बहुत सी चीज़ों को बयान करते वक़्त, किसी मंज़र को बयान करते वक़्त, मिसाल के तौर पर क़यामत के मंज़र को तो आप देखें कि क़ुरआने मजीद में किस तरह से अलग अलग अंदाज़ और शब्दों में क़यामत, क़यामत के हालात और क़यामत की तस्वीर, इंसानों की आंखों के सामने खींच दी जाती है, या जैसे जेहाद की तस्वीर खींची गयी हैः “क़सम है दौड़ने वाले उन घोड़ों की कि (जंग के मैदान में) हांफते हैं और उनके दौड़ते वक़्त (उनकी टापों में लगी नालों के पत्थरों से टकराने की वजह से) बिजली कौंधती है”।(14) यह तस्वीर खींची गयी है, यह दिखाया जा रहा है। यह भी कहा जा सकता है कि जी वो लोग घोड़े पर सवार हुए और घोड़े पर सवार होकर जंग के मैदान में वो लोग गये। लेकिन इस आयत में यह है कि उस घोड़े की क़सम खायी गयी है जो हांफ रहा है, उस घोड़े की क़सम खायी जा रही है जिसकी टाप पत्थर पर पड़ती है तो उससे चिंगारी निकलती है, यह तस्वीर खींची जा रही है उस दृश्य की।

सूरए बक़रह में मुनाफ़िक़ों के बारे में बात करते वक्त आयत में कहा गया है “उनकी मिसाल उसकी तरह है जिसने आग जलायी हो लेकिन जब उसके चारों ओर रौशनी फैल गयी तो अल्लाह ने उनकी रौशनी छीन ली और उन्हें अंधेरों में छोड़ दिया” (15) यह तस्वीर मुनाफ़िक़ की हक़ीक़त का एक पहलु है, मुनाफ़िक़ वह होता है जो वक़्ती जोश में आकर ईमान लाता है, “जिसने आग जलायी हो लेकिन जब उसके चारों ओर रौशनी फैल गयी तो अल्लाह ने उनकी रौशनी छीन ली” लेकिन उनके दिल में जो बीमारी है उसकी वजह से अल्लाह उनसे नूर छीन लेता है “और उन्हें अंधेरों में छोड़ दिया” यह तस्वीर खींची जा रही है, यह मुनाफ़िक़ के कैरेक्टर का एक पहलु है। उसके बाद फ़ौरन ही उसका एक और पहलु बयान किया जाता हैः “या जैसे आसमान से बारिश हो रही हो जिसमें अंधेरा और घन गरज व चमक हो, बिजली की कड़क की वजह से मौत के डर में वह अपनी उंगलियां अपने कानों में ठूंस लेते हैं”।(16)  यह भी मुनाफ़िक़ों का एक और पहलु है। बारिश तो रहमत है लेकिन इस बारिश के साथ गरज है, चमक है। वह डर जाता है, अंधेरा है, उससे भी डरता है। बारिश से फ़ायदा नहीं उठाता लेकिन उसकी चमक और गरज से डरता है, वही बात जो सूरए मुनाफ़ेक़ून में कही गयी है “उन्हें लगता है कि हर चीख़ उनके लिए है” (17) इसमें मुनाफ़िक का एक और पहलु बताया गया है, देखें आप, क़ुरआने मजीद इस तरह से चित्रण करता है। जी तो आप लोग इसे बयान करना चाहते हैं, आप इस कलाम की इस तस्वीर को, जो मोजिज़ा है, अपने तिलावत सुनने वालों के दिमाग में डालना चाहते हैं, यह बहुत बड़ी कला है, बहुत महान कला है। वैसे तिलावत के बारे में बहुत सी बातें हैं। मैं सच में दिल की गहराई से अपने प्यारे क़ारियों से मुहब्बत करता हूं और उनकी इज़्ज़त करता हूं, उस्तादों, पुराने ज़माने के क़ारियों से लेकर युवाओं तक और जिन्होंने अभी इस मैदान में क़दम रखता है, मैं सच में उन सब को दिल की गहराई से पसंद करता हूं, लेकिन कुछ बातें हैं जिन का ध्यान रखना चाहिए।

आप यह जानते हैं कि आप लोगों को क़ुरआने मजीद की इस आयत का नमूना होना चाहिए जिसमें कहा गया है कि “जो लोग अल्लाह का पैग़ाम पहुंचाते हैं”(18) आप अल्लाह का पैग़ाम ही तो पहुंचा रहे हैं। अब आप क़ुरआनी जलसे में जो पैग़ाम पहुंचाते हैं उससे ज़्यादा ठोस, मज़बूत और सच्चा पैग़ाम और क्या हो सकता है? आप लोगों को इस तरह का होना चाहिए, ख़ुद को इस आयत के हिसाब से ढालें, “जो लोग अल्लाह का पैग़ाम पहुंचाते हैं” आप देखें कि अल्लाह की तरफ़ से दी गयी ज़िम्मेदारी निभाने वाले और उसका पैग़ाम पहुंचाने वाले कैसे होते हैं और उन्हें कैसा होना चाहिए। यह तो एक बात थी।

“अर्थ पर ध्यान” आप जो आयत पढ़ रहे हैं उसके अर्थ पर ध्यान दें और कोशिश करें कि दिल में उस आयत के सिलसिले में एक भावना पैदा हो जाए। आप की इस हालत का असर सुनने वाले पर भी होगा। जब आप दिल के जज़्बे के साथ क़ुरआने मजीद की तिलावत करेंगे, ध्यान मग्न होकर तिलावत करेंगे तो आप को सुनना वाला भी आप की हालत से प्रभावित होगा, उसका दिल भी नर्म होगा और उसके दिल पर भी असर होगा। आयतों के अर्थ पर ग़ौर से दिल में यह हालत पैदा होती है। “हराम धुनों” से ज़रूर दूर रहें, इस पर ध्यान दें। वैसे म्यूज़िक के बारे में कहने को बहुत कुछ है लेकिन कुछ धुनें, गाने में आती हैं। मैं अब खुल कर कह रहा हूं, मैं तिलावतें सुनता हूं, ख़ास तौर पर वह जो रेडियो से प्रसारित की जाती हैं। कभी जब यह मिस्र के मशहूर क़ारी तिलावत करते हैं तो मैं रेडियो बंद कर देता हूं, मतलब यह कि मुझे उसके जायज़ होने में शक हो जाता है। वैसे वो इस दुनिया से भी जा चुके हैं, अल्लाह उन पर रहमत नाज़िल करे। या उनके बाद मिसाल के तौर पर अब्दुलमुनइम, इन की धुनें अच्छी हैं, आवाज़ अच्छी है, और सच बात तो यह है कि म्यूज़िक में भी यह काफ़ी बड़े उस्ताद हैं लेकिन कभी कभी तिलावत में उनका अंदाज़, अरबी गानों वाला होता है, तिलावत का अंदाज़ नहीं होता। वैसे क़ुरआने मजीद के बहुत बड़े बड़े क़ारी और उस्ताद भी हैं कि जिन्हें मैं बहुत पसंद करता हूं, लेकिन उनकी तिलावत में भी कभी इस तरह की चीज़ें नज़र आ जाती हैं, यानी यह नहीं कह सकते कि उनकी तिलावतों में कोई कमी नहीं, लेकिन कुछ लोग हैं इस तरह के, कुछ पुराने क़ारी जैसे अब्दुल फ़त्ताह शअशाई और इस तरह के कुछ क़ारी हैं जो सच्चाई है कि कभी भी तिलावत के दायरे से बाहर क़दम नहीं रखते, लेकिन मिस्र के नौजवान क़ारी जो इधर उधर नज़र आते हैं, वे इस तरह की तिलावत करते हैं, वो लोग कभी कभी तिलावत के क़ानूनों और नियमों को भूल जाते हैं, यह भी एक बात है।

हमारे कुछ क़ारी हैं जिनकी आवाज़ें अच्छी हैं, उनकी यह अच्छी आवाज़ इस बात की वजह बनती हैं कि कहीं कहीं वह ज़रूरत से ज़्यादा ही गिटकरी लगाने लगें वह शेर है न यहः

परी सी ख़ूबसूरती को छुपना गवारा नहीं

दरवाज़ा बंद करो तो रोशनदान से सिर निकाल लेती है। (19)

इस तरह की जगहों पर ख़ुद को संभालें। जब आप का दिल चाहे, लेकिन उसकी जगह न हो और सही भी न हो कि आप वहां ज़रूरत से ज़्यादा गिटकरी लगाएं तो वहां ख़ुद को रोकने के लिए संकल्प की ज़रूरत होती है, मज़बूत इरादे की ज़रूरत होती है तब जाकर इंसान वहां ख़ुद को रोक सकता है।

कुछ क़ारियों की नक़ल भी न करें। आप ईरानी हैं, आप का अपना अच्छा और ख़ूबसूरत अंदाज़ है, क्या ज़रूरत है कि आप मिसाल के तौर पर वह जिस तरह की हरकतें करते हैं, आप भी वैसा ही करें या मिसाल के तौर पर उनकी तरह कपड़े पहनें। मैंने देखा है कि कभी जब टीवी पर बाहर जाने वाले हमारे क़ारियों को दिखाया जाता है तो हम देखते हैं कि उनकी पोशाक भी बाहर के क़ारियों की तरह है, नहीं आप अपने की कपड़े पहनें, गर्व से जाएं और बैठें, बाहर वाले क़ारी से अच्छी तिलावत करें, जो कि आप करते हैं, आप लोगों में से बहुत से उनसे बेहतर तिलावत करते हैं। यह भी एक मुद्दा है।

एक और बात जिस पर मैं ज़ोर देना चाहता हूं, यह है कि यक़ीनी तौर पर हमारे मुल्क में, क़ुरआन की तिलावत, क़ुरआनी जलसों और क़ुरआन पढ़ने की बैठकों में जिस तरह की बढ़ोत्तरी हुई है उसे बयान नहीं किया जा सकता। मैंने बारम्बार कहा है कि इन्क़ेलाब से पहले क़ुरआनी जलसों की हालत में और आज के जलसों में, तादाद और क्वालिटी के लिहाज़ से ज़मीन से आसमान तक का फ़र्क़ है। आज ख़ुदा के शुक्र से, हज़ारों क़ुरआनी जलसे होते हैं, विभिन्न विभाग, विभिन्न पहलुओं से, क़ुरआन से संबंधित मुद्दों पर ध्यान देते हैं, वक़्फ़ संस्था अपने तरीक़े से, तबलीग़ का इदारा अपने हिसाब से, क़ुरआन के मैदान में ही काम करने वाले इदारे अपने अपने तरीक़े से, सच बात यह है कि यह बहुत अच्छा है, इस में कोई शक ही नहीं, लेकिन मेरा यह मानना है कि अब भी हमारे यहां कमी है, हमारे यहां कमी है। क़ुरआन को हिफ़्ज़ करने के सिलसिले में, तिलावत में, क़ुरआने मजीद से लगाव के मामले में अब भी करने को बहुत कुछ है। काश! काश! हर मस्जिद, क़ुरआने मजीद की तिलावत का एक सेन्टर बने! हर मस्जिद में एक क़ारी मौजूद हो, हर रात न सही तो मिसाल के तौर पर हफ़्ते में एक बार, हफ़्ते में एक रात, हफ़्ते में एक बार, दो बार, मोहल्ले के युवा जमा हों, क़ुरआन पढ़ें, क़ुरआने मजीद की तिलावत करें। पूरे मुल्क में क़ुरआनी जलसों को बढ़ाना, चाहे मस्जिदों में, चाहे घरों में, जो लोग तैयार हैं वह अपने घरों में भी यह काम कर सकते हैं।

एक और बात क़ुरआने मजीद की तफ़सीर की है। क़ुरआने मजीद की तफ़सीर जी हां बहुत अहम चीज़ है। यानी सामने नज़र आने वाली क़ुरआनी आयतों से भी इंसान बहुत कुछ सीख सकता है, लेकिन हमारे बड़ों ने जो तफ़सीरें लिखी हैं उनमें कभी कभी ऐसी बातें होती हैं जो हमारे लिए नयी होती हैं। मैं ख़ुद बरसों से तफ़सीर देखता रहता हूं लेकिन इसके बावजूद आज भी कुछ ऐसी चीज़ें नज़र आ जाती हैं जो पूरी तरह समझ में नहीं आतीं तो उसके लिए तफ़सीर देखना पड़ती है, वहां नयी बात मिलती है, यह तिलावत से मिलने वाले फ़ायदे के अलावा है और इससे सोच विचार में मदद मिलती, यह जो मैंने कहा था कि सोच विचार की शर्तों के बारे में कुछ कहूंगा, तो यह बात है कि इस से क़ुरआने मजीद की आयतों पर ग़ौर करने में मदद मिलती है। मिसाल के तौर पर यह किया जा सकता है कि क़ुरआने मजीद पर काम करने वाले एक धर्म गुरु को, क़ुरआन के एक्सपर्ट धर्मगुरु को बुलाया जाए और वह नये अंदाज़ में, दिलचस्प तरीक़े से, उकताहट भरे अंदाज़ में नहीं, क़ुरआने मजीद की तफ़सीर बताए। मिसाल के तौर पर आप यह समझें कि आप तिलावत कर रहे हैं, वह क़ारी को एक जगह रोके, एक आयत के बारे में, या फिर उस आयत में जो ख़ास बात है, वह सुनने वालों के सामने बयान करे, फिर वही अच्छी आवाज़ वाला क़ारी उस आयत को दोबारा पढ़े, इन में से कुछ काम किये गये हैं, हां लेकिन बहुत कम, कुछ तरीक़े आप ख़ुद अपने निकाल सकते हैं और उसे बढ़ा सकते हैं। मतलब यह कि क़ुरआने मजीद की तिलावत को क़ुरआन के तरजुमे और उससे ऊपर तफ़सीर के दर्जे तक ले जाएं ताकि इससे ग़ौर व फ़िक्र का माहौल बने। सब से पहले क़ुरआन का तर्जुमा है, यानी सच में यह होना चाहिए कि हमारे मुल्क में, विभिन्न वर्गों में, युवाओं में किशोरों में यह ख़ूबी हो कि जब उनके सामने क़ुरआन पढ़ा जाए तो आयत का अर्थ उनकी समझ में आ जाए भले ही पूरा ब्योरा और सब कुछ समझ में न आए लेकिन उसकी बात समझ में आ जाए और उन्हें कुछ आयतें याद भी हों और वह आयतों से फ़ायदा उठाएं, इससे मुल्क व समाज में दीनी मालूमात का स्तर ऊंचा होगा।

यहां पर ग़ज़ा की क्लिप दिखायी गयी। जो चीज़ हमारी इस बैठक से मेल खाती थी वह क़ुरआने मजीद की तिलावत थी। आप ने देखा कि बच्चे क़ुरआने मजीद पढ़ रहे थे, सब याद था उन्हें, सब हाफ़िज़ थे, उस हिस्से को वह ज़बानी पढ़ रहे थे। क़ुरआन याद करने का तरीक़ा भी यही है, मैं पहले भी कह चुका हूं कि छोटी उम्र से ही क़ुरआन को याद करने का काम शुरु किया जाना चाहिए, यह लोग क़ुरआने मजीद के हाफ़िज़ हैं। क़ुरआन के हाफ़िज़ हैं और चूंकि अरबी बोलने वाले हैं, इस लिए क़ुरआने मजीद की आयतों के अर्थ भी समझते हैं। यह क़ुरआने मजीद की ही ताक़त है जिसके बल पर उन्होंने ग़ज़ा, फ़िलिस्तीन और ख़ास तौर पर ग़ज़ा में बहादुरी व अपने दृढ़ संकल्प की चोटी पूरी दुनिया को दिखायी, यह क़ुरआने मजीद का असर है। वह वही सब्र है जो क़ुरआन चाहता है, यह वही रेज़िस्टेंस है जिसकी सिफ़ारिश क़ुरआन करता है, यह वह फल है जिसका वादा क़ुरआन, सब्र करने वालों से करता है, यह वही चीज़ है जिसकी वजह से वह लोग डटे हुए हैं।

आज जो ग़ज़ा में हो रहा है दो लिहाज़ से चरम सीमा पर हैः अपराध, दुष्टता, वहशीपन और दरिंदगी के लिहाज़ से अपने चरम पर है। मैं कोई ऐसी जगह नहीं जानता जहां कोई दुश्मन, हर तरह के हथियारों से लैस होकर अवाम पर हमला करे कि जिनके पास कोई हथियार न हो। ग़ज़ा के निहत्थे लोग, अस्पतालों में आम लोग, मस्जिदों में, गलियों में, बाज़ारों में, चलने फिरने वालों के पास हथियार तो नहीं होते, उन पर तरह तरह के हथियारों से हमला किया जा रहा है और इसी पर संतुष्ट नहीं होते, भूखा रखते हैं, प्यासा रखते हैं इन निहत्थे व मज़लूम लोगों को, छोटे छोटे बच्चों को, दूध पीते बच्चों को, ताकि वह भूख से मर जाएं! मैंने नहीं सुना, यह क्रूरता की चरम सीमा है, बर्बरता की हद है, यह उस सभ्यता को बेनक़ाब करने वाली स्थिति है जिसका नतीजा यह होता है, यह पश्चिमी सभ्यता है, अब यह कोई ढकी छुपी बात तो नही है, यह सामने की चीज़ है, खुल कर आ गयी है, सब की आंखों के सामने है, पूरी दुनिया देख रही है। यह तो एक पहलु है। दूसरी तरफ़ भी चरम सीमा है। वह बेमिसाल सब्र, वह लोगों में डट जाने की भावना। ग़ज़ा में हमास और फ़िलिस्तीनी रेसिस्टेंस की बहादुरी एक तरफ़ तो अवाम का डट जाना और न थकना दूसरी तरफ़।

यक़ीनी तौर पर दुश्मन कुछ नहीं बिगाड़ पाया, रेसिस्टेंस को नुक़सान नहीं पहुंचा सका। प्रतिरोध मोर्चे के मुजाहिदों ने बाहर पैग़ाम भेजा है, जो हमारे कानों तक भी पहुंचा है कि हमारी चिंता न करें, अक्सर लोग, यानी मिसाल के तौर पर 90 फ़ीसद हमारे संसाधन और हमारी ताक़त सुरक्षित है। यह बहुत अहम है। कई महीनों से ज़ायोनी, तरह तरह के हथियारों से, अमरीका और दूसरों की ग़द्दारी व अत्याचारपूर्ण मदद के बल पर फ़िलिस्तीनी प्रतिरोध मोर्चे से लड़ रहे हैं, रेसिस्टेंस पहले की ही तरह, ताक़तवर, उसी तरह डटी हुई है और वहां मौजूद है और ख़ुदा की मदद से, ख़ुदा के करम से, रेज़िस्टेंस फ़्रंट ज़ायोनियों को धूल चटा कर रहेगा। 

इस्लामी दुनिया की ज़िम्मेदारी है, उसका फ़र्ज़ है, उसका दीनी फ़र्ज़ है कि जो भी जिस तरह से भी उससे बन पड़े, मदद करे और दुश्मन की मदद हर तरह से हराम और अस्ली ग़द्दारी है चाहे जिसकी तरफ़ से हो रही हो। अफ़सोस की बात है कि इस्लामी दुनिया में कुछ लोग, कुछ ताक़तें, कुछ सरकारें हैं जो इन मज़लूम लोगों के दुश्मन की मदद कर रहे हैं, इंशाअल्लाह एक दिन वह ख़ुद भी पछताएंगे और इस ग़द्दारी की सज़ा भी उन्हें मिलेगी, और उन्हें यह भी पता चल जाएगा कि उन्होंने जो कुछ किया है उसका कोई फ़ायदा नहीं हुआ। 

अल्लाह से दुआ है कि वह इस्लाम व मुसलमानों की ताक़त व इज़्ज़त में हर दिन वृद्धि करे।

वस्सलामो अलैकुम व रहमतुल्लाहे व बरकातुहू

  1. इस मुलाक़ात के शुरु में कई क़ारियों और क़ुरआन के सिलसिले में काम करने वालों ने अपने प्रोग्राम पेश किये।
  2. सूरए हिज्र, आयत 87
  3. अमालिये सदूक़, मजलिस 64, पेज 415
  4. सूरए मुज़्ज़म्मिल, आयत 20
  5. सूरए मुज़्ज़म्मिल, आयत 20
  6. सूरए युनुस, आयत 71
  7. सूरए शोअरा, आयत 69
  8. सूरए इसरा, आयत 106
  9. नहजुल बलाग़ा, ख़ुत्बा 18
  10. सूरए साद, आयत 29
  11. क़ुरआनी जलसे में रहबरे इन्क़ेलाब की तक़रीर ( 2022-04-03)
  12. सूरए युसुफ़, आयत 4
  13. सैयद क़ुतब की किताब
  14. सूरए आदियात, आयत 1-2
  15. सूरए बक़रह, आयत 17
  16. सूरए बक़रह, आयत 19
  17. सूरए मुनाफ़ेक़ून, आयत 4
  18. सूरए अहज़ाब, आयत 39
  19. जामी, हफ़्त औरंग, मसनवी युसुफ़ व ज़ुलैख़ा