“इस्मे तो मुस्तफ़ास्त” किताब क्यों पढ़ें?

ज़िन्दगी की दास्तान

जेहाद एक मुजाहिद इंसान की ज़िन्दगी और मेज़ाज का हिस्सा है। अगर मोमिन की ज़िन्दगी के कई हिस्से हों तो जेहाद और जंग, उसका सिर्फ़ एक हिस्सा है, सारे हिस्से नहीं। अगर मोमिन की ज़िन्दगी रेनबो हो तो जेहाद और जंग उसका एक रंग है, सारे रंग नहीं। तो एक मोमिन का जेहाद और जंग, एक सख़्त मर्दाना हक़ीक़त होने से ज़्यादा, एक ऐसी हक़ीक़त है जिसकी जड़ उसकी ज़िन्दगी और इंसानियत में फैली हुयी है। विषय को इस नज़र से देखने से ज़ाहिर होता है कि जेहाद का एक रुख़ ठोस और कड़ा है जो जंग के मैदान में फ़्रटलाइन में नज़र आता है जबकि उसका दूसरा रुख़, सभी इंसानी पहलुओं की तरह नर्म, कोमल और बारीक है।

एक मुजाहिद की ज़िन्दगी और ज़िन्दगी का रुख़, उसकी ज़िन्दगी के सख़्त रुख़ की तरह ही अहम है। हम तकल्लुफ़ात की बख़िया उधेड़ने का इरादा नहीं रखते बल्कि हम जंग में फ़्रंट लाइन और शहादत में जो रूप देखते हैं, वह इस रास्ते का आख़िरी स्टाप है जो संघर्षशील जीवन से शुरू हुआ था। निष्ठा की उपजाऊ ज़मीन, मोमिनों की तरह ज़िन्दगी और पाक ज़िन्दगी, ईमान और जेहाद के बीज को अपने भीतर समो लेती हैं और फिर आख़िर में जेहाद व शहादत का फल देती है। इस तरह से शहादत, सिर्फ़ ज़ाहिरी तौर पर मरना और किसी एक जगह पर होने वाला कोई वाक़ेया नहीं है बल्कि यह ख़ुद एक रास्ता और प्रक्रिया है जो ज़िन्दगी के बीच से शुरु होता है। शहादत, इस दुनिया की ज़िन्दगी को परलोक की ज़िन्दगी से इस तरह जोड़ती है।

“इस्मे तो मुस्तफ़ास्त” (तुम्हारा नाम मुस्तफ़ा है) इसी प्रक्रिया की व्याख्या है, इसी रास्ते की व्याख्या है, इंसान बनने की व्याख्या है। “इस्मे तो मुस्तफ़ास्त” इंसानों की शहादत से पहले उनके शहीद होने की तस्वीर पेश करती है। “इस्मे तो मुस्तफ़ास्त” एक ऐसी ज़िन्दगी की व्याख्या है जिसे शहादत का फल तोड़ना ही है। इस विषय की अहमियत उस वक़्त कई गुना बढ़ जाती है जब हमें पता चलता है कि “इस्मे तो मुस्तफ़ास्त” का अस्ल किरदार एक औरत है। एक शहीद की बीवी जिसने उसके साथ जेहाद को देखा और महसूस किया है। वह हर क़दम कहानी के ज़ाहिरी शहीद के साथ और उसकी हमदम रही है बल्कि यूं कहा जा सकता है कि मुस्तफ़ा सद्रज़ादे ने यह रास्ता, सुमैया इब्राहीमपूर के साथ ही तय किया है। यही वजह है कि इस रास्ते ने जिस क़द्र मुस्तफ़ा पर असर डाला और उन्हें ऊंचाई अता की है, उसी क़द्र सुमैया इब्राहीमपूर की शख़्सियत को भी समृद्ध किया है।

एक बर्फ़ीले पहाड़ की चोटी

मुस्तफ़ा सद्रज़ादे मोमिनों और मुजाहिदों की तरह ज़िन्दगी के बर्फ़ीले पहाड़ की चोटी हैं और उस पहाड़ का एक दामन है। “इस्मे तो मुस्तफ़ास्त” उस शहादत का दामन है। यह किताब मुस्तफ़ा सद्रज़ादे की ज़िन्दगी को दास्तान की शक्ल में बयान करती है। यह शहादत और जेहाद के बारे में एक औरत के मुंह से रिवायत है जिसकी रावी, शहीद की ज़िन्दगी और उनके ज़माने के ऐसे पहलुओं को दुनिया के सामने लाती है जिनके बारे में या तो बिल्कुल बात नहीं की गई है या बहुत कम बात की गयी है। हम सिर्फ़ शहीद की तस्वीर का एक फ़्रेम या शहीदों के क़ब्रिस्तान में उनकी क़ब्र का पत्थर देखते हैं जबकि तस्वीर का यह फ़्रेम या क़ब्र का पत्थर सिर्फ़ सांकेतिक तस्वीर है जिसके भीतर एक ज़िन्दगी और एक उम्र का संक्षेप रूप है।

“इस्मे तो मुस्तफ़ास्त” और इस तरह की दूसरी किताबें, जेहाद की संस्कृति की रावी समझी जाती है। ऐसी किताबें शहीदों की ज़िन्दगी का छिपा आधा हिस्सा होती हैं और चूंकि उनमें जंग के मैदान में फ़्रंटलाइन पर मौजूदगी और सीधे तौर पर संबंध नहीं होता और उनमें गोलों, तोप और टैंक का ज़िक्र नहीं होता, इसलिए आम तौर पर उन पर कम ही ध्यान दिया जाता है जबकि हक़ीक़त यह है कि फ़्रंटलाइन के मुजाहिद, इसी माहौल का स्वाभाविक नतीजा होते हैं। अगर ज़िन्दगी ने जेहादी रुझान पैदा किया है तो वह उस सहारे और पृष्ठिभूमि की वजह से है जिस पर कम ही ध्यान दिया गया है और उसकी अहमियत और ज़रूरत, सांस के लिए हवा की तरह है। इतना ही अहम लेकिन इतना ही नज़र न आने वाला, छिपा हुआ।

आज की ज़िन्दगी के रावी

यह ज़िन्दगी के रावी हैं लेकिन ऐसी ज़िन्दगी के रावी जो आख़िर में शहादत के नाम के एक कड़ी के साथ एक दूसरी ज़िन्दगी से जुड़ने वाली है। ज़िन्दगी की यही रिवायत, इन किताबों का दूसरा अहम पहलू है। ये किताबें, पवित्र डिफ़ेन्स के साहित्य की दूसरी क़िस्मों के विपरीत जो सन 1980 के दशक के जेहाद की रावी हैं और उन्हें तीन दशक गुज़र चुके हैं, पूरी तरह से आज की हैं। “इस्मे तो मुस्तफ़ास्त” की रावी, उन जवानों में से हैं जो समाज के आज के हालात में ज़िन्दगी गुज़ार रहे हैं और उन्ही सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक और सांस्कृतिक उतार चढ़ाव का शिकार हैं जिनका सामना आज की ज़िन्दगी में सभी हम वतनों को है।

इस तरह की किताबों के रावियों को, उन सभी लोगों की तरह जो आज के समाज में ज़िन्दगी गुज़ारते हैं, बहुत सी बातों और सख़्तियों का सामना करना पड़ता है जिनसे संभवतः समाज के हर शख़्स को रूबरू होना पड़ता है। इन इंसानों का वजूद और अपने माहौल पर जो यह असर डालते हैं उससे पता चलता है और साबित होता है कि इंसान के भीतर पाई जाने वाली गुंजाइश उन सभी रुकावटों और कठिनाइयों से ऊपर है और उम्मीद भी इन्साइक्लोपीडियाज़ में गुम हो जाने वाले हज़ारों लफ़्ज़ों की तरह एक लफ़्ज़ नहीं बल्कि ज़मीनी स्तर पर मौजूद हक़ीक़ी अर्थ है।

“इस्मे तो मुस्तफ़ास्त” न सिर्फ़ इस तरह के ख़्यालों को रद्द करती है कि नए ज़माने में मोमिनों की तरह ज़िन्दगी मुमकिन नहीं है बल्कि दैनिक ज़िन्दगी के वाक़यों और घटनाओं में इस्लामी इंक़ेलाब के इंसान को दिखाकर, नए ज़माने में मोमिनों की तरह ज़िन्दगी की मुख़्तलिफ़ संभावनाएं, पाठकों की नज़रों के सामने पेश करती है। यह तस्वीर न तो काल्पनिक है और न ही आइडियालिस्टिक है बल्कि पूरी तरह हक़ीक़त है और हक़ीक़त से निकली हुयी है। यह वह ज़िन्दगी है, शहादत जिसका एक हिस्सा है और इस रास्ते का एक पड़ाव समझी जाती है। इसलिए “इस्मे तो मुस्तफ़ास्त” ज़िन्दगी की रिवायत है।