इस्लामी इंक़ेलाब के नेता आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई ने 19 अगस्त 2024 को हज़रत जाफ़र बिन अबी तालिब अलैहेमस्सलाम के बारे में अंतर्राष्ट्रीय कान्फ़्रेंस के प्रबंधकों से मुलाक़ात में इस्लामी इतिहास की इस महान हस्ती के बड़े अहम पहलुओं पर रौशनी डाली और अहम निर्देश दिए।  (1)

स्पीचः

बिस्मिल्लाह अर्रहमान अर्रहीम

अरबी ख़ुतबे का अनुवादः सारी तारीफ़ पूरी कायनात के मालिक के लिए, दुरूद व सलाम हो हमारे सरदार व रसूल हज़रत अबुल क़ासिम मुस्तफ़ा मोहम्मद और उनकी सबसे पाक, सबसे पाकीज़ा और चुनी हुयी नस्ल और ख़ास तौर पर ज़मीनों पर अल्लाह के ज़रिए बाक़ी रखी गई हस्ती पर।

वाक़ई हम सभी भाइयों के शुक्रगुज़ार हैं, ख़ास तौर पर इस काम का बीड़ा उठाने वालों के। आप इतिहास को फिर से जीवित कर रहे हैं, यानी जब हज़रत जाफ़र बिन अबी तालिब जैसी महान हस्ती या मिसाल के तौर पर हज़रत हम्ज़ा के हालात बयान किए जाते हैं तो यह सिर्फ़ एक शख़्स के हालात का वर्णन नहीं होता बल्कि इतिहास बयान किया जाता है और इस पहलू पर भी ध्यान रहना चाहिए कि इन हालात से इतिहास की नज़र से क्या पाठ मिल रहे हैं। बहुत अच्छा काम है, ज़रूरी काम है, अहम काम है, फ़ायदेमंद काम है और इंशाअल्लाह ख़ुदा आपको कामयाब करे और आप यह क्रम इसी तरह जारी रखें।

मैं 10 लोगों पर आधारित उस लिस्ट के बारे में कुछ कहना चाहता हूं जो आपने तैयार की है। उसमें ज़ैद बिन हारेसा की जगह ख़ाली है। ज़ैद बिन हारेसा इसी जंगे मौता में भी हज़रत जाफ़र बिन अबी तालिब के कमांडर थे, यानी पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहि व आलेही वसल्लम ने ज़ैद बिन हारेसा को कमांडर बनाया था कि अगर वह शहीद हो जाएं तो उनके बाद जाफ़र कमांडर हों। इन अज़ीम हस्तियों के बारे में है कि जब पैग़म्बरे इस्लाम ने परलोक में देखा कि कुछ जनाज़ों का अंतिम संस्कार किया जा रहा है तो उन्होंने देखा कि हज़रत जाफ़र का जनाज़ा ज़ैद बिन हारेसा से आगे है। उन्होंने जिबरईल से कहा कि मैंने उन्हें सरदार बनाया है, तुमने यह काम क्यों किया? उन्होंने कोई जवाब भी दिया, तो ज़ाहिर है कि पैग़म्बरे इस्लाम, हज़रत ज़ैद बिन हारेसा को अहमियत देते हैं। इसके अलावा क़ुरआन मजीद और इस आयत के नाज़िल होने का मसला है कि "तो जब ज़ैद ने इस औरत (ज़ैनब) से अपनी हाजत पूरी कर ली (और उसे तलाक़ दे दी) तो हमने उसकी शादी आपसे कर दी... " (सूरए अहज़ाब, आयत-37)(2) उनकी शख़्सियत एक नुमायां शख़्सियत है, महान हस्ती है। मेरे ख़याल में उन्हें भी उस लिस्ट में शामिल कीजिए और सही वक़्त पर उन्हें भी याद कीजिए। उनकी जीवनी भी लिखिए।

हज़रत जाफ़र के बारे में, आपने जिन कामों का ज़िक्र किया, वे बुहत अहम हैं, यानी वे काम उस मेक़दार से कहीं ज़्यादा हैं जिनके बारे में हम आम तौर पर अंदाज़ा लगाते थे या अंदाज़ा लगाते हैं कि इतना काम होना चाहिए। 10 जिल्दों की यह किताब या दूसरे काम जो अंजाम पाए हैं, बड़े काम हैं, अहम काम हैं और मैं दिल से उन सभी लोगों का शुक्रिया अदा करता हूं जिन्होंने इन बड़े और अहम कामों में योगदान किया है।

हमारे कामों की एक कमी, किताब लेखन है। आप कहेंगे कि किताब तो लाइब्रेरी में चली जाती है लेकिन मेरा कहना यह है कि किताब, सबसे ज़्यादा बाक़ी रहने वाला कलात्मक काम है। मतलब यह बाक़ी चीज़ें अस्थायी और गुज़र जाने वाली हैं लेकिन किताब बाक़ी रहती है और 100 साल, 200 साल तक किताब से फ़ायदा उठाया जा सकता है। अगर किताब को अच्छी तरह संकलित किया जाए तो यह बहुत अच्छा काम है। किताब ही वह चीज़ है जो कल्चर को एक नस्ल से दूसरी नस्ल तक पहुंचाती है और मेरे ख़याल में किताब पर बहुत ज़्यादा काम होना चाहिए लेकिन अच्छी किताब लिखनी चाहिए, स्टैंडर्ड की किताब लिखनी चाहिए ताकि वह बाक़ी रहे, उससे फ़ायदा उठाया जाता रहे और वह पुरानी न हो, उसे रद्द न किया जाए। इसी तरह फ़िल्म भी ज़रूरी है, ख़ास तौर पर हज़रत जाफ़र के बारे में, हज़रत हम्ज़ा के मामले में भी ऐसा ही था, हब्शा की ओर हज़रत जाफ़र वग़ैरह के पलायन में कला क्षेत्र के लोगों के बक़ौल एक ख़ूबसूरत ड्रामाई पहलू भी पाया जाता है।

कुछ बिंदु हैं जिन्हें अर्ज़ करुंगा। पहली बात यह है कि हज़रत जाफ़र बिन अबी तालिब हिजरत के सातवें साल मदीने वापस लौटे, क्यों? वह 7 साल तक हब्शा में क्यों रुके रहे? जबकि इससे पहले एक बार यह बात फैल गयी थी कि मक्के वाले इस्लाम ले आए हैं तो हब्शा पलायन करने वाले उन लोगों में से कुछ वापस लौटे लेकिन जब वे मक्के के क़रीब पहुंचे तो उन्हें पता चल गया कि यह झूठी ख़बर है और वे दोबारा हब्शा चले गए। मतलब यह कि आना जाना उनके लिए कोई मुश्किल काम नहीं था और जैसा कि जब यह तय पाया कि वे पलायन के बाद मदीने वापस लौटें तो नज्जाशी ने उनके लिए पानी का जहाज़ मुहैया किया और वे हब्शा से रेड सी के ज़रिए मदीने पहुंचे, अलबत्ता मदीने में तो कोई समुद्री तट नहीं है, वह पानी के जहाज़ से तट तक आए और वहाँ से मदीने पहुंचे, यानी हब्शा से मदीने आना आसान काम था। तो हज़रत जाफ़र क्यों 7 साल हब्शा में रुके रहे? इसकी क्या वजह है? उनकी शख़्सियत को देखते हुए उसके लिए एक स्वीकार्य और तार्किक वजह तलाश करनी होगी। हज़रत जाफ़र के सिलसिले में मेरा अध्ययन बहुत व्यापक नहीं है, आप लोग जितना नहीं है लेकिन जितना मेरा अध्ययन है, उसमें मुझे इस चीज़ की कोई वजह नहीं मिली। मुझे लगता है कि इसकी वजह सिर्फ़ तबलीग़ थी। यानी हज़रत जाफ़र ने हब्शा को इस्लाम के लिए अफ़्रीक़ा का दरवाज़ा बना दिया और वाक़ई ऐसा ही है। अफ़्रीक़ा में वह पहली जगह जिसने इस्लाम को क़ुबूल किया, हब्शा है। वह वहाँ रुके रहे ताकि इस्लाम को ठोस तरीक़े से फैला सकें जबकि वह जानते थे, यानी उन्हें मालूम होना चाहिए था और वह जानते थे कि पैग़म्बर मदीने में आ गए हैं, लोगों ने उनका स्वागत किया है, पैग़म्बरे इस्लाम ने सरकार क़ायम की और वह कई जंगों में व्यसत रहे हैं, बद्र नामी जंग, ओहद नामी जंग और अनेक जंगें। इन अहम राजनैतिक व सामाजिक घटनाओं, पैग़म्बरे इस्लाम के ख़त और मुख़्तलिफ़ गिरोहों को आस-पास के इलाक़ों में भेजने के वाक़यों को सात साल हो गए और उसूली तौर पर हम यह नहीं कह सकते कि उन्हें कुछ ख़बर ही नहीं थी। चाहे तफ़सील से ख़बर न रही हो लेकिन आंशिक तौर पर तो उन्हें ज़रूर पता था, इसके बावजूद वह नहीं आए और प्रचार के लिए रुके रहे। इससे तबलीग़ की अहमियत का पता चलता है। अगर आप लोग इस सिलसिले में काम कर रहे हैं तो और रिसर्च कीजिए और देखिए की उनकी सरगर्मियां क्या थीं और उनके सामने वहाँ कौन से अहम काम थे कि वह इतनी मुद्दत तक वहाँ रुके रहे। यह बेहतर काम होगा।

दूसरी बात यह है कि पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहि व आलेही वसल्लम हज़रत जाफ़र को बहुत ज़्यादा चाहते थे। मशहूर रवायत है कि "मुझे नहीं पता कि मैं ख़ैबर के फ़तह होने पर ख़ुश हूं या जाफ़र के आने पर!" (3) चूंकि जब हज़रत जाफ़र हिजरत के सातवें साल वापस आए तो यह वही मौक़ा था जब ख़ैबर फ़तह हुआ था, पैग़म्बरे इस्लाम ने फ़रमाया कि मुझे नहीं पता कि मैं ख़ैबर के फ़तह होने पर ख़ुश हूं या जाफ़र के आने पर! यानी एक मुसाफ़िर के लौटने की क़द्र व क़ीमत, ख़ैबर के फ़तह होने की क़द्र व क़ीमत जितनी है। ख़ैबर की फ़तह भी एक बहुत ही अजीब घटना है, पैग़म्बरे इस्लाम की विजयों के इतिहास में सबसे नुमायां विजयों में से एक है, मक्का फ़तह होने की तरह है, इस तरह की एक चीज़ है, पैग़म्बरे इस्लाम कहते हैं कि मुझे नहीं पता कि मैं ख़ैबर के फ़तह होने पर ज़्यादा ख़ुश हूं या जाफ़र के आने पर! इसलिए पैग़म्बरे इस्लाम उन्हें बहुत ज़्यादा चाहते थे। आप (4) ने भी वह रवायत पढ़ी कि पैग़म्बरे इस्लाम फ़रमाते हैं: "तुम सूरत और सीरत में मुझसे सबसे ज़्यादा मिलते जुलते हो" (5) पैग़म्बरे इस्लाम की ज़िंदगी में हज़रत जाफ़र दूसरों की तुलना में उनसे सबसे ज़्यादा शबाहत रखते थे और यह हदीस शिया और सुन्नी दोनों ने पैग़म्बरे इस्लाम के हवाले से बयान की है कि उन्होंने फ़रमायाः "ऐ जाफ़र! तुम सूरत और सीरत में मुझसे सबसे ज़्यादा मिलते हो।" तो पैग़म्बरे इस्लाम उन्हें बहुत ज़्यादा चाहते थे, इस चाहत के बावजदू अभी वह मदीने पहुंचे ही थे कि पैग़म्बरे इस्लाम उन्हें जंग के लिए भेज देते हैं और वह भी क़रीब क़रीब उनकी शहादत का इल्म होने के बावजूद! यह बहुत अहम है। पैग़म्बरे इस्लाम की यह क़ुरबानी, एक ऐसे शख़्स की क़ुरबानी, जो उनके प्रिय हैं, उनके क़रीबी हैं, मेरे ख़याल में बहुत अहम बात है। हज़रत जाफ़र हिजरत के सातवें साल मदीने पहुंचे और आठवें साल शहीद हो गए। हिजरत के बाद हज़रत जाफ़र क़रीब एक साल या उससे एक दो महीने कम या ज़्यादा मदीने में रहे। यह भी एक ऐसा बिंदु है जो मेरे ख़याल में ध्यान दिए जाने योग्य और अहम है।

एक दूसरी बात यह है कि जब हज़रत जाफ़र की शहादत की ख़बर ग़ैब से पैगम़्बरे इस्लाम को मिली, यानी ज़मीनी सतह पर ख़बर पहुंचने से पहले आसमानी ख़बर पैग़म्बरे इस्लाम तक पहुंच गई कि ये लोग शहीद हो गए तो पैग़म्बरे इस्लाम अस्मा बिन्ते उमैस के घर गए, उस वक़्त अब्दुल्लाह और उनके दूसरे एक दो बच्चे छोटे थे। पैग़म्बरे इस्लाम घर में दाख़िल हुए और उन बच्चों के सरों पर हाथ फेरा। अस्मा बुद्धिमान महिला थीं, उन्होंने पूछा कि ऐ अल्लाह के पैग़म्बर! क्या जाफ़र को कुछ हो गया है कि आप बच्चों के सर पर इस तरह मोहब्बत से हाथ फेर रहे हैं? पैग़म्बरे इस्लाम ने जवाब दिया कि हाँ, "अल्लाह ने उन्हें शहीद बना दिया" (7) जाफ़र शहीद हो गए हैं। अस्मा ने रोना शुरू कर दिया। पैग़म्बरे इस्लाम ने फ़रमायाः मत रोओ, अब उन्होंने फ़रमाया कि मत रोओ या कुछ और कहा, बहरहाल उन्हें तसल्ली दी और फ़रमाया कि अल्लाह ने जाफ़र को दो पर दिए हैं और वह स्वर्ग में फ़रिश्तों के साथ परवाज़ कर रहे हैं, उनका दर्जा यह है। आपने जब यह कहा तो अस्मा ने कहा कि ऐ अल्लाह के रसूल! यह बात लोगों को भी बताइये, उसे लोगों के बीच कहिए। पैग़म्बरे इस्लाम ने कहा कि ठीक है। एलान कराया गया कि सब लोग आएं, पैग़म्बरे इस्लाम बात करना चाहते हैं। लोग आ गए। पैग़म्बरे इस्लाम ने फ़रमायाः जाफ़र शहीद हो गए हैं और उन्हें यह दर्जा हासिल हुआ है। यह सबक़ है। हमें अपने शहीदों के सिलसिले में काम में कमी नहीं करनी चाहिए, इससे पता चलता है कि हमें अपने शहीदों की महानता बयान करनी चाहिए, यह ख़ुद हज़रत जाफ़र की ज़िंदगी का अहम बिंदु है। इसे बयान करना चाहिए।

अलबत्ता हज़रत जाफ़र से संबंधित वर्णन में हमें टुकड़ों टुकड़ों में बहुत सी दिलचस्प बातें समझ में आती हैं। जब ये लोग हब्शा चले गए और फिर अम्र बिन आस और वह दूसरा शख़्स वहाँ पहुंचे ताकि उनकी बुराई करें तो नज्जाशी ने उन्हें बुलाया। उसने कहा कि उनको बुलाओ, देखूं वे क्या कहते हैं, उनका क्या कहना है। जब नज्जाशी ने उन्हें बुलवाया तो ये लोग दुविधा में पड़ गए कि हम नज्जाशी के सामने क्या कहेंगे। उन्होंने आपस में मशविरा किया और इस नतीजे पर पहुंचे कि हम वही चीज़ कहेंगे जो अल्लाह ने पैग़म्बर से कही है और पैग़म्बर ने हमें बतायी है, हम सिर्फ़ वही बात कहेंगे, अपनी ओर से कुछ नहीं कहेंगे और किसी भी बात को नहीं छिपाएंगे, वही कहेंगे जो अल्लाह ने कहा है। इसके बाद वे लोग आए और फिर उनके बीच वह मशहूर और असाधारण बातचीत हुयी और हज़रत जाफ़र बिन अबी तालिब ने वह ऐतिहासिक बयान दिया। फिर जब नज्जाशी उनसे प्रभावित हो गया और उसकी आँखों में आँसू आ गए तो उन क़ुरैश वालों ने कहा कि हम कुछ ऐसा करेंगे कि ये तबाह हो जाएंगे। वे नज्जाशी के पास आए और कहा कि ये लोग हज़रत ईसा के बारे में अच्छे विचार नहीं रखते। नज्जाशी संवेदनशील हो गया कि उनके विचार क्या हैं, उसने कहा कि उन्हें बुलाया जाए। इन लोगों से कहा गया कि चलो नज्जाशी ने बुलाया है, वह ईसा के बारे में तुमसे कुछ पूछना चाहता है। ये लोग फिर दुविधा मे पड़ गए कि क्या करें, क्या कहें! फिर आपस में बात करने के बाद वे लोग इस नतीजे पर पहुंचे कि हम भी वही बात कहेंगे जो अल्लाह ने ईसा के बारे में कही है। वे आए और उन्होंने सूरए मरयम की वे आयतें "काफ़-हा-या-ऐन-साद"(9) पढ़ीं। नज्जाशी की आँखों में एक बार फिर आँसू भर आए और वह रोने लगा।

यह भी एक अहम बिंदु ही तो है यानी कि इंसान दुश्मन के सामने या ग़ैर के सामने क्या करे, सबसे सही यही है कि इंसान वही काम करे जो अल्लाह ने करने को कहा है। हमें दुनिया में मुख़्तलिफ़ तरह के वाक़यों और घटनाओं का सामना रहता है, दुश्मनों का सामना रहता है, उदासीन लोगों का सामना रहता है, बेख़बर लोगों का सामना रहता है, हमसे पूछते हैं, हमसे सवाल करते हैं, छिपाएं, न बताएं, नहीं! हम वही बयान करें, जो अल्लाह ने बयान किया है। अलबत्ता यह चीज़ तक़य्ये के विरुद्ध नहीं है। तक़य्ये की स्थिति अलग है और तक़य्ये के बारे में क़ुरआन मजीद का नज़रिया भी स्पष्ट हैः "मगर यह कि तुम्हें उन (काफ़िरों) से ख़ौफ़ हो तो फिर (बक़स्दे तक़य्या और बचाव) ऐसा करने में कोई हरज नहीं है।"(सूरए आले इमरान, आयत-28)(10) इसलिए मेरे ख़याल में यह भी एक बिंदु है जो हमें हज़रत जाफ़र बिन अबी तालिब की सीरत से हासिल होता है।

मैंने अर्ज़ किया कि इस तरह के बिंदु इंसान के ज़ेहन में आते रहते हैं, एक दूसरी चीज़ जो मेरे ज़ेहन में आयी और यह मेरी गुफ़्तगू का आख़िरी हिस्सा होगा और उसके बाद लोगों के बक़ौल आपके लिए दुआ करुंगा, यह है कि पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहि  वआलेही वसलल्म ने नज्जाशी को ख़त लिखा। उन्होंने मदीने आने के बाद एक ख़त लिखा जिसका सभी ने उल्लेख किया है, कुछ ने कहा है कि जब मुहाजिर हब्शा जा रहे थे तो पैग़म्बरे इस्लाम ने एक ख़त नज्जाशी को लिखा था और उनके ज़रिए भिजवाया था, निश्चित तौर पर आपने इस सिलसिले में रिसर्च की है और ज़्यादा बेहतर जानते हैं। मैंने उस ख़त का अध्ययन किया है, पैग़म्बरे इस्लाम ने उस ख़त में हज़रत ईसा मसीह के महान नाम का ज़िक्र किया है। यानी वे यहाँ पहले ही चरण में वह बात नहीं कहते जो संभवतः सामने वाले पक्ष को आहत कर सकती है अलबत्ता वे उसे छिपाते नहीं, इंकार भी नहीं करते, बाद में कहेंगे लेकिन पहले चरण में वे उस बात को बयान करते हैं जो क़ुरआन मजीद में है और जिस पर ताकीद की गयी है कि हज़रत मसीह अल्लाह की रूह और हज़रत मरयम सलामुल्लाह अलैहा के वजूद में अल्लाह की ओर से फूंके जाने का नतीजा हैं। बहरहाल यह भी हमारे लिए एक पाठ है।

फ़िल्में बनाने के सिलसिले में अर्ज़ करुं कि हमारे दफ़्तर के लोग यहाँ मौजूद हैं, वे रेडियो और टीवी विभाग के अधिकारियों से कहें कि हज़रत हम्ज़ा के बारे में भी और हज़रत जाफ़र के बारे में भी काम किया जाए। वे लोग विषय की तलाश में रहते हैं और बक़ौल ख़ुद उनके सब्जेक्ट ढूंढते रहते हैं, इनसे बेहतर कौन सा विषय हो सकता है? यह इतिहास की फ़ख़्र किए जाने के क़ाबिल हस्तियां हैं, वास्तविक हस्तियां हैं, उनका वजूद था, जुमूंग (11) की तरह काल्पनिक नहीं हैं लेकिन इन लोगों ने जुमूंग की तरह जंग की है, मुक़ाबला किया है, राजनैतिक मुक़ाबला किया है, सैन्य मुक़ाबला किया है, बहरहाल मैदान में मौजूद रहे हैं और फिर शहीद हुए हैं। कला के मैदान में, फ़िल्म और सीरियल वग़ैरह बनाकर इन चीज़ों को वास्तविक मानी में पेश किया जा सकता है और हमें उम्मीद है कि इंशाअल्लाह यह काम भी होगा।

मैं एक बार फिर आप अज़ीज़ों का, जामेअतुल मुस्तफ़ा के चांस्लर का भी, कि आला धार्मिक शिक्षा सेंटर की एक बरकत यही जामेअतुल मुस्तफ़ा है, मैंने कहा था कि एक दो बातें जामेअतुल मुस्तफ़ा के बारे में आपसे की जाएं, मुझे पता नहीं कि आपसे बात की गयी या बाद में की जाएगी, इसी तरह जनाब रफ़ीई साहब का भी जिन्होंने इस सिलसिले में काम किया और बाक़ी दोस्तों और यहाँ मौजूद लोगों का दिल से शुक्रिया अदा करता हूं। इंशाअल्लाह ख़ुदा आपको कामयाब करे और आपकी मदद करे ताकि आप यह काम सही तरीक़े से अंजाम दे सकें।

आप सब पर सलाम और अल्लाह की रहमत और बरकत हो।

1 इस मुलाक़ात के आग़ाज़ में जामेअतुल मुस्तफ़ा के प्रमुख हुज्जतुल इस्लाम वलमुस्लेमीन अली अब्बासी और जामेअतुल मुस्तफ़ा के इतिहास, सीरत और इस्लामी सभ्यता फ़ैकल्टी के प्रमुख और इस कान्फ़्रेंस के अध्यक्ष हुज्जतुल इस्लाम नासिर रफ़ीई ने रिपोर्टें पेश कीं।

2 सूरए अहज़ाब आयत-37, "तो जब ज़ैद ने इस औरत (ज़ैनब) से अपनी हाजत पूरी कर ली (और उसे तलाक़ दे दी) तो हमने उसकी शादी आपसे कर दी... "

3 कशफ़ुल ग़ुम्मा, जिल्द-1, पेज 373

4 कान्फ़्रेंस के अध्यक्ष

5 कशफ़ुल ग़ुम्मा, जिल्द-1, पेज 99

6 अब्दुल्लाह बिन जाफ़र

7 अलमहासिन, जिल्द-2, पेज-419

8 अम्मारह बिन वलीद

9 सूरए मरयम, आयत-1,

10 सूरए आले इमरान, आयत-28, "मगर यह कि तुम्हें उन (काफ़िरों) से ख़ौफ़ हो तो फिर (बक़स्दे तक़य्या और बचाव) ऐसा करने में कोई हरज नहीं है।"

11 कोरिया के एक मशहूर टीवी सीरियल के मुख्य रोल का नाम