आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई ने देश के अधिकारियों से रमज़ान मुबारक की अपनी मुलाक़ात में, अमरीका के पतन की हालत की ओर इशारा करते हुए कहाः “मैंने कहा कि हमारे मुक़ाबले में मौजूद मोर्चा कमज़ोर हो रहा है जिसकी मिसालें मैं अभी पेश करुंगा। विश्व स्तर पर हमारा सबसे बड़ा विरोधी अमरीका ही तो है। ओबामा का अमरीका, बुश के अमरीका की तुलना में कमज़ोर था, ट्रम्प का अमरीका, ओबामा के अमरीका से कमज़ोर था, इन साहब (बाइडेन) का अमरीका, ट्रम्प के अमरीका से ज़्यादा कमज़ोर है।” (4/4/2023)
आयतुल्लाह ख़ामेनेई की वेबसाइट KHAMENEI.IR ने तेहरान यूनिवर्सिटी के फ़ैकल्टी मेंबर और अंतर्राष्ट्रीय अफ़ेयर्ज़ के विशेषज्ञ डॉक्टर सैयद मोहम्मद मरंदी से बातचीत में अमरीका के पतन की निशानियों और यूक्रेन जंग शुरू करवाने में अमरीका के रोल पर चर्चा की।
सवालः इस्लामी इंक़ेलाब के नेता ने मुल्क के अधिकारियों से रमज़ान मुबारक की अपनी मुलाक़ात में जिन मुद्दों की ओर इशारा किया उनमें से एक अहम विषय बुश के दौर के अमरीका, ओबामा के दौर के अमरीका, ट्रम्प के दौर के अमरीका और बाइडेन के दौर के अमरीका की हालत और अमरीका की ताक़त के पतन और इस मुल्क की सरकार की स्थिति के कमज़ोर होने से मुताल्लिक़ था। उन्होंने कहा कि इनमें से हर एक के कार्यकाल में अमरीका धीरे धीरे कमज़ोर हुआ है। इस कमज़ोरी और पतन की किस मापदंड की बुनियाद पर समीक्षा हो सकती है?
जवाबः अनेक पहलु हैं लेकिन दो पहलुओं को लेते हैं। पहला यह कि पूर्व सोवियत संघ के टूटने के बाद, अमरीका की हुकूमत अंतर्राष्ट्रीय विवादों की विजेता, बेलगाम ताक़त और दुनिया में मज़बूत पूंजीवादी विचारधारा की समर्थक के रूप में सामने आयी, यह ऐसा विषय था जिसे फ़ोकोयामा ने इतिहास के अंत के तौर पर याद किया, जिसका संबंध इसी दौर से था। पश्चिम ने, चूंकि अब उसको वामपंथी और कम्युनिज़्म की ओर से चिंता नहीं रह गयी थी, एकाधिकार विरोधी नियमों और उन क़ानूनों को ख़त्म कर दिया जो अमरीका और पश्चिम के सिस्टमों में बैंकों, वित्तीय व व्यापारिक संस्थाओं की ओर से दुरुपयोग को रोकने के लिए बनाए गए थे। इस क्रम में अमरीका पूंजीवाद और लिब्रलिज़्म की ओर गया जिसके नतीजे में अमरीका में विभिन्न वर्गों में आर्थिक असमानता बहुत तेज़ी से बढ़ती गयी।
इसी तरह पूंजीपतियों के उनकी संपत्ति के बढ़ने के नतीजे में ज़्यादा ताक़तवर होने की वजह से, ऐसे क़ानून जो मज़दूर और मिडिल वर्ग के हित में बनाए गए थे, बेकार हो गए, धीरे धीरे उनका असर कम हो गया और बहुत सी जगहों पर बेअसर हो गए, नतीजे में तीसरे हज़ारे के आग़ाज़ में जो विभिन्न वर्गों के बीच आर्थिक खाई पैदा हुयी थी, धीरे धीरे गहरी होती गई और फिर तेज़ी से बढ़ गयी।
ट्रम्प का सत्ता में आना इसी प्रक्रिया का नतीजा था। यानी धीरे धीरे मिडिल क्लास बिखर गया ख़ास तौर पर 2008 और 2009 के आर्थिक संकट के दौरान। ओबामा बदलाव और सुधार के नारे के साथ आए मगर उन्होंने स्थिति को और ख़राब कर दिया, मिडिल क्लास के पतन की प्रक्रिया को तेज़ कर दिया। जिस चुनाव में ट्रम्प को जीत मिली, अमरीका के ख़िलाफ़ अमरीकी अवाम की राय, हक़ीक़त में इस मुल्क के प्रभुत्व पर एतराज़ थी, क्योंकि बहुत से लोगों ने, जिन्होंनें ओबामा को वोट दिया था, इस बार ट्रम्प को वोट दिया।
अमरीका की सरकार हमेशा से विवाद और जंग में उलझी रहने वाली सरकार है और अमरीका का इतिहास जंग और विवाद से भरा पड़ा है। अमरीका ने अफ़ग़ानिस्तान में अलक़ायदा को वजूद दिया और फिर 11 सितंबर की घटना के बाद, एक के बाद एक अफ़ग़ानिस्तान, इराक़ और लीबिया में जंगें छेड़ीं। अफ़ग़ानिस्तान और इराक़ में जंग के ख़र्च अमरीका के लिए बहुत ज़्यादा थे। ख़ुद अमरीकी अधिकारियों ने माना है कि कई ट्रिलियन डॉलर ख़र्च हुए।
नई टेक्नॉलोजी से लड़ी जाने वाली मौजूदा दौर की जंगें, विगत की तुलना में बहुत ख़र्चीली जंगें हैं, ख़ास तौर पर ऐसी जंग जिसमें दोनों पक्ष एक दूसरे से दूर स्थित हैं। अमरीका अपनी सीमाओं के पास नहीं लड़ रहा था। उसने हमारे इलाक़े में फ़ोर्सेज़ और उपकरण भेजे और लड़ता रहा। ऐसी लड़ाई अमरीकियों के लिए बहुत ज़्यादा ख़र्चीली साबित हुई, जिसके नतीजे में अमरीका में ग़रीबी बढ़ती गयी और पैसे वाले ज़्यादा पैसे वाले हो गए क्योंकि इन जंगों व हमलों में अस्ल फ़ायदा हथियार बनाने वाली कंपनियों व कारख़ानों को पहुंचा जो अपने आप में अमरीका में ग़रीबी के बढ़ने और वर्गों के बीच आर्थिक असमानता में इज़ाफ़ा होने का कारण बनी।
पूर्व सोवियत संघ के टूटने के बाद, मज़दूर और मिडिल क्लास के सपोर्ट में सीमित पैमाने पर बनने वाले नियमों के ख़त्म होने और 11 सितंबर के बाद अमरीका की ओर से लड़ी गयी लगातार जंगें, विश्व स्तर पर अमरीका की साख को कमज़ोर करने वाले या महत्वहीन बनाने वाले दो बड़े कारण थे। मज़दूरों के सपोर्ट वाले नियमों के ख़त्म होने के साथ ही अमरीकी पूंजीपति ख़ुदग़रज़ी की वजह से और इस बात के मद्देनज़र कि अमरीकी सरकार उनके कंट्रोल में थी, अपने कारख़ाने चीन सहित दूसरी जगहों पर ले गए ताकि वहां सस्ते मज़दूरों की सेवा लें जिसके नतीजे में अमरीका में कमज़ोर वर्ग में ज़्यादा ग़रीबी और बेरोज़गारी फैली।
सवालः आपकी नज़र में यूक्रेन की जंग की अमरीका की ओर से योजना बनाए जाने, इसे छेड़े जाने और युक्रेन को उकसाए जाने की क्या निशानियां हैं?
जवाबः अमरीकी 2014 से पहले से ही युक्रेन की सरकार गिराने की कोशिश में थे। अमरीका ने इस काम के लिए एनजीओज़ को इस्तेमाल किया और यूरोप की सतह पर इस काम के लिए समन्वय बनाया।
अमरीका ने युक्रेन में सन 2014 में सैन्य विद्रोह कराया और इस देश की क़ानूनी तौर पर चुनी गयी सरकार को गिरा दिया और फ़ौजी बग़ावत के नतीजे में रूस विरोधी सरकार युक्रेन की सत्ता में आ गयी। इसके बाद जो लोग सैन्य विद्रोह के ख़िलाफ़ थे और वो लोग जो रूसी नस्ल के हैं और युक्रेन के पूरब और पश्चिम में बहुसंख्या में हैं, उन्होंने विरोध किया और मुक़ाबले के लिए निकल आए जिसके नतीजे में आंतरिक झड़प और सिविल वॉर शुरू हो गयी। यानी पूर्वी और दक्षिणी युक्रेन ख़ास तौर पर पूरब वाले इलाक़े के लोगों ने प्रतिरोध किया। इस वजह से सैन्य वग़ावत से आयी सरकार कमज़ोर हुयी और मिंस्क वार्ता शुरू हुयी ताकि शांति क़ायम हो सके, मिंस्क-एक और मिंस्क-दो पर 2014 और 2015 में दस्तख़त हुए।
काफ़ी दिनों बाद तत्कालीन जर्मन चांस्लर एंगेला मर्केल, तत्कालीन रूसी राष्ट्रपति और युक्रेन के बाग़ी राष्ट्रपति के ज़रिए यह बात सामने आयी कि मिंस्क समझौता एक धोखा था, यानी युक्रेन, फ़्रांस और जर्मनी जिन्होंने इस सहमति पर दस्तख़त किए, उनकी नीयत शांति स्थापित करने की नहीं थी, बल्कि उन्होंने इसलिए इस समझौते पर दस्तख़त किए थे कि कुछ वक़्त हासिल कर सकें और ख़ुद उनके इक़रार के मुताबिक़ वे युक्रेन की सैन्य बग़ावत से आने वाली हुकूमत को मज़बूत करना चाहते थे ताकि जंग में रूसी नस्ल के लोगों और उन लोगों को हरा सकें जो सैन्य बग़ावत के ख़िलाफ़ थे।
नेटो ने धीरे धीरे सैन्य बग़ावत वाली सरकार की मदद की और उसकी फ़ौज को मज़बूत तथा पूर्वी युक्रेन में रूसी नस्ल के लोगों का नरसंहार शुरू किया। सन 2014 से पहले जंग छिड़ने तक क़रीब 15 से 16 हज़ार रूसी नस्ल के लोगों का नरसंहार हुआ। इस दौरान पश्चिमी मुल्कों, अमरीका, कनाडा और यूरोपीय मुल्कों ने चरमपंथी रूझान वाले दक्षिणपंथियों, नाज़ी सोच वालों और फ़ासीवादियों की मदद की उसी तरह जैसा उन्होंने सीरिया और अफ़ग़ानिस्तान में किया, दाइश और अलक़ायदा को इस्तेमाल किया या जिस तरह उन्होंने निकारागुआ कन्ट्रास को इस्तेमाल किया।
एक ओर रूसी नस्ल के लोगों का नरसंहार कर रहे थे और समझौते के विपरीत उनकी नीयत शांति की नहीं थी, बल्कि जंग जारी रखने और फ़ौजी बग़ावत वाली सरकार को बचाने के लिए युक्रेन सरकार की मदद करने की योजना थी।
दूसरी ओर पूर्व सोवियत संघ के टूटने के बाद, अमरीका और नेटो मुल्कों ने रूस को वचन दिया था कि नेटो का दायरा रूस की सीमाओं की तरफ़ नहीं बढ़ाएंगे, लेकिन उन्होंने झूठ कहा था। उन्होंने पूर्वी यूरोप के कई मुल्कों को नेटो में शामिल किया जो पूर्व सोवियत संघ के सदस्य थे।