इस्लामी इंक़ेलाब के नेता आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई ने 18 फ़रवरी 1978 के तबरीज़ के अवाम के तारीख़ी आंदोलन की सालगिरह की मुनासेबत से तबरीज़ शहर और पूर्वी आज़रबाइजान प्रांत के लोगों से मुलाक़ात में इस विद्रोह की अहमियत और साथ ही इस इलाक़े के अवाम की ख़ूबियों को बयान किया। 15 फ़रवरी 2023 को होने वाली इस मुलाक़ात में रहबरे इंक़ेलाब ने देश के हालात का जायज़ा लिया। (1)
बिस्मिल्लाह अर्रहमान अर्रहीम
अरबी ख़ुतबे का अनुवादः सारी तारीफ़ पूरी कायनात के मालिक के लिए है, दुरूद व सलाम हो हमारे सरदार हज़रत मोहम्मद और उनकी पाक नस्ल, ख़ास तौर पर ज़मीन पर अल्लाह की आख़िरी हुज्जत इमाम महदी अलैहिस्सलाम पर।
प्यारे भाइयो और बहनो! आपका स्वागत है। इस ठंडे मौसम में, इतना लंबा रास्ता तय करके हमारे इमामबाड़े में आपने अपने ईमान, ग़ैरत और अपनाइयत की गर्मी पैदा कर दी। हमें हमेशा आप तबरीज़ के अवाम, आज़रबाइजान के अवाम से मिलने का शौक़ रहता है। मैं आज़रबाइजान के अवाम को, तबरीज़ के अवाम को और 18 फ़रवरी 1978 का अमर कारनामा अंजाम देने वालों को दिल की गहराइयों से सलाम करता हूं।
आज तबरीज़ और आज़रबाइजान के बारे में एक बात पेश करुंगा। आज़रबाइजान की क़ीमती व जगमगाती पहचान को कुछ जुमलों में बयान नहीं किया जा सकता। हमने तबरीज़ और आज़रबाइजान के बारे में बहुत कुछ बयान किया और यह सिलसिला जारी है। आज भी कुछ बातें पेश करुंगा, उसके बाद मुल्क के मुद्दों के बारे में सामान्य तौर पर कुछ बातें अर्ज़ करुंगा।
इससे पहले कि कुछ कहूं, ज़रूरी समझता हूं ईरानी क़ौम की अज़मत को इस साल 11 फ़रवरी (इस्लामी इंक़ेलाब की सालगिरह) के दिन इस महा कारनामे को अंजाम देने पर सलाम पेश करुं। इस साल पिछला शनिवार -11 फ़रवरी वाला शनिवार- तारीख़ी शनिवार था, 11 फ़रवरी तारीख़ी थी, पूरे मुल्क में अवाम ने सही मानी में कारनामा अंजाम दिया। विरोधियों के इतने प्रोपैगंडे, इतनी मुश्किलें, जिसे लोग अपनी रोज़मर्रा की ज़िंदगी में पूरे वजूद से महसूस कर रहे हैं, दुश्मनों की हरकतें, ठंडा मौसम, मुल्क में कुछ जगहों पर माइनस टम्प्रेचर, ये सबके सब अवाम के ईमान और मारेफ़त की गर्मी के सामने बेअसर रहे और अवाम इस शान के साथ बाहर आए। लोगों का इस तरह आना बहुत सी हक़ीक़तें बयान कर गया। अब मैं फिर इस साल की 11 फ़रवरी के मसले की ओर लौट रहा हूं, जिसके बाद कुछ बातें पेश करुंगा।
फ़िलहाल ईरानी क़ौम की अज़मत को सलाम करना चाहता हूँ वो जहां कहीं भी हैं, मुल्क के पूर्वी छोर से पश्चिम के आख़िरी सिरे तक, उत्तर से दक्षिण तक, दूर दराज़ के शहरों में, (प्रांत के) केन्द्रों में, तबरीज़, इस्फ़हान, मशहद जैसे बड़े शहरों और दूसरी जगहों यहाँ तक गांवों में! ईरानी क़ौम ने सभी जगह एक साथ आवाज़ उठायी, यह बहुत क़ीमती चीज़ है। ईरानी क़ौम! अल्लाह आपकी क़द्रदानी करे। मैं ख़ुद को आपका शुक्रिया अदा करने के क़ाबिल नहीं समझता, आपका शुक्रिया अल्लाह अदा करे, अल्लाह शुक्रिया अदा करने वाला हैः बेशक हमारा परवरदिगार बड़ा बख़्शने वाला और बड़ा क़द्रदान है।(2)
आपके हर ऐक्शन का, आपकी हर राय का, हर लफ़्ज़ का जो आप ज़बान पर लाए, आपके उठने वाले हर क़दम का अल्लाह क़द्रदान है। बेशक यह सारे काम आपकी ज़िम्मेदारियों में हैं। जो कुछ भी हम अंजाम दे रहे हैं वह अल्लाह की तरफ़ से शुक्रिये का बहुत मामूली हिस्सा है लेकिन, “जो तेरा शुक्र अदा करे तू उसका शुक्रिया अदा करता है हालांकि ख़ुद तूने ही उसे शुक्र अदा करने की तालीम दी है।” (3) तू उस शख़्स का भी जो तेरा शुक्रगुज़ार है, शुक्रिया अदा करता है। इंशाअल्लाह गुफ़तुगू में आगे चलकर मैं 11 फ़रवरी के बारे में बात करुंगा।
तबरीज़ की सन 1978 की 18 फ़रवरी के वाक़ए की जहां तक बात है तो इस बारे में यह कहा जा सकता है कि इस दिन ईरानी इतिहास में एक नया पन्ना जुड़ गया। यानी वह दिन एक तारीख़ी और निर्णायक दिन था। उसी साल 9 जनवरी को क़ुम में आंदोलन हुआ था, इस में शक नहीं कि क़ुम के अवाम ने बड़ा कारनामा किया और परचम अपने हाथ में उठाया, लेकिन क़ुम के 9 जनवरी के वाक़ए जैसे कई वाक़यात मुल्क में हुए थे जो भुला दिए गए थे।
जैसे 5 जून 1963 की घटना, उस नरसंहार के बाद तेहरान, क़ुम तथा कुछ दूसरे शहरों में बड़े पैमाने पर प्रतिक्रिया सामने आई। लोगों ने आंदोलन किया, जान दी, ख़ून दिया, तादाद भी बहुत ज़्यादा थी, लेकिन भुला दी गयी, मिट गयी। ज़ालिम और साम्राज्यवादी सिस्टम की सियासत ही यही है कि ऐसी अहम घटनाओं को जो अवाम के फ़ायदे में हैं, प्रोपैगंडे के ज़रिए, मुख़्तलिफ़ हथकंडों से, ताक़त के ज़रिए भुला दिया जाए, अगर तबरीज़ियों ने काम न किया होता तो क़ुम की 9 जनवरी की घटना भी भुला दी जाती।
तबरीज़ियों ने क्या काम किया? तबरीज़ियों ने क़ुम के आंदोलन को क़ौमी आंदोलन में बदल दिया, उसे अवामी सतह का वाक़या बना दिया, हालांकि तबरीज़ में बड़ी कठोरता और कड़ाई बरती गई। सड़कों पर टैंक ले आए थे। मुक़ाबले में कौन था? अवाम, धर्मगुरू, मस्जिदें, ओलमा ने अवाम को क़ुम के अवाम के चेहलुम में शरीक होने की दावत दी थी, मुक़ाबिले में ये लोग थे। सशस्त्र लोग नहीं थे लेकिन हुकूमत इस हद तक घबरा गयी थी कि सड़कों पर टैंक ले आयी। उसने नरसंहार किया, अवाम को क़त्ल किया। लेकिन तबरीज़ के अवाम पीछे नहीं हटे, जानें क़ुर्बान कीं, ख़ून दिया, दृढ़ता दिखाई, नारे लगाए और आंदोलन को क़ौमी स्तर का बना दिया। उनकी क़ुरबानियों की आवाज़ पूरे मुल्क में पहुंची, इसलिए आंदोलन व्यापक हुया। तबरीज़ के अवाम का चेहलुम कई जगह मनाया गया, इसका मतलब यह था कि तबरीज़ियों की आवाज़ पूरे ईरान में फैल गयी। एक साल से कम वक़्त में ज़ालिम शाही हुकूमत की बिसात उलट गयी। इसी को इतिहास का निर्माण कहा जाता है, ऐतिहासिक मोड़ इसे कहते हैं।
तबरीज़ ने दृढ़ता से, प्रतिरोध से, बहादुरी से विगत के अनुभव को दोहराए जाने को रोका, ईरान की आज़ादी का ध्वज तबरीज़ियों के हाथ में रहा, इसमें तअज्जुब की बात नहीं है, आज़रबाइजान ने इतिहास के अनेक दौर में इस तरह का कारनामा, इस तरह का अज़ीम प्रदर्शन किया है। हमें तारीख़ की यह बात पता होनी चाहिए, हमें तारीख़ को भूलना नहीं चाहिए। इतिहास के एक और दौर में -सफ़वी शासन के उदय के ज़माने में- इसी आज़रबाइजान ने यानी तबरीज़, अर्दबील और आज़रबाइजान के शहरों ने ईरान को फूट से, सामंतवादी सिस्टम से, विदेशियों के लंबे क़ब्ज़े से मुक्ति दिलाई, आज़रबाइजान ही तो था, अर्दबील था, तबरीज़ था, ये लोग थे जो ईरान को अखंड रख सके। अखंड ईरान और स्वाधीन हुकूमत जो आज मौजूद है इससे पहले मुल्क में फ़्युडलिज़्म था। तैमूरियों के दौर में, उससे पहले मंगोलों के दौर में और फिर उसके बाद आने वाले शासन में, मुल्क का हर टुकड़ा किसी न किसी क़बीले के हाथ में, किसी गिरोह के हाथ में था, पूरब में अलग तरह से, पश्चिम में अलग तरह से, उत्तर में अलग तरह से, दक्षिण में अलग तरह से। जो आंदोलन आज़रबाइजान से शुरू हुआ, उसने ईरान को एकजुट किया। अखंड ईरान का ध्वज आज़रबाइजान के हाथ में है, ये फ़ैक्ट्स हैं, अतिश्योक्ति नहीं है। आज़रबाइजान के इतिहास का सही वर्णन, इस्लामी इतिहास का अभिन्न अंग है और सभी का फ़र्ज़ है कि इस काम को अंजाम दें, इसके माहिरों को चाहिए कि यह काम अंजाम दें।
बाद के वाक़यों में भी ऐसा ही था। तंबाकू (को हराम क़रार दिए जाने) के मामले में जिन जगहों के ओलमा ने मीर्ज़ा शीराज़ी की ओर से तंबाकू को हराम क़रार दिए जाने के फ़तवे का साथ दिया, उनमें तबरीज़ के धर्मगुरू मरहूम हाज मीर्ज़ा जवाद आक़ाए तबरीज़ी, हाज मीर्ज़ा जवाद मुजतहिद भी थे। संविधान क्रांति के मामले में भी तबरीज़ का आंदोलन अहम था, संविधान क्रांति के आग़ाज़ में भी जब सत्तार ख़ान, बाक़िर ख़ान और इन जैसों का मसला था, बाद के मुख़्तलिफ़ वाक़यों में भी, जैसे रूसियों के प्रवेश और इस तरह की घटना में, शैख़ मोहम्मद ख़याबानी, आक़ा मीर्ज़ा इस्माईल नौबरी और दूसरे लोगों ने, मुख़्तलिफ़ घटनाओं के मुक़ाबले में दृढ़ता दिखाई। इस्लामी इंक़ेलाब में भी ऐसा ही हुआ, बाद की घटनाओं में भी पाकीज़ा डिफ़ेन्स से लेकर आज तक इसी तरह हुआ, जैसा कि जनाब आले हाशिम ने कहा, हालिया घटना में भी यही हुआ। ख़ैर यह बात क़ौमी ताक़त के प्रदर्शन की ख़ुसूसियत की नज़र से थी।
सांस्कृतिक नज़र से भी ऐसा ही है। आज़रबाइजान, मुल्क के पश्चिमी भाग में सभ्यता और संस्कृति का केन्द्र है, जिस तरह पूरब में ख़ुरासान मुल्क की संस्कृति व सभ्यता का केन्द्र है। मुल्क की संस्कृति, ईरानी परंपराएं, ईरानी सभ्यता जिसका पूरे इतिहास में पश्चिम में उस्मानी शासन के अधीन इलाक़ों तक, पूरब में भारत के बाबर (मुग़ल शासक) के अधीन इलाक़ों तक असर रहा, इन दो केन्द्रों से, आज़रबाइजान से और ख़ुरासान से फैली। ईरान को आज़रबाइजान में अपनी सांस्कृतिक धरोहरों पर फ़ख़्र रहा है। ख़ाक़ानी आज़रबाइजान के हैं, नेज़ामी आज़रबाइजान के हैं, उसके बाद शम्स तबरीज़ी, क़तरान तबरीज़ी, शैख़ महमूद तबरीज़ी, उसके बाद साएब तबरीज़ी, इसी तरह हम समकालीन दौर तक आएं, मरहूम शहरयार और उनसे पहले मोहतरमा परवीन एतेसामी, ये सब आज़रबाइजान के हैं। उन्होंने मुल्क के साहित्य, मुल्क की संस्कृति की बहुत बड़ी सेवा की है जिसका अंदाज़ा नहीं लगाया जा सकता, यह उससे कहीं ज़्यादा है कि इसे बयान किया जा सके।
तो 18 फ़रवरी के वाक़ये से ये सब बातें जुड़ी हुयी हैं। मैं यह कहना चाहता हूं कि 18 फ़रवरी का वाक़या, पहचान बनाने वाला वाक़या था, हमें चूंकि सबक़ लेना चाहिए, हम आपस में एक दूसरे को कहानी नहीं सुना रहे हैं, हमें सबक़ लेना है। हमें अपने अतीत को अपने भविष्य निर्माण के लिए इस्तेमाल करना है। आज हम हरकत में हैं, क़ौम हरकत में है, ईरान हरकत में है, हमें सबक़ की ज़रूरत है, हमें अनुभव की ज़रूरत है, ये सब हमारे लिए सबक़ हैं। 18 फ़रवरी, पहचान बनाने वाला वाक़या था।
हर क़ौम प्रतिरोध और दृढ़ता की मदद से अपनी पहचान बनाती है। जो चीज़ क़ौमों को पहचान देती है, शख़्सियत देती है, महान बनाती है, ख़ुद क़ौमों और उनके कलचर की रक्षा में, उनकी मदद करती है, वह उनका प्रतिरोध और दृढ़ता है। यहाँ प्रतिरोध का क्या मतलब है? यानी वह सीधा रास्ता जिसे इंसान ने ढूंढा है, जारी रहे, उसमें कोई भटकाव पैदा न हो। क़ौमों की मुश्किल, उनका रास्ते से भटक जाना है। क़ौमें एक रास्ते पर चलना शुरू करती हैं, कुछ दूर चलती हैं, या थक जाती हैं या दुनिया की चकाचौंध उन्हें अपनी ओर खींच लेती है और नतीजे में वो अपने रास्ते से हट जाती है। शुरू में ऐंगल की डिग्री बहुत कम होती है, लेकिन जैसे जैसे सफ़र आगे बढ़ता है उसकी डिग्री ज़्यादा हो जाती है और असली लाइन से, अस्ली रेखा से दूर हो जाता है, मुश्किल यह होती है। हमारे मुल्क में, हमारे इंक़ेलाब में भी ये मुश्किल रही हैं। कुछ लोग इंक़ेलाब के साथ थे, बाद में उन्होंने लाइन बदल दी। इसकी बहुत से वजहें थीं। कहीं उनकी ग़लती नहीं थी, सिस्टम की ग़लती थी, हुकूमत की ग़लती थी, मुख़्तलिफ़ कारक ज़िम्मेदार थे, विदेशी कारक ज़िम्मेदार थे। किसी न किसी वजह से लाइन बदल दी। यह डिग्री आगे बढ़ी और उस आंदोलन के ख़िलाफ़, उस लक्ष्य के ख़िलाफ़, उस महान भावना के ख़िलाफ़ हो गई जो उन्हें मैदान में लायी थी। इस तरह उसी को पीठ दिखा दी, कभी 180 डिग्री बदल गए। इस तरह की मिसालें हैं हमारे पास। प्रतिरोध ऐसा होने नहीं देता, इस पहचान की रक्षा करता है, एक क़ौम, एक समूह को पचहान देता है। थकना नहीं चाहिए, नाउम्मीद नहीं होना चाहिए, दुश्मन की ग़ुर्राहटों से डरना नहीं चाहिए, प्रिय भाइयो व बहनो, टिके रहने का राज़ यही है।
जी हां, ज़ाहिर है दुश्मन ख़ाली नहीं बैठता, या नुक़सान पहुंचाता है या अगर ऐसा नहीं कर सका तो धमकी देता है और अगर धमकी का असर नहीं हुआ तो ग़ुर्राता है ताकि आपको मैदान से बाहर कर दे। अगर आप मैदान से बाहर नहीं हुए तो दुश्मन हार जाता है, अगर रास्ते पर आगे बढ़ते रहे तो आप तरक़्क़ी करेंगे। तबरीज़ के अवाम ने 18 फ़रवरी को क़ुम के आंदोलन को देखा था, कुम में नरसंहार हुआ था, क़ुम के अवाम को कुचला गया था, ये बात अवाम को पता थी, तबरीज़ के अवाम जानते थे कि हुकूमत के मुक़ाबले में दृढ़ता दिखाने पर जान देनी पड़ती है। मगर वे डट गए। उन्होंने दृढ़ता दिखाई, अल्लाह ने बरकत दी। ये जो हम कहते हैं कि 18 फ़रवरी को तबरीज़ के अवाम के आंदोलन की बरकत से तारीख़ में नया मोड़ आया, अल्लाह ने इस काम को जो बरकत दी, उसकी वजह यह थी कि उन्होंने दृढ़ता दिखाईः और यह कि अगर ये लोग सीधे रास्ते पर साबित क़दम रहते तो हम उन्हें ख़ूब सेराब करते। (4) दृढ़ता।
इस साल की 11 फ़रवरी भी, इसी दृढ़ता की एक मिसाल है। हम इस निगाह से, इस नज़र से मसले को देखें और समीक्षा करें। यह चीज़ भी कि सड़कों पर भीड़ आयी, यह अच्छा काम है, सड़कों पर आने की अलग अलग वजह होती है। इससे ज़्यादा अहम यह है कि हम यह समझें कि यह आना, दृढ़ता दिखाने के मानी में था, दुश्मन से मुक़ाबले के अर्थ में था। दुश्मन की कोशिश यह है कि हम यह रास्ता भूल जाएं, हमें रास्ता नज़र न आए, उसकी कोशिश यही है। भीतर भी ऐसे लोग हैं जो इसी का प्रचार कर रहे हैं। हाँ ऐसे लोग हैं। हम यह दावा नहीं करते कि मुल्क के अंदर विरोधी नहीं हैं। इंक़ेलाब के मुख़ालिफ़ हैं, क्या मुख़ालिफ़ लोग नहीं हैं, क्यों नहीं, ऐसे लोग हैं जो मुख़ालेफ़त करते हैं, वे भी दुश्मन के एजेंडे के लिए ही काम कर रहे हैं। देश के भीतर हमें ऐसी हरकतों का सामना था जिसमें ईरानी क़ौम के मज़बूत इरादे पर हमले किये गए थे। तेहरान और कुछ दूसरी जगहों में पतझण के मौसम के हंगामों का एक लक्ष्य यही था कि लोग 11 फ़रवरी को भूल जाएं, अवाम इंक़ेलाब की कामयाबी की सालगिरह पर मिलियनों की तादाद में न आएं, इसे भूल जाएं। देश के भीतर भी ऐसे लोग थे जिन्होंने ग़लत समीक्षा, ग़लत दलीलों के साथ इसी चीज़ को अख़बारों में, साइबर स्पेस में, अपने बयानों में, बातों में बार बार दोहराया। उन्होंने कहा कि अवाम को रोकने के लिए ऐसा किया। लेकिन अवाम ने क्या किया? अवाम ने दृढ़ता दिखाई, आए, उनकी उम्मीद के ख़िलाफ़ काम किया। तो यह आना दृढ़ता थी और इस दृढ़ता में बरकत है।
इस साल के जुलूस में भी अवाम समीक्षा के साथ शामिल हुए। एक इंटलेक्चुअल जब समीक्षा करता है तो पहले उसके तर्क-वितर्क को तैयार करता है, लेकिन एक क्रांतिकारी जो शिक्षित भी नहीं है वह भी समीक्षा करता है, जब उससे पूछते हैं: “इस जुलूस में क्यों शरीक हुए”, तो वह कहता है “चूंकि मैं समझ गया कि अमरीका नहीं चाहता कि हम आएं, इसलिए हम आए।” देखिए इस समीक्षा के साथ आया, यह समीक्षा है। वह जानता है कि दुश्मन को उसके आने से डर है, चिंता है, दुश्मन जानता है कि उसके आने से यह रास्ता मज़बूत हो जाएगा, इस रास्ते को ठोस बना देगा, इस आंदोलन को आगे बढ़ाएगा, इसलिए दुश्मन नहीं चाहता। चूंकि दुश्मन नहीं चाहता, इसलिए क्रांतिकारी बाहर आता है ताकि यह रास्ता जारी रहे। लोग समीक्षा के साथ आए। लोग आए ताकि आज के ईरान के मनोबल को दिखाएं, आज के ईरान की भावना को दिखाएं।
इस साल 11 फ़रवरी का जुलूस जोश से भरा था, ख़ुशी से भरा था, जो नारे लगाए गए वे अर्थपूर्ण थे, रुख़ को बता रहे थे। दुश्मन चाहता था कि ईरानी क़ौम की आवाज़ कानों तक न पहुंचे, दुश्मन यह चाहता था। ईरानी क़ौम ने साइबर स्पेस के शोर और टीवी के प्रोपैगंडों वग़ैरह के बीच अपनी आवाज़ ऊंची की और सबके कानों तक पहुंचायी। जी हां मुमकिन है कुछ लोग न सुनें, चूंकि छिपाते हैं, ख़ामोश रहते हैं, अंतर्राष्ट्रीय प्रचार में जगह नहीं देते, मुमकिन है दूसरे मुल्कों के अवाम के कानों तक न पहुंचे। लेकिन जिन्हें सुनना चाहिए था, उन्होंने ईरानी क़ौम की आवाज़ को सुना। अमरीका में, ब्रिटेन में नीति बनाने वाले तंत्रों ने, दुनिया में साज़िश रचने वाले केन्द्रों ने, मुल्कों की ख़ुफ़िया एजेंसियों ने -जिनके आँख कान खुले हैं- इस साल 11 फ़रवरी को ईरानी क़ौम की आवाज़ को सुना। जिन्हें सुनना चाहिए था, उन्होंने सुना।
ईरानी क़ौम का इस साल की 11 फ़रवरी का पैग़ाम, इस्लामी इंक़ेलाब और इस्लामी सिस्टम के प्रति पूरी तरह समर्थन था, इसकी आवाज़ सबसे ऊंची थी। अलबत्ता विरोधी आवाज़ें भी थीं और हैं भी, दुश्मन और मीडिया साम्राज्य जिसकी लगाम ज़ायोनियों और अमरीकियों के हाथ में है, इस कोशिश में हैं कि उनकी आवाज़ हावी हो जाए, लेकिन नहीं कर सके, ईरानी क़ौम की आवाज़ दूसरों पर छा गयी। दूसरों ने बहुत कोशिश की, विरोधियों ने, दुश्मनों ने बड़ा ज़ोर लगाया, कभी कहा कि इंक़ेलाब और इस्लामी जुम्हूरिया पीछे की ओर लौटेगा। हक़ीक़त इसके बिल्कुल विपरीत है। हम पीछे की तरफ़ जा रहे हैं? हम सभी मैदानों में अल्लाह की कृपा से, अल्लाह के करम से, अल्लाह की मदद से आगे जा रहे हैं। ऐसा नहीं है कि मुश्किलें नहीं हैं, मुश्किलें कम नहीं हैं, लेकिन आज मुल्क की हालत, बीस साल, तीस साल और चालीस साल पहले की तुलना में बहुत बदल चुकी है, सभी मैदानों में हम आगे बढ़े हैं, भौतिक और आध्यात्मिक मैदानों में।
कहते हैं: मुल्क पीछे की ओर जा रहा है! कैसी पसपाई? क्यों? कुछ लोगों ने कहा कि इस्लामी जुम्हूरिया ईरान बंद गली में पहुंच गया! अगर हम बंद गली में पहुंच गए तो दुश्मन हमें ज़मीन पर गिराने के लिए इतना ख़र्च क्यों कर रहा है? जो क़ौम, जो मुल्क बंद गली में पहुंच जाए, उसे ज़मीन पर गिराने के लिए इतने ख़र्च की ज़रूरत नहीं पड़ती। वह तो ख़ुद ही ज़मीन पर गिर जाता है। दुनिया में अरबों डॉलर ख़र्च कर रहे हैं! बहुत से मालदार मुल्क, धनी मुल्क जो ईरानी क़ौम की दिशा के विपरीत सरगर्म हैं, इस्लामी जुम्हूरिया को रास्ते से हटाने के लिए ख़र्च कर रहे हैं, ज़बान से कहते भी हैं, साफ़ तौर पर कहते हैं, ऐसा क्यों कर रहे हैं? अगर हम बंद गली में पहुंच गए थे, अगर हमारे पैर उखड़ रहे थे -जैसा कि कुछ लोग यह दिखाना चाहते हैं- तो इतना ज़्यादा पैसे ख़र्च करने की ज़रूरत नहीं थी।
कभी तरक़्क़ियों के बारे में संदेह पैदा करने के लिए वे कहते हैं कि अपनी सारी कोशिशें हथियार, ड्रोन, मिसाइल वग़ैरह बनाने में क्यों लगा रखी है? कुछ लोग इस तरह की बातें करते हैं। तो इसका पहला जवाब यह है कि यह ज़रूरी है क्योंकि जिस मुल्क के दुश्मन हैं, उसे अपनी हिफ़ाज़त की फ़िक्र होनी चाहिए। इंक़ेलाब के आग़ाज़ में कुछ लोग चाहते थे कि हमारे एफ़-14 फ़ाइटर जेट को बेच दें, मैंने ऐसा होने नहीं दिया। मुझे जब पता चला तो मैंने खुले आम इसका ज़िक्र कर दिया। मैं उस वक़्त मशहद गया हुआ था -ज़्यारत के लिए या किसी काम से- वहाँ मुझे पता चला तो मैंने ज़रा भी देर नहीं की, उसी वक़्त जब मुझे पता चला, पत्रकार को बुलाया, इसका ज़िक्र कर दिया और बात फैल गयी। वे लोग डर गए और उन्होंने अपने हाथ रोक लिए, विरोधियों की नीति यह है। हमारे दुश्मन हैं। हमें अपने डिफ़ेन्स को मज़बूत करना चाहिए, अक़्ल का तक़ाज़ा भी है, शरीअत भी कहती हैः (हे मुसलमानो!) तुम जिस क़द्र क्षमता रखते हो इन (कुफ़्फ़ार) के लिए क़ुव्वत व ताक़त और बंधे हुए घोड़े तैयार रखो। (5) यानी जितनी आप में सकत है, जितना कर सकते हैं। हमने इसी बात पर ध्यान दिया, जितना मुमकिन होगा मुल्क के डिफ़ेन्स को इंशाअल्लाह मज़बूत करेंगे।
दूसरी बात यह कि क्या दूसरे मैदानों में डिफ़ेन्स से कम काम हुआ है? डिफ़ेन्स से कई गुना तो इंडस्ट्रियल क्षेत्र में काम हुआ है, इंफ़्रास्ट्रक्चर के क्षेत्र में काम हुआ है, सड़क व बांध निर्माण वग़ैरह के क्षेत्र में काम हुए हैं, इतने सब काम हुए हैं। डिफ़ेन्स का मसला स्वाभाविक तौर पर ऐसा है कि दुश्मन अपनी ख़ास वजहों से लगातार प्रोपैगंडा करना चाहते हैं कि ईरान के पास ड्रोन है, फ़ुलां को बेचा, फ़ुलां जगह दिया, इस तरह की बातें, लेकिन इंडस्ट्रियल तरक़्क़ी के लिए उनके पास कोई मोटिव नहीं है कि बयान करें, बल्कि छिपाने के पीछे मोटिव है और वे छिपाते हैं। नहीं! हमने दूसरे मैदानों में भी बहुत तरक़्क़ी की है। अलबत्ता क़ौम ने उन बहकावों पर कोई ध्यान नहीं दिया, क़ौम ने इधर उधर उठने वाली आवाज़ों पर कोई ध्यान नहीं दिया और इंशाअल्लाह आगे भी कोई ध्यान नहीं देगी।
यही चीज़ें हैं जिनसे हमारा दुश्मन क्रोधित होता है, इन तरक़्क़ियों से दुश्मन के सीने में आग लग जाती है, दुश्मन ग़ुस्से से पागल हो जाता है। क़ुरआन फ़रमाता हैः उनसे कह दो कि अपने ग़म व ग़ुस्से से मर जाओ (7) इसी बात को हमारे अज़ीज़ शहीद बहिश्ती ने इस तरह कहा थाः “(अमरीका! हमसे नाराज़ रह! और) इसी नाराज़गी में मर जा!” यह क़ुरआन की आयत का अनुवाद है। दुश्मन ग़ुस्से में आ जाता है, बेचैन हो जाता है, उनके काम ग़ुस्से की हालत में होते हैं, उनकी बातें ग़ुस्से से प्रभावित होती हैं। जो चीज़ ईरान को मज़बूत बनाती है, उससे वे बेचैन हो जाते हैं, क्यों? चूंकि जानते हैं कि अगर ईरान ताक़तवर हो गया तो ईरान के ख़िलाफ़ साज़िश नाकाम हो जाएगी, इसलिए वे नहीं चाहते कि ईरान ताक़तवर बने। जो चीज़ हमें ताक़तवर बनाती है, वो उन्हें ग़ुस्से में ले आती है, बेचैन करती है। (8) इंशाअल्लाह और अल्लाह की तौफ़ीक़ से ऐसा ही रहेगा। आंदोलन जारी है, इंक़ेलाब हरकत में है, इंक़ेलाब रुकता नहीं, उसे आगे बढ़ना चाहिए और उसे अल्लाह की तौफ़ीक़ से जारी रहना चाहिए, इंशाअल्लाह जारी रहेगा। तो मुल्क को ताक़तवर होना चाहिए। मैं बार बार कह चुका हूं, अर्ज़ किया है -फिर कह रहा हूं- कि सभी को कोशिश करनी चाहिए कि मुल्क को ताक़तवर बनाएं।
हमने कहा कि हमने तरक़्क़ी की है, यह एक सच्चाई है। मुमकिन है अवाम में कुछ लोग इन तरक़्क़ियों के बारे में न जानते हों। जी हां, हम प्रचार वग़ैरह में कमज़ोर हैं, इस बात को हमें समझना चाहिए। प्रचारों में, मीडिया के काम में हम उतने माहिर नहीं हुए हैं, थोड़ा कमज़ोर हैं, इसलिए कुछ तरक़्क़ियां दिखाई नहीं देतीं, समझ में नहीं आ पातीं। जो लोग जाकर मुआयना करते हैं और नुमाइशों में मुख़्तलिफ़ जगहों को देखते हैं तो ख़ुश हो जाते हैं, कुछ लोग तो हैरत में पड़ जाते हैं। विदेशियों को जब कभी कुछ जगहें दिखाई जाती हैं, तो वे हैरत करते हैं, कहते हैं कि “आपने पाबंदियों के दौर में ये चीज़े बनायी हैं?” मैंने एक बार कहा था(9) -अलबत्ता कई साल पहले की बात है- कि हमारे जवान वैज्ञानिकों ने एक मिसाइल बनाया, जिसे उन्होंने टेस्ट किया था। सैटेलाइट्स इस तरह की तस्वीरें खींच लेती हैं। ज़ायोनी, अमरीकी और दूसरे लोग समझ गए कि ये मिसाइल बन गया है। ज़ायोनी शासन के एक मिसाइल एक्सपर्ट ने(10) एक बात कही थी जो मुख़्तलिफ़ जगहों पर फैल गयी, हम तक भी पहुंची, मैंने ज़िक्र भी किया था। उसने कहा था कि “मैं ईरान का दुश्मन हूं लेकिन इस कामयाबी पर, जो उन्होंने हासिल की, ये मिसाइल बनाने पर जो पाबंदी की हालत में उन्होंने बनाया, मैं उन्हें सलाम करता हूं।”
तो हमने कहा कि हमने तरक़्क़ी की है लेकिन इन तरक़्क़ियों के साथ क्या हममें कमजोरी नहीं है? कमज़ोरी है, कमियां हैं, बहुत सी कमियां भी हैं। इसकी मुख़्तलिफ़ वजहें हैं। हमारी कमियां, हमारी कमज़ोरियां कम नहीं हैं। कुछ को अवाम महसूस करते हैं, समझते हैं, महंगाई है, इंफ़्लेशन है, राष्ट्रीय मुद्रा की घटती क़ीमत है, ये कमज़ोरियां हैं, दूसरी कमियां भी हैं, मुख़्तलिफ़ विभागों में, इदारों वगैरह में। कमियां हैं, लेकिन हम इस मामले को दो पहलुओं से देख सकते हैं।
ध्यान से सुनिए, ख़ास तौर पर हमारे प्रिय जवान ध्यान दें। एक ओर तरक़्क़ियां, कामयाबियां, उपलब्धियां हैं तो दूसरी ओर कमियां हैं। इन्हें दो ऐंगल से देखा जा सकता है। एक यह कि हम अपनी उपलब्धियों को देखें, समझें कि हम में क्षमता है और कहें कि “बहुत अच्छा, हमने जिस हिम्मत से यह उपलब्धियां हासिल की हैं, उसी हिम्मत से इन कमियों को भी दूर करेंगे।” यह देखने का एक आयाम है, यह इंक़ेलाबी निगाह है। देखने का दूसरा आयाम यह है कि कमज़ोरियों को देखें और कहें, जनाब! कोई फ़ायदा नहीं। देखिए हम में कितनी कमियां हैं, कोई फ़ायदा नहीं है, कुछ होने वाला नहीं है।” या हाथ पर हाथ धरे बैठे रहें, या बड़बड़ाएं या इस हालत पर चिल्लाएं, या इन कमज़ोरियों को ऊंची आवाज़ से कई गुना बड़ा दिखाएं, यह रूढ़िवादी निगाह है। जी हाँ कमियां है, लेकिन आप इन कमियों को इंक़ेलाबी नज़र से देखिए, क्यों रुढ़ीवादी नज़र से देखते हैं?
कुछ लोग जब कमियों को देखते हैं तो इस्लामी गणराज्य को नकारने लगते हैं, इंक़ेलाब को ही नकारने लगते हैं! क्यों? क्या अगर किसी क़ौम में कमी है, तो उसकी उपलब्धियों को नज़रअंदाज़ कर देना चाहिए? दुनिया की समृद्ध क़ौमें, जिन्होंने वैज्ञानिक नज़र से ज़्यादा तरक़्क़ी की है, क्या उनमें कमियां नहीं हैं? उनमें ज़्यादा बड़ी कमियां हैं। मैं अगर गिनवाना चाहूं तो पूरे एक पेज भर लाइन से कमियां गिनवा सकता हूं। जो कमियां अमरीका में हैं, ब्रिटेन में हैं, फ़्रांस में हैं, विकसित देशों में हैं, हमारी कमियों से कहीं ज़्यादा बड़ी और सख़्त हैं। वहाँ, हमारी तुलना में ज़्यादा ग़रीबी, ज़्यादा बड़े पैमाने पर बीमारी, भेदभाव, सामाजिक न्याय का अभाव है, हमसे कई गुना ज़्यादा। कमियां हर जगह हैं, हमें चाहिए कि कमियों को दूर करने के लिए कमर कस लें, हल यह है, हल यह नहीं है कि जब हमें कमियां नज़र आएं तो फ़ौरन जड़ पे ही हमला करने लगें, सवाल उठाने लगें।
मैं ताकीद करता हूं कि वह पहला रास्ता सही है। इंक़ेलाबी रास्ता, यानी जब हमें देखें, हमें अपनी कमियां नज़र आएं तो हम कहें कि हमने बड़ी उपलब्धियां हासिल की हैं, ऐसी उपलब्धियां जिन्हें हासिल करना हमें मुमकिन नहीं लगता था, इसलिए हम हिम्मत करें। चालीस साल से मुल्क में मेरे हाथों में ज़िम्मेदारियां हैं, मुख़्तलिफ़ ज़िम्मेदारियां, राष्ट्रपति पद संभालने से पहले, राष्ट्रपति पद संभालने के दौरान और फिर उसके बाद तक। एक वक़्त ऐसा था कि हमें यक़ीन नहीं था कि कुछ तरक़्क़ियां हम कभी हासिल कर पाएंगे, अगर उन तरक़्क़ियों को गिनवाएं तो आपको हैरत होगी। मिसाल के तौर पर स्टील के प्रोडक्शन का 10 लाख टन तक पहुंचना! हम यह कल्पना भी नहीं कर सकते थे, हम लोगों को लगता था कि इस वक़्त पाँच हज़ार टन है तो दस हज़ार टन तक पहुंच जाएगा! आज जो चीज़ें हमारी नज़रों के सामने हैं, हम लोग कभी उसका तसव्वुर भी नहीं करते थे, तो क़ौम ने हिम्मत दिखाई, नौजवानों ने हिम्मत दिखाई, अच्छे ओहदेदार थे जिन्होंने इस दौरान हिम्मत दिखाई, मुल्क को यहाँ तक पहुंचाया। यह हिम्मत आज भी मौजूद है, हमें कमियों को दूर करने की हिम्मत करनी चाहिए, यह मेरी नसीहत है।
सभी को काम करना चाहिए। सबसे पहले अधिकारी काम करें, हर कोई अपने क़ानूनी फ़रीज़े के मुताबिक़। मुख़्तलिफ़ तरह के अधिकारी हैं। एक प्लानिंग का अधिकारी है, एक इक्ज़ेक्यूटिव अधिकारी है, एक सुपरवाइज़िंग अधिकारी है, एक नियम व क़ानून बनाने का अधिकारी है, एक नीति बनाने का अधिकारी है, अलग अलग विभाग, अलग अलग मैनेजमेंट, अलग अलग ज़िम्मेदारियां, सबके लिए नियम व क़ानून हैं। सबके सब कोशिश करें, संघर्ष करें, दिन रात एक कर दें, फ़ॉलोअप करें, ऐसे लोगों को ज़िम्मेदार अधिकारी कहते हैं।
मुझे लगता है कि आज हमारे लिए सबसे अहम काम आर्थिक काम है। कुछ दिन पहले इसी इमामबाड़े में मुल्क के कामयाब मैन्यूफ़ैक्चरर्स का एक समूह यहाँ आया था, मैंने उनसे भी कहा। (11) मैंने कहा कि मुल्क में आर्थिक विकास होना चाहिए, आर्थिक विकास के बिना काम नहीं बनेगा। तो आर्थिक विकास के लिए, प्रोडक्शन को बढ़ाने के लिए आर्थिक विकास होना चाहिए, इंफ़्लेशन पर लगाम लगनी चाहिए। आज मुल्क के अधिकारियों, कार्यपालिका, विधि पालिका, इक्ज़ेक्यूटिव तंत्र की -चाहे डायरेक्ट ज़िम्मेदार हों या इनडायरेक्ट तौर पर- मूल ज़िम्मेदारियों में से एक यह है कि मुश्किलों का हल निकालें। हल मुमकिन है। ऐसा नहीं है कि हल नहीं हो सकतीं। रास्ता है, उस रास्ते को ढूंढिए। इंफ़्लेशन को दूर कीजिए, आर्थिक स्थिरता, क़ीमत में स्थिरता से मुल्क आगे बढ़ता है, तो निगाह इस तरह की होनी चाहिए।
आम लोग भी इसी तरह काम करें, अलबत्ता अधिकारियों की ज़िम्मेदारी ज़्यादा है, लेकिन आम लोग भी इसी तरह। स्टूडेंट अपना योगदान दे, उस्ताद अपना योगदान दे, मज़दूर अपना योगदान दे, दुकानदार अपना योगदान दे, किसान अपनी कोशिश करे, मैन्यूफ़ैकचरर, पशुपालक, धर्मगुरू सबके सब अपना योगदान दें, हर कोई अपने तरीक़े से। धर्मगुरू की मिसाल ले लीजिए, आपने देखा कि आले हाशिम साहब ने यहाँ बताया कि वे औद्योगिक केन्द्र में जाते हैं, उसे दूसरों को दिखाते हैं या उसका मुआयना करते हैं, तो यह एक काम है, यह बड़ा काम है। इससे इकॉनमी हरकत में आती है। ये हरकत बरकत लाती है। पॉलिटिकल ऐक्टिविस्ट अपना योगदान दे सकता है, पॉलिटिकल ऐक्टिविस्ट बेदारी लाए। सियासी सरगर्मी सिर्फ़ यह नहीं है कि इंसान बैठ कर सरकार में या दूसरे तंत्रों में किसी कमी का पता लगाए और फिर साइबर स्पेस में मज़ाक़ या अपमान वग़ैरह के ज़रिए उसे बड़ा करके दिखाए। इसे सियासी सक्रियत नहीं कहते। सियासी काम यह है कि आप दुनिया के सियासी माहौल को देखिए, इलाक़े के सियासी माहौल पर नज़र रखिए, दुश्मन के लक्ष्यों पर, दोस्तों के रुख़ पर नज़र रखिए और उसमें से जिसे आप ज़्यादा बेहतर तौर जानते और समझते हैं अवाम के बीच उसकी व्याख्या कीजिए। इसे सियासी काम कहते हैं।
या सामाजिक कार्यकर्ता, सर्विस देने वाले कार्यकर्ता इसी तरह, हम अवाम के ज़रिए बड़ी बड़ी कमियों को बार बार दूर करने में कामयाब रहे, एक तो यही कोरोना है। अवाम कोरोना के आग़ाज़ में ही मैदान में आ गए, काम किया। बहुत से ऐसे काम अवाम ने किए जो प्रशासन के काम थे, मगर वे मैदान में आ गए। उन्हीं दिनों अवाम मैदान में आ गए और अल्लाह के लिए मदद की। मुख़्तलिफ़ तरह के बहुत से काम अवाम ने अंजाम दिए। तेहरान में ग़दीर का शानदार जश्न अवाम ने मनाया, लोगों ने अपनी ख़ुशी व दिलचस्पी से अंजाम दिया। अवाम कर सकते हैं। सामाजिक सरगर्मियों से क़ौम को ख़ुशी मिलती है, मुल्क में तरक़्क़ी सुनिश्चित होती है, इससे सपोर्ट मिलता है।
एक चीज़ जो मुल्क में ताक़त पैदा करने में प्रभावी है, मुल्क को ताक़तवर बनाती है, वह क़ौमी एकता है। छोटी बातों के लिए टकराव नहीं होना चाहिए। मतभेद होता है, मतभेदों पर बहस अच्छी चीज़ है, डिबेट अच्छी चीज़ है लेकिन टकराव अच्छी चीज़ नहीं है। डिबेट करें, बात करें, बहस करें, युनिवर्सिटी में, धार्मिक ज्ञान केन्द्र में, मीडिया में, अदब के साथ, सामने वाले की इज़्ज़त के साथ, यह अच्छी बात है, लेकिन टकराव अच्छी चीज़ नहीं है, दुश्मनी करना अच्छी चीज़ नहीं है, मुंह को ग़लत बातों से गंदा करना अच्छा नहीं है, ये सब अच्छी चीज़ नहीं है, एकता से मदद मिलती है।
ख़ैर, ईरानी क़ौम का झुकाव इंक़ेलाब की ओर है। हमारे पास आंकड़े नहीं है कि मिसाल के तौर पर बताएं कि फ़ुलां सियासी मुद्दे पर कितने फ़ीसद लोगों के विचार पूरी क़ौम के रुजहान के ख़िलाफ़ हैं, या अधिकारियों के नज़रिये के ख़िलाफ़ हैं, ये हम नहीं जानते, लेकिन मूल रूप से हम जानते हैं कि ऐसे लोग हैं जिनके नज़रिये अलग हैं, विरोधी नज़रिया रखते हैं। ईरानी क़ौम का मुक़ाबला इन लोगों से नहीं है, ईरानी क़ौम के मुक़ाबले में साम्राज्यवाद है। सभी होशियार रहें कि साम्राज्यवाद की मदद न करें, सभी होशियार रहें कि इंक़ेलाब के मुक़ाबले में, इस्लाम के मुक़ाबले में और प्रिय ईरान के मुक़ाबले में साम्राज्यवाद के हाथों का खिलौना न बनें। मैं हमेशा की तरह भविष्य को रौशन देखता हूं। अलहम्दो लिल्लाह, जब भी सामने कोई उज्जवल क्षितिज नज़र आया, कुछ समय बाद हम वहाँ पहुंच गए। क़ौम की क्षमता बहुत ज़्यादा है, मुल्क की क्षमता बहुत ज़्यादा है, मुल्क की सलाहियत बहुच ज़्यादा है और इंशाअल्लाह यह क़ौम बड़ी से बड़ी उपलब्धियां हासिल करेगी।
अल्लाह से दुआ है कि इस रास्ते पर हमारे क़दम को क़ायम रखे, अल्लाह से दुआ है कि हमारे प्रिय इमाम को जिन्होंने हमें यह रास्ता दिखाया, अपने अपने ख़ास बंदों के साथ महशूर करे। अल्लाह से दुआ है कि हमारे प्यारे शहीदों को इस्लाम के आग़ाज़ के दिनों और कर्बला के शहीदों के साथ उठाए और हमें भी उनमें शामिल कर दे।
वस्सलामो अलैकुम व रहमतुल्लाह व बरकातोहू
1 इस मुलाक़ात के शुरू में आयतुल्लाह सैयद मोहम्मद आले हाशिम (पूर्वी आज़रबाइजान में वलीए फ़क़ीह के प्रतिनिधि और तबरीज़ के इमामे जुमा) ने कुछ बातें पेश कीं।
2 सूरए फ़ातिर की आयत 34 का एक हिस्सा
3 सहीफ़ए सज्जादिया की 45वीं दुआ का हिस्सा
4 सूरए जिन्न की आयत 16
5 सूरए अनफ़ाल की आयत 60 का हिस्सा
6 सूरए आले इमरान की आयत नंबर 119 का हिस्सा
7 चार अक्तूबर 2018 को बसीजियों की सेवा नामक सम्मेलन में भाग लेने वालों के बीच स्पीच
8 ज़ायोनी शासन के मिसाइल विभाग के प्रमुख यूज़ी रॉबिन
9 तीस जनवरी 2023 को मैन्यूफ़ैकचरर्स और नॉलेज बेस्ड कंपनियों के अधिकारियों से मुलाक़ात में स्पीच