महान धर्मगुरू, दक्ष लेखक मरहूम आयतुल्लाह मिस्बाह यज़्दी के परिवार ने 26 दिसम्बर 2022 को इस्लामी इन्क़ेलाब के नेता आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई से मुलाक़ात की। इस मुलाक़ात में आयतुल्लाह ख़ामेनेई ने मरहूम की शख़्सियत, उनकी इल्मी सेवाओं और उनकी अख़लाक़ी ख़ूबियों के बारे में बातचीत की।
इस मुलाक़ात में दी गयी स्पीच इस तरह हैः
बिस्मिल्लाह-अर्रहमान-अर्रहीम
अरबी ख़ुतबे का तरजुमाः सारी तारीफ़े पूरी सृष्टि के मालिक के लिए हैं, दुरूद व सलाम हो हमारे सरदार हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा और उनकी पाक नस्ल ख़ास तौर पर ज़मीन पर अल्लाह की आख़िरी हुज्जत हज़रत इमाम महदी पर।
आप सबकी ख़िदमत में ख़ुशआमदेद कहता हूं। काफ़ी मुद्दत के बाद आप लोगों का दीदार हुआ। जनाब मिस्बाह यज़्दी साहब को श्रद्धांजलि पेश करना उच्च धार्मिक शिक्षा केन्द्रों, धर्मगुरुओं और हम सभी का फ़र्ज़ है। उन्हें श्रद्धांजलि पेश करने का मतलब उनके विचार और उनके रास्ते को ज़िन्दा रखना है।
मरहूम मिस्बाह रिज़वानुल्लाह अलैह की कुछ अनूठी ख़ूबियां थीं, क़ुम के नुमायां धर्मगुरूओं पर, जिन्हें मैं काफ़ी वक़्त से जानता हूं और अल्लाह की कृपा से उनमें से कुछ के वजूद की बर्कतें अब भी जारी हैं, जब मैं नज़र डालता हूं तो उनमें से किसी में भी यह सभी ख़ूबियां एक साथ नज़र नहीं आतीं जो मरहूम मिस्बाह यज़्दी साहब में मौजूद थीं। बेपनाह इल्म, क्रिएटिव सोच, साफ़ व वाज़ेह अंदाज़े बयान, कभी न ख़त्म होने वाला अमल का बेनज़ीर जज़्बा, बेहतरीन अख़लाक़ व व्यवहार, अध्यात्म पर चलना, उसकी पहचान और ध्यान वग़ैरह इन सबको एक जगह जमा कर पाना मुमकिन नहीं है। ये सारी ख़ूबियां मिस्बाह साहब में एक साथ मौजूद थीं।
आख़िरकार सभी को इस दुनिया से जाना है। अल्लाह सूरए ज़ोमर की आयत 30 में कह रहा है कि हे पैग़म्बर आपको भी मरना है और वह भी मरने वाले हैं। (1) हालांकि यह नुक़सान है लेकिन कोई चारा नहीं है, हम सबके लिए यह अटल है, इलाज यह है कि वह रास्ता जारी रहे, वह नई सोच और वह काम जो उन्होंने अंजाम दिए हैः यही 'विलायत का मॉडल' जो उनकी क्रिएटिविटी में से एक है, यही इमाम ख़ुमैनी स्टडी सेंटर (2) जैसी बड़ी संस्था उनके क्रिएटिव कामों में से एक है, जो किताबें उन्होंने लिखी हैं, चाहे वे इल्मी किताबें हों, चाहे अख़लाक़ और अध्यात्म के बारे में हों या फिर आम लोगों के फ़ायदा उठाने के लिए हों, इन्हीं कामों में से एक हैं, इन्हें रुकना नहीं चाहिए। अल्लाह की कृपा से उनके काम हर लेहाज़ से अच्छे हैं। स्पीच की शक्ल में जो काम उन्होंने किए हैं वे बहुत अच्छे हैं। काफ़ी मुद्दत तक इस इमामबाड़े में स्पीच दिया करते थे, जो रमज़ान मुबारक के महीने में शाम के वक़्त टीवी से टेलिकास्ट होती थी, मैं बैठ कर वो सुना करता था, यह तो याद नहीं कब की बात है लेकिन मैं शाम के वक़्त बैठ कर सुनता था, रमज़ान मुबारक के महीने में शाम का वक़्त होता था। मैंने उनसे कहा कि वाक़ई यह बहुत अच्छी बाते हैं, इंसान बैठकर सुनता और इससे फ़ायदा उठाता है। तो ये चीज़ें रुकनी नहीं चाहिए, ये भुलाई नहीं जानी चाहिए। ऑडियो की शक्ल में भी उनका काम है और लिखित शक्ल में भी काम है और इसी तरह सेंटरों के निर्माण के काम भी हैं, जिनमें से एक का मैंने नाम लिया, शायद इसके अलावा भी हैं जिनकी मुझे ख़बर नहीं है। अल्लाह की कृपा से उनके बच्चे भी बहुत अच्छे हैं, अच्छी औलाद है, और फिर उन्हीं दोनों से बहुत से मर्दों और औरतों को फैला दिया।(3) अलहम्दो लिल्लाह उनकी नस्ल की बरकतें भी बड़ी अच्छी हैं।
इन कामों की हिफ़ाज़त के सिलसिले में जो एक अहम बिन्दु है वह यह कि हम इन कामों की ताज़गी ख़त्म न होने दें। यानी जब उन्होंने इस इमाम ख़ुमैनी सेंटर को शुरू किया था, एक नया काम था, अगर आज भी उसे इसी तरह चलाया जाए जैसे पहले दिन चलाया जा रहा था, तो क्या आज भी उसमें वही ताज़गी बाक़ी है? यह ध्यान देने की बात है, यह आप लोगों के ज़िम्मे है। रजबी साहब (4) और आप हज़रात देखिए कि क्या किया जाए कि वह ताज़गी बाक़ी रहे। जब उन्होंने यह काम शुरू किया था तो आग़ाज़ में इसमें बिल्कुल नयापन था और उसकी ओर लोगों का ध्यान केन्द्रित था, अब भी ऐसा ही होना चाहिए।
या मिसाल के तौर उनकी किताबें, उनकी कुछ किताबें इल्मी हैं, क्लास में पढ़ायी जाने वाली हैं, मिसाल के तौर पर फ़िलॉसफ़ी की हैं, उन्हें बचाने का तरीक़ा यह है कि धार्मिक स्कूलों में जहाँ जहाँ ज़रूरत हो, उन्हें पढ़ाया जाए, लेकिन उनके कुछ तहरीरी काम ऐसे हैं जिन्हें मन में बिठाना होगा। इल्म व कला वग़ैरह की बहस नहीं है, सोच है जो पढ़ने वाले के मन में बैठ जानी चाहिए। कैसे दिलों में बिठाया जा सकता है? आज सिर्फ़ इस बात से मामला ख़त्म नहीं हो जाता कि किसी किताब के छपे हुए नुस्ख़े ज़्यादा हैं या कम, मतलब यह कि ऐसी फ़िक्री किताबें इस तरह से बाक़ी नहीं रहतीं। हाँ कुछ किताबें हैं जिनके छपे हुए नुस्ख़े जब ज़्यादा होते हैं तो उसे कामयाबी माना जाता है, मिसाल के तौर पर वे किताबें जो शहीदों की ज़िन्दगी के बारे में लिखी जाती हैं, जितने ज़्यादा लोग इन किताबों को पढ़ेंगे, उतना ही फ़ायदा उठाएंगे। मगर फ़िक्री किताबें ऐसी नहीं होतीं, फ़िक्री किताबों के लिए ज़रूरी है कि वह मन में बैठ जाएं और यह चीज़ सिर्फ़ किताब के छपवाने से हासिल नहीं होती। आप देखिए कि पश्चिम वाले इस काम में बड़े माहिर हैं, वे अच्छी तरह आगाह हैं, मिसाल के तौर पर देखिए कि किसी विचारक जैसे हेगल ने कितनी किताबें लिखी हैं? उनके विचारों को इन किताबों से निकालते हैं, उनकी समरी करते हैं, ख़ुलासा करते हैं, इस विचार को मुख़्तलिफ़ लेक्चर के ज़रिए, मुख़्तलिफ़ ज़बानों में, मुख़्तलिफ़ तरीक़ों से फैला देते हैं, छपवा देते हैं। यही काम मरहूम के सिलसिले में भी अंजाम पाना चाहिए।
अलबत्ता मुझे लगता है कि पहले मैंने यह बात ख़ुद मरहूम मिस्बाह साहब (रहमतुल्लाह अलैह) या उनके कुछ स्टूडेंट्स से मुल्ला सदरा के सिलसिले में कही थी कि मुल्ला सदरा की किताब पढ़ाई जाती है लेकिन मुल्ला सदरा की किताबों का निचोड़ क्या है? मुल्ला सदरा की कुछ बुनियादी बाते हैं, उन्हें तलाश कीजिए, बाहर लाइये, उन पर बहस हो, काम किया जाए, किताब लिखी जाए, डिबेट हों, यह ज़रूरी है। ख़ुद मिस्बाह साबह के बारे में भी ऐसा ही है और इसी तरह का काम किया जाना चाहिए। देखिए कि उनका फ़िक्री रुझान, उनके वैचारिक ध्यान का केन्द्र बिन्दु क्या है? चाहे वह फ़िसॉसफ़ी के प्वाइंट्स हों, चाहे अक़ीदे और वैचारिक मामलों में हो, साइबर स्पेस वग़ैरह में वेबकास्ट होते हैं, उनकी बातों के एक हिस्से को ब्रॉडकास्ट कीजिए, ये लोगों के मन तक पहुंच जाए, ज़बानों पर आ जाए, दोहराया जाए और कहावत की तरह जो ज़बानों पर दोहरायी जाती हैं और अमर हो जाती हैं, यह फ़िक्र भी अमर हो जाए और वाज़ेह रहे कि यह मिस्बाह साहब की सोच है, जैसे ही कुछ लोग मिस्बाह साहब का नाम लें, जिसने भी इन हिस्सों और टुकड़ों और रिटन वर्क को देखा है, उसका ज़ेहन इनमें से किसी एक की तरफ़ मुतवज्जे हो जाए, उसे याद आ जाए। मिस्बाह साहब जैसे किसी बड़े विचारक की सोच को फैलाने के रास्तों में से एक यह है।
ऑडियो भी अच्छी चीज़ है। ज़रूरी नहीं है कि हम एक स्पीच को शुरू से लेकर आख़िर तक ब्रॉडकास्ट करें। शायद इससे स्पीच का असर भी कुछ हद तक कम हो जाए। लेकिन बहरहाल एक घंटे की या पौना घंटे की एक ऑडियो से, जिसने सुनने वालों को पूरी तरह सम्मोहित कर रखा था, मिसाल के तौर पर पंद्रह मिनट का मैटर निकाल ही जा सकता है।
इमामबाड़ों में उनकी स्पीच (5) में एक चीज़ ने अपनी ओर मेरा ध्यान खींचा, वह यह कि जब स्पीच की वीडियो ब्रॉडकास्ट होती है तो हम देखते हैं कि पहली बात तो यह है कि जो सुनने वाले बैठे हैं, वह सब जवान हैं। यानी मिसाल के तौर पर उनके बीच चालीस साल से ऊपर का कोई भी शख़्स दिखाई नहीं देता, सभी जवान हैं। दूसरे यह कि सभी का ध्यान पूरी तरह स्पीच सुनने में लगा है! यह बात बहुत अहम है। चूंकि मैं ख़ुद स्पीच देता हूं, मैंने दसियों साल स्पीच दी है इसलिए मैं इन बातों को अच्छी तरह समझता हूं। भाषणकर्ता को कब लगता है कि वह कामयाब है? सुनने वालों की नज़रें, उनका रवैया, उनकी बॉडी लैंगवेज, एक हक़ीक़त को बयान करते हैं, यह चीज़ आप उनकी स्पीच में देखते हैं, मतलब यह कि यह चीज़ मुझे आकर्षित करती है। वह क्या कह रहे हैं कि जिसने सभी दिलों को, नज़रों को सम्मोहित कर लिया है, आकर्षित कर लिया है? इन ख़ास हिस्सों को तलाश कीजिए और उन्हें बार बार ब्रॉडकास्ट कीजिए।
अल्लाह का शुक्र है कि ब्रॉडकास्टिंग विभाग ने इस मामले में अच्छा तरीक़ा अख़्तियार किया है। कभी होता है कि मीडिया वग़ैरह के अधिकारी किसी चीज़ के बारे में दिलचस्पी नहीं दिखाते लेकिन अल्लाह का करम है कि मरहूम के कामों के सिलसिले में राष्ट्रीय रेडियो व टीवी प्रसारण विभाग ने अच्छा रुख़ अपनाया है और मुख़्तलिफ़ वक़्तों में उनके प्रोग्राम चलाते हैं। मैं कभी कभी आते जाते देखता हूं या कभी बैठ कर देखता हूं कि उनके बारे में बहुत सी चीज़ें ब्रॉडकास्ट होती हैं। मिस्बाह साहब की ज़िन्दगी यह है, उनका ज़िन्दा होना यही है।
उनका जिस्म चला गया, अफ़सोस है, बहुत ही दुख है, उनका वजूद हक़ीक़ी मानी में बर्कतों का स्रोत था, इंसान उनसे मिल कर कुछ हासिल करता था, वह उन लोगों से एक थे जिन्हें हमने अब नहीं, बल्कि उनकी जवानी के वक़्त से देखा है, उस वक़्त से शायद जब उनकी शादी भी नहीं हुयी थी। क़ुम आने से पहले ही मशहद में उनसे मेरी मुलाक़ात हुयी थी, मेरे ख़्याल में सन 1957-58 की बात है। उसी वक़्त से समझ में आ गया था कि वह एक धार्मिक और परहेज़गार इंसान हैं। वे उन लोगों में से थे कि जिन्हें देखकर अल्लाह की याद आए (6) उन्हें देखने से भी इंसान को कुछ हासिल होता था, ऊंचाई अता करता था, अल्लाह की याद दिलाता था। जवानी का ज़माना जैसे जैसे गुज़रता गया वह बेहतर से बेहतर होते गए, हालांकि जो भी है, वह उसी जवानी के ज़माने का है। आप जवान, इस ज़माने और जवानी के वक़्त की क़द्र व क़ीमत समझिए, जो चीज़ आख़िर में काम आएगी, फ़ायदेमंद साबित होगी और इंसान के पास बाक़ी रहेगी, वह यही चीज़ है जो आप लोग हासिल कर रहे हैं और हासिल कर चुके हैं। जवान अपनी जवानी की क़ीमत समझें।
अल्लाह मरहूम के दर्जे बुलंद करे। जी हाँ उनको गुज़रे हुए दो साल हो गए, 2 जनवरी थी, अल्लाह उनके दर्जे बुलंद करे इंशाअल्लाह और उन्हें अपनी रहमत और मग़फ़ेरत से नवाज़े।
वस्सलामो अलैकुम व रहमतुल्लाहे व बरकातोह
(1) सूरए ज़ोमर, आयत-30, हे पैग़म्बर आपको भी मौत आएगी और वे भी मरने वाले हैं।
(2) इमाम ख़ुमैनी साइंस व स्टडी सेंटर
(3) सूरए निसा, आयत-1, और फिर उसने उन्हीं दोनों से बहुत से मर्दों और औरतों को फैला दिया।
(4) इमाम ख़ुमैनी साइंस व स्टडी सेंटर के मौजूदा प्रमुख आयतुल्लाह महमूद रजबी
(5) क़ुम में सुप्रीम लीडर के दफ़्तर के इमामबाड़े में बरसों तक मरहूम आयतुल्लाह मिस्बाह यज़्दी की क्लासें होती रहीं।
(6) काफ़ी, जिल्द-1, पेज-39