ऐसा क्योंकर हुआ कि महान पैग़म्बरे इस्लाम की अगुवाई वाला इस्लामी समाज जिसमें लोगों को उनसे इतना इश्क़ था, उन पर गहरा ईमान था, सिर से पैर तक शौर्य व धार्मिक जोश में डूबा समाज, और उसमें ऐसे आदेश जिनके बारे में बाद में थोड़ा बहुत बाद में ज़िक्र करुंगा, वही संगठित समाज, वही लोग जिनमें कुछ ने पैग़म्बरे इस्लाम को क़रीब से देखा था, पचास साल बाद उनकी हालत यह हुयी कि वह इकट्ठा हो गए और उन्होंने इसी पैग़म्बर के बेटे को सबसे बुरे तरीक़े से क़त्ल कर दिया?! गुमराही, पीछे की ओर लौटना, क्या इससे ज़्यादा और भी गिर सकता है?!
यह घटना कितनी बड़ी है इसे समझने के लिए मैं हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की ज़िन्दगी के तीन दौर को संक्षेप में पेश करुंगा।
एक दौर पैग़म्बरे इस्लाम की जिन्दगी से जुड़ा है दूसरा दौर उनकी जवानी का है यानी पच्चीस साल का दौर अमीरुल मोमेनीन अलैहिस्सलाम की हुकूमत तक का है। तीसरा दौर 20 साल का है जो अमीरुल मोमेनीन की शहादत से कर्बला की घटना तक फैला है।
पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल लाहो अलैहि व आलेही व सल्लम ने इमाम हसन और इमाम हुसैन अलैहेमुस सलाम के बारे में जो 6 और 7 साल के थे, फ़रमायाः ʺसैयदै शबाव अहलिल जन्नहʺ अर्थात ये जन्नत के जवानों के सरदार हैं। ये तो अभी बच्चा हैं, जवान नहीं हैं, लेकिन पैग़म्बरे इस्लाम ने फ़रमाया कि जन्नत के सरदार हैं। अर्थात छह साल, सात साल में भी एक जवान की तरह हैं; समझते हैं, अमल करते हैं, क़दम उठाते हैं, अदब से रहते हैं और उनका पूरा वजूद शराफ़त में डूबा हुआ है। अगर उस वक़्त कोई कहता कि यह बच्चा इसी पैग़म्बर की उम्मत के हाथों बिना किसी जुर्म व ग़लती के क़त्ल हो जाएगा, आम लोगों के लिए यक़ीन करना मुमकिन नहीं था; पैग़म्बरे इस्लाम ने इस तरह से बयां किया और इतना रोए और सभी ने हैरत ज़ाहिर की कि क्या ऐसा भी हो सकता है?!
दूसरा दौर पैग़म्बरे इस्लाम के स्वर्गवास से अमीरुल मोमेनीन की हुकूमत तक का दौर है 25 साल का। इमाम हुसैन जवान, बड़े हो चुके, ज्ञानी और बहादुर हैं। जंगों में शामिल होते हैं, बड़े कामों में शामिल होते हैं, सभी उनको महानता के साथ पहचानते हैं, सभी की आँखे उनकी ओर टिकी हुयी हैं। हर अच्छाई में जो मक्का और मदीना के मुसलमानों और जहाँ जहाँ इस्लाम पहुंचा है, सूरज की तरह चमकते हैं। उनके दौर के ख़लीफ़ा उनका और उनके भाई की इज़्ज़त करते हैं, उनके सामने उनका सम्मान करते, उनकी इज़्ज़त करते, उनका नाम अदब से लेते हैं। अपने दौर के आइडियल जवान, सबकी निगाह में इज़्ज़त। अगर उस वक़्त कोई कहता कि यही जवान इन्हीं लोगों के हाथों क़त्ल लोगा तो किसी को यक़ीन नहीं आता।
तीसरा दौर अमीरुल मोमेनीन की शहादत के बाद का दौर अर्थात अहले बैत की तन्हाई का दौर है। इमाम हसन और इमाम हुसैन अलैहेमुस सलाम भी मदीना में हैं। इमाम हुसैन ने इस मुद्दत से बीस साल बाद तक मदीना में ज़िन्दगी गुज़ारी है सभी मुसलमानों के आध्यात्मिक इमाम की तरह, सभी मुसलमानों के बड़े मुफ़्ती, सभी मुसलमानों की नज़र में सम्मानीय, लोगों का उनसे मिलने और उनसे सीखने के लिए जमावड़ा, उन सभी लोगों के लिए बंधन की तरह हैं जो अहले बैत से श्रद्धा का इज़हार करना चाहते हैं। एक लोकप्रिय, महान, शरीफ़, सज्जन और विद्वान हस्ती। वह मोआविया को एक ख़त लिखते हैं; ऐसा ख़त कि अगर कोई शख़्स किसी शासक को लिखे तो क़त्ल कर दिया जाए। मोआविया पूरे सम्मान के साथ ख़त को लेता, पढ़ता है, बर्दाश्त करता है और कुछ नहीं कहता। अगर उस वक़्त भी कोई कहता कि निकट भविष्य में, यह सम्मानीय, शरीफ़, प्रिय व सज्जन शख़्स-जो हर देखने वाले की नज़र में इस्लाम और क़ुरआन का साक्षात रूप है- मुमकिन है इसी क़ुरआन व इस्लामी उम्मत के हाथों क़त्ल हो-वह भी ऐसी हालत में-कोई सोच भी नहीं सकता था; लेकिन यही यक़ीन न होने वाली घटना, यही हैरत में डालने वाली घटना घटनी। किसने किया? उन लोगों ने जो उनकी सेवा में आते थे, सलाम करते थे और श्रद्धा ज़ाहिर करते थे। इसका क्या मतलब हुआ? इसका मतलब यह हुआ कि इस्लामी समाज इस 50 साल में अस्ल इस्लाम और अध्यात्म से ख़ाली हो चुका था। जो दिखने में इस्लामी है, लेकिन अंदर से खोखला हो चुका है। ख़तरा ऐसी हालत में होता है। नमाज़ें हो रहीं हैं, जमाअत से नमाज़ हो रही है, लोगों के नाम भी मुसलमानों के हैं और कुछ अहलेबैत के समर्थक भी हैं!
पैग़म्बरे इस्लाम ऐसा सिस्टम लाए जिसकी बुनियाद कुछ चीज़ें थीं। इन बुनियादी चीज़ों में चार चीज़ें मुझे बहुत ज़्यादा अहम लगीः एक, साफ़ पहचान, धर्म की पहचान, धर्म के आदेशों की पहचान, समाज की पहचान, ज़िम्मेदारी की समझ, अल्लाह की पहचान, पैग़म्बर की पहचान, प्रकृति की पहचान। यही पहचान थी जो ज्ञान और ज्ञान की प्राप्ति का कारण बनी और इस्लामी समाज को चौथी सदी हिजरी में वैज्ञानिक सभ्यता के शिखर तक पहुंचाया। पैग़म्बर किसी चीज़ को शक की हालत में नहीं छोड़ते थे। इस बारे में पवित्र क़ुरआन में बहुत ही हैरत अंगेज़ आयत है जिसे पेश करने का अभी मौक़ा नहीं है। कहीं भी अगर शक पैदा होता था तो एक आयत नाज़िल होती थी ताकि शक व अस्पष्टता दूर हो जाए।
दूसरी अहम चीज़ थी पूरी तरह इंसाफ़ बिना किसी ढिलाई के। फ़ैसलों में इंसाफ़, आम मामलों में इंसाफ़- जिन सुविधाओं का संबंध पूरी अवाम से है, उसका इंसाफ़ के साध बटना-अल्लाह के हुक्म को लागू करने में इंसाफ़, पदों और ज़िम्मेदारी देने और ज़िम्मेदारी लेने में इंसाफ़। अलबत्ता इंसाफ़, बराबरी से अलग चीज़ है। कभी कभी बराबरी ज़ुल्म है। न्याय का मतलब हर चीज़ को उसकी जगह पर रखना और हर शख़्स को उसका अधिकार देना। यह इंसाफ़ पूरी तरह बिना किसी ढिलाई के बरता जाता था। पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल लाहो अलैहि व आलेही व सल्लम के दौर में समाज में कोई भी शख़्स इंसाफ़ के दायरे से बाहर नहीं था।
तीसरी चीज़, बिना शिर्क के पूरी तरह उबूदियत अर्थात अल्लाह के सामने नत्मस्तक होना, मतलब काम और व्यक्तिगत कर्म में अल्लाह की रज़ामंदी को मद्देनज़र रखना, नमाज़ में उबूदियत यानी नमाज़ को उसकी निकटता हासिल करने की नियत से पढ़ना, समाज के निर्माण में उबूदियत को मद्देनज़र रखना, प्रशासनिक व्यवस्था में, आम लोगों की ज़िन्दगी की व्यवस्था में और लोगों के सामाजिक संबंधों में अल्लाह की उबूदियत को बुनियाद क़रार देना, यह विषय बहुत फैला हुआ है।
चौथी चीज़, इश्क़ और जज़्बात में गर्मी। यह भी इस्लामी समाज की मुख्य ख़ूबियों में है; अल्लाह से इश्क़, अवाम से अल्लाह का इश्क़; “वह उनसे मोहब्बत करता है और वे सब उससे मोहब्बत करते हैं”, “बेशक अल्लाह दोस्त रखता है तौबा करने वालों और तहारत करने वालों को”, “हे पैग़ंबर मेरी मोहब्बत के दावेदारों से कह दें कि अगर तुम अल्लाह से सच्ची मोहब्बत रखते हो तो मेरी पैरवी करो अल्लाह भी तुमसे मोहब्बत करेगा” मोहब्बत, इश्क़, जीवन साथी से मोहब्बत, अपनी औलाद से मोहब्बत, अपने बच्चों को प्यार करना पुन्य है; अपनी औलाद से मोहब्बत करना मुस्तहब अर्थात पुन्य का काम है; मुस्तहब है कि अपने जीवन साथी से इश्क़ कीजिए और मोहब्बत कीजिए; अपने मुसलमान भाइयों से मोहब्बत कीजिए; पैग़म्बर से मोहब्बत, अहलेबैत से मोहब्बत; “सिवाए अपने क़राबतदारों की मोहब्बत के”
पैग़म्बरे इस्लाम ने यह ख़ाका बनाया और समाज की बुनियाद इस ख़ाके पर रखी। पैग़म्बरे इस्लाम ने 10 साल इसी तरह हुकूमत की। अलबत्ता सीधी सी बात है कि इंसानों की परवरिश लगातार जारी रहने वाली प्रक्रिया है, एक दफ़ा का काम नहीं है। पैग़म्बरे इस्लाम ने इन पूरे दस बरसों में इन स्तंभों को मज़बूत करने की कोशिश की; लेकिन यह दस साल अवाम को जिनकी इन ख़ूबियों के विपरीत परवरिश हुयी है, बदलना, बहुत कम वक़्त है। जाहिल समाज, सभी चीज़ें इन चार चीज़ों के विपरीत थीं; लोगों में पहचान नहीं थी, जेहालत में ज़िन्दगी गुज़ारते थे, उबूदियत भी नहीं था, उद्दंडता थी, सरकशी थी, इंसाफ़ भी नहीं था; ज़ुल्म भरा हुआ था, भेदभाद भरा हुआ था- नहजुल बलाग़ा में अमीरुल मोमेनीन ने जाहेलियत के दौर में ज़ुल्म और भेदभाव को बहुत ही अजीब अंदाज़ में बयां किया है जो सच में कला का एक नमूना है; मोहब्बत भी नहीं थी, बेटियों को ज़िन्दा दफ़्न कर देते थे, दूसरे क़बीले के किसी शख़्स को बिना किसी जुर्म के क़त्ल कर देते थे- “तुमने मेरे क़बीले के एक शख़्स का क़त्ल किया, मैं भी तुम्हारे क़बीले के एक शख़्स को क़त्ल करुंगा”- अब वह क़ातिल हो, या न हो; बेगुनाह हो, या बेख़बर हो; पूरी तरह ज़ुल्म, पूरी तरह बेरहमी, मोहब्बत से ख़ाली, पूरी तरह संवेदनहीनता।
ऐसे लोगों जो इस तरह के माहौल में पले बढ़े थे, उनकी दस साल में परवरिश हो सकती है, उन्हें इंसान बनाया, उन्हें मुसलमान बनाया; लेकिन इसे मन की गहराई तक नहीं पहुंचाया जा सकता; इस हद तक कि वह दूसरों पर भी उसी तरह से असर डाले।
लोग लगातार मुसलमान हो रहे थे। ऐसे लोग थे जिन्होंने पैग़म्बर को नहीं देखा था। ऐसे लोग थे जो उस दस साल में नहीं थे। ख़िलाफ़त का विषय जिस पर शियों की आस्था है, यहाँ पर सामने आता है। उत्तराधिकार, ख़िलाफ़त और अल्लाह की तरफ़ से नियुक्ति का स्रोत यहाँ है; उसे जारी रखने के लिए परवरिश की ज़रूरत है, वरना पता है कि यह उत्तराधिकार भी दुनिया में प्रचलित वसीयतों की तरह नहीं है कि जब कोई मरता है तो अपने बेटे के लिए वसीयत करता है, मसला यह है कि पैग़म्बरे इस्लाम के बाद उनका प्रोग्राम चलता रहे।
लेकिन पैग़म्बरे इस्लाम के स्वर्गवास के बाद की घटनाएं। आख़िर क्या हुआ कि इस पचास बरस में इस्लामी समाज उस हालत से इस हालत में आ गया? अस्ला मामला यहाँ है’ इतिहास को यहां पर खंगालना चाहिए। अलबत्ता पैग़म्बरे इस्लाम ने जो बुनियाद डाली थी, वह ऐसी नहीं थी कि जल्द ख़राब हो जाए; इसलिए अगर आप पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल लाहो अलैहि व आलेही वसल्लम के देहांत के आग़ाज़ के दौर को देखें तो सभी चीज़-ख़िलाफ़त को छोड़ कर-अपनी जगह हैः अच्छा इंसाफ़ है, अल्लाह को अच्छी तरह याद किया जा रहा है, उबूदियत की हालत भी अच्छी है। अगर कोई शुरू के बरसों में इस्लामी समाज के मूल ख़ाके को देखे तो पाएगा कि ज़ाहिरी तौर पर किसी चीज़ में पतन नहीं हुआ है। अलबत्ता कभी ऐसी चीज़ें पेश आती हैं जिससे पैग़म्बरे इस्लाम द्वारा रखी गई बुनियाद नज़र आती है। लेकिन यह यह हालत बाक़ी नहीं रह पाती। जैसे जैसे वक़्त गुज़रता है इस्लामी समाज धीरे-धीरे कमज़ोरी और खोखलेपन की तरफ़ बढ़ता है।
कुलीन वर्ग की कुछ मिसालेः कुलीन वर्ग इन पचास बरसों में कितना बदल गए थे कि हालात यहाँ तक पहुंच गए। मैं जब ध्यान देता हूं तो पाता हूं कि इन चारों चीज़ें बुनियाद से हिल गयी थीं। उबूदियत भी, पहचान भी, इंसाफ़ भी, मोहब्बत भी। कुछ मिसाल पेश करता हूं जो पूरी तरह ऐतिहासिक सच्चाई है।
सईद बिन आस बनी उमय्या का एक शख़्स है जो उस्मान के क़बीले से था। वलीद बिन अक़बह बिन अबी मुईत के बाद सईद बिन आस गवर्नर बने ताकि उसके बिगड़े हुए काम को सुधारें। उनकी सभा में एक शख़्स ने कहा कि “तलहा कितना दानी था”; तलहा बिन अब्दुल्लाह कितना दानी है? ज़रूर किसी को पैसे दिए थे, या जिससे मोहब्बत से पेश आया था उसके बारे में वह जानता था। तो सईद ने कहा कि जिसके पास नशास्तज हो दो उसे दानी होना चाहिए। नशास्तज नाम का कूफ़े के क़रीब बहुत बड़ा खेत था। यह बहुत ही उपजाउ ज़मीन थी। कूफ़ा का यह बड़ा खेत मदीने में पैग़म्बरे इस्लाम के सहाबी तलहा की संपत्ति थी। सईद बिन आस ने कहाः जिसके पास ऐसी संपत्ति हो तो उसे दानी भी होना चाहिए! अगर मेरे पास भी नशास्तज जैसी चीज़ होती तो तुम्हारी ज़िन्दगी में बहुत बड़ा बदलाव ले आता; यह कोई बड़ी बात नहीं जो कह रहे हो कि वह दानी है! अब आप इस चीज़ की पैग़म्बरे इस्लाम के दौर की सादे जीवन की पैग़म्बरे इस्लाम के देहांत के शुरू के बरसों के जीवन से तुलना कीजिए और देखिए कि कुलीन वर्ग और सहाबी उन कुछ बरसों में किस तरह की ज़िन्दगी गुज़ारते थे और दुनिया को किस निगाह से देखते थे। अब दस, पंद्रह साल बाद स्थिति इस तरह की हो गयी है।
अगला नमूना बसरे के गवर्नर अबू मूसा अशअरी थे, हकमियत के मामले के मशहूर अबू मूसा अशअरी। लोग जेहाद के लिए जाना चाहते थे, वो मिम्बर पर गए और लोगों को जेहाद के लिए प्रोत्साहित किया। उन्होंने जेहाद और क़ुरबानी देने की फ़ज़ीलत में बहुत सारी बातें कहीं। बहुत से लोगों के पास सवारी के लिए घोड़े नहीं थे, हर किसी को अपने-अपने घोड़े पर सवार हो कर जाना था। प्यादों को भी जंग में भेजने के लिए, कुछ बातें उन्होंने पैदल जेहाद की फ़ज़ीलत के बारे में भी कहीं, जनाब पैदल जेहाद की कितनी फ़ज़ीलत है, ऐसा है वैसा है! उनका भाषण इतना असरदार था कि जिन लोगों के पास घोड़े थे भी, उनमें से कुछ ने कहा कि हम भी पैदल चलेंगे, घोड़ा क्या होता है? उन्होंने अपने घोड़ों पर हमला कर दिया, उन्हें भगा दिया और उनसे कहा कि चले जाओ, तुम घोड़े हमें बहुत से सवाबों से वंचित कर देते हो, हम पैदल जा कर लड़ना चाहते हैं ताकि ये सवाब हमें मिलें! कुछ लोग ऐसे भी थे जो थोड़ा ज़्यादा ग़ौर करते थे, उन्होंने कहा रुकते हैं, जल्दबाज़ी नहीं करते हैं, देखते हैं पैदल जेहाद के बारे में इस तरह की बात करने वाला शासक ख़ुद कैसे निकलता है? देखें तो सही कि उसकी करनी भी कथनी की तरह है या नहीं? इसके बाद ही हम तय करेंगे कि पैदल चलना है या घोड़े पर। ये (मशहूर इतिहासकार) इब्ने असीर के अल्फ़ाज़ हैं, वो कहते हैं: अबू मूसा अशअरी अपने महल से 40 ख़च्चरों पर लदे क़ीमती सामान के साथ निकले और जेहाद के मैदान की तरफ़ बढ़े! उन दिनों कोई बैंक तो था नहीं और सरकारों का भी कोई भरोसा नहीं था। अचानक ही जंग के मैदान के बीच ख़लीफ़ा की तरफ़ से ख़बर आ सकती थी कि आपको बसरा के शासन से हटा दिया गया है। अब वह आकर महल के अंदर आ कर इन सभी क़ीमती सामानों को तो नहीं ले जा सकते थे, उन्हें अंदर आने की इजाज़त ही नहीं मिलती। तो वो मजबूर थे कि जहां भी जाएं, सामान अपने साथ ले जाएं। 40 ख़च्चरों पर उनका क़ीमती सामान लदा था जिन्हें लेकर वो अपने महल से निकले और मैदाने जंग की तरफ़ गए। जो लोग घोड़ों से उतर गए थे उन्होंने अबू मूसा के घोड़े की लगाम पकड़ ली और कहा: हमें भी इनमें से कुछ पर सवार करो! ये क्या चीज़ें हैं जो तुम अपने साथ मैदाने जंग में ले जा रहे हो? जैसे तुमने हमें पैदल आगे बढ़ने के लिए कहा है वैसे ही तुम भी सवारी से उतरो और पैदल चलो। तो उन्होंने अपना कोड़ा उठाया और उनके सिर और चेहरे पर मारा और कहा कि भाग जाओ और बकवास न करो! तो लोग उनके पास से हट गए लेकिन उन्होंने इसे बर्दाश्त नहीं किया। वे मदीना में उस्मान के पास आए और उनकी शिकायत की। उन्होंने अबू मुसा को हटा दिया। अबू मूसा पैग़म्बर के सहाबियों और बड़े अहम लोगों में से एक हैं और ये उनकी हालत है!
तीसरी मिसाल: साद इब्ने अबी वक़्क़ास, कूफ़े का शासक बना। उसने बैतुल माल से क़र्ज़ लिया। उस वक़्त बैतुल माल शासक के हाथ में नहीं होता था। एक शख़्स को सरकार चलाने और लोगों के मामले देखने के लिए नियुक्त किया जाता था और एक दूसरे शख़्स को बैतुल माल का प्रमुख बनाया जाता था और वो सीधे ख़लीफ़ा को जवाबदेह होता था। कूफ़े का शासक साद इब्ने अबी वक़्क़ास था जबकि बैतुल माल का प्रबंधक अब्दुल्लाह इब्ने मस्ऊद थे जो बहुत बड़ा सहाबी समझे जाते थे। साद इब्ने अबी वक़्क़ास ने बैतुल माल से कुछ क़र्ज़ लिया - कितने हज़ार दीनार थे, ये मुझे नहीं पता - फिर उसने क़र्ज़ नहीं चुकाया। अब्दुल्लाह इब्ने मस्ऊद ने उससे मुतालबा किया और कहा कि बैतुल माल के पैसे वापस लौटाओ। साद इब्ने अबी वक़्क़ास ने कहा कि मेरे पास नहीं हैं। दोनों के बीच बहस हुई, एक दूसरे से झगड़ने लगे। हाशिम बिन अतबा इब्ने अबी वक़्क़ास - जो हज़रत अली अलैहिस्सलाम के सहाबी और बड़े ही प्रतिष्ठित व सम्मानीय इंसान थे - आगे आए और बोले कि बुरी बात है, तुम दोनों पैग़म्बर के सहाबी हो, लोग तुम्हें देख रहे हैं, झगड़ा मत करो और जा कर किसी तरह मामला हल करो। इब्ने मस्ऊद ने जब देखा कि मामला नहीं सुलझ रहा है तो वो बाहर आ गए। वो बहरहाल एक अमानतदार इंसान थे। उन्होंने कुछ लोगों से जा कर कहा कि जाओ और ये चीज़ें उसके घर से बाहर ले आओ। इससे पता चलता है कि कुछ माल अंदर ज़रूर था। साद को जब इसकी ख़बर हुई तो उसने भी कुछ लोगों को भेजा और कहा कि उन्हें वो चीज़ें निकालने न दो। तो चूंकि साद इब्ने अबी वक़्क़ास बैतुल माल का क़र्ज़ अदा नहीं कर रहा था, इस लिए इतना हंगामा खड़ा हो गया। साद इब्ने अबी वक़्क़ास शूरा (परिषद) के सदस्यों में से एक था, (वही छः सदस्यीय शूरा जिसे दूसरे ख़लीफ़ा ने अगले ख़लीफ़ा के चयन के लिए नियुक्त किया था) कुछ ही साल में उसकी स्थिति इस प्रकार की हो गई थी। इब्ने असीर का कहना हैः ये पहली घटना थी जिसमें कूफ़े के लोगों के बीच मतभेद पैदा हुआ, इस लिए कि एक सरकारी आदमी, दुनिया की चाह में इतना आगे बढ़ गया था कि उसका अपने ऊपर से कंट्रोल ही ख़त्म हो गया था।
एक और घटनाः मुसलमान अफ़्रीक़िया गए - यानी यही ट्यूनीशिया और मोरोको का इलाक़ा - और उसे जीत लिया। जो माल हाथ लगा उसे लोगों और सिपाहियों के बीच बांट दिया। जंग जीतने पर मिलने वाले माल का ख़ुम्स (पांचवां हिस्सा) मदीने भेजा गया। तारीख़े इब्ने असीर में है कि ख़ुम्स काफ़ी ज़्यादा था। जब ख़ुम्स मदीने पहुंचा तो मरवान इब्ने हकम ने कहा कि मैं ये सारी चीज़ें एक साथ पांच लाख दिरहम में ख़रीदूंगा। उसे वो माल बेच दिया। पांच लाख दिरहम कोई मामूली रक़म नहीं थी लेकिन वो ख़ुम्स की चीज़ें उससे कहीं ज़्यादा की थीं। एक चीज़ जिस पर बाद में ख़लीफ़ा पर काफ़ी एतेराज़ किया गया, यही घटना था। अलबत्ता ख़लीफ़ा ने कहा कि ये मेरा ख़ूनी रिश्तेदार है और चूंकि उसकी हालत अच्छी नहीं है इस लिए मैं उसकी मदद करना चाहता हूं। इससे भी पता चलता है कि बड़े बड़े लोग और शासक के रिश्तेदार दुनिया की चकाचौंध में डूबे हुए थे।
अगली घटनाः वलीद इब्ने अक़बा को - वही वलीद जिसे आप लोग जानते हैं और जो कूफ़े का शासक था - साद इब्ने अबी वक़्क़ास के बाद कूफ़े का शासन सौंप दिया गया। वो भी बनी उमय्या से और ख़लीफ़ा के रिश्तेदारों में से था। जब वो कूफ़े पहुंचा तो सभी को हैरत हुई कि इसका क्या मतलब? अरे ये कोई ऐसा आदमी है जिसे शासन सौंपा जाए?! क्योंकि वलीद बेवक़ूफ़ी के लिए भी मशहूर था और भ्रष्टाचार के लिए भी। ये वलीद वही इंसान है जिसके लिए ये आयत आई थी कि अगर कोई फ़ासिक़ तुम्हारे पास कोई ख़बर लेकर आए तो उसकी छान-बीन कर लिया करो। क़ुरआन ने उसका नाम फ़ासिक़ रखा है क्योंकि उसने एक ऐसी ख़बर दी थी जिससे कई लोगों की जान ख़तरे में पड़ गई थी और फिर ये आयत आई थी कि अगर कोई फ़ासिक़ तुम्हारे पास कोई ख़बर लेकर आए तो उसकी छान-बीन कर लिया करो, उसकी बात मत माना करो। वो फ़ासिक़ यही वलीद था। ये पैग़म्बर के ज़माने की बात थी। कसौटियों, मान्यताओं और लोगों के बदलाव को देखिए! ये शख़्स जिसे पैग़म्बर के ज़माने में क़ुरआन ने फ़ासिक़ का नाम दिया था और उसी क़ुरआन की लोग रोज़ाना तिलावत किया करते थे, वही शख़्स कूफ़े का हाकिम बन गया है! साद इब्ने अबी वक़्क़ास को भी और अब्दुल्लाह इब्ने मस्ऊद को भी हैरत हुई। अब्दुल्लाह इब्ने मस्ऊद की नज़र जब उस पर पड़ी तो उन्होंने कहा कि पता नहीं हमारे मदीने से आने के बाद तू अच्छा इंसान बन गया है या नहीं। इतिहास में लिखे हुए शब्द ये हैं कि उन्होंने कहाः तू अच्छा इंसान नहीं बना बल्कि लोग बुरे हो गए कि जिन्होंने तुझ जैसे को किसी शहर के शासक के रूप में भेजा है। साद इब्ने अबी वक़्क़ास को भी हैरत हुई लेकिन उसने दूसरे पहलू से कहाः तू तो बेवकूफ़ इंसान था, अब चालाक बन गया है या हम इतने बेवक़ूफ़ हो गए हैं कि तुझे हम पर श्रेष्ठता हासिल हो गई है? वलीद ने उसके जवाब में कहाः साद इब्ने अबी वक़्क़ास! नाराज़ मत हो, न मैं चालाक हो गया हूं और न तू बेवक़ूफ़ बन गया है बल्कि ये सारा मामला बादशाही का है। अल्लाह के शासन और ख़िलाफ़त व विलायत का बादशाहत में बदल जाना ख़ुद एक अजीब कहानी है - आज किसी के पास तो कल किसी के पास, इधर उधर घूम रही है। साद इब्ने अबी वक़्क़ास जो भी हो, पैग़म्बर का सहाबी था, ये चीज़ उसे बुरी लगी कि मामला बादशाहत का है, उसने कहा कि मैं देख रहा हूं कि तुम लोगों ने ख़िलाफ़त के मामले को बादशाहत में बदल दिया है।
एक बार दूसरे ख़लीफ़ ने हज़रत सलमान से पूछाः मैं बादशाह हूं या ख़लीफ़ा? सलमान, एक बड़े और बहुत विश्वस्त इंसान थे, उनकी राय और उनके फ़ैसले की बड़ी अहमियत थी। इस लिए दूसरे ख़लीफ़ा उमर ने अपनी ख़िलाफ़त के ज़माने में उनसे ये बात पूछी। हज़रत सलमान ने जवाब में कहाः अगर तुम लोगों के माल में एक दिरहम या उससे कम या थोड़ा ज़्यादा, वहां ख़र्च कर दो, जहां उसका हक़ नहीं है, ये नहीं कि तुम उसे ख़ुद ले लो बल्कि ग़लत जगह ख़र्च कर दो तो तुम ख़लीफ़ा नहीं बादशाह हो। उन्होंने कसौटी बयान कर दी। इब्ने असीर की रिवायत में है कि ये सुन कर उमर रोने लगे। बड़ी गहरी नसीहत है। बात ख़िलाफ़त की है। विलायत का मतलब वो शान है जो प्यार के साथ हो, लोगों के साथ हो, जनता के सभी वर्गों को साथ लेकर चलना, सिर्फ़ हुक्म चलाना और शासन करना नहीं, लेकिन बादशाहत का मतलब ये नहीं है और उसे लोगों से कोई मतलब नहीं होता। बादशाह यानी शासन और हुक्म चलाने वाला, जो भी उसका दिल चाहे, वो करे।
ये बड़े और प्रतिष्ठित लोगों की बात थी। कुछ ही साल के अरसे में उनकी हालत ये हो गई थी और ये बात “ख़ुलफ़ाए राशेदीन” (पहले तीन ख़लीफ़ाओं) के ज़माने से संबंधित है जो ख़याल रखते थे, बहुत सी चीज़ों का पालन करते थे, अहमियत देते थे, बरसों तक उन्होंने पैग़म्बर को देखा था, पैग़म्बर की आवाज़ अभी भी मदीने में गूंज रही थी और हज़रत अली अलैहिस्सलाम जैसा इंसान उस समाज में मौजूद था। बाद में जब ख़िलाफ़त का मामला शाम (सीरिया) पहुंच गया, तो बात इन चीज़ों से कहीं आगे निकल गई। ये बड़े और प्रतिष्ठित लोगों का एक छोटा सा नमूना है और अगर कोई इसी तारीख़े इब्ने असीर या सुन्नी भाइयों की अन्य विश्वस्त तारीख़ी किताबों में, तलाश करे तो इस तरह के सैकड़ों नहीं हज़ारों नमूने मिल जाएंगे।
स्वाभाविक सी बात है कि जब इंसाफ़ न हो, अल्लाह की बंदगी न हो तो समाज खोखला हो जाता है, फिर लोगों की सोच भी बिगड़ जाती है। यानी जिस समाज में माल इकट्ठा करने, दुनिया की चीज़ों की तरफ़ रुझान और दुनिया की मामूली मामूली चीज़ों से प्यार इस हद को पहुंच जाए, उस समाज में कोई लोगों को धर्म की बातें बताने वाले लोग काबुल अहबार जैसे होते हैं। काबुल अहबार नया नया मुसलमान होने वाला यहूदी था जिसने पैग़म्बर को देखा तक नहीं था! वो पैग़म्बर के ज़माने में मुसलमान नहीं हुआ था, अबू बक्र के ज़माने में मुसलमान नहीं हुआ था, उमर के ज़माने में मुसलमान हुआ और उस्मान के ज़माने में मर गया! कुछ लोग उसे काबुल अख़बार कहते हैं जो ग़लत है, उसका नाम काबुल अहबार था। अहबार, हबर का बहुवचन है यानी यहूदी धर्मगुरू। ये काब, यहूदी धर्मगुरुओं में बहुत बड़ा था जो मुसलमान हो गया। फिर उसने इस्लामी मामलों के बारे में बोलना शुरू किया। वह उस्मान की बैठक में बैठा हुआ था कि हज़रत अबूज़र वहां पहुंचे। इसने कुछ कहा ही था कि वो ग़ुस्से में आ गए और कहने लगे, अब तू हमें इस्लाम और इस्लाम के आदेशों के बारे में बताएगा? हमने ये आदेश ख़ुद पैग़म्बर से सुने हैं।
ये बड़े और ख़ास लोगों से संबंधित बातें हैं और आम लोग तो ख़ास लोगों के पीछे पीछे ही चलते हैं, जब ख़ास लोग किसी दिशा में जाते हैं तो ये उनके पीछे चलने लगते हैं। बड़े और ख़ास लोगों का सबसे बड़ा गुनाह, अगर उनसे कोई गुनाह होता है, तो ये है कि उनकी गुमराही, बहुत से लोगों की गुमराही की वजह बन जाती है। जब आम लोग देखते हैं कि बांध टूट गए, जब देखते हैं कि काम, ज़बानों से कही जा रही बातों के ख़िलाफ़ हो रहा है और जो कुछ पैग़म्बर के हवाले से बयान हुआ है उसके ख़िलाफ़ रवैया अपनाया जा रहा है तो वो भी उसी दिशा में चलने लगते हैं।
अब एक घटना, आम लोगों के बारे में भीः बसरे के शासक ने मदीने में ख़लीफ़ा को ख़त लिखा कि जीते गए शहरों से जो हम टैक्स लेते हैं, वो अपने ही लोगों क बीच बांट देते हैं लेकिन बसरा में कम है, लोग ज़्यादा हो गए हैं, क्या आप इजाज़त देते हैं कि दो शहर और बढ़ा दें? कूफ़े के लोगों ने जब सुना के बसरे के शासक ने ख़लीफ़ा से दो शहरों का टैक्स लेने की इजाज़त ले ली है तो वे अपने शासक के पास पहुंचे। उनका शासक कौन था? अम्मार इब्ने यासिर, एक सही इंसान, वो जो पहाड़ की तरह डट कर खड़ा था, इस तरह के लोग भी थे, जो ज़रा सा भी नहीं डगमगाए, मगर ज़्यादा नहीं थे। लोग अम्मारे यासिर के पास आए और कहने लगे कि आप भी हमारे लिए ऐसी ही मांग कीजिए और हमारे लिए दो शहर मांगिए। उन्होंने कहाः मैं ये काम नहीं करूंगा। उन्होंने अम्मार को बुरा भला कहना और उन पर हमला करना शुरू किया। फिर उन लोगों ने ख़त लिखे, आख़िरकार ख़लीफ़ा ने उन्हें हटा दिया।
इसी तरह की घटना हज़रत अबूज़र और दूसरों के साथ भी घटी। शायद अब्दुल्लाह इब्ने मस्ऊद भी उनमें से एक थे। जब इन चीज़ों का ध्यान न रखा जाए तो समाज मान्यताओं के लेहाज़ से खोखला हो जाता है, सबक़ ये है।
उमर इब्ने साद से कहा गया कि हम तुझे रय की हुकूमत देना चाहते हैं। उस वक़्त रय एक बड़ा और मालदार शहर था। उस वक़्त का हाकिम, आजके गवर्नर की तरह नहीं होता था। आज हमारे गवर्नर, संचालन के अधिकारी हैं, उन्हें तनख़ाह मिलती है और वो बहुत मेहनत करते हैं। उस वक़्त ऐसा नहीं था। जो किसी शहर का हाकिम बन जाता था इसका मतलब ये होता था कि पूरे शहर की आमदनी के स्रोत उसके नियंत्रण में होते थे, कुछ हिस्सा केंद्र को भेजना होता था, बाक़ी सब पर उसका नियंत्रण होता था, वो जैसा चाहे कर सकता था, इसी लिए उनके लिए इस चीज़ की बड़ी अहमियत थी। फिर उससे कहा गया कि अगर तुम हुसैन इब्ने अली से लड़ने नहीं जाओगे को रय की हुकूमत को भूल जाओ। ऐसी जगह एक सही आदमी एक पल के लिए भी नहीं सोचता और कहता कि भाड़ में जाए रय की हुकूमत, रय क्या चीज़ है, अगर पूरी दुनिया भी मुझे दे दो तो मैं हुसैन इब्ने अली के सामने त्योरियां नहीं चढ़ा सकता, मैं ज़हरा के प्यारे के सामने अपने चेहरे पर नाराज़गी नहीं ला सकता, मैं जा कर हुसैन इब्ने अली और उनके बच्चों को क़त्ल करूं ताकि तुम मुझे रय की हुकूमत दो?! जो सही आदमी होता है, वह ऐसा होता है लेकिन जब अंदर से खोखला हो, समाज में मान्यताएं ही न हों, जब समाज में बुनियादी उसूल कमज़ोर पड़ चुके हों तो फिर इंसान लड़खड़ाता ही है। अब उसने ज़्यादा से ज़्यादा एक रात सोचा भी, बड़ा तीर मारा कि सोचने के लिए रात से सुबह तक की मोहलत मांगी! आख़िरकार कह दिया, ठीक है, मुझे रय की हुकूमत चाहिए! अलबत्ता ख़ुदा ने उसे वो भी नहीं दिया। और फिर दोस्तो! कर्बला की घटना सामने आती है।
यहां पर मैं आशूरा की घटना के विश्लेषण के बारे में सिर्फ़ एक इशारा करना चाहता हूं। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम जैसा इंसान, जो मान्यताओं और गुणों का साक्षात रूप है, आंदोलन करता है, उठ खड़ा होता है ताकि इस पतन को रोक सके क्योंकि ये पतन और ये गिरावट उस जगह पहुंचने जा रही थी कि कुछ भी बाक़ी नहीं बचता कि अगर कभी कुछ लोग चाहते भी कि अच्छी ज़िंदगी गुज़ारें और मुसलमानों वाली ज़िंदगी गुज़ारें तो उनके हाथ में कुछ न होता। इमाम हुसैन उठ खड़े होते हैं, आगे बढ़ते हैं, आंदोलन करते हैं, अकेले ही इस तेज़ रफ़्तार से जारी पतन और गिरावट को रोकते हैं। इसमें अपनी जान, अपने प्यारों की जान, अपने अली असग़र की जान, अपने अली अकबर की जान, अपने अब्बास की जान निछावर कर देते हैं लेकिन वो कामयाब हो जाते हैं।
“व अना मिन हुसैन” (पैग़म्बर की हदीस कि मैं हुसैन से हूं) यानी पैग़म्बर के दीन को हुसैन इब्ने अली ने ज़िंदा किया है। मामले का दूसरा रुख़ ये था, सिक्के का एक रुख़ कर्बला की अज़ीम, आशिक़ाना और अमर घटना है और हक़ीक़त में इश़्क और आशिक़ाना नज़र के बिना कर्बला के वाक़ेआत को समझा नहीं जा सकता। इश्क़ की नज़र से देखना चाहिए ताकि समझ में आ सके कि इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने इस लगभग एक रात और आधे दिन में या लगभग एक दिन और एक रात में - नवीं मुहर्रम की शाम से दसवीं मुहर्रम की शाम तक - क्या कारनामा किया और किस महानता की रचना की है! इसी वजह से वो दुनिया में बाक़ी हैं और हमेशा बाक़ी रहेंगे। बहुत कोशिश की गई कि आशूरा की घटना को भुला दिया जाए लेकिन कोई भी ऐसा कर नहीं सका।