क़ाफ़ेला लौट कर मदीने आया। मर्दों में केवल इमाम ज़ैनुल आबेदीन बचे थे। आपके अलावा वे ख़वातीन थीं जिन्होंने क़ैद सही और ग़म उठाए। इमाम हुसैन साथ नहीं थे। यहां तक कि नन्हां बच्चा भी अब क़ाफ़िले में नहीं था। अगर यह लोग न गए होते तो सब ज़िंदा होते लेकिन हक़ीक़त फ़ना हो जाती, रूहें ख़त्म हो जातीं, ज़मीर मुर्दा हो जाते, पूरी तारीख़ में अक़्ल व तर्क का वजूद ख़त्म हो जाता और इस्लाम का नाम तक बाक़ी न रहता। आशूरा के वाक़ए के बाद जब इमाम ज़ैनुल आबेदीन मदीना लौटे तो एक शख़्स आपके पास आया और कहने लगा कि हे रसूल के फ़रज़ंद! आप गए तो देखा कि आपके साथ क्या हुआ?! उसकी बात सही थी। क्योंकि जब यह क़ाफ़िला मदीने से गया था तो इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम, अहलेबैते पैग़म्बर के चमकते सूरज, पैग़म्बर के नवासे, रसूले ख़ुदा के प्यारे इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम इसका नेतृत्व कर रहे थे। बिन्ते अली पूरी शान व शौकत के साथ इस क़ाफ़िले में गई थीं। अमीरुल मोमेनीन के फ़रज़ंद, इमाम हुसैन के फ़रज़ंद, इमाम हसन के फ़रज़ंद सब के सब इस क़ाफ़िले में मौजूद थे। लेकिन जब यह क़ाफ़िला लौट कर आया है तो मर्दों में सैयदे सज्जाद के अलावा कोई नहीं है। वे ख़वातीन थीं जिन्होंने क़ैद सही और ग़म उठाए। इमाम हुसैन साथ नहीं थे। अली अकबर मौजूद नहीं थे। यहां तक कि नन्हां बच्चा भी अब क़ाफ़िले में नहीं था। इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम उस शख़्स को जवाब देते हैं कि ज़रा सोचो! अगर हम न गए होते तो क्या होता। बेशक अगर वे न गए होते तो इन पाकीज़ा जिस्मों में अभी जान होती लेकिन हक़ीक़त फ़ना हो जाती, रूहें ख़त्म हो जातीं, ज़मीर मुर्दा हो जाते, पूरी तारीख़ में अक़्ल व तर्क का वजूद ख़त्म हो जाता और इस्लाम का नाम तक बाक़ी न रहता।

इमाम ख़ामेनेई

18 मार्च 2002