बिस्मिल्लाह-अर्रहमान-अर्रहीम

अरबी ख़ुतबे का अनुवादः और सारी तारीफ़ें पूरी सृष्टि के परवरदिगार के लिए हैं, दुरूद व सलाम हो हमारे सरदार हज़रत मोहम्मद और उनकी पाक नस्ल ख़ास तौर पर ज़मीन पर अल्लाह की आख़िरी हुज्जत पर।

पूरे मुल्क से आने वाले और एक बड़ी अहम संवेदनशील संस्था में काम करने वाले सभी प्रिय भाइयों का स्वागत करता हूं।  बहुत ख़ुश हूँ कि अल्लाह की कृपा से कुछ साल बाद, -दो तीन साल- बाद एक बार फिर इस समूह से निकट से मुलाक़ात हो रही है। इस मुलाक़ात को अच्छा शगून मानता हूं। यह बैठक अहलेबैत अलैहिमुस्सलाम से विशेष दिनों, ईदे ग़दीर से मुबाहिला दिवस तक और ‘हल अता’ सूरे तथा ‘विलायत की आयत’ के नाज़िल होने के दिन से जुड़ी है और इसकी बर्कतें इन दिनों और इस हफ़्ते में मौजूद है। मुझे उम्मीद है कि इंशाअल्लाह, परवरदिगार अपने पैग़म्बर और अहलेबैत अलैहिमुस्सलाम के वजूद की बर्कत से हमें उनके रास्ते पर, उनके मार्ग पर चलने की मज़बूती देगा, ताकि इंशाअल्लाह उस रास्ते पर चल सकें।

‘मोबाहेला दिवस’ बहुत अहम दिन है। मुबाहेला दिवस, पैग़म्बरी का भी दिन है और विलायत का भी दिन है।  मोबाहेला की घटना पैग़म्बरी को साबित करने वाली दलील है और इमामत व विलायत को भी साबित करने वाली दलील है। इसलिए इस नज़र से यह दिन बहुत अहम है। हमे उम्मीद है कि इंशाअल्लाह, अल्लाह हमें इस मुबारक रास्ते पर बाक़ी रखेगा।

जनाब अलहाज अली अकबरी साहब (1) का शुक्रगुज़ार हूं, उनकी कोशिशों के लिए भी और जो बातें उन्होंने यहाँ बयान कीं उनके लिए भी। जो बातें यहाँ बयान हुयीं बिल्कुल सही और अच्छी बातें हैं।

मैंने कुछ प्वाइंट्स तैयार किए हैं, नोट किए हैं जिन्हें आप प्रिय लोगों के सामने पेश करुंगा।

एक बात जुमे की नमाज़ की अहमियत के बारे में है कि इमामे जुमा हज़रात को इस अमल की अहमियत पता होनी चाहिए। जब इंसान को एक काम की अहमियत, एक ज़िम्मेदारी की अहमियत पता होती है तो उसे दूसरे कामों से पहले अंजाम देता है, उससे जुड़ी सभी बातों पर ज़्यादा ध्यान देता है। ख़ुद हम भी, दूसरे लोग भी जान लें, नैश्नल प्रसारण संस्था भी और अधिकारी भी लोगों को बताएं कि जुमे की नमाज़ एक मस्जिद में सामूहिक शक्ल में होने वाली सिर्फ़ नमाज़ नहीं, बल्कि एक शहर में होने वाली बहुत बड़ी व अहम घटना है। मैं इसकी कुछ ख़ासियतों के बारे में बताउंगा। सबसे पहले मैं इस बारे में कुछ चीज़ें बयान करूंगा, उसके बाद इस बारे में थोड़ी चर्चा करुंगा कि आज हम जिस शक्ल में जुमे की नमाज़ क़ायम करते हैं और जिस शक्ल में जुमे की नमाज़ क़ायम होनी चाहिए, इन दोनों में कितना अंतर है? क्या कोई अंतर है या नहीं? स्वाभाविक सी बात है कि अंतर ज़रूर है। इस अंतर को किस तरह से भरें, यह बात अहम है। ख़ैर, अल्लाह की कृपा से क़रीब हज़ार या नौ सौ कुछ जगहों पर जुमे की नमाज़ें मुल्क में होती है जो बहुत अच्छी तादाद है, छोटे बड़े शहरों में।  ख़ैर जुमे की इन नमाज़ों के ज़रिए बहुत बड़े काम होने चाहिए! अगर हमारी जुमे की नमाज़-जिस तरह से आज हम अंजाम दे रहे हैं-वही चीज़ हो जैसा जुमे की नमाज़ को बयान किया गया है और जैसी उससे अपेक्षाएं है, तो आज स्थिति को वर्तमान से बेहतर होनी चाहिए। मतलब यह कि फ़र्क़ होना चाहिए। यह भी एक अहम बात है जिसे हम गुफ़तुगू के दौरान बयान करेंगे। हमें कोशिश करनी चाहिए कि यह फ़ासेला भर जाए। सवाल यह है कि यह कोशिश कौन शख़्स करे?  इस कोशिश का एक भाग ख़ुद नमाज़े जुमा के इमाम के ज़िम्मे है; जुमे के इमाम को चाहिए इसकी कोशिश करे।  कुछ हिस्सा सम्मानीय अधिकारियों के ज़िम्मे है जिनके हाथ में तेहरान या दूसरे केन्द्रों में जुमे की नमाज़ की नीति बनाने और उसके संचालन की ज़िम्मेदारी है।

जुमे की नमाज़ की अहमियत को सिर्फ़ एक जुमले में बयान करूंगा, जुमे की नमाज़ अपनी ख़ूबियों के मद्देनज़र ऐसा फ़रीज़ा है जो सौ बिल्कुल बेनज़ीर है। जुमे की नमाज़ जैसी चीज़ हमारे पास नहीं है। हज भी एक विशाल मजमूआ है, लेकिन जब हम जुमे की नमाज़ को गहराई से देखते हैं, जुमे की नमाज़ में छिपी बातों को देखते हैं, तो पाते हैं कि इन ख़ूबियों के सबब यह तो हज से भी ज़्यादा बेमिसाल है। हम इन ख़ूबियों की कुछ मिसालें पेश करेंगे।  आप भी ग़ौर कीजिए, आपको और भी ख़ूबियां नज़र आएंगी। ख़ास तौर पर इसलिए कि आप इस फ़रीज़े को अंजाम देते हैं।

एक ख़ूबी यह है कि पाकीज़ा ज़िंदगी के दो बड़े बुनियादी तत्व जुमे की नमाज़ में एक साथ मौजूद हैं, आपस में जुड़े हुए हैं।  ये दो तत्व क्या हैं? एक अल्लाह का ज़िक्र और दूसरे अवाम का जमा होना।  तो हम उसे (दुनिया) में पाक ज़िन्दगी बसर कराएंगे। (2)  इस पाकीज़ा ज़िन्दगी के कुछ तत्व हैं, लेकिन दो तत्व सबसे ज़्यादा अहम हैं। एक तत्व अल्लाह की ओर ध्यान लगाना, जिसे आत्मज्ञानी, अध्यात्म में ‘यली अर्रब्बी’ कहते हैं (3) जिसमें इंसान के वजूद के रूहानी व हक़ीक़ी पहलू तथा सभी आध्यात्मिक पहलू शामिल हैं। दूसरा अवाम का एकत्रित होना, उनका इकट्ठा होना। ये दोनों चीज़ें जुमे की नमाज़ में मौजूद हैं। अलबत्ता दूसरे फ़रीज़ों में, कुछ फ़रीज़े ऐसे हैं, लेकिन जब हम सारी ख़ूबियों को जोड़ते हैं, तो जुमे की नमाज़ बेहद ख़ास नज़र आती है। ख़ैर हमने बताया कि जुमे की नमाज़ में ये दो ख़ूबियां एक साथ हैं। ‘हे ईमान लाने वालो भी है और ‘अल्लाह को याद करने के लिए जल्दी करो भी है (4) यह, सलात यानी नमाज़ भी है, जुमुआ यानी इजतेमा भी है। सलात,  अल्लाह का ख़ालिस ज़िक्र है, जोमोआ भी है जिसका मतलब अवाम का इकट्ठा होना है। यह उसकी एक ख़ूबी और शायद जुमे की नमाज़ की दूसरों से अलग करने वाली बड़ी ख़ूबी है।

दूसरे यह कि सामूहिक तौर पर अल्लाह के ज़िक्र की बर्कतें और असर सामूहिक तौर पर सब पर नाज़िल होता है। अल्लाह के ज़िक्र का असर है जिसकी ओर क़ुरआन में इशारा किया गया हैः याद रखो अल्लाह के ज़िक्र से ही दिलों को इत्मेनान नसीब होता है (5) यह चीज़ जुमे की नमाज़ में बढ़ जाती है, जब सब मिल कर अल्लाह को याद करते हैं। मैंने कभी इस आयत के संबंध में “और सब मिल कर अल्लाह की रस्सी को मज़बूती से थाम लो” (6)  कहा था कि अल्लाह की रस्सी को थामना भी सामूहिक शक्ल में होना चाहिए, सब मिल कर अल्लाह की रस्सी को थाम लें।  इस्लाम में सभा का यह अंदाज़ हैरत में डालने वाला है। ख़ुद सभा और अवाम का हाज़िर होना बहुत अहम चीज़ है, आपको इस बारे में संवेदनशील होना चाहिए। मिसाल के तौर पर अगर इस हफ़्ते की जुमे की नमाज़ में लोगों की तादाद, एक महीना पहले की आपकी जुमे की नमाज़ की तुलना में कम है, तो आपको फ़िक्रमंद होना चाहिए। अस्ल चीज़ आम लोगों का हाज़िर होना है। जब सबने मिल कर अल्लाह को याद किया तो उसकी बर्कतें और असर सब पर, सभा पर नाज़िल होता है। कुरआन मजीद में आया हैः यह याददेहानी ईमान वालों को फ़ायदा पहुंचाती है। (7) यह फ़ायदा सबको पहुंचता है। जी हां, आप अकेले में, कमरे में नमाज़े शब पढ़ते हैं, उसकी वजह से भी अल्लाह आपको फ़ायदा पहुंचाता है, लेकिन यहाँ पर यह फ़ायदा सबको है, पूरे समूह को फ़ायदा पहुंचता है। या पस तुम मुझे याद रखो मैं तुम्हें याद रखुंगा (8) अज़कुरोकुम, यह अल्लाह की ख़ास मेहरबानी है, जो ज़िक्र का नतीजा है; यहाँ पर ज़िक्र सामूहिक शक्ल में है, तो उस मेहरबानी का भी पूरे समूह से संबंध है। या अल्लाह को बहुत याद करो ताकि तुम कामयाब हो जाओ (9) और भी अनेक आयतें हैं क़ुरआन में। मैं इस वक़्त सिर्फ़ इतनी ही आयतें नोट कर सका। अभी कुछ आयतें मुझे याद आयीं और मैंने उन्हें लिख लिया; अगर आप देखें तो अल्लाह के ज़िक्र की बर्कतों के बारे में बहुत सी आयतें हैं। यह सामूहिक रूप से अल्लाह को याद करने और उसकी बर्कत के बारे में कुछ बातें हैं।

दूसरी ख़ूबी इस काम को लगातार अंजाम देने की है।  हर हफ़्ते की सभा। हज उम्र में एक बार होता है –यह बात सही है ना- लेकिन यह सभा हर हफ़्ते होती है।  यह बहुत अहम है। जहाँ तक मुझे याद है, थोड़ी बहुत जो मैंने रिसर्च की, किसी भी धर्म में, कहीं भी, हर हफ़्ते रूहानी सभा (10) नहीं होती कि एक शहर के लोग या एक शहर के अवाम की बड़ी तादाद, हर हफ़्ते एक जगह एक केन्द्र में इकट्ठा हो, एक दूसरे से मिले, उस सभा की विषयवस्तु क्या हो, यह बाद का विषय है, यह अपने आम में बहुत अहम ख़ूबी है। यहाँ पर इस नज़र से हज पर इसका महत्व नज़र आता है। लगातार, निरंतर इस हफ़्ते, अगले हफ़्ते, फिर अगले हफ़्ते, फिर अगले हफ़्ते आख़िर तक। इसकी मिसाल दुआए कुमैल में नज़र आती है जब हम पढ़ते हैं “यहाँ तक कि हमारा सारा कर्म और बातें एक हो जाएं और मैं सतत तेरी सेवा में रहूं” (11) लगातार; ऐसा न हो कि मैं एक दिन रहूं और एक दिन न रहूं; ऐसा न हो कि मैं एक जगह तेरी सेवा में रहूं और एक जगह न रहूं। नियमित रूप से तेरी सेवा में रहूं। यह साप्ताहिक सभा इस तरह की है। इससे निरंतर सेवा का तसव्वुर पूरा होता है।

ख़ैर जब ऐसी सभा मौजूद है कि हर हफ़्ते एक शहर के अवाम बड़ी तादाद में एक तयशुदा जगह पर इकट्ठा होते हैं, तो इसे एक समाज के अहम मुद्दों पर चर्चा की जगह और ठिकाना होना चाहिए। जब यह तय है कि सब इकट्ठा हों, लोगों के मन में कोई चीज़ आती है, कोई बात आती है, समाज को किसी चीज़ की ज़रूरत है, कोई घटना हुयी है; वैचारिक मामलों से लेकर सामाजिक सेवा, अवामी सतह पर सहयोग से लेकर आत्म रक्षा की तैयारी तक, सभी चीज़ें एक के बाद एक हर हफ़्ते होने वाली इस सभा में व्यवहारिक होती हैं, वजूद पाती है; यानी वजूद पा सकती है। यह गुंजाइश इस अमल में मौजूद है। इसलिए यह बहुत बड़ा ख़ज़ाना है, हमारे और आपके हाथ में मौजूद बहुत अच्छा मौक़ा है।

जुमे की नमाज़ की एक और ख़ूबी दीन के साथ सियासत का तालमेल है। ऐसी चीज़ है जो दुनिया वालों और ऐसे लोगों के लिए तसव्वुर से दूर है (12) जो तथ्यों पर ग़ौर व फ़िक्र नहीं करते। कहाँ राजनीति और कहाँ अध्यात्म और अल्लाह पर ईमान? राजनीति के ऐसे ताने बाने हैं जो ज़ाहिरी तौर पर अल्लाह की ओर ध्यान और इस तरह की चीज़ों से अलग या मुख़ालिफ़ हैं। इस स्थिति में राजनीति और अध्यात्म को एक फ़रीज़े में एक दूसरे से जोड़ देना, यह इस्लाम की कला है, यह इस्लाम का हुनर है। इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम की उस रवायत में आया है कि जुमे का भाषण देने वाला (13) लोगों को बताए कि आस-पास क्या हो रहा है, कौन सी चीज़ उनके फ़ायदे और नुक़सान में है। हाएल का मतलब कोई बड़ा अहम मामला; ऐसे मामले जो दुनिया में हो रहे हैं जिसका हमारे समाज से संबंध (14) है या नुक़सान के तौर पर या फ़ायदे के तौर पर, जुमे का ख़ुतबा देने वाला इन सब बातों को लोगों से बयान करता है। मिसाल के तौर पर परमाणु मामला, मान लीजिए युक्रेन जंग-एक मुद्दा है, जो दुनिया में चल रहा है- या पूरब और पश्चिम की राजनीति से जुड़े अनेक मुद्दे, ये वे चीज़ें है जिनका हमारे देश, हमारे समाज, हमारी ज़िन्दगी और हमारी राजनीति से संबंध है, जुमे का ख़तीब लोगों को इस बारे में बताता है, व्याख्या करता है, बयान करता है, ठीक तरीक़े से, सही और काफ़ी सूचनाओं के साथ। यानी राजनीति को अध्यात्म से जोड़ता है, तक़वा अर्थात अल्लाह से डरने के लिए भी कहता है-जुमे के ख़ुतबे में अल्लाह से डरने का हुक्म दिया जाना चाहिए- साथ ही राजनीति को भी बताता है, यह राजनीति इस तरह की है, अंतर्राष्ट्रीय राजनीति, दूसरे राजनैतिक मामलों को संक्षेप में लोगों को बताता है। यह भी इसकी ख़ूबियों में शामिल है। जैसा कि हमने कहा, दूसरी ख़ूबियां भी हैं जिनके बारे में संक्षेप में बताउंगा।

इन ख़ूबियों के संग्रह को जब हम देखते हैं तो इस नतीजे पर पहुंचते हैं कि इस्लामी व्यवस्था की सॉफ़्ट पावर की जंजीर में जुमे की नमाज़ बहुत अहम कड़ी है, चूंकि आज मुश्किलों को हल करने वाली कारगर साबित होने वाली चीज़ सॉफ़्ट पावर है। हार्ड पॉवर, गोली-बंदूक़ और इन जैसी चीज़ें, दूसरे नंबर पर आ गयी हैं, सॉफ्ट पावर का दिल, मन और आत्मा पर असर होता है, यह बहुत अहम है। अलबत्ता हमारी सॉफ़्ट पावर की जंजीर बहुत लंबी है; जुमे की नमाज़ सॉफ़्ट पावर की इस ज़ंजीर की सबसे अहम कड़ियों में गिनी जाती है। जब हम इन ख़ूबियों पर ध्यान देते हैं तो इसी नतीजे पर पहुंचते हैं।

ख़ैर सवाल यह है कि क्या हम इस्लामी गणराज्य में जुमे की नमाज़ को उसके इतने ऊंचे स्थान पर पहुंचा सके या नहीं? मेरे ख़्याल में कुछ कमियां रह गई है। ख़ुद मैं भी -आप जानते हैं कि इस काम में मैं भी आपका सहकर्मी हूं- इस संबंध में हम सबसे कमियां हुयी हैं। हिम्मत कीजिए, हम सब हिम्मत करें, इन कमियों को दूर करें। जैसा कि हमने कहा कि कुछ ज़िम्मेदारी ख़ुद जुमे के इमाम के कांधे पर है, कुछ जुमे की नमाज़ का आयोजन करने वाले केन्द्रों के अधिकारियों के ज़िम्मे है, हमें इस पर ध्यान देना चाहिए।

हमने जुमे के इमाम के बारे में कहा कि “कुछ ज़िम्मेदारियां ख़ुद जुमे के इमाम के कांधे पर हैं, कुछ का संबंध जुमे के इमाम के स्वभाव और अख़लाक़ से है।  कुछ बातें जिनका पालन हो ताकि जुमे की नमाज़ अपने सही मक़ाम तक पहुंचे, इनका संबंध जुमे के इमाम के तौर-तरीक़े और उनकी जीवन शैली से है। मैं इसमें से दो तीन बातों के बारे में गुफ़तुगू करुंगा। कुछ बातों का संबंध ख़ुतबे से है, इसका स्वभाव, जीवनशैली वग़ैरा से कोई तअल्लुक़ नहीं है, ख़ुतबा ऐसा हो कि जुमे की नमाज़ को उसकी सही दिशा में ले जाए।

इमामे जुमा के अंदाज़ और तौर तरीक़े के बारे में कुछ बातें। प्यारे भाइयो!  इमामे जुमा हर जुमे को अपने बयान से लोगों को अल्लाह से डरने की दावत देता है। मेरी गुज़ारिश यह है कि शनिवार, रविवार, सोमवार, मंगलावर, बुधवार और गुरुवार को वह लोगों को अपने अमल से तक़वा की दावत दे। वरना अगर जुमे के दिन हमने तक़वा का उपदेश दिया लेकिन शनिवार को हमने ऐसा काम किया जो तक़वा के ख़िलाफ़ है, तो इससे सब कुछ बेकार हो जाता है; अर्थात न सिर्फ़ यह कि हमारा बयान बेअसर हो जाता है, बल्कि उलटा असर होता है, सुनने वाला मुख़ालेफ़त के लिए तैयार हो जाता है कि ये लोग क्या कह रहे हैं? सबसे कम प्रतिक्रिया जो मुमिकन है इस पर दिखाई जाए वह यह है कि फिर वह व्यक्ति नमाज़ के लिए न आए; यह सबसे कम प्रतिक्रिया है जो वह कर सकता है, इससे आगे भी जा सकता है। इसलिए यह बात बहुत अहम है। तक़वा का हुक्म देने वाला ख़ुद तक़वा का पालन करने की कोशिश में लगा रहे। मैंने क़ुरआन की आयतों और शब्दों की डिक्शनरी में देखा -अफ़सोस कि अब मेरे पास इन कामों के लिए हौसला नहीं रह गया, पहले बहुत ज़्यादा बारीकी से इन कामों को अंजाम देता था, अब मेरे पास वक़्त नहीं है, एक नज़र डाली- मैंने देखा कि क़ुरआन में क़रीब साठ बार “इत्तक़ू” अर्थात अल्लाह से डरो शब्द आया है। क़रीब साठ बार अल्लाह हमसे और आपसे कहता है “इत्तक़ू” लेकिन इन साठ में से दो जगह बहुत ही दिल दहलाने वाला अंदाज़ है। एक जगह आले इमरान सूरे में अल्लाह कह रहा है, “इत्तक़ुल्लाहा हक़्क़ा तुक़ातेह” अर्थात अल्लाह से इस तरह डरो जिस तरह डरने का हक़ है। (15) तक़वा अपनाइये, जिस तरह तक़वा अपनाना चाहिए। यह बहुत बड़ा काम है। एक और जगह तग़ाबुन सूरे में अल्लाह फ़रमा रहा है “फ़त्तक़ुल्लाहा मस्ततातुम” अर्थात अल्लाह की नाफ़रमानी से बचो, यहाँ पर मस्ततातुम का मतलब यह नहीं है कि जितना हो सके। नहीं! बल्कि यह मतलब है कि जहां तक मुमकिन हो इस काम के लिए पूरी कोशिश करो, तक़वा के लिए अपनी सारी ताक़त लगा दो। ख़ैर ये सब हम जानते हैं, अल्लाह, इंशाअल्लाह हमारे ज़ेहन को तैयार करे, नर्म करे ताकि हम इन चीज़ों पर अमल कर सकें। “फ़त्तक़ुल लाहा मस्ततातुम। तो इस तरह यह पहला बिन्दु हैः हम जुमे की नमाज़ के ख़ुतबे में तक़वे का हुक्म देते हैं, तो हमें ख़ुद तक़वा अपनाने के लिए सबसे ज़्यादा कोशिश करनी चाहिए, जितना मुमकिन हो; जिन चीज़ों के बारे में शक हो उनसे भी बचें। क़ुरआन के इस हुक्म पर अमल करें, अपने आपको इच्छाओं से रोका होगा। (17) इस तरह की बातें बार बार बयान की गई हैं। यह एक ख़ूबी है जिसके बारे में मेरा मानना है कि हम जुमे के इमामों के फ़रीज़े में शामिल है।

दूसरी चीज़ यह है कि सभी के साथ बाप की तरह शफ़क़त का बर्ताव कीजिए। जुमे की नमाज़ में हर तरह के लोग शामिल होते हैं; सभी के साथ बाप की तरह शफ़क़त का सुलूक कीजिए, सब आपके बेटे की तरह हैं। जी हाँ मुमकिन है आप किसी इंक़ेलाबी जवान, मुजाहिद जवान से ज़्यादा लगाव रखते हों -सही भी है, कोई बुराई नहीं है- लेकिन जो ऐसा नहीं है वह भी आपका बेटा है, वह भी आपकी संतान है, सभी के साथ। एक शख़्स मुमकिन है अपने घर में एक वक़्त अपनी किसी एक औलाद से किसी भी वजह से ज़्यादा लगाव रखता है, लेकिन दूसरे बच्चों के सिलसिले में बाप की मोहब्बत कम नहीं होनी चाहिए। सभी के साथ बाप जैसा रवैया, वे सभी आपकी औलाद हैं। तेहरान  में ग़दीर का यह जश्न (18) बहुती ही हैरतअंगेज़ था! मालूम नहीं आपने देखा या नहीं; मैंने टीवी पर देखा, कुछ लोगों ने जो गए थे, आकर हमसे बयान किया। आपने देखा कि लाखों लोगों के इस जश्न में हर तरह के लोग शामिल हुए। ये धर्म के समर्थक हैं, ये धर्म को पसंद करते हैं। मैंने एक बार किसी प्रांत के दौरे पर उस प्रांत के सम्मानीय धर्मगुरुओं के साथ एक बैठक में उनसे कहा, मैंने कहा कि आज या कल जब मैं आ रहा था, मेरी कार के आस पास उन लोगों में जो मोहब्बत का इज़हार कर रहे थे, उनमें से कुछ रो रहे थे –समूह के रूप में आते हैं और मोहब्बत का इज़हार करते हैं- उनमें ऐसे लोग भी थे कि अगर मिसाल के तौर पर आपका उनसे सामना हो तो मुमकिन है आप उनके बारे में यह सोचें कि उन्हें धर्म से कोई लगाव नहीं होगा, लेकिन ऐसा नहीं है, दीन पर उनका अक़ीदा है। इस बारे में बहुत सी बातें हैं और कह भी चुका हूं; अब इस वक़्त उसे कहने का मौक़ा नहीं है। सभी के साथ बाप जैसी मोहब्बत अपनाइये; सभी को धर्म, अध्यात्म और शरीअत के दस्तरख़ान पर बिठाइये; यह भी एक ज़रूरी बात थी।

एक और बात जुमे के इमाम के बर्ताव के बारे में, आम लोगों से मिलने जुलने की है। आम लोगों से मिलना जुलना क्या है? यह कि आप आम लोगों की तरह अवाम में जाएं, उनसे बातचीत करें, लोगों से दूरी न बनाएं, सिर्फ़ किसी ख़ास समूह के साथ उठना बैठना न रखें, कभी ज़रूरी हो तो लोगों के घर जाइये, उनकी छत के नीचे, फ़र्श पर बैठिए, उनसे हाल चाल पूछिए। आम लोगों के बीच सिर्फ़ यह जाना, अपने आप में अहम काम है। कुछ लोग, अधिकारियों की आम लोगों से क़ीमती मुलाक़ात के बारे में ग़ैर मुनासिब टिप्पणी करते हैं, यह ग़लत बात है, यह हक़ीक़त में सही रास्ते से गुमराह होने के समान है। आम लोगों के बीच जाना, अवाम से बात करना, उनकी बातों को सुनना, अहमियत रखता है। मुमकिन है कि जो बात वह कह रहा हो, आपको पसंद न हो; लेकिन सुनिए। इसमें कोई बुराई नहीं है कि बाद में आप कहें कि मुझे आपकी बात पसंद नहीं है; कोई मुश्किल नहीं है, लेकिन उसे कहने दीजिए। आम लोगों से मिलना जुलना भी एक विषय है। बेशक लोग इमामे जुमा से उन चीज़ों की भी अपेक्षा रखते हैं, जिसकी ज़िम्मेदारी इमामे जुमा पर नहीं है, उसके लिए कोई सरकारी तंत्र ज़िम्मेदार है, कोई न्यायिक तंत्र ज़िम्मेदार है; उस जगह जाने के बजाए, इमामे जुमा से कहते हैं जो उनके पास होता है; अलबत्ता ऐसा है, मैं जानता हूं, मैं भी रह चुका है, मैंने देखा है, इमामे जुमा के लिए मुश्किल पैदा हो जाती है, लेकिन अवाम से यह कहना चाहिए कि ये हमारा काम नहीं है, मिसाल के तौर पर इसके लिए ख़ास अधिकारी हैं; लेकिन अगर इसके बावजूद लोग मिलें तो उनकी बात सुनिए। यह बात भी मैं ज़रूर कहूंगा कि जुमे की इमामत का नेटवर्क क्रांति की उन संस्थाओं में है जिसका अवाम से सबसे क़रीबी संबंध रहा है; यह भी पता होना चाहिए। अर्थात कभी इंसान इंक़ेलाबी संस्थाओं के समूह को देखता है-जिसकी अल्लाह की मेहरबानी से बर्कतें ज़्यादा है- आम लोगों से सबसे ज़्यादा संपर्क में रहने वाले नेटवर्कों में जुमे के इमामों का नेटवर्क है।

एक और सिफ़ारिश जो बहुत अहम है, जवान नस्ल से संपर्क का विषय है। इस काम के लिए कोई मेकैनिज़्म बनाइये; अर्थात जवान नस्ल के साथ इस तरह का रवैया नहीं हो सकता कि आप कहें जवानों से आइये, वह उठें और आ जाएं! सोचिए, कोई हल निकालिए, कोई तंत्र बनाइये। आज पूरे मुल्क में ऐसे समूह हैं जो गुमनामी में, बहुत कर्म ख़र्च पर, ख़ुद बख़ुद निःस्वार्थ सांस्कृतिक काम कर रहे हैं, सामाजिक काम कर रहे हैं, सेवा दे रहे हैं, पूरे मुल्क में हैं। मुझे चूंकि इन टीमों से लगाव है -कभी संपर्क करते हैं, कुछ बताते हैं, कुछ चाहते हैं- मैं जानता हूं कि पूरे मुल्क में क़रीब हर शहर में, छोटे बड़े शहरों में, इस तरह की टीमें हैं। अपने अपने शहर में ढूंढिए, उनकी मदद कीजिए, उनके साथ मोहब्बत से पेश आइये। ये जवानों का समूह है। यूनिवर्सिटी के जवान स्टूडेंट्स, मदरसे के स्टूडेंट्स -आज हमारे सभी शहरों में, यूनिवर्सिटी भी है और धार्मिक मदरसा भी है; ये सब जवान हैं- इन जवानों से मिलिए, बात कीजिए, उनके बीच जाइये, उनके मदरसे जाइये, उनकी यूनिवर्सिटी में, उनसे बात कीजिए, उन्हें दावत दीजिए। अर्थात जवानों के साथ संपर्क ख़ुद इमामे जुमा के लिए फ़ायदेमंद है। इसका रूहानी फ़ायदा है। चूंकि नई नस्लें स्वाभाविक रूप से नई ज़बान, नई सोच और नए साहित्य को आम तौर पर वजूद देती हैं- यह स्वाभाविक प्रक्रिया है- जवानों की इस नई कोशिश से दूरी न होने पाए। जब आप उनके बीच जाएंगे, उनसे लगाव पैदा होगा, उनकी जबान, उनकी बोलचाल, उनकी टर्मिनॉलोजी से ज़्यादा परिचित होंगे, इससे आपको उनके साथ संपर्क बनाने में बहुत मदद मिलेगी। ख़ास तौर पर स्वंयसेवी समूहों से, इन अच्छे बच्चों से, जो सभी प्रांतों और सभी शहरों में हैं, मिलते रहिए।  

मेरी एक सिफ़ारिश यह भी है कि लोगों की तरफ़ से किये जाने वाले सोशल कामों में हिस्सा लिया जाए। वैसे कुछ इमामे जुमा हज़रात ने इस मैदान में बहुत अच्छा काम कया है। भूकंप में, बाढ़ में, कोरोना में, चंदा जमा करने में, अवामी सतह पर मदद का सामान जमा करने में इमामे जुमा हज़रात मैदान में उतरे हैं और बहुत कुछ किया है। यह भी वह काम हैं जो हमारी नज़र में काफ़ी क़ाबिले तारीफ़ हैं। समाज के महरूम तबक़ात और कमज़ोर वर्गों की मदद, आप लोगों के लिए ज़रूरी काम होना चाहिए यानी हम इन्साफ़ के हामी हैं और इन्साफ़ का झंडा उठाते हैं, लेकिन समाज के कमज़ोर लोगों की मदद और उनकी मुश्किलों को ध्यान में रखे बिना, इन्साफ़ का कोई मतलब ही नहीं। अगर आप अपने दायरे और इलाक़े में कमज़ोर लोगों की मदद कर सकें तो यह बहुत अच्छा काम होगा।

एक और बात, नमाज़े जुमा की आयोजक कमेटियों की निगरानी की है। यक़ीनी तौर पर मैं इन कमेटियों का शुक्रगुज़ार हूं, पूरे मुल्क में फैली जुमे की नमाज़ की कमेटियां बहुत काम करती हैं, बहुत मेहनत करती हैं, बहुत कोशिश करती हैं, इनका साथ दें और उनकी मेहनतों पर ध्यान दें, उनके कामों पर नज़र रखें और उनके कामों की दुरुस्तगी का इत्मीनान हासिल करें। यक़ीनी तौर पर वह अच्छे हैं, इन कमीशनों में काम करने वाले लोग बहुत अच्छे हैं, ईमान दार हैं लेकिन बहरहाल कहीं भी यह हो सकता है कि कुछ चीज़ें बारीकी से अंदर आ जाएं इसलिए ध्यान रखना ज़रूरी है।

एक और बात है जो मैं पहले भी बार बार कह चुका हूं और वह यह है कि आप, काम धंधे के चक्कर में न पड़ें, यह सोचना बिल्कुल सही नहीं कि चूंकि जुमा की नमाज़ के लिए पैसों की ज़रूरत होती है और हमारे पास आमदनी का कोई रास्ता नहीं होता इस लिए मिसाल के तौर पर फ़ुलां चीज़ की तेजारत करना चाहिए! जी नहीं! यह सही सोच नहीं है। कुछ इमामे जुमा हज़रात ने बिज़नेस शुरु भी किया लेकिन चूंकि जानकारी नहीं थी इस लिए नाकाम हो गये, दूसरों ने ग़लत फ़ायदा उठाया और उसका नुक़सान हुकूमत को उठाना पड़ा। कुछ इमाम जुमा अब भी यह काम कर रहे हैं! किसी भी सूरत में बिज़नेस में न उतरें। दीनी उलेमा के ख़र्चे की ज़िम्मेदारी अवाम की है। जनाब! कुछ लोगों को यह कहते हुए शर्म आती है कि दीनी मदरसों का ख़र्चा, पब्लिक उठाती  है! यह शर्म की बात नहीं है! यह फ़ख़्र की बात है! इसका यह मतलब है कि दीनी उलमा को हुकूमतों और बड़ी ताक़तों की ज़रूरत नहीं होती। यह बहुत बड़ी ख़ूबी है, इसी वजह से उलमा बड़ी आसानी से अवाम के साथ खड़े हो जाते हैं। आप ग़ौर करें, अलग-अलग मौक़ों पर, दीनी मदरसे, पब्लिक के साथ खड़े नज़र आए हैं, सरकारों और ताक़तों के सामने खड़े होने में उन्हें कोई परेशानी नहीं हुई। अगर दीनी उलमा में कुछ लोग इस तरह के थे कि वह किसी वक़्फ़ या किसी और इदारे की वजह से सरकार से जुड़े थे तो वह अवाम के साथ नहीं खड़े हो पाए, पीछे रह गये। जी नहीं, हमारी रोज़ी रोटी तो अवाम से चलती है, कोई बुराई भी नहीं है इसमें। जुमे की नमाज़ भी इसी तरह है, लोगों को मदद करना चाहिए और लोग मदद करते भी हैं। जब आप बिज़नेस करते हैं या दुकान चलाने लगते हैं या इस तरह के दूसरे काम करने लगते हैं, तो लोग कहते हैं कि अच्छी बात है इन लोगों के पास तो दौलत है, तो फिर न सिर्फ़ यह कि वह मदद नहीं करते बल्कि आप से मदद की उम्मीद भी रखते हैं। तो यह इमामे जुमा के तौर तरीक़े और रहन-सहन के बारे में कुछ बातें थीं।

अब जुमा के ख़ुत्बों के बारे में भी कुछ बातें कहना चाहता हूं। सब से पहली बात तो यह है कि यह ध्यान रहे कि जुमा की नमाज़ का ख़ुत्बा और इमामे जुमा, इन्क़ेलाब का प्रवक्ता है, इसमें कोई दो राय नहीं! किसी को इमामे जुमा से इसके अलावा और कुछ उम्मीद नहीं रखना चाहिए। वह इस्लामी इन्क़ेलाब का प्रवक्ता और तरजुमान है, वह इन्क़ेलाब के बुनियादी उसूलों को बयान करता है, इन्क़ेलाब की अपेक्षाओं को खुलकर बयान करने वाला है, इन्क़ेलाब की संपत्ति है। हमेशा से यही रहा है, हमारी पूरी तारीख़ में यही रहा है। नमाज़े जुमा के इमाम का हुनर यह है कि वह दीनी और इन्क़ेलाबी उसूलों को मौजूदा ज़रूरतों के हिसाब से ढाल कर लोगों के सामने बयान कर सके। इन्क़ेलाब के बहुत से ऐसे उसूल हैं जिनका कभी हम नारा लगाते थे, उसके लिए कोशिश भी करते थे और करना भी चाह रहे हैं लेकिन आज उन्ही उसूलों को नयी ज़बान और आज के हिसाब से बयान करने की ज़रूरत है। इमामे जुमा का कमाल यह है कि वह इन्साफ़, आज़ादी, कमज़ोरों की मदद, दीन की पाबंदी जैसे मुद्दों को जो इस्लामी इन्क़ेलाब के बुनियादी उसूल हैं, नयी शक्ल में बयान करे और आज के नौजवानों की ज़बान में उसे बयान करे और इन्क़ेलाब का तरजुमान बने।

ख़ुत्बे में गहराई होना चाहिए, उससे लोगों को सीख मिलना चाहिए और उस में लोगों के सवालों का जवाब होना चाहिए। ऐसे बहुत से सवाल होते हैं जिनके जवाब आप सवाल का ज़िक्र किये बिना ही दे सकते हैं। इस तरह के बहुत से सवाल आम लोगों के दिमाग़ में होते हैं।

ख़ुत्बे के अंदाज़ में गर्मजोशी होना चाहिए, लोगों के दिल से क़रीब और इत्तेहाद व उम्मीद पैदा करने वाला होना चाहिए, आप के ख़ुत्बे से लोगों के दिलों में उम्मीद पैदा होना चाहिए। आप अपने ख़ुत्बे में जो भी बोलते हैं उसमें इस आयत की झलक हो सकती है कि “वही है जिसने मोमिनों में दिलों में सुकून उतारा है ताकि उनका ईमान और बढ़ जाए।“ (19) इसी तरह उसमें फ़िक्र, परेशानी और बेचैनी भी हो सकती है, फ़िक्र करना बुरी बात नहीं है लेकिन उसमें परेशानी, बेचैनी और हालात के बारे में बुरे ख़यालात, फ़्यूचर के बारे  में मायूसी जैसी बातें हो सकती हैं, दोनों तरह से बात की जा सकती है। लेकिन होना यह चाहिए कि आप के ख़ुत्बों से लोगों में उम्मीद पैदा हो, लोगों में सूझबूझ बढ़े। हंगामा पैदा करने वाली बातें भी हो सकती हैं, हो सकता है कि हम लोग कुछ ऐसा बोल दें कि आप के दुश्मनों को बहाना मिल जाए और वह उसे इस्तेमाल करके आप के ख़िलाफ़ बातें करें, इसी लिए इस तरह की बातों से बचना चाहिए।

ख़ुत्बे में एक बात यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि वह दुश्मनों की तरफ़ से शक पैदा करने की लगातार कोशिशों को नाकाम बनाए। देखें, मैंने कहा कि आज के दौर में जंग का मैदान, सॉफ़्ट पॉवर के ज़रिए सर किया जाता है और दुश्मन का सॉफ़्ट पॉवर शक पैदा करना है। शक पैदा करने का क्या मतलब है? यानी यह कि हमारी जो क़ौम है वह आगे बढ़ी और उसने पूरी अक़ीदत और मज़बूत ईमान के साथ, इन्क़ेलाब का साथ दिया, डट गयी, अपनी जान क़ुरबान कर दी, मेहनत की, परेशानियां उठायीं और इन्क़ेलाब को कामयाब किया। फिर आठ बरसों तक एक थोपी गयी जंग में डटी रही उसके बाद आज तक की जाने वाली सभी साज़िशों का उसने मुक़ाबला किया। जहां ज़रूरी हुआ मैदान में उतरी, हमारे लोग इस तरह के हैं, तो फिर अगर दुश्मन इस मज़बूत क़िले को ख़त्म करना या उस में सेंध लगाना चाहेगा तो उसे क्या करना होगा? उसे इस ईमान को कमज़ोर करना होगा, उसे लोगों के ईमान पर हमला करना होगा और यह काम शक पैदा करके होगा। शक पैदा करने के इस हथियार को कम नहीं समझना चाहिए। बहुत से ऐसे लोग गुज़रे हैं जो तलवार और भालों के सामने डटे रहे लेकिन शक व शुबहे के सामने गिर गये, खड़े नहीं रह सके, हमने इस तरह के लोगों को देखा है। जंग के मैदान में पूरी ताक़त से डटे रहे, बहादुरी के साथ दुश्मन का मुक़ाबला किया लेकिन उनके दिल में एक शक पैदा हुआ जिसका जवाब वह तलाश नहीं कर पाए तो हार गये, शक इस तरह का होता है। इस तरह से शक पैदा करने का मक़सद भी यह है कि जनता और क़ौम को जो, मुल्क के अस्ली सिपाही हैं और उनके ईमान को जो मुल्क और इस सिस्टम की हिफ़ाज़त की अस्ली ताक़त है, कमज़ोर कर दिया जाए। ज़ाहिर है यह सब कुछ दुश्मनी की वजह से है। यानी इस्लामी जुम्हूरिया ईरान ने वेस्ट के सामने बहुत बड़ा काम किया है। यह बातें उन बातों में हैं जो कभी कभी कही जाती हैं और दोहराई जाती हैं जिसकी वजह से उनमें दिलचस्पी कम हो जाती है। यानी उस बात के सही अर्थों पर ग़ौर नहीं किया जाता। कभी अच्छी तरह से नहीं कही जातीं। लेकिन यह एक अजीब तरह की सच्चाई है और वह यह है कि इस्लामी जुम्हूरिया ईरान ने दो तीन सौ साल के वेस्ट के दावे को अपने वजूद से ग़लत साबित कर दिया है। वेस्टर्न कल्चर और सभ्यता की सब से अहम पहचान, दीन और तरक़्क़ी को एक दूसरे से अलग ज़ाहिर करना है। यह सब से अहम है। अगर आप को तरक़्क़ी करना है तो दीन छोड़ना होगा, अब कोई निजी तौर पर कुछ अक़ीदा रखता हो तो कोई बात नहीं लेकिन अगर आप को तरक़्क़ी करना है तो दीन को ज़िंदगी के मामलों में न घुसाएं। यह पश्चिमी सभ्यता की सब से अहम बात है। इस्लामी जुम्हूरिया ने इसी दावे को निशाना बनाया और उसका निशाना बिल्कुल सही रहा।

इस्लामी जुम्हूरी व्यवस्था, दीन के नारे के साथ मैदान में उतरी जिसके बाद वह न सिर्फ़ यह कि ख़ुद की हिफ़ाज़त में कामयाब रही बल्कि आगे भी बढ़ी और इस सोच को फैलाने में और इसकी जड़ें मज़बूत करने में कामयाब रही। “ क्या तुम ने नहीं देखा कि अल्लाह ने कैसे अच्छी बात की मिसाल पाकीज़ा पेड़ से दी है। (20) यही जो आयत पढ़ी है उसमें भी यही है। इस्लामी जुम्हरिया ने अपने वजूद से वेस्टर्न कल्चर की अस्ली पहचान को निशाना बनाया और उसे ग़लत साबित कर दिया। तो ज़ाहिर सी बात है, उन्हें ग़ुस्सा है, यह लोग ग़ुस्से में हैं। सच्चाई यह है कि वेस्ट की ताक़तें, एक माफ़िया की तरह हैं जिनकी अगुवाई, ज़ायोनियों, बड़े यहूदी ताजिरों और उनसे जुड़े नेताओं के हाथों में है, अमरीका उनका शोकेस है और यह लोग हर जगह फैले हुए हैं। वेस्टर्न पॉवर यह है, उसे यह चीज़ तो बर्दाश्त नहीं है। वह हर दिन यही सोचते हैं कि क्या किया जाए किस तरह से इस्लामी जुम्हूरिया को चोट पहुंचायी जाए।

मैं एक मिसाल देता हूं जिस पर आजकल बहुत बात की जाती है। इस्लामी सोसायटी में औरतों का मसला। यक़ीनी तौर पर इन्क़ेलाब की शुरुआत से ही वह औरतों का विषय पेश करते थे, बड़े बड़े दावे करते थे कि वह ईरानी औरतों की मदद करना चाहते हैं और इसी तरह के और दावे करते थे। इस बार भी उन्होंने पर्दे और इस तरह की चीज़ों के बहाने औरतों का मुद्दा उठाया है और बार बार नाकाम होने वाली अपनी कोशिशों को फिर से दोहरा रहे हैं। कुछ बरस पहले की बात है कि कुछ लोगों के बीच किसी ने मुझ से पूछ कि आप औरतों के मामले में वेस्ट के सामने अपना किस तरह से बचाव करेगें? मैंने कहा मैं बचाव नहीं करुंगा, मैं हमला करुंगा! बचाव तो उन्हें करना चाहिए, उन्हें जवाब देना चाहिए।  औरतों को सामान बना दिया है। बचाव, मैं बचाव नहीं करुंगा। औरतों के मामले में हम मुद्दई हैं। तो अब मामला क्या है? यह जो आप देख रहे हैं कि अमरीका, ब्रिटेन और उनके कुछ एजेन्टों का सरकारी मीडिया अचानक ही औरतों के मामले में ख़ास मौक़े पर एक साथ हमला करते हैं और इसके लिए बहाना भी तलाश कर लेते हैं जैसे हिजाब और इस तरह की चीज़ों का बहाना बनाते हैं तो इसकी वजह क्या है? वह यह सब क्यों कर रहे हैं? क्या सच में यह लोग औरतों के हक़ और ईरानी औरतों के हक़ की हिमायत करते हैं? क्या यह वही लोग नहीं हैं जिनके अगर बस में हो तो हमारी क़ौम पर पानी भी बंद कर दें? क्या इनके दिल में ईरानी औरत के लिए हमदर्दी है? इन लोगों ने बच्चों की दवाओं पर जो ख़ास क़िस्म की बीमारियों के शिकार हैं, बच्चे हैं, पाबंदी लगा दी है, ईरानी क़ौम पर पाबंदी लगा दी। इन लोगों के दिल ईरानी औरतों के लिए जल रहे रहे हैं? क्या कोई इस बात पर यक़ीन कर सकता है?

तो फिर मामला क्या है? अस्ल बात यह है कि ईरान की इज़्ज़तदार और क़ाबिल औरतों ने वेस्टर्न कल्चर को बेहद गहरी चोट पहुंचायी है, इन्हें बहुत दुख है, यह काम औरतों ने किया है। इस्लामी जुम्हूरिया ने वेस्टर्न कल्चर को जो नुक़सान पहुंचाया है उसके साथ ही साथ, ईरान की औरतों ने भी ख़ास तौर पर वेस्ट के झूठे और खोखले दावों पर गहरी चोट लगायी है। किस तरह़? यह लोग बरसों से दो सौ बरसों से कहते आए हैं कि औरतें अगर अख़लाक़, दीन और इस तरह के उसूलों को न छोड़ें तो तरक़्क़ी नहीं कर सकतीं, पालिटिक्स, सोशल व साइंसी मैदानों में तरक़्क़ी नहीं कर सकतीं, वह यही कहते आए हैं। सियासत और समाज में औरतों की तरक़्क़ी की शर्त यह है कि वह अख़लाक़ी उसूलों को छोड़ दें।

ईरानी औरतों ने इस दावे को झूठा साबित कर दिया, ईरानी औरत सभी मैदानों में इस्लामी हिजाब के साथ सामने आयी है। यह बड़ी बड़ी बातें नहीं हैं, यह हमारे समाज की नज़र आने वाली सच्चाई है। हमारी यूनिवर्सिटियों में पचास फ़ीसद बल्कि उससे ज़्यादा लड़कियां होती हैं। हमारे मुल्क के अहम इदारों में जिनमें से कई को ख़ुद मैंने देखा है, वहां साइंटिस्ट औरतें रोल अदा कर रही हैं।  लिटरेचर, शेर व शायरी, नॉवेल, बॉयोग्राफ़ी के लेखन, इन सभी मैदानों में ईरानी औरतें आगे हैं। खेल-कूद के मैदानों में भी सच में कभी कभी तो इन लोगों की तारीफ़ के लिए लफ़्ज़ नहीं मिलते। हम देखते हैं कि ईरानी लड़की, खेल कूद में पहली पोज़ीशन पर खड़ी है, ईरान का नेशनल फ्लैग और एंथम, करोड़ों लोगों के सामने लहराया और बजाया जाता है और वह लड़की हिजाब में होती है, जो मर्द उसे आकर मैडल देता है उससे हाथ नहीं मिलाती यानी दीन के उसूलों का ख़्याल रखती है। यह कोई मामूली बात है?  सियासत के मैदान में मैं एक मिसाल देता हूं। सोवियत यूनियन के ज़माने में, दो मुल्कों के बीच पैग़ाम के लेन देन के एक अहम वाक़ये में (21) इमाम ख़ुमैनी ने जो तीन मेंबरों की टीम भेजी थी उसमें एक औरत थी। (22) एक ताक़तवर औरत अल्लाह उस पर अपनी रहमत नाज़िल करे। मुल्क के संचालन के मामले में पर्दे के साथ हमारे औरतों ने बेहतरीन काम किया है। साइंस, लिट्रेचर, मीडिया में बेहतरीन काम कर रही हैं। ईरानी औरतों ने अलग अलग मैदानों में अपनी भूमिका निभाई है और बहुत ऊपर तक गयी हैं। वह भी इस्लामी हिजाब के साथ, पर्दे का ख़्याल रखते हुए, यह बहुत अहम बात है। यह वेस्ट की दो तीन सौ बरसों से जारी एक कोशिश को बर्बाद करना है। तो ज़ाहिर सी बात है, यह उन्हें बर्दाश्त नहीं होगा, उन्हें ग़ुस्सा आएगा और कुछ करने के लिए हाथ पैर मारेंगे तो फिर उन्हें हिजाब का विषय मिल जाएगा या किसी और चीज़ को बहाना बनाएंगे और फिर प्रोपैगंडा शुरु कर देंगे। देखें शक पैदा करने की वजहें यह हैं और दुश्मन की तरफ़ से जो दिखावा किया जा रहा है वह भी आप सब को नज़र आ रहा है। बहरहाल यह सब अहम चीज़ें हैं। जैसा कि हमें रिपोर्ट मिली हैं, इस हफ़्ते जुमा की नमाज़ के बहुत से ख़ुत्बों में हिजाब की बात की गयी है, यही सब बातें जो सोशल मीडिया, कुछ अख़बारों वग़ैरा में हैं उसी के बारे में जुमा के ख़ुत्बों में भी बात की गयी, अच्छी बात है लेकिन इस सिलसिले में पूरे वेक़ार, अक़्ल व होश के साथ जज़बात से दूर रह कर बात करना चाहिए। जज़बात अच्छी चीज़ है, बुरी चीज़ नहीं है लेकिन जज़बात की अपनी जगह होती है। इस तरह के मौक़ों पर आप लोगों को चाहिए कि वेस्ट के साम्राज्यवादी तर्क और दलीलों को जो सारे फ़साद की जड़ हैं, सब के सामने लाएं, उसे खोल कर रख दें, उसे ठोस सुबूतों के साथ लोगों के सामने बयान करें। वेस्ट के लोग अपने बड़े बड़े सरकारी मीडिया हाउस की मदद से और उनके पिछलग्गू भी अपने बस पर कुछ न कुछ करते हैं तो कोई बात नहीं आप उनका मुक़ाबला न करें, उनके सामने न जाएं, आप अपना उसूल यह बनाएं कि सच्चाई लोगों के सामने रखना है। यक़ीनी तौर पर यह आम सिफ़ारिश है। यह जो मैंने कहा है कि वेक़ार और संजीदगी के साथ रवैया अपनाया जाए और ज़्यादती न की जाए वह दूसरे मामलों के लिए भी है, हो सकता है कि कोई बुराई हो जिसके बारे में किसी शहर का इमामे जुमा किसी भी वजह से बात करना चाहता है तो अच्छी बात है शहर के लोगों और उनके हालात और सोच के बारे में उनकी मालूमात की वजह से वह यह फ़ैसला करता है तो कोई बात नहीं लेकिन उस बारे में बात करने का अंदाज़ अच्छा और इमामे जुमा की शान के मुताबिक़ होना चाहिए यानी मज़बूती और वेक़ार के साथ हो।

बयान के जेहाद को संजीदगी से लीजिए, लोगों के दिमाग़ से शक दूर करने के काम पर संजीदगी से ध्यान दीजिए। शक जैसा कि मैंने कहा कि दीमक की तरह होता है, दुश्मन को सारी उम्मीद अब इसी दीमक से है। शक, वायरस है, इसी कोरोना वायरस की तरह कि जब घुस जाए तो फिर उसका निकलना मुश्किल होता है, संक्रामक बीमारी है, फैलती भी है। वह जो मैंने कहा कि कुछ लोग दुश्मन के तीर व तलवार के सामने डटे रहे लेकिन शक के सामने खड़े नहीं हो पाए तो इसमें दुनिया से मुहब्बत का भी हाथ रहा है, इसे भी नहीं भूलना चाहिए। दुनिया क्या है? हरेक की दुनिया अलग होती है। किसी की दुनिया दौलत होती है तो किसी की दुनिया ओहदा है, कोई अपनी यौन ख़्वाहिशात पूरी करना चाहता है तो यह अलग अलग लोगों की अलग अलग दुनिया है, सब दुनिया है। हो सकता है कि दुनिया से अपनी इस मुहब्बत की सही वजह भी बयान की जाए लेकिन बहरहाल यह दुनिया से मुहब्बत है और इन सब का असर होता है। इस बुनियाद पर हमने जुमा के ख़ुत्बे के बारे में कहा कि जुमे का ख़ुत्बा वह मौक़ा होना चाहिए जब इन्क़ेलाब के अहम व मज़बूत पैग़ामों पर रौशनी डाली जाए जैसे इन्साफ़। इन्साफ़ का मुद्दा बहुत अहम है, इस पर सोचें, काम करें और बात करें। इसी तरह आज़ादी, यानि अपना फ़ैसला ख़ुद करना यह भी बहुत अहम मुद्दा है। कमज़ोरों की मदद का मामला, इस्लामी दुनिया में इत्तेहाद व युनिटी का मामला यह सब अहम मुद्दे हैं। इन सब के बारे में बात करें और लोगों में सूझबूझ पैदा करें। यक़ीनी तौर पर जो बातें मैंने की हैं यह मुहर्रम में की जाने वाली तक़रीरों के बारे में भी हैं जो आ रहा है। यह सब इस तरह से होना चाहिए कि उसका असर जुमे की नमाज़ में नज़र आए। मतलब यह कि अगर आप ने जो काम किया है उसे कामयाबी से किया है तो उसका असर आप की जुमे की नमाज़ में नज़र आना चाहिए। अगर आप ने यह देखा कि आप के कामों का लोगों पर असर नहीं हुआ है तो फिर यह समझ लीजिए कि कहीं न कहीं कोई कमी है, उसे तलाश करें और फिर उसे दूर करें। अगर लोग ध्यान नहीं देते तो इसका यह मतलब नहीं निकाला जा सकता कि लोगों में दीन की तरफ से दिलचस्पी कम हुई है, अक़ीदा कमज़ोर हुआ है, जी नहीं। कुछ लोगों का यही कहना है! इनकी बातें सुन कर यही लगता है कि यह लोग बिना सोचे समझे बोल रहे हैं कि जनाब लोगों का दीन यह हो गया वह हो गया! उनका ईमान कमज़ोर हो गया! नहीं! बिल्कुल नहीं! कमज़ोर नहीं हुआ है। आप इसी जश्ने ग़दीर को देख लीजिए। अलग अलग शहरों में मुहर्रम और सफ़र के महीनों में होने वाली मजलिसों और अज़ादारी की भीड़ को देख लीजिए, यह लोग कौन हैं? इसी मुल्क के लोग हैं। मर्सिया, नौहे और मजलिस सुनने के लिए जमा होने वाली भीड़ को देखें। अरबईन मार्च को देखें, यह कौन लोग हैं? यह आम लोग ही तो हैं। लोगों का दीन, लोगों का ईमान और दीन में अक़ीदा कमज़ोर नहीं हुआ है, बल्कि और मज़बूत ही हुआ है। बस यह हो सकता है कि मेरी तक़रीर या मेरी नमाज़े जमाअत ऐसी हो कि जिसमें मोमिन लोगों को दिलचस्पी न हो। इसे दीन में उनकी दिलचस्पी कम होने का नतीजा नहीं कहा जा सकता।  कुछ लोग बस यही कहते हैं कि जनाब! लोग इस तरह के हो गये हैं, उस तरह के हो गये हैं! या यह कि उनका ईमान कमज़ोर हो गया है नहीं! कमज़ोर नहीं हुआ है! लोग इन्क़ेलाब से पहले से ज़्यादा, हम ने इन्क़ेलाब से पहले के हालात देखे हैं, आप लोगों में से अक्सर ने इन्क़ेलाब से पहले के हालात नहीं देखे हैं, बड़ी तादाद में जमा होते हैं और दीनी मदरसों की मदद पहले से कई गुना ज़्यादा करते हैं। इसी तरह दीन के सोशल कामों में भी ज़्यादा शिरकत करते हैं। आम लोग मैदान में डटे हैं हमें मैदान से बाहर नहीं निकलना चाहिए। 

परवरदिगार! तुझे मोहम्मद व आले मोहम्मद का वास्ता, हमने जो कहा और जो सुना उसे अपने लिए और अपनी राह में क़रार दे, हमें इख़लास दे और उसे क़ुबूल फ़रमा। परवरदिगार! हमें अपनी कही बातों पर अमल करने वाला बना, इमाम ख़ुमैनी रिज़वानुल्लाह तआला अलैह को जिन्होंने हमें इस राह पर लगाया और हमारे उन प्यारे शहीदों को जिन्होंने इस राह में जेहाद किया और अपनी ज़िंदगी का ख़ुदा से सौदा किया, उन सब का क़यामत के रोज़ इस्लाम के शुरुआती दौर के शहीदों और हिदायत के हमारे इमामों के साथ हिसाब किताब करना और हमें भी उनमें शामिल कर ले। 

वस्सलामो अलैकुम व रहमतुल्लाहे व बरकातुहू

1 इस मुलाक़ात के आग़ाज़ में हुज्जतुल इस्लाम मोहम्मद जवाद अली अकबरी (जुमे के इमामों की परिषद के प्रमुख) ने एक रिपोर्ट पेश की।

2 सूरे नहल की आयत 97 का एक भाग; (...तो हम उसे (दुनिया) में पाक ज़िन्दगी बसर कराएंगे)

3 अध्यात्म में यली अर्रब्बी कहते हैं; जिसमें इंसान के वजूद के आत्मिक व हक़ीक़ी पहलु तथा सभी आध्यात्मिक पहलु शामिल हैं।

4 सूरे जुमा की आयत 9 का एक भाग; हे ईमान लाने वालो अल्लाह के ज़िक्र (नमाज़े जुमा) की तरफ़ तेज़ चल कर जाओ

5 सूरे राद की आयत नंबर 28 का एक भाग; “याद रखो अल्लाह के ज़िक्र से ही दिलों को इत्मेनान नसीब होता है”

6 सूरे आले इमरान की आयत नंबर 103 का एक भाग; “और सब मिल कर अल्लाह की रस्सी को मज़बूती से थाम लो”

7 सूरे ज़ारयात की आयत नंबर 55 का एक हिस्सा; “यह याददेहानी ईमान वालों को फ़ायदा पहुंचाती है”

8 सूरे बक़रह की आयत नंबर 152 का एक भाग; “पस तुम मुझे याद रखो मैं तुम्हें याद रखुंगा”

 

9 सूरे अनफ़ाल की आयत नंबर 45 का एक भाग और सूर जुमा की आयत10 का एक भाग; “अल्लाह को बहुत याद करो ताकि तुम कामयाब हो जाओ”

10 साथी, मुलाज़िम

11 मिस्बाहुल मोतहज्जिद

12 दूर, हक़ीक़त से दूर

13 वसाएलुश शीआ, जिल्द 7, पेज 344

14 संपर्क

15 सूरे आले इमरान की आयत 102 का एक भाग

16 सूरे तग़ाबुन की आयत नंबर 16 का एक भगा

17 सूरे नाज़ेआत की आयत नंबर 40 का एक भाग; “अपने आपको इच्छाओं से रोका होगा”

18 तेहरान में वलीए अस्र स्ट्रीट पर ईदे ग़दीर पर अवाम के जश्न की ओर इशारा, जो 10 किलोमीटर रैली की शक्ल में वलीए अस्र स्ट्रीट से पार्क वे चौराहे तक आयोजित हुयी, जिसमें 30 लाख से ज़्यादा लोग मौजूद थे।

19) सूरए फ़त्ह आयत नंबर 4

20) सूरए इब्राहीम, आयत नंबर 24

21) इमाम ख़ुमैनी का तारीख़ी ख़त, सोवियत यूनियन के आख़िरी प्रेसीडेंट गोर्बाचोफ़ के हवाले किये जाने का वाक़ेआ।

22) मोहतरमा मरज़िया हदीदाची दब्बाग़